प्रच्छन्न इतिहास (History) @aryavrata_history Channel on Telegram

प्रच्छन्न इतिहास (History)

@aryavrata_history


प्रच्छन्न इतिहास (History) (Hindi)

यदि आप इतिहास के प्रेमी हैं, तो 'प्रच्छन्न इतिहास' नामक टेलीग्राम चैनल आपके लिए एक सोने की खान हो सकता है। यह चैनल @aryavrata_history पर है और विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं, व्यक्तित्वों और समय-काल के बारे में जानकारी प्रदान करता है। इस चैनल पर आपको भारतीय इतिहास, विश्व इतिहास, संस्कृति, महान व्यक्तित्वों की कहानियां और अन्य रोमांचक जानकारी मिलेगी। यहाँ आप विभिन्न युद्ध, सम्राटों के शौर्य की कहानियां और ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में सुन सकते हैं। 'प्रच्छन्न इतिहास' टेलीग्राम चैनल आपको ऐतिहासिक ज्ञान से भरपूर करने के साथ-साथ आपको रोमांचित भी करेगा। इस चैनल की सदस्यता लेकर आप ऐतिहासिक जानकारी के साथ-साथ मनोरंजन भी प्राप्त करें। इस चैनल के माध्यम से आप अपने विचारों को साझा कर सकते हैं और अपनी ज्ञान साझा कर सकते हैं। इस चैनल को ज्वाइन करें और ऐतिहासिक दुनिया के सफर में साथ चलें!

प्रच्छन्न इतिहास (History)

26 Jan, 07:14


ये समाजी पहले तो आपके भगवानों को मनुष्य बताएंगे फिर उन्हें सामान्य से भी नीचे कर देंगे।

इसलिए कलयुगी कालनेमियो से सावधान।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

23 Jan, 08:54


नेताजी सुभाषचंद्र बोस की कलम से-

स्वामीजी पूर्ण विकसित पौरुष से संपन्न थे। उनके रग-रग में योद्धापन भरा था‌। इसीलिए वे शक्ति के उपासक थे और इसी कारण उन्होंने अपने देशवासियों का उत्थान करने हेतु वेदांत की एक नवीन व्यवहारिक व्याख्या दी। "उपनिषद-- शक्ति, शक्ति और शक्ति का उपदेश देते हैं‌।"यही बात स्वामी जी बारंबार कहते थे। चरित्र-गठन को वे सर्वाधिक महत्व दे गए हैं। वे विश्व के प्रथम ऐसे सर्वोच्च कोटि के योगी थे जिन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार करने के बाद भी स्वदेश तथा मानवता के नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए अपना संपूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। यदि मैं भूल नहीं करता
तो आधुनिक भारत उन्हीं की सृष्टि है।

श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद के प्रति मैं कितना ऋणी हूं यह शब्दों में लिखकर भला मैं कैसे व्यक्त कर सकता हूं। उन्हीं के पुण्य प्रभाव से मेरे जीवन में चेतना का प्रथम प्रादुर्भाव हुआ था। निवेदिता के समान ही मेरा भी विश्वास है कि रामकृष्ण और विवेकानंद एक ही अखंड व्यक्तित्व के दो रूप हैं। आज यदि स्वामीजी जीवित होते, तो निश्चय ही वे मेरे गुरु होते--अर्थात मैंने अवश्य ही उनका गुरु के रूप में वरण कर लिया होता। अस्तु । कहना न होगा कि मैं जब तक जीवित रहूंगा 'रामकृष्ण-विवेकानंद' का अनन्य अनुगत तथा अनुरागी बना रहूंगा।

स्वामीजी का यथार्थ मूल्यांकन करने के लिए उन्हें परमहंस देव के साथ मिलाकर देखना होगा। वर्तमान स्वाधीनता आंदोलन की नींव स्वामीजी की वाणी पर ही आश्रित है। भारतवर्ष को यदि स्वाधीन होना है तो उसमें हिंदुत्व या इस्लाम का प्रभुत्व होने से काम न होगा-- उसे राष्ट्रीयता के आदर्श से अनुप्राणित कर विभिन्न संप्रदायों का सम्मिलित निवास-स्थान बनाना होगा। रामकृष्ण-विवेकानंद का 'धर्म- समन्वय' का संदेश भारतवासियों को संपूर्ण ह्रदय के साथ अपनाना होगा।....

सुभाषचंद्र बोस (1897- 1945)
प्रस्तुतिकर्ता Suresh Kumar Chandrakerजी

प्रच्छन्न इतिहास (History)

20 Jan, 02:22


ये मेरा मित्र है जिसको अस्थमा की समस्या थी पिछले 14 वर्षों से। डॉक्टर ने कहा था कि जीवन भर दवाई लेनी पड़ेगी।
लेकिन फिर मेने इसे आयुर्वेदाचार्य जी के नम्बर दिए और उनसे उपचार करवाने के बाद स्वयं ये लिख कर भेजा था।

अगर किसी को अस्थमे की समस्या हो तो वो भी अपना उपचार करवा सकता है।
आँखों पर चश्मा हो तो वो भी उतर जाएगा आई ड्राप से।

अरविंद पांचाल जी
9825586115

फोन पर बात करने का समय -
सुबह - 10 से 12
दोपहर - 2 से 5
रविवार की छुट्टी रहती है।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

16 Jan, 13:01


समाजी तेरे अङ्गना में श्रीफल का क्या काम?

प्रच्छन्न इतिहास (History)

13 Jan, 14:44


लाखों लोगों ने किया कुम्भ स्नान❤️

और कुछ असमाजी लोग पाखण्ड पाखण्ड कह कर अपनी चूड़ियां तोड़ कर विलाप कर रहे होंगे।😂

प्रच्छन्न इतिहास (History)

07 Jan, 07:08


क्या रात्रि में विवाह अनुचित है?

कुतर्क - वेद मंत्र रात को नहीं पढ़ते हैं।
निराकरण - वेद का स्वाध्याय निषिद्ध है, मंत्र प्रयोग नहीं।

कुतर्क - मुगलों के डर से रात में विवाह शुरू हुआ।
निराकरण - मुगल रात में हमला न करने की कसम खाए थे क्या?

