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देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करने का एक प्रयास

Mazdoor Bigul (Hindi)

Mazdoor Bigul एक Telegram चैनल है जो देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करने का एक प्रयास करता है। इस चैनल का उद्देश्य मजदूरों की आवाज को सुनना और उनकी समस्याओं को साझा करना है। यहाँ आप मजदूरों के लिए नौकरी के अवसर, सरकारी योजनाएं, और अन्य महत्वपूर्ण सूचनाएं पा सकते हैं।nnMazdoor Bigul चैनल में आपको देश भर के विभिन्न क्षेत्रों से मजदूरों की कहानियाँ, उनकी मुश्किलें और उनकी मांगों के बारे में जानकारी मिलेगी। यहाँ पर एक साथ होकर मजदूर वर्ग की भावनाओं को समझने और उनके लिए समर्थन प्रदान करने का प्रयास किया जाता है।nnअगर आप भी मजदूरों की समस्याओं को सुनना चाहते हैं और उनके साथ समर्थन करना चाहते हैं, तो आपको Mazdoor Bigul चैनल में शामिल होना चाहिए। यहाँ पर आप नए मित्रों से मिल सकते हैं और मिलकर मजदूर वर्ग के लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर देश के मजदूर वर्ग को समृद्धि और सामर्थ्य की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाएं।

Mazdoor Bigul

26 Dec, 15:12


मार्क्स से पहले का भौतिकवाद, मनुष्य की सामाजिक प्रकृति से अलग रहकर, उसके ऐतिहासिक विकास से अलग रहकर ज्ञान की समस्या को परखता था, और इसलिए सामाजिक व्यवहार पर, यानी उत्पादन और वर्ग–संघर्ष पर ज्ञान की निर्भरता को वह नहीं समझ पाता था।

पहली बात तो यह कि मार्क्सवादी लोग मनुष्य की उत्पादक कार्रवाई को सबसे बुनियादी व्यावहारिक कार्रवाई मानते हैं, एक ऐसी कार्रवाई जो उसकी अन्य सभी कार्रवाइयों को निश्चित करती है। मनुष्य का ज्ञान मुख्यत: उसकी भौतिक उत्पादन की कार्रवाई पर निर्भर रहता है, जिसके जरिए वह कदम–ब–कदम प्राकृतिक घटना–क्रम, प्रकृति के स्वरूप, प्रकृति के नियमों और अपने तथा प्रकृति के बीच के संबंधों की जानकारी प्राप्त करता है; और अपनी उत्पादक कार्रवाई के जरिए वह कदम–ब–कदम मनुष्य और मनुष्य के बीच के निश्चित संबंधों की जानकारी भी अलग– अलग मात्रा में प्राप्त करता जाता है। इस तरह का कोई भी ज्ञान उत्पादक कार्रवाई से अलग रहकर प्राप्त नहीं किया जा सकता। एक वर्गहीन समाज में हर व्यक्ति समाज के एक सदस्य के रूप में समाज के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर परिश्रम करता है, उनके साथ एक निश्चित प्रकार के उत्पादन–संबंध कायम करता है तथा मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उत्पादक कार्रवाई में जुट जाता है। विभिन्न प्रकार के वर्ग–समाजों में, समाज के सभी वर्गों के सदस्य भी, भिन्न रूपों में, एक निश्चित प्रकार के उत्पादन–संबंध कायम करते हैं तथा अपनी भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उत्पादक कार्रवाई में जुट जाते हैं। यही वह मूल स्रोत है जहां से मनुष्य का ज्ञान विकसित होता है।

मनुष्य का सामाजिक व्यवहार महज उसकी उत्पादक कार्रवाई तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि बहुत से अन्य रूप भी धारण करता है-जैसे वर्ग–संघर्ष, राजनीतिक जीवन, वैज्ञानिक और कलात्मक गतिविधि; संक्षेप में यह कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में समाज के व्यावहारिक जीवन के सभी क्षेत्रों में भाग लेता है। इस तरह मनुष्य न सिर्फ अपने भौतिक जीवन द्वारा बल्कि अपने राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन द्वारा भी (राजनीतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन, दोनों ही भौतिक जीवन से घनिष्ठ रूप में संबंधित हैं) मनुष्य और मनुष्य के बीच के विभिन्न प्रकार के संबंधों की जानकारी अलग–अलग मात्रा में प्राप्त करता रहता है। सामाजिक व्यवहार के इन अन्य रूपों में, खास तौर से विभिन्न प्रकार का वर्ग–संघर्ष, मानव–ज्ञान के विकास पर गहरा प्रभाव डालता है। वर्ग–समाज में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी वर्ग के सदस्य के रूप में ही जीवन व्यतीत करता है, तथा प्रत्येक प्रकार की विचारधारा पर, बिना किसी अपवाद के, किसी न किसी वर्ग की छाप होती है।

मार्क्सवादियों का मत है कि मानव–समाज में उत्पादक कार्रवाई कदम–ब–कदम निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर बढ़ती जाती है, तथा फलत: मानव–ज्ञान भी, चाहे वह प्रकृति संबंधी हो चाहे समाज संबंधी, कदम–ब–कदम निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर बढ़ता जाता है, यानी उथलेपन से गहरेपन की ओर और एकांगीपन से बहुमुखीपन की ओर बढ़ता जाता है। इतिहास में बहुत समय तक समाज के इतिहास के बारे में मानव का ज्ञान एकांगी ही बना रहा, क्योंकि एक ओर तो शोषक वर्गों के पूर्वाग्रह समाज के इतिहास को सदा विकृत करते रहते थे, तथा दूसरी ओर छोटे पैमाने का उत्पादन मानव–दृष्टिकोण को सीमित कर देता था। उत्पादन की बड़ी शक्तियों (बड़े पैमाने के उद्योग–धंधों) के साथ जब आधुनिक सर्वहारा वर्ग का आविर्भाव हुआ, तभी मनुष्य सामाजिक इतिहास के विकास की सर्वांगीण, ऐतिहासिक समझ प्राप्त कर सका और समाज संबंधी अपने ज्ञान को विज्ञान का रूप, मार्क्सवाद के विज्ञान का रूप दे सका।

मार्क्सवादियों का मत है कि केवल मनुष्य का सामाजिक व्यवहार ही बाह्य जगत के बारे में मानव–ज्ञान की सच्चाई की कसौटी है। वास्तव में मानव–ज्ञान को सिर्फ तभी सिद्ध किया जाता है जब सामाजिक व्यवहार (भौतिक उत्पादन, वर्ग–संघर्ष या वैज्ञानिक प्रयोग) की प्रक्रिया के दौरान मनुष्य प्रत्याशित परिणाम प्राप्त कर लेता है। यदि मनुष्य अपने काम में सफल होना चाहता है, अर्थात प्रत्याशित परिणाम प्राप्त करना चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह अपने विचारों को वस्तुगत बाह्य जगत के नियमों के अनुरूप बनाए; अगर उसके विचार इन नियमों के अनुरूप नहीं बनेंगे, तो वह अपने व्यवहार में असफल हो जाएगा। जब वह असफल हो जाता है, तो अपनी असफलता से सबक सीखता है, अपने विचारों को सुधारकर उन्हें वाह्य जगत के नियमों के अनुरूप बना लेता है तथा इस प्रकार अपनी असफलता को सफलता में बदल सकता है; “असफलता सफलता की जननी है” और “ठोकर खाने से बुद्धि बढ़ती है” का यही अर्थ है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ज्ञान–सिद्धांत व्यवहार को प्रथम स्थान देता है। उसका कहना है कि मानव–ज्ञान को व्यवहार से हरगिज अलग नहीं किया जा सकता। वह उन तमाम गलत सिद्धांतों को ठुकरा देता है जो व्यवहार के महत्व को अस्वीकार

Mazdoor Bigul

26 Dec, 15:12


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*पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग के शिक्षक और नेता माओ त्से-तुङ के जन्म दिवस (26 दिसम्बर) के अवसर पर उनका एक महत्‍वपूर्ण लेख*
*व्यवहार के बारे में*
_ज्ञान और व्यवहार, जानने और कर्म करने के आपसी संबंध के बारे में_
माओ त्से-तुङ
🖥 https://www.mazdoorbigul.net/archives/11427
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*_ध्‍यान से पढ़ें और अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए शेयर जरूर करें।_*
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माओ त्से-तुङ सिर्फ चीनी जनता के लम्बे क्रान्तिकारी संघर्ष के बाद लोक गणराज्य के संस्थापक और समाजवाद के निर्माता ही नहीं थे, *मार्क्स और लेनिन के बाद वे सर्वहारा क्रान्ति के सबसे बड़े सिद्धान्तकार और हमारे समय पर अमिट छाप छोड़ने वाले एक महानतम क्रान्तिकारी थे।*

माओ-त्से-तुङ ने चीन में रूस से अलग समाजवाद के निर्माण की नयी राह चुनी और उद्योगों के साथ ही कृषि के समाजवादी विकास पर तथा गाँवों और शहरों का अन्तर मिटाने पर भी विशेष ध्यान दिया। *आम जन की सर्जनात्मकता और पहलकदमी के दम पर बिना किसी बाहरी मदद के साम्राज्यवादी घेरेबन्दी के बीच उन्होंने अकाल, भुखमरी और अफीमचियों के देश चीन में विज्ञान और तकनोलाजी के विकास के नये कीर्तिमान स्थापित कर दिये, शिक्षा और स्वास्थ्य को समान रूप से सर्वसुलभ बना दिया, उद्योगों के निजी स्वामित्व को समाप्त करके उन्हें सर्वहारा राज्य के स्वामित्व में सौंप दिया और कृषि के क्षेत्र में कम्यूनों की स्थापना की।* इस अभूतपूर्व सामाजिक प्रगति से चकित-विस्मित पश्चिमी अध्येताओं तक ने चीन की सामाजिक-आर्थिक प्रगति और समतामूलक सामाजिक ढाँचे पर सैकड़ों पुस्तकें लिखीं।

स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में जब ख्रुश्चेव के नेतृत्व में एक नये किस्म का पूँजीपति वर्ग सत्तासीन हो गया तो उसके नकली कम्युनिज़्म के खि़लाफ़ संघर्ष चलाते हुए माओ ने मार्क्सवाद को और आगे विकसित किया। पहली बार माओ ने रूस और चीन के अनुभवों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि समाजवाद के भीतर से पैदा होने वाले पूँजीवादी तत्व किस प्रकार मज़बूत होकर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं। उन्होंने इन तत्वों के पैदा होने के आधारों को नष्ट करने के लिए सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और चीन में 1966 से 1976 तक इसे सामाजिक प्रयोग में भी उतारा। यह माओ त्से-तुङ का महानतम सैद्धान्तिक अवदान है।

1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में भी देड़ सियाओ-पिङ के नेतृत्व में पूँजीवादी पथगामी सत्ता पर क़ाबिज़ होने में कामयाब हो गये, क्योंकि पिछड़े हुए चीनी समाज के छोटी-छोटी निजी मिलकियतों वाले ढाँचे में समाजवाद आने के बाद भी पूँजीवाद का मज़बूत आधार और बीज मौजूद थे। लेकिन पूँजीवाद की राह पर नंगे होकर दौड़ रहे चीन के नये पूँजीवादी सत्ताधारी आज भी चैन की साँस नहीं ले सके हैं। माओ की विरासत को लेकर चलने वाले लोग आज भी वहाँ मौजूद हैं और संघर्षरत हैं।
उनके जन्मदिवस के अवसर पर उनका यह महत्वपूर्ण लेख हम आपसे साझा कर रहे हैं।
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हमारी पार्टी में कुछ साथी कठमुल्लावादी थे, जिन्होंने एक लंबे समय तक चीनी क्रांति के अनुभव को अस्वीकार किया और इस सत्य को नहीं माना कि “मार्क्सवाद कोई कठमुल्ला–सूत्र नहीं बल्कि कर्म का मार्गदर्शक है”। वे लोग मार्क्सवादी रचनाओं के वाक्यों और वाक्यांशों को उनके प्रसंग से अलग करके उन्हें रट लेते थे और उनके जरिए लोगों पर रोब गालिब करते थे। कुछ साथी अनुभववादी थे, जो बहुत दिनों तक अपने आंशिक अनुभव से चिपके रहने के कारण न तो क्रांतिकारी व्यवहार के लिए क्रांतिकारी सिद्धांतों के महत्व को समझ पाए और न क्रांति की सम्पूर्ण स्थिति को ही देख पाए। ऐसे लोग अंधे होकर काम करते रहे, हालांकि उन्होंने बड़े परिश्रम से काम किया। इन दोनों ही किस्म के साथियों, खासतौर से कठमुल्लावादियों, के गलत विचारों की वजह से 1931.34 में चीनी क्रांति को भारी नुकसान उठाना पड़ा। खास तौर से कठमुल्लावादियों ने मार्क्सवाद का चोंगा पहनकर बहुत से साथियों को गुमराह किया। “व्यवहार के बारे में” नामक यह लेख कामरेड माओ त्से–तुङ ने पार्टी के अंदर कठमुल्लावाद और अनुभववाद, खास तौर से कठमुल्लावाद जैसी मनोगतवादी गलतियों का पर्दाफाश मार्क्सवादी ज्ञान–सिद्धांत के दृष्टिकोण के अनुसार करने के लिए लिखा था। इसका नाम “व्यवहार के बारे में” इसलिए रखा गया क्योंकि इसमें कठमुल्लावादी किस्म के मनोगतवाद का, जो व्यवहार को कम महत्व देता है, पर्दाफाश करने पर जोर दिया गया है। इस लेख के विचार कामरेड माओ त्से–तुङ ने येनान में जापान–विरोधी सैनिक व राजनीतिक कालेज में भाषण के रूप में प्रस्तुत किये थे।

Mazdoor Bigul

26 Dec, 15:11


शहीद उधम सिंह अमर रहें !

जन्म : 26 दिसम्बर, 1899 (सुनाम, जिला संगरूर, पंजाब, भारत)
शहादत : 31 जुलाई, 1940 (पेण्टोविले जेल, लन्दन, ब्रिटेन में फाँसी)

जलियाँवालाबाग हत्याकाण्ड के ज़िम्मेदारों में से एक पंजाब के माइकल ओ'ड्वायर को गोली मारकर बदला लेने वाले शहीद उधम सिंह के जन्मदिवस पर क्रान्तिकारी सलाम!

मुक़दमे के दौरान उधम सिंह ने कहा, "मेरे जीवन का लक्ष्य क्रान्ति है। क्रान्ति जो हमारे देश को स्वतन्त्रता दिला सके। मैं अपने देशवासियों को इस न्यायालय के माध्यम से यह सन्देश देना चाहता हूँ कि देशवासियो! मैं तो शायद नहीं रहूँगा। लेकिन आप अपने देश के लिए अन्तिम साँस तक संघर्ष करना और अंग्रेज़ी शासन को समाप्त करना और ऐसी स्थिति पैदा करना कि भविष्य में कोई भी शक्ति हमारे देश को ग़ुलाम न बना सके"। इसके बाद उन्होंने 'हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद! और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो!' नारे बुलन्द किये।

उधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर 'मोहम्मद सिंह आज़ाद' रख लिया था।

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:10


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न्यायपालिका के साम्प्रदायिकीकरण का विरोध करो !
सच्चे सेक्युलरिज़्म के लिए संघर्ष तेज करो !
✍️ नौजवान भारत सभा द्वारा जारी
https://www.facebook.com/share/p/JVk6ud78bqyBTBNx/
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साथियो, संघ की शाखा में पले-बढ़े फ़ासिस्ट और कुपोषित सोच रखने वाले बजरबट्टूओं के दर्शन आजकल कहीं भी हो जा रहे हैं। हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव ने विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में कहा कि 'उन्हें यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि यह भारत है और यह अपने बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार चलेगा।' इसके अलावा भी इस इस्लामोफोबिया से ग्रसित व्यक्ति ने बहुत सा ज़हर उगला है। सोचने वाली बात है कि ये (कु)जज महोदय किन बहुसंख्यकों की इच्छा की बात कर रहे हैं?

