धर्मानुशासनम्-परंपरावाद 🌼🚩 @dharmanushasanam Channel on Telegram

धर्मानुशासनम्-परंपरावाद 🌼🚩

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श्रीशङ्कराचार्यो विजयतेतराम्!

हिन्दूराष्ट्र प्रकल्प अंतर्गत स्वस्थक्रान्ति को उद्भासित करने हेतु नभोमार्गीय प्रचार-प्रसार प्रकल्प।

एकमात्र उद्देश्य- हिन्दुराष्ट्र!
धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो!
हर हर महादेव!!
नारायण नारायण!! 🌸🚩

धर्मानुशासनम्-परंपरावाद (Hindi)

धर्मानुशासनम्-परंपरावाद नामक चैनल हिन्दूराष्ट्र प्रकल्प के अंतर्गत स्वस्थक्रान्ति को उद्भासित करने के लिए नभोमार्गीय प्रचार-प्रसार प्रकल्प है। इसका उद्देश्य है हिन्दुराष्ट्र की जय और अधर्म का नाश करना। यह चैनल हिन्दू धर्म के महान आचार्य, शंकराचार्य की विजय को साझा करता है। चैनल में हर हर महादेव के नारे के साथ हर तरह के धार्मिक ज्ञान और प्रेरणादायक संदेश साझा किए जाते हैं। अगर आपका उद्देश्य है धर्म को बढ़ावा देना और समाज को धार्मिक मार्ग पर चलाना, तो यह चैनल आपके लिए है। जुड़ें और धार्मिक ज्ञान का लाभ उठाएं।

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20 Nov, 16:51


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धर्मानुशासनम्-परंपरावाद 🌼🚩

18 Nov, 18:40


🔥 शिवलिङ्गोद्भव महामहोत्सव 🔥

यत्पुनः स्तम्भरूपेण स्वाविरासमहं पुरा।
स कालो मार्गशीर्षे तु स्यादार्द्राऋक्षमर्भकौ॥
आर्द्रायां मार्गशीर्षे तु यः पश्येन्मामुमासखम्।
मद्वेरमपि वा लिङ्गं स गुहादपि मे प्रियः॥
अलं दर्शनमात्रेण फल तस्मिन् दिने शुभे।
अभ्यर्चनं चेधिकं फलं वाचामगोचरम्॥

(श्रीशिवमहापुराण, विद्येश्वरसंहिता, अध्याय ९, श्लोक १४-१६)

हे वत्सो ! पहले मैं जब ज्योतिर्मय ज्वालामालासहस्राढ्य स्तम्भाकार शिवलिङ्गरूपसे प्रकट हुआ था, उस समय मार्गशीर्षमासमें आर्द्रा नक्षत्र था। अतः जो पुरुष मार्गशीर्षमासमें आर्द्रा नक्षत्र होनेपर मुझ उमापतिका दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिङ्गकी ही झाँकीका दर्शन करता है, वह मेरे लिये कार्तिकेयसे भी अधिक प्रिय है। उस शुभ दिन मेरे दर्शनमात्रसे पूरा फल प्राप्त होता है। यदि [दर्शनके साथ-साथ] मेरा पूजन भी किया जाय तो उसका अधिक फल प्राप्त होता है, जिसका वाणीद्वारा वर्णन नहीं हो सकता॥१५-१७॥

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यह नक्षत्र — मंगलवार (19-11-2024) को है।
मङ्गलवार को सम्पूर्ण दिवस।