कुतर्क - शिव जी का भी विवाह रात में नहीं हुआ था।
समाधान - शिव जी के विवाह में भी ध्रुव तारा दर्शन के बाद ही सिंदूर दान आदि हुआ जो दिन में संभव नहीं।

निष्कर्ष - दिन में विवाह का निषेध प्राप्त तो नहीं होता है लेकिन ध्रुवदर्शन , अरुंधतीदर्शन और सप्तऋषि तारामंडल दर्शन जैसे कार्य रात्रि में ही संभव होने के कारण रात्रि विवाह ही अधिक उपयुक्त है।

अत्रि स्मृति में ग्रहण, संक्रान्ति विवाह और प्रसव के समय नैमित्तिक दान को रात्रि में भी श्रेष्ठ बताए जाने के क्रम में विवाह की उपस्थिति इसे रात्रिकाल में होना सिद्ध करती है।

E-समिधा
JOIN - @esamidha

प्रच्छन्न इतिहास (History)

30 Nov, 15:36


आry समाज द्वारा समाज को सबसे तड़कता- भड़कता योगदान (अभिशाप) को साउथ के कॉमेडी बनाने वाले भी जान चुके हैं।😁

प्रच्छन्न इतिहास (History)

24 Nov, 06:07


आर्यसमाजियों और  इस्लामिक मतानुयायियों के मान्य राष्ट्रवाद की  धर्मशास्त्रीय समीक्षा ---

आर्यसमाजियों, इस्लामिक मतवादियों और सनातनी हिन्दुओं में अनेक स्थलों  पर  सैद्धान्तिक मतभेद सर्वविदित है , इसी प्रकार का मतभेद राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में भी है ।

एक महाशय (आर्यसमाजी चिन्तक)    का कहना था कि भले ही आप   पौराणिक सनातनी लोग हम आर्यसमाजियों  से अनेक विषयों में मतभेद रखें पर  हमारी राष्ट्रभक्ति  से असहमत  नहीं हो सकते ।  ऐसे ही आजकल के कुछ नवचिन्तक मानते हैं कि  राष्ट्रवादी इस्लामिक मतानुयायियों  की राष्ट्रभक्ति  सनातनियों के लिये  पूर्णतः आदरणीय है इत्यादि, किन्तु यथार्थता तो यही है कि आर्यसमाजियों और तथाकथित मुसलमानों का राष्ट्रवाद   वस्तुतः  अविचारितरमणीय ही  है।   वस्तुतः तो  सैद्धान्तिक दृष्टि से  ये लोग  आवासवादी ही  हैं , अर्थात् जहॉ इनका आवास है, उसी की ये रक्षा चाहते हैं । उक्त जन्मना आवासवाद के सिद्धान्त पर विचार करें तो  यदि यह सउदी अरब में जन्मे होते तो  वहॉ अपनी रक्षा के लिये सउदी अरब की ही जयकार करते ,  जबकि जो वैदिक सनातनी हिन्दू हैं , वे चाहे विश्व के किसी भी देश में जन्म ले लें , अथवा रहने को मजबूर कर दिये जायें, परन्तु वह सर्वप्रथम  भारत की रक्षा को ही सर्वोपरि मानते हैं। इसका कारण क्या है ? कारण है मान्य शास्त्रीय  सिद्धान्त । वह कैसे , आगे देखें -

जिनके सिद्धान्त में  केवल और केवल  भारत को ही कर्मभूमि माना  गया है , उसके लिये भारत से बाहर क्या गति होगी जो विष्णुपुराण को  अपने धर्मग्रन्थ के रूप में प्रमाण मानते हैं , वह  भारत के विषय में कर्मभूमि भोगभूमि का सिद्धान्त मानते हैं ।  अतः वे चाहे विश्व में कहीं भी रहें , उनका कर्मफल पुनर्जन्म का उनका सिद्धान्त  और कर्मभूमि भोगभूमि का सिद्धान्त उनको भारत के समकक्ष किसी के नहीं समझने देता । उनके लिये तो भारत ही पहली और अन्तिम गति है । किन्तु कथित राष्ट्रवादी मुसलमानों के मान्य कुरआन शरीफ में  यह सैद्धान्तिक  स्थिति है क्या

इसी प्रकार आर्यसमाजियों के मान्य सिद्धान्त में भी जो तिब्बत की धरती से प्रकट होने वाले आर्यसमाजियों के लिये मनु के आर्यावर्त्त  की मान्यता है, उसके मूल में  कर्मभूमि और भोगभूमि का कोई पार्थक्य न होने से अमेरिका की धरती और भारत की धरती में कोई  अन्तर नहीं है ।   गंगा  यमुना सरस्वती आदि का यह  वेद में वर्णन ही नहीं मानते , वह केवल एक जलस्रोतमात्र  इनके सिद्धान्त में है ।  यह भारत में इसीलिये रहते हैं क्योंकि इनके पूर्वज  यहॉ रहते आये हैं , परन्तु इनके वे पूर्वज  यहॉ भारत में क्यों रहे ? किस कारण से भारत में  रहे ? इस पर विचार अपेक्षित है , क्योंकि मूल में यदि भौतिक सुविधा जैसा हेतु होगा , तो वह भौतिक सुविधा जिस देश में इनको मिलना सम्भव होगा , वही सैद्धान्तिक धरातल पर इनका नवीन राष्ट्र  सिद्ध होने लगेगा । वस्तुतः तो सत्यार्थप्रकाशादि के आधार पर   जैसा आर्यसमाजियों का राष्ट्रवाद है, आर्यसमाजी अगर अमेरिका में रहेंगे तो एक पीढी के बाद ही उसको भी अपना राष्ट्र मानने लगेंगे क्योंकि / पूर्वजों की आवासभूमि/ के इनके सिद्धान्तानुरूप अपने  पूर्वजों को  वहॉ भी रहते हुए  ये पा लिये । जिस संहिताभागमात्र को यह अपने लिये सर्वोच्चप्रमाणत्वेन  वेद मानते हैं,  उसमें इतिहास का लवलेश भी इनके मत में कहीं नहीं है ।   इस प्रकार सैद्धान्तिक धरातल पर इनका राष्ट्रवादी भाव व्यभिचरित सिद्ध हो जाता है ।

आज आवश्यकता यह है कि यह लोग  'सनातनी हिन्दू राष्ट्रवाद'  को अपनाऐं, जिससे  सैद्धान्तिक धरातल पर यह  सनातनी हिन्दुओं की ही भांति  शुद्ध , पवित्र राष्ट्रवादी सिद्ध हो सकें ।  

सन्मार्ग
🌼🌼🌼🌼🌼

प्रच्छन्न इतिहास (History)

22 Nov, 14:46


जय माँ
जय कालभैरव
जय गुरुदेव 🙏

प्रच्छन्न इतिहास (History)

