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देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करने का एक प्रयास

Mazdoor Bigul (Hindi)

Mazdoor Bigul एक Telegram चैनल है जो देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करने का एक प्रयास करता है। इस चैनल का उद्देश्य मजदूरों की आवाज को सुनना और उनकी समस्याओं को साझा करना है। यहाँ आप मजदूरों के लिए नौकरी के अवसर, सरकारी योजनाएं, और अन्य महत्वपूर्ण सूचनाएं पा सकते हैं।nnMazdoor Bigul चैनल में आपको देश भर के विभिन्न क्षेत्रों से मजदूरों की कहानियाँ, उनकी मुश्किलें और उनकी मांगों के बारे में जानकारी मिलेगी। यहाँ पर एक साथ होकर मजदूर वर्ग की भावनाओं को समझने और उनके लिए समर्थन प्रदान करने का प्रयास किया जाता है।nnअगर आप भी मजदूरों की समस्याओं को सुनना चाहते हैं और उनके साथ समर्थन करना चाहते हैं, तो आपको Mazdoor Bigul चैनल में शामिल होना चाहिए। यहाँ पर आप नए मित्रों से मिल सकते हैं और मिलकर मजदूर वर्ग के लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर देश के मजदूर वर्ग को समृद्धि और सामर्थ्य की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाएं।

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05 Feb, 05:37


‘अन्वेषा’ (सम्पादक : कविता कृष्णपल्लवी) के प्रवेशांक की प्रतियाँ विश्व पुस्तक मेला में जनचेतना के स्टॉल (हॉल नं.. 2-3, के-09) पर उपलब्ध हैं।

सुपरिचित कवि और ऐक्टिविस्ट कात्यायनी की एक बेहद महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक पुस्तिका ‘हमारे समय का फ़ासीवाद और कला-साहित्य का मोर्चा : कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न’ और रंजीत वर्मा का नया कविता संकलन ‘मुझे तुम वहाँ ढूँढ़ो’ भी हमारे स्टॉल पर उपलब्ध हैं।

आप सबका इन्तज़ार है...

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05 Feb, 05:36


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सज़ायाफ़्ता बलात्कारी व हत्यारे राम रहीम के आगे एक बार फिर नतमस्तक भाजपा सरकार।

https://www.facebook.com/share/p/15o6ENW4ET/

आज़ाद भारत के इतिहास में यह अवश्य ही पहली बार हुआ होगा कि हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में सज़ा काट रहे किसी व्यक्ति को सात सालों में 306 दिन की पैरोल मिली हो।

जेल जाने के बाद से बाबा गुरमीत राम रहीम को अब तक 12 बार पैरोल दी गयी है और आठ बार पैरोल चुनाव से ठीक पहले मिली है। इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र एक बार फिर इस बलात्कारी बाबा को पैरोल मिली है। इस बार यह पैरोल 30 दिन की है। इससे पहले हरियाणा राजस्थान व लोकसभा चुनाव में राम रहीम को पैरोल मिल चुकी है।

ज्ञात हो कि दिल्ली में भी राम रहीम के डेरा सच्चा सौदा के अच्छे-ख़ासे अनुयायी हैं। यही कारण है कि भाजपा उसे इस समय पैरोल पर छुड़ा कर लायी है। एक तरफ़ बलात्कारी बाबा को पैरोल पर पैरोल मिली जा रही है, वहीं दूसरी तरफ़ जनता के हक़ की बात करने वाले तमाम बुद्धजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बिना चार्ज़शीट के भी सालों साल जेल में रखा जाता है और बीमार पड़ने पर भी बेल नहीं दी जाती। स्टेन स्वामी-साईं बाबा को आप भूले नहीं होंगे, जिन्हें झूठा आरोप लगा कर यू.ए.पी.ए लगा दिया गया था। जेल की बद्तर परिस्थितियों में रहने के कारण ही उनकी मौत हुई। वहीं राम रहीम जैसा बलात्कार व हत्या का आरोपी खुले आम समाज में घूमकर भाजपा का प्रचार कर रहा है। सहज़ ही समझा जा सकता है कि फ़ासीवादी हिन्दुत्ववादी भाजपा का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा महज़ एक ढकोसला है, बल्कि इनका असली नारा है ‘बलात्कारियों के सम्मान में भाजपा मैदान में’।

भारत जैसे देश में जहाँ आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा ऐतिहासिक तौर पर वैज्ञानिक चेतना की कमी और बौद्धिक पिछड़ेपन का शिकार है, वहाँ तमाम तरह के बाबाओं का माया जाल फैला हुआ है, तथा इन बाबाओं ने लोगों की आस्था का फ़ायदा उठाकर उनकी आँखों पर अन्धविश्वास और अतार्किकता की पट्टी बाँध दी है। धर्म राजनीतिक व चुनावी समीकरण तय करने में बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और यही कारण है कि इन तमाम बाबाओं को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है। इनके काले धन्धे क़ानून व राजनीति की देखरेख में फलते-फूलते हैं, जिसके बदले में इन चुनावी पार्टियों को इन बाबाओं के अनुयायियों का वोट बैंक हासिल होता है। धर्म और राजनीति के नापाक गठजोड़ का यह नंगा नाच जिस बेशर्मी के साथ भाजपा के सत्ता में आने के बाद हो रहा है शायद ही पहले कभी हुआ हो।

भाजपाई नेताओं व मंत्रियों द्वारा आसाराम, राम रहीम से लेकर तमाम बाबाओं के मंचों पर जाकर नतमस्तक होना कोई नई परिघटना नहीं है और ना ही किसी से छुपी है। लेकिन बेशर्मी की इन्तेहा तब हो जाती है जब भाजपा सरकार व भाजपाई नेता ऐसे सज़ा काट रहे अपराधियों के बार-बार जेल से बाहर आने की योजनाबद्ध रूपरेखा तैयार करते हैं और फिर इनके मंचों पर जाकर नतमस्तक होकर वोटों की भीख माँगते हैं।

भगतसिंह ने कहा था कि धर्म हर व्यक्ति का निजी मसला होना चाहिए व सार्वजनिक जीवन तथा राजनीति से अलग होना चाहिए। आज धर्म व राजनीति मिलकर इस देश की आवाम की किस्मत तय कर रहे हैं तथा उन्हें नफ़रत के कुएँ में धकेल रहे हैं। इसलिए हमारा मानना है कि धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल पूरी तरह से प्रतिबन्धित होना चाहिए।

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी यह माँग करती है कि:
1) ऐसे सज़ायाफ़्ता बाबाओं को पैरोल पर बाहर निकालने वाले तमाम ज़िम्मेदार नेताओं व अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए।
2) राम रहीम के पैरोल को तत्काल रद्द किया जाना चाहिए।

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05 Feb, 05:35


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कहानियों के साथ 📚
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साहित्‍यकार अण्‍णा भाऊ साठे की कहानी - मसान में सोना
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2018/07/story-anna-bhau-sathe-gold-in-cemetery.html
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पड़ोस के गाँव के एक नामी-गिरामी धनी व्यक्ति की मृत्यु की खबर सुनकर भीमा उत्तेजित हो गया और कल्पना में ही वह कई बार उस धनी व्यक्ति की कब्र को देख आया। नीम के पेड़ के नीचे उसकी प्यारी बिटिया नवदा बैठी हुई अपने आप ही खेल रही थी। अन्दर भीमा की पत्नी खाना बना रही थी और वह सूर्यास्त होने का इंतज़ार कर रहा था। उसने बहुत बेसब्री से बार-बार सूर्य को देखा था, जो उसकी नज़र में तेज़ी से नीचे नहीं जा रहा था।

भीमा का शरीर दैत्याकार था। बाहर जाते समय वह प्रायः एक पीली-सी धोती, लाल पगड़ी और मोटे कपड़े की क़मीज़ पहन लेता था। वह एक पहलवान की तरह दिखता था-बड़ी-बड़ी टाँगें, बड़ा-सा सिर, मोटी गर्दन, दाढ़ी-सी भवें, चौड़े मुँह पर बड़ी-बड़ी शानदार मूँछें कई गुंडों को भी दब्बू बना देती थीं। वह किसी से नहीं डरता था। भीमा ‘वरना’ नदी के किनारे स्थित एक गाँव में रहता था। उसकी इतनी ताक़त भी अपने ही गाँव में उसे रोजगार दिलाने में मददगार नहीं हो सकी। वो काम की तलाश में मुम्बई तक घूम आया था। उसने नौकरी की तलाश में पूरे शहर का चप्पा-चप्पा छान मारा, पर व्यर्थ! आखिरकार वह इस छोटे-से उपनगर, जो जंगल के किनारे था, में आकर रहने लगा। उसका अपनी पत्नी के लिए सोने का नेकलेस बनवाने का सपना भी पूरा नहीं हो पाया। उसे मुम्बई शहर, जो रोज़गार और शरणस्थली के अतिरिक्त सब कुछ देता है-से सख़्त नफ़रत थी। उपनगर में आने के बाद उसे खदान में पत्थर काटने का काम मिल गया।
जंगल में उसे ढंग का काम और सिर ढंकने को छत भी मिल गई। दैत्य-जैसी अपनी ताक़त से वह चट्टानों को तोड़ता रहा और पहाड़ी पीछे की ओर खिसकती रही। उसके घन की चोट पर पत्थर की चट्टान टूट जाती। खदान का मालिक और क्वारी का ठेकेदार उसके काम की प्रशंसा करते। भीमा अपने काम से काफ़ी खुश था। । छह माह में ही क्वारी का काम बन्द हो गया और भीमा बेरोजगार! जब अगले दिन सवेरे वह काम करने के लिए पहुँचा था तो उसे यह जानकर बड़ा सदमा लगा था कि उसका रोज़गार नहीं रहा। वह घबरा गया था। भूखा रहने की कल्पना से ही वह बेहद चिन्तित हो गया।
वह जंगल में बहती नदी के किनारे अपने कपड़े बगल में दबाए खड़ा हो गया। वह नहाया और घर की तरफ चलने लगा। चारों तरफ़ देखने पर उसने पाया कि यहां राख के बड़े-बड़े ढ़ेर थे, जो चिताओं के जलने से बन गए थे। उसे चारों तरफ जली हुई हड्डियां इधर-उधर बिखरी दिखाई दीं। मृत्यु के विचार से वह नहीं डरा। उसने सोचा कि मरनेवाला आदमी भी जरूर बेरोजगार होगा, जिसे मृत्यु ने राहत दे दी होगी। वह जान गया था कि भूख उसके चेहरे को घूर रही है। उसकी प्यारी बेटी नवदा खाने के लिए रोती रहेगी और उसकी पत्नी बिसूरती। वह बेबस होकर बस उन्हें देखता रहेगा।

( पूरी कहानी पढ़ने के लिए ऊपर दी गई लिंक पर जाएं )


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05 Feb, 05:35


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
🎤 क्रांतिकारी गीत-संगीत के साथ 🎼
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गंगा तुम बहती हो क्यों
🖌 नरेन्‍द्र शर्मा
प्रस्‍तुति - भूपेन हजारिका, कविता कृष्णमूर्ति
यूट्यूब लिंक - https://www.youtube.com/watch?v=9cHoKpM_WcA
यह गीत भूपेन हजारिका ने मूलत: असमी भाषा में लिखा था जिसका शीर्षक था - बिस्तिर्नो पारोरे। इसके बाद बांग्ला और हिंदी में भी इस गीत का अनुवाद हुआ। तीनों भाषाओं में इसे भूपेन हजारिका ने ही गाया। यह गीत पॉल रोबसन के गीत Old man river से काफी प्रभावित है।
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विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों

नैतिकता नष्ट हुयी, मानवता भ्रष्ट हुयी
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों

इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, ओ गंगा बहती हो क्यों

अनपढ़ जन अक्षरहीन, अनगिन जन खाद्य विहीन
नेत्र विहीन देख मौन हो क्यों

इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों

व्यक्ति रहे व्यक्ति केंद्रित, सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निश्प्राण समाज को तोड़ती न क्यों

इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों

श्रुतस्विनी क्यों न रहीं, तुम निश्चय चेतन नहीं
प्राणों में प्रेरणा देती न क्यों, उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी नव भारत में, भीष्मरूपी सुतसमरजयी जनती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों


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03 Feb, 05:35


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
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कविता - आधुनिक काल
बॉबी सैन्डस
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2025/02/poem-modern-times-bobby-sands.html

For English version please scroll down

आयरलैण्ड की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले युवा क्रान्तिकारी बॉबी सैन्डस को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने बेलफॉस्ट जेल में कैद कर रखा था जहाँ वह भारतीय क्रान्तिकारी यतीन्द्रनाथ दास के ही समान राजनीतिक बन्दी‍ का दर्जा देने की माँग को लेकर अनशन करते हुए 5 मई 1981 को शहीद हो गये। उनके 9 अन्‍य साथी अगले तीन महीनों में शहीद हो गये थे।
बॉबी सैन्डस की यह कविता वर्तमान पूँजीवादी सभ्यता की चकाचौंध के पीछे के उत्पीड़न, अपराध और रक्त से सराबोर अंधेरे की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है।

कहा जाता है
हम रहते हैं आधुनिक काल में
उन्यासी के सुसभ्य साल में
पर नजरें दौड़ाता हूँ जब मैं अपने चारों ओर
देख पाता हूँ सिर्फ आधुनिक यातना, दर्द और ढोंग।

छोटे बच्चे मरते हैं आधुनिक काल में।
मरते हैं वे भूखों तड़प-तड़पकर,
कौन यह पूछने की हिम्मत करता है, “आखिर क्यों ॽ”
नापाम बमों से आहत भागती हैं निर्वस्त्र नन्हीं लड़कियाँ
अपनी चीखों से भेदती हुई रात की हवाओं को

और जब मोटे थुलथुल तानाशाह
आसीन होते हैं अपने सिंहासनों पर
नन्हें बच्चें दफ्न करते होते हैं
अपने माँ-बापों की अस्थियाँ।
निस्तब्ध रात्रि में खुफिया पुलिस नजरों से
ओझल कर देती है नंगी औरतों को
हमेशा-हमेशा के लिए बिजली के झटके दे-देकर।

गटर में मरा पड़ा होता है काला आदमी।
जहाँ बहती है तेल की सबसे अधिक काली धार
गली लाल हो उठती है
और यहीं वह रहता है
जो पैदा हुआ, आया रहने के लिए
इस दुनिया-जहान में
लेकिन जिया और मरा आज़ादी के बिना।

नौकरशाह, सट्टेबाज और राजाध्यक्ष
सभी टाँक देते हैं अपनी गन्दी, दुर्गन्धित प्रसन्न हंसी
आज की रात के सीने पर।
अपनी कब्र से चीखेगा एक अकेला कैदी
और आने वाले कल का अभागा
अपनी माँ के गर्भ से बाहर आ जायेगा।
_____
Poem - Modern Times
✍️ Bobby Sands

It is said we live in modern times
In the civilized year of seventy-nine
But when I look around, all I see
Is modern torture, pain and hypocrisy.

In modern times little children die
They starve to death, but who dares ask why?
And little girls without attire
Run screaming, napalmed through the night air.

And while fat dictators sit upon their thrones
Young children bury their parents’ bones
And secret police in the dead of night
Electrocute the naked woman out of sight.

In the gutter lies black man, dead
And where the oil flows blackest, the street runs red.
And there was he who was born and came to be
But lived and died without liberty.

As the bureaucrats, speculators and presidents alike
Pin on their dirty, stinking, happy smiles tonight
The lonely prisoner will cry out from within his tomb
And tomorrow’s wretch will leave its mother’s womb.

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Mazdoor Bigul

03 Feb, 05:35


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन सिनेमा के साथ 📚
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फिल्‍म परिचय - गर्म हवा
फिल्‍म इस लिंक से देखी जा सकती है - https://www.youtube.com/watch?v=eHfrHDBxCFU
परिचय साभार - https://www.facebook.com/LucknowCinephiles/

इस फ़िल्म को बने आधी सदी गुज़र गयी है लेकिन कई चीज़ें आज भी नहीं बदली हैं। 1973 में इस फ़ि‍ल्‍म को बनाते समय निर्देशक एम.एस. सथ्‍यू को तीखे विरोध और दुष्प्रचार का सामना करना पड़ा था। हालत यह थी कि आगरा में शूटिंग के समय जगह-जगह होने वाले उग्र विरोध से बचने का यह तरीक़ा निकाला गया कि एक नकली फ़ि‍ल्‍म यूनिट को कैमरे के साथ शहर में भेज दिया जाता था ताकि विरोधियों का ध्‍यान उधर चला जाये और असली शूटिंग किसी और जगह चुपचाप कर ली जाती थी। बाद में सेंसर बोर्ड ने भी महीनों तक इसे लटकाये रखा। काफ़ी कोशिशों के बाद जब इसे मंज़ूरी मिली तो शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने ऐलान कर दिया कि बम्बई में जो सिनेमा हॉल इसे दिखायेगा उसे जला दिया जायेगा। फ़ि‍ल्‍म देखे बिना ही उन्‍होंने इसे ''मुसलमान-परस्‍त'' और भारत-विरोधी करार दिया। हालाँकि आख़ि‍रकार जब फ़ि‍ल्‍म रिलीज़ हुई तो काफ़ी पसन्‍द की गयी और इसे कई राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार भी मिले।
संक्षिप्‍त कथानक
फ़ि‍ल्‍म का मुख्‍य किरदार सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) आगरा में जूतों का एक छोटा कारख़ाना चलाता है। विभाजन के बाद उसके परिवार के लोग एक-एक करके पाकिस्‍तान चले जा रहे हैं मगर वह कहता है कि मैं अपना वतन छोड़कर कहीं नहीं जाउँगा। वह बार-बार कहता है कि गांधीजी की शहादत के बाद अब लोग इन हालात के बारे में सोचने पर मजबूर होंगे और धीरे-धीरे सबकुछ ठीक हो जायेगा। लेकिन ऐसा नहीं होता है। नफ़रत, कट्टरपन और सन्‍देह का माहौल हावी रहता है और मिर्ज़ा परिवार को क़दम-क़दम पर उपेक्षा, अविश्‍वास और अपमान का सामना करना पड़ता है। फ़ि‍ल्‍म कुछ मुस्लिम नेताओं की मौक़ापरस्‍ती और स्‍वार्थ को भी सामने लाती है और दूसरी तरफ़ यह भी दिखाती है कि उस माहौल में भी कई हिन्‍दू मिर्ज़ा की मदद करते हैं। मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी तंग आकर पाकिस्तान चला जाता है। मिर्ज़ा की बेटी काज़ि‍म से प्‍यार करती है मगर उसका परिवार पाकिस्‍तान चला जाता है। आमिना से शादी करने के लिए काज़ि‍म लौटकर आता है लेकिन पुलिस उसे पकड़कर वापस भेज देती है। उसका दूसरा प्रेमी भी एक दिन परिवार के साथ पाकिस्‍तान चला जाता है और फिर ख़बर मिलती है कि वह वहीं शादी कर रहा है। आमिना ख़ुदकुशी कर लेती है। एक मामूली सी बात पर भड़के दंगे में मिर्ज़ा का कारख़ाना जला दिया जाता है। लेकिन वह हिम्‍मत हारने के बजाय मज़दूरों के साथ मिलकर ख़ुद जूते बनाने लगता है।
मिर्ज़ा का छोटा बेटा सिकन्‍दर पढ़ाई पूरी करके नौकरी तलाश कर रहा है। कई जगह उसे भी पाकिस्‍तान चले जाने के ताने सुनने को मिलते हैं लेकिन वह कहता है कि हमें भागने के बजाय यहीं रहकर आम लोगों के कन्धे से कन्धा मिलाकर अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। वह अपने बेरोज़गार दोस्‍तों के साथ मिलकर एक माँगपत्रक तैयार करता है। इसी बीच मिर्ज़ा को पाकिस्तान के लिए जासूसी करने के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया जाता है क्‍योंकि उसने अपने घर का नक्‍शा अपने बेटे के पास पाकिस्‍तान भेजा था। अदालत में वह बरी हो जाता है लेकिन हर जगह उसे उपेक्षा और अपमान का सामना करना पड़ता है।
आख़ि‍रकार मिर्ज़ा  भी टूट जाता है और बेटे व पत्‍नी के साथ पाकिस्‍तान चले जाने का फ़ैसला कर लेता है। ताँगे पर स्‍टेशन की ओर जाते हुए उन्‍हें रास्‍ते में एक जुलूस की वजह से रुक जाना पड़ता है। शहर के नौजवान काम के अधिकार को लेकर मोर्चा निकाल रहे होते हैं। सिकन्‍दर के दोस्‍त उसे देखकर आवाज़ देते हैं। मिर्ज़ा कहता है कि अब मैं तुम्‍हें नहीं रोकूँगा, इंसान अख़िर कब तक अकेला रह सकता है। सिकन्‍दर जुलूस में शामिल होकर नारे लगाने लगता है। कुछ पल सोचने के बाद मिर्ज़ा भी बीवी को घर भेजकर जुलूस के पीछे-पीछे चल देता है। पृष्ठभूमि से सुनायी देती इन पंक्तियों से फ़िल्म का अन्त होता है:
जो दूर से तूफ़ान का करते हैं नज़ारा, उनके लिए तूफ़ान वहाँ भी है यहाँ भी
धारे में जो मिल जाओगे बन जाओगे धारा, ये वक़्त का एलान वहाँ भी है यहाँ भी 

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03 Feb, 05:35


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02 Feb, 14:00


This is a tale of “baby farms”, drunkenness, prostitution, thievery and murder. But it is not a story “told by an idiot”; for Gorky clarifies whatever he relates.
Gorky was the link between the old and the new in Russian literature, His writing marked the beginning of an epoch, and epoch in which protest, and, later, optimism replaced the earlier writers’ fatalistic acceptance of the life of old Russia. His writing, and his personal association, has had an enormous effect on all the Russian writers of today.
Upton Sinclair says, “I was a young writer in my formative years when Gorky made his great success in America. He had much to do with teaching me that great literature can be made out of the struggles of the poor and disinherited.”


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Mazdoor Bigul

02 Feb, 14:00


📚 यूनाइटिंग वर्किंग क्लास प्रस्तुत 📚
📖 बेहतरीन पुस्तकों की पीडीएफ 📖
⏺️ This time we are providing pdf in two languages - Hindi and English
इस बार की पीडीएफ दो भाषाओं (हिंदी व अंग्रेजी) में उपलब्ध कराई जा रही है
________
गोर्की के पहले उपन्यास ‘अभागा' की पीडीएफ फाइल
PDF file of Maxim Gorky's First Novel - Orphan Paul

📱 https://unitingworkingclass.blogspot.com/2025/02/pdf-file-of-maxim-gorkys-first-novel.html

पीडीएफ फाइल मंगवाने के लिए दिये व्‍हाटसएप्‍प नम्‍बर (9892808704) पर व्‍हाटसएप्‍प से ही संदेश भेजें। ईमेल या अन्‍य किसी अन्‍य माध्‍यम से फाइल नहीं भेजी जायेगी। आप इस ऑनलाइन लिंक से बिना व्‍हाटसएप्‍प का इस्‍तेमाल किये भी डाउनलोड कर सकते हैं -
हिन्‍दी - http://janchetnabooks.org/pdf/Upanyas-Abhaga-Maxim-Gorki.pdf
English - http://janchetnabooks.org/pdf/novel-orphan-paul-maxim-gorky.pdf (Translation by Lily Turner and Mark O. Strever)
टेलीग्राम पर भी आप इस फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं - टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

इस पुस्तक के बारे में

‘अभागा’ मक्सिम गोर्की के एक प्रारम्भिक उपन्यास का हिन्दी अनुवाद है। यह उपन्यास अंग्रेजी में ‘लकलेस पावेल’ या ‘आर्फन पाल’ नाम से विगत शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित हुआ था। उसी अंग्रेज़ी अनुवाद से नूर नबी अब्बासी ने यह हिन्दी अनुवाद किया था जो 1954 में नवयुग प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ था।
नूर नबी अब्बासी उस दौर के सुप्रसिद्ध अनुवादक थे जिन्होंने मक्सिम गोर्की और हावर्ड फ़ास्ट जैसे कई लेखकों की कृतियों से पाँचवें-छठे दशक में हिन्दी पाठकों को परिचित कराने का महत्त्वपूर्ण काम किया था। जनता की संस्कृति और हिन्दी भाषा की महत्त्वपूर्ण सेवा करने वाले ऐसे लोग आज भुलाये जा चुके हैं, यह अफ़सोस की बात है।
इस अनूदित कृति के ऐतिहासिक महत्त्व को ध्यान में रखते हुए, अनुवाद की भाषा में बिना कोई परिवर्तन किये हम इसे अविकल रूप में पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। हमारा यह उद्यम हिन्दी भाषा को समृद्ध बनाने वाले नूर नबी अब्बासी जैसे लोगों के प्रति हिन्दी भाषी समाज और नयी पीढ़ी की ओर से एक तरह का कृतज्ञताज्ञापन भी है।
गोर्की की मृत्यु के उपरान्त उनके काग़ज़-पत्रों के अध्ययन से पता चलता है कि अपने वृहद्काय उपन्यास ‘क्लिम सामगिन का जीवन’ के चौथे और अन्तिम भाग का लेखन समाप्त करने के बाद वे ‘अभागा’ उपन्यास पर फिर से परिश्रम करना चाहते थे। लेकिन असामयिक मृत्यु के कारण संशोधन-परिवर्द्धन का यह काम वे पूरा नहीं कर सके।
गोर्की के इस प्रारम्भिक उपन्यास में असह्य सामाजिक स्थितियों के दबाव तले पिस रहे समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों के जीवन के आधिकारिक चित्रण के साथ ही सर्वहारा मानववाद और क्रान्तिकारी स्वच्छन्दतावाद के वे सभी तत्त्व मौजूद हैं, जिन्हें संगठित करके ‘माँ’, ‘अर्तामानोव्स’ जैसे उपन्यासों और आत्मकथात्मक उपन्यासत्रयी में गोर्की ने एक नयी यथार्थवादी दृष्टि एवं शैली विकसित की, जिसे समाजवादी यथार्थवाद का नाम दिया गया। गोर्की की सुदीर्घ रचना-यात्र के एक प्रारम्भिक मील के पत्थर के रूप में इस उपन्यास का अत्यधिक महत्त्व है।

कात्यायनी, परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ

Maxim Gorky takes a brooding orphan boy and a prostitute as the hero and heroine of this, his first novel. Here are characters like those of The Lower Depths; and here is the same passionate hatred of the environment which produced them. Here is the beginning of his protest against life in Russia which brought him the devotion of the younger generation that build the new.
Gorky ventured far and wide to find the figures and facts of life. He understands the despair and loneliness of downtrodden humanity, and describes it with clarity relieved by a penetrating humor. The world’s outcasts, the injured, the “creatures who once were men” had a powerful voice as long of Gorky lived among them. One of the great figures of world literature, he never forgot his origin.
Orphan Paul relates vividly the inarticulate suffering of little Paul, his violent protests against life, his helpless frustration. Paul and Natasha never had a chance. In this respect Orphan Paul is a literary forerunner of Dreiser’s An American Tragedy. An even more tragic background produces similar outbursts of unexpected violence. Love betrayed by life, might be an apt description of the inevitable destruction of the novels warm-hearted but thwarted people.

Mazdoor Bigul

01 Feb, 16:00


📮___📮
भूल सुधार

प्रिय साथियो
आज हमने ग्रुप में एक कहानी 'जादू' शेयर की थी। इंटरनेट पर यह प्रेमचंद के नाम से थी तो हमने भी प्रेमचंद के नाम से ही शेयर कर दी लेकिन बाद में एक साथी ने संदेश भेज कर बताया कि यह प्रेमचंद की कहानी नहीं है। ‌प्रेमचंद संग्रह में देखा तो वहां जो 'जादू' शीर्षक से कहानी है वह यह नहीं है। इसलिए हमने यह कहानी ब्लॉग और चैनल से डिलीट कर दी है। कहानी अच्छी थी। अगर किसी को कहानी के लेखक का नाम पता हो तो हमें जरूर बताएं ताकि हम इसे अपडेट कर सकें।

Mazdoor Bigul

01 Feb, 05:09


विज्ञान काम करता है। यह परिपूर्ण नहीं है और इसका गलत इस्तेमाल भी हो सकता है। यह सिर्फ एक औजार ही तो है। लेकिन हमारे पास यह अभी तक का सबसे बेहतर औजार है जो खुद को दुरुस्त कर सकता है और यह हर चीज पर लागू होता है। इसके दो नियम हैं। पहला: कोई भी पवित्र सत्य नहीं होता; हर तरह की मान्यता की सूक्ष्म रूप से, गुण दोष की दृष्टि से जाँच पड़ताल की जानी चाहिये; किसी अथॉरिटी द्वारा दिये गये तर्क वितर्क का कोई महत्व नहीं होता। दूसरा : जो भी चीज तथ्यों से मेल नहीं खाती उसे या तो ख़ारिज कर दिया जाना चाहिये, या फिर संशोधित कर लिया जाना चाहिये। कभी कभी जाहिरा तौर पर सही लगने वाली बात भी गलत होती है और कभी कभी गलत लगने वाली बात भी सही हो सकती है।
✍️ कार्ल सेगन
______
"Science works. It is not perfect. It can be misused. It is only a tool. But it is by far the best tool we have, self-correcting, ongoing, applicable to everything. It has two rules. First: there are no sacred truths; all assumptions must be critically examined; arguments from authority are worthless. Second: whatever is inconsistent with the facts must be discarded or revised. ... The obvious is sometimes false; the unexpected is sometimes true."