आज देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी तो (अन्य अल्पसंख्यक आबादी के साथ ही) महँगाई और बेरोज़गारी की मार झेल रही है। उसकी इच्छा तो सुकून के साथ गुजर-बसर की ही है जिसके जीवन को मोदी सरकार ने तबाही के कगार पर ला पटका है। बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के युवा बेटे-बेटियाँ तो बेहतर शिक्षा, दवा-इलाज़ से ही वंचित हैं। ऐसे में इन जज साहिबान का हिन्दुओं का फ़र्ज़ी प्रहरी बनना दर्शाता है कि ये भी संघ की किसी शाखा की ही पैदावार हैं या फिर ये भाजपा से उम्मीद लगाये बैठे और राज्यसभा के टिकटार्थी एक अवसरवादी घाघ हैं।

देश के मौजूदा हालात पर एक निगाह डालना पर्याप्त रहेगा जोकि अल्पसंख्यकों ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को भी प्रभावित करते हैं। यूडीआईएसई (यूनिफ़ाइड डिस्ट्रिक्ट इंफ़ॉर्मेशन सिस्टम फ़ॉर एजुकेशन) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 2018 से 2020 तक के बीच में ही 50,000 से अधिक सरकारी स्कूल बन्द कर दिये गये। इनमें भी 26,000 से अधिक स्कूल अकेले उत्तर प्रदेश में बन्द हुए। क्या इन स्कूलों में जाने वाले बच्चे बहुसंख्यक हिन्दुओं के नहीं थे? क्या उन हिन्दू माँ-बाप की यही इच्छा रही होगी? हर साल लाखों-लाख छात्र-युवा भविष्य की अनिश्चितता में मौत को गले लगा रहे हैं। क्या उनकी यही इच्छा रही होगी? नहीं दोस्तों! यह बहुसंख्यकों की इच्छा का सवाल है ही नहीं।

जस्टिस शेखर अपने प्रलाप में बच्चों में तथाकथित दया भाव जगाने को भी खासे उत्सुक नज़र आते हैं। इनकी बच्चों में दया भाव जगाने की बेचैनी तब कहाँ चली जाती है जब देश की पूरी नयी पीढ़ी के मस्तिष्क में टीवी, सिनेमा और सोशल मीडिया के माध्यम से अश्लीलता, फूहड़ता, अपराध, उन्माद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद और हिंसा को कूट-कूट कर भरा जा रहा है। कई सर्वेक्षणों में अनुमान लगाया गया है कि स्कूल से निकलने की उम्र तक एक औसत शहरी बच्चा पर्दे पर 8000 हत्याएँ और 100,000 अन्य हिंसक दृश्य देख चुका होता है। 18 वर्ष का होने तक वह 200,000 हिंसक दृश्य देख चुका होता है जिनमें 40,000 हत्याएँ और 8000 स्त्री-विरोधी अपराध शामिल हैं! फ़िल्मों, वेब सीरीज से लेकर टीवी सीरियलों तक में अपराध और अपराधियों को महिमामण्डित किया जाता है।

जज महोदय अपने (कु)भाषण में प्रकृति के प्रति भी खासे चिन्तित नज़र आते हैं! उत्तरप्रदेश की मौजूदा भाजपा सरकार ने 'कांवड़ कारीडोर' बनाने के नाम पर 33,776 पेड़ काटने की योजना बनायी है। इसमें केवल तीन जिलों (गाज़ियाबाद, मुरादनगर और मुज़फ्फ़रनगर) में 9 अगस्त तक 17,607 पेड़ काटे जा चुके हैं। अपने आका अदानी के फायदे के लिए छत्तीसगढ़ में लाखों पेड़ों का पूरा जंगल साफ करवा दिया गया। नदियों को बर्बाद किया जा रहा है। औद्योगिक कचरा सरेआम पर्यावरण को तबाह कर रहा है। लेकिन इन मसलों पर जज साहब की सिट्टी-बिट्टी गुम है। प्रकृति प्रेम पर उनका उपदेश मोदी-योगी और अदानी को क्यों नहीं दिया गया?

सच बात यह है कि आज मुट्ठी भर धनपशुओं के मुनाफ़े को बरकरार रखने के लिए जनता के बुनियादी हक़-अधिकारों तक में कटौती की जा रही है। जज साहब को असल में बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के हितों से कोई सरोकार नहीं है। इनका एकमात्र मकसद इस्लामोफोबिया का प्रसार करके संघ भाजपा के लिए खुद को उपयोगी साबित करना भर है।
देश की व्यापक मेहनतकश आबादी अपने बुनियादी मुद्दों पर एकजुट होकर सरकार से सवाल न करे इसलिए उन्हें फ़र्जी "बहुसंख्यकों की इच्छा" के नाम पर बाँटा जा रहा है।

दोस्तो, अब हमें तय करना है कि महँगाई, बेरोज़गारी, महँगी होती शिक्षा, पहुँच से बाहर जाते दवा-इलाज़, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार आदि को चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे या फ़िर इस तरह की साम्प्रदायिक बयानबाजियों का जवाब अपनी एकजुटता और संघर्ष से देंगे!
नौजवान भारत सभा का स्पष्ट मानना है कि हमें सच्चे सेक्युलरिज़्म के लिए भी संघर्ष तेज करना होगा। हमें धर्म के राज्य मशीनरी और सरकार से पूर्ण विलगाव की माँग को पुरज़ोर तरीक़े से उठाना होगा।

जाति-धर्म में नहीं बँटेंगे,
मिलजुलकर संघर्ष करेंगे !

– नौजवान भारत सभा

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:10


पुनर्नवा

जीवन के जनपद में
ज्वार की प्रतीक्षा है I
पूरी तैयारी है I

पूर्णिमा का चाँद
चढने दो I
विचारों को
पकने दो I

उमड़ता जनज्वार
विचारों को
समेट लेगा अपने भीतर I

खुद को,
विचारो को,
सबकुछ को नया कर जायेगा I

--- शशि प्रकाश

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:09


पाब्लो नेरूदा की कलम से
शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)
और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)
और पवित्रता भी (कहता है अन्न)

पेड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं सबसे ऊँचा हूँ !'

जड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं बेहद गहराई से आई हूँ !'

और रोटी कभी नहीं बोली :
दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा'

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:09


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन सिनेमा के साथ 📚
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किस तरह ग़ुलामों ने दास प्रथा के ख़िलाफ़ शुरू की बगावत!
जानने के लिए देखिए सच्ची घटना पर आधारित 1960 में अमेरिकी फिल्म 🎬 निर्देशक 'स्टैनिले क्यूब्रिक' के निर्देशन में बनी फिल्म 'स्पार्टकस'
📱 https://t.me/AlldCinephiles

हिंदी ऑडियो के साथ अपलोड फिल्म हमारे टेलीग्राम चैनल से डाउनलोड की जा सकती है। अगर आपको लिंक से टेलीग्राम चैनल खोलने में समस्या आए तो टेलीग्राम पर जाए और Allahabad cinephiles सर्च करें
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'स्पार्टकस' फ़िल्म अमेरिका के क्रान्तिकारी लेखक 'हावर्ड फ़ास्ट' के प्रसिद्ध उपन्यास 'स्पार्टकस' पर आधारित है। हिन्दी में इसका अनुवाद 'आदिविद्रोही' के नाम से अमृत राय ने किया। यह फ़िल्म सच्ची घटना पर केन्द्रित है। फ़िल्म की कहानी ईसा से 73 वर्ष पूर्व रोम के ग़ुलामों के विद्रोह पर आधारित है, उन्हीं *ग़ुलामों में से एक ग़ु़लाम स्पार्टकस ने ग़ुलामी की पाशविक प्रथा को चुनौती देने का साहस विवेक पूर्ण तरीके से किया था।*
इस फ़िल्म की शुरुआत में दिखाया गया है कि ग़ुलामों के मालिक किस तरह यातनापूर्ण तरीके से ग़ुलामों से काम करवाते हैं, थोड़ा भी आराम करने के लिए सिर उठाने पर कोड़े बरसाए जाते है। ग़ुलामों का एक व्यापारी बाटियाटस जो ग्लेडिएटर स्कूल का मालिक है, स्पार्टकस को खरीद लेता है। बाटियाटस मालिकों के मनोरंजन के लिए ग़ुलामों को अखाड़े में लड़ाने के लिए प्रशिक्षित करता है।। बाटियाटस के स्कूल में स्पार्टकस जैसे 40 और गुलाम युद्ध कला सीखते हैं, सीखने के दौरान स्पार्टकस इन गुलामों से अपनी नफरत साझा करता है। नफरत आगे बढ़कर विद्रोह का रूप अख्तियार करती है। स्पार्टकस के नेतृत्व में ग़ुलाम योद्धा एकजुट होकर बाटियाटस के सिपाहियों को मारकर प्रशिक्षण जेल से आजाद हो जाते है। आजाद होने के बाद स्पार्टकस ने जो युद्ध कला सीखा था उसे ग़ुलामों को भी सिखाया और रोम की ताकतवर सेना के खिलाफ ग़ुलामों की फौज खड़ी की। जगह-जगह ग़ुलामों को उनके मालिकों से आज़ाद कर सेना में भर्ती किया। स्पार्टकस के नेतृत्व में 1,20,000 गुलामों की सेना तैयार हुई और गुलामों की ताकत लगातार मजबूत होती गयी। रोम के सेनापति क्रैसस के ख़िलाफ़ युद्ध में स्पार्टाकस मारा जाता है। स्पार्टकस की मौत के बाद भी रोम का सेनापति क्रेसस मानता है कि स्पार्टकस अभी हारा नहीं है क्योंकि उसका विचार जीवित है, उसके विचार को मार कर ही स्पार्टकस को पूरी तरह हराया जा सकता है। इसीलिए उसने स्पार्टकस की प्रेमिका वारेनिया को अगवा करा लिया और ढेरों ऐशो- आराम में रखकर वारेनिया का दिल जीतने का प्रयास करता है, वह सोचता है कि अगर वारेनिया मुझसे प्रेम करेगी तो 'स्पार्टकस का विचार' खत्म किया जा सकता है लेकिन वारेनिया क्रैसस के प्रेम को ठुकरा देती है और कहती है कि स्पार्टकस के विचारों को मारा नहीं जा सकता, उसने हम गुलामों को आजादी के लिए लड़ना सिखाया है, उसने तो आशा का निर्माण किया है।

Mazdoor Bigul

21 Dec, 06:08


Spartacus ( स्पार्टाकस)

Mazdoor Bigul

19 Dec, 05:01


शहीदों के जो ख़्वाब अधूरे, इसी सदी में होंगे पूरे! इसी सदी में नये वेग से परिवर्तन का ज्वार उठेगा!!

काकोरी ऐक्शन के शहीदों के 97वें शहादत दिवस पर

बिस्मिल-अशफ़ाक़ को याद करो! साम्प्रदायिक ताक़तों को ध्वस्त करो!! जुझारू जनएकजुटता क़ायम करो!!!
https://www.facebook.com/share/p/ebiR2tUdHfjoAc6r/
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साथियो,
आज से 97 साल पहले 17 और 19 दिसम्बर, 1927 को काकोरी ऐक्शन के चार क्रान्तिकारियों को फाँसी दी गयी थी। ये क्रान्तिकारी थे – रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी तथा रोशन सिंह। भारत की आज़ादी के आन्दोलन में ‘काकोरी ऐक्शन’ एक ख़ास घटना है जिसने लूट, शोषण और दमन पर टिके अंग्रेज़ी साम्राज्य को जड़ से हिलाकर रख दिया था। 9 अगस्त 1925 के दिन 10 नौजवानों ने काकोरी नामक जगह पर चलती रेल रोककर अंग्रेज़ी खज़ाने को लूट लिया था जिसका मक़सद था हथियारबन्द क्रान्ति के लक्ष्य तक पहुँचना। इस ऐक्शन के दमन चक्र में कईयों को कठोर कारावास और चार को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी थी। इस घटना को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए) ने अंजाम दिया था जिसकी विरासत को लेकर भगतसिंह और उनके साथी आगे बढ़े और 1928 में उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) के रूप में दल को विकसित किया।

क्यों आज काकोरी के शहीदों को याद करने की ज़रूरत है?

शोषणमुक्त व सच्चे मायने में धर्मनिरपेक्ष समाज का सपना लिए हुए ब्रिटिश जल्लादों से लड़ते हुए बिस्मिल, अशफ़ाक़, लाहिड़ी, रोशनसिंह जनता के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बन गये थे। लेकिन काकोरी ऐक्शन के शहीद उस समय अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति और हिन्दू-मुस्लिम कट्टरपन्थियों की करतूतों से शायद ये अन्दाज़ा लगा चुके थे कि ये .....

Mazdoor Bigul

19 Dec, 05:00


मो.दी सरकार किताबों को लोगों से दूर करने की हर कोशिश कर रही है।
✍️ जनचेतना https://www.facebook.com/share/p/qXUMKWHZ6SiCnHMD/
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पिछले साल नवम्बर में अचानक सभी डाक सेवाओं पर 18% जीएसटी लगा दिया गया जिससे डाक से किताबें भेजना काफ़ी महँगा हो गया था। अब कल जारी आदेश में डाक विभाग ने रजिस्टर्ड बुक पोस्ट की सेवा को ही ख़त्म कर दिया है। इसे एक नया नाम दिया गया है जिसकी दरें पार्सल से तो कम होंगी लेकिन अब तक जारी बुक पोस्ट के मुक़ाबले क़रीब ढाई गुना ज़्यादा होंगी।

(वैसे यह ख़बर आपको किसी अख़बार में भी शायद ही दिखायी दे। काफ़ी ढूँढ़ने के बाद हमें बस ‘मलयाला मनोरमा’ में छोटा-सा समाचार मिला।)

कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं, लेखकों, सम्पादकों के लिए अब किताबें, पत्रिकाएँ आदि डाक से भेजना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इसका सबसे ज़्यादा असर छोटे और ग़ैर-व्यावसायिक प्रकाशकों और पत्र-पत्रिकाओं पर पड़ना है जो पहले ही काग़ज़ और छपाई की बेतहाशा बढ़ती क़ीमतों से जूझ रहे हैं।

एक तरफ़ क़ीमतें बढ़ायी जा रही हैं, दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों के दौरान डाक सेवाओं को लगातार चौपट किया गया है। नयी भर्तियाँ हो नहीं हो रही हैं, अधिकाधिक काम ठेके पर कराये जा रहे हैं और कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है।

‘जनचेतना’ से भेजी किताबों के पैकेट पहले देश के किसी भी कोने में 3 से 5 दिनों में पहुँच जाते थे पर अब अक्सर 7 से 10 दिन लग जाते हैं और आये दिन पैकेट ग़ायब होने की शिकायतें मिलती रहती हैं। इण्डिया पोस्ट की ट्रैकिंग वेबसाइट पर कई-कई दिनों तक कोई अपडेट ही नहीं होता। कुछ बार ऐसा भी हुआ है कि कई दिनों तक पैकेट का पता नहीं चलने पर जब स्थानीय डाकघर में पूछताछ की गय़ी तो मालूम हुआ कि पैकेट साहब अभी वहीं आराम फ़रमा रहे हैं! या फिर कोलकाता भेजी गयी किताब लखनऊ से दिल्ली, दिल्ली से हैदराबाद, हैदराबाद से रायपुर और रायपुर से वापस लखनऊ आ गयी और इस देशभ्रमण की थकान उतारने के लिए एकाध दिन आराम करके फिर कोलकाता को रवाना हुई!