15 Nov, 11:01


नमश्चण्डिकायै

यह मोहित गौड़ के उस शोधपत्र के विषय में है जिसमें उन्होंने गुणन पर प्रश्न किये हैं एवं 0 की नवीन परिभाषा दी है।

लेख मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया था, हिंदी google translate के माध्यम से की गयी है। अतः मैं अंग्रेजी वाला ही पढ़ना recommend करूँगा।

मेरा निष्कर्ष: शोधकर्ता ने उच्च गणित को समझे बिना ही यह शोध की है।

आगामी चर्चा Telegram पर
:- E samidha समूह (VC), @vediceraperson (chat, सीमित), लेख

चर्चा academic होगी।

मूल लेख: https://medium.com/@smadhurkant/91fcf7050a42

हिंदी भाषांतर: https://amadhurkant.blogspot.com/2024/11/Mohit-gaur-research-review.html

धन्यवाद
मनु

प्रच्छन्न इतिहास (History)

12 Nov, 05:36


सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द सरस्वती कहते है कि मूर्ति पूजा करने वाले देश का नाश करते है और मूर्तिपूजा करने वाली की आत्मा भी जड़ बुद्धि हो जाती है।

- ललितादित्य मुक्तापीड
- राजा भोज
- राजा विक्रमादित्य
- पृथ्वीराज चौहान
- राजा कृष्णदेव राय
- महाराणा प्रताप
- समर्थ गुरु रामदास जी
- छत्रपति शिवाजी महाराज

ये सभी मूर्तिपूजक थे
क्या इनकीं आत्मा जड़ हो गयी थी?
क्या इन्होंने देश का नाश किया था?
क्या आपके माता पिता इस देश का नाश कर रहे है?

सोचिए और ऐसी संस्थाओं से सावधान हो जाइए।

JOIN - @ESAMIDHA

प्रच्छन्न इतिहास (History)

10 Nov, 12:21


वर्णव्यवस्था की डिबेट में जब हर तरफ से आर्य समाजी घिर जाते है या निउत्तर हो जाते है तो उन को उन्ही पुराणों का सहारा लेना पड़ता है जिनको दिन भर बैठ कर गरियाते रहते है।

जन्मना जायते शूद्र: जो स्कंद पुराण का श्लोक है वो कुछ समय के लिए इनके लिए ऋषि वाक्य हो जाता है।

इन दोगले लोगो से अछूत की बीमारी की तरह दूर रहे।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

04 Nov, 03:35


प्रत्येक मूर्ख सैद्धांतिक स्तर पर हारने के बाद व्यक्तिगत हमला करता है।
विधर्मी तो ये कार्य करते ही है।
खच्चर समाजी को भी ऐसा करते देखा है।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

02 Nov, 12:35


गाय न हो तो गोपाल न हो,
गोपाल न हो तो गोपी न हो,
गोपी न हो तो दूध, मलाई, मक्खन, घी न हो,
घी न हो तो अन्न को पहाड़ यानी अन्नकूट न हो,

अन्नकूट न हो तो गो वर्धन पूजन कैसे हो ?

'गोवर्धन' एक पर्वत नहीं अपितु पर्वताकार यानी विशाल, उच्च सिद्धान्त है - जो गो के वर्धन हेतु उपाय करे और उस उपाय रूपी पर्वत की परिक्रमा तब तक करे जब तक सफलता न मिले,परिक्रमा यानी गोल-गोल घूमना तो चक्र में भी है, और चक्रवृद्धि ब्याज में भी !

यह एक ब्यौपार है - गोल-गोल घूम कर रास रचइया ने सब बतइया है !

हे अन्नपूर्णे ! तू सदापूर्ण हो, शंकर की प्राणपूर्ण हो ...
आपकी शरण में ज्ञान भक्ति वैराग्य की भिक्षा भी पूर्ण हो !!

___
गोवर्धन पूजन और अन्नकूट की बधाई !!

साभार - सोमदत्त द्विवेदी जी

प्रच्छन्न इतिहास (History)

02 Nov, 12:35


अपनी परंपराओं को जीवित रखिये।
विधर्मी और समाजी पूरा जोर लगा कर हमारी संस्कृति को मिटाने के प्रयास पर लगे है।
लेकिन.....

लाख मिटाये जमाना मेरे वजूद को
मिट गये जमाने कितने
मैं मिटता यूँ नहीं!

माथे पे लिखा के लाया हूँ तकदीर
पत्थर की लकीर
मैं मिटता यूँ नहीं!

कैसे मिटाओगे मुझे,मैं तुम में रहूँगा
तुम्हारी जुबाँ से हर बात कहूँगा
शब्द हूँ
आकाश हूँ
हर शय में रहूँगा
जितना मिटाओगे मुझे
उतना बढ़ूँगा

जब कुछ न रहेगा
बस मैं ही रहूँगा
मैं ही था
मैं ही हूँ
मैं ही रहूँगा

चित्र - मेरे द्वारा बनाए गए गोवर्धन जी ( कमी मत निकालना)🙂

प्रच्छन्न इतिहास (History)

27 Oct, 09:40


दीवाली 31 को है
नही 1 को है

ले आर्य समाजी - अरे आर्य जी दीवाली 2 अक्टूबर को थी।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

26 Oct, 06:42


नमश्चण्डिकायै

दीपावली निर्णय

धनत्रयोदशी (धनतेरस) - 29 अक्टूबर
नरक चतुर्दशी / रूप चतुर्दशी - 30 अक्टूबर
दीपावली - 31 अक्टूबर
गोवर्धन पूजा - 2 नवम्बर
भ्रातृद्वितीया(भाईदूज) - 3 नवम्बर

अब किसी भ्रम में ना रहे।
हर हर महादेव

JOIN » @Esamidha

प्रच्छन्न इतिहास (History)

20 Oct, 13:59


💯💯💯

प्रच्छन्न इतिहास (History)

20 Oct, 13:45


बचपन में लोमड़ी की कहानी पढ़ी होगी कि लोमड़ी ने अंगूर देखे और काफी प्रयास के बाद जब अंगूर नही खा पाया तो कह दिया कि अंगूर खट्टे है।
वेसे ही हाल समाजियो के रहते है।

वैसे भी करवाचौथ भारतीय नारी की पवित्र भावनाओं का प्रतीक है !
ऐसा सब लिख कर ये अपनी संस्कारहीनता तथा विकृत मानसिकता का प्रमाण दें रहें है।

किसी ने कहा था कि -
करवा चौथ कुलवधुओं का पर्व है,
नगरवधुओं का नहीं

- साभार

प्रच्छन्न इतिहास (History)

