तथाकथित वेदज्ञ(वेद को समग्रतया जानने की बात कहना सागर को पीना,आकाश को पकङना,धरती के रजकण गिनना,जैसा ही है,धरती के धूलीकण तो गिने भी जा सकते हैं परन्तु वेद को समग्रतया जानना असम्भव) की बातों को प्रमाण मानकर ,आप आत्मविनाश करने को उद्यत नहीं हो रहे क्या,तथा इस पवित्र परम्परा के तपःपूत ऋषिप्रवरों को पौराणिक कहकर मखौल उङाने का दुस्साहस नहीं करते हैं क्या,क्या ये सत्य नहीं कि यह सुनियोजित षडयन्त्र है भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने के लिये हमारे ही कुछ भाई बिक गये हैं पाश्चात्यों के हाथ और उनके द्वारा बरगलाये जाने पर अपने ही हाथों अपने ही घर को आग लगाने में लगे हैं।
ये कैसी एकता की बात है आप किसी के हृदय पर आघात करें फिर कहे हम तो सभी हिन्दुओं को एक करने के लिये कर रहे हैं किसी को पराजित करके नीचा दिखाने की भावना जब तक न त्यागी जायेगी आप अपने सहोदर का भी स्नेह न पा सकोगे मन की कुटिलता त्यागे विना आप हिन्दुओं को कैसे एक कर सकोगे।
आप मूर्ति पूजा का खण्डन करके क्या पा रहे है।
कपिल भगवान कृत माता देवहूति का उपदेश झुठला रहे हैं।
नारद,शाण्डिल्य, आदि दिव्यर्षियों द्वारा कृत उपासना पद्धति को नकार रहे है।
रंग अवधूत ,दत्तात्रेय ,धूनीवाले दादा जी,अखण्डानन्द जी,उङिया बाबा,हरीबाबा,आदि की अनुभूतियों को तिरस्कृत कर रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धि पर आप उंगली उठा रहे हैं।
महारणा प्रताप की वंश परम्परा में सम्पूजित भगवान एकलिंग की पूजा पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं,जो कि आज भी विद्यमान हैं,,आप राणा की जय करेंगे राजपूताने की जय बोलेंगे और उनके उपास्य की अवहेलना सोचें
वीर शिवाजी की जय बोलते हैं पर उनकी आराध्या माँ तुलजा भवानी की सत्ता को नकारते हैं।
प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को कहते हैं वे सर्वश्रेष्ठ थे परन्तु उनके द्वारा पुनः स्थापित भगवान सोमनाथ की सत्ता पर उंगली उठाते हैं।
चारों धामों ,समस्त तीर्थों, सप्तपुरियों द्वादश ज्योतिर्लिंगों, इक्यावन शक्तिपीठों, चारों महाकुम्भों के पवित्र क्षेत्रों, की आध्यात्मिक सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
नामदेव, ज्ञानेश्वर, मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम,नरसी, धन्ना,चेता, हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, तुलसी सूरदास,नाभादास, आदि सहस्रों भक्त सन्त जिन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया , इन सबका तिरस्कार करते हैं।
राम, कृष्ण, विष्णु ,शिव ,सूर्य ,दुर्गा ,गणेश, हनुमानजी सब्रह्मण्य स्वामी त्रिपति बालाजी आदि दिव्य उपास्यों के समस्त उपासकों को आप गलत अज्ञानी भटके सिद्ध करके आप कौनसे हिन्दुओं की एकता की बात करते हैं,,इन सबका नित्य अपमान करके आप किस संगठन की कल्पना करते हैं,,क्या प्रमाण है कि ये तथाकथित उंगली पर गिने जा सकने वाले निराकारोपासक(मात्र अपने ही मुख से स्वयं को आर्य कहने वाले भले ही आर्य का एक लक्षण न घटता हो वेद का एक मन्त्र सस्वर शुद्ध भले न बोल सकें पर वेदाभिमानी बनने वाले) श्रेष्ठ हिन्दु हैं।
हम मान सकते हैं कि अर्थपिशाचग्रस्त कुछ जनों ने स्वार्थपूर्तिहेतु अपप्रचारपूर्वक साकारोपासना की आड़ ली होगी।
हो सकता है मूर्ति पूजा की आङ में बहुत से स्वार्थी विषयी लोग व्यापार करने लगे होंगे, तो क्या कुछ गलत लोगों के कारण आप पूरी परम्परा को नकार सकते हैं।
आज समय की आवश्यकता है हठधर्मिता को त्यागकर परमत सहिष्णु होकर राष्ट्रहित में इन विवादों को छोङकर उपासना पद्धतियों के भिन्न होने पर भी हम सब हिन्दु जाति के संरक्षण के लिये ,अपनी अस्मिता की रक्षा के लिय़े,हिन्दु पर होते आघातों से शिक्षा लेकर एक हो जायें।यही उपाय है अन्यथा इन विवादों से कुछ भला होगा नहीं,,,,सिर्फ ये होगा कि हम सब परस्पर महापुरुषों को गाली देकर प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ,निस्तेज होते जाते हैं।
,देखो भाई बङी साफ बात है,,जैसे स्वामी दयानन्द जी को ही प्रमाणित मानने वाले अन्यों की महत्ता को जाने विना उनके त्याग तपस्या विद्या साधना से अनभिज्ञ हो उनको पौराणिक कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं ।
वैसे ही अन्य भी इनके द्वारा अपने आदर्शों का अपमान देखकर विचलित होंगे ही और बदले में वे इनके आदर्श के त्याग तप ज्ञान साधना की उपेक्षा करके उनको गाली देंगे ही ।
परिणाम क्या हुआ,पूरी हिन्दु जाति किसी न किसी रूप में अपने सभी महापुरुषों को तिरस्कृत कर रही है।
जो जाति अपने महापुरुषों का सम्मान सुरक्षित नहीं रख पाती वह पराभव को प्राप्त हो जाती है।
परमात्मा तो निराकार भी है साकार भी निराकार ही भक्तप्रेमविवश हो साकार होते हैं जैसे काष्ठगत अग्नि निराकार है,वही मन्थनादि द्वारा साकार हो जाती है,,जैसे माचिस की तीली में आग है पर उस आग को साकार करना होगा घर्षण से,तब आप दीप जला सकते है बिना साकार उसकी उपयोगिता ही क्या है।