हालत इतनी बुरी है कि आज जब अचानक दरों में बढ़ोत्तरी के बारे में पूछने के लिए हमारे एक साथी पोस्टमास्टर के पास गये तो वे अपना ही दुखड़ा रोने लगे। बोले कि मैं तो ख़ुद ही तंग आ गय़ा हूँ। वीआरएस की स्कीम आ जाये तो फ़ौरन रिटायरमेंट ले लूँगा।

उधर मोती के सखा ट्रम्प ने अमेरिकी डाक सेवा का निजीकरण करने की मंशा जता दी है “घाटे” का हवाला देकर। हमारे यहाँ रेलवे की तरह डाक विभाग का किस्तों में निजीकरण तो जारी ही है, बचे-खुचे को भी अडाणी-अम्बानी के हाथों में सौंप दिया जाये तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।

Mazdoor Bigul

19 Dec, 05:00


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविताओं के साथ 📚
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युद्धोन्माद के विरुद्ध बर्तोल्‍त ब्रेख्‍त की कविताएं Bertolt Brecht's Poem against War Hysteria
📱 https://unitingworkingclass.blogspot.com/2019/02/bertolt-brechts-poem-against-war.html
For english version please scroll down

युद्धोन्‍माद के विरुद्ध बर्तोल्‍त ब्रेख्‍त की कविताएं

द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्वबेला में जब पूरा जर्मनी नात्सियों द्वारा भड़काए युद्धोन्माद में डूबा हुआ था, उस वक्‍त ये कविताएं लिखी गयी थी।

मूल जर्मन से अनुवाद – मोहन थपलियाल

1. युद्ध जो आ रहा है (1936-38)

युद्ध जो आ रहा है
पहला युद्ध नहीं है।
इसे पहले भी युद्ध हुए थे।
पिछला युद्ध जब खत्म हुआ
तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित-
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी मरा वह भूखा ही।
_____
2. दीवार पर खड़िया से लिखा था: (1936-38)

दीवार पर खड़िया से लिखा था:
वे युद्ध चाहते हैं
जिस आदमी ने यह लिखा था
पहले ही धराशायी हो चुका है।
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3. जब कूच हो रहा होता है (1936-38)

जब कूच हो रहा होता है
बहुतेरे लोग नहीं जानते
कि दुश्मन उनकी ही खोपड़ी पर
कूच कर रहा है
वह आवाज जो उन्हें हुक्म देती है
उन्हीं के दुश्मन की आवाज होती है
और वह आदमी जो दुश्मन के बारे में बकता है
खुद दुश्मन होता है।
_____
4. ऊपर बैठने वालों का कहना है: (1936-38)

ऊपर बैठने वालों का कहना है:
यह महानता का रास्ता है
जो नीचे धंसे हैं, उनका कहना हैः
यह रास्ता कब्र का है।
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5. नेता जब शान्ति की बात करते हैं (1936-38)

नेता जब शान्ति की बात करते हैं
आम आदमी जानता है
कि युद्ध सन्निकट है
नेता जब युद्ध का कोसते हैं
मोर्चे पर जाने का आदेश
हो चुका होता है
_____
6. वे जो शिखर पर बैठे हैं, कहते हैं: (1936-38)

वे जो शिखर पर बैठे हैं, कहते हैं:
शान्ति और युद्ध के सार तत्व अलग-अलग हैं
लेकिन उनकी शान्ति और उनका युद्ध
हवा और तूफान की तरह हैं
युद्ध उपजता है उनकी शान्ति से
जैसे मां की कोख से पुत्र
मां की डरावनी शक्ल की याद दिलाता हुआ
उनका युद्ध खत्म कर डालता है
जो कुछ उनकी शान्ति ने रख छोड़ा था।
_____
7. जनरल, तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है

जनरल, तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है
वह जंगलों को रौंद देता है
और सैकड़ों लोगों को चपेट में ले लेता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक चालक चाहिए

जनरल, तुम्हारा बमवर्षक जहाज़
शक्तिशाली है
तूफान से तेज़ उड़ता है वह और
एक हाथी से ज्‍यादा भारी वज़न उठाता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक कारीगर चाहिए

जनरल, आदमी बहुत
उपयोगी होता है
वह उड़ सकता है और
हत्या भी कर सकता है
लेकिन उसमें एक दोष है

वह सोच सकता है
_____
8. भूखों की रोटी हड़प ली गई है (1933-47)

भूखों की रोटी हड़प ली गई है
भूल चुका है आदमी मांस की शिनाख्त
व्यर्थ ही भुला दिया गया है जनता का पसीना।
जय पत्रों के कुंज हो चुके हैं साफ।
गोला बारूद के कारखानों की चिमनियों से
उठता है धुआं।

Mazdoor Bigul

17 Dec, 16:55


हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य और काकोरी एक्शन के शहीद राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी अमर रहें!

राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का जन्म बंगाल (आज का बांग्लादेश) में पबना जिले के अन्तर्गत मड़याँ (मोहनपुर) गाँव में 29 जून 1901 को हुआ।इनके पिता का नाम क्षिति मोहन लाहिड़ी व माता का नाम बसन्त कुमारी था। उनके जन्म के समय पिता क्रान्तिकारी क्षिति मोहन लाहिड़ी व बड़े भाई बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास की सलाखों के पीछे क़ैद थे। वाराणसी में अध्ययन के दौरान एक दिन राजेन्द्र लाहिड़ी की भेंट मशहूर क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल से हुई। सान्याल के सम्पर्क में आने के बाद वे जल्द ही क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़ गये तथा शहादत के दिन तक जुड़े रहे। 9 अगस्त 1925 के दिन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े हुए क्रान्तिकारियों ने काकोरी रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन रोककर सरकारी ख़ज़ाना लूट लिया था। इस एक्शन में राजेन्द्र लाहिड़ी की भूमिका महत्वपूर्ण थी, स्टेशन के आगे उन्होंने ही चेन खींचकर गाड़ी रोकी थी। काकोरी एक्शन के दौरान लाहिड़ी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास विषय में एम० ए० (प्रथम वर्ष) के छात्र थे। इस एक्शन को अंजाम देने के जुर्म में 17 दिसम्बर 1927 को गोण्डा के जिला कारागार में अपने साथियों से दो दिन पहले उन्हें फाँसी दे दी गयी। उनके शहादत के 97 साल बाद भी सच्चे मायने में आज़ादी - बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम की आज़ादी, का उनका सपना वास्तव में अधूरा है। उस सपने को साकार करने का दायित्व आज के न्यायप्रिय नौजवानों के कंधों पर है। राजेन्द्र लाहिड़ी भविष्य के प्रति उत्कट आस्था रखते थे। उन्होंने कहा था -"मौत क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के सिवाय कुछ नहीं। जीवन क्या है? मौत की ही दूसरी दिशा का नाम है। फिर डरने की क्या ज़रूरत है? यह तो प्राकृतिक बात है, उतनी ही प्राकृतिक जितना कि प्रातः में सूर्योदय। यदि हमारी यह बात सच है कि इतिहास पलटा खाता है तो मैं समझता हूँ कि हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा।"

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:14


🌄🌅 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 उन साहित्‍यकारों की याददिहानी के साथ जिन्होंने मानवता के बेहतर भविष्य के लिए अपनी जिंदगी लगा दी 📚
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: उम्मीद का शायर
स्‍मृति दिवस - 20 नवम्‍बर
🖌 आशीष
📱https://ahwanmag.com/archives/1478
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फ़ैज़ की कविता में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है दबे-कुचलों के प्रति दुख-दर्द की भावना, जनमानस से अटूट रिश्ता। चाहे दुनिया के किसी भी कोने में इंसानी रक्त बहे, फ़ैज़ किसी भी घटना से अप्रभावित नहीं रहे। इसीलिए जब ईरान में छात्रों को मौत के अन्धे कुँए में धकेला जाता है तो वे एक कविता ‘ईरानी तुलबाँ के नाम’ लिखते हैं, अफ्रीकी स्वतन्त्रता प्रेमियों के समर्थन में ‘AFRICA COME BACK’ का नारा लगाते हैं और साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-सीना’ और फिलिस्तीनी बाँकों को श्रद्धांजलि पेश करने के लिए ‘दो नज़्में फिलिस्तीन के लिए’ लिखकर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं। फ़ैज़ की नज़्में देश-काल की सीमाओं को लाँघकर दुखी जनों की आवाज़ बनकर सामने आती है। वे सच्चे मायने .......

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:11


फ़ैज़ के स्मृति दिवस (20 नवम्बर) पर

तराना
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएँगे

कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएँगे
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है

जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं

जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से न टाले जाएँगे
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत

चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक

कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:11


बोल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा

बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकाँ में

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक

बोल जो कुछ कहना है कह ले

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:49


फ़ासीवाद के सवाल पर एक जरूरी बहस - भाग - 7

‘Lalkaar-Pratibaddh’ Group’s Understanding of Fascism
A Menagerie of Dogmatic Blunders
(Part – VII)
'ललकार-प्रतिबद्ध' ग्रुप की फ़ासीवाद की समझदारी
कठमुल्लावादी ग़लतियों की नुमाइश भाग - 7
• Abhinav Sinha
______
To read the complete article, follow this link 👇
https://anvilmag.in/archives/707
To download the PDF of this article, follow this link 👇
http://anvilmag.in/wp-content/uploads/2024/11/Critique-of-Sukhwinder-on-Fascism-Part-VII.pdf

To read the earlier parts of this critique, please click on the links 👇
First part - https://anvilmag.in/archives/677⁣
second part - https://anvilmag.in/archives/685
third part - https://anvilmag.in/archives/690
Fourth part - https://anvilmag.in/archives/694
Fifth part - https://anvilmag.in/archives/698
Sixth part - https://anvilmag.in/archives/703
*️⃣ Hindi and Punjabi versions will also be uploaded soon.
अभी यह बहस सिर्फ अंग्रेजी में है। हिंदी व पंजाबी में जल्द ही अपलोड की जाएगी।
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𝟏𝟔. 𝐒𝐮𝐤𝐡𝐰𝐢𝐧𝐝𝐞𝐫’𝐬 𝐀𝐜𝐜𝐨𝐮𝐧𝐭 𝐨𝐟 𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐈𝐧𝐝𝐢𝐚: 𝐀 𝐌𝐞𝐧𝐚𝐜𝐞 𝐭𝐨 𝐭𝐡𝐞 𝐃𝐞𝐯𝐞𝐥𝐨𝐩𝐦𝐞𝐧𝐭 𝐨𝐟 𝐀𝐧𝐲 𝐔𝐧𝐝𝐞𝐫𝐬𝐭𝐚𝐧𝐝𝐢𝐧𝐠 𝐨𝐟 𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐈𝐧𝐝𝐢𝐚

𝘈. “𝘉𝘢𝘳𝘦-𝘯𝘢𝘬𝘦𝘥” 𝘝𝘢𝘤𝘶𝘪𝘵𝘺 𝘰𝘧 𝘚𝘶𝘬𝘩𝘸𝘪𝘯𝘥𝘦𝘳’𝘴 𝘝𝘦𝘳𝘺, 𝘝𝘦𝘳𝘺 𝘉𝘳𝘪𝘦𝘧 𝘈𝘤𝘤𝘰𝘶𝘯𝘵 𝘰𝘧 𝘍𝘢𝘴𝘤𝘪𝘴𝘮 𝘪𝘯 𝘐𝘯𝘥𝘪𝘢

From page number 47 to 49 in his booklet on fascism, Sukhwinder presents a very, very brief account of fascist rise in India. He warns the readers that they should consult “other books”. Well, to say the least, after systematic dumbing down of the minds of the readers with this very, very brief account, even reading the best of the research works on fascism in India, would not be able to play the role of an antidote. We will explain why we are saying this.

First of all, any person has the right to present a brief account of any historical process. However, the usefulness of such account depends on one basic pre-requisite that it must fulfil: it must capture at least the nodal points or defining moments of that process. Sukhwinder’s account completely fails to capture the milestones or the turning points in the rise of fascism in India. It is a very poor factual account with inaccuracies. Secondly, if a Marxist presents even a very brief account of a socio-economic and political phenomenon, it must have two basic elements: one, causal analysis and two, the identification of the phases of the process. Both these elements are missing. Allow us to demonstrate this fact.

The account of Sukhwinder is a thoroughly impoverished selection of facts from a variety of sources. A reader can get a better view of things by reading Wikipedia articles on the subject, if not scholarly research works! For instance, he does not even mention the core of the ideology of Hindutva fascism, as it originated and evolved through Savarkar to Golwalkar and later. The essence of fascist ideology itself is lost in his account. Secondly, he does not discuss the basic phases of evolution of fascist ideology and organization from 1925 to 1947 (foundations of fascist ideology, origins of the cadre structure and development of a limited support base among the urban petty-bourgeoisie and upper-caste landlordist reaction), from 1948 to 1962 (period of relative downturn and sidelining of the RSS due to the assassination of Gandhi, even though the ban on the RSS was lifted very soon and the development of cadre organization and infiltration into state apparatus continued), from India’s China War (1962) to the mid-1980s (the re-emergence of the RSS in the mainstream bourgeois politics, continued growth of cadre organization, continued infiltration into the state apparatus, and beginnings of the rise of fascist social movement), the mid-1980s to 1996 (the period of first paroxysm with the demolition of the Babri Masjid when Indian fascism moved from a long ‘war of positions’ to a period of ‘war of movement’, formation of BJP or BJP-led governments in some states,

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:48


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इज़रायल : साम्राज्यवादी हितों के लिए खड़ा किया गया एक सेटलर-कोलोनियल राज्य
सनी
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://ahwanmag.com/archives/8233

यहूदी राज्य यूरोप की रक्षा की दीवार का अंग बनेगा और यह सभ्यता की बर्बरता के ख़िलाफ़ चौकी होगा।
– थियोडोर हर्ज़ल
ज़ायनवादी सिद्धान्तकार हर्ज़ल ने यह बात अपनी पुस्तक ‘यहूदी राज्य’ में इज़रायल के बनने से क़रीब 50 साल पहले कही थी। यह एक नये क़िस्म के औपनिवेशिक राज्य की वकालत थी जिसे साम्राज्यवाद के युग में खड़ा किया जाना था। 1948 में यही ज़ायनवादी योजना अमली-रूप लेती है और आज जिस इज़रायल को हम देख रहे हैं यह इस सेटलर-कोलोनियल परियोजना का ही नतीजा है। इज़रायल एक सेटलर-कोलोनियल राज्य है। इज़रायल के राज्य के इस चरित्र को समझकर ही फ़िलिस्तीनी अवाम के संघर्ष को, गज़ा के बर्बर नरसंहार के बावजूद इज़रायल को मिल रहे बेशर्म साम्राज्यवादी समर्थन को और इज़रायली राज्य के अन्तरविरोधों को समझ सकते हैं। साथ ही इसकी रोशनी में हम फ़िलिस्तीन पर इज़रायली राज्य द्वारा लागू की जा रही अपार्थाइड नीतियों को समझ सकते हैं।
लेख लिखे जाने तक रफ़ा में इज़रायली हमला जारी है जिसमें हर रोज़ फ़िलिस्तीनी नागरिक मारे जा रहे हैं। इज़रायल हमास के ख़िलाफ़ युद्ध हार चुका है क्योंकि तमाम दावों के बाद भी वह हमास की सैन्य क्षमता को नष्ट करने में असफल रहा है। इज़रायल का गज़ा में नरसंहार 7 अक्टूबर के बाद शुरू हुआ। 7 अक्टूबर का दिन ‘प्रिज़न ब्रेक’ था जिस दिन फ़िलिस्तीनियों ने गज़ा की ‘खुली जेल’ में जारी बर्बर औपनिवेशिक दमन के ख़िलाफ़ इज़रायल में घुसकर हमला किया और सैकड़ों उपनिवेशवादियों को मार दिया। यह फ़िलिस्तीनियों का प्रतिरोध युद्ध के दौरान उठाया गया साहसपूर्ण क़दम था। हथियारों के विराट ज़ख़ीरे और ‘आइरन क्लेड’ अमरीकी मदद के बावजूद इज़रायल के भीतर हमला हुआ और सैकड़ों सेटलरों को हमास के लड़ाके बन्धक बनाकर गज़ा ले गये। आइरन डोम से लेकर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ सर्विलांस के तमाम उपकरणों के बावजूद इज़रायल 7 अक्टूबर के हमले के जवाब में हमास को सैन्य तौर हराने में असफल रहा है। इस असफलता के प्रतिशोध में ही इज़रायली सेना गज़ा में मासूमों पर बमवर्षा कर एक पूरी क़ौम को ख़त्म करने पर आमादा है। न सिर्फ़ इस बम वर्षा में आम नागरिक मारे जा रहे हैं बल्कि इज़रायल एआई का चुनिन्दा तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। फ़िलिस्तीनी कलाकारों-लेखकों को निशाना बनाया गया है ताकि फ़िलिस्तीन की कविताओं, गीतों, चित्रों, कहानियों और उसकी संस्कृति तथा उसके इतिहास को मिटाया जा सके। डॉक्टरों को मारकर, अस्पतालों को नेस्तनाबूद कर गज़ा को यातना गृह में तब्दील कर दिया गया है। गज़ा से लेकर दुनिया भर में सड़कों पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति का झण्डा लहरा रहा है जबकि सत्ता के गलियारों में झूठे शान्ति प्रस्तावों के साथ ही हत्यारों की ‘आत्मरक्षा’ के ‘डिस्कोर्स’ में हथियारों के ज़ख़ीरों के सौदे हो रहे हैं। अरब देशों के शासक वर्ग फ़िलिस्तीनी मुक्ति युद्ध को साम्राज्यवादियों के समक्ष बटखरे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं हालाँकि अरब जनता के फ़िलिस्तीनी जनता के प्रति गहरे लगाव के दबाव में वे इज़रायल से नाराज़गी भी व्यक्त करते रहते हैं। साम्राज्यवादी शक्तियाँ खोखले शान्ति प्रस्तावों के साथ और दीर्घकालिक समाधान की बातें करते हुए इस युद्ध को जारी रखना चाहती हैं। 1917 का बाल्फ़ोर घोषणापत्र, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का व्हाइट पेपर, 1948 का यूनाइटेड नेशंस का प्रस्ताव, 1967 का प्रस्ताव या ‘ओस्लो समझौता’; सब इज़रायल के सेटलर-कोलोनियल राज्य पर मुहर लगाने का ही काम करते आये हैं।
आज साम्राज्यवादी मीडिया के माध्यम से इज़रायल द्वारा गज़ा में किये जा रहे नरसंहार का विरोध करना भी ‘यहूदी-विरोधी’ घोषित किया जा रहा है और आलम यह है कि इज़रायल नाज़ियों द्वारा किये नरसंहार की आड़ में इस शताब्दी के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम दे रहा है। शान्ति प्रस्तावों, मानवीय सहायता के ढोंग और दीर्घकालिक तौर पर ‘टू-स्टेट सोल्यूशन’ की बातें असल में एक पर्दा है जो इज़रायल के कृत्रिम सेटलर-कोलोनियल राज्य पर और उसकी अपार्थाइड नीतियों पर पर्दा डालने का काम करता है। गज़ा में आज जो नरसंहार हो रहा है उसके पीछे छिपे मुनाफ़े के सौदों और उन सौदों को बरक़रार रखने के लिए बनाये गये कृत्रिम इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की निशानदेही करनी होगी।

इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की स्थापना और अपार्थाइड नीतियाँ

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:48


“अगर हमें ज़िन्दा रहना है तो हमें हत्या करनी होगी, हत्या करनी होगी और हत्या करनी होगी। .. अगर हम हत्या नहीं करते हैं तो हम अस्तित्वमान नहीं रह सकते.. एकतरफ़ा विलगाव से ‘शान्ति’ की कोई गारण्टी नहीं मिलेगी- यह एक ज़ायनवादी- यहूदी राज्य की गारण्टी देता है जिसमें बहुसंख्या यहूदियों की होगी।” – अरनोन सोफ्फ़र, इज़रायली प्रोफ़ेसर
यह कथन इज़रायली राज्य का सच ज़ाहिर करता है। वह सच जो तमाम इज़रायली कुकर्मों पर सफ़ेदी पोतने वाले लाख चाहकर भी छिपा नहीं पाते हैं। आज जिसे इज़रायल देश कहा जाता है वह असल में फ़िलिस्तीन ही है। ज़ायनवादियों ने 19वीं शताब्दी के अन्त से ही इस योजना को पेश किया कि फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर यहूदियों का देश बसे और इसके लिए साम्राज्यवादियों से गुहार भी लगायी। यह एक लम्बी परियोजना थी जिसे ज़ायनवादी अंजाम देना चाहते थे। सबसे पहले 1883 से 1903 के बीच यहूदियों को इस इलाक़े में आने के लिए प्रेरित किया गया। तब 25 हज़ार से ज़्यादा यहूदी यहाँ आये। उस समय मुख्य रूप से फ़्रांस ने इन यहूदीवादी गतिविधियों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया था। दूसरी घुसपैठ 1904 से 1914 के बीच हुई। तब 40 हज़ार यहूदी इस इलाक़े में आकर बसे।
थियोडोर हर्ज़ल के अनुसार:
“हमें निर्धारित की गयी भूसम्पदा पर निजी सम्पत्ति को लगातार धीरे-धीरे ज़ब्त करना होगा। हमें ग़रीब जनता को बॉर्डर के पार भेजने का प्रोत्साहन देने के लिए उसे अपने ही देश में रोज़गार से वंचित करके पारगमन देशों में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए प्रयत्न करने होंगे। सम्पत्ति मालिक हमारी तरफ़ आ जायेंगे। ज़ब्ती लूट और ग़रीबों को हटाये जाने की प्रक्रिया दोनों ही बहुत सावधानी और सोचे-समझे तरीक़े से करनी होगी।
ज़ायनवादी उपनिवेश मूल निवासी जनता की इच्छा की अवज्ञा करके ही बनाया जाये। यह उपनिवेश बरक़रार और विकसित केवल देशी जनता से स्वतन्त्र, एक ताक़तवर सैन्यदल के संरक्षण में ही हो सकता है – एक ऐसी लौह दीवार जिसे मूल जनता तोड़ न पाये। यही सम्पूर्णता में अरब के प्रति हमारी नीति है। इसे प्रतिपादित निरूपित करने के लिए कोई भी अन्य तरीक़ा पाखण्ड होगा।”
यह कथन इज़रायल बनने की प्रक्रिया को समझा देता है और इसमें प्रथम विश्व युद्ध के बाद प्रमुखतः ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की भूमिका रही। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ओटोमन साम्राज्य की ब्रिटेन से हार के बाद फ़िलिस्तीन ब्रिटिश हुकूमत का उपनिवेश बन गया। 1918 में ब्रिटिश सेना ने फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। ब्रिटिश कैबिनेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ में इस ज़ायनवादी परियोजना पर मुहर लगा दी। इस घोषणा में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन को ‘राष्ट्रीय यहूदी मातृभूमि’ बनाने का समर्थन किया। इसमें फ़िलिस्तीनी बाशिन्दों का कहीं भी ज़िक्र नहीं था। 1922 में लीग ऑफ़ नेशंस ने ‘मैण्डेट फॉर फ़िलिस्तीन’ में ब्रिटेन की हुकूमत को स्वीकार किया। इस मैण्डेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ को ही शब्दशः अपना लिया। एक ओर सत्ता के गलियारों में सौदेबाजी हो रही थी तो दूसरी ओर यहूदी घरानों ने फ़िलिस्तीनी ज़मीन खरीदना और यहाँ बसना शुरू किया। यहूदी सेटलरों का लगातार फ़िलिस्तीन आकर बसने को ज़ायनवादी बढ़ावा देते रहे क्योंकि वे आबादी के अनुपात में सेटलरों की संख्या इतनी बढ़ाना चाहते थे कि फ़िलिस्तीनी अस्मिता को मिटाया जा सके। 1935 तक ही 60,000 से अधिक यहूदी प्रवासी फ़िलिस्तीन आये। यह 1917 में कुल यहूदी आबादी की संख्या से भी अधिक थी। आर्थिक तौर पर फ़िलिस्तीनी आबादी मुख्यतः खेती पर निर्भर थी। 1930 के दशक में यहूदी आबादी ने आर्थिकी में फ़िलिस्तीनियों को पछाड़ दिया। ज़ायनवादियों ने 1921 में हैगनाह के नाम से एक गिरोह संगठित किया जो एक ख़तरनाक आतंकवादी संगठन के रूप में विकसित हो गया। इसका काम ही था अरब गाँवों और मुहल्लों पर हमला करके उनके घरों और खेतों को जलाने के साथ-साथ उन्हें मार-पीटकर भगा देना तथा वहाँ यहूदियों के लिए नयी बस्तियाँ बसाना। आज भी गज़ा को नेस्तनाबूद कर सेटलर बसावट का प्रस्ताव या वेस्ट बैंक में लगातार ज़मीनों का सेटलरों और इज़रायली सेना का फ़िलिस्तीनी घरों और ज़मीन पर क़ब्ज़ा ज़ायनवाद की ऐतिहासिक योजना की ही निरन्तरता है। यह कोई आकस्मिक उठा बर्बरता का उन्मादी दौरा नहीं है। 1948 तक ब्रिटिश हुकूमत के मातहत रहते हुए भी फ़िलिस्तीन में एक यहूदी अर्द्ध-राज्य अस्तित्व में आ चुका था जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का समर्थन प्राप्त था। 1936-39 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ अरब विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस युद्ध में फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवादी ताक़तों के बिखरे प्रयासों को बरतानवी हुकूमत ने ख़ून में डुबो दिया। राशिद खालिदी बताते हैं कि:

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:47


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - सुखी-सम्पन्न लोग
कविता कृष्णपल्लवी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/blog-post_28.html

सुखी-सम्पन्न लोग अक्सर
अपने अकेलेपन की बातें करते हैं।
थोड़ी दार्शनिक मुद्रा में अक्सर
वे कहते हैं कि सबकुछ होते हुए भी
मनुष्य कितना अकेला होता है!
वे सड़क से रोज़ाना गुज़रते
कामगारों को बिना चेहरों वाली
भीड़ की तरह देखते हैं।
अपनी कार के टायर बदलने वाले
या घर की सफाई-पुताई करने वाले
मज़दूर को वे नाम से नहीं जानते
और कुछ ही दिनों बाद
उसका चेहरा भी भूल जाते हैं।
लेबर चौक पर खड़े मज़दूरों को देखकर
उन्हें लगता है कि देश की
आबादी बहुत बढ़ गयी है।
सुखी-सम्पन्न लोगों को आम लोगों से
हमेशा बहुत सारी शिक़ायतें रहतीं हैं।
वे उनके गँवारपन, काहिली, बद्तमीज़ी,
ज़्यादा बच्चे पैदा करने की उनकी आदत
और उनमें देशभक्ति की कमी की
अक्सर बातें करते रहते हैं।
सरकार के बारे में वे हमेशा
सहानुभूतिपूर्वक सोचते हैं और
कहते रहते हैं कि सरकार भी आख़िर क्या करे!
वे आम लोगों को सुधारने और उनके
बिगड़ैलपन को दूर करने के लिए
तानाशाही को सबसे कारगर मानते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
बदलते मौसमों, पेड़ों और
फूलों के बारे में और नदियों-पहाड़ों के बारे में
बस इतनी जानकारी होती है
कि वे उनके बारे में बातें कर सकें
जब उनके पास करने के लिए
कोई और बात न हो.
सुखी-सम्पन्न लोग अपनी छोटी सी
सुखी-सम्पन्न दुनिया में
पूरी उम्र बिता देते हैं
और अपने दुखी होने के कारणों के बारे में
कुछ भी नहीं जान पाते।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
इस बहुत बड़ी दुनिया के आम लोगों की
बहुत बड़ी आबादी के जीवन के बारे में
बहुत कम जानकारी होती है
और दुनिया की सारी ज़रूरतें
पूरी करने वाले मामूली लोग
उनके ज़ेहन में कहीं नहीं होते
जब वे मनुष्यता के संकट की बातें करते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोग मनुष्यता से अपनी दूरी
और उसके कारणों के बारे में
कभी जान नहीं पाते
और अपने सुखी-सम्पन्न जीवन के
अनंत क्षुद्र दुखों के बारे में ही
सोचते हुए और रोते-गाते हुए,
ध्यान और योग और विपश्यना करते हुए,
नियमित हेल्थ चेकअप कराते हुए
और मरने से डरते हुए
एक दिन, आख़िरकार मर ही जाते हैं
सचमुच!

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:46


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन साहित्‍य के साथ 📚
_____
मेटामॉरफ़ॉसिस
अन्वेषक
📱 https://ahwanmag.com/archives/8228

आज के समय को मेटामॉरफ़ॉसिस काल कहना अधिक उचित होगा। जिस हिसाब से मेटामॉरफ़ॉसिस की प्रक्रिया आज समाज में चल रही है, उतनी इतिहास में कभी नहीं चली होगी। फ़्रेंज़ काफ़्का के लघु उपन्यास ‘मेटामॉरफ़ॉसिस’ में एक छोटा-सा क्लर्क होता है, जो तिलचट्टा बन जाता है, पर हमारे देश में तो बड़े-बड़े लोग, नेता इस प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं। भारतीय समाज थोड़ा जटिल समाज है, इसलिए यहाँ मेटामॉरफ़ॉसिस थोड़ी जटिल प्रक्रिया से होता है। अभी परसों की बात है। विपक्षी पार्टी के बड़े नेता सरकार को बड़े-बड़े शब्दों में गरियाते हुए सोये। पता चला अगले दिन वह सरकार के मन्त्रियों के साथ खड़े होकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। देखा, हुआ न रात भर में मेटामॉरफ़ॉसिस!

मैं सोचता हूँ कि रात भर वह नेता क्या सोच रहा होगा! ऐसा क्या हुआ कि सुबह उठते ही उसे वह सरकार इतनी पसन्द आने लगी जिसे रात में वह गाली दे रहा था। रात में उसे देश में हर जगह .....

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


रचनाएँ सोवियत संघ में प्रकाशित हुईं। जैक लण्डन की लगभग ऐसी ही लोकप्रियता सभी पूर्वी यूरोपीय देशों में थी जहाँ उसकी रचनाओं के अतिरिक्त उनपर बनी फिल्मों को भी लोगों ने काफी पसन्द किया। पोलैण्ड में 1909 से लेकर 1990 तक जैक लण्डन की लोकप्रियता का आलम यह था कि हर वर्ष 'बेस्टसेलर' किताबों की सूची में उसकी कुछ किताबें शामिल होती थीं और स्कूली छात्रों तक की सबसे अधिक संख्या जिस विदेशी लेखक से परिचित होती थी, वह जैक लण्डन ही था। इस स्थिति में 1990 के बाद परिवर्तन आया जब अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के निर्बाध वर्चस्व ने पोलैण्ड सहित समूचे पूर्वी यूरोप को विश्व मण्डी का एक अविभाज्य अंग बना दिया। लेकिन इन बदली स्थितियों में इन देशों में सिर्फ जैक लण्डन की ही लोकप्रियता नहीं घटी है। सभी महान लेखकों के साथ यह हुआ है कि उनके कृतित्व को कचरा साहित्य ने ढाँप लिया है।

पश्चिम में सर्वहारा साहित्य के एक प्रवर्तक के रूप में जैक लण्डन ने अपने जीवनकाल में ही विश्वव्यापी ख्याति अर्जित कर ली थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमेरिकी पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की अवस्था में संक्रमण की अभिलाक्षणिकताएँ स्पष्ट हो चुकी थीं। इसके साथ ही साहित्य में सामाजिक-राजनीतिक आलोचना की सघनता- तीक्ष्णता बहुत अधिक बढ़ गई थी। मार्क ट्वेन ने अपनी साहित्यिक रचनात्मकता का पटाक्षेप साम्राज्यवाद-विरोधी पैम्फलेटों के लेखन के साथ किया। 'मकरेकर्स' नाम से प्रसिद्ध लेखकों का ग्रुप सामाजिक अन्तर्विरोधों को उजागर करने में ज़ोला की शैली के साथ डिकेन्स की वस्तुपरकता और मार्क ट्वेन की तीक्ष्ण तिक्तता का संश्लेषण कर रहा था। विरासत के इसी सूत्र को थामकर जैक लण्डन, अप्टन सिंक्लेयर और थियोडोर ड्रेज़र ने घोषित तौर पर सर्वहारा की पक्षधरता के साथ लेखन की शुरुआत की। जैक लण्डन और अप्टन सिंक्लेयर ने सचेतन तौर पर समाजवाद की विचारधारा को स्वीकार किया और राजनीति के क्षेत्र में भी सक्रिय हुए। उन्होंने पूँजीवादी समाज के सभी बुनियादी अन्तर्विरोधों, बुर्जुआ जनवाद की वास्तविकता और बुर्जुआ वर्ग की समस्त आत्मिक रिक्तता को अपनी रचनाओं में उजागर करने के साथ ही मजदूर वर्ग की चेतना और संघर्षों के नये उभार को भी देखा तथा बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के राजनीतिक संघर्ष की अपरिहार्यता पर बल देते हुए इसी में मानवता का भविष्य खोजने की कोशिश की। इतिहास का सिंहावलोकन करते हुए आज यह बेहिचक कहा जा सकता है कि मक्सिम गोर्की और जैक लण्डन वे पहले लेखक थे जिनकी रचनाओं में उन्नीसवीं शताब्दी के क्रान्तिकारी बुर्जुआ यथार्थवाद से समाजवादी यथार्थवाद में संक्रमण को लक्षित किया जा सकता है।

हावर्ड फास्ट ने अपनी चर्चित आलोचनात्मक कृति साहित्य और यथार्थ में लिखा है : "जिस समय जैक लण्डन 'आयरन हील' लिख रहे थे, लगभग उसी समय गोर्की ने 'माँ' लिखा। दोनों ही लेखकों ने स्वयं को सचेत रूप से अपने देश के अगुआ दस्ते सर्वहारा वर्ग से जोड़ा-गोर्की ने रूस की सामाजिक जनवादी पार्टी से (जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बनी) तथा जैक लण्डन ने अमेरिका की समाजवादी पार्टी के वाम पक्ष से (जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बनी)। दोनों ही लेखक 1905 की क्रान्ति में रूसी सर्वहारा वर्ग की अस्थायी हार से गम्भीर रूप से प्रभावित हुए। 'आयरन हील' में जैक लण्डन ने उस उभरते फासिज्म का अविश्वसनीय चित्र खींचा जो अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग को कुचलकर मानव-सभ्यता के विकास को सैकड़ों वर्ष पीछे धकेल देगा। लेकिन गोर्की क्योंकि संघर्ष के बीच में थे, इसलिए वे भविष्य को अधिक आशान्वित रूप में देखते हैं।” हावर्ड फास्ट ने जैक लण्डन की महत्ता के साथ ही यहाँ उसके उन अन्तर्विरोधों की ओर भी इंगित किया है जो जीवन के आखिरी छह वर्षों के दौरान उसे निराशा के गर्त में धकेलने के साथ ही समाजवादी विचार से भी दूर ले गये। जैक लण्डन के इन अन्तर्विरोधों के स्रोत उसके जीवन में, उसके विचारों में और तत्कालीन अमेरिकी समाज में मौजूद थे। बहरहाल, इन अन्तर्विरोधों और विचलन के बावजूद यह तथ्य अपनी जगह पर कायम है कि जैक लण्डन अमेरिकी साहित्य में यथार्थवादी परम्परा का एक मील का पत्थर और पश्चिम में सर्वहारा साहित्य के प्रवर्तकों में से एक था।