✍️ Carl Sagan

Mazdoor Bigul

01 Feb, 05:09


एक-एक मीटर के ₹25000
लोगों से पैसा वसूलने का कोई भी मौका फासीवादी नहीं चुकते
https://www.bhaskar.com/local/mp/bhopal/news/smart-meter-is-not-free-25-thousand-rupees-will-be-charged-in-installments-for-10-years-134387255.html

Mazdoor Bigul

01 Feb, 05:07


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - प्‍यार
कविता कृष्णपल्लवी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2025/01/kavita-krishnapallavi-poem-pyar.html

प्यार वही, सिर्फ़ वही
कर सकता है
जो निर्भय होI
प्यार वही कर सकता है
जिसका ह्रदय सघन संवेदनाओं से
भरा हो अपने लोगों के लिएI

फासिस्ट समय हमें
अकेला करता हैI
अकेलापन हमें
भयग्रस्त करता हैI
आतंक की ठंडी बारिश में
दिन-रात भीगते रहते हैं
हमारे ह्रदय,
अकड़ते और सिकुड़ते हुए
धीरे-धीरे अपनी सारी संवेदनाएँ
खो देते हैंI

सुन्दरता और कला और मनुष्यता
बस यही होती है कि
हम सुनते रहते हैं
एक प्रेतात्मा को खून सनी उँगलियों से
पियानो बजाते हुए
और उसके आदी होते रहते हैंI

इसतरह न जाने कब
हम खो देते हैं
प्यार करने की अपनी कूव्वत
और उदास पेड़ बन जाते हैं
सड़क किनारे खड़े
जिससे होकर हत्यारे रोज़ गुज़रते हैंI

पेड़ से मनुष्य बनने के लिए
होना पड़ेगा निर्भय
ढूँढ़ने होंगे संगी-साथी
और तनकर खडा होना होगा
फासिस्ट समय के ख़िलाफ़,
अपनी अपहृत संवेदनाओं को
फिर से पाने के लिए लड़ना होगा
एक कठिन युद्ध
और प्यार करने का दुर्लभ और कठिन हुनर
फिर से सीखना होगाI

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Mazdoor Bigul

23 Jan, 06:40


📮_____📮
दिल्ली विधानसभा के चुनावी मौसम में चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों को याद आया कि ‘मज़दूर भी इन्सान हैं!’
🖌 अजय
🖥 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17207
_____
दिल्ली विधानसभा में चुनावी दंगल शुरू है। दिल्ली का दंगल जीतने के लिए राजनीतिक दल अपनी-अपनी तैयारी में जुटे हैं। एक ओर भारतीय जनता पार्टी के नेता मज़दूर झुग्गियों-बस्तियों में जाकर रात्रि प्रवास कर रहे हैं, तो दूसरी ओर ‘आप’ नेता अरविन्द केजरीवाल सफाई कर्मचारियों से लेकर ऑटोवालों के साथ चाय पर चर्चा कर रहे हैं। साथ ही कांग्रेस पार्टी नेता भी अपने बिलों से निकलकर गली-गली घूम रहे हैं और दिल्ली “न्याय” यात्रा चला रहे हैं। साफ़ है कि चुनावी मौसम आते ही पूँजीपतियों की पार्टियों को “याद” आता है कि हम मज़दूर भी इन्सान है सिर्फ़ इसलिए कि हमारे वोट से ये सत्ता की सीढ़ी चढ़ सकते हैं। सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ते ही इन्हें फिर से ‘गजनी’ के आमिर ख़ान की तरह ‘मेमोरी लॉस’ (याददाश्त का जाना) हो जाता है। इसलिए पिछले पाँच साल अपने आलीशान महलों की ऐय्याशी से थोड़ा वक़्त निकालकर ये जनता का सेवक बनने का ढोंग कर रहे हैं। आइये, हम इन चुनावी मदारियों के कुछ वायदों और उनकी हक़ीक़त को देखते हैं, जिससे हम पता चलेगा कि ये कितने मज़दूर हितैषी हैं।

हम जानते है कि पिछले 10 सालों से दिल्ली की गद्दी पर बैठी आम आदमी पार्टी 2014 में ठेका प्रथा खत्म करने के वादे के साथ सत्ता में आयी थी। लेकिन बीते 10 सालों आप सरकार ने बस चन्देक मज़दूरों-कर्मचारियों को स्थायी नियुक्ति दी है जबकि आज भी जल बोर्ड, गेस्ट टीचरों, डीटीसी कर्मियों से लेकर सफाईकर्मियों ठेका पर गुलामी करने को मजबूर है। बल्कि इसी दौर में इससे कहीं ज़्यादा संख्या में ठेका मज़दूर बढ़े हैं। आज भी हजारों डीटीसी के कर्मचारी समान वेतन और संविदा कर्मचारियों को नियमित करने की अपनी माँगों के साथ संघर्षरत हैं लेकिन अभी तक आप सरकार की तरफ़ से उनकी माँगों पर कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया है। इसके विपरीत, सरकार ने परिवहन के सार्वजनिक विभाग को निजी कम्पनियों के हाथों में देने की शुरुआत कर दी है और लगातार नयी भर्तियाँ ठेके पर की जा रही हैं।

अगर केजरीवाल को वाकई मज़दूरों की इतनी चिन्ता है तो वे वजीरपुर, बवाना, बादली के औद्योगिक एरिया में जाकर अपने पार्षदों-विधायकों और सदस्यों की फैक्टरियों व शोरूमों का निरीक्षण कर लें। आज भी दिल्ली की फैक्टरी, शो रूम, दुकानों में खुलेआम श्रम-कानूनों का उल्लंघन किया जाता है। सभी मज़दूर जानते है कि नियमित प्रकृति के कामों में ठेका मज़दूर कार्यरत है, न्यूनतम मज़दूरी से लेकर ओवर टाइम, सुरक्षा मानकों से लेकर बोनस आदि जैसे श्रम-कानून कहीं लागू नहीं होते है। यूँ तो अभी हाल में दिल्ली की मुख्यमन्त्री आतिशी ने ‘कागजों पर’ न्यूनतम वेतन में बढ़ोत्तरी की घोषणा की, जो अब लगभग 21 हजार के आस पास है। लेकिन आप ही बताइये दिल्ली में कितने मज़दूरों को आठ घण्टे काम के लिए 21 हजार वेतन मिल रहा है? मुश्किल से 7-8 प्रतिशत मज़दूरों को न्यूनतम वेतन मिलता है, जो आम तौर पर संगठित क्षेत्र के स्थायी कर्मचारी हैं।

( पूरा लेख पढ़ने के लिए ऊपर दी गई लिंक पर जाएं )

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025

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Mazdoor Bigul

23 Jan, 06:39


मरोड़ी जा सकती है।


( पूरा लेख पढ़ने के लिए ऊपर दी गई लिंक पर जाएं )


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Mazdoor Bigul

23 Jan, 06:39


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नया साल मज़दूर वर्ग के फ़ासीवाद-विरोधी प्रतिरोध और संघर्षों के नाम! साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्षों के नाम!
सम्पादकीय अग्रलेख, मजदूर बिगुल
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://mazdoorbigul.net/archives/17211

मज़दूर और मेहनतकश साथियो, एक और साल फ़ासीवादी उभार के घटाटोप, मेहनतकश वर्गों के बिखराव, पस्तहिम्मती और क़दम पीछे हटाने में बीत गया। हमारे देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के हमले बदस्तूर जारी रहे, जबकि दुनिया ज़ायनवादी इज़रायल और उसके आक़ा साम्राज्यवादी अमेरिका के हाथों फ़लस्तीन में एक ऐसे क़त्ले-आम की गवाह बन रही है, जिसकी कोई मिसाल इतिहास में मौजूद नहीं है। दुनिया भर में जनता चुप बैठ गयी हो, ऐसा नहीं है। आये-दिन कभी दुनिया के इस कोने में तो कभी उस कोने में जनता और मज़दूर वर्ग के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन फूटते रहते हैं। लेकिन ये आन्दोलन जनता के सब्र का प्याला छलक जाने का नतीजा होते हैं। इनके पीछे कोई निश्चित राजनीतिक लाइन या राजनीतिक नेतृत्व मौजूद नहीं होता। नतीजतन, ये बिखराव की अवस्था में ही समाप्त हो जाते हैं। आर्थिक संकट से बीते साल भी पूँजीवादी दुनिया निजात नहीं पा सकी है। उसकी सही तस्वीर आपको सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर या शेयर मार्केट के उछाल से नहीं मिल सकती है, जो मूलत: और मुख्यत:, सट्टेबाज़ पूँजी द्वारा पैदा किया गया बुलबुला होता है। असल में, उत्पादक अर्थव्यवस्था निरन्तर एक मन्द मन्दी से गुज़र रही है, जो बीच-बीच में गम्भीर संकटों में फूट पड़ रही है। जैसा कि सभी आर्थिक संकटों के दौर में होता है, सबसे बड़े पूँजीपति दूसरे छोटे और मँझोले पूँजीपतियों को निगलकर और तुन्दियल हो जाते हैं। 2024 में ही मोदी के चहेते अडाणी, अम्बानी, बिड़ला, टाटा और भारती मित्तल ने ग़ैर-वित्तीय कारपोरेट क्षेत्र की कुल पूँजी का 20 प्रतिशत अपने हवाले कर लिया! उनके मुनाफ़े दिखाकर हमें बताया जाता है कि अर्थव्यवस्था कैसे दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की कर रही है। हमें पूँजीवादी मीडिया बताता है कि हम बेरोज़गारी और महँगाई से टूटती अपनी कमर पर ध्यान न दें! हम हमारे देश में अरबपतियों की बढ़ती संख्या पर गर्व करें! यही तो हमारे “राष्ट्रवादी” होने की निशानी है कि हम एक कम्पनी के अरबपति मालिक के आदेश में हफ़्ते भर में कम-से-कम 90 घण्टे काम करें, देश की तरक्की के लिए अपने पेट पर पट्टी बाँध लें, उनकी तिजोरियाँ अपने ख़ून को सिक्कों में ढालकर भरते जायें और कोई चूँ-चपड़ न करें! तब यह मान लिया जायेगा कि हम “देशभक्त” और “राष्ट्रवादी” हैं। इतिहास गवाह है कि बुर्जुआ वर्ग अपने राष्ट्रवाद की चक्की में इसी प्रकार मज़दूरों-मेहनतकशों को पीसता है। इसलिए जहाँ आप “राष्ट्र” या “राष्ट्रवाद” शब्द पढ़ें या सुनें तो उसकी जगह पर ‘पूँजी’ और ‘पूँजी की चाकरी’ शब्द पढ़ें: “राष्ट्र की तरक्की” यानी धन्नासेठ पूँजीपतियों की तरक्की और “राष्ट्रवादी” होने का सबूत मतलब बिना चूँ-चपड़ किये पूँजी की चाकरी और उजरती गुलामी करते जाना।

बीते साल 18वें लोकसभा चुनावों में फ़ासीवादी भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गयीं। कई लोग इसे देखकर फूले नहीं समा रहे थे और इसे फ़ासीवाद को लगे भयंकर झटके के रूप में देख रहे थे। ‘मज़दूर बिगुल’ के सम्पादकीय में हमने तभी चेताया था कि फ़ासीवादी शासन के हमलावर रुख़ और मेहनतकश वर्ग के लिए उसके ख़तरे को चुनावी नतीजों के आधार पर कम करके आँकना मज़दूर वर्ग के लिए भारी भूल होगी। गठबन्धन सरकार बनाने के कारण भाजपा की नीतियों में बस एक ही बदलाव आयेगा: सीएए-एनआरसी, अपने साम्प्रदायिक ‘यूनीफॉर्म’ सिविल कोड जैसे कुछ केन्द्रीय प्रतीकात्मक मुद्दों पर कानून आदि बनाने का शोर वह कम कर देगी, हालाँकि बिना कोई क़ानून बनाये वह देश में मुसलमानों के अलगाव को, उनके विरुद्ध साम्प्रदायिक भावनाओं को उसी प्रकार या उससे भी ज़्यादा गति से भड़कायेगी। देश में भर में मस्जिदों के नीचे मन्दिर ढूँढने के लिए सर्वेक्षण करवाने से लेकर मॉब लिंचिंग व बुलडोज़र राज के नाम पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ टुटपुँजिया व लम्पट सर्वहारा वर्ग के बीच दंगाई माहौल तैयार करने की पिछले कुछ महीनों के दौरान ही भाजपा व संघ परिवार द्वारा की गयी साज़िशों से फ़ासीवादियों के इरादे साफ़ हो चुके हैं। नीतीश कुमार व चन्द्रबाबू नायडू इन हरक़तों पर बोलने के लिए मुँह खोलें इससे पहले ही उनके मुँह में उनके राज्यों के लिए ‘विशेष पैकेज’ की गड्डी ठूँस दी जाती है ताकि वे अपने-अपने राज्यों में अपनी क्षेत्रीय राजनीति चमका सकें, हालाँकि इससे भी ज़्यादा फ़ायदा अन्त में भाजपा को ही मिलता है। फिर भी न मानें तो ईडी, सीबीआई आदि का और संघ परिवार के काडर-आधारित ढाँचे का डर तो है ही जिसे दिखाकर नायडू और नीतीश जैसों की बाँह

Mazdoor Bigul

23 Jan, 06:39



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Mazdoor Bigul

23 Jan, 06:39


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कहानियों के साथ 📚
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विश्‍व प्रसिद्ध कहानीकार अंतोन चेखव की कहानी - डार्लिंग Anton Chekhov's Story - The Darling
हिन्‍दी अनुवाद - प्रतिभा कुमार
For English version please visit this link - http://unitingworkingclass.blogspot.com/2018/10/anton-chekhovs-story-darling.html
_____
गर्मी के दिन थे। ओलेन्का अपने मकान के पिछले दरवाजे पर बैठी थी। यद्यपि उसे मक्खियाँ बहुत सता रही थीं फिर भी यह सोचकर कि शाम बहुत जल्दी ही आने वाली है वह बड़ी प्रसन्न हो रही थी। पूर्व की ओर घने काले बादल इकट्ठे हो रहे थे।

कुकीन, जो ओलेन्का के मकान में ही एक किराये का कमरा लेकर रहता था, बाहर खड़ा आकाश की ओर देख रहा था। वह '' ट्रिवोली नाटक कम्पनी '' का मैनेजर था।

'' ऊँह, रोज-रोज पानी, रोज-रोज पानी! नाक में दम हो गया। '' कुकीन अपने ही आप कह रहा था- '' रोज कम्पनी का नुकसान होता है। '' फिर ओलेन्का की ओर मुड़ कर बोला, '' मेरी जिंदगी कितनी बुरी है! बिना खाये पिये रात भर परिश्रम करता हूँ र ताकि नाटक में जरा-सी गलती न निकले। सोचते - सोचते मर जाता हूँ पर जानती हो फल क्या होता है? इतने ऊँचे दर्जे की चीज को कोई भी नहीं समझ पाता। जनता बेवकूफी की बातों को दौड़- धूप को बहुत पसन्द करती है। और फिर मौसम का यह हाल है! देखो न रोज शाम को पानी बरसने लगता है। मई के दस तारीख से पानी शुरू हुआ, और सारे जून भर रहा। जो पहले आते भी थे, वे अब इस पानी के मारे नहीं आते। कुछ भी नहीं मिलता, अभिनेताओं को देने के लिये रुपया कहाँ से लाऊँ, कुछ भी समझ में नहीं आता। '' दूसरे दिन शाम को ठीक समय पर आकाश में फिर बादल इकट्ठे होने लगे। कुकीन लापरवाही से हँस कर बोला- '' ऊँह जाने भी दो! चाहे मुझे और मेरी कम्पनी को डुबा दे, पर मुझे कुछ भी फिक्र नहीं है। जाने दो, अगर इस जीवन में मैं अभागा ही रहूँगा, तो रहूं। यदि सब अभिनेता मिल कर मेरे ऊपर मुकदमा चला दें तो कितना अच्छा हो। हा.. .हा. .हा-!''

तीसरे दिन फिर वही पानी! बेचारे कुकीन का हृदय रो रहा था।

ओलेन्का ने चुपचाप बहुत ध्यान से कुकीन की बातें सुनी। कभी-कभी उसकी आँखों से दो बूँद आँसू भी टपक पड़ते थे। ओलेन्का को कुकीन से बहुत सहानुभूति थी। कुकीन एक नाटा, पीला और लम्बे बालों वाला आदमी था। उसके बाल ह हमेशा बिखरे और मुँह उदास रहा करता था। उसकी आवाज बहुत पतली और। तेज थी।

न ओलेन्का अभी तक किसी न किसी को प्यार करती आई है। वह अपने जुड़के बीमार बाप को प्यार कर चुकी है जो हमेशा अँधेरे कमरे में आराम कुरसी पर १ लेट कर, लम्बी साँसें लिया करता था। वह अपनी चाची को प्यार कर चुकी है जो साल भर में एक या दो बार बिआत्सका से ओलेन्का को देखने आया करती थी। हाँ उसके पहले उसने अपनी शिक्षक को प्यार किया था और अब वह कुकीन से प्रेम करती थी।

ओलेन्का चुप्पी और दयालु थी। उसके दुबले शरीर और पीले, पर मुस्कराहट भरे चेहरे को देख कर लोग हँस कर कह देते '' हाँ-कोई वैसी बुरी तो नहीं ' है। '' औरतें बातचीत करते-करते उसे '' डार्लिंग '' कह कर सम्बोधित किया करती।

उसका यह मकान जो उसकी पैतृक सम्पत्ति थी और जिसमें वह बचपन से ही रह रही थी, '' ट्रिबोली नाटक कम्पनी '' के पास '' जिप्सी रोड '' पर था। वह सुबह से शाम तक '' ट्रिबोली '' के गाने सुना करती थी; साथ ही साथ कुकीन का गुस्से से चिल्लाना भी सुन सकती थी। यह सब सुन कर उसका कोमल हृदय पिघल जाता, वह रात- भर सो न सकती। जब एक पहर रात गये कुकीन घर लौटता, तो वह मुस्करा कर उसका स्वागत करती, और उसका दिल खुश करने की चेष्टा करती। अन्त में उनकी शादी हो गई। दोनों प्रसन्न थे। पर.. ठीक शादी के दिन शाम को जोरों की वर्षा हुई और कुकीन के चेहरे से निराशा और ऊब के चिन्ह न मिटे।

उनके दिन अच्छी तरह बीत रहे थे। कम्पनी का हिसाब रखना, थियेटर हाल का निरीक्षण और तनख्वाह बाँटना, अब ओलेन्का का काम था। अब जब वह अपनी सहेलियों से मिलती तो अपने थियेटर की ही चर्चा किया -करती। वह कहा करती कि थियेटर दुनिया की सब से मुख्य, सबसे महान् और सब से आवश्यक चीज है और कहती थी कि सच्चा आनन्द और सच्ची शिक्षा थियेटर के सिवा और कहीं नहीं मिल सकते।

'' पर क्या तुम समझती हो कि जनता में यह समझने की शक्ति है?'' वह पूछा करती '' जनता तो बेवकूफी की बातों और दौड़- धूप को बहुत पसन्द करती है। कल के खेल में जगह सब खाली थी। कल मैंने और कुकीन ने बहुत अच्छा खेल चुन कर दिया था, इसीलिये। अगर हम लोग कोई रद्‌दी बेवकूफी का खेल

देते तो हॉल में तिल भर भी जगह न बाकी रहती। कल हम लोग ''...'' दिखलाने वाले हैं। अवश्य आना, अच्छा?''

( पूरी कहानी पढ़ने के लिए ऊपर दी गई लिंक पर जाएं )

Mazdoor Bigul

23 Jan, 06:39


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविताओं के साथ 📚
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त्रिलोचन की कविताएँ
📱 http://www.mazdoorbigul.net/archives/12112

त्रिलोचन पूँजीवादी समाज के सर्वव्यापी अलगाव का निषेध करते, जीवन से अगाध लगाव के, सतत यात्रा और संघर्ष के प्रति हठी प्रचण्ड आग्रह के और उज्ज्वल आशाओं के कवि थे।

जिन्दगी की कठिन लड़ाई लड़ते हुए सतत रचनाशील त्रिलोचन लम्बे समय तक साहित्य-संसार के महारथियों द्वारा उपेक्षित रहे। पर उनकी कविताओं की शक्ति को देखकर और आठवें दशक के युवा वामपंथी कवियों में फिर से उनका बढ़ता मान देखकर मठाधीशों ने भी उन्हें मान्यता दी और अपनाने की चेष्टाएँ की। इस अवधि में विभिन्न स्थापित पीठों पर आचार्य पद पर बैठे होकर भी त्रिलोचन संघर्षमय अतीत से अर्जित जनसंग ऊष्मा से अर्जस्वित होकर जनपक्ष कविताएँ लिखते रहे। आज भी हम त्रिलोचन को मुख्यतः ‘धरती’ के कवि के रूप में याद करते हैं और उनका अभिनन्दन करते हैं।उनके प्रथम संकलन ‘धरती’ (1945) की कुछ कविताएँ बिगुल पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।
– सम्पादक, मजदूर बिगुल
_____
जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी एक शक्ति हो
जैसे सरिता की अगणित लहरों में
कोई एक लहर हो
तो अच्छा है
जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी सदा सुनिश्चित
अनुपेक्षित आवश्यकता हो
जैसे किसी मशीन में लगे बहु कल-पुर्जा में
कोई भी कल-पुर्जा हो
तो अच्छा है
जिस समाज में तुम रहते हो
यदि उसकी करूणा ही करूणा
तुम को यह जीवन देती है
जैसे दुर्निवार निर्धनता
बिल्कुल टूटा-फूटा बर्तन पर किसान के रक्खे रहती
तो यह जीवन की भाषा में
तिरस्कार से पूर्ण मरण है
जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी एक शक्ति हो
उसकी ललकारों में से ललकार एक हो
उसकी अमित भुजाओं में दो भुजा तुम्हारी
चरणों में दो चरण तुम्हारे
आँखों में दो आँख तुम्हारी
तो निश्चय समाज-जीवन के तुम प्रतीक हो
निश्चय हो जीवन, चिर जीवन
_____
पथ पर
चलते रहो निरन्तर
सूनापन हो
या निर्जन हो
पथ पुकारता है।
गत स्वप्न हो
पथिक
चरण-ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरन्तर
_____
अभी तुम्हारी शक्ति शेष है
अभी तुम्हारी साँस शेष है
अभी तुम्हारा कार्य शेष है
मत अलसायो
मत चुप बैठो
तुम्हें पुकार रहा है कोई

अभी रक्त रग-रग में चलता
अभी ज्ञान का परिचय मिलता
अभी न मरण-प्रिया निर्बलता
मत अलसाओ
मत चुप बैठो
तुम्हें पुकार रहा है कोई

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Mazdoor Bigul

22 Jan, 06:06


महान इतालवी मार्क्सवादी चिन्तक अंतोनियो ग्राम्शी के जन्मदिन (22 जनवरी) के अवसर पर

मैं असम्‍पृक्‍त व्‍यक्ति से घृणा करता हूँ। मेरा विश्‍वास है कि ज़ि‍न्‍दा होने का मतलब होता है पक्ष चुनना। जो वास्‍तव में ज़ि‍न्‍दा हैं वे एक नागरिक और एक पक्षधर व्‍यक्ति होने से बच नहीं सकते। असम्‍पृक्‍तता और उदासीनता जीवन नहीं है, बल्कि परजीविता और मनोविकृति है।
✍🏾अन्‍तोनियो ग्राम्‍शी
_______
अपने को शिक्षित करो क्योंकि हमें तुम्हारी सारी बुद्धिमत्ता की ज़रूरत होगी। स्वयं को उद्वेलित करो क्योंकि हमें तुम्हारे समस्त उत्साह की ज़रूरत होगी। स्वयं को संगठित करो क्योंकि हमें तुम्हारी सारी शक्ति चाहिए होगी।
✍🏾अन्तोनियो ग्राम्शी
_______
मेरा मानना है कि जब हर चीज़ खो चुकी हो या ऐसा लगता हो, तो हमें चुपचाप वापस काम पर लग जाना चाहिए और फिर से शुरू से शुरुआत करनी चाहिए ... मैं मानता हूँ कि मैं बस एक औसत इंसान हूँ जिसकी अपनी गहरी प्रतिबद्धताएँ हैं और उनका सौदा वह दुनिया की किसी चीज़ के साथ नहीं कर सकता I
✍🏾अन्तोनियो ग्राम्शी

Mazdoor Bigul

22 Jan, 06:05


📮_______📮
भाजपा की वाशिंग मशीन : भ्रष्टाचारी को “सदाचारी” बनाने का तन्त्र!
अविनाश
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17204

भाजपा ने सत्ता की मशीनरी जैसे ईडी, सीबीआई, एसीबी, आईटी, न्यायपालिका, चुनाव आयोग व अन्य को मिलाकर एक ऐसी नायाब वाशिंग मशीन तैयार की है, जिससे इस मशीन में किसी भ्रष्ट नेता पर चाहे कितने ही पुराने हजारों करोड़ रुपये के घोटाले क्यों न हो, अगर वह भाजपा के साथ गठबन्धन में या फिर भाजपा में शामिल हो जाता है, तो उसके सारे भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाते है और यकायक वह सदाचार की मूर्ति बन जाता है। इस मशीन में एक तरफ़ से भ्रष्ट नेता को डाला जाये तो दूसरी तरफ़ से वह बिलकुल साफ़-सुथरा सदाचारी बनकर बाहर निकलेगा। आप सोच रहे होंगे यह कोई मज़ाक है। नहीं! बिलकुल भी नहीं! यह आज की हक़ीक़त है!