19 Oct, 13:48


मन्दिर में प्रवेश का अधिकार :--

कई प्रकार के मन्दिर होते हैं, मैंने दलितों के भी मन्दिर देखे है जिनमें उनके विशिष्ट देवता होते हैं, कई मन्दिरों में महिला ही पुजारिने होती हैं, कई समुदायों में महिलाओं से ही गुरुमन्त्र लेने की भी परम्परा है किन्तु कभी पुरुषों ने भेदभाव की शिकायत नहीं की | हर किसी को उसके सम्प्रदाय के अनुसार पूजा-पाठ करने की छूट है | दलित के नाम पर नक्सल कम्युनिस्ट या महिला के नाम पर तृप्ति देसाई जैसी कांग्रेसी नास्तिक मन्दिर में प्रवेश का जो नाटक खेलते हैं उसका परिणाम यही होगा कि नास्तिकों के कारण सारे मन्दिर भ्रष्ट कर दिए जायेंगे , शराब और गोमाँस के आदी लोग मन्दिरों में जायेंगे तो पवित्रता नहीं रहेगी और प्राण प्रतिष्ठित प्रतिमाओं में भी देवता नहीं रहेंगे |
जिनके मन में भक्ति हैं उन्हें अपने घर में मूर्ति स्थापित करने या मोहल्ले में सामूहिक मन्दिर बनाने से कौन रोकता है ? तृप्ति देसाई ने मुंबई में कैसे अश्लील आन्दोलन किये थे वे लोग भूलते क्यों हैं ? किन्तु मीडिया उन बातों को नहीं दिखायेगी, इन्टरनेट पर ढूँढे  | ऐसे लोगों को ईश्वर में ही आस्था नहीं है | तथाकथित दलितों के मन्दिर प्रवेश का नाटक करने वालों से पूछिए कि दलित "महापुरुषों" में से केवल नास्तिकों ने ही यह मुद्दा क्यों उठाया , दलित साधुओं ने कभी भी क्यों नहीं उठाया ?? एक से बढ़कर एक दलित साधु हो चुके हैं जिन्हें सवर्ण लोग भी पूजनीय मानते हैं, उन्होंने यह मुद्दा इसलिए नहीं उठाया चूँकि वे जानते थे कि सभी सम्प्रदायों को अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार जीने की छूट का नाम ही सनातन धर्म है | अपना मत दूसरों पर थोपने का नाम धर्म नहीं है |
दलित जातियों की उत्पत्ति और जातिगत छूआछूत का स्रोत हिन्दूधर्म ग्रन्थ नहीं, बल्कि मुस्लिम युग के दौरान हिन्दू दासों से कराये गए गन्दे कार्य हैं | इस्लाम कहने के लिए समानता का सम्प्रदाय है, दासप्रथा और नारी-शोषण का इतना घिनौना स्वरूप अन्य किसी सम्प्रदाय के इतिहास में नहीं मिलेगा, उसमें भी अछूत जातियाँ होती हैं जिन्हें मस्जिदों में घुसने से रोका जाता है, जैसे कि हलालखोर, मेस्तर, आदि , किन्तु कभी भी मीडिया और सेक्युलरों द्वारा यह मुद्दा नहीं उठाया जाता, यद्यपि मस्जिद में अल्लाह की मूर्ति नहीं होती और इस्लाम की मान्यता है कि अल्लाह मस्जिद के भीतर और बाहर एक समान रूप से रहते हैं, मस्जिद तो केवल इबादत की सुविधा के लिए बनाया स्थान है जिसे आवश्यकता पड़ने पर तोड़ा भी जा सकता है | फिर भी मस्जिद अपवित्र हो जाएगा !
गीता में आदेश है कि भगवान की प्राप्ति का अवसर ब्राह्मण से चाण्डाल तक हर किसी को समान रूप से है, किसी को रोका नहीं जा सकता | किन्तु दूसरों की परम्पराओं  पर आक्रमण करना आस्तिकता नहीं, नास्तिकता है | जिन मन्दिरों की स्थापना ही सभी के प्रवेश के लिए हुई है उसमें प्रवेश करें, जिन मन्दिरों को केवल दलितों के लिए बनाया गया है उसमें सवर्ण क्यों जाएँ (जैसे कि सलहेस  /  शैलेश के मन्दिर)?
वैसे हर मन्दिर में हर कोई घुसे उससे मुझे कोई व्यक्तिगत क्षति नहीं है क्योंकि मैं मूर्तिपूजा नहीं करता, यद्यपि मैं मूर्तिपूजा का विरोधी भी नहीं हूँ और जानता हूँ कि जिन मूर्तियों की विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा की गयी है और विधिवत पूजनादि एवं पवित्रता की रक्षा की गयी है उनमें देवत्व है | वैसे तो देवता सर्वव्यापी होते हैं, किन्तु जो अमूर्त का ध्यान नहीं कर सकते उनके लिए मूर्ति का विशेष महत्त्व है |
सबसे अच्छा हल तो स्वामी करपात्री जी ने निकाला -- हर जाति को सार्वजनिक मन्दिर में प्रवेश मिले और केवल पुजारी ही प्रतिमा का स्पर्श कर सके | सवर्णों में भी कौन वास्तव में पवित्र है यह कौन बताएगा ?

साभार - श्री विनय झा जी

प्रच्छन्न इतिहास (History)

15 Oct, 15:17


समाजी अद्वैत समझते नही है चल देते है अद्वैत का खंडन करने।

समाजी कहता है की देखो आदिशंकर ने ब्रह्म को निराकार बोला है। अब मुझे समझ ही नही आता इसमे नई बात क्या है सभी अद्वैत आचार्य ब्रह्म को निराकार ही मानते है। अद्वैत मे ब्रह्म तो अकर्ता है। साकार होना दूर की बात है। निरोपाधिक ब्रह्म निराकार ही है और वह कभी साकार नही होता है। अद्वैत मे माया उपाधि से ब्रह्म का साकार रूप कल्पित है, इससे ब्रह्म साकार नही होता। जैसे आकाश मे सूर्य एक ही होता है परंतु अनेक जल भरे हुए घड़े मे अनेक सूर्य दिखाई देता है। वैसे ही अकर्ता ब्रह्म माया उपाधि से जगत आदि प्रपंच को रचता है।