पहले विश्वयुद्ध में अमेरिका की भागीदारी का समर्थन करने के बाद वह अपने पुराने कामरेडों से और अधिक दूर हो गया। लेकिन इन सबके बावजूद, जैक लण्डन की समाजवाद में आस्था और उत्पीड़ितों की पक्षधरता आखिरी साँस तक बनी रही। समाजवाद की विजय के प्रति गहरी शंका के बावजूद, कम-से-कम एक यूटोपिया के रूप में वह उसे लगातार अपनाये रहा। उसका तर्कशील मस्तिष्क पूँजीवादी विश्व की भौतिक-आत्मिक शक्तिमत्ता और पूँजी के विश्वव्यापी वर्चस्व की व्याख्या के लिए नीत्शे के नस्ली श्रेष्ठता के विचारों और सामाजिक डार्विनवाद के प्रतिक्रियावादी सिद्धान्तों को अपनाने तक चला

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


जाता था, लेकिन समाजवाद के लिए संघर्ष का वह कभी भी विरोधी नहीं बना। उल्लेखनीय है कि निष्क्रिय होने के बाद भी वह समाजवादी पार्टी का सदस्य बना रहा और 1916 में, अपनी मृत्यु के ठीक पहले जब उसने पार्टी से इस्तीफा दिया तो कारण यह बताया कि अब पार्टी की ‘लड़ाकू स्पिरिट' के बारे में उसके मन में सन्देह पैदा हो चुका है। जैक लण्डन के जटिल मानस के जीवनपर्यन्त असमाधानित वैचारिक अन्तर्विरोधों को समझने की दृष्टि से यह तथ्य बहुत गौरतलब है। यह अटकल लगाने के पर्याप्त आधार हैं कि जैक लण्डन यदि 1917 की अक्टूबर क्रान्ति और उसके बाद की दुनिया को देख पाता, यदि वह आखिरी मजदूर आन्दोलन के नये उभार और 1919 में अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन का साक्षी बन पाता, और यदि तीसरे चौथे दशक में फासीवादी उभार तथा महामन्दी के संकट के काल में वह जीवित रहा होता तो दुनिया शायद एक बार फिर उसके विचारों और कृतित्व में मार्क्स द्वारा नीत्शे और स्पेंसर की पराजय होते देख पाती। बहरहाल, अटकल तो फिर भी अटकल है।

बचपन से कठिन जीवन, बीहड़ घुमक्कड़ी की तकलीफों और धुआँधार लेखन की दिनचर्या ने जैक लण्डन के खूबसूरत और मजबूत शरीर को पैंतीस की उम्र तक खोखला कर डाला था। 1914 में मेक्सिको यात्रा के दौरान उसे प्लूरसी और गम्भीर पेचिश ने धर पकड़ा। 1915 में तुर्की-यात्रा के दौरान गठिया ने प्रचण्ड हमला किया। पाँच माह तक हवाई में स्वास्थ्य लाभ भी किया, पर कोई खास फायदा नहीं हुआ। 1916 में घर लौटने के बाद गठिया के साथ ही 'यूरेमिया' (मूत्ररुधिरता) का भी प्रकोप हुआ और उसके बाद 'रेनल कॉलिक' (गुर्दे से जुड़ा उदरशूल) का हमला हुआ। अनिद्रा स्थायी समस्या बन चुकी थी। नवम्बर में 'इण्टस्टिंशियल नेफ्राइटिस' (गुर्दे की बीमारी) ने निर्णायक प्रहार किया। महज चालीस वर्षों का जीवन, लेकिन बेहद तूफानी, सर्जनाशील और प्रयोगों से भरा हुआ जीवन जीने के बाद, जैक लण्डन ने 22 नवम्बर, 1916 की शाम को आखिरी साँस ली। वह उत्तप्त-उद्दीप्त उल्कापिण्ड-सा जीवन बुझ गया और क्षितिज पर शेष रह गई प्रकाश की एक रेखा!

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


📚 यूनाइटिंग वर्किंग क्लास प्रस्तुत 📚
📖 बेहतरीन पुस्तकों की पीडीएफ 📖
⏺️ This time we are providing pdf in two languages - Hindi and English
इस बार की पीडीएफ दो भाषाओं (हिंदी व अंग्रेजी) में उपलब्ध कराई जा रही है
________
जैक लण्‍डन के कालजयी उपन्यास ‘आयरन हील' की पीडीएफ फाइल
PDF file of Jack London's Timeless Novel - The Iron Heel
जैक लण्‍डन की इस पुस्‍तक की एच. ब्रूस फ्रेंकलिन द्वारा 21 अप्रैल, 1980 को लिखित भूमिका पढ़ने के लिए इस लिंक पर जायें -https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/pdf-file-of-jack-londons-novel-iron-heel.html

पीडीएफ फाइल मंगवाने के लिए दिये व्‍हाटसएप्‍प नम्‍बर (9892808704) पर व्‍हाटसएप्‍प से ही संदेश भेजें। ईमेल या अन्‍य किसी अन्‍य माध्‍यम से फाइल नहीं भेजी जायेगी। आप इस ऑनलाइन लिंक से बिना व्‍हाटसएप्‍प का इस्‍तेमाल किये भी डाउनलोड कर सकते हैं -
हिन्‍दी - https://drive.google.com/file/d/1BeAZ6LCC6sOuLfBVl1frtpvHMDZ1rdiQ/view?usp=sharing
English - https://drive.google.com/file/d/1bZ0XhRiklpacJPSXXCFlDvwLE8YEAWFd/view?usp=sharing
टेलीग्राम पर भी आप इस फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं - टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

जैक लण्‍डन, उसका समय और उसका कृतित्‍व

(सत्‍यम और कात्‍यायनी द्वारा लिखित विस्‍तृत लेख के कुछ हिस्‍से)

वेगवान उद्दीप्त उल्का-सा वह जीवन!
'धूल की जगह राख होना चाहूँगा मैं!
मैं चाहूँगा कि एक दैदीप्यमान ज्वाला बन जाये भड़ककर मेरी चिनगारी बजाय इसके कि सड़े काठ में उसका दम घुट जाये।
एक ऊँघते हुए स्थायी ग्रह के बजाय
मैं होना चाहूँगा एक शानदार उल्का
मेरा प्रत्येक अणु उद्दीप्त हो भव्यता के साथ।
मनुष्य का सही काम है जीना, न कि सिर्फ जीवित रहना।
अपने दिन मैं बर्बाद नहीं करूँगा उन्हें लम्बा बनाने की कोशिश में। मैं अपने समय का इस्तेमाल करूँगा।'

जैक लण्‍डन की की ये ओजपूर्ण पंक्तियां उसके जीवन और जीवन-दृष्टि का घोषणा-पत्र हैं।

विश्व-साहित्य में यथार्थवादी परम्परा पर कोई भी चर्चा जैक लण्डन के विशेषकर दो उपन्यासों - मार्टिन ईडन और आयरन हील के उल्लेख के बिना अधूरी मानी जायेगी। उसकी कुछ कहानियाँ भी ऐसी हैं, जिन्हें बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्टतम कहानियों में शामिल किया जा सकता है।

यह एक दिलचस्प ऐतिहासिक तथ्य है कि जैक लण्डन अपने समय के दो महान क्रान्तिकारियों का पसन्दीदा लेखक था। लेनिन की मृत्यु से दो दिन पहले उनकी पत्नी क्रुप्सकाया ने उन्हें जैक लण्डन की कहानी लव ऑफ लाइफ पढ़कर सुनाई थी और उन्हें वह बहुत अधिक पसन्द आई थी। भगतसिंह फाँसी की कोठरी में राजनीतिक अध्ययन के साथ-साथ जिन साहित्यकारों की कृतियाँ बहुत चाव के साथ पढ़ रहे थे, उनमें चार्ल्स डिकेंस, अप्टन सिंक्लेयर और मक्सिम गोर्की के साथ जैक लण्डन भी प्रमुख थे। जैक लण्डन के उपन्यास 'आयरन हील' से वे बहुत अधिक प्रभावित हुए थे। अपनी जेल नोटबुक में (जो भगतसिंह की शहादत के छह दशक से भी अधिक समय बाद अंग्रेजी और हिन्दी में प्रकाशित हो सकी है) उन्होंने इस उपन्यास के कई उद्धरण दर्ज किये हैं। लियोन त्रात्स्की और हावर्ड फास्ट सहित कई मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों ने क्रान्तिकारी यथार्थवाद के अग्रतम पुरोधाओं में जैक लण्डन की गणना की है। जंगल उपन्यास के लेखक अप्टन सिंक्लेयर अपने इस समकालीन लेखक के व्यक्तित्व, विचारों और कृतित्व से बहुत अधिक प्रभावित थे। अप्टन सिंक्लयेर के सक्रिय समाजवादी बनने में जैक लण्डन के प्रभाव की भी एक अहम भूमिका थी। जैक लण्डन 1896-97 में ही अमेरिकी सोशलिस्ट पार्टी के वाम पक्ष से जुड़ चुके थे।

अमेरिका में साहित्य के अधिकांश गम्भीर पाठक आज भी जैक लण्डन की गणना सर्वश्रेष्ठ अमेरिकी लेखकों में करते हैं और कुछ तो उन्हें इस कतार में पहले स्थान पर रखते हैं। मार्क ट्वेन के बाद जैक लण्डन ही ऐसा अमेरिकी लेखक था, जो अपने बीहड़, साहसिक, रोमानी जीवन, क्रान्तिकारी विचारों और नई लकीर खींचनेवाली यथार्थवादी रचनाओं के चलते अपने जीवनकाल में ही जनसामान्य के बीच उतना अधिक लोकप्रिय हो पाया। फर्क यह था कि अपनी रचनात्मक सक्रियता के शुरुआती चन्द वर्षों के दौरान ही जैक लण्डन की प्रसिद्धि देशव्यापी हो चुकी थी। 1908 में आयरन हील और 1909 में मार्टिन ईडन के प्रकाशन के बाद उसकी ख्याति पूरे यूरोप और रूस तक पहुँच चुकी थी। उसकी हर कृति प्रकाशित होने के चन्द वर्षों के भीतर अधिकांश यूरोपीय भाषाओं में अनूदित हो जाती थी। रूस में अक्टूबर क्रान्ति के पहले ही जैक लण्डन लोकप्रिय हो चुका था। क्रान्ति के बाद 1919 में मयाकोव्स्की ने उसके उपन्यास 'मार्टिन ईडन' पर आधारित नॉट बॉर्न फॉर मनी नाम से बननेवाली फिल्म की न सिर्फ पटकथा लिखी, बल्कि उसमें अभिनय भी किया। 1928-29 में 24 खण्डों में जैक लण्डन की सम्पूर्ण

Mazdoor Bigul

09 Nov, 04:19


📮_____📮
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यूवाल नोआ हरारी की आलोचना : भाग-2
‘सेपियन्स’ की आलोचना: चेतना के उद्भव तथा मानव प्रजाति का हरारी द्वारा पूँजीवादी संस्कृति के अनुसार सारभूतीकरण
सनी
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://ahwanmag.com/archives/8217

(युवाल नोआ हरारी एक धुर-प्रतिक्रियावादी इस्राइली प्रोफेसर है जो पश्चिमी प्रचार तंत्र द्वारा सिर्फ़ इसलिए हाथों हाथ लिया गया क्योंकि उद्विकास और मानव जाति के उद्भव के स्थापित वैज्ञानिक सिद्धांत और वैज्ञानिक भौतिकवादी व्याख्या को कथित तौर पर खंडित करते हुए वह नया सिद्धांत और नयी व्याख्या देने के दावे पेश करता है। लेकिन उसके सिद्धांत और उसकी स्थापनाएँ इतनी बोदी, हवाई और तथ्यों एवं तर्कों से परे हैं कि पश्चिम के गंभीर अकादमीशियन भी उसे गंभीरता से नहीं लेते। विडम्बना यह है कि बौद्धिक कचरे और सड़क छाप लुगदी के इस उत्पादक को भारत के कई मार्क्सवादी भी "धरतीधकेल धुरंधर विद्वान" समझते हैं और सोशल मीडिया पर उसकी प्रशंसा करते हुए लहालोट होते रहते हैं। जाहिर है कि ....

Mazdoor Bigul

09 Nov, 04:17


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन सिनेमा के साथ 📚
_____
'लखनऊ सिनेफ़ाइल्स' द्वारा अब तक अपलोड सभी फिल्मों का विवरण
📱 https://www.facebook.com/share/p/nL1xh3jEfFXCDoCq/
_____
दोस्तो, ‘लखनऊ सिनेफ़ाइल्स’ के टेलीग्राम चैनल पर अबतक हमने करीब 40 फ़िल्में शेयर की हैं। दो डॉक्युमेंट्री और 3-4 छोटी फ़िल्मों के अलावा बाक़ी सभी के हिन्दी और अंग्रेज़ी सबटाइटल्स और उनके संक्षिप्त परिचय भी साथ में हैं। फ़िल्मों की सूची नीचे यह रही :
(टेलीग्राम चैनल से जुड़ने का लिंक पोस्ट के अन्त में दिया है।)

1. द यंग कार्ल मार्क्स (The Young Karl Marx)

निर्देशक राउल पेक की यह फ़िल्म 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में दो महान मस्तिष्कों, कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स के मिलने, दुनिया को बदलने के विज्ञान की खोज में उनकी जद्दोजहद और उनकी कालजयी रचना ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ के लिखे जाने तक की यात्रा को दिलचस्प ढंग से बयान करती है।

2. ज़ेड (Z)

निर्देशक कोस्ता गावरास की ‘ज़ेड’ विश्व सिनेमा की एक क्लासिक फ़िल्म है। यह उन फिल्मों में से एक है जिनमें दिखाई गई सच्चाई कई दशकों के फ़ासले के ......

Mazdoor Bigul

09 Nov, 04:16


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - मूर्ख आततायी पर हँसो! उसकी अवज्ञा करो!!
कविता कृष्णपल्लवी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/blog-post_6.html

अगर एक ज़िंदा इंसान हो,
अगर एक विवेकशील, स्वाभिमानी नागरिक हो,
अगर तुम्हारे पास है अपने लोगों के लिए
प्यार की गरमी भरा एक निर्भीक ह्रदय,
तो अवज्ञा करो, अवज्ञा करो, अवज्ञा करो,
आततायी सत्ताधारी के हर उस बेतुके, हास्यास्पद,
और मनुष्यता को अपमानित करने वाले आदेश की
जो यह परीक्षा लेने के लिए जारी किया गया है कि
तुम गड़रिये के कुत्ते जितने गावदी और स्वामिभक्त,
धोबी के गदहे जितने रूटीन के गुलाम, विचारहीन
बने हो कि नहीं ,
या एक ऐसे आदर्श धर्मभीरु गोपुत्र और राष्ट्रवादी बने हो कि नहीं
जिसके भीतर एक बर्बर हत्यारा छिपा बैठा हो!
जब सड़कों पर बीमारी और महामारी दर-बदर करोड़ों
मेहनतक़शों को शिकार बना रही हों
और तानाशाह कुछ प्रतीकात्मक अनुष्ठान करने का
निर्देश जारी कर रहा हो,
और अगर तुम एक ज़िंदा इंसान हो,
एक विवेकशील, स्वाभिमानी नागरिक हो,
अगर तुम्हारे पास है अपने लोगों के लिए
प्यार की गरमी भरा एक निर्भीक ह्रदय,
तो अवज्ञा करो, अवज्ञा करो, अवज्ञा करो!
.
जब कोई बर्बर हत्यारा
खून सनी सड़कों से गुज़रकर
सत्ता के शिखर पर जा बैठा हो
और भयंकर झूठों को एक हज़ार डिजिटल मुँहों से
बार-बार दुहराता हुआ उन्हें अटल सच्चाइयों की तरह स्थापित कर रहा हो,
जब कोई सनकी हज़ारों नरभक्षियों को
बेगुनाह लोगों, बच्चों और स्त्रियों का आखेट करने के लिए
सड़क पर छुट्टा छोड़ने के बाद
शान्ति और अहिंसा के उपदेश सुनाता हो,
जब कोई विलासी, लम्पट व्यभिचार की गंद में
लोट लगाने के बाद सदाचार के कसीदे पढ़ता हो,
जब कोई महाभ्रष्टाचारी अपरिग्रह की महत्ता पर
प्रवचन सुनाता हो,
और उन्मादी विचारहीन बर्बर भीड़ से घिरे नागरिक भयवश चुप हों
और बस्तियों में मौत का सन्नाटा हो,
तो बाहर निकलना ही होगा उन कुछ लोगों को
इतिहास के निर्देशों का पालन करने के लिए
जो ज़िंदा इंसान हैं और जिन्होंने
ज़िंदा सवालों पर सोचने की आदत नहीं छोड़ी है!
उन्हें तानाशाह के हर आदेश की अवज्ञा करनी होगी,
उसकी हर मूर्खता पर हँसना होगा ज़ोर-ज़ोर से,
उनकी खिल्ली उड़ानी होगी,
उन्मादियों को उन्मादी, भक्तों को भक्त, मूर्खों को मूर्ख,
हत्यारों को हत्यारा और फासिस्ट को फासिस्ट कहना होगा
बिना किसी लागलपेट के, साफ़-साफ़ शब्दों में!
जब बहुत सारे भद्र नागरिक सुरक्षित-सुखी जीवन की चाहत में
जीने लगे हों बिलों में दुबके चूहों की तरह,
जब परिवर्तन से नाउम्मीद बहुतेरे ज्ञान-विलासियों ने
चीथड़ों पर ख़ूबसूरत पैबंद्साज़ी का धंधा शुरू कर दिया हो,
जब कई बार की पराजयों और कई विश्वासघातों के बाद,
आम मेहनतक़श लोगों के एक बड़े हिस्से ने सपने देखने
और उम्मीद पालने की आदत छोड़ दी हो,
जब हत्यारों की किलेबंदियाँ चारों ओर मज़बूत हो रही हों
इंसानी बस्तियों के इर्द-गिर्द,
तब कुछ लोगों को आगे आकर साफ़ शब्दों में
सच का बयान करना होगा
और सत्ताधारियों के हर आदेश की अवज्ञा करनी होगी!
याद रखो, इतिहास में किसी भी आततायी या हत्यारे की सत्ता
कभी भी अजेय नहीं रही!
कभी-कभी तो, थोड़े से, या यहाँ तक कि, एक आदमी के
सवाल उठाने से भी शुरुआत होती रही है!
कभी-कभी कुछ लोग सत्ता के आतंक को अपने निर्भीक उपहास से
रूई की तरह उड़ा देते हैं
वे अभय होकर हत्यारों की अवज्ञा करते हैं
और इसतरह वे एक नयी शुरुआत करते हैं!