सच्चाई यह है कि आज यह पूरा तन्त्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके चुनावी मोर्चे भाजपा द्वारा समूची राज्यसत्ता की मशीनरी में अन्दरूनी टेकओवर (कब्ज़े) की प्रक्रिया को लगातार दिखला रहा है। इसका हालिया उदहारण हमें अजित पवार के रूप में भी देखने को मिल जाता है। इन महोदय पर 70,000 करोड़ के सिंचाई घोटाले का आरोप लगा था। साथ ही ईडी ने सतारा के जरान्देश्वर सहकारी चीनी मिल की 2010 में कथित धोखाधड़ी से हुई बिक्री से जुड़े मनी लॉण्डरिंग (पैसों की हेरफेर) मामले में भी अजित पवार की जाँच की जा रही थी। इनके भ्रष्टाचार पर नरेन्द्र मोदी भी संसद में और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के प्रचार में बड़ी-बड़ी बातें बघारा करते थे। मगर जैसे ही अजित पवार भाजपा के साथ गठबन्धन में आये है, तब से वह मोदी जी के चहेते बन गये हैं, परम “सदाचारी” बन गये हैं और उनके सितारे बुलन्दी पर हैं। एक के बाद एक भ्रष्टाचार के सारे आरोपों से उन्हें मुक्त किया जा रहा है। अब तो भाजपा के देवेंद्र फडणवीस के साथ में शपथ लेने के बाद एण्टी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने अजित पवार को क्लीन चिट भी दे दी है।

अजित पवार पर घोटालों के मामले

अजित पवार, 1999 और 2014 के बीच कांग्रेस-राकांपा की विभिन्न गठबन्धन सरकारों में अलग-अलग मौकों पर सिंचाई मन्त्री थे। आर्थिक सर्वेक्षण में यह सामने आया था कि एक दशक में सिंचाई की अलग-अलग परियोजनाओं पर 70 हजार करोड़ रुपए ख़र्च होने के बावजूद राज्य में सिंचाई क्षेत्र का विस्तार महज 0.1 प्रतिशत हुआ। परियोजनाओं के ठेका के नियमों को ताक पर रखकर कुछ चुनिन्दा लोगों को ही दिए गये थे। सिंचाई विभाग के एक पूर्व इंजीनियर ने तो चिट्ठी लिख कर ये भी आरोप लगाए थे कि नेताओं के दबाव में कई ऐसे बाँध बनाये गये, जिनकी ज़रूरत ही नहीं थी। इंजीनियर ने यह भी लिखा था कि कई बाँध कमज़ोर बनाये गये। 2014 में महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले चुनाव प्रचार के समय भाजपा ने सिंचाई घोटाले को ज़बरदस्त मुद्दा बनाया था। देवेन्द्र फडणवीस टीवी पर पाँच साल पहले घोटाले को लेकर चीख-चीख कर कहा करते थे कि अजित पवार को जेल में “चक्की पीसिंग एण्ड पीसिंग” करायेंगे। यही राग ख़ुद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी भी अलापा करते थे। लेकिन आज देवेन्द्र फडणवीस अजित पवार के साथ गठबन्धन में सरकार चला रहे हैं। यानी, भाजपा के विरोध में तो भ्रष्टाचारी, भाजपा के साथ में तो सदाचारी! मोदी-शाह और समूचे संघ परिवार का “चाल-चेहरा-चरित्र” शुरू से ऐसा ही रहा है।

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Mazdoor Bigul

22 Jan, 06:05


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन साहित्‍य के साथ 📚
_
‘प्
रोस्तोर’ – मज़दूरों के जीवन पर आधारित एक लघु उपन्यास के अंश
एम.एम. चन्द्रा
🖥http://www.mazdoorbigul.net/archives/12046

देश की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा आज औद्योगिक मज़दूर बन चुका है और उसकी संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन इस विशाल आबादी का चित्रण हमारे साहित्य से लगभग ग़ायब है। ज़्यादातर लेखक इन मज़दूरों की दुनिया से ही अनजान हैं, तो वे भला लिखें कैसे? हर नगर और महानगर में या उसके पास औद्योगिक केन्द्र और मज़दूरों की बस्तियाँ हैं लेकिन वहाँ कोई लेखक जाता नहीं। ऐसे परिदृश्य में युवा लेखक एम.एम. चन्द्रा का लघु उपन्यास ‘प्रोस्तोर’ (विस्तार) अपनी ओर ध्यान खींचता है। दिल्ली के पास के एक क़स्बे में स्थित एक विशाल सरकारी धागामिल, उसके मज़दूरों और उनके नौजवान हो रहे बच्चों के माध्यम से यह उस दौर का एक रेखाचित्र प्रस्तुत करता है जब एक ओर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के साथ सरकारी कारख़ानों की बन्दी, छँटनी आदि का सिलसिला तेज़ हो रहा था, जगह-जगह मज़दूरों के आन्दोलन उठ रहे थे, दूसरी ओर राम मन्दिर आन्दोलन को हवा दी जा रही थी। मज़दूर आन्दोलन के बिखरने और जनता की एकता को तोड़ने की कोशिशों की झलक भी इसमें देखी जा सकती है। हालाँकि उपन्यास का कलेवर छोटा है और कई बातों को थोड़े सरलीकृत ढंग से प्रस्तुत करता है लेकिन उन दिनों की एक तस्वीर हमारे सामने उकेरने में यह सफल है। ‘डायमंड बुक्स’ से प्रकाशित इस लघु उपन्यास का एक अंश हम यहाँ मज़दूर बिगुल के पाठकों के लिए आभार सहित प्रस्तुत कर रहे हैं। — सम्पादक

गाँव के लोग भी किसी न किसी बहाने धागामिल के गेट पर घण्टों वक़्त बिताकर मिल चलने की आशा भरी बातों को अपने साथ ले जाते। यह पहली बार नहीं हुआ था जब यह धागामिल बन्द हुई है। इससे पहले भी कई बार बन्द हो चुकी थी। कुछ दिन बाद फिर से चलने लगती थी। फिर से जि़न्दगी सरपट दौड़ने लगती थी।
लेकिन इस बार मिल ज़्यादा ही दिन बन्द हो गयी। इसी समय राम जन्मभूमि का मुद्दा भी उठने लगा था। अघोघ सिंह घर-घर पर्चे बाँटने और एक-एक रोटी जुटाने का काम करता था। वह ज़ोर-ज़ोर से नारा भी लगाता था, ”मन्दिर वहीं बनायेंगे।” उसे याद नहीं कि उसने ऐसा क्यों किया? जबकि दूसरी तरफ़ मिल के मज़दूर मिल चलाने के लिए धरने पर बैठे हुए थे।

यह पहली बार देखा गया कि हड़ताल भी नहीं हुई और मिल बन्द हो चुकी है। मिल मज़दूरों की कोई ग़लती भी नहीं थी, न ही मिल मालिक और मज़दूरों में वेतन को लेकर झगड़ा हुआ था। मज़दूर अच्छी तरह से जानते हैं। हर साल कुछ-न-कुछ बढ़ता ही है चाहे 100 रुपये ही क्यों न बढ़ें। फिर सरकारी जैसी नौकरी है। फ़ण्ड, बोनस, रहना, सब मिलता है… इससे अच्छी जगह पर नौकरी नहीं मिल सकती। इसलिए कभी भी मिल और मज़दूरों में विवाद भी नहीं हुआ।

लम्बे समय तक मिल बन्द होने के कारण क़स्बे में पहली बार ऐसा हो रहा था, हड़ताल करने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार कम हो रही थी। रंग-बिरंगे झण्डों की संख्या बढ़ रही थी। पहले एक झण्डा मज़दूरों की आवाज़ होती थी। अब न जाने कितने रंगों के झण्डों के नीचे मज़दूर बिखरकर एकता का गीत गाने लगे।

रोज़ी-रोटी के मुद्दे को छोड़कर मन्दिर-मस्जिद का मुद्दा ज़्यादा बड़ा बन गया था। दो तरह के समानान्तर आन्दोलन यहाँ साफ़ दिखायी दे रहे थे, मज़दूर आन्दोलन और राम मन्दिर आन्दोलन। अख़बार में जो ख़बरें आ रही थीं, उनमें भी मन्दिर आन्दोलन की ख़बरें ज़्यादा थीं। इस क़स्बे में होने वाली मन्दिर आन्दोलन रैली की भी कई बार फ़ोटो सहित ख़बर आयी। लेकिन सैकड़ों गाँवों को आर्थिक-सामाजिक सुख देने वाली धागा मिल और मज़दूर ख़बरों से नदारद था।

( पूरा अंश पढ़ने के लिए ऊपर दी गई लिंक पर जाएं )


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Mazdoor Bigul

21 Jan, 16:52


मजदूर वर्ग के महान शिक्षक और दुनिया की पहली सफल मजदूर क्रांति के नेता लेनिन के स्मृति दिवस 21 जनवरी के अवसर पर

लेनिन की मृत्‍यु पर कैंटाटा*

1.
जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बताया: मैं
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्‍लाया: 'इलिच
शोषक आ रहे हैं।' वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।

2.
जब कोई भला आदमी जाना चाहे
तो आप कैसे रोक सकते हैं उसे?
उसे बताइये कि अभी क्‍यों है उसकी ज़रूरत।
यही तरीक़ा है उसे रोकने का।

3.
और क्‍या चीज़ रोक सकती थी भला लेनिन को जाने से?

4.
सोचा उस सैनिक ने
जब वो सुनेंगे, शोषक आ रहे हैं
उठ पड़ेंगे वो, चाहे जितने बीमार हों
शायद वो बैसाखियों पर चले आयें
शायद वो इजाज़त दे दें कि उन्‍हें उठाकर ले आया जाये, लेकिन
उठ ही पड़ेंगे वो और आकर
सामना करेंगे शोषकों का।

5.
जानता था वो सैनिक, कि लेनिन
सारी उमर लड़ते रहे थे
शोषकों के ख़ि‍लाफ़

6.
और वो सैनिक शामिल था
शीत प्रासाद पर धावे में, और घर लौटना चाहता था
क्‍योंकि वहाँ बाँटी जा रही थी ज़मीन
तब लेनिन ने उससे कहा था: अभी यहीं रुको !
शोषक अब भी मौजूद हैं।
और जब तक मौजूद है शोषण
लड़ते रहना होगा उसके ख़ि‍लाफ़
जब तक तुम्‍हारा वजूद है
तुम्‍हें लड़ना होगा उसके ख़ि‍लाफ़।

7.
जो कमज़ोर हैं वे लड़ते नहीं। थोड़े मज़बूत
शायद घंटे भर तक लड़ते हैं।
जो हैं और भी मज़बूत वे लड़ते हैं कई बरस तक।
सबसे मज़बूत होते हैं वे
जो लड़ते रहते हैं ताज़ि‍न्‍दगी।
वही हैं जिनके बग़ैर दुनिया नहीं चलती।

8.
इंक़लाबी की शान में क़सीदा

जब शोषण बढ़ता जाता है
बहुतों के हौसले हो जाते हैं पस्‍त
मगर उसकी हिम्‍मत और बुलंद होती है।

वह संगठित करता है अपना संघर्ष
मज़दूरी के लिए, रोटी और चाय के लिए
और फिर सत्ता दखल करने के लिए।

वह पूछता है दौलत से:
कहाँ से आई तुम?
पूछता है दृष्टिकोणों से:
किसकी सेवा करते हो तुम?

जब पसरा हो सन्‍नाटा
वह बोल उठता है
जहाँ भी हो ज़ुल्‍म, और लोग बात करते हों किस्मत की
वह चीज़ों को पुकारता है उनके सही-सही नाम से।

जहाँ वह बैठता है खाने की मेज़ पर
साथ बैठता है असंतोष भी
खाना लगने लगता है ख़राब
और कमरा कुछ ज्‍़यादा ही तंग।
जहाँ भी उसे भगाया जाता है
पीछे-पीछे चली आती है उथल-पुथल
और अशांति बनी रह जाती है
जहाँ किया जाता है उसका शिकार।

9.
जब लेनिन नहीं रहे और
लोगों को उनकी याद आई
जीत हासिल हो चुकी थी, मगर
देश था तबाहो-बर्बाद
लोग उठकर बढ़ चले थे, मगर
रास्‍ता था अँधियारा
जब लेनिन नहीं रहे
फुटपाथ पर बैठे सैनिक रोये और
मज़दूरों ने अपनी मशीनों पर काम बंद कर दिया
और मुट्ठियाँ भींच लीं।

10.
जब लेनिन गये,
तो ये ऐसा था
जैसे पेड़ ने कहा पत्तियों से
मैं चलता हूँ।

11.
तब से गुज़र गये पंद्रह बरस
दुनिया का छठवाँ हिस्‍सा
आज़ाद है अब शोषण से।
'शोषक आ रहे हैं!': इस पुकार पर
जनता फिर उठ खड़ी होती है
हमेशा की तरह।
जूझने के लिए तैयार।

12.
लेनिन बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में,
वो थे हमारे शिक्षक।
वो हमारे साथ मिलकर लड़ते रहे।
वो बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में।
(1935)

* कैंटाटा – वाद्य संगीत के साथ गायी जाने वाली संगीत रचना, जो प्राय: वर्णनात्‍मक और कई भागों में होती है (कुछ-कुछ हमारे बिरहा की तरह)। इस कैंटाटा के संगीत को अंतिम रूप दिया था ब्रेष्‍ट के साथी और महान जर्मन संगीतकार हान्‍स आइस्‍लर ने। इस रचना का आठवाँ भाग 'इंक़लाबी की शान में क़सीदा' ब्रेष्‍ट ने पहलेपहल 1933 में, गोर्की के उपन्‍यास 'माँ' पर आधारित अपने नाटक के लिए लिखा था।
अनुवाद: सत्‍यम

Mazdoor Bigul

21 Jan, 16:52


निकारागुआ के महान कवि अर्नेस्तो कार्देनाल की सौवीं जयंती 20 जनवरी के अवसर पर उनकी कविता
उनके लिये जो मर गये, हमारे मृतक
For English, please scroll down
––––––––––––
- अर्नेस्तो कार्देनाल, निकारागुआ (अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र)

जब आप को मिल जाये
पद, पुरस्कार और पदोन्नति,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

जब आप स्वागत-समारोह में हों,
प्रतिनिधि-मंडल में अथवा किसी आयोग में,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

जब आप हो चुके हों निर्वाचित,
और जनसमूह जयजयकार कर रहा हो आपकी,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

जब आप प्रफुल्लित हों कि आप जा रहे हैं
सभापति के समक्ष नेताओं के साथ,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

जब आपकी अगवानी की जा रही हो
महानगर के बड़े हवाई अड्डे पर,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

जब बारी आ जाये आपकी
माइक पर संबोधित करने की,
जब टीवी कैमरे केन्द्रित हो जायें आपकी तरफ़,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

जब आपकी हैसियत बन जाये ऐसी
कि आप दे सकते हों प्रमाणपत्र,
आदेश और अनुमति,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

जब छोटे क़द की वह वृद्ध महिला
आये आपके पास
ज़मीन के अपने छोटे से टुकड़े का विवाद लिये,
उनके बारे में भी सोचें जो मर गये।

देखिये उनकी तरफ़ जिनके शरीर पर कपड़े नहीं,
जिन्हें घसीटा गया है,
जो लथपथ हैं ख़ून में,
जिन्होंने पहन रखा है चोगा फटा-चींटा,
जिन्हें डुबोया गया है नांद में,
दिये गये हैं बिजली के झटके,
जिनकी निकाल ली गयी हैं आंखें,
काट ली गयी है जीभ,
जिन्हें छलनी कर दिया गया है गोलियों से,
जिन्हें फेंक दिया गया है सड़कों के किनारे,
उन गड्ढों में, जिन्हें खोदते आये वे ही,
जिन्हें दफ़्न कर दिया गया सामूहिक कब्रों में,
या कि फेंक दिया गया ज़मीन पर यों ही
जंगली पौधों की खाद बनने के लिये :

आप प्रतिनिधित्व करते हैं उन सबका।

वे जो मर गये हैं
उन्होंने ही चुना था आपको
अपने प्रतिनिधि के तौर पर।

"For Those Dead, Our Dead . . ."


When you get the nomination, the award, the
promotion,
think about the ones who died.
When you are at the reception, on the delegation,
on the commission,
think about the ones who died.
When you have won the vote, and the crowd
congratulates you,
think about the ones who died.
When you're cheered as you go up to the speaker's
platform with the leaders,
think about the ones who died.
When you're picked up at the airport in the big city,
think about the ones who died.
When it's your turn to talk into the microphone,
when the tv cameras focus on you,
think about the ones who died.
When you become the one who gives out the certificates,
orders, permission,
think about the ones who died.
When the little old lady comes to you with her problem,
her little piece of land,
think about the ones who died.
See them without their shirts, being dragged,
gushing blood, wearing hoods, blown to pieces,
submerged in tubs, getting electric shocks,
their eyes gouged out,
their throats cut, riddled with bullets,
dumped along the side of the road,
in holes they dug themselves,
in mass graves,
or just lying on the ground, enriching the soil of wild
plants:

You represent them.
The ones who died
delegated you.


Spanish; trans. Jonathan Cohen

Mazdoor Bigul

19 Jan, 08:21


इलाहाबाद के महाकुम्भ मेले में एक दिल दहलाने वाली घटना हुई है। एक बीमार नाबालिग़ मज़दूर की लगातार काम लिए जाने और समय पर समुचित इलाज़ ना मिल पाने की वजह से मौत हो गयी है।

लतीफपुर गाॅंव का रहने वाला गोरेलाल अपने बूढ़े मां-बाप का इकलौता लड़का था। कुम्भ में पाइपलाइन बिछाने का काम कर रहा था। इस भीषण ठण्ड में बिना सुरक्षा उपकरणों और काम की बेहद कठिन परिस्थितियों के कारण वह ठण्ड की चपेट में आ गया था। ठण्ड लगने की वजह से बीमार हुए इस मज़दूर का इलाज करवाने के बजाय कुम्भ में ठेकेदारों ने उससे दिन रात काम करवाया जिसके कारण वह काम के दौरान ही बेहोश होकर गिर पड़ा और कुछ समय बाद उसकी मौत हो गयी। ठेकेदार के इस कुकर्म को छिपाने के लिए पुलिस ने शव को छिपा दिया और परिजनों को बिना सूचना दिए लाश तक को जला दिया।

एक तरफ जहाँ मीडिया चैनल्स में "भव्य" महाकुम्भ का प्रचार ज़ोर-शोर‌ से चल रहा है और धीरेन्द्र शास्त्री जैसे ढोंगियों के "हिन्दू राष्ट्र" की गर्जना दिखाई जा रही है। वहीं इस चमक-दमक के पीछे मुनाफ़े के लिए हो रही ठण्डी हत्याओं पर सन्नाटा छाया हुआ है। 17 वर्षीय इस नाबालिग़ मज़दूर की यह मौत धनपशुओं की रक्तपिपासिता का परिणाम है जिसमें प्रशासन और सरकार भी भागीदार है।

कुम्भ में होने वाली यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी कुम्भ की तैयारी के दौरान सरायइनायत के जगबंधन गांव में हाइटेंशन तार खींचने के दौरान टावर के गिरने से 7 मज़दूर बुरी तरह घायल हो चुके थे। जिसमें सलीम नाम के एक मज़दूर का पैर भी कट गया था और अन्य 6 लोग (कासिम, अब्दुल, अनिरुद्ध, आमिर, पुतुल शेख़, छुट्टन) बुरी तरह घायल हो गये थे। लेकिन इन्हें न ढंग का इलाज़ मिला और न ही कोई मुआवजा। ऊपर लिखे नामों को पढ़कर साफ़ पता लगाया जा सकता है कि कुम्भ को सजाने और छोटे से लेकर बड़े इन्तज़ाम करने वाले हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मों के मज़दूर ही हैं। लेकिन कुम्भ मेले में जिस तरह से धीरेन्द्र शास्त्री भड़काऊ बयान दे रहा है कि "जिस दिन 'गुजरात के लोग' इसी तरह संगठित हो जायेंगे उस दिन हिन्दूस्तान तो क्या पाकिस्तान भी हिन्दू राष्ट्र बनवायेंगे"। धीरेन्द्र शास्त्री के इस बयान को मीडिया में खूब चलाया जा रहा है, "जिहादियों के ख़िलाफ़ युद्ध" बताया जा रहा है। और कुम्भ मेले में आतंकवादी पकड़ने के नाम पर फर्ज़ी ख़बर चलाकर मुस्लिमों को टारगेट किया जा रहा है। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि यह कुल मिलकर जनता के बीच आपसी नफ़रत पैदा करने के लिए किया जा रहा है। और इसकी आड़ में मज़दूरों मेहनतकशों की ठण्डी हत्यायें की जा रही है।

वैसे तो किसी भी लोकतान्त्रिक देश में सरकार को किसी भी धार्मिक आयोजन में हिस्सेदारी नहीं करनी चाहिए। धर्म का राजनीति में कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए लेकिन यहाँ भाजपा की मोदी-योगी सरकार कुम्भ के आयोजक की भूमिका निभा रही है। इसके जरिये जहाँ एक तरफ़ संघ परिवार और उसके अनुषांगिक संगठन धार्मिक उन्माद फैला रहे हैं और पिछले 10 सालों के भाजपा के कुकर्मों को साफ करने में लगे हुये हैं वहीं दूसरी तरफ़ इसका फायदा उठाकर तमाम धनपशु मज़दूरों मेहनतकशों की जान की क़ीमत पर भी मुनाफ़ा लूटने में लगे हुए हैं। जिसकी कीमत आम मेहनतकश आबादी जान गँवा कर चुका रही है।

फ़ासीवादी दमन-ठेकेदार-पूँजीपति और प्रशासन का यह गंठजोड़ आज मेहनतकशों पर इसलिए हावी है क्योंकि मेहनतकश-मज़दूर संगठित नहीं हैं। हमारे पास अपने अधिकार और कई बार जान बचाने के लिए एक ही रास्ता बचा है कि हम अपनी वर्गीय एकता क़ायम करें।

Mazdoor Bigul

26 Dec, 15:12


मार्क्स से पहले का भौतिकवाद, मनुष्य की सामाजिक प्रकृति से अलग रहकर, उसके ऐतिहासिक विकास से अलग रहकर ज्ञान की समस्या को परखता था, और इसलिए सामाजिक व्यवहार पर, यानी उत्पादन और वर्ग–संघर्ष पर ज्ञान की निर्भरता को वह नहीं समझ पाता था।

पहली बात तो यह कि मार्क्सवादी लोग मनुष्य की उत्पादक कार्रवाई को सबसे बुनियादी व्यावहारिक कार्रवाई मानते हैं, एक ऐसी कार्रवाई जो उसकी अन्य सभी कार्रवाइयों को निश्चित करती है। मनुष्य का ज्ञान मुख्यत: उसकी भौतिक उत्पादन की कार्रवाई पर निर्भर रहता है, जिसके जरिए वह कदम–ब–कदम प्राकृतिक घटना–क्रम, प्रकृति के स्वरूप, प्रकृति के नियमों और अपने तथा प्रकृति के बीच के संबंधों की जानकारी प्राप्त करता है; और अपनी उत्पादक कार्रवाई के जरिए वह कदम–ब–कदम मनुष्य और मनुष्य के बीच के निश्चित संबंधों की जानकारी भी अलग– अलग मात्रा में प्राप्त करता जाता है। इस तरह का कोई भी ज्ञान उत्पादक कार्रवाई से अलग रहकर प्राप्त नहीं किया जा सकता। एक वर्गहीन समाज में हर व्यक्ति समाज के एक सदस्य के रूप में समाज के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर परिश्रम करता है, उनके साथ एक निश्चित प्रकार के उत्पादन–संबंध कायम करता है तथा मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उत्पादक कार्रवाई में जुट जाता है। विभिन्न प्रकार के वर्ग–समाजों में, समाज के सभी वर्गों के सदस्य भी, भिन्न रूपों में, एक निश्चित प्रकार के उत्पादन–संबंध कायम करते हैं तथा अपनी भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उत्पादक कार्रवाई में जुट जाते हैं। यही वह मूल स्रोत है जहां से मनुष्य का ज्ञान विकसित होता है।

मनुष्य का सामाजिक व्यवहार महज उसकी उत्पादक कार्रवाई तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि बहुत से अन्य रूप भी धारण करता है-जैसे वर्ग–संघर्ष, राजनीतिक जीवन, वैज्ञानिक और कलात्मक गतिविधि; संक्षेप में यह कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में समाज के व्यावहारिक जीवन के सभी क्षेत्रों में भाग लेता है। इस तरह मनुष्य न सिर्फ अपने भौतिक जीवन द्वारा बल्कि अपने राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन द्वारा भी (राजनीतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन, दोनों ही भौतिक जीवन से घनिष्ठ रूप में संबंधित हैं) मनुष्य और मनुष्य के बीच के विभिन्न प्रकार के संबंधों की जानकारी अलग–अलग मात्रा में प्राप्त करता रहता है। सामाजिक व्यवहार के इन अन्य रूपों में, खास तौर से विभिन्न प्रकार का वर्ग–संघर्ष, मानव–ज्ञान के विकास पर गहरा प्रभाव डालता है। वर्ग–समाज में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी वर्ग के सदस्य के रूप में ही जीवन व्यतीत करता है, तथा प्रत्येक प्रकार की विचारधारा पर, बिना किसी अपवाद के, किसी न किसी वर्ग की छाप होती है।

मार्क्सवादियों का मत है कि मानव–समाज में उत्पादक कार्रवाई कदम–ब–कदम निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर बढ़ती जाती है, तथा फलत: मानव–ज्ञान भी, चाहे वह प्रकृति संबंधी हो चाहे समाज संबंधी, कदम–ब–कदम निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर बढ़ता जाता है, यानी उथलेपन से गहरेपन की ओर और एकांगीपन से बहुमुखीपन की ओर बढ़ता जाता है। इतिहास में बहुत समय तक समाज के इतिहास के बारे में मानव का ज्ञान एकांगी ही बना रहा, क्योंकि एक ओर तो शोषक वर्गों के पूर्वाग्रह समाज के इतिहास को सदा विकृत करते रहते थे, तथा दूसरी ओर छोटे पैमाने का उत्पादन मानव–दृष्टिकोण को सीमित कर देता था। उत्पादन की बड़ी शक्तियों (बड़े पैमाने के उद्योग–धंधों) के साथ जब आधुनिक सर्वहारा वर्ग का आविर्भाव हुआ, तभी मनुष्य सामाजिक इतिहास के विकास की सर्वांगीण, ऐतिहासिक समझ प्राप्त कर सका और समाज संबंधी अपने ज्ञान को विज्ञान का रूप, मार्क्सवाद के विज्ञान का रूप दे सका।

मार्क्सवादियों का मत है कि केवल मनुष्य का सामाजिक व्यवहार ही बाह्य जगत के बारे में मानव–ज्ञान की सच्चाई की कसौटी है। वास्तव में मानव–ज्ञान को सिर्फ तभी सिद्ध किया जाता है जब सामाजिक व्यवहार (भौतिक उत्पादन, वर्ग–संघर्ष या वैज्ञानिक प्रयोग) की प्रक्रिया के दौरान मनुष्य प्रत्याशित परिणाम प्राप्त कर लेता है। यदि मनुष्य अपने काम में सफल होना चाहता है, अर्थात प्रत्याशित परिणाम प्राप्त करना चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह अपने विचारों को वस्तुगत बाह्य जगत के नियमों के अनुरूप बनाए; अगर उसके विचार इन नियमों के अनुरूप नहीं बनेंगे, तो वह अपने व्यवहार में असफल हो जाएगा। जब वह असफल हो जाता है, तो अपनी असफलता से सबक सीखता है, अपने विचारों को सुधारकर उन्हें वाह्य जगत के नियमों के अनुरूप बना लेता है तथा इस प्रकार अपनी असफलता को सफलता में बदल सकता है; “असफलता सफलता की जननी है” और “ठोकर खाने से बुद्धि बढ़ती है” का यही अर्थ है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ज्ञान–सिद्धांत व्यवहार को प्रथम स्थान देता है। उसका कहना है कि मानव–ज्ञान को व्यवहार से हरगिज अलग नहीं किया जा सकता। वह उन तमाम गलत सिद्धांतों को ठुकरा देता है जो व्यवहार के महत्व को अस्वीकार

Mazdoor Bigul

26 Dec, 15:12


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*पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग के शिक्षक और नेता माओ त्से-तुङ के जन्म दिवस (26 दिसम्बर) के अवसर पर उनका एक महत्‍वपूर्ण लेख*
*व्यवहार के बारे में*
_ज्ञान और व्यवहार, जानने और कर्म करने के आपसी संबंध के बारे में_
माओ त्से-तुङ
🖥 https://www.mazdoorbigul.net/archives/11427
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*_ध्‍यान से पढ़ें और अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए शेयर जरूर करें।_*
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माओ त्से-तुङ सिर्फ चीनी जनता के लम्बे क्रान्तिकारी संघर्ष के बाद लोक गणराज्य के संस्थापक और समाजवाद के निर्माता ही नहीं थे, *मार्क्स और लेनिन के बाद वे सर्वहारा क्रान्ति के सबसे बड़े सिद्धान्तकार और हमारे समय पर अमिट छाप छोड़ने वाले एक महानतम क्रान्तिकारी थे।*

माओ-त्से-तुङ ने चीन में रूस से अलग समाजवाद के निर्माण की नयी राह चुनी और उद्योगों के साथ ही कृषि के समाजवादी विकास पर तथा गाँवों और शहरों का अन्तर मिटाने पर भी विशेष ध्यान दिया। *आम जन की सर्जनात्मकता और पहलकदमी के दम पर बिना किसी बाहरी मदद के साम्राज्यवादी घेरेबन्दी के बीच उन्होंने अकाल, भुखमरी और अफीमचियों के देश चीन में विज्ञान और तकनोलाजी के विकास के नये कीर्तिमान स्थापित कर दिये, शिक्षा और स्वास्थ्य को समान रूप से सर्वसुलभ बना दिया, उद्योगों के निजी स्वामित्व को समाप्त करके उन्हें सर्वहारा राज्य के स्वामित्व में सौंप दिया और कृषि के क्षेत्र में कम्यूनों की स्थापना की।* इस अभूतपूर्व सामाजिक प्रगति से चकित-विस्मित पश्चिमी अध्येताओं तक ने चीन की सामाजिक-आर्थिक प्रगति और समतामूलक सामाजिक ढाँचे पर सैकड़ों पुस्तकें लिखीं।

स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में जब ख्रुश्चेव के नेतृत्व में एक नये किस्म का पूँजीपति वर्ग सत्तासीन हो गया तो उसके नकली कम्युनिज़्म के खि़लाफ़ संघर्ष चलाते हुए माओ ने मार्क्सवाद को और आगे विकसित किया। पहली बार माओ ने रूस और चीन के अनुभवों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि समाजवाद के भीतर से पैदा होने वाले पूँजीवादी तत्व किस प्रकार मज़बूत होकर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं। उन्होंने इन तत्वों के पैदा होने के आधारों को नष्ट करने के लिए सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और चीन में 1966 से 1976 तक इसे सामाजिक प्रयोग में भी उतारा। यह माओ त्से-तुङ का महानतम सैद्धान्तिक अवदान है।

1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में भी देड़ सियाओ-पिङ के नेतृत्व में पूँजीवादी पथगामी सत्ता पर क़ाबिज़ होने में कामयाब हो गये, क्योंकि पिछड़े हुए चीनी समाज के छोटी-छोटी निजी मिलकियतों वाले ढाँचे में समाजवाद आने के बाद भी पूँजीवाद का मज़बूत आधार और बीज मौजूद थे। लेकिन पूँजीवाद की राह पर नंगे होकर दौड़ रहे चीन के नये पूँजीवादी सत्ताधारी आज भी चैन की साँस नहीं ले सके हैं। माओ की विरासत को लेकर चलने वाले लोग आज भी वहाँ मौजूद हैं और संघर्षरत हैं।
उनके जन्मदिवस के अवसर पर उनका यह महत्वपूर्ण लेख हम आपसे साझा कर रहे हैं।
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हमारी पार्टी में कुछ साथी कठमुल्लावादी थे, जिन्होंने एक लंबे समय तक चीनी क्रांति के अनुभव को अस्वीकार किया और इस सत्य को नहीं माना कि “मार्क्सवाद कोई कठमुल्ला–सूत्र नहीं बल्कि कर्म का मार्गदर्शक है”। वे लोग मार्क्सवादी रचनाओं के वाक्यों और वाक्यांशों को उनके प्रसंग से अलग करके उन्हें रट लेते थे और उनके जरिए लोगों पर रोब गालिब करते थे। कुछ साथी अनुभववादी थे, जो बहुत दिनों तक अपने आंशिक अनुभव से चिपके रहने के कारण न तो क्रांतिकारी व्यवहार के लिए क्रांतिकारी सिद्धांतों के महत्व को समझ पाए और न क्रांति की सम्पूर्ण स्थिति को ही देख पाए। ऐसे लोग अंधे होकर काम करते रहे, हालांकि उन्होंने बड़े परिश्रम से काम किया। इन दोनों ही किस्म के साथियों, खासतौर से कठमुल्लावादियों, के गलत विचारों की वजह से 1931.34 में चीनी क्रांति को भारी नुकसान उठाना पड़ा। खास तौर से कठमुल्लावादियों ने मार्क्सवाद का चोंगा पहनकर बहुत से साथियों को गुमराह किया। “व्यवहार के बारे में” नामक यह लेख कामरेड माओ त्से–तुङ ने पार्टी के अंदर कठमुल्लावाद और अनुभववाद, खास तौर से कठमुल्लावाद जैसी मनोगतवादी गलतियों का पर्दाफाश मार्क्सवादी ज्ञान–सिद्धांत के दृष्टिकोण के अनुसार करने के लिए लिखा था। इसका नाम “व्यवहार के बारे में” इसलिए रखा गया क्योंकि इसमें कठमुल्लावादी किस्म के मनोगतवाद का, जो व्यवहार को कम महत्व देता है, पर्दाफाश करने पर जोर दिया गया है। इस लेख के विचार कामरेड माओ त्से–तुङ ने येनान में जापान–विरोधी सैनिक व राजनीतिक कालेज में भाषण के रूप में प्रस्तुत किये थे।

Mazdoor Bigul

26 Dec, 15:11


शहीद उधम सिंह अमर रहें !