समाजी आधा भाष्य पढ़ते है इसलिए मूर्खता कर बैठते है।
आदि शंकर से प्रश्न पूछा - परन्तु साकार ब्रह्म का उपदेश करनेवाली और निराकार ब्रह्म का उपदेश करनेवाली श्रुतियों के रहते निराकार ब्रह्मका अवधारण किस प्रकार किया जाता है, साकार ब्रह्म का अवधारण क्यों नहीं किया जाता ? ऐसी शंका होनेपर सूत्रकार उत्तर सूत्र पढ़ते हैं-

सिद्धांत पक्ष - रूपादि आकार से रहित ही ब्रह्म है, ऐसा अवधारण करना चाहिए, ब्रह्म रूपादियुक्त है, ऐसा अवधारण नहीं करना चाहिए। किससे ? इससे कि श्रुति- वाक्यों में निराकार ब्रह्म ही प्रधानरूप से वर्णित है।(३.२.१३/३.२.१४)

आदिशंकर द्वारा ऐसा कहने पर पूर्व पक्ष मे फिर से प्रश्न उठाया

प्रश्न - यदि ब्रह्म निराकार है फिर तो साकार ब्रह्म को सिद्ध करने वाली श्रुति व्यर्थ हो जायेगी। इस पर कहते है -

सिद्धांत पक्ष - सूर्य आदि का प्रकाश बास आदि वक्र, ऋजु उपाधि को प्राप्त कर वक्राकार-सा और ऋजु आकार-सा होता है, इसी प्रकार ब्रह्म भी तत्तत् पृथिवी आदि उपाधि प्राप्त करके पृथ्व्यादि आकार हो जाता है, अतः उपासना प्रकरण में पठित श्रुतियां उसी सोपाधिक ब्रह्म को विषय करती हैं, इसलिए वे श्रुतियां व्यर्थ नहीं है।(3.2.15)

अत: अद्वैत मे उपाधि युक्त ब्रह्म साकार होता है। शंकर ब्रह्म को उपाधि से साकार मानते है। गीता मे तो भगवान स्वयम् को अजन्मा बता कर जन्म लेने वाला कहते है।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।

मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।

शंकर भाष्य - अजोऽपि जन्मरहितोऽपि सन् तथा अव्ययात्मा अक्षीणज्ञानशक्तिस्वभावोऽपि सन् तथा भूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानाम् ईश्वरः ईशनशीलोऽपि सन् प्रकृतिं स्वां मम वैष्णवीं मायां त्रिगुणात्मिकाम् यस्या वशे सर्वं जगत् वर्तते यया मोहितं सत् स्वमात्मानं वासुदेवं न जानाति तां प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय वशीकृत्य संभवामि देहवानिव भवामि जात इव आत्ममायया आत्मनः मायया न परमार्थतो लोकवत।

इसमे शंकरचार्य स्पष्ट लिख रहे है कि अपनी इसी माया को अधीन कर, मैं जन्म लेता हुआ प्रतीत होता हूँ, देह धारण करता हूँ, जैसे मैं वास्तव में जन्मा हूँ। परंतु यह सब मेरी आत्ममाया (मेरी माया) के कारण होता है, न कि परमार्थतः (वास्तविकता में)। जैसे संसार में होता है, उसी प्रकार मेरा यह प्राकट्य भी होता है।

अद्वैत अनुसार इस प्रकार ब्रह्म साकार होता है रामानुजाचार्य ने तो साक्षात ब्रह्म का ही सकारत्व माना है क्योकि वो माया जैसी वस्तु नही मानते।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

12 Oct, 09:32


"हरि अनंत हरि कथा अनंता"

सारस्वत कल्प में नवमी के बाद दशमी को रावण वध हुआ था।
विजयदशमी की अनंत शुभकामनाएं समस्त सनातनियों को ।

जय जय श्री राम
@Esamidha

प्रच्छन्न इतिहास (History)

11 Oct, 04:12


आर्य समाज आदि के चक्कर में आकर अपने देवी देवताओं का अपमान ना करें। भविष्य में पछतावे के अलावा कुछ नही बचेगा।

मैं कुछ ex समाजी के अनुभव जल्द ही साझा करूंगा कि वो अब कितने पछतावे में रहते है। और अब सोशल मीडिया से दूर रहते है।

नमश्चण्डिकायै🙏

प्रच्छन्न इतिहास (History)

11 Oct, 04:12


खड्‌गं चक्र-गदेषु-चाप-परिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिर:
शंखं संदधतीं करौस्त्रिनयनां सर्वाड्गभूषावृताम् ।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

30 Sep, 10:33


Ok ji🙂

सब पापी है।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

30 Sep, 09:45


पूर्वज -हमारे!
पकवान -हमारे!!
श्रद्धा -हमारी!!!
अब हम गाय को खिलाएं या कौवों को, आखिर कुत्तों को परेशानी क्यों हैं ? 😂

प्रच्छन्न इतिहास (History)

30 Sep, 03:46


आक्षेप करने से यदि राष्ट्रहित हो हिन्दुहित हो सनातन हित हो तो अवश्य करें।यदि समन्वय से सर्वहित हो तो अवश्य इस विषय में उदारवादी जन विवेकी महानुभाव एकतापथ पर बढ़ें।

ये आलेख उनके लिये है जो ब्रह्म को सगुण और निर्गुण रूप में स्वीकार करते हैं,,कुतर्क से बचते हैं,,जिनके हृदय में हिन्दु जाति के अभ्युदय की भावना है ,और संगठित होने के लिये आक्षेप रहित समतामूलक परस्पर आदरभाव का व्यवहार करते हैं।।
अतिशयोक्ति अथवा अन्यथोक्ति लगे तो विना सूचित किये अपने अनुरूप बना लें।शिवार्पणमस्तु।।

सङ्कलयिता
पूर्वाचार्यपदसरोजाश्रित:
त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्य:

प्रच्छन्न इतिहास (History)

30 Sep, 03:46


तथाकथित वेदज्ञ(वेद को समग्रतया जानने की बात कहना सागर को पीना,आकाश को पकङना,धरती के रजकण गिनना,जैसा ही है,धरती के धूलीकण तो गिने भी जा सकते हैं परन्तु वेद को समग्रतया जानना असम्भव) की बातों को प्रमाण मानकर ,आप आत्मविनाश करने को उद्यत नहीं हो रहे क्या,तथा इस पवित्र परम्परा के तपःपूत ऋषिप्रवरों को पौराणिक कहकर मखौल उङाने का दुस्साहस नहीं करते हैं क्या,क्या ये सत्य नहीं कि यह सुनियोजित षडयन्त्र है भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने के लिये हमारे ही कुछ भाई बिक गये हैं पाश्चात्यों के हाथ और उनके द्वारा बरगलाये जाने पर अपने ही हाथों अपने ही घर को आग लगाने में लगे हैं।

