@vaidic_bhajan
स्वदेशी आंदोलन राजीव दीक्षित जी Telegram Posts

💢इस चैनल का उद्देश्य : --
🌟 सभी भारतवासियों को महान क्रांतिकारी , देशभक्त राजीव दीक्षित जी के जीवन से परिचय कराना है और उनके विचारों को देशभर में पहुंचना है ।
🌟सभी भारतवासियों को स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करना है ।
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Last Updated 12.03.2025 18:09
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📜 🔱 शास्त्रों में वर्णित गोमूत्र चिकित्सा 🔱
---
### 🔆 श्लोक 1: चरक संहिता
📖 "गोमूत्रं त्रिदोषघ्नं, मेहकुष्ठविषापहम्।
दीपनं पाचनं रुच्यं, कफवातानिलापहम्॥"
🔹 अर्थ:
गोमूत्र त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) को संतुलित करता है। यह मधुमेह, कुष्ठरोग (त्वचा रोग), विष (टॉक्सिन) को नष्ट करता है। इसके सेवन से भूख बढ़ती है, पाचन मजबूत होता है और शरीर स्वस्थ रहता है।
---
### 🌸 श्लोक 2: सुश्रुत संहिता
📖 "गोमूत्रं गवां श्रेष्ठं, पानं सर्वरोगनाशनम्।
दीपनं पाचनं हृद्यं, रक्तदोषविनाशनम्॥"
🔹 अर्थ:
गोमूत्र सभी रोगों को नष्ट करने वाला है। यह अग्नि (पाचन शक्ति) को बढ़ाता है, हृदय के लिए हितकारी है और रक्त को शुद्ध करता है।
---
### 🕉 पंचगव्य का महत्व
🥛 गोमूत्र + गोबर + दूध + दही + घी = संपूर्ण औषधि
आयुर्वेद में पंचगव्य का सेवन शरीर को शुद्ध, रोगमुक्त और ऊर्जा से भरपूर बनाता है।
---
### ✅ गोमूत्र के प्रमुख लाभ:
💪 रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाए
🩸 रक्त शुद्ध करे, त्वचा रोग दूर करे
🔥 विषाणुओं एवं संक्रमण से बचाए
🌿 त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) संतुलित करे
🧠 मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति में सहायक
---
### ⚠️ सावधानियां:
❌ **केवल स्वस्थ एवं देशी भारतीय गाय का गोमूत्र ही सेवन करें।
** (जर्सी का नहीं )
❌ संक्रमित, बीमार या संकर नस्ल की गाय का मूत्र न पिएं।
❌ संतुलित मात्रा में सेवन करें, अधिक मात्रा में लेने से पेट संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।
❌ गर्भवती महिलाओं, गंभीर बीमारियों से ग्रसित व्यक्तियों को सेवन से पहले वैद्य से परामर्श लेना चाहिए।
❌ फ्रिज में रखे गोमूत्र का सेवन न करें, ताजा गोमूत्र सर्वोत्तम होता है।
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### 🔆 श्लोक 1: चरक संहिता
📖 "गोमूत्रं त्रिदोषघ्नं, मेहकुष्ठविषापहम्।
दीपनं पाचनं रुच्यं, कफवातानिलापहम्॥"
🔹 अर्थ:
गोमूत्र त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) को संतुलित करता है। यह मधुमेह, कुष्ठरोग (त्वचा रोग), विष (टॉक्सिन) को नष्ट करता है। इसके सेवन से भूख बढ़ती है, पाचन मजबूत होता है और शरीर स्वस्थ रहता है।
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### 🌸 श्लोक 2: सुश्रुत संहिता
📖 "गोमूत्रं गवां श्रेष्ठं, पानं सर्वरोगनाशनम्।
दीपनं पाचनं हृद्यं, रक्तदोषविनाशनम्॥"
🔹 अर्थ:
गोमूत्र सभी रोगों को नष्ट करने वाला है। यह अग्नि (पाचन शक्ति) को बढ़ाता है, हृदय के लिए हितकारी है और रक्त को शुद्ध करता है।
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### 🕉 पंचगव्य का महत्व
🥛 गोमूत्र + गोबर + दूध + दही + घी = संपूर्ण औषधि
आयुर्वेद में पंचगव्य का सेवन शरीर को शुद्ध, रोगमुक्त और ऊर्जा से भरपूर बनाता है।
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### ✅ गोमूत्र के प्रमुख लाभ:
💪 रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाए
🩸 रक्त शुद्ध करे, त्वचा रोग दूर करे
🔥 विषाणुओं एवं संक्रमण से बचाए
🌿 त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) संतुलित करे
🧠 मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति में सहायक
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### ⚠️ सावधानियां:
❌ **केवल स्वस्थ एवं देशी भारतीय गाय का गोमूत्र ही सेवन करें।
** (जर्सी का नहीं )
❌ संक्रमित, बीमार या संकर नस्ल की गाय का मूत्र न पिएं।
❌ संतुलित मात्रा में सेवन करें, अधिक मात्रा में लेने से पेट संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।
❌ गर्भवती महिलाओं, गंभीर बीमारियों से ग्रसित व्यक्तियों को सेवन से पहले वैद्य से परामर्श लेना चाहिए।
❌ फ्रिज में रखे गोमूत्र का सेवन न करें, ताजा गोमूत्र सर्वोत्तम होता है।
ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है :-