विशेष- रुद्राभिषेक, शिवलिङ्गार्चन, पार्थिवेश्वरपूजन, शिवलिङ्ग दर्शन आदि करें।

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16 Nov, 16:02


जो लोग स्वयं को आवश्यकता से अधिक चतुर समझ बैठते हैं और शास्त्रीय मर्यादाओं एवं धार्मिक विधि-विधानों की आलोचना तो करते ही हैं साथ ही उनका अतिक्रमण भी करते हैं। ऐसे लोगों को आङ्गिरस् स्मृति के इन वचनों का मनन कर लेना चाहिए कि -- कलियुग में भी मनुष्य को अति अन्याय, अतिद्रोह, अतिक्रूरता, सामाजिक मर्यादाओं और सदाचार का अति उल्लंघन और शास्त्रीय विधानों का अति अनादर नहीं करना चाहिए और न किसी को करने देना चाहिए। अन्यथा वैसा करने वाला, करवाने वाला, वैसा करने की प्रेरणा देने वाला और उसमें नियोजित करने वाला तथा उसके सहायक सहित वे सभी पापी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं-
अत्यन्यायमतिद्रोहमतिक्रौर्यं कलावपि ।
अत्यक्रमं चात्यशास्त्रं न कुर्यान्नापि कारयेत् ।।
यदि कुर्वीत मोहेन सद्यो विलयमेष्यति ।
कर्ता कारयिता चापि प्रेरकश्च नियोजकः ।।१६
तत्सहायश्च सर्वे ते लयमेष्यन्ति सत्वरम् ।
आङ्गिरस स्मृति, पूर्वाङ्गिरसम् १८-१६ (स्मृतिसन्दर्भ भाग ५ पृ० २६५६) ।

👉 अशास्त्रविहित आचरण करने वाले अनाचारी और अधर्मी मनुष्य निश्चित रूप से आत्मपतन की दिशा में अग्रसर होते हैं। यह कहा गया है कि - अधर्माचरण में संलग्न और धर्ममार्ग से विचलित मनुष्य की आयु नष्ट हो जाती है, उसका अपयश फैलता है, उसका सौभाग्य क्षीण हो जाता है, उसकी दुर्गति होती है तथा उसके स्वर्गस्थ पितरों का भी पतन हो जाता है—
आयुर्विनश्यत्ययशो विवर्धते भाग्यं क्षयं यात्यति दुर्गतिं व्रजेत्।
स्वर्गाच्च्यवन्ते पितरः पुरातना धर्मव्यपेतस्य नरस्य निश्चितम् ।।
स्कन्द ३।३।१५।३५)
हरिभक्ताश्च निष्कामाः स्वधर्मनिरता द्विजाः ।
ते च यान्ति हरेर्लोकं क्रमाद्भक्तिबलादहो ।।
[श्रीमद्देवीभागवत ]
जो द्विज अपने धर्ममें संलग्न रहते हुए निष्काम भावसे भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करते हैं l वे उस भक्तिके प्रभावसे क्रमसे श्रीहरिके लोकको प्राप्त होते हैं॥

जय महादेव
प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें‼️

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12 Nov, 09:18


जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥

(श्रीमद्भागवतमहापुराण ०१।०१।०१)
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-
र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः॥

(श्रीमद्भागवतमहापुराण १२।१३।०१)

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11 Nov, 11:17


बौद्धप्रस्थानमें "
न सन् नासन् न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम्" -