जन्म : 26 दिसम्बर, 1899 (सुनाम, जिला संगरूर, पंजाब, भारत)
शहादत : 31 जुलाई, 1940 (पेण्टोविले जेल, लन्दन, ब्रिटेन में फाँसी)

जलियाँवालाबाग हत्याकाण्ड के ज़िम्मेदारों में से एक पंजाब के माइकल ओ'ड्वायर को गोली मारकर बदला लेने वाले शहीद उधम सिंह के जन्मदिवस पर क्रान्तिकारी सलाम!

मुक़दमे के दौरान उधम सिंह ने कहा, "मेरे जीवन का लक्ष्य क्रान्ति है। क्रान्ति जो हमारे देश को स्वतन्त्रता दिला सके। मैं अपने देशवासियों को इस न्यायालय के माध्यम से यह सन्देश देना चाहता हूँ कि देशवासियो! मैं तो शायद नहीं रहूँगा। लेकिन आप अपने देश के लिए अन्तिम साँस तक संघर्ष करना और अंग्रेज़ी शासन को समाप्त करना और ऐसी स्थिति पैदा करना कि भविष्य में कोई भी शक्ति हमारे देश को ग़ुलाम न बना सके"। इसके बाद उन्होंने 'हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद! और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो!' नारे बुलन्द किये।

उधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर 'मोहम्मद सिंह आज़ाद' रख लिया था।

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:10


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न्यायपालिका के साम्प्रदायिकीकरण का विरोध करो !
सच्चे सेक्युलरिज़्म के लिए संघर्ष तेज करो !
✍️ नौजवान भारत सभा द्वारा जारी
https://www.facebook.com/share/p/JVk6ud78bqyBTBNx/
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साथियो, संघ की शाखा में पले-बढ़े फ़ासिस्ट और कुपोषित सोच रखने वाले बजरबट्टूओं के दर्शन आजकल कहीं भी हो जा रहे हैं। हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव ने विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में कहा कि 'उन्हें यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि यह भारत है और यह अपने बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार चलेगा।' इसके अलावा भी इस इस्लामोफोबिया से ग्रसित व्यक्ति ने बहुत सा ज़हर उगला है। सोचने वाली बात है कि ये (कु)जज महोदय किन बहुसंख्यकों की इच्छा की बात कर रहे हैं?

आज देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी तो (अन्य अल्पसंख्यक आबादी के साथ ही) महँगाई और बेरोज़गारी की मार झेल रही है। उसकी इच्छा तो सुकून के साथ गुजर-बसर की ही है जिसके जीवन को मोदी सरकार ने तबाही के कगार पर ला पटका है। बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के युवा बेटे-बेटियाँ तो बेहतर शिक्षा, दवा-इलाज़ से ही वंचित हैं। ऐसे में इन जज साहिबान का हिन्दुओं का फ़र्ज़ी प्रहरी बनना दर्शाता है कि ये भी संघ की किसी शाखा की ही पैदावार हैं या फिर ये भाजपा से उम्मीद लगाये बैठे और राज्यसभा के टिकटार्थी एक अवसरवादी घाघ हैं।

देश के मौजूदा हालात पर एक निगाह डालना पर्याप्त रहेगा जोकि अल्पसंख्यकों ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को भी प्रभावित करते हैं। यूडीआईएसई (यूनिफ़ाइड डिस्ट्रिक्ट इंफ़ॉर्मेशन सिस्टम फ़ॉर एजुकेशन) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 2018 से 2020 तक के बीच में ही 50,000 से अधिक सरकारी स्कूल बन्द कर दिये गये। इनमें भी 26,000 से अधिक स्कूल अकेले उत्तर प्रदेश में बन्द हुए। क्या इन स्कूलों में जाने वाले बच्चे बहुसंख्यक हिन्दुओं के नहीं थे? क्या उन हिन्दू माँ-बाप की यही इच्छा रही होगी? हर साल लाखों-लाख छात्र-युवा भविष्य की अनिश्चितता में मौत को गले लगा रहे हैं। क्या उनकी यही इच्छा रही होगी? नहीं दोस्तों! यह बहुसंख्यकों की इच्छा का सवाल है ही नहीं।

जस्टिस शेखर अपने प्रलाप में बच्चों में तथाकथित दया भाव जगाने को भी खासे उत्सुक नज़र आते हैं। इनकी बच्चों में दया भाव जगाने की बेचैनी तब कहाँ चली जाती है जब देश की पूरी नयी पीढ़ी के मस्तिष्क में टीवी, सिनेमा और सोशल मीडिया के माध्यम से अश्लीलता, फूहड़ता, अपराध, उन्माद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद और हिंसा को कूट-कूट कर भरा जा रहा है। कई सर्वेक्षणों में अनुमान लगाया गया है कि स्कूल से निकलने की उम्र तक एक औसत शहरी बच्चा पर्दे पर 8000 हत्याएँ और 100,000 अन्य हिंसक दृश्य देख चुका होता है। 18 वर्ष का होने तक वह 200,000 हिंसक दृश्य देख चुका होता है जिनमें 40,000 हत्याएँ और 8000 स्त्री-विरोधी अपराध शामिल हैं! फ़िल्मों, वेब सीरीज से लेकर टीवी सीरियलों तक में अपराध और अपराधियों को महिमामण्डित किया जाता है।

जज महोदय अपने (कु)भाषण में प्रकृति के प्रति भी खासे चिन्तित नज़र आते हैं! उत्तरप्रदेश की मौजूदा भाजपा सरकार ने 'कांवड़ कारीडोर' बनाने के नाम पर 33,776 पेड़ काटने की योजना बनायी है। इसमें केवल तीन जिलों (गाज़ियाबाद, मुरादनगर और मुज़फ्फ़रनगर) में 9 अगस्त तक 17,607 पेड़ काटे जा चुके हैं। अपने आका अदानी के फायदे के लिए छत्तीसगढ़ में लाखों पेड़ों का पूरा जंगल साफ करवा दिया गया। नदियों को बर्बाद किया जा रहा है। औद्योगिक कचरा सरेआम पर्यावरण को तबाह कर रहा है। लेकिन इन मसलों पर जज साहब की सिट्टी-बिट्टी गुम है। प्रकृति प्रेम पर उनका उपदेश मोदी-योगी और अदानी को क्यों नहीं दिया गया?

सच बात यह है कि आज मुट्ठी भर धनपशुओं के मुनाफ़े को बरकरार रखने के लिए जनता के बुनियादी हक़-अधिकारों तक में कटौती की जा रही है। जज साहब को असल में बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के हितों से कोई सरोकार नहीं है। इनका एकमात्र मकसद इस्लामोफोबिया का प्रसार करके संघ भाजपा के लिए खुद को उपयोगी साबित करना भर है।
देश की व्यापक मेहनतकश आबादी अपने बुनियादी मुद्दों पर एकजुट होकर सरकार से सवाल न करे इसलिए उन्हें फ़र्जी "बहुसंख्यकों की इच्छा" के नाम पर बाँटा जा रहा है।

दोस्तो, अब हमें तय करना है कि महँगाई, बेरोज़गारी, महँगी होती शिक्षा, पहुँच से बाहर जाते दवा-इलाज़, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार आदि को चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे या फ़िर इस तरह की साम्प्रदायिक बयानबाजियों का जवाब अपनी एकजुटता और संघर्ष से देंगे!
नौजवान भारत सभा का स्पष्ट मानना है कि हमें सच्चे सेक्युलरिज़्म के लिए भी संघर्ष तेज करना होगा। हमें धर्म के राज्य मशीनरी और सरकार से पूर्ण विलगाव की माँग को पुरज़ोर तरीक़े से उठाना होगा।

जाति-धर्म में नहीं बँटेंगे,
मिलजुलकर संघर्ष करेंगे !

– नौजवान भारत सभा

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:10


पुनर्नवा

जीवन के जनपद में
ज्वार की प्रतीक्षा है I
पूरी तैयारी है I

पूर्णिमा का चाँद
चढने दो I
विचारों को
पकने दो I

उमड़ता जनज्वार
विचारों को
समेट लेगा अपने भीतर I

खुद को,
विचारो को,
सबकुछ को नया कर जायेगा I

--- शशि प्रकाश

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:09


पाब्लो नेरूदा की कलम से
शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)
और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)
और पवित्रता भी (कहता है अन्न)

पेड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं सबसे ऊँचा हूँ !'

जड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं बेहद गहराई से आई हूँ !'

और रोटी कभी नहीं बोली :
दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा'

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:09


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन सिनेमा के साथ 📚
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किस तरह ग़ुलामों ने दास प्रथा के ख़िलाफ़ शुरू की बगावत!
जानने के लिए देखिए सच्ची घटना पर आधारित 1960 में अमेरिकी फिल्म 🎬 निर्देशक 'स्टैनिले क्यूब्रिक' के निर्देशन में बनी फिल्म 'स्पार्टकस'
📱 https://t.me/AlldCinephiles

हिंदी ऑडियो के साथ अपलोड फिल्म हमारे टेलीग्राम चैनल से डाउनलोड की जा सकती है। अगर आपको लिंक से टेलीग्राम चैनल खोलने में समस्या आए तो टेलीग्राम पर जाए और Allahabad cinephiles सर्च करें
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'स्पार्टकस' फ़िल्म अमेरिका के क्रान्तिकारी लेखक 'हावर्ड फ़ास्ट' के प्रसिद्ध उपन्यास 'स्पार्टकस' पर आधारित है। हिन्दी में इसका अनुवाद 'आदिविद्रोही' के नाम से अमृत राय ने किया। यह फ़िल्म सच्ची घटना पर केन्द्रित है। फ़िल्म की कहानी ईसा से 73 वर्ष पूर्व रोम के ग़ुलामों के विद्रोह पर आधारित है, उन्हीं *ग़ुलामों में से एक ग़ु़लाम स्पार्टकस ने ग़ुलामी की पाशविक प्रथा को चुनौती देने का साहस विवेक पूर्ण तरीके से किया था।*
इस फ़िल्म की शुरुआत में दिखाया गया है कि ग़ुलामों के मालिक किस तरह यातनापूर्ण तरीके से ग़ुलामों से काम करवाते हैं, थोड़ा भी आराम करने के लिए सिर उठाने पर कोड़े बरसाए जाते है। ग़ुलामों का एक व्यापारी बाटियाटस जो ग्लेडिएटर स्कूल का मालिक है, स्पार्टकस को खरीद लेता है। बाटियाटस मालिकों के मनोरंजन के लिए ग़ुलामों को अखाड़े में लड़ाने के लिए प्रशिक्षित करता है।। बाटियाटस के स्कूल में स्पार्टकस जैसे 40 और गुलाम युद्ध कला सीखते हैं, सीखने के दौरान स्पार्टकस इन गुलामों से अपनी नफरत साझा करता है। नफरत आगे बढ़कर विद्रोह का रूप अख्तियार करती है। स्पार्टकस के नेतृत्व में ग़ुलाम योद्धा एकजुट होकर बाटियाटस के सिपाहियों को मारकर प्रशिक्षण जेल से आजाद हो जाते है। आजाद होने के बाद स्पार्टकस ने जो युद्ध कला सीखा था उसे ग़ुलामों को भी सिखाया और रोम की ताकतवर सेना के खिलाफ ग़ुलामों की फौज खड़ी की। जगह-जगह ग़ुलामों को उनके मालिकों से आज़ाद कर सेना में भर्ती किया। स्पार्टकस के नेतृत्व में 1,20,000 गुलामों की सेना तैयार हुई और गुलामों की ताकत लगातार मजबूत होती गयी। रोम के सेनापति क्रैसस के ख़िलाफ़ युद्ध में स्पार्टाकस मारा जाता है। स्पार्टकस की मौत के बाद भी रोम का सेनापति क्रेसस मानता है कि स्पार्टकस अभी हारा नहीं है क्योंकि उसका विचार जीवित है, उसके विचार को मार कर ही स्पार्टकस को पूरी तरह हराया जा सकता है। इसीलिए उसने स्पार्टकस की प्रेमिका वारेनिया को अगवा करा लिया और ढेरों ऐशो- आराम में रखकर वारेनिया का दिल जीतने का प्रयास करता है, वह सोचता है कि अगर वारेनिया मुझसे प्रेम करेगी तो 'स्पार्टकस का विचार' खत्म किया जा सकता है लेकिन वारेनिया क्रैसस के प्रेम को ठुकरा देती है और कहती है कि स्पार्टकस के विचारों को मारा नहीं जा सकता, उसने हम गुलामों को आजादी के लिए लड़ना सिखाया है, उसने तो आशा का निर्माण किया है।

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:08


Spartacus ( स्पार्टाकस)

Mazdoor Bigul

19 Dec, 05:01


शहीदों के जो ख़्वाब अधूरे, इसी सदी में होंगे पूरे! इसी सदी में नये वेग से परिवर्तन का ज्वार उठेगा!!

काकोरी ऐक्शन के शहीदों के 97वें शहादत दिवस पर

बिस्मिल-अशफ़ाक़ को याद करो! साम्प्रदायिक ताक़तों को ध्वस्त करो!! जुझारू जनएकजुटता क़ायम करो!!!
https://www.facebook.com/share/p/ebiR2tUdHfjoAc6r/
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साथियो,
आज से 97 साल पहले 17 और 19 दिसम्बर, 1927 को काकोरी ऐक्शन के चार क्रान्तिकारियों को फाँसी दी गयी थी। ये क्रान्तिकारी थे – रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह। भारत की आज़ादी के आन्दोलन में ‘काकोरी ऐक्शन’ एक ख़ास घटना है जिसने लूट, शोषण और दमन पर टिके अंग्रेज़ी साम्राज्य को जड़ से हिलाकर रख दिया था। 9 अगस्त 1925 के दिन 10 नौजवानों ने काकोरी नामक जगह पर चलती रेल रोककर अंग्रेज़ी खज़ाने को लूट लिया था जिसका मक़सद था हथियारबन्द क्रान्ति के लक्ष्य तक पहुँचना। इस ऐक्शन के दमन चक्र में कईयों को कठोर कारावास और चार को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी थी। इस घटना को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए) ने अंजाम दिया था जिसकी विरासत को लेकर भगतसिंह और उनके साथी आगे बढ़े और 1928 में उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) के रूप में दल को विकसित किया।

क्यों आज काकोरी के शहीदों को याद करने की ज़रूरत है?

शोषणमुक्त व सच्चे मायने में धर्मनिरपेक्ष समाज का सपना लिए हुए ब्रिटिश जल्लादों से लड़ते हुए बिस्मिल, अशफ़ाक़, लाहिड़ी, रोशनसिंह जनता के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बन गये थे। लेकिन काकोरी ऐक्शन के शहीद उस समय अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति और हिन्दू-मुस्लिम कट्टरपन्थियों की करतूतों से शायद ये अन्दाज़ा लगा चुके थे कि ये .....

Mazdoor Bigul

19 Dec, 05:00


मो.दी सरकार किताबों को लोगों से दूर करने की हर कोशिश कर रही है।
✍️ जनचेतना https://www.facebook.com/share/p/qXUMKWHZ6SiCnHMD/
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पिछले साल नवम्बर में अचानक सभी डाक सेवाओं पर 18% जीएसटी लगा दिया गया जिससे डाक से किताबें भेजना काफ़ी महँगा हो गया था। अब कल जारी आदेश में डाक विभाग ने रजिस्टर्ड बुक पोस्ट की सेवा को ही ख़त्म कर दिया है। इसे एक नया नाम दिया गया है जिसकी दरें पार्सल से तो कम होंगी लेकिन अब तक जारी बुक पोस्ट के मुक़ाबले क़रीब ढाई गुना ज़्यादा होंगी।

(वैसे यह ख़बर आपको किसी अख़बार में भी शायद ही दिखायी दे। काफ़ी ढूँढ़ने के बाद हमें बस ‘मलयाला मनोरमा’ में छोटा-सा समाचार मिला।)

कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं, लेखकों, सम्पादकों के लिए अब किताबें, पत्रिकाएँ आदि डाक से भेजना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इसका सबसे ज़्यादा असर छोटे और ग़ैर-व्यावसायिक प्रकाशकों और पत्र-पत्रिकाओं पर पड़ना है जो पहले ही काग़ज़ और छपाई की बेतहाशा बढ़ती क़ीमतों से जूझ रहे हैं।

एक तरफ़ क़ीमतें बढ़ायी जा रही हैं, दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों के दौरान डाक सेवाओं को लगातार चौपट किया गया है। नयी भर्तियाँ हो नहीं हो रही हैं, अधिकाधिक काम ठेके पर कराये जा रहे हैं और कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है।

‘जनचेतना’ से भेजी किताबों के पैकेट पहले देश के किसी भी कोने में 3 से 5 दिनों में पहुँच जाते थे पर अब अक्सर 7 से 10 दिन लग जाते हैं और आये दिन पैकेट ग़ायब होने की शिकायतें मिलती रहती हैं। इण्डिया पोस्ट की ट्रैकिंग वेबसाइट पर कई-कई दिनों तक कोई अपडेट ही नहीं होता। कुछ बार ऐसा भी हुआ है कि कई दिनों तक पैकेट का पता नहीं चलने पर जब स्थानीय डाकघर में पूछताछ की गय़ी तो मालूम हुआ कि पैकेट साहब अभी वहीं आराम फ़रमा रहे हैं! या फिर कोलकाता भेजी गयी किताब लखनऊ से दिल्ली, दिल्ली से हैदराबाद, हैदराबाद से रायपुर और रायपुर से वापस लखनऊ आ गयी और इस देशभ्रमण की थकान उतारने के लिए एकाध दिन आराम करके फिर कोलकाता को रवाना हुई!

हालत इतनी बुरी है कि आज जब अचानक दरों में बढ़ोत्तरी के बारे में पूछने के लिए हमारे एक साथी पोस्टमास्टर के पास गये तो वे अपना ही दुखड़ा रोने लगे। बोले कि मैं तो ख़ुद ही तंग आ गय़ा हूँ। वीआरएस की स्कीम आ जाये तो फ़ौरन रिटायरमेंट ले लूँगा।

उधर मोती के सखा ट्रम्प ने अमेरिकी डाक सेवा का निजीकरण करने की मंशा जता दी है “घाटे” का हवाला देकर। हमारे यहाँ रेलवे की तरह डाक विभाग का किस्तों में निजीकरण तो जारी ही है, बचे-खुचे को भी अडाणी-अम्बानी के हाथों में सौंप दिया जाये तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।

Mazdoor Bigul

19 Dec, 05:00


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविताओं के साथ 📚
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युद्धोन्माद के विरुद्ध बर्तोल्‍त ब्रेख्‍त की कविताएं Bertolt Brecht's Poem against War Hysteria
📱 https://unitingworkingclass.blogspot.com/2019/02/bertolt-brechts-poem-against-war.html
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युद्धोन्‍माद के विरुद्ध बर्तोल्‍त ब्रेख्‍त की कविताएं

द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्वबेला में जब पूरा जर्मनी नात्सियों द्वारा भड़काए युद्धोन्माद में डूबा हुआ था, उस वक्‍त ये कविताएं लिखी गयी थी।

मूल जर्मन से अनुवाद – मोहन थपलियाल

1. युद्ध जो आ रहा है (1936-38)

युद्ध जो आ रहा है
पहला युद्ध नहीं है।
इसे पहले भी युद्ध हुए थे।
पिछला युद्ध जब खत्म हुआ
तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित-
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी मरा वह भूखा ही।
_____
2. दीवार पर खड़िया से लिखा था: (1936-38)

दीवार पर खड़िया से लिखा था:
वे युद्ध चाहते हैं
जिस आदमी ने यह लिखा था
पहले ही धराशायी हो चुका है।
_____
3. जब कूच हो रहा होता है (1936-38)

जब कूच हो रहा होता है
बहुतेरे लोग नहीं जानते
कि दुश्मन उनकी ही खोपड़ी पर
कूच कर रहा है
वह आवाज जो उन्हें हुक्म देती है
उन्हीं के दुश्मन की आवाज होती है
और वह आदमी जो दुश्मन के बारे में बकता है
खुद दुश्मन होता है।
_____
4. ऊपर बैठने वालों का कहना है: (1936-38)

ऊपर बैठने वालों का कहना है:
यह महानता का रास्ता है
जो नीचे धंसे हैं, उनका कहना हैः
यह रास्ता कब्र का है।
_____
5. नेता जब शान्ति की बात करते हैं (1936-38)

नेता जब शान्ति की बात करते हैं
आम आदमी जानता है
कि युद्ध सन्निकट है
नेता जब युद्ध का कोसते हैं
मोर्चे पर जाने का आदेश
हो चुका होता है
_____
6. वे जो शिखर पर बैठे हैं, कहते हैं: (1936-38)

वे जो शिखर पर बैठे हैं, कहते हैं:
शान्ति और युद्ध के सार तत्व अलग-अलग हैं
लेकिन उनकी शान्ति और उनका युद्ध
हवा और तूफान की तरह हैं
युद्ध उपजता है उनकी शान्ति से
जैसे मां की कोख से पुत्र
मां की डरावनी शक्ल की याद दिलाता हुआ
उनका युद्ध खत्म कर डालता है
जो कुछ उनकी शान्ति ने रख छोड़ा था।
_____
7. जनरल, तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है

जनरल, तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है
वह जंगलों को रौंद देता है
और सैकड़ों लोगों को चपेट में ले लेता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक चालक चाहिए

जनरल, तुम्हारा बमवर्षक जहाज़
शक्तिशाली है
तूफान से तेज़ उड़ता है वह और
एक हाथी से ज्‍यादा भारी वज़न उठाता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक कारीगर चाहिए

जनरल, आदमी बहुत
उपयोगी होता है
वह उड़ सकता है और
हत्या भी कर सकता है
लेकिन उसमें एक दोष है

वह सोच सकता है
_____
8. भूखों की रोटी हड़प ली गई है (1933-47)

भूखों की रोटी हड़प ली गई है
भूल चुका है आदमी मांस की शिनाख्त
व्यर्थ ही भुला दिया गया है जनता का पसीना।
जय पत्रों के कुंज हो चुके हैं साफ।
गोला बारूद के कारखानों की चिमनियों से
उठता है धुआं।

Mazdoor Bigul

17 Dec, 16:55


हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य और काकोरी एक्शन के शहीद राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी अमर रहें!

राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का जन्म बंगाल (आज का बांग्लादेश) में पबना जिले के अन्तर्गत मड़याँ (मोहनपुर) गाँव में 29 जून 1901 को हुआ।इनके पिता का नाम क्षिति मोहन लाहिड़ी व माता का नाम बसन्त कुमारी था। उनके जन्म के समय पिता क्रान्तिकारी क्षिति मोहन लाहिड़ी व बड़े भाई बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास की सलाखों के पीछे क़ैद थे। वाराणसी में अध्ययन के दौरान एक दिन राजेन्द्र लाहिड़ी की भेंट मशहूर क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल से हुई। सान्याल के सम्पर्क में आने के बाद वे जल्द ही क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़ गये तथा शहादत के दिन तक जुड़े रहे। 9 अगस्त 1925 के दिन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े हुए क्रान्तिकारियों ने काकोरी रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन रोककर सरकारी ख़ज़ाना लूट लिया था। इस एक्शन में राजेन्द्र लाहिड़ी की भूमिका महत्वपूर्ण थी, स्टेशन के आगे उन्होंने ही चेन खींचकर गाड़ी रोकी थी। काकोरी एक्शन के दौरान लाहिड़ी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में एम० ए० (प्रथम वर्ष) के छात्र थे। इस एक्शन को अंजाम देने के जुर्म में 17 दिसम्बर 1927 को गोण्डा के जिला कारागार में अपने साथियों से दो दिन पहले उन्हें फाँसी दे दी गयी। उनके शहादत के 97 साल बाद भी सच्चे मायने में आज़ादी - बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम की आज़ादी, का उनका सपना वास्तव में अधूरा है। उस सपने को साकार करने का दायित्व आज के न्यायप्रिय नौजवानों के कंधों पर है। राजेन्द्र लाहिड़ी भविष्य के प्रति उत्कट आस्था रखते थे। उन्होंने कहा था -"मौत क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के सिवाय कुछ नहीं। जीवन क्या है? मौत की ही दूसरी दिशा का नाम है। फिर डरने की क्या ज़रूरत है? यह तो प्राकृतिक बात है, उतनी ही प्राकृतिक जितना कि प्रातः में सूर्योदय। यदि हमारी यह बात सच है कि इतिहास पलटा खाता है तो मैं समझता हूँ कि हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा।"

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:14


🌄🌅 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 उन साहित्‍यकारों की याददिहानी के साथ जिन्होंने मानवता के बेहतर भविष्य के लिए अपनी जिंदगी लगा दी 📚
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: उम्मीद का शायर
स्‍मृति दिवस - 20 नवम्‍बर
🖌 आशीष
📱https://ahwanmag.com/archives/1478
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फ़ैज़ की कविता में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है दबे-कुचलों के प्रति दुख-दर्द की भावना, जनमानस से अटूट रिश्ता। चाहे दुनिया के किसी भी कोने में इंसानी रक्त बहे, फ़ैज़ किसी भी घटना से अप्रभावित नहीं रहे। इसीलिए जब ईरान में छात्रों को मौत के अन्धे कुँए में धकेला जाता है तो वे एक कविता ‘ईरानी तुलबाँ के नाम’ लिखते हैं, अफ्रीकी स्वतन्त्रता प्रेमियों के समर्थन में ‘AFRICA COME BACK’ का नारा लगाते हैं और साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-सीना’ और फिलिस्तीनी बाँकों को श्रद्धांजलि पेश करने के लिए ‘दो नज़्में फिलिस्तीन के लिए’ लिखकर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं। फ़ैज़ की नज़्में देश-काल की सीमाओं को लाँघकर दुखी जनों की आवाज़ बनकर सामने आती है। वे सच्चे मायने .......

