अद्वैत-दर्शन राग-द्वेषको सर्वथा मिटाने और जीवन्मुक्तिका विलक्षण सुख देने वाला सम्यक सिद्धान्त है जिसका किसी से विरोध नहीं है।
'एनीबेसेण्ट' कहती थीं- 'ईसाई-धर्मका जो सार है और हिन्दू धर्मका जो सार है, वह बिलकुल एक ही है, इसलिए थियोसॉफिकल सोसायटीमें आ जाओ। उसने ईसाई धर्मका और हिन्दूधर्मका समन्वय कर दिया। लेकिन कहीं वैदिक पंडितोंने माना कि ईसाई धर्मके साथ हमारा समन्वय है ? क्या ईसाइयोंने माना कि हिन्दूधर्मके साथ हमारा समन्वय है-कि आओ, हमलोग होम करेंगे, देवताओं की पूजा करेंगे, यज्ञोपवीत पहनेंगे ! क्या हिन्दू मानने लग जायेंगे कि हम बपतिस्मा करायेंगे ? असलमें जो द्वैतवादी लोग हैं, उनमें परस्पर मेल होना, समन्वय होना बड़ा कठिन है, असम्भव है।
समन्वय कौन करता है ? समन्वय हम अद्वैती करते हैं। एक दिन दो जने परस्पर विवाद कर रहे थे। एक ने कहा--सामने जो है वह माला है । दूसरेने कहा-माला नहीं है, साँप है । दोनोंमें शर्त लग गयी। तीसरा आदमी सामने खड़ा हँस रहा था। पूछा-'अरे भाई, तुम हँस क्यों रहे हो ?' वह बोला-'हम तो जानते हैं कि 'न साँप है न माला है। वहां तो रस्सी है। तुम उसमें कल्पना कर रहे हो कि सांप है और तुम उसीमें कल्पना कर रहे हो कि माला है । वह न माला है न साँप है । वह तो रस्सी है।' जिसका रस्सीका ज्ञान है, उसको न मालापर शर्त लगानी है न सांपपर शर्त लगानी है । क्यों ? क्योंकि दोनोंका दर्शन मिथ्या है । 'तैरयं न विरुध्यन्ते'--माला कहनेवाला भी रस्सीका विरोध नहीं करता और साँप कहनेवाला भी रस्सीका विरोध नहीं करता; क्योंकि वे दोनों बेचारे तो रस्सीको जानते ही नहीं। वे तो अपनी-अपनी जानकारीको लेकर उड़ रहे हैं । अद्वैतका विरोध कोई नहीं करता। एक-दूसरेका विरोध तो करते हैं । रस्सी तो सांपमें भी है और मालामें भी है। रज्जुमें कल्पित सर्प और मालाका परस्पर विरोध भले ही हो, परन्तु रज्जुसे उनका कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दोनोंका अधिष्ठान एक ही रज्जु है। और असल में तो सर्प और मालाका भी विरोध वास्तविक नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों असत् हैं, दोनों भ्रान्तियाँ हैं।
जो सब नामों में सब रूपोंमें अनुगत है और सबसे व्यावृत्त, अलग है, जिसमें नामरूप केवल उपासनाकी दृष्टिसे कल्पित है, वह जो तत्त्व है, उसमें तो किसीका
विरोध ही नहीं है। अगर कोई अविरोधी सिद्धान्त है यह वेदान्त-सिद्धान्त ही है।
स्वसिद्धान्तव्यवस्थासु द्वतिनो निश्चिता दृढम् ।
परस्परं विरुद्धयन्ते तैरयं न विरुद्धयते ॥
-- माण्डूक्यकारिका-अद्वैत प्रकरण- १७।
-'द्वैतवादी अपने-अपने सिद्धान्तोंकी व्यवस्थामें दृढ़ आग्रही हैं । अतः वे आपसमें विरोध रखते हैं; परन्तु यह अद्वैत दर्शन उनका विरोध नहीं करता।'
कहते हैं कि 'द्वैतदर्शन मिथ्यादर्शन है' क्यों ? क्योंकि आपसमें राग-द्वेष करते हैं। राग, द्वेष, मद, मोह-ये दोष जिससे मिटे, वह सच्चा दर्शन और जिससे हृदयमें ये दोष बढ़ें, वह असत्य-दर्शन । माने, हमारी नजर इतनी गहराईमें पहुंचनी चाहिए कि जहाँसे हम शुद्ध वस्तुको लेकर निकलें और हृदय शुद्ध हो जाय । इसलिए मनुष्यको उस बातसे बचना चाहिए जिससे अपने हृदयमें राग-द्वेष आता हो।
द्वैतदर्शन राग-द्वेषदोषास्पद है। उसमें मद है, मान है। इसलिए वह परमेश्वर नहीं है। मद और मानमें सच्चा ज्ञान प्रकट नहीं होता। नशेमें ज्ञान कलुषित होता है। द्वैतीलोग क्या करते हैं ? एकने कहा कि नर्मदा नदी में से जो पाषाण निकलता है, वह ईश्वर है। दूसरेने कहा कि-'गण्डकी नदी में से जो पाषाण निकलता है, सो ईश्वर है।' गण्डकी, नर्मदा दोनों तो बह रही हैं। दोनों में से शालग्राम और लिंग निकलते जा रहे हैं । मनुष्य इन दोनोंको लेकर आपस में लड़ाई कर रहे हैं कि यह ईश्वर कि यह ईश्वर !
जो मूलतत्त्व है ईश्वर, वह शालि-ग्राममें भी है और नर्मदाशंकर में भी है। ईश्वर परमाणुमें भी है और ईश्वर प्रकृतिमें भी है। जो ईश्वरको देखता है, उसके लिए शालिग्राममें और नर्मदा-शंकरमें विरोध कहाँ है ? जो ईश्वर को देखता है, उसके लिए परमाणुमें और प्रकृति में विरोध कहाँ है ।
जो सब साधुओं की पूजा करता है, वैष्णवकी, उदासीनकी, संन्यासीकी, शैवकी, शाक्तकी, वह साधुत्वकी पूजा करता है । उसमें व्यक्तिकी पूजा कहाँ है ? साधुत्व तो वैष्णव, शैव, शाक्त, उदासी सबमें अनुगत है, एक है। उदासी कहे कि 'संन्यासीको मत मानो' और संन्यासी कहे कि 'उदासीको मत मानो' ? संन्यासी-उदासी कहे कि 'वैष्णवको मत मानो', वैष्णव कहे, 'उदासी-संन्यासीको मत मानो।' ये आपस में लड़ते हैं । लेकिन जो साधुमात्रका प्रेमी है, उसके लिए तो कपड़ा क्या लाल और क्या गेरुआ ! चन्दन खड़ा तो क्या और पड़ा हुआ तो क्या ?