व्यक्ति शील में पुष्ट होता है, समाधि में पुष्ट होता है, प्रज्ञा में पुष्ट होता है उसे उन दिनों की भाषा में कहा गया - “अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो”। 'अरियो' माने आर्य, 'अट्ठङ्गिकोमग्गो' माने आठ अंग वाला मार्ग। आर्य अष्टांगिक मार्ग।
'आर्य' क्या होता है? 2500 वर्ष, बड़ा लंबा समय होता है। 2500 वर्षों में भाषा बदल जाती है, भाषा के शब्द बदल जाते हैं, शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। आज तो आर्य जातिवाचक शब्द हो गया। उन दिनों की भारत की भाषा में यह जातिवाचक नहीं, गुणवाचक शब्द था। किसे आर्य कहते थे? जो संत हो गया, निर्मल चित्त हो गया, शुद्ध चित्त हो गया, सज्जन हो गया, सत्पुरुष हो गया - ऐसा व्यक्ति आर्य कहलाता था। धर्म के रास्ते चलते-चलते शील में, समाधि में, प्रज्ञा में इतना पुष्ट हो गया कि चित्त नितांत निर्मल हुआ और जीवन धर्ममय हो गया। ऐसा व्यक्ति कोई बुरा काम कर ही नहीं सकता। ऐसा कोई काम कर ही नहीं सकता जिससे अन्य प्राणियों की सुख-शांति भंग हो, अन्य प्राणियों का अहित हो, अमंगल हो। ऐसा काम कर ही नहीं सकता। अब जो करेगा,अपने तथा औरों के भले के लिए ही करेगा। मंगल ही मंगल का काम करेगा,कल्याण ही कल्याण का काम करेगा। ऐसा व्यक्ति 'आर्य' कहलायगा।
आज इसे जातिवाचक रूप में लेते हैं और इसका अर्थ करते हैं तो आर्य उसे कहते हैं जो गोरे-चिट्टे रंग का हो, जिसका लंबा नाक हो, बड़ी-बड़ी आंखें हों, लंबा आदमी हो तो - यह आर्य जाति का है। कोई काले रंग का हो, घुघराले बाल हों, मोटे होठ हों तो कहैं - यह हब्शी जाति का है। किसी का रंग पीला हो, आंखें चुंधियायी-चुंधियायी, नाक चपटी हो तो कहें - यह मंगोलियन जाति का है। तो यह आर्य शब्द आज जातिवाचक हो गया। उन दिनों की भाषा में इससे कोई लेनदेन नहीं था। कोई गोरे रंग का हो कि काले रंग का,लंबी नाक का हो कि ओछी नाक का,बड़ी आंखों वाला हो कि छोटी आंखों वाला, कुछ फर्क नहीं पड़ता। जो व्यक्ति धर्म के रास्ते चलते-चलते शील, समाधि, प्रज्ञा में पुष्ट हो गया, निर्मल चित्त हो गया, संत हो गया वही आर्य हो गया।
और जो ऐसा नहीं हुआ, गलत रास्ते चल रहा है, धर्म के रास्ते नहीं चल रहा -अपना भी अमंगल करता है, औरों का भी अमंगल करता है - अरे, वह अनार्य ही है। भले उसका रंग गोरा हो, भले उसकी नाक लंबी हो, भले उसकी आंखें बड़ी हों - कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अनार्य ही है। उन दिनों की भाषा में कहा गया – “हीनो गम्मो पोथुज्जनिको अनरियो अनत्थसंहितो" - बड़ा हीन है, बड़ा गया-गुजरा है, बड़ा गँवार है, बड़ा पृथक जन है । पृथक पड़ गया - धर्म के राजमार्ग को छोड़ करके अंधी गलियों में भटक गया। पृथक हो गया धर्म से । 'अनत्थसंहितो' -अनर्थ ही अनर्थ संग्रह कर रहा है। अपने लिए भी अनर्थ ही अनर्थ, औरों के लिए भी अनर्थ ही अनर्थ - ऐसा व्यक्ति उन दिनों की भाषा में 'अनरियो' कहा गया। पिछले 2500 वर्षों में इस 'अनरियो' शब्द का अपभ्रंश होते-होते आज की हिंदी में यह अनाड़ी' हो गया।
अरे, अनाड़ी ही तो है भाई? जो अपना भी अमंगल करता है, औरों का भी अमंगल करता है। अपनी भी सुख-शांति भंग करता है औरों की भी सुख-शांति भंग करता है, बिचारे को समझ नहीं है, बड़ा नासमझ है तो अनाड़ी ही है। अनाड़ी न रहे, होश आ जाय, समझदार हो जाय तो धर्म के रास्ते चलते हुए अपना भी कल्याण साधने लगे, औरों का भी कल्याण साधने लगे। अपने लिए भी सुख-शांति का निर्माण करने लगे, औरों के लिए भी सुख-शांति का निर्माण करने लगे -तब आर्य बनने के रास्ते पर चल पड़ा। यह मार्ग जो हर अनार्य को आर्य बना दे - इसीलिए आर्यमार्ग कहलाया, आर्यधर्म कहलाया। यह आठ अंगों वाला है जो कि शील, समाधि, प्रज्ञा - इन तीन भागों में बँटा हुआ है। 'शील' के अंतर्गत इस आर्यमार्ग के तीन हिस्से आये - सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो।
'सम्मावाचा' याने सम्यक वचन । सम्यक माने जो सही है, सत्य है, कल्याणकारी है और जो स्वयं अपने अनुभव पर उतरा है। धर्म बहुत ही कल्याणकारी है, पर ऐसा पुस्तकें कहती हैं, हमारे गुरु महाराज कहते हैं या वाणी में सुना है, इस या उस पुस्तक में पढ़ा है, लेकिन जीवन में तो नहीं उतरा ना! तो सम्यक नहीं हुआ। वाणी सही है, स्वयं अपनी अनुभूति पर उतर रही है - सचमुच जीवन में उतर रही है, तभी वाणी सम्यक हुई।
क्या सम्यक वाणी? वह वाणी जिससे हम किसी भी अन्य व्यक्ति की हानि नहीं करेंगे। किसी अन्य व्यक्ति की सुख-शांति भंग नहीं करेंगे। एक ही मापदंड। धर्म का एक ही मापदंड। हम झूठ बोल कर किसी को ठगने का काम नहीं करेंगे। हम कोई कड़वी बात बोल करके किसी का मन दुखाने का काम नहीं करेंगे । परनिंदा की बात, चुगली की बात, लोगों को परस्पर लड़ा देने की बात कह करके हम किसी की हानि नहीं करेंगे। बस, इनसे बचे तो वाणी सम्यक ही सम्यक , शुद्ध ही शुद्ध। और फिर जांचता रहे कि ऐसी वाणी मेरे जीवन में उतर रही है ना! मैं सचमुच सम्मावाचा, सम्यक वाणी का पालन कर रहा हूं ना! तभी सम्यक ,अन्यथा