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:11


फ़ैज़ के स्मृति दिवस (20 नवम्बर) पर

तराना
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएँगे

कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएँगे
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है

जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं

जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से न टाले जाएँगे
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत

चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक

कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:11


बोल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा

बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकाँ में

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक

बोल जो कुछ कहना है कह ले

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:49


फ़ासीवाद के सवाल पर एक जरूरी बहस - भाग - 7

‘Lalkaar-Pratibaddh’ Group’s Understanding of Fascism
A Menagerie of Dogmatic Blunders
(Part – VII)
'ललकार-प्रतिबद्ध' ग्रुप की फ़ासीवाद की समझदारी
कठमुल्लावादी ग़लतियों की नुमाइश भाग - 7
• Abhinav Sinha
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To read the complete article, follow this link 👇
https://anvilmag.in/archives/707
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http://anvilmag.in/wp-content/uploads/2024/11/Critique-of-Sukhwinder-on-Fascism-Part-VII.pdf

To read the earlier parts of this critique, please click on the links 👇
First part - https://anvilmag.in/archives/677⁣
second part - https://anvilmag.in/archives/685
third part - https://anvilmag.in/archives/690
Fourth part - https://anvilmag.in/archives/694
Fifth part - https://anvilmag.in/archives/698
Sixth part - https://anvilmag.in/archives/703
*️⃣ Hindi and Punjabi versions will also be uploaded soon.
अभी यह बहस सिर्फ अंग्रेजी में है। हिंदी व पंजाबी में जल्द ही अपलोड की जाएगी।
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𝟏𝟔. 𝐒𝐮𝐤𝐡𝐰𝐢𝐧𝐝𝐞𝐫’𝐬 𝐀𝐜𝐜𝐨𝐮𝐧𝐭 𝐨𝐟 𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐈𝐧𝐝𝐢𝐚: 𝐀 𝐌𝐞𝐧𝐚𝐜𝐞 𝐭𝐨 𝐭𝐡𝐞 𝐃𝐞𝐯𝐞𝐥𝐨𝐩𝐦𝐞𝐧𝐭 𝐨𝐟 𝐀𝐧𝐲 𝐔𝐧𝐝𝐞𝐫𝐬𝐭𝐚𝐧𝐝𝐢𝐧𝐠 𝐨𝐟 𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐈𝐧𝐝𝐢𝐚

𝘈. “𝘉𝘢𝘳𝘦-𝘯𝘢𝘬𝘦𝘥” 𝘝𝘢𝘤𝘶𝘪𝘵𝘺 𝘰𝘧 𝘚𝘶𝘬𝘩𝘸𝘪𝘯𝘥𝘦𝘳’𝘴 𝘝𝘦𝘳𝘺, 𝘝𝘦𝘳𝘺 𝘉𝘳𝘪𝘦𝘧 𝘈𝘤𝘤𝘰𝘶𝘯𝘵 𝘰𝘧 𝘍𝘢𝘴𝘤𝘪𝘴𝘮 𝘪𝘯 𝘐𝘯𝘥𝘪𝘢

From page number 47 to 49 in his booklet on fascism, Sukhwinder presents a very, very brief account of fascist rise in India. He warns the readers that they should consult “other books”. Well, to say the least, after systematic dumbing down of the minds of the readers with this very, very brief account, even reading the best of the research works on fascism in India, would not be able to play the role of an antidote. We will explain why we are saying this.

First of all, any person has the right to present a brief account of any historical process. However, the usefulness of such account depends on one basic pre-requisite that it must fulfil: it must capture at least the nodal points or defining moments of that process. Sukhwinder’s account completely fails to capture the milestones or the turning points in the rise of fascism in India. It is a very poor factual account with inaccuracies. Secondly, if a Marxist presents even a very brief account of a socio-economic and political phenomenon, it must have two basic elements: one, causal analysis and two, the identification of the phases of the process. Both these elements are missing. Allow us to demonstrate this fact.

The account of Sukhwinder is a thoroughly impoverished selection of facts from a variety of sources. A reader can get a better view of things by reading Wikipedia articles on the subject, if not scholarly research works! For instance, he does not even mention the core of the ideology of Hindutva fascism, as it originated and evolved through Savarkar to Golwalkar and later. The essence of fascist ideology itself is lost in his account. Secondly, he does not discuss the basic phases of evolution of fascist ideology and organization from 1925 to 1947 (foundations of fascist ideology, origins of the cadre structure and development of a limited support base among the urban petty-bourgeoisie and upper-caste landlordist reaction), from 1948 to 1962 (period of relative downturn and sidelining of the RSS due to the assassination of Gandhi, even though the ban on the RSS was lifted very soon and the development of cadre organization and infiltration into state apparatus continued), from India’s China War (1962) to the mid-1980s (the re-emergence of the RSS in the mainstream bourgeois politics, continued growth of cadre organization, continued infiltration into the state apparatus, and beginnings of the rise of fascist social movement), the mid-1980s to 1996 (the period of first paroxysm with the demolition of the Babri Masjid when Indian fascism moved from a long ‘war of positions’ to a period of ‘war of movement’, formation of BJP or BJP-led governments in some states,

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:48


“अगर हमें ज़िन्दा रहना है तो हमें हत्या करनी होगी, हत्या करनी होगी और हत्या करनी होगी। .. अगर हम हत्या नहीं करते हैं तो हम अस्तित्वमान नहीं रह सकते.. एकतरफ़ा विलगाव से ‘शान्ति’ की कोई गारण्टी नहीं मिलेगी- यह एक ज़ायनवादी- यहूदी राज्य की गारण्टी देता है जिसमें बहुसंख्या यहूदियों की होगी।” – अरनोन सोफ्फ़र, इज़रायली प्रोफ़ेसर
यह कथन इज़रायली राज्य का सच ज़ाहिर करता है। वह सच जो तमाम इज़रायली कुकर्मों पर सफ़ेदी पोतने वाले लाख चाहकर भी छिपा नहीं पाते हैं। आज जिसे इज़रायल देश कहा जाता है वह असल में फ़िलिस्तीन ही है। ज़ायनवादियों ने 19वीं शताब्दी के अन्त से ही इस योजना को पेश किया कि फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर यहूदियों का देश बसे और इसके लिए साम्राज्यवादियों से गुहार भी लगायी। यह एक लम्बी परियोजना थी जिसे ज़ायनवादी अंजाम देना चाहते थे। सबसे पहले 1883 से 1903 के बीच यहूदियों को इस इलाक़े में आने के लिए प्रेरित किया गया। तब 25 हज़ार से ज़्यादा यहूदी यहाँ आये। उस समय मुख्य रूप से फ़्रांस ने इन यहूदीवादी गतिविधियों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया था। दूसरी घुसपैठ 1904 से 1914 के बीच हुई। तब 40 हज़ार यहूदी इस इलाक़े में आकर बसे।
थियोडोर हर्ज़ल के अनुसार:
“हमें निर्धारित की गयी भूसम्पदा पर निजी सम्पत्ति को लगातार धीरे-धीरे ज़ब्त करना होगा। हमें ग़रीब जनता को बॉर्डर के पार भेजने का प्रोत्साहन देने के लिए उसे अपने ही देश में रोज़गार से वंचित करके पारगमन देशों में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए प्रयत्न करने होंगे। सम्पत्ति मालिक हमारी तरफ़ आ जायेंगे। ज़ब्ती लूट और ग़रीबों को हटाये जाने की प्रक्रिया दोनों ही बहुत सावधानी और सोचे-समझे तरीक़े से करनी होगी।
ज़ायनवादी उपनिवेश मूल निवासी जनता की इच्छा की अवज्ञा करके ही बनाया जाये। यह उपनिवेश बरक़रार और विकसित केवल देशी जनता से स्वतन्त्र, एक ताक़तवर सैन्यदल के संरक्षण में ही हो सकता है – एक ऐसी लौह दीवार जिसे मूल जनता तोड़ न पाये। यही सम्पूर्णता में अरब के प्रति हमारी नीति है। इसे प्रतिपादित निरूपित करने के लिए कोई भी अन्य तरीक़ा पाखण्ड होगा।”
यह कथन इज़रायल बनने की प्रक्रिया को समझा देता है और इसमें प्रथम विश्व युद्ध के बाद प्रमुखतः ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की भूमिका रही। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ओटोमन साम्राज्य की ब्रिटेन से हार के बाद फ़िलिस्तीन ब्रिटिश हुकूमत का उपनिवेश बन गया। 1918 में ब्रिटिश सेना ने फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। ब्रिटिश कैबिनेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ में इस ज़ायनवादी परियोजना पर मुहर लगा दी। इस घोषणा में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन को ‘राष्ट्रीय यहूदी मातृभूमि’ बनाने का समर्थन किया। इसमें फ़िलिस्तीनी बाशिन्दों का कहीं भी ज़िक्र नहीं था। 1922 में लीग ऑफ़ नेशंस ने ‘मैण्डेट फॉर फ़िलिस्तीन’ में ब्रिटेन की हुकूमत को स्वीकार किया। इस मैण्डेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ को ही शब्दशः अपना लिया। एक ओर सत्ता के गलियारों में सौदेबाजी हो रही थी तो दूसरी ओर यहूदी घरानों ने फ़िलिस्तीनी ज़मीन खरीदना और यहाँ बसना शुरू किया। यहूदी सेटलरों का लगातार फ़िलिस्तीन आकर बसने को ज़ायनवादी बढ़ावा देते रहे क्योंकि वे आबादी के अनुपात में सेटलरों की संख्या इतनी बढ़ाना चाहते थे कि फ़िलिस्तीनी अस्मिता को मिटाया जा सके। 1935 तक ही 60,000 से अधिक यहूदी प्रवासी फ़िलिस्तीन आये। यह 1917 में कुल यहूदी आबादी की संख्या से भी अधिक थी। आर्थिक तौर पर फ़िलिस्तीनी आबादी मुख्यतः खेती पर निर्भर थी। 1930 के दशक में यहूदी आबादी ने आर्थिकी में फ़िलिस्तीनियों को पछाड़ दिया। ज़ायनवादियों ने 1921 में हैगनाह के नाम से एक गिरोह संगठित किया जो एक ख़तरनाक आतंकवादी संगठन के रूप में विकसित हो गया। इसका काम ही था अरब गाँवों और मुहल्लों पर हमला करके उनके घरों और खेतों को जलाने के साथ-साथ उन्हें मार-पीटकर भगा देना तथा वहाँ यहूदियों के लिए नयी बस्तियाँ बसाना। आज भी गज़ा को नेस्तनाबूद कर सेटलर बसावट का प्रस्ताव या वेस्ट बैंक में लगातार ज़मीनों का सेटलरों और इज़रायली सेना का फ़िलिस्तीनी घरों और ज़मीन पर क़ब्ज़ा ज़ायनवाद की ऐतिहासिक योजना की ही निरन्तरता है। यह कोई आकस्मिक उठा बर्बरता का उन्मादी दौरा नहीं है। 1948 तक ब्रिटिश हुकूमत के मातहत रहते हुए भी फ़िलिस्तीन में एक यहूदी अर्द्ध-राज्य अस्तित्व में आ चुका था जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का समर्थन प्राप्त था। 1936-39 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ अरब विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस युद्ध में फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवादी ताक़तों के बिखरे प्रयासों को बरतानवी हुकूमत ने ख़ून में डुबो दिया। राशिद खालिदी बताते हैं कि:

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:48


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इज़रायल : साम्राज्यवादी हितों के लिए खड़ा किया गया एक सेटलर-कोलोनियल राज्य
सनी
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://ahwanmag.com/archives/8233

यहूदी राज्य यूरोप की रक्षा की दीवार का अंग बनेगा और यह सभ्यता की बर्बरता के ख़िलाफ़ चौकी होगा।
– थियोडोर हर्ज़ल
ज़ायनवादी सिद्धान्तकार हर्ज़ल ने यह बात अपनी पुस्तक ‘यहूदी राज्य’ में इज़रायल के बनने से क़रीब 50 साल पहले कही थी। यह एक नये क़िस्म के औपनिवेशिक राज्य की वकालत थी जिसे साम्राज्यवाद के युग में खड़ा किया जाना था। 1948 में यही ज़ायनवादी योजना अमली-रूप लेती है और आज जिस इज़रायल को हम देख रहे हैं यह इस सेटलर-कोलोनियल परियोजना का ही नतीजा है। इज़रायल एक सेटलर-कोलोनियल राज्य है। इज़रायल के राज्य के इस चरित्र को समझकर ही फ़िलिस्तीनी अवाम के संघर्ष को, गज़ा के बर्बर नरसंहार के बावजूद इज़रायल को मिल रहे बेशर्म साम्राज्यवादी समर्थन को और इज़रायली राज्य के अन्तरविरोधों को समझ सकते हैं। साथ ही इसकी रोशनी में हम फ़िलिस्तीन पर इज़रायली राज्य द्वारा लागू की जा रही अपार्थाइड नीतियों को समझ सकते हैं।
लेख लिखे जाने तक रफ़ा में इज़रायली हमला जारी है जिसमें हर रोज़ फ़िलिस्तीनी नागरिक मारे जा रहे हैं। इज़रायल हमास के ख़िलाफ़ युद्ध हार चुका है क्योंकि तमाम दावों के बाद भी वह हमास की सैन्य क्षमता को नष्ट करने में असफल रहा है। इज़रायल का गज़ा में नरसंहार 7 अक्टूबर के बाद शुरू हुआ। 7 अक्टूबर का दिन ‘प्रिज़न ब्रेक’ था जिस दिन फ़िलिस्तीनियों ने गज़ा की ‘खुली जेल’ में जारी बर्बर औपनिवेशिक दमन के ख़िलाफ़ इज़रायल में घुसकर हमला किया और सैकड़ों उपनिवेशवादियों को मार दिया। यह फ़िलिस्तीनियों का प्रतिरोध युद्ध के दौरान उठाया गया साहसपूर्ण क़दम था। हथियारों के विराट ज़ख़ीरे और ‘आइरन क्लेड’ अमरीकी मदद के बावजूद इज़रायल के भीतर हमला हुआ और सैकड़ों सेटलरों को हमास के लड़ाके बन्धक बनाकर गज़ा ले गये। आइरन डोम से लेकर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ सर्विलांस के तमाम उपकरणों के बावजूद इज़रायल 7 अक्टूबर के हमले के जवाब में हमास को सैन्य तौर हराने में असफल रहा है। इस असफलता के प्रतिशोध में ही इज़रायली सेना गज़ा में मासूमों पर बमवर्षा कर एक पूरी क़ौम को ख़त्म करने पर आमादा है। न सिर्फ़ इस बम वर्षा में आम नागरिक मारे जा रहे हैं बल्कि इज़रायल एआई का चुनिन्दा तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। फ़िलिस्तीनी कलाकारों-लेखकों को निशाना बनाया गया है ताकि फ़िलिस्तीन की कविताओं, गीतों, चित्रों, कहानियों और उसकी संस्कृति तथा उसके इतिहास को मिटाया जा सके। डॉक्टरों को मारकर, अस्पतालों को नेस्तनाबूद कर गज़ा को यातना गृह में तब्दील कर दिया गया है। गज़ा से लेकर दुनिया भर में सड़कों पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति का झण्डा लहरा रहा है जबकि सत्ता के गलियारों में झूठे शान्ति प्रस्तावों के साथ ही हत्यारों की ‘आत्मरक्षा’ के ‘डिस्कोर्स’ में हथियारों के ज़ख़ीरों के सौदे हो रहे हैं। अरब देशों के शासक वर्ग फ़िलिस्तीनी मुक्ति युद्ध को साम्राज्यवादियों के समक्ष बटखरे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं हालाँकि अरब जनता के फ़िलिस्तीनी जनता के प्रति गहरे लगाव के दबाव में वे इज़रायल से नाराज़गी भी व्यक्त करते रहते हैं। साम्राज्यवादी शक्तियाँ खोखले शान्ति प्रस्तावों के साथ और दीर्घकालिक समाधान की बातें करते हुए इस युद्ध को जारी रखना चाहती हैं। 1917 का बाल्फ़ोर घोषणापत्र, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का व्हाइट पेपर, 1948 का यूनाइटेड नेशंस का प्रस्ताव, 1967 का प्रस्ताव या ‘ओस्लो समझौता’; सब इज़रायल के सेटलर-कोलोनियल राज्य पर मुहर लगाने का ही काम करते आये हैं।
आज साम्राज्यवादी मीडिया के माध्यम से इज़रायल द्वारा गज़ा में किये जा रहे नरसंहार का विरोध करना भी ‘यहूदी-विरोधी’ घोषित किया जा रहा है और आलम यह है कि इज़रायल नाज़ियों द्वारा किये नरसंहार की आड़ में इस शताब्दी के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम दे रहा है। शान्ति प्रस्तावों, मानवीय सहायता के ढोंग और दीर्घकालिक तौर पर ‘टू-स्टेट सोल्यूशन’ की बातें असल में एक पर्दा है जो इज़रायल के कृत्रिम सेटलर-कोलोनियल राज्य पर और उसकी अपार्थाइड नीतियों पर पर्दा डालने का काम करता है। गज़ा में आज जो नरसंहार हो रहा है उसके पीछे छिपे मुनाफ़े के सौदों और उन सौदों को बरक़रार रखने के लिए बनाये गये कृत्रिम इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की निशानदेही करनी होगी।

इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की स्थापना और अपार्थाइड नीतियाँ

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:47


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - सुखी-सम्पन्न लोग
कविता कृष्णपल्लवी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/blog-post_28.html

सुखी-सम्पन्न लोग अक्सर
अपने अकेलेपन की बातें करते हैं।
थोड़ी दार्शनिक मुद्रा में अक्सर
वे कहते हैं कि सबकुछ होते हुए भी
मनुष्य कितना अकेला होता है!
वे सड़क से रोज़ाना गुज़रते
कामगारों को बिना चेहरों वाली
भीड़ की तरह देखते हैं।
अपनी कार के टायर बदलने वाले
या घर की सफाई-पुताई करने वाले
मज़दूर को वे नाम से नहीं जानते
और कुछ ही दिनों बाद
उसका चेहरा भी भूल जाते हैं।
लेबर चौक पर खड़े मज़दूरों को देखकर
उन्हें लगता है कि देश की
आबादी बहुत बढ़ गयी है।
सुखी-सम्पन्न लोगों को आम लोगों से
हमेशा बहुत सारी शिक़ायतें रहतीं हैं।
वे उनके गँवारपन, काहिली, बद्तमीज़ी,
ज़्यादा बच्चे पैदा करने की उनकी आदत
और उनमें देशभक्ति की कमी की
अक्सर बातें करते रहते हैं।
सरकार के बारे में वे हमेशा
सहानुभूतिपूर्वक सोचते हैं और
कहते रहते हैं कि सरकार भी आख़िर क्या करे!
वे आम लोगों को सुधारने और उनके
बिगड़ैलपन को दूर करने के लिए
तानाशाही को सबसे कारगर मानते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
बदलते मौसमों, पेड़ों और
फूलों के बारे में और नदियों-पहाड़ों के बारे में
बस इतनी जानकारी होती है
कि वे उनके बारे में बातें कर सकें
जब उनके पास करने के लिए
कोई और बात न हो.
सुखी-सम्पन्न लोग अपनी छोटी सी
सुखी-सम्पन्न दुनिया में
पूरी उम्र बिता देते हैं
और अपने दुखी होने के कारणों के बारे में
कुछ भी नहीं जान पाते।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
इस बहुत बड़ी दुनिया के आम लोगों की
बहुत बड़ी आबादी के जीवन के बारे में
बहुत कम जानकारी होती है
और दुनिया की सारी ज़रूरतें
पूरी करने वाले मामूली लोग
उनके ज़ेहन में कहीं नहीं होते
जब वे मनुष्यता के संकट की बातें करते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोग मनुष्यता से अपनी दूरी
और उसके कारणों के बारे में
कभी जान नहीं पाते
और अपने सुखी-सम्पन्न जीवन के
अनंत क्षुद्र दुखों के बारे में ही
सोचते हुए और रोते-गाते हुए,
ध्यान और योग और विपश्यना करते हुए,
नियमित हेल्थ चेकअप कराते हुए
और मरने से डरते हुए
एक दिन, आख़िरकार मर ही जाते हैं
सचमुच!

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:46


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन साहित्‍य के साथ 📚
_____
मेटामॉरफ़ॉसिस
अन्वेषक
📱 https://ahwanmag.com/archives/8228

आज के समय को मेटामॉरफ़ॉसिस काल कहना अधिक उचित होगा। जिस हिसाब से मेटामॉरफ़ॉसिस की प्रक्रिया आज समाज में चल रही है, उतनी इतिहास में कभी नहीं चली होगी। फ़्रेंज़ काफ़्का के लघु उपन्यास ‘मेटामॉरफ़ॉसिस’ में एक छोटा-सा क्लर्क होता है, जो तिलचट्टा बन जाता है, पर हमारे देश में तो बड़े-बड़े लोग, नेता इस प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं। भारतीय समाज थोड़ा जटिल समाज है, इसलिए यहाँ मेटामॉरफ़ॉसिस थोड़ी जटिल प्रक्रिया से होता है। अभी परसों की बात है। विपक्षी पार्टी के बड़े नेता सरकार को बड़े-बड़े शब्दों में गरियाते हुए सोये। पता चला अगले दिन वह सरकार के मन्त्रियों के साथ खड़े होकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। देखा, हुआ न रात भर में मेटामॉरफ़ॉसिस!

मैं सोचता हूँ कि रात भर वह नेता क्या सोच रहा होगा! ऐसा क्या हुआ कि सुबह उठते ही उसे वह सरकार इतनी पसन्द आने लगी जिसे रात में वह गाली दे रहा था। रात में उसे देश में हर जगह .....

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


रचनाएँ सोवियत संघ में प्रकाशित हुईं। जैक लण्डन की लगभग ऐसी ही लोकप्रियता सभी पूर्वी यूरोपीय देशों में थी जहाँ उसकी रचनाओं के अतिरिक्त उनपर बनी फिल्मों को भी लोगों ने काफी पसन्द किया। पोलैण्ड में 1909 से लेकर 1990 तक जैक लण्डन की लोकप्रियता का आलम यह था कि हर वर्ष 'बेस्टसेलर' किताबों की सूची में उसकी कुछ किताबें शामिल होती थीं और स्कूली छात्रों तक की सबसे अधिक संख्या जिस विदेशी लेखक से परिचित होती थी, वह जैक लण्डन ही था। इस स्थिति में 1990 के बाद परिवर्तन आया जब अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के निर्बाध वर्चस्व ने पोलैण्ड सहित समूचे पूर्वी यूरोप को विश्व मण्डी का एक अविभाज्य अंग बना दिया। लेकिन इन बदली स्थितियों में इन देशों में सिर्फ जैक लण्डन की ही लोकप्रियता नहीं घटी है। सभी महान लेखकों के साथ यह हुआ है कि उनके कृतित्व को कचरा साहित्य ने ढाँप लिया है।

पश्चिम में सर्वहारा साहित्य के एक प्रवर्तक के रूप में जैक लण्डन ने अपने जीवनकाल में ही विश्वव्यापी ख्याति अर्जित कर ली थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमेरिकी पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की अवस्था में संक्रमण की अभिलाक्षणिकताएँ स्पष्ट हो चुकी थीं। इसके साथ ही साहित्य में सामाजिक-राजनीतिक आलोचना की सघनता- तीक्ष्णता बहुत अधिक बढ़ गई थी। मार्क ट्वेन ने अपनी साहित्यिक रचनात्मकता का पटाक्षेप साम्राज्यवाद-विरोधी पैम्फलेटों के लेखन के साथ किया। 'मकरेकर्स' नाम से प्रसिद्ध लेखकों का ग्रुप सामाजिक अन्तर्विरोधों को उजागर करने में ज़ोला की शैली के साथ डिकेन्स की वस्तुपरकता और मार्क ट्वेन की तीक्ष्ण तिक्तता का संश्लेषण कर रहा था। विरासत के इसी सूत्र को थामकर जैक लण्डन, अप्टन सिंक्लेयर और थियोडोर ड्रेज़र ने घोषित तौर पर सर्वहारा की पक्षधरता के साथ लेखन की शुरुआत की। जैक लण्डन और अप्टन सिंक्लेयर ने सचेतन तौर पर समाजवाद की विचारधारा को स्वीकार किया और राजनीति के क्षेत्र में भी सक्रिय हुए। उन्होंने पूँजीवादी समाज के सभी बुनियादी अन्तर्विरोधों, बुर्जुआ जनवाद की वास्तविकता और बुर्जुआ वर्ग की समस्त आत्मिक रिक्तता को अपनी रचनाओं में उजागर करने के साथ ही मजदूर वर्ग की चेतना और संघर्षों के नये उभार को भी देखा तथा बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के राजनीतिक संघर्ष की अपरिहार्यता पर बल देते हुए इसी में मानवता का भविष्य खोजने की कोशिश की। इतिहास का सिंहावलोकन करते हुए आज यह बेहिचक कहा जा सकता है कि मक्सिम गोर्की और जैक लण्डन वे पहले लेखक थे जिनकी रचनाओं में उन्नीसवीं शताब्दी के क्रान्तिकारी बुर्जुआ यथार्थवाद से समाजवादी यथार्थवाद में संक्रमण को लक्षित किया जा सकता है।

हावर्ड फास्ट ने अपनी चर्चित आलोचनात्मक कृति साहित्य और यथार्थ में लिखा है : "जिस समय जैक लण्डन 'आयरन हील' लिख रहे थे, लगभग उसी समय गोर्की ने 'माँ' लिखा। दोनों ही लेखकों ने स्वयं को सचेत रूप से अपने देश के अगुआ दस्ते सर्वहारा वर्ग से जोड़ा-गोर्की ने रूस की सामाजिक जनवादी पार्टी से (जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बनी) तथा जैक लण्डन ने अमेरिका की समाजवादी पार्टी के वाम पक्ष से (जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बनी)। दोनों ही लेखक 1905 की क्रान्ति में रूसी सर्वहारा वर्ग की अस्थायी हार से गम्भीर रूप से प्रभावित हुए। 'आयरन हील' में जैक लण्डन ने उस उभरते फासिज्म का अविश्वसनीय चित्र खींचा जो अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग को कुचलकर मानव-सभ्यता के विकास को सैकड़ों वर्ष पीछे धकेल देगा। लेकिन गोर्की क्योंकि संघर्ष के बीच में थे, इसलिए वे भविष्य को अधिक आशान्वित रूप में देखते हैं।” हावर्ड फास्ट ने जैक लण्डन की महत्ता के साथ ही यहाँ उसके उन अन्तर्विरोधों की ओर भी इंगित किया है जो जीवन के आखिरी छह वर्षों के दौरान उसे निराशा के गर्त में धकेलने के साथ ही समाजवादी विचार से भी दूर ले गये। जैक लण्डन के इन अन्तर्विरोधों के स्रोत उसके जीवन में, उसके विचारों में और तत्कालीन अमेरिकी समाज में मौजूद थे। बहरहाल, इन अन्तर्विरोधों और विचलन के बावजूद यह तथ्य अपनी जगह पर कायम है कि जैक लण्डन अमेरिकी साहित्य में यथार्थवादी परम्परा का एक मील का पत्थर और पश्चिम में सर्वहारा साहित्य के प्रवर्तकों में से एक था।

पहले विश्वयुद्ध में अमेरिका की भागीदारी का समर्थन करने के बाद वह अपने पुराने कामरेडों से और अधिक दूर हो गया। लेकिन इन सबके बावजूद, जैक लण्डन की समाजवाद में आस्था और उत्पीड़ितों की पक्षधरता आखिरी साँस तक बनी रही। समाजवाद की विजय के प्रति गहरी शंका के बावजूद, कम-से-कम एक यूटोपिया के रूप में वह उसे लगातार अपनाये रहा। उसका तर्कशील मस्तिष्क पूँजीवादी विश्व की भौतिक-आत्मिक शक्तिमत्ता और पूँजी के विश्वव्यापी वर्चस्व की व्याख्या के लिए नीत्शे के नस्ली श्रेष्ठता के विचारों और सामाजिक डार्विनवाद के प्रतिक्रियावादी सिद्धान्तों को अपनाने तक चला

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


जाता था, लेकिन समाजवाद के लिए संघर्ष का वह कभी भी विरोधी नहीं बना। उल्लेखनीय है कि निष्क्रिय होने के बाद भी वह समाजवादी पार्टी का सदस्य बना रहा और 1916 में, अपनी मृत्यु के ठीक पहले जब उसने पार्टी से इस्तीफा दिया तो कारण यह बताया कि अब पार्टी की ‘लड़ाकू स्पिरिट' के बारे में उसके मन में सन्देह पैदा हो चुका है। जैक लण्डन के जटिल मानस के जीवनपर्यन्त असमाधानित वैचारिक अन्तर्विरोधों को समझने की दृष्टि से यह तथ्य बहुत गौरतलब है। यह अटकल लगाने के पर्याप्त आधार हैं कि जैक लण्डन यदि 1917 की अक्टूबर क्रान्ति और उसके बाद की दुनिया को देख पाता, यदि वह आखिरी मजदूर आन्दोलन के नये उभार और 1919 में अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन का साक्षी बन पाता, और यदि तीसरे चौथे दशक में फासीवादी उभार तथा महामन्दी के संकट के काल में वह जीवित रहा होता तो दुनिया शायद एक बार फिर उसके विचारों और कृतित्व में मार्क्स द्वारा नीत्शे और स्पेंसर की पराजय होते देख पाती। बहरहाल, अटकल तो फिर भी अटकल है।

बचपन से कठिन जीवन, बीहड़ घुमक्कड़ी की तकलीफों और धुआँधार लेखन की दिनचर्या ने जैक लण्डन के खूबसूरत और मजबूत शरीर को पैंतीस की उम्र तक खोखला कर डाला था। 1914 में मेक्सिको यात्रा के दौरान उसे प्लूरसी और गम्भीर पेचिश ने धर पकड़ा। 1915 में तुर्की-यात्रा के दौरान गठिया ने प्रचण्ड हमला किया। पाँच माह तक हवाई में स्वास्थ्य लाभ भी किया, पर कोई खास फायदा नहीं हुआ। 1916 में घर लौटने के बाद गठिया के साथ ही 'यूरेमिया' (मूत्ररुधिरता) का भी प्रकोप हुआ और उसके बाद 'रेनल कॉलिक' (गुर्दे से जुड़ा उदरशूल) का हमला हुआ। अनिद्रा स्थायी समस्या बन चुकी थी। नवम्बर में 'इण्टस्टिंशियल नेफ्राइटिस' (गुर्दे की बीमारी) ने निर्णायक प्रहार किया। महज चालीस वर्षों का जीवन, लेकिन बेहद तूफानी, सर्जनाशील और प्रयोगों से भरा हुआ जीवन जीने के बाद, जैक लण्डन ने 22 नवम्बर, 1916 की शाम को आखिरी साँस ली। वह उत्तप्त-उद्दीप्त उल्कापिण्ड-सा जीवन बुझ गया और क्षितिज पर शेष रह गई प्रकाश की एक रेखा!