Mazdoor Bigul

08 Nov, 06:10


🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞🗞
मज़दूर वर्ग की आवाज़ बुलन्द करने वाले अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ का अक्‍टूबर 2024 अंक
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17135

प्रिय साथियो,

मज़दूर बिगुल का अक्‍टूबर 2024 अंक ऑनलाइन अपलोड हो चुका है। अंक के सभी लेखों के लिंक भी नीचे दिये हुए हैं व साथ ही अंक की पीडीएफ़ फ़ाइल का लिंक भी। इस अंक पर आपकी टिप्पणियों का हमें इन्तज़ार रहेगा। मज़दूर वर्ग के अख़बार को और बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर अपनी राय हमें ज़रूर भेजें। आप बिगुल के लिए अपने फ़ैक्टरी, ऑफ़िस, कारख़ाने की कार्यस्थिति पर रिपोर्ट भी भेज सकते हैं। कोई भी टिप्पणी या रिपोर्ट [email protected] पर मेल कर सकते हैं या फिर व्हाट्सऐप के माध्यम से 9892808704 पर प्रेषित कर सकते हैं। वैसे तो अख़बार का हर नया अंक हम नि:शुल्क आप तक पहुँचाते हैं पर हमारा आग्रह है कि आप प्रिण्ट कॉपी की सदस्यता लें। उसके बाद आपको हर नया अंक डाक के माध्यम से भी मिलता रहेगा। अगर आप पहले से सदस्य हैं और आपको डाक से बिगुल मिलने में समस्या आ रही है या आपका पता बदल गया है तो उसकी सुचना भी हमें ज़रूर दें।
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(मज़दूर बिगुल के अक्‍टूबर 2024 अंक में प्रकाशित लेख। अंक की पीडीएफ़ फ़ाइल डाउनलोड करने के लिए यहाँ (https://www.mazdoorbigul.net/pdf/Bigul-2024-10.pdf) क्लिक करें और अलग-अलग लेखों-ख़बरों आदि को यूनिकोड फ़ॉर्मेट में पढ़ने के लिए उनके शीर्षक पर क्लिक करें)

🔹 सम्पादकीय
चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है! - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17092

🔹 श्रम कानून
एक बार फिर न्यूनतम वेतन बढ़ाने के नाम पर नौटंकी करती सरकारें! / भारत - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17093

🔹 फासीवाद / साम्‍प्रदायिकता
हिमाचल प्रदेश में संघी लंगूरों का उत्पात और कांग्रेस सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ता / आशीष - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17110

शाखा में साख / अन्वेषक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17086

मोहन भागवत की “हिन्दू” एकजुटता किसके लिए? / आशु - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17098

🔹 विशेष लेख / रिपोर्ट
रतन टाटा : अच्छे पूँजीवाद का ‘पोस्टर बॉय’ - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17123

काम के अत्यधिक दबाव और वर्कलोड से हो रही मौतें : ये निजी मुनाफ़े की हवस की पूर्ति के लिए व्यवस्थाजनित हत्याएँ हैं! / आशीष - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17089

🔹 संघर्षरत जनता
मारुति के मज़दूर एक बार फिर संघर्ष की राह पर! - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17103

🔹 मज़दूर आंदोलन की समस्याएं
वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त – एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा! / अदिति - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17104

🔹 विकल्प का खाका
‘हरियाणा विधानसभा चुनाव – 2024’ में भाजपा की जीत के मायने और मज़दूरों-मेहनतकशों के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की ज़रूरत - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17119

🔹 आपदाएं
आख़िर कब तक उत्तर बिहार की जनता बाढ़ की विभीषिका झेलने को मजबूर रहेगी? / विवेक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17115

🔹 मज़दूर बस्तियों से
हैदराबाद में कांग्रेस सरकार द्वारा मूसी नदी और झीलों को बचाने के नाम पर ग़रीबों व मेहनतकशों के आशियानों और आजीवका पर ताबड़तोड़ हमला - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17122

🔹 कला-साहित्य
कविता की ज़रूरत / कविता कृष्‍णपल्‍लवी - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17132

अल सल्वाडोर के क्रान्तिकारी कवि रोखे दाल्तोन (1935 – 1975) की कुछ कविताएँ - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17129

Mazdoor Bigul

08 Nov, 06:05


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - अच्छा आदमी
हरे प्रकाश उपाध्याय
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/blog-post.html

किसी बात के लिए मना नहीं करता
अच्छा आदमी है
हाँ जी हाँ जी कहता है- कितना अच्छा आदमी है
काम जो भी कहो तो झट से करता है
जो भी दे दो वह चुपचाप बस धरता है
न भी दो तो चुप ही रहता है
कितना अच्छा आदमी है
न रोटी माँगता है न रोज़गार माँगता है
न काम के बदले पगार माँगता है
न हक़ माँगता है न हिस्सा माँगता है
कितना अच्छा आदमी है
डाँट-फटकार, गुस्सा और मार
सहता है समझकर प्यार
किसी बात का बुरा नहीं मानता यार
कितना अच्छा आदमी है
उन्होंने समझाते हुए कहा
जो सुन सह के रहा
कभी ऊंच-नीच नहीं कहा
वही तो अच्छा आदमी है।

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:11


https://youtu.be/NHVqmiTGPI0

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


📚 यूनाइटिंग वर्किंग क्लास प्रस्तुत 📚
📖 बेहतरीन पुस्तकों की पीडीएफ 📖
________________________
उस क्रान्ति की दास्‍तां जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया
अल्‍बर्ट रीस विलियम्‍स लिखित
अक्‍टूबर क्रान्ति और लेनिन की पीडीएफ फाइल
📱 https://www.amazon.in/dp/8187728965

पीडीएफ फाइल मंगवाने के लिए दिये व्‍हाटसएप्‍प नम्‍बर (9892808704) पर व्‍हाटसएप्‍प से ही संदेश भेजें। ईमेल या अन्‍य किसी अन्‍य माध्‍यम से फाइल नहीं भेजी जायेगी। आप इस ऑनलाइन लिंक से बिना व्‍हाटसएप्‍प का इस्‍तेमाल किये भी डाउनलोड कर सकते हैं - http://janchetnabooks.org/pdf/October-kranti-aur-lenin.pdf
टेलीग्राम पर भी आप इस फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं - टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

📚 अगर आप इस संकलन की प्रिण्‍ट कॉपी खरीदना चाहते हैं तो इस लिंक से खरीद सकते हैं -https://www.amazon.in/dp/8187728965 (कीमत - रू 90)
जनचेतना द्वारा वितरित किया जा रहा प्रगतिशील, मानवतावादी साहित्य इस लिंक https://goo.gl/bxmZR5 पर उपलब्‍ध है। कुछ पुस्‍तकें अमेजन पर उपलब्‍ध नहीं है। उसके लिए जनचेतना की वेबसाइट देखें - http://janchetnabooks.org/
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इस पुस्तक के बारे में
अल्बर्ट रीस विलियम्स उन पाँच अमेरिकी लोगों में से एक थे जो अक्टूबर क्रान्ति के तूफ़ानी दिनों के साक्षी थे। अन्य चार अमेरिकी थे - जॉन रीड, बेस्सी बिट्टी, लुइस ब्रयान्त और एलेक्स गाम्बोर्ग। ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ - जॉन रीड की इस विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक से हिन्दी पाठक भलीभाँति परिचित हैं जिसमें उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति के शुरुआती दिनों का आश्चर्यजनक रूप से शक्तिशाली वर्णन प्रस्तुत किया है। बेस्सी बिट्टी ने भी ‘रूस का लाल हृदय’ नामक पुस्तक तथा अक्टूबर क्रान्ति विषयक कई लेख लिखे। दुर्भाग्यवश उनके हिन्दी अनुवाद अभी तक सामने नहीं आये हैं। अल्बर्ट रीस विलियम्स की प्रस्तुत दो पुस्तकें एक ही जिल्द में प्रगति प्रकाशन, मास्को से 1975 में पहली बार हिन्दी में ‘लेनिन और अक्टूबर क्रान्ति के बारे में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थीं। पर हिन्दी पाठक रीस विलियम्स की इन कृतियों से उस तरह सुपरिचित नहीं है जिस तरह, मिसाल के तौर पर, जॉन रीड की पुस्तक से। इसलिए हमें इन दो पुस्तकों का (एक ही जिल्द में) पुनर्प्रकाशन न केवल उपयोगी प्रतीत हुआ, बल्कि आज के दौर में बहुत अधिक ज़रूरी भी लगा।
अल्बर्ट रीस विलियम्स 1917 में रूस पहुँचे। उस समय से लेकर अक्टूबर क्रान्ति तक, यानी क्रान्ति की तैयारी से लेकर उसके सम्पन्न होने तक के तूफ़ानी घटनासंकुल दिनों के वे न सिर्फ़ गवाह रहे, बल्कि भागीदार भी रहे। इस दौरान उन्होंने न केवल व्यापक रूसी मज़दूर-किसान जनता के क्रान्तिकारी शौर्य और सृजनशीलता को निकट से देखा, बल्कि उन बोल्शेविक योद्धाओं के भी घनिष्ठ सान्निध्य में रहे जो अक्टूबर क्रान्ति की आत्मा थे। उन्हें दो माह तक मास्को के नेशनल होटल में लेनिन के साथ रहने, उनके साथ यात्रा करने और एक ही मंच से अपने विचार रखने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। क्रान्ति के बाद जुलाई, 1918 तक, दुनिया की पहली सर्वहारा सत्ता के जीवन-मरण के उस संघर्ष को उन्होंने देखा, जब साम्राज्यवादी देश और देशी प्रतिक्रियावादी ताक़तें क्रान्ति को कुचल डालने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रही थीं।
प्रस्तुत संकलन में ‘लेनिन: व्यक्ति और उनके कार्य’ के अतिरिक्त ‘रूसी क्रान्ति के दौरान’ शीर्षक जो दूसरी कृति शामिल है, वह रीस विलियम्स की पुस्तक ‘रूसी क्रान्ति में जनता’ का ही (स्वयं रीस विलियम्स द्वारा) कुछ हद तक संशोधित रूप है। पुस्तक के प्रारम्भ में वह भूमिका भी दी गयी है जो अपनी दोनों पुस्तकों के सम्मिलित संस्करण के लिए रीस विलियम्स ने 1959 में लिखी थी।
रीस विलियम्स की ये दो बहुचर्चित कृतियाँ अक्टूबर क्रान्ति का आँखों देखा ब्योरा प्रस्तुत करती हैं। उस दौर की युगान्तरकारी उथल-पुथल से गुज़रते हुए लेखक इस सत्य को रेखांकित करता है कि क्रान्ति का असली नायक वस्तुतः सामान्य जन-समुदाय ही होता है।

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


इतिहास के “विद्वानों” की तरह आँकड़ों और तथ्यों का अम्बार खड़ा करने के बजाय रीस विलियम्स ने इस सच्चाई को उजागर किया है कि किस तरह सदियों से दमन-उत्पीड़न के अन्धकार में निष्क्रिय-निश्चेष्ट-सा पड़ा हुआ जन-समुदाय उठा खड़ा हुआ और प्रचण्ड झंझावात की तरह शासक वर्गों पर टूट पड़ा। रीस विलियम्स ने इतिहास की इस सार्वकालिक-सार्वभौमिक सच्चाई को प्रत्यक्षतः देखा और अनुभव किया कि आम जनता ही इतिहास की निर्मात्री शक्ति होती है, क्रान्ति वही करती है। क्रान्ति की हिरावल शक्तियाँ उसी के बीच से उभरकर आती हैं, उससे लगातार जीवन्त सम्पर्क में रहती हैं और उसे जागृत करने, शिक्षित करने और नेतृत्व देने का काम करती हैं। रूस में बोल्शेविकों ने भी यही किया। रीस विलियम्स के अनुसार, लेनिन महान प्रतिभावान नेता थे और उनकी इस विशिष्टता का मूल स्रोत यह था कि उन्होंने “रूसी जन-समुदाय की इस क्षमता पर भरोसा करते हुए कि इतिहास ने जो महान ऐतिहासिक कार्यभार उन्हें सौंपा है, उसे वे पूरा कर लेंगे, रूस और क्रान्ति के भविष्य को दाँव पर लगा दिया।” ऐसा वे इसलिए कर सके कि “जन-जीवन की गहरी और घनिष्ठ जानकारी तथा जनता में अडिग विश्वास ने ही लेनिन में ऐसी आस्था पैदा की।”
यह पुस्तक पाठकों को अक्टूबर क्रान्ति की वास्तविकताओं और विश्व-ऐतिहासिक महत्ता से परिचित करायेगी और अपने समय के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करेगी, इसका हमें विश्वास है।

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


आज के महान दिन ( 7 नवंबर बोल्शेविक क्रांति ) की याद में
उस दिन जब मजदूरों ने सत्ता अपने हाथ में ली और दिखाया कि जो सब कुछ पैदा करते हैं वह राजकाज भी चला सकते हैं और बेहतर ढंग से चला सकते हैं
_____
7 नवम्‍बर : जीतों के दिन की शान में गीत
पाब्लो नेरूदा
📱 - https://www.mazdoorbigul.net/archives/9705

पाब्‍लो नेरुदा के बारे में

पाब्‍लो नेरुदा 1904 में चिली में पैदा हुए। उनकी कविताएं न सिर्फ चिली की बल्कि साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध संघर्षरत पूरी लातिन अमेरिकी जनता की अमूल्‍य विरासत और संघर्ष का एक हथियार है। लातिन अमेरिका में उनका वही दर्जा है जो तुर्की में नाजिम हिकमत का, स्‍पेन में लोर्का का। उनकी कविताएं सोवियत क्रान्ति, स्‍पेन में जनता और इण्‍टरनेशनल ब्रिगेड के फासीवाद-विरोधी संघर्ष, सोवियत संघ द्वारा नात्सियों के मानमर्दन और चिली तथा अन्‍य लातिन अमेरिकी देशों में तानाशाही और दमन के विरुद्ध जनता दुर्द्धर्ष संघर्षों की साक्षी और भागीदार कविताएं हैं। उनकी कविताएं शिक्षित करती हैं, आह्वान करती हैं, ऐक्‍यबद्ध करती हैं और अंतिम जीत की राह दिखाती है। जीवन, संघर्ष और सृजन का यह कवि लातिनी जनता के दिलों में आज अपनी मृत्‍यु के इतने वर्षों बाद भी जीवित है और साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरणा देता रहता है। तानाशाह धमकियों और नजरबन्दियों द्वारा जीवित रहते नेरुदा को चुप नहीं करा सके और मरने के बाद उसके घर को गिरा देने और उसकी किताबों पर प्रतिबन्‍ध लगा देने के बावजूद उसकी कविताओं को जनता से अलग नहीं कर सके। आज भी, बदस्‍तूर, वे नेरुदा की कविताओं से डरते हैं। यह कविता पाब्लो नेरूदा ने 1941 में लिखी थी, जब अक्टूबर क्रान्ति की 24वीं वर्षगाँठ और स्पेनी गणराज्य की उपरोक्त विजय की पाँचवीं वर्षगाँठ थी। 7 नवम्बर को दोहरी वर्षगाँठ बतलाये जाने का कारण यह है कि सोवियत समाजवादी क्रान्ति दिवस होने के साथ-साथ इसी दिन मैड्रिड के द्वार से तानाशाह फ्रांको की राष्ट्रवादी सेना को (अस्थाई तौर पर) पीछे लौटने को बाध्य कर दिया गया था।
____
यह दोहरी वर्षगाँठ, यह दिन, यह रात,
क्‍या वे पाएँगे एक ख़ाली-ख़ाली-सी दुनिया, क्‍या उन्‍हें मिलेगी
उदास दिलों की एक बेढब-सी घाटी ?
नहीं, महज एक दिन नहीं घण्‍टों से बना हुआ,
जुलूस है यह आईनों और तलवारों का,
यह एक दोहरा फूल है आघात करता हुआ रात पर लगातार
,जब तक कि फाड़कर निशा-मूलों को पा न ले सूर्योदय !