ये कैसी एकता की बात है आप किसी के हृदय पर आघात करें फिर कहे हम तो सभी हिन्दुओं को एक करने के लिये कर रहे हैं किसी को पराजित करके नीचा दिखाने की भावना जब तक न त्यागी जायेगी आप अपने सहोदर का भी स्नेह न पा सकोगे मन की कुटिलता त्यागे विना आप हिन्दुओं को कैसे एक कर सकोगे।

आप मूर्ति पूजा का खण्डन करके क्या पा रहे है।
कपिल भगवान कृत माता देवहूति का उपदेश झुठला रहे हैं।
नारद,शाण्डिल्य, आदि दिव्यर्षियों द्वारा कृत उपासना पद्धति को नकार रहे है।
रंग अवधूत ,दत्तात्रेय ,धूनीवाले दादा जी,अखण्डानन्द जी,उङिया बाबा,हरीबाबा,आदि की अनुभूतियों को तिरस्कृत कर रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धि पर आप उंगली उठा रहे हैं।
महारणा प्रताप की वंश परम्परा में सम्पूजित भगवान एकलिंग की पूजा पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं,जो कि आज भी विद्यमान हैं,,आप राणा की जय करेंगे राजपूताने की जय बोलेंगे और उनके उपास्य की अवहेलना सोचें
वीर शिवाजी की जय बोलते हैं पर उनकी आराध्या माँ तुलजा भवानी की सत्ता को नकारते हैं।
प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को कहते हैं वे सर्वश्रेष्ठ थे परन्तु उनके द्वारा पुनः स्थापित भगवान सोमनाथ की सत्ता पर उंगली उठाते हैं।

चारों धामों ,समस्त तीर्थों, सप्तपुरियों द्वादश ज्योतिर्लिंगों, इक्यावन शक्तिपीठों, चारों महाकुम्भों के पवित्र क्षेत्रों, की आध्यात्मिक सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
नामदेव, ज्ञानेश्वर, मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम,नरसी, धन्ना,चेता, हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, तुलसी सूरदास,नाभादास, आदि सहस्रों भक्त सन्त जिन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया , इन सबका तिरस्कार करते हैं।

राम, कृष्ण, विष्णु ,शिव ,सूर्य ,दुर्गा ,गणेश, हनुमानजी सब्रह्मण्य स्वामी त्रिपति बालाजी आदि दिव्य उपास्यों के समस्त उपासकों को आप गलत अज्ञानी भटके सिद्ध करके आप कौनसे हिन्दुओं की एकता की बात करते हैं,,इन सबका नित्य अपमान करके आप किस संगठन की कल्पना करते हैं,,क्या प्रमाण है कि ये तथाकथित उंगली पर गिने जा सकने वाले निराकारोपासक(मात्र अपने ही मुख से स्वयं को आर्य कहने वाले भले ही आर्य का एक लक्षण न घटता हो वेद का एक मन्त्र सस्वर शुद्ध भले न बोल सकें पर वेदाभिमानी बनने वाले) श्रेष्ठ हिन्दु हैं।

हम मान सकते हैं कि अर्थपिशाचग्रस्त कुछ जनों ने स्वार्थपूर्तिहेतु अपप्रचारपूर्वक साकारोपासना की आड़ ली होगी।
हो सकता है मूर्ति पूजा की आङ में बहुत से स्वार्थी विषयी लोग व्यापार करने लगे होंगे, तो क्या कुछ गलत लोगों के कारण आप पूरी परम्परा को नकार सकते हैं।

आज समय की आवश्यकता है हठधर्मिता को त्यागकर परमत सहिष्णु होकर राष्ट्रहित में इन विवादों को छोङकर उपासना पद्धतियों के भिन्न होने पर भी हम सब हिन्दु जाति के संरक्षण के लिये ,अपनी अस्मिता की रक्षा के लिय़े,हिन्दु पर होते आघातों से शिक्षा लेकर एक हो जायें।यही उपाय है अन्यथा इन विवादों से कुछ भला होगा नहीं,,,,सिर्फ ये होगा कि हम सब परस्पर महापुरुषों को गाली देकर प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ,निस्तेज होते जाते हैं।

,देखो भाई बङी साफ बात है,,जैसे स्वामी दयानन्द जी को ही प्रमाणित मानने वाले अन्यों की महत्ता को जाने विना उनके त्याग तपस्या विद्या साधना से अनभिज्ञ हो उनको पौराणिक कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं ।
वैसे ही अन्य भी इनके द्वारा अपने आदर्शों का अपमान देखकर विचलित होंगे ही और बदले में वे इनके आदर्श के त्याग तप ज्ञान साधना की उपेक्षा करके उनको गाली देंगे ही ।
परिणाम क्या हुआ,पूरी हिन्दु जाति किसी न किसी रूप में अपने सभी महापुरुषों को तिरस्कृत कर रही है।

जो जाति अपने महापुरुषों का सम्मान सुरक्षित नहीं रख पाती वह पराभव को प्राप्त हो जाती है।
परमात्मा तो निराकार भी है साकार भी निराकार ही भक्तप्रेमविवश हो साकार होते हैं जैसे काष्ठगत अग्नि निराकार है,वही मन्थनादि द्वारा साकार हो जाती है,,जैसे माचिस की तीली में आग है पर उस आग को साकार करना होगा घर्षण से,तब आप दीप जला सकते है बिना साकार उसकी उपयोगिता ही क्या है।

प्रच्छन्न इतिहास (History)

30 Sep, 03:46


मूर्ति पूजा,,

कासीत् प्रमा प्रतिमा, किं निदानमाज्यम्, किमासीत् परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत् प्र उगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे।।(ऋक् 8-7-18-3)

ये प्रश्नोत्तर क्रम है इसे वाकोवाक्य भी कहा जाता है।
मानने वालों को तो इतने से ही मान लेना चाहिये ।
न मानने को तो साक्षात् भगवान भी नहीं मना सकते।
प्रमाण रावण कंस शिशुपालादि को कहां मना पाये।

प्र.-1
प्रमा का?
(परमेश्वरः कया प्रमीयते) परमेश्वर की प्रमा क्या है,परमात्मा का यथार्थ ज्ञान किससे हो सकता है?