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


📚 यूनाइटिंग वर्किंग क्लास प्रस्तुत 📚
📖 बेहतरीन पुस्तकों की पीडीएफ 📖
⏺️ This time we are providing pdf in two languages - Hindi and English
इस बार की पीडीएफ दो भाषाओं (हिंदी व अंग्रेजी) में उपलब्ध कराई जा रही है
________
जैक लण्‍डन के कालजयी उपन्यास ‘आयरन हील' की पीडीएफ फाइल
PDF file of Jack London's Timeless Novel - The Iron Heel
जैक लण्‍डन की इस पुस्‍तक की एच. ब्रूस फ्रेंकलिन द्वारा 21 अप्रैल, 1980 को लिखित भूमिका पढ़ने के लिए इस लिंक पर जायें -https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/pdf-file-of-jack-londons-novel-iron-heel.html

पीडीएफ फाइल मंगवाने के लिए दिये व्‍हाटसएप्‍प नम्‍बर (9892808704) पर व्‍हाटसएप्‍प से ही संदेश भेजें। ईमेल या अन्‍य किसी अन्‍य माध्‍यम से फाइल नहीं भेजी जायेगी। आप इस ऑनलाइन लिंक से बिना व्‍हाटसएप्‍प का इस्‍तेमाल किये भी डाउनलोड कर सकते हैं -
हिन्‍दी - https://drive.google.com/file/d/1BeAZ6LCC6sOuLfBVl1frtpvHMDZ1rdiQ/view?usp=sharing
English - https://drive.google.com/file/d/1bZ0XhRiklpacJPSXXCFlDvwLE8YEAWFd/view?usp=sharing
टेलीग्राम पर भी आप इस फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं - टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

जैक लण्‍डन, उसका समय और उसका कृतित्‍व

(सत्‍यम और कात्‍यायनी द्वारा लिखित विस्‍तृत लेख के कुछ हिस्‍से)

वेगवान उद्दीप्त उल्का-सा वह जीवन!
'धूल की जगह राख होना चाहूँगा मैं!
मैं चाहूँगा कि एक दैदीप्यमान ज्वाला बन जाये भड़ककर मेरी चिनगारी बजाय इसके कि सड़े काठ में उसका दम घुट जाये।
एक ऊँघते हुए स्थायी ग्रह के बजाय
मैं होना चाहूँगा एक शानदार उल्का
मेरा प्रत्येक अणु उद्दीप्त हो भव्यता के साथ।
मनुष्य का सही काम है जीना, न कि सिर्फ जीवित रहना।
अपने दिन मैं बर्बाद नहीं करूँगा उन्हें लम्बा बनाने की कोशिश में। मैं अपने समय का इस्तेमाल करूँगा।'

जैक लण्‍डन की की ये ओजपूर्ण पंक्तियां उसके जीवन और जीवन-दृष्टि का घोषणा-पत्र हैं।

विश्व-साहित्य में यथार्थवादी परम्परा पर कोई भी चर्चा जैक लण्डन के विशेषकर दो उपन्यासों - मार्टिन ईडन और आयरन हील के उल्लेख के बिना अधूरी मानी जायेगी। उसकी कुछ कहानियाँ भी ऐसी हैं, जिन्हें बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्टतम कहानियों में शामिल किया जा सकता है।

यह एक दिलचस्प ऐतिहासिक तथ्य है कि जैक लण्डन अपने समय के दो महान क्रान्तिकारियों का पसन्दीदा लेखक था। लेनिन की मृत्यु से दो दिन पहले उनकी पत्नी क्रुप्सकाया ने उन्हें जैक लण्डन की कहानी लव ऑफ लाइफ पढ़कर सुनाई थी और उन्हें वह बहुत अधिक पसन्द आई थी। भगतसिंह फाँसी की कोठरी में राजनीतिक अध्ययन के साथ-साथ जिन साहित्यकारों की कृतियाँ बहुत चाव के साथ पढ़ रहे थे, उनमें चार्ल्स डिकेंस, अप्टन सिंक्लेयर और मक्सिम गोर्की के साथ जैक लण्डन भी प्रमुख थे। जैक लण्डन के उपन्यास 'आयरन हील' से वे बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। अपनी जेल नोटबुक में (जो भगतसिंह की शहादत के छह दशक से भी अधिक समय बाद अंग्रेजी और हिन्दी में प्रकाशित हो सकी है) उन्होंने इस उपन्यास के कई उद्धरण दर्ज किये हैं। लियोन त्रात्स्की और हावर्ड फास्ट सहित कई मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों ने क्रान्तिकारी यथार्थवाद के अग्रतम पुरोधाओं में जैक लण्डन की गणना की है। जंगल उपन्यास के लेखक अप्टन सिंक्लेयर अपने इस समकालीन लेखक के व्यक्तित्व, विचारों और कृतित्व से बहुत अधिक प्रभावित थे। अप्टन सिंक्लयेर के सक्रिय समाजवादी बनने में जैक लण्डन के प्रभाव की भी एक अहम भूमिका थी। जैक लण्डन 1896-97 में ही अमेरिकी सोशलिस्ट पार्टी के वाम पक्ष से जुड़ चुके थे।

अमेरिका में साहित्य के अधिकांश गम्भीर पाठक आज भी जैक लण्डन की गणना सर्वश्रेष्ठ अमेरिकी लेखकों में करते हैं और कुछ तो उन्हें इस कतार में पहले स्थान पर रखते हैं। मार्क ट्वेन के बाद जैक लण्डन ही ऐसा अमेरिकी लेखक था, जो अपने बीहड़, साहसिक, रोमानी जीवन, क्रान्तिकारी विचारों और नई लकीर खींचनेवाली यथार्थवादी रचनाओं के चलते अपने जीवनकाल में ही जनसामान्य के बीच उतना अधिक लोकप्रिय हो पाया। फर्क यह था कि अपनी रचनात्मक सक्रियता के शुरुआती चन्द वर्षों के दौरान ही जैक लण्डन की प्रसिद्धि देशव्यापी हो चुकी थी। 1908 में आयरन हील और 1909 में मार्टिन ईडन के प्रकाशन के बाद उसकी ख्याति पूरे यूरोप और रूस तक पहुँच चुकी थी। उसकी हर कृति प्रकाशित होने के चन्द वर्षों के भीतर अधिकांश यूरोपीय भाषाओं में अनूदित हो जाती थी। रूस में अक्टूबर क्रान्ति के पहले ही जैक लण्डन लोकप्रिय हो चुका था। क्रान्ति के बाद 1919 में मयाकोव्स्की ने उसके उपन्यास 'मार्टिन ईडन' पर आधारित नॉट बॉर्न फॉर मनी नाम से बननेवाली फिल्म की न सिर्फ पटकथा लिखी, बल्कि उसमें अभिनय भी किया। 1928-29 में 24 खण्डों में जैक लण्डन की सम्पूर्ण

Mazdoor Bigul

09 Nov, 04:19


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यूवाल नोआ हरारी की आलोचना : भाग-2
‘सेपियन्स’ की आलोचना: चेतना के उद्भव तथा मानव प्रजाति का हरारी द्वारा पूँजीवादी संस्कृति के अनुसार सारभूतीकरण
सनी
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://ahwanmag.com/archives/8217

(युवाल नोआ हरारी एक धुर-प्रतिक्रियावादी इस्राइली प्रोफेसर है जो पश्चिमी प्रचार तंत्र द्वारा सिर्फ़ इसलिए हाथों हाथ लिया गया क्योंकि उद्विकास और मानव जाति के उद्भव के स्थापित वैज्ञानिक सिद्धांत और वैज्ञानिक भौतिकवादी व्याख्या को कथित तौर पर खंडित करते हुए वह नया सिद्धांत और नयी व्याख्या देने के दावे पेश करता है। लेकिन उसके सिद्धांत और उसकी स्थापनाएँ इतनी बोदी, हवाई और तथ्यों एवं तर्कों से परे हैं कि पश्चिम के गंभीर अकादमीशियन भी उसे गंभीरता से नहीं लेते। विडम्बना यह है कि बौद्धिक कचरे और सड़क छाप लुगदी के इस उत्पादक को भारत के कई मार्क्सवादी भी "धरतीधकेल धुरंधर विद्वान" समझते हैं और सोशल मीडिया पर उसकी प्रशंसा करते हुए लहालोट होते रहते हैं। जाहिर है कि ....

Mazdoor Bigul

09 Nov, 04:17


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन सिनेमा के साथ 📚
_____
'लखनऊ सिनेफ़ाइल्स' द्वारा अब तक अपलोड सभी फिल्मों का विवरण
📱 https://www.facebook.com/share/p/nL1xh3jEfFXCDoCq/
_____
दोस्तो, ‘लखनऊ सिनेफ़ाइल्स’ के टेलीग्राम चैनल पर अबतक हमने करीब 40 फ़िल्में शेयर की हैं। दो डॉक्युमेंट्री और 3-4 छोटी फ़िल्मों के अलावा बाक़ी सभी के हिन्दी और अंग्रेज़ी सबटाइटल्स और उनके संक्षिप्त परिचय भी साथ में हैं। फ़िल्मों की सूची नीचे यह रही :
(टेलीग्राम चैनल से जुड़ने का लिंक पोस्ट के अन्त में दिया है।)

1. द यंग कार्ल मार्क्स (The Young Karl Marx)

निर्देशक राउल पेक की यह फ़िल्म 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में दो महान मस्तिष्कों, कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स के मिलने, दुनिया को बदलने के विज्ञान की खोज में उनकी जद्दोजहद और उनकी कालजयी रचना ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ के लिखे जाने तक की यात्रा को दिलचस्प ढंग से बयान करती है।

2. ज़ेड (Z)

निर्देशक कोस्ता गावरास की ‘ज़ेड’ विश्व सिनेमा की एक क्लासिक फ़िल्म है। यह उन फिल्मों में से एक है जिनमें दिखाई गई सच्चाई कई दशकों के फ़ासले के ......

Mazdoor Bigul

09 Nov, 04:16


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - मूर्ख आततायी पर हँसो! उसकी अवज्ञा करो!!
कविता कृष्णपल्लवी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/blog-post_6.html

अगर एक ज़िंदा इंसान हो,
अगर एक विवेकशील, स्वाभिमानी नागरिक हो,
अगर तुम्हारे पास है अपने लोगों के लिए
प्यार की गरमी भरा एक निर्भीक ह्रदय,
तो अवज्ञा करो, अवज्ञा करो, अवज्ञा करो,
आततायी सत्ताधारी के हर उस बेतुके, हास्यास्पद,
और मनुष्यता को अपमानित करने वाले आदेश की
जो यह परीक्षा लेने के लिए जारी किया गया है कि
तुम गड़रिये के कुत्ते जितने गावदी और स्वामिभक्त,
धोबी के गदहे जितने रूटीन के गुलाम, विचारहीन
बने हो कि नहीं ,
या एक ऐसे आदर्श धर्मभीरु गोपुत्र और राष्ट्रवादी बने हो कि नहीं
जिसके भीतर एक बर्बर हत्यारा छिपा बैठा हो!
जब सड़कों पर बीमारी और महामारी दर-बदर करोड़ों
मेहनतक़शों को शिकार बना रही हों
और तानाशाह कुछ प्रतीकात्मक अनुष्ठान करने का
निर्देश जारी कर रहा हो,
और अगर तुम एक ज़िंदा इंसान हो,
एक विवेकशील, स्वाभिमानी नागरिक हो,
अगर तुम्हारे पास है अपने लोगों के लिए
प्यार की गरमी भरा एक निर्भीक ह्रदय,
तो अवज्ञा करो, अवज्ञा करो, अवज्ञा करो!
.
जब कोई बर्बर हत्यारा
खून सनी सड़कों से गुज़रकर
सत्ता के शिखर पर जा बैठा हो
और भयंकर झूठों को एक हज़ार डिजिटल मुँहों से
बार-बार दुहराता हुआ उन्हें अटल सच्चाइयों की तरह स्थापित कर रहा हो,
जब कोई सनकी हज़ारों नरभक्षियों को
बेगुनाह लोगों, बच्चों और स्त्रियों का आखेट करने के लिए
सड़क पर छुट्टा छोड़ने के बाद
शान्ति और अहिंसा के उपदेश सुनाता हो,
जब कोई विलासी, लम्पट व्यभिचार की गंद में
लोट लगाने के बाद सदाचार के कसीदे पढ़ता हो,
जब कोई महाभ्रष्टाचारी अपरिग्रह की महत्ता पर
प्रवचन सुनाता हो,
और उन्मादी विचारहीन बर्बर भीड़ से घिरे नागरिक भयवश चुप हों
और बस्तियों में मौत का सन्नाटा हो,
तो बाहर निकलना ही होगा उन कुछ लोगों को
इतिहास के निर्देशों का पालन करने के लिए
जो ज़िंदा इंसान हैं और जिन्होंने
ज़िंदा सवालों पर सोचने की आदत नहीं छोड़ी है!
उन्हें तानाशाह के हर आदेश की अवज्ञा करनी होगी,
उसकी हर मूर्खता पर हँसना होगा ज़ोर-ज़ोर से,
उनकी खिल्ली उड़ानी होगी,
उन्मादियों को उन्मादी, भक्तों को भक्त, मूर्खों को मूर्ख,
हत्यारों को हत्यारा और फासिस्ट को फासिस्ट कहना होगा
बिना किसी लागलपेट के, साफ़-साफ़ शब्दों में!
जब बहुत सारे भद्र नागरिक सुरक्षित-सुखी जीवन की चाहत में
जीने लगे हों बिलों में दुबके चूहों की तरह,
जब परिवर्तन से नाउम्मीद बहुतेरे ज्ञान-विलासियों ने
चीथड़ों पर ख़ूबसूरत पैबंद्साज़ी का धंधा शुरू कर दिया हो,
जब कई बार की पराजयों और कई विश्वासघातों के बाद,
आम मेहनतक़श लोगों के एक बड़े हिस्से ने सपने देखने
और उम्मीद पालने की आदत छोड़ दी हो,
जब हत्यारों की किलेबंदियाँ चारों ओर मज़बूत हो रही हों
इंसानी बस्तियों के इर्द-गिर्द,
तब कुछ लोगों को आगे आकर साफ़ शब्दों में
सच का बयान करना होगा
और सत्ताधारियों के हर आदेश की अवज्ञा करनी होगी!
याद रखो, इतिहास में किसी भी आततायी या हत्यारे की सत्ता
कभी भी अजेय नहीं रही!
कभी-कभी तो, थोड़े से, या यहाँ तक कि, एक आदमी के
सवाल उठाने से भी शुरुआत होती रही है!
कभी-कभी कुछ लोग सत्ता के आतंक को अपने निर्भीक उपहास से
रूई की तरह उड़ा देते हैं
वे अभय होकर हत्यारों की अवज्ञा करते हैं
और इसतरह वे एक नयी शुरुआत करते हैं!

Mazdoor Bigul

08 Nov, 06:10


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मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द करने वाले अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ का अक्‍टूबर 2024 अंक
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मज़दूर बिगुल का अक्‍टूबर 2024 अंक ऑनलाइन अपलोड हो चुका है। अंक के सभी लेखों के लिंक भी नीचे दिये हुए हैं व साथ ही अंक की पीडीएफ़ फ़ाइल का लिंक भी। इस अंक पर आपकी टिप्पणियों का हमें इन्तज़ार रहेगा। मज़दूर वर्ग के अख़बार को और बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर अपनी राय हमें ज़रूर भेजें। आप बिगुल के लिए अपने फ़ैक्टरी, ऑफ़िस, कारख़ाने की कार्यस्थिति पर रिपोर्ट भी भेज सकते हैं। कोई भी टिप्पणी या रिपोर्ट [email protected] पर मेल कर सकते हैं या फिर व्हाट्सऐप के माध्यम से 9892808704 पर प्रेषित कर सकते हैं। वैसे तो अख़बार का हर नया अंक हम नि:शुल्क आप तक पहुँचाते हैं पर हमारा आग्रह है कि आप प्रिण्ट कॉपी की सदस्यता लें। उसके बाद आपको हर नया अंक डाक के माध्यम से भी मिलता रहेगा। अगर आप पहले से सदस्य हैं और आपको डाक से बिगुल मिलने में समस्या आ रही है या आपका पता बदल गया है तो उसकी सुचना भी हमें ज़रूर दें।
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मारुति के मज़दूर एक बार फिर संघर्ष की राह पर! - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17103

🔹 मज़दूर आंदोलन की समस्याएं
वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त – एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा! / अदिति - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17104

🔹 विकल्प का खाका
‘हरियाणा विधानसभा चुनाव – 2024’ में भाजपा की जीत के मायने और मज़दूरों-मेहनतकशों के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की ज़रूरत - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17119

🔹 आपदाएं
आख़िर कब तक उत्तर बिहार की जनता बाढ़ की विभीषिका झेलने को मजबूर रहेगी? / विवेक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17115

🔹 मज़दूर बस्तियों से
हैदराबाद में कांग्रेस सरकार द्वारा मूसी नदी और झीलों को बचाने के नाम पर ग़रीबों व मेहनतकशों के आशियानों और आजीवका पर ताबड़तोड़ हमला - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17122

🔹 कला-साहित्य
कविता की ज़रूरत / कविता कृष्‍णपल्‍लवी - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17132

अल सल्वाडोर के क्रान्तिकारी कवि रोखे दाल्तोन (1935 – 1975) की कुछ कविताएँ - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17129

Mazdoor Bigul

08 Nov, 06:05


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - अच्छा आदमी
हरे प्रकाश उपाध्याय
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/blog-post.html

किसी बात के लिए मना नहीं करता
अच्छा आदमी है
हाँ जी हाँ जी कहता है- कितना अच्छा आदमी है
काम जो भी कहो तो झट से करता है
जो भी दे दो वह चुपचाप बस धरता है
न भी दो तो चुप ही रहता है
कितना अच्छा आदमी है
न रोटी माँगता है न रोज़गार माँगता है
न काम के बदले पगार माँगता है
न हक़ माँगता है न हिस्सा माँगता है
कितना अच्छा आदमी है
डाँट-फटकार, गुस्सा और मार
सहता है समझकर प्यार
किसी बात का बुरा नहीं मानता यार
कितना अच्छा आदमी है
उन्होंने समझाते हुए कहा
जो सुन सह के रहा
कभी ऊंच-नीच नहीं कहा
वही तो अच्छा आदमी है।

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:11


https://youtu.be/NHVqmiTGPI0

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


इतिहास के “विद्वानों” की तरह आँकड़ों और तथ्यों का अम्बार खड़ा करने के बजाय रीस विलियम्स ने इस सच्चाई को उजागर किया है कि किस तरह सदियों से दमन-उत्पीड़न के अन्धकार में निष्क्रिय-निश्चेष्ट-सा पड़ा हुआ जन-समुदाय उठा खड़ा हुआ और प्रचण्ड झंझावात की तरह शासक वर्गों पर टूट पड़ा। रीस विलियम्स ने इतिहास की इस सार्वकालिक-सार्वभौमिक सच्चाई को प्रत्यक्षतः देखा और अनुभव किया कि आम जनता ही इतिहास की निर्मात्री शक्ति होती है, क्रान्ति वही करती है। क्रान्ति की हिरावल शक्तियाँ उसी के बीच से उभरकर आती हैं, उससे लगातार जीवन्त सम्पर्क में रहती हैं और उसे जागृत करने, शिक्षित करने और नेतृत्व देने का काम करती हैं। रूस में बोल्शेविकों ने भी यही किया। रीस विलियम्स के अनुसार, लेनिन महान प्रतिभावान नेता थे और उनकी इस विशिष्टता का मूल स्रोत यह था कि उन्होंने “रूसी जन-समुदाय की इस क्षमता पर भरोसा करते हुए कि इतिहास ने जो महान ऐतिहासिक कार्यभार उन्हें सौंपा है, उसे वे पूरा कर लेंगे, रूस और क्रान्ति के भविष्य को दाँव पर लगा दिया।” ऐसा वे इसलिए कर सके कि “जन-जीवन की गहरी और घनिष्ठ जानकारी तथा जनता में अडिग विश्वास ने ही लेनिन में ऐसी आस्था पैदा की।”
यह पुस्तक पाठकों को अक्टूबर क्रान्ति की वास्तविकताओं और विश्व-ऐतिहासिक महत्ता से परिचित करायेगी और अपने समय के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करेगी, इसका हमें विश्वास है।

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


📚 यूनाइटिंग वर्किंग क्लास प्रस्तुत 📚
📖 बेहतरीन पुस्तकों की पीडीएफ 📖
________________________
उस क्रान्ति की दास्‍तां जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया
अल्‍बर्ट रीस विलियम्‍स लिखित
अक्‍टूबर क्रान्ति और लेनिन की पीडीएफ फाइल
📱 https://www.amazon.in/dp/8187728965

पीडीएफ फाइल मंगवाने के लिए दिये व्‍हाटसएप्‍प नम्‍बर (9892808704) पर व्‍हाटसएप्‍प से ही संदेश भेजें। ईमेल या अन्‍य किसी अन्‍य माध्‍यम से फाइल नहीं भेजी जायेगी। आप इस ऑनलाइन लिंक से बिना व्‍हाटसएप्‍प का इस्‍तेमाल किये भी डाउनलोड कर सकते हैं - http://janchetnabooks.org/pdf/October-kranti-aur-lenin.pdf
टेलीग्राम पर भी आप इस फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं - टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

📚 अगर आप इस संकलन की प्रिण्‍ट कॉपी खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक से खरीद सकते हैं -https://www.amazon.in/dp/8187728965 (कीमत - रू 90)
जनचेतना द्वारा वितरित किया जा रहा प्रगतिशील, मानवतावादी साहित्य इस लिंक https://goo.gl/bxmZR5 पर उपलब्‍ध है। कुछ पुस्‍तकें अमेजन पर उपलब्‍ध नहीं है। उसके लिए जनचेतना की वेबसाइट देखें - http://janchetnabooks.org/
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इस पुस्तक के बारे में
अल्बर्ट रीस विलियम्स उन पाँच अमेरिकी लोगों में से एक थे जो अक्टूबर क्रान्ति के तूफ़ानी दिनों के साक्षी थे। अन्य चार अमेरिकी थे - जॉन रीड, बेस्सी बिट्टी, लुइस ब्रयान्त और एलेक्स गाम्बोर्ग। ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ - जॉन रीड की इस विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक से हिन्दी पाठक भलीभाँति परिचित हैं जिसमें उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति के शुरुआती दिनों का आश्चर्यजनक रूप से शक्तिशाली वर्णन प्रस्तुत किया है। बेस्सी बिट्टी ने भी ‘रूस का लाल हृदय’ नामक पुस्तक तथा अक्टूबर क्रान्ति विषयक कई लेख लिखे। दुर्भाग्यवश उनके हिन्दी अनुवाद अभी तक सामने नहीं आये हैं। अल्बर्ट रीस विलियम्स की प्रस्तुत दो पुस्तकें एक ही जिल्द में प्रगति प्रकाशन, मास्को से 1975 में पहली बार हिन्दी में ‘लेनिन और अक्टूबर क्रान्ति के बारे में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थीं। पर हिन्दी पाठक रीस विलियम्स की इन कृतियों से उस तरह सुपरिचित नहीं है जिस तरह, मिसाल के तौर पर, जॉन रीड की पुस्तक से। इसलिए हमें इन दो पुस्तकों का (एक ही जिल्द में) पुनर्प्रकाशन न केवल उपयोगी प्रतीत हुआ, बल्कि आज के दौर में बहुत अधिक ज़रूरी भी लगा।
अल्बर्ट रीस विलियम्स 1917 में रूस पहुँचे। उस समय से लेकर अक्टूबर क्रान्ति तक, यानी क्रान्ति की तैयारी से लेकर उसके सम्पन्न होने तक के तूफ़ानी घटनासंकुल दिनों के वे न सिर्फ़ गवाह रहे, बल्कि भागीदार भी रहे। इस दौरान उन्होंने न केवल व्यापक रूसी मज़दूर-किसान जनता के क्रान्तिकारी शौर्य और सृजनशीलता को निकट से देखा, बल्कि उन बोल्शेविक योद्धाओं के भी घनिष्ठ सान्निध्य में रहे जो अक्टूबर क्रान्ति की आत्मा थे। उन्हें दो माह तक मास्को के नेशनल होटल में लेनिन के साथ रहने, उनके साथ यात्रा करने और एक ही मंच से अपने विचार रखने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। क्रान्ति के बाद जुलाई, 1918 तक, दुनिया की पहली सर्वहारा सत्ता के जीवन-मरण के उस संघर्ष को उन्होंने देखा, जब साम्राज्यवादी देश और देशी प्रतिक्रियावादी ताक़तें क्रान्ति को कुचल डालने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रही थीं।
प्रस्तुत संकलन में ‘लेनिन: व्यक्ति और उनके कार्य’ के अतिरिक्त ‘रूसी क्रान्ति के दौरान’ शीर्षक जो दूसरी कृति शामिल है, वह रीस विलियम्स की पुस्तक ‘रूसी क्रान्ति में जनता’ का ही (स्वयं रीस विलियम्स द्वारा) कुछ हद तक संशोधित रूप है। पुस्तक के प्रारम्भ में वह भूमिका भी दी गयी है जो अपनी दोनों पुस्तकों के सम्मिलित संस्करण के लिए रीस विलियम्स ने 1959 में लिखी थी।
रीस विलियम्स की ये दो बहुचर्चित कृतियाँ अक्टूबर क्रान्ति का आँखों देखा ब्योरा प्रस्तुत करती हैं। उस दौर की युगान्तरकारी उथल-पुथल से गुज़रते हुए लेखक इस सत्य को रेखांकित करता है कि क्रान्ति का असली नायक वस्तुतः सामान्य जन-समुदाय ही होता है।

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


आज मैं उन्‍हें याद करता हूँ, वे सब तुम्‍हारे साथ हैं !
फ़ैक्‍ट्री-दर-फ़ैक्‍ट्री घर-दर-घर
तुम्‍हारा नाम उड़ता है लाल चिड़िया की तरह ।
तुम्‍हारे वीर यशस्‍वी हों और हरेक बूँद
तुम्‍हारे ख़ून की। यशस्‍वी हों हृदयों की बह-बह निकलती बाढ़
जो तुम्‍हारे पवित्र और गौरवपूर्ण आवास की रक्षा करते हैं !