स्‍पेन का दिन आ रहा है
दक्षिण से, एक पराक्रमी दिन
लोहे के पंखों से ढका हुआ,
तुम आ रहे हो उधर से, उस आख़िरी आदमी के पास से
जो गिरता है धरती पर अपने चकनाचूर मस्‍तक के साथ
और फिर भी उसके मुँह में है तुम्‍हारा अग्निमय अंक !

और तुम वहाँ जाते हो हमारी
अनडूबी स्‍मृतियों के साथ :
तुम थे वो दिन, तुम हो
वह संघर्ष, तुम बल देते हो
अदृश्‍य सैन्‍य-दस्‍ते को , उस पंख को
जिससे उड़ान जन्‍म लेगी, तुम्‍हारे अंक के साथ !

सात नवम्‍बर, कहाँ रहते हो तुम ?
कहाँ जलती हैं पंखुडि़याँ, कहाँ तुम्‍हारी फुसफुसाहट
कहती है बिरादर से : आगे बढ़ो, ऊपर की ओर !
और गिरे हुए से : उठो !
कहाँ रक्‍त से पैदा होता है तुम्‍हारा जयपत्र
और भेदता है इन्सान की कमज़ोर देह को और ऊपर उठता है
गढ़ने के लिए एक नायक ?

तुम्‍हारे भीतर, एक बार फिर, ओ सोवियत संघ,
तुम्‍हारे भीतर, एक बार फिर, विश्‍व की जनता की बहन,
निर्दोष और सोवियत पितृभूमि । लौटता है तुम्‍हारे तक तुम्‍हारा बीज
पत्‍तों की एक बाढ़ की शक्‍ल में, बिखरा हुआ समूची धरती पर !

तुम्‍हारे लिए नहीं हैं आँसू, लोगो, तुम्‍हारी लड़ाई में !
सभी को होना है लोहे का, सभी को आगे बढ़ना है और जख्‍़मी
होना है,
सभी को, छुई न जा सकने वाली चुप्‍पी को भी, संदेह को भी,
यहाँ तक कि उस संदेह को भी जो अपने सर्द हाथों से
जकड़कर जमा देता है हमारे हृदय और डुबो देता है उन्‍हें,
सभी को, ख़ुशी को भी, होना है लोहे का
तुम्‍हारी मदद करने के लिए, विजय में, ओ माँ, ओ बहन !

थूका जाए आज के गद्दार के मुँह पर !
नीच को दण्‍ड मिले आज, इस विशेष
घण्‍टे के दौरान, उसके सम्‍पूर्ण कुल को,
कायर वापस लौट जाएँ
अँधेरे में, जयपत्र जाएँ पराक्रमी के पास,
एक पराक्रमी प्रशस्‍त पथ, बर्फ़ और रक्‍त के
एक पराक्रमी जहाज़ के पास, जो हिफ़ाजत करता है दुनिया की

आज के दिन तुम्‍हें शुभकामनाएँ देता हूँ सोवियत संघ,
विनम्रता के साथ: मैं एक लेखक हूँ और एक कवि ।
मेरे पिता रेल मज़दूर थे : हम हमेशा ग़रीब रहे ।
कल मैं तुम्‍हारे साथ था, बहुत दूर, भारी बारिशों वाले
अपने छोटे से देश में । वहाँ तुम्‍हारा नाम
तपकर लाल हो गया, लोगों के दिलों में जलते-जलते
जब तक कि वह मेरे देश के ऊँचे आकाश को छूने नहीं लगा ।

Mazdoor Bigul

07 Nov, 14:08


आज मैं उन्‍हें याद करता हूँ, वे सब तुम्‍हारे साथ हैं !
फ़ैक्‍ट्री-दर-फ़ैक्‍ट्री घर-दर-घर
तुम्‍हारा नाम उड़ता है लाल चिड़िया की तरह ।
तुम्‍हारे वीर यशस्‍वी हों और हरेक बूँद
तुम्‍हारे ख़ून की। यशस्‍वी हों हृदयों की बह-बह निकलती बाढ़
जो तुम्‍हारे पवित्र और गौरवपूर्ण आवास की रक्षा करते हैं !

यशस्‍वी हो वह बहादुरी भरी और कड़ी
रोटी जो तुम्‍हारा पोषण करती है, जब समय के द्वार खुलते हैं
ताकि जनता और लोहे की तुम्‍हारी फौज मार्च कर सके, गाते हुए
राख और उजाड़ मैदानों के बीच से, हत्‍यारों के ख़िलाफ़,
ताकि रोप सके एक ग़ुलाब चाँद जितना विशाल
जीत की सुन्दर और पवित्र धरती पर !

Mazdoor Bigul

03 Nov, 07:06


📚 यूनाइटिंग वर्किंग क्लास प्रस्तुत 📚
📖 बेहतरीन पुस्तकों की पीडीएफ 📖
________________________
सदियों पुराने रीति-रिवाजों और परम्पराओं के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुईं और समानता-स्‍वतंत्रता के लिए संघर्ष करती उज़्बेकी स्त्रियों की दास्‍तां
अस्क़द मुख़्तार के उपन्यास “चिंगारी” की पीडीएफ फाइल
📱 https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/pdf-file-of-askad-mukhtars-novel-sisters.html

*पीडीएफ इस ऑनलाइन लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं - https://drive.google.com/file/d/1bQDILzu6RyirYmtUrXA5ltnM5JwwK8Og/view?usp=sharing
टेलीग्राम पर भी आप इस फाइल को डाउनलोड कर सकते हैं - टेलीग्राम चैनल - http://www.t.me/mazdoorbigul

उपन्‍यास का विस्‍तृत परिचय आप सबसे ऊपर दिये लिंक से पढ़ सकते हैं
परिचय का छोटा अंश नीचे दिया जा रहा है
अस्क़द मुख़्तार और उनका उपन्यास “चिंगारी”
✍️ ल. यकिमेंको

अस्क़द मुख़्तार ने अपना उपन्यास उन उज़्बेकी स्त्रियों को ही समर्पित किया है जो साहस करके सदियों पुराने रीति-रिवाजों और परम्पराओं के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुईं। क्रांति ने उनके लिए एक नयी अर्थपूर्ण और मेहनतभरी ज़िन्दगी का मार्ग प्रशस्त किया।

पुराने ताशकंद के कारीगरों और जुलाहों के इलाक़े-नैमन्चा का चित्रण हमें न केवल घटनास्थल पर ला खड़ा करता है, उस समय के नयी आर्थिक नीति के समय के प्रामाणिक लक्षणों से प्रभावशाली व कलात्मक ढंग से परिचय कराता है बल्कि उस अन्तर्द्वन्द्व की प्रभावशाली शक्ति और जातीय विशेषता से भी, जो उपन्यास के घटनाक्रम का निरूपण करती है।

अस्क़द मुख़्तार ने मज़दूर स्त्रियों का उस समय पनप रहे “नेपमेन” ( नयी आर्थिक नीति का फ़ायदा उठानेवाले ) बाय कुद्रतुल्लाह ख्वाजा के वर्कशॉप में उनके कठिन परिश्रम का, धूलभरे गन्दे इलाके में उनके ग़रीब घरों का चित्रण इस तरह से किया है, जैसे वे इन सब से बचपन से ही परिचित हों, उनके बहुत निकट रहे हों।

इसी कारण उपन्यास में प्रगीतात्मक लय सुनाई देती है, जो न केवल सीधे विषयांतरकरण और ख़्यालों में ही ज़ाहिर होती है, बल्कि लेखक के लहजे और स्त्री पात्रों के प्रति उसके व्यवहार में भी।

लेखक उनसे प्यार करता है, उनके प्रति सहानुभूति दिखाता है और परंजी में रहनेवाली इन स्त्रियों पर गर्व करता है, जिन्होंने अपना मुंह उघाड़कर नयी जिन्दगी का स्वागत करने की हिम्मत की है।

केवल लेखक के सच्चे मानवोचित व्यवहार मात्र से, उसके दृष्टिकोण मात्र से ही क्रांतिकारी कार्यक्रम की कायापलट कर देने की महान शक्ति का पता चल जाता है।

अस्क़द मुख़्तार का उपन्यास कई नाटक सदृश संघर्षों से परिपूर्ण है। लेखक ने दिखाया है कि किस प्रकार नये जीवन के प्रति उत्साह जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है: आर्थिक पक्ष ( सहकारी संघों की स्थापना, बुनाई-मिल का निर्माण, निजी व्यापार की समाप्ति, उज्बेक श्रमिक वर्ग का जन्म, मजबूत समाजवादी शक्ति का उद्भव ), नैतिक पक्ष (स्त्रियों को स्वतंत्रता दिलाने, उन्हें समान अधिकार दिलाने, उन्हें अपनी मानवोचित गरिमा के प्रति जागरूक बनाने, धार्मिक अंधविश्वास को दूर करने आदि के लिए संघर्ष और रूढ़िवादियों तथा धर्मान्ध लोगों के विरुद्ध संघर्ष ), रहन-सहन का पक्ष...

उपन्यास के सभी पात्रों को स्पष्टत: दो दलों में बांटा जा सकता है। एक ओर नैमन्चा के मेहनतकश लोग हैं, उज्बेक स्त्रियां अनाख़ाँ, जुराख़ाँ, हाजिया, उनके क्रांतिकारी मित्र, बोल्शेविक यफ़ीम दनीलोविच, एर्गश, ग़ैरपार्टीवाला इंजीनियर दोब्रोखोतोव और दूसरी ओर-बाय, ईशान, नेपमेन क़द्रतुल्लाह ख़्वाजा, शिक्षक नईमी, जासूस चाय विक्रेता और अन्य।

लेखक ने अपने पात्रों के जीवन के व्यक्तिगत पक्ष और उसकी विशेषताएं, उनके सामाजिक जीवन के ढांचे और उनकी मानसिक स्थिति को बड़े युक्तियुक्त ढंग से उभारा है। उनकी गतिविधियों और व्यवहार पर इन बातों का स्पष्ट प्रभाव है। जुराख़ाँ जो लेनिन से मिलकर हर्षित हुई है एक नारी-योद्धा है। उसने मास्को में परंजी छोड़ दी थी। वहाँ उसने उस पथ पर पहला क़दम रखा था, जिस पर वह अपनी दुःखद मृत्यु तक चलती रही। उसके चरित्र में नारी सुलभ गुणों और सौम्यता के साथ-साथ, कई वर्षों के पार्टी कार्य और सरकारी कामकाज के अनुभव से प्राप्त अधिकार प्रवणता, दृढ़प्रतिज्ञा और धैर्य का सामंजस्य है। लोगों में आतंक फैलानेवाले शिक्षक नईमी को रोकते समय वह व्यंग्यपरायण और कटु हो जाती तो अपनी भीरु “नायिकाओं” के प्रति अतिधैर्यवान और शुभाकांक्षी।

अनाख़ाँ को अपने अतीत से नाता तोड़ने में ज्यादा मुश्किल का सामना करना पड़ा। पर एक बार आगे क़दम बढ़ाने के बाद उसने मुड़कर पीछे नहीं देखा। उसे किसी तरह भी नहीं डराया जा सका - न धमकियों से, न हत्या के प्रयत्नों से ही।

Mazdoor Bigul

03 Nov, 07:06


उपन्यास पढ़ते समय यह बात ज़रूर हमारा ध्यान खींच लेती है कि किस युक्तिपूर्ण ढंग से अस्क़द मुख़्तार ने उज्बेक स्त्री की वर्तमान मानसिक स्थिति की विशेषताओं के ऐतिहासक कारणों का विवेचन किया है।

वास्तव में उपन्यास के मुख्य स्त्रीपात्रों, जुराख़ाँ और अनाख़ाँ ने उन बेड़ियों को तोड़ दिया, जिनमें वे सदियों से जकड़ी हुई थीं। इसीलिए उन अप्रधान और गौण पात्रों, उन घटनाओं और दृश्यों का महत्व और ज़्यादा बढ़ जाता है, जिनमें हमें स्त्रियां झुंडों और भीड़ों में दिखाई देती हैं।

औरत को छोटी-सी उम्र से ही बिना चूं-चपड़ किये पति और पिता की आज्ञा मानना सिखाया जाता था। औरत को नाम लेकर नहीं पुकारा जाता था। और इन्हीं औरतों ने देखा कि किस तरह जुराख़ाँ ने शिक्षक नईमी को अचानक बीच में रोककर गुस्से से कहा, “बैठ जाइये।” “और न आसमान फटा, न मर्द ने उसे जान से मारा... पर फिर भी बहुत डर लगा।”

यह एक छोटी-सी घटना है। पर लेखक ने इसके माध्यम से कितनी महत्वपूर्ण बात कही है !

लेखक ने मुख्य पात्र अनाख़ाँ के चरित्र का विकास बड़े कलात्मक ढंग से दिखाया है। उसका बाह्य जीवन पटल पूर्णता के स्पंदनों और अनुभवों की मनोविज्ञानी गहराई से परिपूर्ण होने लगता है।


जुराख़ाँ की आँखों से हमें पुराने शहर के जीवन का बहुत बड़ा अंश दिखाई देता है ... उपन्यास के प्रभावशाली दृश्यों में से एक की याद दिलाता हूँ। किस प्रकार एक असह्यरूप से गरम और घुटनभरे दिन सजे सजाये गधे पर बैठकर एक बेहद मोटा आदमी, जिसका पेट भरा हुआ है, चायखाने में आता है। उसके पीछे-पीछे पुरानी, पैबन्द भरी परंजी पहने एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिये चल रही होती है। जब तक वह आदमी शीतल छाया में बैठकर आराम करता रहा, उसकी पत्नी ज़मीन पर धूल में बैठी बच्चे को दूध पिलाती रही ...

यह दृश्य देखकर हमें क्रोध आता है, क्योंकि यह सब हम जुराख़ाँ की नज़रों से देखते हैं: उसका मानवतावाद, उसका प्यारभरा शोकाकुल हृदय विह्वल हो उठता है।

अस्क़द मुख़्तार की कृति में स्त्रियों के प्रति सम्मान की गरमाहट है।

स्त्रियों के रोषपूर्ण विरोध, उनके साहस का इसमें काव्यात्मक शैली में वर्णन किया गया है। यह पुस्तक साथी स्त्रीवर्ग और प्रिय बहनों के बारे में है।

उपन्यास " चिंगारी " अपनी यथार्थता और पूर्णता में अपने कलात्मक-गुणों के कारण अद्वितीय है।

लेखक ने जिन दुश्मनों, खलनायकों की सृष्टि की है, उन में बाय क़ुद्रतुल्लाह का पुत्र, नईमी, नीली मस्जिद का इमाम अब्दूमजीद ख़्वाजा, दूकानदार मतक़ोबुल आदि सबसे ज्यादा समय तक याद रहनेवाले चरित्रों में से हैं... उनमें से प्रत्येक में उनके “वर्ग के लक्षणों” के अलावा कुछ अवगम्य और व्यक्तिगत विशेषताएँ भी हैं, जो उनके चरित्र को यथार्थता प्रदान करती हैं।

उदाहरण के तौर पर शिक्षक नईमी मृदुभाषी, मुस्लिम धर्म और उसकी जातीय परम्परानों का रक्षक है, जो मित्र बनकर सोवियत सत्ता में घुस आता है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में वह तरह-तरह की बातें करता है : स्कूल में, स्त्रियों की सभा में, कुद्रतुल्लाह ख्वाजा के घर में, चाय विक्रेता के साथ... हमें हर समय उसके चरित्र का एक नया ही पक्ष दिखाई देता है। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली प्रतिमा का निर्माण होता है।

लेखक की योजना के अनुसार सोवियत सत्ता का सबसे कट्टर एवं साधनसम्पन्न शत्रु चाय-विक्रेता को होना चाहिए था। उपन्यास की बहुत-सी महत्वपूर्ण घटनाओं से उसका सीधा सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई पड़ता है : अनाख़ाँ की हत्या का प्रयास, मिल के निर्माण में तोड़-फोड़ करनेवाला दल, जुराख़ाँ की हत्या आदि। पर उपन्यास में जिस रहस्य से यह चरित्र घिरा हुआ है, और जिसके कारण हर पाठक को उसके प्रति जिज्ञासा होनी चाहिए, वह रहस्य अंत तक नहीं खुलता।

आजकल अस्क़द मुख़्तार का यह उपन्यास विशेष रुचि के साथ पढ़ा जा रहा है। हमारी चेतना और हमारे जीवन में पुराने समय के जो लक्षण दिखाई देते हैं, उन से सम्बन्ध विच्छेद करके संघर्ष करने का समय आ गया है। इसके साथ ही स्त्रियों के प्रति बायों जैसे सामन्तवादी व्यवहार से भी संघर्ष करने का समय आ गया है, जो अब भी कभी-कभी फिर दिखाई दे जाता है।

उदाहरण के लिए, इस संदर्भ में उज़्बेकी लेखक के इस उपन्यास और किरगीजियाई लेखक च. आयतमातोव के लघु उपन्यासों “जमीला” और “लाल ओढ़नी में मेरी सरूक़द प्रेमी” में सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। वे स्त्रियों के मानवोचित आत्मसम्मान और उनके अधिकारों के प्रति आदर से परिपूर्ण हैं।

अस्क़द मुख़्तार का उपन्यास अपनी ऐतिहासिक प्रामाणिकता से सम्बन्धित होते हुए भी लगता है, जैसे हमारे आधुनिक युग में भी महत्त्व रखता है। यह पूर्ण परिपक्वता की ओर अग्रसर हो रहे उज्बेक गद्य की एक नवीन उपलब्धि है।

Mazdoor Bigul

02 Nov, 04:25


जब साम्राज्यवादी हत्यारों के अमेरिकी प्रवक्ता का सच्चाई से सामना हुआ

Mazdoor Bigul

02 Nov, 04:24


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मोहन भागवत की “हिन्दू” एकजुटता किसके लिए?
आम हिन्दू आबादी को “हिन्दू एकता” के भाईचारे में चारा बनाने की साज़िश को समझो!
✍️ आशु
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17098

पिछले दिनों आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने फिर एक बार “हिन्दू एकता” का राग अलापा है। इसकी एक वजह यह है कि अभी हाल के चुनावी समीकरणों में भाजपा और संघ परिवार का “हिन्दू कार्ड” ठीक से नहीं चल पा रहा है। इसलिए महाराष्ट्र चुनाव से पहले भाजपा और संघ परिवार हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की चाल चल रहे हैं। वैसे यह भी मज़ेदार बात है कि अभी कल तक हरियाणा चुनाव में भाजपा और ......