देखो ! शरीर में किस प्रकार की ज्ञान पूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ो का जोड़ ,नाड़ियों का बंधन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत, फेफड़ा, पंखा, कला का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूल रचन, लोम नख आदि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रंथन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन , जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्त अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभाग करण, कला ,कौशल स्थापन आदि अद्भुत सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है ? इसके बिना नाना प्रकार के रत्न, धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार के वटवृक्ष आदि के बीजों में अति सूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूल निर्माण, मिष्ट ,क्षार, कटुक ,कषाय,तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगंधादि युक्त पत्र, पुष्प, फल ,अन्न, कंद , मूल आदि रचन, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल , सूर्य चंद्र आदि लोक निर्माण ,धारण, भ्रामण , नियमों में रखना आदि परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता।।
( महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी )
देखो ! शरीर में किस प्रकार की ज्ञान पूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ो का जोड़ ,नाड़ियों का बंधन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत, फेफड़ा, पंखा, कला का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूल रचन, लोम नख आदि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रंथन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन , जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्त अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभाग करण, कला ,कौशल स्थापन आदि अद्भुत सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है ? इसके बिना नाना प्रकार के रत्न, धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार के वटवृक्ष आदि के बीजों में अति सूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूल निर्माण, मिष्ट ,क्षार, कटुक ,कषाय,तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगंधादि युक्त पत्र, पुष्प, फल ,अन्न, कंद , मूल आदि रचन, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल , सूर्य चंद्र आदि लोक निर्माण ,धारण, भ्रामण , नियमों में रखना आदि परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता।।
( महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी )
👉 हज़ारों सदियों पहले पच्छम जब अंधकार में गर्क था तो भारत के ऋषियों ने नाड़ी दोष ढूंढ लिया था और उसे गोत्र के रूप में विभाजित करके संसार को उत्तम ज्ञान दिया था, जिसे आज का आधुनिक चिकित्सा शास्त्र क्रोमोसोम थ्योरी कहता है, आईये बताएं कहां से नकल हुई ये क्रोमोसोम थ्योरी......
जानिए पुत्री को अपने पिता का गोत्र ,
क्यों नही प्राप्त होता ?
आइये वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
हम आप सब जानते हैं कि स्त्री में गुणसूत्र xx और पुरुष में xy गुणसूत्र होते हैं ।
इनकी सन्तति में माना कि पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र) अर्थात इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही है !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) यानी यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते हैं ।
१. xx गुणसूत्र
〰〰〰〰
xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री , अस्तु xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है ।
तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है ।
२. xy गुणसूत्र
〰〰〰〰
xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र , यानी पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में y गुणसूत्र है ही नही ।
और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल ५ % तक ही होता है । और ९५ % y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है ।
तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ । क्योंकि y गुणसूत्र के विषय में हमें निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों / लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।
वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र :
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
अब तक हम यह समझ चुके है कि वैदिक गोत्र प्रणाली y गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है ।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल हैं ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।
वैदिक / हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई बहन कहलाएंगे क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है ।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे , तो वे भाई बहन हो गये ?
इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है ।
आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी ।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा ,
पसंद , व्यवहार आदि में कोई नयापन
नहीं होता । ऐसे बच्चों में
रचनात्मकता का अभाव होता है ।
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता , अपंगता , गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं ।
शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था ।
इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके ,
इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है ,
आत्मज या आत्मजा का
सन्धिविच्छेद तो कीजिये ।
आत्म + ज अथवा आत्म + जा
आत्म = मैं , ज या जा = जन्मा या जन्मी , यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ ।
यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है । यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है ।
फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा , फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा , इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह प्रतिशत घटकर 1% रह जायेगा ।
अर्थात , एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है , और यही है सात जन्मों का साथ ।
लेकिन , जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% ( जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है ) डीएनए ग्रहण करता है , और यही क्रम अनवरत चलता रहता है ,
जानिए पुत्री को अपने पिता का गोत्र ,
क्यों नही प्राप्त होता ?
आइये वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
हम आप सब जानते हैं कि स्त्री में गुणसूत्र xx और पुरुष में xy गुणसूत्र होते हैं ।
इनकी सन्तति में माना कि पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र) अर्थात इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही है !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) यानी यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते हैं ।
१. xx गुणसूत्र
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xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री , अस्तु xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है ।
तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है ।
२. xy गुणसूत्र
〰〰〰〰
xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र , यानी पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में y गुणसूत्र है ही नही ।
और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल ५ % तक ही होता है । और ९५ % y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है ।
तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ । क्योंकि y गुणसूत्र के विषय में हमें निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों / लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।
वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र :
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अब तक हम यह समझ चुके है कि वैदिक गोत्र प्रणाली y गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है ।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल हैं ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।
वैदिक / हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व स्त्री भाई बहन कहलाएंगे क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है ।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही कि जिन स्त्री व पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे , तो वे भाई बहन हो गये ?
इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है ।
आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी ।
ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा ,
पसंद , व्यवहार आदि में कोई नयापन
नहीं होता । ऐसे बच्चों में
रचनात्मकता का अभाव होता है ।
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता , अपंगता , गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं ।
शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था ।
इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके ,
इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है ,
आत्मज या आत्मजा का
सन्धिविच्छेद तो कीजिये ।
आत्म + ज अथवा आत्म + जा
आत्म = मैं , ज या जा = जन्मा या जन्मी , यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ ।
यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है । यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है ।
फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा , फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा , इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह प्रतिशत घटकर 1% रह जायेगा ।
अर्थात , एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है , और यही है सात जन्मों का साथ ।
लेकिन , जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% ( जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है ) डीएनए ग्रहण करता है , और यही क्रम अनवरत चलता रहता है ,
जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं , अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है ।
इसीलिये , अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रध्येय भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं ,
और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है , और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है ।
एक बात और , माता पिता यदि
कन्यादान करते हैं , तो इसका यह
अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को
कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं ,
बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिये ,
उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये ।
डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही ,
इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है , गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है ।
तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी , वर्णसंकर नहीं करेगी ,
क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है । यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है ।
यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है ।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कारगत शुचिता किसी अन्य सभ्यता में दृश्य ही नहीं है, इसीलिए कहता हूँ
( अपना भारत वो महान भारत है , जिसके पीछे पीछे संसार चला है )
इसीलिये , अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रध्येय भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं ,
और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है , और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है ।
एक बात और , माता पिता यदि
कन्यादान करते हैं , तो इसका यह
अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को
कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं ,
बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिये ,
उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये ।
डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही ,
इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है , गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है ।
तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी , वर्णसंकर नहीं करेगी ,
क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है । यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है ।
यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है ।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कारगत शुचिता किसी अन्य सभ्यता में दृश्य ही नहीं है, इसीलिए कहता हूँ
( अपना भारत वो महान भारत है , जिसके पीछे पीछे संसार चला है )