यह चार कोटियोंमें निषेध मुखसे वस्तुका प्रतिपादन है, 'न भावो नाप्यभावः", "न नित्यो नाप्यनित्यः", "नोच्छेदो नापि शाश्वतः।" यह दो कोटियोंमें निषेध मुखसे वस्तुका प्रतिपादन है, "अद्वय" यह एक कोटिमें निषेध मुखसे वस्तुका प्रतिपादन है। परन्तु "नित्यो ध्रुवः शिवः " की उक्तिसे विधिमुखसे वस्तुका प्रतिपादन है। "जो अनित्य नहीं, वह नित्य है। जो अध्रुव नहीं, वह ध्रुव है। जो अशिव नहीं, वह शिव है।" की दृष्टिसे यह एक कोटिमें विधिमुखसे आत्मवस्तुका प्रतिपादन है। नित्यको केवल अनित्यका, ध्रुवको केवल अध्रुवका तथा शिवको केवल अशिवका प्रतिषेध मानें तो प्रतिपाद्यशून्य अभावात्मक असत् ही सिद्ध होगा। ऐसी स्थितिमें उसे चतुष्कोटि - विनिर्मुक्त कहना वाग्विलासमात्र सिद्ध होगा। बन्ध्या - पुत्र, शश - शृङ्ग, आकाश - कुसुममें बन्ध्या और पुत्र, शश तथा शृङ्ग, आकाश और कुसुम - दोनों शब्द भाववाचक हैं। तथापि बन्ध्यापुत्रादि अलीक पदार्थ हैं। विवाहिता बन्ध्यामें देहगत प्रतिबन्धकताके कारण सन्तानहीनता होती है। नरमें चतुष्पाद, पुच्छ, पक्ष तथा शृङ्ग चारोंसे विहीनता पुरुषार्थ चतुष्टयसाधकता है। वानरमें चतुष्पाद - पक्ष - शृङ्गः - विहीनता धर्म, अर्थ, काम साधकता है। कपोतादिमें द्विपाद, पुच्छ और पक्षसम्पन्नता अर्थ, कामसाधकता तथा नभचरता है। गवादिमें चतुष्पाद, पुच्छ तथा शृङ्गः - संम्पन्नता अर्थ, कामसाधकता तथा भूचरता है। आर्द्रपृथ्वीमें पुष्पकी उपादानता तथा जलकी निमित्तता सिद्ध है। पङ्किल जलमें तापापनोदक और सुगन्धित पुष्पकी प्रचुर निमित्तता सिद्ध है। तद्वत् पुष्पाभिव्यक्तिमें भूमि तथा बीजनिष्ठ उष्णता, प्राणदा तथा अवकाशप्रदता भी सन्निहित है, तथापि पुष्पकी भूमिकुसुम, जलकुसुम (जलज) ही संज्ञा है, न कि तेजः कुसुम, वायुकुसुम या आकाशकुसुम। इसका कारण पृथ्वी तथा जलकी प्रधानता या मुख्यता है।


वैदिकप्रस्थानमें "
नान्तः प्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानधनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्। अदृष्टमवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्य- मव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः " (माण्डूक्योपनिषत् ७) में "नान्तः प्रज्ञ "
आदि निषेध मुखसे आत्माका प्रतिपादन है। "शान्तं शिवम्" • यह विधिमुखसे आत्माका प्रतिपादन है।

"न सती, न असती, न सदसती" (सर्वसारोपनिषत् ४) के अनुसार माया न सती है, न असती, न उभयरूपा सदसती ही। परन्तु "ॐ तदाहुः किं तदासीत्तस्मै स होवाच न सन्नासन्न सदसदिति तस्मात्तमः सञ्जायते।" (सुबालोपनिषत् १), "...तमः परे देव एकीभवति परस्तान्न सन्नासन्नासदसदित्ये- तन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनम् "
से तमस् का लयस्थान और उद्धवस्थान परदेवस्वरूप ब्रह्म भी सत्, असत् तथा सदसत् से विलक्षण सिद्ध होता है। "
सविलासमूलाविद्या सर्वकार्योपाधिसमन्विता सदसद्विलक्षणानिर्वाच्या " (त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ३)
के अनुसार मूलाविद्यारूपा माया सत्, असत् से विलक्षणा अनिर्वाच्या है। वेदान्ती मायाको सदसद्विलक्षणा अनिर्वाच्या मानते हैं।

नासदूपा न सदूपा माया नैवोभयात्मिका।
अनिर्वाच्या ततो ज्ञेया मिथ्याभूता सनातनी।। (बृहन्नारदीय)

"माया न असत् है, न सत् ही, न उभयात्मिका ही, वह मिथ्या और सनातनी है। अतः अनिर्वाच्या ही समझने योग्य है।।"


यह लेख बौद्ध सिद्धांत और वेदांत से लिया गया है 🌼

श्रीवैदिक स्मार्त्त

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09 Nov, 06:18


गोपाष्टमी की महिमा ...✍️

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