उ.-1प्रतिमा।प्रतिमया प्रतिमा के द्वारा ही परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।

प्र.-2
किं निदानम्,,(प्रतिमायाःनिर्माणकारणं किम्) प्रतिमा का निर्माण कारण (उपादानादि) क्या है,,
उ.-2
आज्यम् प्राकट्यमात्रम्( यैः प्रतिमा निर्माणं कर्तुं शक्यते तैरेव काष्ठ पाषाण मृदादिभिः कुर्यात्,)श्रुतिविहित काष्ठ पाषाण मृत्तिकादि से निर्माण करना चाहिये।

प्र.-3
परिधिः कः?(परिधीयते अस्मिन्निति परिधिः स्थानं कीदृशं स्यात् यत्र मूर्ति: स्थाप्या) प्रतिमा की स्थापना के लिये उपयुक्त स्थान कौन सा हो।
उ.-3
छन्दः (छादनात् छन्दः इति निरुक्त्या छादितं स्थानं स्यात् अन्तरिक्षे मूर्तिपूजनं न कार्यम्)आच्छादित स्थान में मूर्ति की स्थापना हो,खुले में नहीं।

प्र.-4
वितर्के प्र उ गं,, (गमन साधनं यानं किम्) उ वितर्क में है मूर्ति को स्थानान्तरित करने के लिये कैसा यान हो।

उ.-4
यत् किमपि,विमान रथ गजाजनरादिकम्.।उत्तमोत्तम विमान गज अज नर पालकी आदि।

प्र.-5
देवाः विद्वांसः देवं भगवन्तं किमुक्थं अजयन्तः किम् वाग् विषयं मत्वा पूजयन्ति,देवगण भगवान का पूजन किस प्रकार करते हैं।

उ.-5
यत् (यथाविहितं स्यात्) श्रुति स्मृति धर्मशास्त्रानुरूप कर्तव्य विधायक शास्त्रों के अनुसार ही पूजन करना चाहिये मनमाने नहीं।
क्योंकि शास्त्र विधि का उल्लंघन करके किया गया कर्म सर्वत्र दुखद होता है।यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।गीतायाम्

प्राणप्रतिष्ठामन्त्र-
एतु प्राणाः एतु मन एतु चक्षु रथोबलम्(अथर्व,5 )इस प्रतिमा में प्राण आये, मन आये,नेत्र आये, बल आये।

प्रतिमा को नमस्कार-
ऋषीणां प्रस्तरोसि नमोस्तु देव्याय प्रस्तराय (अथर्व )

हे प्रतिमे त्वम् ऋषीणां प्रस्तरोसि अतः दिव्याय प्रस्तराय तुभ्यम् नमोस्तु।
हे प्रतिमे तुम ऋषियों के वन्दनीय दिव्य पाषाण हो अतः तुमको नमस्कार है।

औरों की तो बात ही क्या मूर्तिपूजा पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले
भी स्वामी दयानन्दजी कृत संस्कारविधि 62-74 में उलूखल मूसल छुरा झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते हैं।
1--
नमस्तेस्त्वायते नमो अस्तु परायते।
नमस्ते रुद्र तिष्ठत परमात्मन् आयते ते नमः अस्तु(आने वाले तुमको नमन हो) आयते की निष्पत्ति कैसे हुई,,आङ् उपसर्ग पूर्वक इण गतौ धातु से शतृ प्रत्यय करने पर आ एति आगच्छतीति आयन् तस्मै आयते,,ऐसा रूप सिद्ध होता है।

2-
भक्त पाद्यार्घ्य देने की तैय्यारी में है तब तक प्रेम विवश भगवान खङे है।भक्त कहता है, तिष्ठते ते नमः अस्तु।प्रेमाभिभूत होकर खङे रहने वाले आप रुद्र को नमस्कार है।

3-
आसन पर विराजने के उपरान्त भक्त पूजा करने को उद्यत हो कहता है।उत आसीनाय उपविष्टाय ते नमः सपर्या सम्भार अंगीकार करने के लिये विराजित रुद्र को नमस्कार है।

4-
पूजोपरान्त आशीर्वादादि देकर जब भगवान जाने लगते हैं तब भक्त कहता है।परायते ते नमः अस्तु परावृत्य गच्छते आकर पुनः स्वधाम जाने वाले प्रभु रुद्र को नमस्कार है।

भले मानुसों और कितने प्रमाण देने से आपकी शंका पिशाची का परिमर्दन होगा।जिससे आक्रान्त आप यथार्थ बोध से वंचित हो कुछ भी बोल उठते हैं।

यस्मिन्निमा विश्वाभुवनान्यन्तः स नो मृड पशुपते नमस्ते (अथर्व 11-15-5-5,6)
यस्मिन् परात्मनि अन्तः उदरे एव विश्वा भुवनानि चराचर भुवनानि सन्ति सः परमात्मा नः अस्मान् हमको मृड आनन्दं सुखं वा प्रददातु।हे पशुपते शिव ते नमः अस्तु।।सकल लोक जिसके अन्दर अवस्थित हैं ,वह परमात्मा हमको सुख प्रदान करे,उन जीवमात्र (पशु घृणा,शंका,भय,लज्जा,जुगुप्सा,
कुल,शील,वित्तादि अष्ट पाशैर्बद्धो जीवमात्रः पशुः तेषाम् पशुनाम् पतिः पशुपतिः सम्बोधने पशुपते ) के स्वामी पशुपति को नमस्कार है।

मुखायते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव,
त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः।
अंगेभ्यस्त उदराय जिह्वाय आस्याय ते दद्भ्यो गन्धाय ते नमः।(अथर्व 11-11-1-5,56)

हे पशुपते ते मुखाय ,यानि चक्षूंषि त्रिनेत्राणि,त्वचे,नमः अस्तु । हे भव ते संदृशे रूपाय दर्शनीय रूप को नमः।प्रतीचीनाय ते नमः,पश्चिमदिगधिपते ते नमः, ते अंगेभ्यः उदराय जिह्वाय नमः। ते दद्भ्यः गन्धाय नमः,हे सदाशिव पशुपते आपके मुख को ,नेत्रों को, त्वचा को ,नमस्कार हो, हे भव आपका जो दर्शनीय रूप है उसको भी नमस्कार है, पश्चिम दिशा के स्वामी को नमन है,आपके अंगों उदर , जिह्वा , दन्त ,तथा आपकी पावन देहगन्ध को भी

प्रच्छन्न इतिहास (History)