यशस्‍वी हो वह बहादुरी भरी और कड़ी
रोटी जो तुम्‍हारा पोषण करती है, जब समय के द्वार खुलते हैं
ताकि जनता और लोहे की तुम्‍हारी फौज मार्च कर सके, गाते हुए
राख और उजाड़ मैदानों के बीच से, हत्‍यारों के ख़िलाफ़,
ताकि रोप सके एक ग़ुलाब चाँद जितना विशाल
जीत की सुन्दर और पवित्र धरती पर !

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


आज के महान दिन ( 7 नवंबर बोल्शेविक क्रांति ) की याद में
उस दिन जब मजदूरों ने सत्ता अपने हाथ में ली और दिखाया कि जो सब कुछ पैदा करते हैं वह राजकाज भी चला सकते हैं और बेहतर ढंग से चला सकते हैं
_____
7 नवम्‍बर : जीतों के दिन की शान में गीत
पाब्लो नेरूदा
📱 - https://www.mazdoorbigul.net/archives/9705

पाब्‍लो नेरुदा के बारे में

पाब्‍लो नेरुदा 1904 में चिली में पैदा हुए। उनकी कविताएं न सिर्फ चिली की बल्कि साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध संघर्षरत पूरी लातिन अमेरिकी जनता की अमूल्‍य विरासत और संघर्ष का एक हथियार है। लातिन अमेरिका में उनका वही दर्जा है जो तुर्की में नाजिम हिकमत का, स्‍पेन में लोर्का का। उनकी कविताएं सोवियत क्रान्ति, स्‍पेन में जनता और इण्‍टरनेशनल ब्रिगेड के फासीवाद-विरोधी संघर्ष, सोवियत संघ द्वारा नात्सियों के मानमर्दन और चिली तथा अन्‍य लातिन अमेरिकी देशों में तानाशाही और दमन के विरुद्ध जनता दुर्द्धर्ष संघर्षों की साक्षी और भागीदार कविताएं हैं। उनकी कविताएं शिक्षित करती हैं, आह्वान करती हैं, ऐक्‍यबद्ध करती हैं और अंतिम जीत की राह दिखाती है। जीवन, संघर्ष और सृजन का यह कवि लातिनी जनता के दिलों में आज अपनी मृत्‍यु के इतने वर्षों बाद भी जीवित है और साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरणा देता रहता है। तानाशाह धमकियों और नजरबन्दियों द्वारा जीवित रहते नेरुदा को चुप नहीं करा सके और मरने के बाद उसके घर को गिरा देने और उसकी किताबों पर प्रतिबन्‍ध लगा देने के बावजूद उसकी कविताओं को जनता से अलग नहीं कर सके। आज भी, बदस्‍तूर, वे नेरुदा की कविताओं से डरते हैं। यह कविता पाब्लो नेरूदा ने 1941 में लिखी थी, जब अक्टूबर क्रान्ति की 24वीं वर्षगाँठ और स्पेनी गणराज्य की उपरोक्त विजय की पाँचवीं वर्षगाँठ थी। 7 नवम्बर को दोहरी वर्षगाँठ बतलाये जाने का कारण यह है कि सोवियत समाजवादी क्रान्ति दिवस होने के साथ-साथ इसी दिन मैड्रिड के द्वार से तानाशाह फ्रांको की राष्ट्रवादी सेना को (अस्थाई तौर पर) पीछे लौटने को बाध्य कर दिया गया था।
____
यह दोहरी वर्षगाँठ, यह दिन, यह रात,
क्‍या वे पाएँगे एक ख़ाली-ख़ाली-सी दुनिया, क्‍या उन्‍हें मिलेगी
उदास दिलों की एक बेढब-सी घाटी ?
नहीं, महज एक दिन नहीं घण्‍टों से बना हुआ,
जुलूस है यह आईनों और तलवारों का,
यह एक दोहरा फूल है आघात करता हुआ रात पर लगातार
,जब तक कि फाड़कर निशा-मूलों को पा न ले सूर्योदय !

स्‍पेन का दिन आ रहा है
दक्षिण से, एक पराक्रमी दिन
लोहे के पंखों से ढका हुआ,
तुम आ रहे हो उधर से, उस आख़िरी आदमी के पास से
जो गिरता है धरती पर अपने चकनाचूर मस्‍तक के साथ
और फिर भी उसके मुँह में है तुम्‍हारा अग्निमय अंक !

और तुम वहाँ जाते हो हमारी
अनडूबी स्‍मृतियों के साथ :
तुम थे वो दिन, तुम हो
वह संघर्ष, तुम बल देते हो
अदृश्‍य सैन्‍य-दस्‍ते को , उस पंख को
जिससे उड़ान जन्‍म लेगी, तुम्‍हारे अंक के साथ !

सात नवम्‍बर, कहाँ रहते हो तुम ?
कहाँ जलती हैं पंखुडि़याँ, कहाँ तुम्‍हारी फुसफुसाहट
कहती है बिरादर से : आगे बढ़ो, ऊपर की ओर !
और गिरे हुए से : उठो !
कहाँ रक्‍त से पैदा होता है तुम्‍हारा जयपत्र
और भेदता है इन्सान की कमज़ोर देह को और ऊपर उठता है
गढ़ने के लिए एक नायक ?

तुम्‍हारे भीतर, एक बार फिर, ओ सोवियत संघ,
तुम्‍हारे भीतर, एक बार फिर, विश्‍व की जनता की बहन,
निर्दोष और सोवियत पितृभूमि । लौटता है तुम्‍हारे तक तुम्‍हारा बीज
पत्‍तों की एक बाढ़ की शक्‍ल में, बिखरा हुआ समूची धरती पर !

तुम्‍हारे लिए नहीं हैं आँसू, लोगो, तुम्‍हारी लड़ाई में !
सभी को होना है लोहे का, सभी को आगे बढ़ना है और जख्‍़मी
होना है,
सभी को, छुई न जा सकने वाली चुप्‍पी को भी, संदेह को भी,
यहाँ तक कि उस संदेह को भी जो अपने सर्द हाथों से
जकड़कर जमा देता है हमारे हृदय और डुबो देता है उन्‍हें,
सभी को, ख़ुशी को भी, होना है लोहे का
तुम्‍हारी मदद करने के लिए, विजय में, ओ माँ, ओ बहन !

थूका जाए आज के गद्दार के मुँह पर !
नीच को दण्‍ड मिले आज, इस विशेष
घण्‍टे के दौरान, उसके सम्‍पूर्ण कुल को,
कायर वापस लौट जाएँ
अँधेरे में, जयपत्र जाएँ पराक्रमी के पास,
एक पराक्रमी प्रशस्‍त पथ, बर्फ़ और रक्‍त के
एक पराक्रमी जहाज़ के पास, जो हिफ़ाजत करता है दुनिया की

आज के दिन तुम्‍हें शुभकामनाएँ देता हूँ सोवियत संघ,
विनम्रता के साथ: मैं एक लेखक हूँ और एक कवि ।
मेरे पिता रेल मज़दूर थे : हम हमेशा ग़रीब रहे ।
कल मैं तुम्‍हारे साथ था, बहुत दूर, भारी बारिशों वाले
अपने छोटे से देश में । वहाँ तुम्‍हारा नाम
तपकर लाल हो गया, लोगों के दिलों में जलते-जलते
जब तक कि वह मेरे देश के ऊँचे आकाश को छूने नहीं लगा ।

Mazdoor Bigul

03 Nov, 07:06


उपन्यास पढ़ते समय यह बात ज़रूर हमारा ध्यान खींच लेती है कि किस युक्तिपूर्ण ढंग से अस्क़द मुख़्तार ने उज्बेक स्त्री की वर्तमान मानसिक स्थिति की विशेषताओं के ऐतिहासक कारणों का विवेचन किया है।

वास्तव में उपन्यास के मुख्य स्त्रीपात्रों, जुराख़ाँ और अनाख़ाँ ने उन बेड़ियों को तोड़ दिया, जिनमें वे सदियों से जकड़ी हुई थीं। इसीलिए उन अप्रधान और गौण पात्रों, उन घटनाओं और दृश्यों का महत्व और ज़्यादा बढ़ जाता है, जिनमें हमें स्त्रियां झुंडों और भीड़ों में दिखाई देती हैं।

औरत को छोटी-सी उम्र से ही बिना चूं-चपड़ किये पति और पिता की आज्ञा मानना सिखाया जाता था। औरत को नाम लेकर नहीं पुकारा जाता था। और इन्हीं औरतों ने देखा कि किस तरह जुराख़ाँ ने शिक्षक नईमी को अचानक बीच में रोककर गुस्से से कहा, “बैठ जाइये।” “और न आसमान फटा, न मर्द ने उसे जान से मारा... पर फिर भी बहुत डर लगा।”

यह एक छोटी-सी घटना है। पर लेखक ने इसके माध्यम से कितनी महत्वपूर्ण बात कही है !

लेखक ने मुख्य पात्र अनाख़ाँ के चरित्र का विकास बड़े कलात्मक ढंग से दिखाया है। उसका बाह्य जीवन पटल पूर्णता के स्पंदनों और अनुभवों की मनोविज्ञानी गहराई से परिपूर्ण होने लगता है।


जुराख़ाँ की आँखों से हमें पुराने शहर के जीवन का बहुत बड़ा अंश दिखाई देता है ... उपन्यास के प्रभावशाली दृश्यों में से एक की याद दिलाता हूँ। किस प्रकार एक असह्यरूप से गरम और घुटनभरे दिन सजे सजाये गधे पर बैठकर एक बेहद मोटा आदमी, जिसका पेट भरा हुआ है, चायखाने में आता है। उसके पीछे-पीछे पुरानी, पैबन्द भरी परंजी पहने एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिये चल रही होती है। जब तक वह आदमी शीतल छाया में बैठकर आराम करता रहा, उसकी पत्नी ज़मीन पर धूल में बैठी बच्चे को दूध पिलाती रही ...

यह दृश्य देखकर हमें क्रोध आता है, क्योंकि यह सब हम जुराख़ाँ की नज़रों से देखते हैं: उसका मानवतावाद, उसका प्यारभरा शोकाकुल हृदय विह्वल हो उठता है।

अस्क़द मुख़्तार की कृति में स्त्रियों के प्रति सम्मान की गरमाहट है।

स्त्रियों के रोषपूर्ण विरोध, उनके साहस का इसमें काव्यात्मक शैली में वर्णन किया गया है। यह पुस्तक साथी स्त्रीवर्ग और प्रिय बहनों के बारे में है।

उपन्यास " चिंगारी " अपनी यथार्थता और पूर्णता में अपने कलात्मक-गुणों के कारण अद्वितीय है।

लेखक ने जिन दुश्मनों, खलनायकों की सृष्टि की है, उन में बाय क़ुद्रतुल्लाह का पुत्र, नईमी, नीली मस्जिद का इमाम अब्दूमजीद ख़्वाजा, दूकानदार मतक़ोबुल आदि सबसे ज्यादा समय तक याद रहनेवाले चरित्रों में से हैं... उनमें से प्रत्येक में उनके “वर्ग के लक्षणों” के अलावा कुछ अवगम्य और व्यक्तिगत विशेषताएँ भी हैं, जो उनके चरित्र को यथार्थता प्रदान करती हैं।

उदाहरण के तौर पर शिक्षक नईमी मृदुभाषी, मुस्लिम धर्म और उसकी जातीय परम्परानों का रक्षक है, जो मित्र बनकर सोवियत सत्ता में घुस आता है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में वह तरह-तरह की बातें करता है : स्कूल में, स्त्रियों की सभा में, कुद्रतुल्लाह ख्वाजा के घर में, चाय विक्रेता के साथ... हमें हर समय उसके चरित्र का एक नया ही पक्ष दिखाई देता है। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली प्रतिमा का निर्माण होता है।

लेखक की योजना के अनुसार सोवियत सत्ता का सबसे कट्टर एवं साधनसम्पन्न शत्रु चाय-विक्रेता को होना चाहिए था। उपन्यास की बहुत-सी महत्वपूर्ण घटनाओं से उसका सीधा सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई पड़ता है : अनाख़ाँ की हत्या का प्रयास, मिल के निर्माण में तोड़-फोड़ करनेवाला दल, जुराख़ाँ की हत्या आदि। पर उपन्यास में जिस रहस्य से यह चरित्र घिरा हुआ है, और जिसके कारण हर पाठक को उसके प्रति जिज्ञासा होनी चाहिए, वह रहस्य अंत तक नहीं खुलता।

आजकल अस्क़द मुख़्तार का यह उपन्यास विशेष रुचि के साथ पढ़ा जा रहा है। हमारी चेतना और हमारे जीवन में पुराने समय के जो लक्षण दिखाई देते हैं, उन से सम्बन्ध विच्छेद करके संघर्ष करने का समय आ गया है। इसके साथ ही स्त्रियों के प्रति बायों जैसे सामन्तवादी व्यवहार से भी संघर्ष करने का समय आ गया है, जो अब भी कभी-कभी फिर दिखाई दे जाता है।

उदाहरण के लिए, इस संदर्भ में उज़्बेकी लेखक के इस उपन्यास और किरगीजियाई लेखक च. आयतमातोव के लघु उपन्यासों “जमीला” और “लाल ओढ़नी में मेरी सरूक़द प्रेमी” में सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। वे स्त्रियों के मानवोचित आत्मसम्मान और उनके अधिकारों के प्रति आदर से परिपूर्ण हैं।

अस्क़द मुख़्तार का उपन्यास अपनी ऐतिहासिक प्रामाणिकता से सम्बन्धित होते हुए भी लगता है, जैसे हमारे आधुनिक युग में भी महत्त्व रखता है। यह पूर्ण परिपक्वता की ओर अग्रसर हो रहे उज्बेक गद्य की एक नवीन उपलब्धि है।

Mazdoor Bigul

03 Nov, 07:06


📚 यूनाइटिंग वर्किंग क्लास प्रस्तुत 📚
📖 बेहतरीन पुस्तकों की पीडीएफ 📖
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सदियों पुराने रीति-रिवाजों और परम्पराओं के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुईं और समानता-स्‍वतंत्रता के लिए संघर्ष करती उज़्बेकी स्त्रियों की दास्‍तां
अस्क़द मुख़्तार के उपन्यास “चिंगारी” की पीडीएफ फाइल
📱 https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/pdf-file-of-askad-mukhtars-novel-sisters.html

*पीडीएफ इस ऑनलाइन लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं - https://drive.google.com/file/d/1bQDILzu6RyirYmtUrXA5ltnM5JwwK8Og/view?usp=sharing
टेलीग्राम पर भी आप इस फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं - टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

उपन्‍यास का विस्‍तृत परिचय आप सबसे ऊपर दिये लिंक से पढ़ सकते हैं
परिचय का छोटा अंश नीचे दिया जा रहा है
अस्क़द मुख़्तार और उनका उपन्यास “चिंगारी”
✍️ ल. यकिमेंको

अस्क़द मुख़्तार ने अपना उपन्यास उन उज़्बेकी स्त्रियों को ही समर्पित किया है जो साहस करके सदियों पुराने रीति-रिवाजों और परम्पराओं के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुईं। क्रांति ने उनके लिए एक नयी अर्थपूर्ण और मेहनतभरी ज़िन्दगी का मार्ग प्रशस्त किया।

पुराने ताशकंद के कारीगरों और जुलाहों के इलाक़े-नैमन्चा का चित्रण हमें न केवल घटनास्थल पर ला खड़ा करता है, उस समय के नयी आर्थिक नीति के समय के प्रामाणिक लक्षणों से प्रभावशाली व कलात्मक ढंग से परिचय कराता है बल्कि उस अन्तर्द्वन्द्व की प्रभावशाली शक्ति और जातीय विशेषता से भी, जो उपन्यास के घटनाक्रम का निरूपण करती है।

अस्क़द मुख़्तार ने मज़दूर स्त्रियों का उस समय पनप रहे “नेपमेन” ( नयी आर्थिक नीति का फ़ायदा उठानेवाले ) बाय कुद्रतुल्लाह ख्वाजा के वर्कशॉप में उनके कठिन परिश्रम का, धूलभरे गन्दे इलाके में उनके ग़रीब घरों का चित्रण इस तरह से किया है, जैसे वे इन सब से बचपन से ही परिचित हों, उनके बहुत निकट रहे हों।

इसी कारण उपन्यास में प्रगीतात्मक लय सुनाई देती है, जो न केवल सीधे विषयांतरकरण और ख़्यालों में ही ज़ाहिर होती है, बल्कि लेखक के लहजे और स्त्री पात्रों के प्रति उसके व्यवहार में भी।

लेखक उनसे प्यार करता है, उनके प्रति सहानुभूति दिखाता है और परंजी में रहनेवाली इन स्त्रियों पर गर्व करता है, जिन्होंने अपना मुंह उघाड़कर नयी जिन्दगी का स्वागत करने की हिम्मत की है।

केवल लेखक के सच्चे मानवोचित व्यवहार मात्र से, उसके दृष्टिकोण मात्र से ही क्रांतिकारी कार्यक्रम की कायापलट कर देने की महान शक्ति का पता चल जाता है।

अस्क़द मुख़्तार का उपन्यास कई नाटक सदृश संघर्षों से परिपूर्ण है। लेखक ने दिखाया है कि किस प्रकार नये जीवन के प्रति उत्साह जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है: आर्थिक पक्ष ( सहकारी संघों की स्थापना, बुनाई-मिल का निर्माण, निजी व्यापार की समाप्ति, उज्बेक श्रमिक वर्ग का जन्म, मजबूत समाजवादी शक्ति का उद्भव ), नैतिक पक्ष (स्त्रियों को स्वतंत्रता दिलाने, उन्हें समान अधिकार दिलाने, उन्हें अपनी मानवोचित गरिमा के प्रति जागरूक बनाने, धार्मिक अंधविश्वास को दूर करने आदि के लिए संघर्ष और रूढ़िवादियों तथा धर्मान्ध लोगों के विरुद्ध संघर्ष ), रहन-सहन का पक्ष...

उपन्यास के सभी पात्रों को स्पष्टत: दो दलों में बांटा जा सकता है। एक ओर नैमन्चा के मेहनतकश लोग हैं, उज्बेक स्त्रियां अनाख़ाँ, जुराख़ाँ, हाजिया, उनके क्रांतिकारी मित्र, बोल्शेविक यफ़ीम दनीलोविच, एर्गश, ग़ैरपार्टीवाला इंजीनियर दोब्रोखोतोव और दूसरी ओर-बाय, ईशान, नेपमेन क़द्रतुल्लाह ख़्वाजा, शिक्षक नईमी, जासूस चाय विक्रेता और अन्य।

लेखक ने अपने पात्रों के जीवन के व्यक्तिगत पक्ष और उसकी विशेषताएं, उनके सामाजिक जीवन के ढांचे और उनकी मानसिक स्थिति को बड़े युक्तियुक्त ढंग से उभारा है। उनकी गतिविधियों और व्यवहार पर इन बातों का स्पष्ट प्रभाव है। जुराख़ाँ जो लेनिन से मिलकर हर्षित हुई है एक नारी-योद्धा है। उसने मास्को में परंजी छोड़ दी थी। वहाँ उसने उस पथ पर पहला क़दम रखा था, जिस पर वह अपनी दुःखद मृत्यु तक चलती रही। उसके चरित्र में नारी सुलभ गुणों और सौम्यता के साथ-साथ, कई वर्षों के पार्टी कार्य और सरकारी कामकाज के अनुभव से प्राप्त अधिकार प्रवणता, दृढ़प्रतिज्ञा और धैर्य का सामंजस्य है। लोगों में आतंक फैलानेवाले शिक्षक नईमी को रोकते समय वह व्यंग्यपरायण और कटु हो जाती तो अपनी भीरु “नायिकाओं” के प्रति अतिधैर्यवान और शुभाकांक्षी।

अनाख़ाँ को अपने अतीत से नाता तोड़ने में ज्यादा मुश्किल का सामना करना पड़ा। पर एक बार आगे क़दम बढ़ाने के बाद उसने मुड़कर पीछे नहीं देखा। उसे किसी तरह भी नहीं डराया जा सका - न धमकियों से, न हत्या के प्रयत्नों से ही।

Mazdoor Bigul

02 Nov, 04:25


जब साम्राज्यवादी हत्यारों के अमेरिकी प्रवक्ता का सच्चाई से सामना हुआ

Mazdoor Bigul

02 Nov, 04:24


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मोहन भागवत की “हिन्दू” एकजुटता किसके लिए?
आम हिन्दू आबादी को “हिन्दू एकता” के भाईचारे में चारा बनाने की साज़िश को समझो!
✍️ आशु
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17098

पिछले दिनों आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने फिर एक बार “हिन्दू एकता” का राग अलापा है। इसकी एक वजह यह है कि अभी हाल के चुनावी समीकरणों में भाजपा और संघ परिवार का “हिन्दू कार्ड” ठीक से नहीं चल पा रहा है। इसलिए महाराष्ट्र चुनाव से पहले भाजपा और संघ परिवार हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की चाल चल रहे हैं। वैसे यह भी मज़ेदार बात है कि अभी कल तक हरियाणा चुनाव में भाजपा और ......

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:25


https://youtu.be/lu6vGRzjTWw

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:24


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हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे
चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!
सम्पादकीय अग्रलेख, मजदूर बिगुल
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17092

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:23


📮_______📮
एक बार फिर न्यूनतम वेतन बढ़ाने के नाम पर नौटंकी करती सरकारें!
भारत
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17093

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,

मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।

कवि अदम गोंडवी ने एक अन्य सन्दर्भ में सरकारी झूठ का भण्डाफोड़ करते हुए इन पंक्तियों को लिखा था। उनकी कविता की इन पंक्तियों को अभी हालिया दिनों में न्यूनतम वेतन बढ़ाने की सरकारी नौटंकी के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। अभी केन्द्र सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोतरी की घोषणा है। इस बढ़ोतरी को 1 अक्टूबर 2024 से लागू करने की बात की गयी है। केन्द्र सरकार की नयी दरों के अनुसार, अकुशल श्रमिकों को अब प्रति माह 20,358 रुपये, जबकि अर्ध-कुशल, कुशल और अत्यधिक कुशल श्रमिकों के लिए यह राशि क्रमशः 22,568 रुपये, 24,804 रुपये और 26,910 रुपये होगी। एक तरफ़ यह घोषणा है और दूसरी तरफ़ “ग़रीब के बेटे” प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के मेहनतकश-विरोधी काले कारनामे। मोदी सरकार ने पूँजीपतियों को

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:22


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कहानियों के साथ 📚
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सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) की कहानी - नया क़ानून
🖥 http://www.mazdoorbigul.net/archives/5839

मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अकलमन्द आदमी समझा जाता था, हालाँकि उसकी तालीमी हैसियत सिफर के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीजों का इल्म था। अड्डे के वह तमाम कोचवान जिनको यह जानने की ख्वाहिश होती थी कि दुनिया के अन्दर क्या हो रहा है, उस्ताद मंगू के व्यापक ज्ञान से अच्छी तरह परिचित थे।

पिछले दिनों उस्ताद मंगू ने अपनी एक सवारी से स्पेन में जंग छिड़ जाने की अफवाह सुनी थी तो उसने गामा चौधरी के चौड़े काँधे पर थपकी देकर गंभीर लहजे से भविष्यवाणी की थी–

“देख लेना चौधरी, थोड़े ही दिनों में स्पेन के अन्दर जंग छिड़ जायेगी।”

और जब गामा चौधरी ने उससे यह पूछा था कि

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:39


Call for Papers⁣

Seventh International Arvind Memorial Seminar⁣
(𝘏𝘺𝘥𝘦𝘳𝘢𝘣𝘢𝘥)⁣
29 𝘋𝘦𝘤𝘦𝘮𝘣𝘦𝘳 2024 – 2 𝘑𝘢𝘯𝘶𝘢𝘳𝘺 2025⁣

𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐭𝐡𝐞 𝐓𝐰𝐞𝐧𝐭𝐲-𝐟𝐢𝐫𝐬𝐭 𝐂𝐞𝐧𝐭𝐮𝐫𝐲: 𝐄𝐥𝐞𝐦𝐞𝐧𝐭𝐬 𝐨𝐟 𝐂𝐨𝐧𝐭𝐢𝐧𝐮𝐢𝐭𝐲 𝐚𝐧𝐝 𝐂𝐡𝐚𝐧𝐠𝐞 𝐚𝐧𝐝 𝐭𝐡𝐞 𝐐𝐮𝐞𝐬𝐭𝐢𝐨𝐧 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐂𝐨𝐧𝐭𝐞𝐦𝐩𝐨𝐫𝐚𝐫𝐲 𝐏𝐫𝐨𝐥𝐞𝐭𝐚𝐫𝐢𝐚𝐧 𝐒𝐭𝐫𝐚𝐭𝐞𝐠𝐲⁣

World capitalism is going through the first great depression of the Twenty-first century since 2006-07. The social-economic and political insecurity created due to the capitalist crises gave impetus to the reactionary forces owing to the weakness of the subjective forces of revolution. Consequently, we have been witnessing the rise of various far-right movements including fascism in different countries.

Fascism is not just any far-right reaction. It is a particular type of far-right reaction. In various sections of the communist movement of the world, the tendency of carelessly characterizing any kind of reaction as fascism has been prevalent. The task of formulating an effective proletarian strategy and general tactics against fascism cannot be fulfilled without understanding the general particularities of fascism.

We also need to understand the changes taking place around the world. The changes taking place in Turkey, Brazil, Philippines, Russia, Middle-East Region, the US, Britain or France need to be comprehended. What is the character of the Erdogan regime? What is the character of Putin’s regime? How do we understand the character of the regime of Marcos Jr. and Duterte and similar forces? What is the nature of National Rally in France? What is the nature of forces like Golden Dawn of Greece? What kind of political tendency is represented by Bolsonaro in Brazil? How do we understand the Trump phenomenon in the US? What is the character of the regime that came into being following the Khomenei-led revolution in Iran? These are living questions for Marxist and progressive political activists as well as academics.

It is precisely for a detailed and satisfactory dialogue, discussion and debate on these questions, that we are organizing the Seventh International Arvind Memorial Seminar from 29th December 2024 to 2nd January 2025 in Hyderabad (India). We extend invitation to left groups, organizations and parties, Marxist intellectuals, progressive and anti-fascist academics, researchers and students of the country and the world to take part in this seminar. During these five days, the arrangement for accommodation and food will be made by the Arvind Memorial Trust.

Those of you who wish to send their papers for this seminar, may submit an abstract of 500 words till 15th October 2024. The last date of sending the paper is 15th November 2024. The information of accepted papers will be intimated to the senders before 1st December 2024. The abstracts can be sent to the email address given below.

