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Last Updated 01.03.2025 14:33

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प्र. २४५. ईश्वर की उपासना करने वाले आस्तिक व्यक्ति संसार में दुःखी दीन, हीन, निर्बल, निर्धन, पराधीन देखे जाते हैं, जबकि नास्तिक व्यक्ति सुखी, सम्पन्न, बलवान, स्वतंत्र देखे जाते हैं, ऐसा क्यों ?

उत्तर : ईश्वर की उपासना के साथ साथ आस्तिक व्यक्तियों को धन, बल, ज्ञान, स्वास्थ्य, सुरक्षा, स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए संकल्प, पुरुषार्थ, तपस्या भी करनी चाहिए, जो ऐसा नहीं करते हैं वे आस्तिक दुःखी होते हैं, अन्य नहीं ।

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सृष्टि रचाने वाले

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प्र. २४४. ईश्वर कर्मों का फल तत्काल क्यों नहीं देता ? बाद में देरी से देवे तो मनुष्यों के मन में कर्मफल के विषय में शंका/अनास्था/अश्रद्धा/अविश्वास उत्पन्न होते हैं ?

उत्तर : ईश्वर अपने नियमानुसार समय पर ही कर्मों का फल देता है, पूर्व नहीं, जैसे कि फल, फूल, अन्न आदि समय पर उत्पन्न होते हैं ।

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प्र. २४३. ईश्वर पापों को क्षमा करता है ? यदि नहीं तो क्यों ? क्षमा कर दे तो क्या हानि होगी ?

उत्तर : यदि ईश्वर मनुष्यों के पापों को क्षमा कर दे तो वह अन्यायकारी बन जाये, साथ ही संसार में पाप कर्म भी बढ़ जाये, इसलिए वह पापों को क्षमा नहीं करता है।

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प्र. २४२. ईश्वर को सर्वव्यापक बताया गया है तो कागज के जलने, कपड़े के फटने, रोटी के चबाने, लकड़ी के छीलने, लोहे के पीटने पर वह भी जलता, फटता, चबाया, छीलता, पीटा जाता होगा ?

उत्तर : नहीं, क्योंकि ईश्वर जलने, फटने, कटने वाली जड़ वस्तुओं से अलग है। उनके जलने, फटने, कटने पर भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि वह जड़ नहीं किन्तु चेतन है।

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ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है :-

देखो ! शरीर में किस प्रकार की ज्ञान पूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ो का जोड़ ,नाड़ियों का बंधन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत, फेफड़ा, पंखा, कला का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूल रचन, लोम नख आदि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रंथन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन , जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्त अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभाग करण, कला ,कौशल स्थापन आदि अद्भुत सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है ? इसके बिना नाना प्रकार के रत्न, धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार के वटवृक्ष आदि के बीजों में अति सूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूल निर्माण, मिष्ट ,क्षार, कटुक ,कषाय,तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगंधादि युक्त पत्र, पुष्प, फल ,अन्न, कंद , मूल आदि रचन, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल , सूर्य चंद्र आदि लोक निर्माण ,धारण, भ्रामण , नियमों में रखना आदि परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता।।
( महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी )

प्र. २४१. ईश्वर कोई वस्तु/दव्य/पदार्थ/चीज है ?

उत्तर : हाँ, ईश्वर एक द्रव्य है, पदार्थ है, वस्तु है क्योंकि उसमे अनेक गुण हैं और वह कर्म भी करता है। वैदिक सिद्धान्त में वस्तु उसको कहा जाता है जिसमें गुण, रहते हों।

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प्र. २४०. क्या कुछ ऐसे गुण भी हैं जो ईश्वर में न हों ?

उत्तर : हाँ हैं, जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, भार आदि ये गुण प्रकृति में हैं, किन्तु ईश्वर में नहीं हैं और जीव में भी नहीं हैं।

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प्र. २३९. ईश्वर को न्यायकारी तथा दयालु दोनों गुणों वाला बताया गया है जबकि ये दोनों गुण एक दूसरे के विरूद्ध हैं। यदि न्याय करे तो दण्ड मिले, यदि दया करे तो अन्यायी बन जाए ? इसका समाधान क्या है ?

उत्तर : न्याय तथा दया शब्दों में कोई विरोध नहीं है। बुरे व्यक्ति को दण्ड देकर ईश्वर न्यायकारी बनता है और बन्धन में डालकर भविष्य में पाप करन से रोकता है अतः दयालु भी है।

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