30 Sep, 03:46


नमस्कार है।

अर्हन् विभर्षि सायकानिधन्वार्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपं अर्हन्निदम् दयसे विश्वमम्व न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।(ऋग् 2-33-10)
रुद्र अर्हन् धन्वा सायकानि विभर्षि हे सामर्थ्यशाली शिव आप धनुषवाण धारण करने वाले हैं।

अर्हन् यजतं विश्वरूपं निष्कं विभर्षि हे सौन्दर्यनिधे शिव आप पूजनीय विविध रूपो में व्यक्त हो विविध महर्घ रत्नहार अलंकारादि को धारण करने वाले हैं।

अर्हन् इदं अम्वं विश्वं दयसे हे स्तुत्य शिव आप इस समस्त विश्व की रक्षा करते हैं।
त्वत् ओजीयः न अस्ति हे भगवन् आप से बढकर ओजस्वी श्रेष्ठ कोई है नहीं।
निराकार ब्रह्म का तो सावयव होना ,सालंकार होना, असम्भव है अतः भगवती श्रुति ने स्पष्ट उद्घोष किया है कि वे साकार भी हैं(जैसे भगवान साकार ही हैं ये कहना अज्ञान है,वैसे ही भगवान निराकार ही हैं ये कहना भी अज्ञान ही है,क्योंकि आप ब्रह्म की इयत्ता निर्धारित करने वाले होते कौन हैं,क्या आप स्वयं को सर्वज्ञ मनाते हैं जो उनके विषय में निर्णय देने का दुस्साहस करते हैं)

प्रजापतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुधा विजायते(यजु 31-16)
जन्मादिरहित निराकार परमात्मा अपनी शुद्ध सत्वगुण प्रधान माया के साहचर्य से स्वेच्छया (भक्तभावपराधीनत्वात् न त्वन्येन केनचित् पारतन्त्र्येण) विविधरूप धारण करते हैं।भगवान कहते भी हैं संभवामि युगे युगे।

त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिवबन्धनान् मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।।(यजु 3-6)

निरुक्तकाराभिमतार्थ,,त्रीणि अम्बकानि यस्य सः त्र्यम्बको रुद्रः तं त्र्यम्बकं यजामहे,,,तीन नेत्र वाले सदाशिव को हम पूजते हैं। सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,,जो कि सुगन्धियुक्त पुष्टिकर्ता हैं। उर्व्वारुकमिव मृत्योः बन्धनात् मुक्षीय अमृतात् मा जैसे पका हुआ खरबूजा अपनी डाल से अलग हो जाता है उसी प्रकार सदाशिव की कृपा से हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें।परन्तु अमृतत्व से अलग न हो।
अब निष्पक्ष होकर सुधीजन विचार करें कि क्या मूर्ति पूजा का विधान वेदप्रतिपाद्य नहीं है।

श्रुति शास्त्र स्मृति पुराण से जो धर्म निर्णय मानता ,
वो वस्तुतः निगमागमों के तत्व को है जानता।
शुचि धर्मतत्व विशुद्ध यह वैदिक सनातन कर्म है,
वैदिक सनातन कर्म ही पौराणिकों का धर्म है।।

(निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करहि विरोध।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिनके द्विज पद प्रेम।।सुन्दर काण्ड )

दुख इस बात का है कि भोले भाले सगुणोपासक श्रद्धालु
जनों से उनकी आस्था का प्रमाण मांगने वाले वो लोग हैं जिनका अपना कोई वास्तविक आधार नहीं,जैसे विचारी सती साध्वी पतिव्रता से कुलटाओं का समूह कहने लगे तू पाखण्ड करती है चल अपने सतीत्व को प्रमाणित कर।

जिनके आदर्श की उम्र मात्र कुछ वर्ष है,जिनकी परम्परा निराधार कुतर्को पर टिकी है जिनका धर्म कर्म मर्म मात्र सनातन धर्म के सर्वजनहितकारी लोकमंगलकारी सिद्धान्तों का उपहास ही करना है।मूर्ति पूजा के नाम से भी चिढने वाले अपने वंदनीय का चित्र गले में लटकाये घूमते हुए गर्व का अनुभव करते शरमाते नहीं हैं। कुतर्काश्रित खण्डन करना और गाली देना ही जिनका स्वभाव बन गया है।
आश्चर्य ये है कि पतंजलि को तो मानते हैं महाभाष्य से प्रमाण भी देते हैं,परन्तु उनके सिद्धान्त का खण्डन करके मात्र 4 संहिताओं को ही वेद मानते हैं 1131 शाखाओं में से केवल 4 को मानना शेष का परित्याग करने वाले विचारे अल्पग्राही ,समग्रवेद को मानने वालों से कहते हैं कि इन चार ही संहिताओं में मूर्ति पूजा का प्रमाण दिखाओ तो माने,महाशयो 1127 शाखाओं का क्या होगा ।आप कहते हैं कि उपलब्ध नहीं हैं तो आपकी बात को हम सत्य मानते हैं परन्तु जो आज प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है वह है ही नहीं इसमें क्या प्रमाण है।यदि आप कहते हैं कि जो उपलब्ध नहीं है उसे क्यों माने तो आप तो फस गये क्या आप निराकार ब्रह्म दिखा सकते हैं(हम निराकार की सत्ता पर शंका नहीं कर रहे हमको तो मान्य है ही) ठीक है आज कलिकाल के कुठाराघातों के कारण वेद समग्रतया उपलब्ध नहीं है,तब भी तो सामवेद की 3 शाखायें ,,यजुर्वेद की 3 शाखायें,अथर्ववेद की 2 शाखायें ऋग्वेद की 2 शाखायें आज भी सुरक्षित हैं नित्य स्वाध्याय होता है आप उन विप्रों के वेदाराधन की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं।(जनश्रुति पर आधारित पर शाखाओं की उपलब्धता)
उपनिषदों में ईशावास्य को मानते हैं तब अन्य को मानने में क्या हानि है।

अब आप स्वयं सोचे इतने प्रबल प्रमाण होने पर भी लोग क्यों इस अनादि परम्परा साकारोपासना का विरोध करते हैं,भगवान शंकराचार्य रामानुजाचार्य रामानन्दाचार्य निम्बार्काचार्य बल्लभाचार्य माधवाचार्य तुलसी दास बाल्मिकि व्यास से लेकर श्री करपात्री जी आदि तक समस्त साकारोपासक अगणित ऋषि महर्षियों का तिरस्कार करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं ।क्या इस परम्परा में हजारों वर्षों से नित्य होने वाली ठाकुर जी की सेवा पूजा का उपहास करके, स्वयं एक

2,550

subscribers

251

photos

23

videos