Organizing Committee
Seventh International Arvind Memorial Seminar (Hyderabad)

Arvind Institute of Marxist Studies
(an initiative of Arvind Memorial Trust)

Email : [email protected]
Website : english.arvindtrust.org
Contact : 9971196111 (Anand), 9871794036 (Jayaprakash), 7013936466 (Sreeja)

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:39


आलेख भेजने के लिए आमंत्रण

सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी
29 दिसम्बर 2024 – 2 जनवरी 2025, हैदराबाद

**इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद :
निरन्तरता और परिवर्तन के तत्व
और समकालीन सर्वहारा रणनीति का प्रश्न**

पूँजीवादी विश्व 2006-07 से ही इक्कीसवीं सदी की पहली महामन्दी से गुज़र रहा है। पूँजीवादी संकट से पैदा होने वाली अनिश्चितता और असुरक्षा ने क्रान्तिकारी मनोगत शक्तियों के बिखराव और कमज़ोरी के चलते प्रतिक्रियावादी शक्तियों को बल प्रदान किया। यही वजह है कि इसी दौर में दुनिया के विभिन्न देशों में फ़ासीवाद-समेत विभिन्न धुर-दक्षिणपंथी आन्दोलनों का उभार हुआ और उनमें से कुछ सत्ता तक भी पहुँच गये या पहुँचने की प्रक्रिया में हैं।

फ़ासीवाद बस कोई भी धुर-दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया नहीं है। यह धुर-दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया का एक बहुत ही विशिष्ट रूप है। दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन के तमाम हिस्सों में किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया को असावधान तरीके से फ़ासीवाद की संज्ञा दे देने की एक प्रवृत्ति रही है। फ़ासीवाद की विशिष्टता को समझे बग़ैर उसके विरुद्ध कोई कारगर सर्वहारा रणनीति व आम रणकौशल विकसित करने का काम पूरा नहीं किया जा सकता है।

हमें पूरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को भी समझना होगा। तुर्की, ब्राज़ील, फिलिप्पींस, रूस, मध्य-पूर्व क्षेत्र में, अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में जो परिवर्तन हो रहे हैं, उन्हें भी हमें समझना होगा। एर्दोआन की सत्ता का चरित्र क्या है? पुतिन की सत्ता का चरित्र क्या है? फिलिप्पींस में मार्कोस जूनियर व दुतेर्ते की सत्ता और उनके समान शक्तियों के चरित्र को कैसे समझा जाये? फ्रांस में नेशनल रैली की प्रकृति क्या है? यूनान में गोल्डेन डॉन जैसी शक्तियों की प्रकृति क्या है? ब्राज़ील में बोल्सोनारो किस राजनीतिक प्रवृत्ति की नुमाइन्दगी करता है? अमेरिका में ट्रम्प परिघटना को किस प्रकार समझा जाये? ईरान में खुमैनी-नीत क्रान्ति के बाद से अस्तित्वमान रही सत्ता का चरित्र क्या है? ये सारे सवाल मार्क्सवादी और प्रगतिशील राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ ही बुद्धिजीवियों व अकादमिकों के लिए भी जीवन्त प्रश्न हैं।

ठीक इन्हीं सवालों पर तफ़सील से और तसल्ली से बातचीत, विचार-विमर्श और बहस-मुबाहसे के लिए हम सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन 29 दिसम्बर 2024 से 2 जनवरी 2025 के बीच हैदराबाद में कर रहे हैं। हम देश के और दुनियाभर के सभी कम्युनिस्ट ग्रुपों, संगठनों व पार्टियों को, मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को, प्रगतिशील व फ़ासीवाद-विरोधी अकादमिकों, शोधार्थियों व छात्रों को इस संगोष्ठी में हिस्सा लेने का तहेदिल से न्यौता दे रहे हैं। इन पाँच दिनों के दौरान हैदराबाद में रुकने व खाने-पीने की व्यवस्था अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा की जायेगी।

महत्त्वपूर्ण तिथियाँ
15 अक्टूबर 2024 – सारांश भेजने की अन्तिम तिथि
15 नवम्बर 2024 – आलेख भेजने की अन्तिम तिथि
1 दिसम्बर 2024 – स्वीकृत आलेख भेजने वालों को सूचना

आयोजन समिति
सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (हैदराबाद)
अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान (अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा संचालित)

ईमेल: [email protected]
वेबसाइट : arvindtrust.org
फ़ोन : 9971196111 (आनन्द), 9871794036 (जयप्रकाश),
7013936466 (श्रीजा)

#fascism
#seminar
#CallForPapers
#Hyderabad

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:38


जाती थी। आदमी की आँखें लाल अंगारा बनी थीं, प्रतिशोध की विजयी भावना उनमें चमक रही थी और उसके बाल उनमें हरी परछाइयाँ डाल रहे थे। उसकी कुरती की आस्तीनें ऊपर तक चढ़ी थीं और उसकी लाल रोएँदार मांसल बाँहें साफ़ दिखायी दे रही थीं। उसका मुँह खुला था जिसमें सफे़द पैने दाँतों की दो पाँतें चमक रही थीं और रह-रहकर, बैठी हुई आवाज़ में, वह चिल्ला उठता था –

''ले, यह ले, कुतिया! हा-हा-हा! और ले, यह और ले!''

स्त्री और गाड़ी के पीछे लोगों की भीड़ चल रही थी – चीख़़ती-चिल्लाती, हँसती, आवाज़ें कसती, सीटी बजाती, कोचती-उकसाती, खिल्लियाँ उड़ाती। बच्चे इधर से उधर लपक-झपक रहे थे। कभी-कभी उनमें से कोई एक दौड़कर आगे निकल जाता और स्त्री के मुँह पर गन्दे शब्दों की बौछार करता। तब भीड़ ठहाका मारकर हँस पड़ती और उसकी हँसी की आवाज़ में हण्टर के हवा में सनसनाने की पतली आवाज़ डूब जाती। भीड़ में स्त्रियों के चेहरे असाधारण उछाह से लहरा रहे थे और उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक रही थीं। पुरुष गाड़ी में खड़े देहाती को लक्ष्य कर निर्लज्जता का बघार लगा रहे थे और वह, भट्टे-सा पूरा मुँह बाये, उनकी ओर मुड़-मुड़कर हँस रहा था। सहसा हण्टर सनसनाकर स्त्री के शरीर से टकराता। लम्बा और पतला, वह उसके कन्धों का चक्कर काटता और बाँहों के नीचे उसकी चमड़ी में धँस जाता। इस पर देहाती उसे अचानक एक झटका देता और स्त्री, एक तेज़ चीख़़ मारकर, कमर के बल धूल में गिर जाती। भीड़ के लोग उछलकर आगे बढ़ते, झुक करके उसके इर्द-गिर्द एक दीवार-सी खड़ी कर देते और वह आँखों से ओझल हो जाती।

घोड़ा ठिठककर खड़ा हो गया, लेकिन क्षण-भर बाद वह फिर डगमगाता-सा लुढ़क चलता और लांछित स्त्री उसके पीछे-पीछे घिसटने लगती। घोड़ा रह-रहकर अपने कोढ़ियल सिर को इस तरह हिलाता मानो कह रहा हो –
''कितनी बुरी बीतती है उस घोड़े के साथ, जिसे लोग अपने जैसे चाहे घिनौने काम में जोत लेते हैं।''

और आकाश – दक्खिनी आकाश – एकदम स्वच्छ और साफ़ था। बादलों की कहीं ज़रा-सी भी निशानी नज़र नहीं आ रही थी और सूरज जी खोलकर धरती पर अपनी गर्म किरनों की बौछार कर रहा था।

प्रतिशोधपूर्ण न्याय का यह चित्र, जो मैंने यहाँ दिया है, मेरी कल्पना की देन नहीं है। नहीं, दुर्भाग्यवश यह कोई मनगढ़न्त चीज़ नहीं है। इसे ‘भण्डाफोड़’ कहा जाता है और इसके द्वारा पति विश्वासघात करनेवाली अपनी कुलटा स्त्रियों को दण्डित करते हैं। यह जीवन से लिया गया चित्र है। यह उन प्रथाओं में से एक है जो हमारे यहाँ प्रचलित हैं और इसे 15 जुलाई 1891 के दिन, निकोलायेवस्की विला में ख़ेरसोन गुबेर्निया के कान्दीबोवका गाँव में, ख़ुद अपनी आँखों से मैंने देखा था।

वोल्गा प्रदेश में, जहाँ का मैं रहने वाला हूँ, यह मैंने सुना था कि अपने पतियों के साथ विश्वासघात करने वाली पत्नियों के शरीर पर कोलतार पोता जाता था और उसपर पंख चिपका दिये जाते थे। यह भी मैं जानता था कि कुछ अधिक सूझ-बूझ वाले पति और ससुर और भी आगे बढ़कर विश्वासघात करने वाली अपनी पत्नियों पर गर्मियों के दिनों में शीरा पोतकर उन्हें पेड़ों से बाँध देते थे और कीड़े-मकोड़े काट-काटकर उनके बदन में घाव कर डालते थे। कभी-कभी ऐसी स्त्रियों के हाथ-पाँव बाँधकर उन्हें चींटियों-दीमकों की बाँबी में डाल दिया जाता था।

यह सब मैंने सुना ही था। अब उसे ख़ुद अपनी आँखों से देखकर सिद्ध हो गया कि जाहिल और हृदयहीन लोगों के बीच – उन लोगों के बीच, जिन्हें ‘कुत्ता कुत्ते को खाये’ वाली जीवन प्रणाली ने लालच और ईर्ष्या से धधकते जंगली जानवरों में परिवर्तित कर दिया था – इस तरह की चीज़ों का होना सचमुच में सम्भव है!

(1895)

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:38


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कहानियों के साथ 📚
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भीड़ द्वारा बर्बर हत्‍याओं पर एक जरूरी टिप्‍पणी
लिंचिंग, शेमिंग और गोर्की की कहानी 'भण्‍डाफोड़' ...और एक बर्बर, निरंकुश, जहालत से भरे समाज में फासीवाद से लड़ने की चुनौतियों पर कुछ विचार

✍️ टिप्पणी - सत्यम वर्मा

📱http://unitingworkingclass.blogspot.com/2018/06/blog-post_69.html

अपने देश की 'गंगा-जमनी' तहज़ीब और आपसी भाईचारे के क़सीदे पढ़ते हुए हमें इस कड़वी सच्‍चाई को भी नज़रअन्‍दाज़ नहीं कर देना चाहिए कि हम एक बर्बर, निरंकुश और जहालत से भरे, लम्‍बे समय से ठहरे हुए समाज में रह रहे हैं जहाँ फ़ासीवादी प्रवृत्तियों के पनपने और फलने-फूलने के लिए प्रचुर खाद-पानी मौजूद है। आम जन की सदियों की ग़ुलामी (यहाँ मतलब जनता की दासता से है, संघी शब्‍दावली में देश की सदियों की ग़ुलामी से नहीं) ने अज्ञान, अशिक्षा, ग़रीबी, कूपमंडूकता और ठहरावग्रस्‍त जीवन के जिस अँधेरे में उन्‍हें क़ैद करके रखा है उसमें इंसान का रह-रहकर जानवर बन जाना कोई अनहोनी बात नहीं है। गाँवों में डायन के नाम पर औरतों को या पकड़े गये चोरों को ठण्‍डे बर्बर ढंग से यातना दे-देकर मारे जाते हुए जिन्‍होंने देखा है वे इसे आसानी से समझ सकते हैं। हमारे देश में हुए विकृत क़ि‍स्‍म के पूँजीवादी विकास ने सामन्‍ती जीवन की जड़ता और निरंकुशता को एक झटके से ख़त्‍म नहीं किया बल्कि अन्‍धी स्‍वार्थपरता, अलगाव, असुरक्षा और खोखलेपन की जिस संस्‍कृति को उसने बढ़ावा दिया है उसने और भी ज्‍़यादा मानवद्रोही, आदमख़ोर और वहशीपन की प्रवृत्तियों को उपजाया है। बेशक़, आम लोग अपने जीवन के सामान्‍य क्रिया-व्यापार में एक-दूसरे के साथ मेलजोल से रहते हैं, और रहना चाहते हैं। लेकिन आर.एस.एस. जैसे फ़ासिस्‍ट संगठन उनके बीच मौजूद सबसे निकृष्‍ट भावनाओं, पिछड़ेपन, असुरक्षा और भय-सन्‍देह की प्रवृत्तियों को उकसाकर उनके एक हिस्‍से को उन्‍मत्‍त और पागल पशुओं की भीड़ में तब्‍दील कर देने में सफल हो जाते हैं। इसके मुक़ाबले के लिए लोगों के बीच सतत्, निरन्‍तर जारी शिक्षा और प्रचार, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक काम की दरकार होती है। उनकी ज़ि‍न्दगी के वास्‍तविक सवालों पर उन्‍हें सचेत और संगठित करने की ज़रूरत होती है। यह एक लम्‍बा, कठिन मगर बेहद ज़रूरी, अनिवार्य काम है।
बहरहाल, गोर्की की यह छोटी-सी कहानी पढ़ि‍ए, और अपने समाज का अक्‍स इसमें ढूँढ़ि‍ये...

*भण्डाफोड़*

गाँव की सड़क पर से, सफे़दी-पुते उसके कच्चे घरौंदों को पार करती, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते लोगों की एक भीड़ गुज़र रही थी। मजमा, एक बड़ी लहर की भाँति, धीमी गति से बढ़ रहा था। और उसके आगे-आगे एक मरियल-सा घोड़ा सिर झुकाये चल रहा था। जब भी वह अपना अगला पाँव उठाता तो उसका सिर कुछ इस तरह डुबकी खाता मानो वह अभी मुँह के बल आगे की ओर गिर पड़ेगा और उसकी थूथनी सड़क की धूल चाटती नज़र आयेगी। और जब वह अपने पिछले पाँव को हरकत में लाता तो उसका पिछला हिस्‍सा इस तरह डगमगाता मानो वह अभी ढेर हो जायेगा।

एक युवा स्त्री, जिसने अभी अपनी बीसी भी मुश्किल से ही पार की होगी, बहुत छोटी और पूरी नग्‍न, उसकी नंगी कलाइयाँ गाड़ीवान के सामने वाले तख़्ते से बँधी हुई। वह बग़ल के रुख चल रही थी, उसके घुटने काँप रहे थे जैसे अभी जवाब दे जायेंगे, काले और अस्त-व्यस्त बालों से घिरा उसका सिर ऊपर की ओर उचका था और उसके फटे हुए दीदे सूनी अमानवीय दृष्टि से शून्य में ताक रहे थे। उसका बदन काली और नीली धारियों तथा निशानों से भरा था। कुमारियों जैसी दृढ़ उसकी बायीं छाती में गहरा घाव था और उसमें से ख़ून की धार निकल रही थी। ख़ून की एक लाल लकीर उसके पेट के ऊपर से होती हुई नीचे बायीं टाँग के घुटने तक खींची थी और उसकी नाज़ुक टाँगों की पिण्डलियों पर धूल के थक्के चढ़े थे। ऐसा लगता था जैसे स्त्री के शरीर से खाल की एक लम्बी डोरी उतार ली गयी हो। और उसके पेट को, इसमें ज़रा भी शक नहीं, मुंगरी से पीटा या बूटदार एड़ियों से रौंदा गया था – वह इतनी बुरी तरह से सूजा और बदरंग बना हुआ था।

स्त्री के लिए भूरी धूल में एक डग के बाद दूसरा डग घसीटना मुश्किल हो रहा था। उसका समूचा बदन ऐंठ रहा था और यह देखकर अचरज हो रहा था कि उसकी टाँगें, जो, उसके बदन की भाँति, चोट के निशानों-खरोंचों से भरी थीं, किस प्रकार उसका बोझ सँभाले थीं, किस प्रकार वह अपने आपको गिरने से और कुहनियों के बल घिसटने से रोके थी।

लम्बे क़द का एक देहाती गाड़ी में खड़ा था। वह सफ़ेद रंग की रूसी कुरती और काले रंग की अस्त्राख़ानी टोपी पहने था जिसके नीचे से निकलकर चटक रंग के लाल बालों का एक गुच्छा उसके माथे पर झूल रहा था। एक हाथ में वह लगाम थामे था और दूसरे में एक हण्टर, जिसे वह बाक़ायदा पहले घोड़े पर और फिर छोटे क़द की उस स्त्री पर झटकार रहा था जो पहले ही इतनी मार खा चुकी थी कि पहचानी तक नहीं

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:37


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
कात्‍यायनी की दो कविताएं
कात्यायनी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2022/09/blog-post_13.html

1️⃣ सामान्यता की शर्त

जिस गन्दे रास्ते से हम रोज़ गुज़रते हैं
वह फिर गन्दा‍ लगना बन्द हो जाता है।

रोज़ाना हम कुछ अजी‍बोग़रीब चीज़ें देखते हैं
और फिर हमारी आँखों के लिए
वे अजीबोग़रीब नहीं रह जाती।

हम इतने समझौते देखते हैं आसपास
कि समझौतों से हमारी नफ़रत ख़त्म हो जाती है।

इसीतरह, ठीक इसीतरह हम मक्का़री, कायरता,
क्रूरता, बर्बरता, उन्माद
और फासिज़्म के भी आदी होते चले जाते हैं।

सबसे कठिन है एक सामान्य आदमी होना।
सामान्यता के लिए ज़रूरी है कि
सारी असामान्य चीज़ें हमें असामान्य लगें
क्रूरता, बर्बरता, उन्माद और फासिज़्म हमें
हरदम क्रूरता, बर्बरता, उन्माद और फासिज़्म ही लगे
यह बहुत ज़रूरी है
और इसके लिए हमें लगातार
बहुत कुछ करना होता है
जो इनदिनों ग़ैरज़रूरी मान लिया गया है।
_____
2️⃣ सफल नागरिक

दुनिया में जब घटती होती हैं रोज़-रोज़
तमाम चीज़ें – मसलन मँहगाई, भूख,
भ्रष्टाचार, ग़रीबी, तरह-तरह के अन्या‍य
और अत्या‍चार और लूट और युद्ध और नरसंहार,
तो हम दोनों हाथ फैलाकर कहते हैं,
‘हम भला और क्या कर सकते हैं
कुछ सवाल उठाने और कुछ शिकायतें
दर्ज़ करते रहने के अलावा !’
इसतरह हम धीरे-धीरे चीज़ों के
बद से बदतर होते जाने को देखने
और इन्तज़ार करने के आदी हो जाते हैं।
इसतरह क्रूरता हमारे भीतर
प्रवेश करती है और फिर
अपना एक मज़बूत घर बनाती है।
इसतरह हम
सबसे अधिक क्रूर लोगों के शासन में
जीने लायक एक दुनिया बनाते हैं
और सफल और शान्तिप्रिय, नागरिक बन जाते हैं
और हममें से कुछ लोग
बड़े कवि बन जाते हैं।

(कविताओं के साथ दिया चित्र सुप्रसिद्ध इतालवी चित्रकार रेनातो गुत्तुस्सो का 1941 में बनाया गया चित्र 'Crocifissione/Crucifixion' है, जिसमें सलीब पर चढ़ाए गए ईसा की छवि को पुनर्सृजित करते हुए तत्कालीन इतालवी समाज में व्याप्त फासिस्ट आतंक को अभिव्यक्त किया गया है ! गुत्तुस्सो अभिव्यंजनावादी यथार्थवादी इतालवी चित्रकार था जो फासिस्ट दौर में प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी था !)

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


Ismail

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


***
इस्माइल (28 मिनट)
निर्देशक : नोरा अल-शरीफ़

1949 में एक शरणार्थी शिविर में रहने वाला एक युवा फिलिस्तीनी आसन्न मौत से बचने के लिए संघर्ष करता है, जब वह और उसका छोटा भाई लापरवाही से एक बारूदी सुरंग में प्रवेश कर जाते हैं।
फ़िलिस्तीनी चित्रकार इस्माइल शमौत के जीवन के एक दिन से प्रेरित, यह फ़िल्म एक ऐसे युवक की दिलचस्प कहानी बताती है जो 1948 में इज़रायली सेना द्वारा बेदखल करके शरणार्थी शिविर में भेजे जाने के बाद अपने माता-पिता के गुज़ारे के लिए संघर्ष कर रहा था। दयनीय जीवन और कष्टदायक परिस्थितियों के बावजूद वह रोम जाकर पेंटिंग सीखने के अपने सपने को छोड़ता नहीं है। एक दिन अपने छोटे भाई के साथ रेलवे स्टेशन पर पेस्ट्री बेचकर लौटते समय वे अनजाने में एक ऐसे इलाक़े में दाख़िल हो जाते हैं जहाँ इज़रायली सेना ने बारूदी सुरंगें बिछा रखी हैं। मौत का सामना करते हुए और खुद को और अपने भाई को बचाने के लिए संघर्ष करते हुए हम इस्माइल की जिजीविषा और हौसले से रूबरू होते हैं।

***
Oceans of Injustice (अन्याय के महासागर), (11 मिनट 15 सेकेंड)
फ़राह नबलुसी की यह बेहद काव्यमय लघु फ़िल्म आज़ादी, इंसाफ़ और बराबरी के लिए फ़िलिस्तीनी अवाम के संघर्ष के बारे में लोगों को जागरूक करती है।

.... .... ....
हमारा सुझाव है कि आप फ़िल्म और सबटाइटल्स कंप्यूटर या लैपटॉप पर डाउनलोड करके इसे देखें। फ़िल्म और सबटाइटल्स की फ़ाइलें एक फ़ोल्डर में डाउनलोड करने के बाद VLC Media Payer या ऐसे ही किसी अन्य प्रोग्राम के ज़रिए इसे देखा जा सकता है। VLC में आप इसके सबटाइटल्स का फ़ॉण्ट भी सुविधानुसार बड़ा कर सकते हैं और इसका रंग भी बदल सकते हैं या पढ़ने में आसानी के लिए सबटाइटल्स के पीछे बैकग्राउण्ड भी लगा सकते हैं। इसके लिए VLC के Tools मेनू में जाकर Preferences और फिर Subtitles/OSD पर क्लिक करें और सुविधानुसार चयन करें।

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


फ़िलिस्तीन की दो फ़ीचर फ़िल्में और पाँच छोटी फ़िल्में हमने आज लखनऊ सिनेफ़ाइल्स के टेलीग्राम चैनल पर अपलोड की हैं। इनका संक्षिप्त परिचय हम नीचे दे रहे हैं।
इनके अलावा फ़िलिस्तीन पर दो चर्चित डॉक्युमेंट्री फ़िल्में हम पहले ही शेयर कर चुके हैं -

हर्नान ज़िन की फ़िल्म - ‘बॉर्न इन ग़ाज़ा’ और
एबी मार्टिन की फ़िल्म ‘ग़ाज़ा फ़ाइट्स फ़ॉर फ़्रीडम’

आज की फ़िल्में
***
200 मीटर्स (1 घण्टा 35 मिनट)
निर्देशक : अमीन नायफ़ेह
(हिन्दी व अंग्रेज़ी सबटाइटल्स)

यह फ़िल्म उन लाखों फ़िलिस्तीनी लोगों की ज़िन्दगी हमारे सामने लाती है जिन्हें इज़रायल की ‘segregation wall’ की वजह से रोज़ परेशानियों से गुज़रना होता है। बेहतर स्कूलों और नौकरी के अवसरों के लिए अनगिनत लोग अलग-अलग रहने के लिए मजबूर हैं। जिन जगहों पर वे पीढ़ियों से रह रहे हैं, वहीं आने-जाने के लिए उन्हें “परमिट,” “इज़राइली आईडी” और अन्तहीन चेकपॉइंट और रोड बैरियर से गुज़रना पड़ता है और अक्सर “अवैध” तरीक़ों का सहारा लेना पड़ता है। कभी उन्हें परमिट नहीं मिलता तो कभी बायोमीट्रिक काम नहीं करता।
यह इज़रायल के क़ब्ज़े में फ़िलिस्तीन के आम लोगों की ज़िन्दगी में रोज़ आने वाली दुश्वारियों और छोटी-छोटी ख़ुशियों के लिए उनके संघर्ष को दिखाती है। बिना लाउड हुए यह फ़िल्म यह अहसास करा जाती है कि आम फ़िलिस्तीनी हर दिन किस यंत्रणा और अपमान से गुज़रते हैं। फ़िल्म एक परिवार और कुछ आम लोगों की ज़िन्दगी के चन्द दिनों में होने वाले अनुभवों पर है और दमन या हिंसा के दृश्य इसमें कहीं नहीं हैं, लेकिन इसे देखते हुए हम उस पृष्ठभूमि को नहीं भूल पाते जहाँ इज़रायल का नृशंस क़ब्ज़ा है और उसे बनाये रखने के लिए निरन्तर हमले होते रहते हैं।

इसमें अंग्रेज़ी सबटाइटल्स वीडियो में एंबेडेड हैं। इसलिए हिन्दी सबटाइटल्स चलाने पर VLC मीडिया प्लेयर के Tools मेन्यू में जाकर सबटाइटल्स में फ़ॉण्ट साइज़ Large कर लें, कलर येलो कर लें और बैकग्राउण्ड ऑन कर लें।

इसमें सबटाइटल्स थोड़े आगे-पीछे हैं। VLC मीडिया प्लेयर में आप वीडियो चलने के दौरान कीबोर्ड शॉर्टकट G या H से इसे ठीक कर सकते हैं: अगर सबटाइटल्स डायलॉग से पीछे हों तो G बटन को कुछ बार दबाकर इसे एडजस्ट करें और अगर सबटाइटल्स डायलॉग से आगे हों तो H बटन को कुछ बार दबाकर इसे एडजस्ट करें। (इस सुविधा के लिए हमें खेद है, सारे टाइमकोड ठीक करने में बहुत समय लगता इसलिए फ़िलहाल इसे ऐसे ही शेयर कर रहे हैं।)

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फ़रहा (1 घण्टा 30 मिनट)
निर्देशक : दारिन जे. सलाम
(हिन्दी व अंग्रेज़ी सबटाइटल्स)

अंतरराष्ट्रीय सहयोग से बनी यह फ़िल्म 1948 के नक़बा (आपदा) का ऐतिहासिक विवरण पेश करती है, जब इज़रायली सैनिकों और ज़ायनिस्टों के हथियारबन्द गिरोहों में सैकड़ों फ़िलिस्तीनी गाँवों पर हमले करके लाखों लोगों को उनके घरों से बेदखल कर दिया था। यह नक़बा के दौरान एक फ़िलिस्तीनी लड़की के वयस्क होने के अनुभव के बारे में है। फ़िल्म की निर्देशक दारिन जे. सलाम ने इसे एक सच्ची कहानी के आधार पर लिखा है, जो उन्होंने बचपन में रादिया नाम की लड़की के बारे में सुनी थी। रादिया की आँखों से हम देखते हैं कि कैसे एक क्रूर और अमानवीय क़ब्ज़ा शुरू हुआ जो आज भी जारी है।
इसका प्रीमियर 14 सितंबर 2021 को टोरंटो फ़िल्म फ़ेस्टिवल में हुआ था। इसके प्रसारण से इज़रायल इतना बौखलाया कि नेटफ़्लिक्स पर दबाव डालकर इसे हटवा दिया गया।

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होम स्वीट होम (3 मिनट 15 सेकंड)
निर्देशक : उमर रम्माल

बिना कुछ बोले यह फ़िल्म इज़रायली सेटलर्स द्वारा फ़िलिस्तीनी घरों पर क़ब्ज़े की सच्चाई को बेहद मार्मिक ढंग से दिखाती है।
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द प्रेज़ेंट (24 मिनट)
निर्देशक : सारा नबलुसी

‘अल हादिया’ (शाब्दिक अर्थ 'उपहार') - फ़राह नबलुसी की आधे घण्टे की यह फ़िल्म इज़रायल के क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में एक फ़िलिस्तीनी पिता और उसकी बेटी के एक दिन के बारे में है जो अपनी पत्नी के लिए शादी की सालगिरह पर तोहफ़ा ख़रीदने निकलता है। फ़िल्म अपने ही देश में क़दम-क़दम पर चेकपॉइंट से गुज़रने और अपमान का सामना करने के फ़िलिस्तीनियों के रोज़ के अनुभव को बहुत प्रभावशाली ढंग से पेश करती है। गत वर्ष इसे ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया था और इसने सर्वश्रेष्ठ लघु फिल्म के लिए ब्रिटिश अकादेमी (BAFTA) पुरस्कार जीता है।

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उबैदा (7 मिनट 20 सेकेंड)
निर्देशक : मैथ्यू कैसल

यह लघु फिल्म इज़रायली सेना द्वारा गिरफ़्तार किये गये एक फ़िलिस्तीनी बच्चे के अनुभवों की पड़ताल करती है। हर साल, लगभग 700 फ़िलिस्तीनी बच्चे इज़रायली सेना द्वारा गिरफ़्तार किये जाते हैं और उन्हें ऐसे हालात में रखा जाता है जहाँ दुर्व्यवहार व्यापक और संस्थागत है। इन युवा क़ैदियों के लिए, काग़ज़ पर भी बहुत कम अधिकारों की गारण्टी है। रिहा होने के बाद भी हिरासत का अनुभव इन बाल-क़ैदियों की ज़िन्दगी को प्रभावित करता रहता है।

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


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