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:25


https://youtu.be/lu6vGRzjTWw

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:24


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इस महत्वपूर्ण लेख को जरूर पढ़ें और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए शेयर करें
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे
चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!
सम्पादकीय अग्रलेख, मजदूर बिगुल
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/17092

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:23


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एक बार फिर न्यूनतम वेतन बढ़ाने के नाम पर नौटंकी करती सरकारें!
भारत
📱 https://www.mazdoorbigul.net/archives/17093

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,

मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।

कवि अदम गोंडवी ने एक अन्य सन्दर्भ में सरकारी झूठ का भण्डाफोड़ करते हुए इन पंक्तियों को लिखा था। उनकी कविता की इन पंक्तियों को अभी हालिया दिनों में न्यूनतम वेतन बढ़ाने की सरकारी नौटंकी के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। अभी केन्द्र सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोतरी की घोषणा है। इस बढ़ोतरी को 1 अक्टूबर 2024 से लागू करने की बात की गयी है। केन्द्र सरकार की नयी दरों के अनुसार, अकुशल श्रमिकों को अब प्रति माह 20,358 रुपये, जबकि अर्ध-कुशल, कुशल और अत्यधिक कुशल श्रमिकों के लिए यह राशि क्रमशः 22,568 रुपये, 24,804 रुपये और 26,910 रुपये होगी। एक तरफ़ यह घोषणा है और दूसरी तरफ़ “ग़रीब के बेटे” प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के मेहनतकश-विरोधी काले कारनामे। मोदी सरकार ने पूँजीपतियों को

Mazdoor Bigul

30 Oct, 06:22


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कहानियों के साथ 📚
_____
सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) की कहानी - नया क़ानून
🖥 http://www.mazdoorbigul.net/archives/5839

मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अकलमन्द आदमी समझा जाता था, हालाँकि उसकी तालीमी हैसियत सिफर के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था। लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीजों का इल्म था। अड्डे के वह तमाम कोचवान जिनको यह जानने की ख्वाहिश होती थी कि दुनिया के अन्दर क्या हो रहा है, उस्ताद मंगू के व्यापक ज्ञान से अच्छी तरह परिचित थे।

पिछले दिनों उस्ताद मंगू ने अपनी एक सवारी से स्पेन में जंग छिड़ जाने की अफवाह सुनी थी तो उसने गामा चौधरी के चौड़े काँधे पर थपकी देकर गंभीर लहजे से भविष्यवाणी की थी–

“देख लेना चौधरी, थोड़े ही दिनों में स्पेन के अन्दर जंग छिड़ जायेगी।”

और जब गामा चौधरी ने उससे यह पूछा था कि

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:39


Call for Papers⁣

Seventh International Arvind Memorial Seminar⁣
(𝘏𝘺𝘥𝘦𝘳𝘢𝘣𝘢𝘥)⁣
29 𝘋𝘦𝘤𝘦𝘮𝘣𝘦𝘳 2024 – 2 𝘑𝘢𝘯𝘶𝘢𝘳𝘺 2025⁣

𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐭𝐡𝐞 𝐓𝐰𝐞𝐧𝐭𝐲-𝐟𝐢𝐫𝐬𝐭 𝐂𝐞𝐧𝐭𝐮𝐫𝐲: 𝐄𝐥𝐞𝐦𝐞𝐧𝐭𝐬 𝐨𝐟 𝐂𝐨𝐧𝐭𝐢𝐧𝐮𝐢𝐭𝐲 𝐚𝐧𝐝 𝐂𝐡𝐚𝐧𝐠𝐞 𝐚𝐧𝐝 𝐭𝐡𝐞 𝐐𝐮𝐞𝐬𝐭𝐢𝐨𝐧 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐂𝐨𝐧𝐭𝐞𝐦𝐩𝐨𝐫𝐚𝐫𝐲 𝐏𝐫𝐨𝐥𝐞𝐭𝐚𝐫𝐢𝐚𝐧 𝐒𝐭𝐫𝐚𝐭𝐞𝐠𝐲⁣

World capitalism is going through the first great depression of the Twenty-first century since 2006-07. The social-economic and political insecurity created due to the capitalist crises gave impetus to the reactionary forces owing to the weakness of the subjective forces of revolution. Consequently, we have been witnessing the rise of various far-right movements including fascism in different countries.

Fascism is not just any far-right reaction. It is a particular type of far-right reaction. In various sections of the communist movement of the world, the tendency of carelessly characterizing any kind of reaction as fascism has been prevalent. The task of formulating an effective proletarian strategy and general tactics against fascism cannot be fulfilled without understanding the general particularities of fascism.

We also need to understand the changes taking place around the world. The changes taking place in Turkey, Brazil, Philippines, Russia, Middle-East Region, the US, Britain or France need to be comprehended. What is the character of the Erdogan regime? What is the character of Putin’s regime? How do we understand the character of the regime of Marcos Jr. and Duterte and similar forces? What is the nature of National Rally in France? What is the nature of forces like Golden Dawn of Greece? What kind of political tendency is represented by Bolsonaro in Brazil? How do we understand the Trump phenomenon in the US? What is the character of the regime that came into being following the Khomenei-led revolution in Iran? These are living questions for Marxist and progressive political activists as well as academics.

It is precisely for a detailed and satisfactory dialogue, discussion and debate on these questions, that we are organizing the Seventh International Arvind Memorial Seminar from 29th December 2024 to 2nd January 2025 in Hyderabad (India). We extend invitation to left groups, organizations and parties, Marxist intellectuals, progressive and anti-fascist academics, researchers and students of the country and the world to take part in this seminar. During these five days, the arrangement for accommodation and food will be made by the Arvind Memorial Trust.

Those of you who wish to send their papers for this seminar, may submit an abstract of 500 words till 15th October 2024. The last date of sending the paper is 15th November 2024. The information of accepted papers will be intimated to the senders before 1st December 2024. The abstracts can be sent to the email address given below.

Organizing Committee
Seventh International Arvind Memorial Seminar (Hyderabad)

Arvind Institute of Marxist Studies
(an initiative of Arvind Memorial Trust)

Email : [email protected]
Website : english.arvindtrust.org
Contact : 9971196111 (Anand), 9871794036 (Jayaprakash), 7013936466 (Sreeja)

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:39


आलेख भेजने के लिए आमंत्रण

सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी
29 दिसम्बर 2024 – 2 जनवरी 2025, हैदराबाद

**इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद :
निरन्तरता और परिवर्तन के तत्व
और समकालीन सर्वहारा रणनीति का प्रश्न**

पूँजीवादी विश्व 2006-07 से ही इक्कीसवीं सदी की पहली महामन्दी से गुज़र रहा है। पूँजीवादी संकट से पैदा होने वाली अनिश्चितता और असुरक्षा ने क्रान्तिकारी मनोगत शक्तियों के बिखराव और कमज़ोरी के चलते प्रतिक्रियावादी शक्तियों को बल प्रदान किया। यही वजह है कि इसी दौर में दुनिया के विभिन्न देशों में फ़ासीवाद-समेत विभिन्न धुर-दक्षिणपंथी आन्दोलनों का उभार हुआ और उनमें से कुछ सत्ता तक भी पहुँच गये या पहुँचने की प्रक्रिया में हैं।

फ़ासीवाद बस कोई भी धुर-दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया नहीं है। यह धुर-दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया का एक बहुत ही विशिष्ट रूप है। दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन के तमाम हिस्सों में किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया को असावधान तरीके से फ़ासीवाद की संज्ञा दे देने की एक प्रवृत्ति रही है। फ़ासीवाद की विशिष्टता को समझे बग़ैर उसके विरुद्ध कोई कारगर सर्वहारा रणनीति व आम रणकौशल विकसित करने का काम पूरा नहीं किया जा सकता है।

हमें पूरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को भी समझना होगा। तुर्की, ब्राज़ील, फिलिप्पींस, रूस, मध्य-पूर्व क्षेत्र में, अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में जो परिवर्तन हो रहे हैं, उन्हें भी हमें समझना होगा। एर्दोआन की सत्ता का चरित्र क्या है? पुतिन की सत्ता का चरित्र क्या है? फिलिप्पींस में मार्कोस जूनियर व दुतेर्ते की सत्ता और उनके समान शक्तियों के चरित्र को कैसे समझा जाये? फ्रांस में नेशनल रैली की प्रकृति क्या है? यूनान में गोल्डेन डॉन जैसी शक्तियों की प्रकृति क्या है? ब्राज़ील में बोल्सोनारो किस राजनीतिक प्रवृत्ति की नुमाइन्दगी करता है? अमेरिका में ट्रम्प परिघटना को किस प्रकार समझा जाये? ईरान में खुमैनी-नीत क्रान्ति के बाद से अस्तित्वमान रही सत्ता का चरित्र क्या है? ये सारे सवाल मार्क्सवादी और प्रगतिशील राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ ही बुद्धिजीवियों व अकादमिकों के लिए भी जीवन्त प्रश्न हैं।

ठीक इन्हीं सवालों पर तफ़सील से और तसल्ली से बातचीत, विचार-विमर्श और बहस-मुबाहसे के लिए हम सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन 29 दिसम्बर 2024 से 2 जनवरी 2025 के बीच हैदराबाद में कर रहे हैं। हम देश के और दुनियाभर के सभी कम्युनिस्ट ग्रुपों, संगठनों व पार्टियों को, मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को, प्रगतिशील व फ़ासीवाद-विरोधी अकादमिकों, शोधार्थियों व छात्रों को इस संगोष्ठी में हिस्सा लेने का तहेदिल से न्यौता दे रहे हैं। इन पाँच दिनों के दौरान हैदराबाद में रुकने व खाने-पीने की व्यवस्था अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा की जायेगी।

महत्त्वपूर्ण तिथियाँ
15 अक्टूबर 2024 – सारांश भेजने की अन्तिम तिथि
15 नवम्बर 2024 – आलेख भेजने की अन्तिम तिथि
1 दिसम्बर 2024 – स्वीकृत आलेख भेजने वालों को सूचना

आयोजन समिति
सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (हैदराबाद)
अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान (अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा संचालित)

ईमेल: [email protected]
वेबसाइट : arvindtrust.org
फ़ोन : 9971196111 (आनन्द), 9871794036 (जयप्रकाश),
7013936466 (श्रीजा)

#fascism
#seminar
#CallForPapers
#Hyderabad

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:38


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कहानियों के साथ 📚
_____
भीड़ द्वारा बर्बर हत्‍याओं पर एक जरूरी टिप्‍पणी
लिंचिंग, शेमिंग और गोर्की की कहानी 'भण्‍डाफोड़' ...और एक बर्बर, निरंकुश, जहालत से भरे समाज में फासीवाद से लड़ने की चुनौतियों पर कुछ विचार

✍️ टिप्पणी - सत्यम वर्मा

📱http://unitingworkingclass.blogspot.com/2018/06/blog-post_69.html

अपने देश की 'गंगा-जमनी' तहज़ीब और आपसी भाईचारे के क़सीदे पढ़ते हुए हमें इस कड़वी सच्‍चाई को भी नज़रअन्‍दाज़ नहीं कर देना चाहिए कि हम एक बर्बर, निरंकुश और जहालत से भरे, लम्‍बे समय से ठहरे हुए समाज में रह रहे हैं जहाँ फ़ासीवादी प्रवृत्तियों के पनपने और फलने-फूलने के लिए प्रचुर खाद-पानी मौजूद है। आम जन की सदियों की ग़ुलामी (यहाँ मतलब जनता की दासता से है, संघी शब्‍दावली में देश की सदियों की ग़ुलामी से नहीं) ने अज्ञान, अशिक्षा, ग़रीबी, कूपमंडूकता और ठहरावग्रस्‍त जीवन के जिस अँधेरे में उन्‍हें क़ैद करके रखा है उसमें इंसान का रह-रहकर जानवर बन जाना कोई अनहोनी बात नहीं है। गाँवों में डायन के नाम पर औरतों को या पकड़े गये चोरों को ठण्‍डे बर्बर ढंग से यातना दे-देकर मारे जाते हुए जिन्‍होंने देखा है वे इसे आसानी से समझ सकते हैं। हमारे देश में हुए विकृत क़ि‍स्‍म के पूँजीवादी विकास ने सामन्‍ती जीवन की जड़ता और निरंकुशता को एक झटके से ख़त्‍म नहीं किया बल्कि अन्‍धी स्‍वार्थपरता, अलगाव, असुरक्षा और खोखलेपन की जिस संस्‍कृति को उसने बढ़ावा दिया है उसने और भी ज्‍़यादा मानवद्रोही, आदमख़ोर और वहशीपन की प्रवृत्तियों को उपजाया है। बेशक़, आम लोग अपने जीवन के सामान्‍य क्रिया-व्यापार में एक-दूसरे के साथ मेलजोल से रहते हैं, और रहना चाहते हैं। लेकिन आर.एस.एस. जैसे फ़ासिस्‍ट संगठन उनके बीच मौजूद सबसे निकृष्‍ट भावनाओं, पिछड़ेपन, असुरक्षा और भय-सन्‍देह की प्रवृत्तियों को उकसाकर उनके एक हिस्‍से को उन्‍मत्‍त और पागल पशुओं की भीड़ में तब्‍दील कर देने में सफल हो जाते हैं। इसके मुक़ाबले के लिए लोगों के बीच सतत्, निरन्‍तर जारी शिक्षा और प्रचार, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक काम की दरकार होती है। उनकी ज़ि‍न्दगी के वास्‍तविक सवालों पर उन्‍हें सचेत और संगठित करने की ज़रूरत होती है। यह एक लम्‍बा, कठिन मगर बेहद ज़रूरी, अनिवार्य काम है।
बहरहाल, गोर्की की यह छोटी-सी कहानी पढ़ि‍ए, और अपने समाज का अक्‍स इसमें ढूँढ़ि‍ये...

*भण्डाफोड़*

गाँव की सड़क पर से, सफे़दी-पुते उसके कच्चे घरौंदों को पार करती, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते लोगों की एक भीड़ गुज़र रही थी। मजमा, एक बड़ी लहर की भाँति, धीमी गति से बढ़ रहा था। और उसके आगे-आगे एक मरियल-सा घोड़ा सिर झुकाये चल रहा था। जब भी वह अपना अगला पाँव उठाता तो उसका सिर कुछ इस तरह डुबकी खाता मानो वह अभी मुँह के बल आगे की ओर गिर पड़ेगा और उसकी थूथनी सड़क की धूल चाटती नज़र आयेगी। और जब वह अपने पिछले पाँव को हरकत में लाता तो उसका पिछला हिस्‍सा इस तरह डगमगाता मानो वह अभी ढेर हो जायेगा।

एक युवा स्त्री, जिसने अभी अपनी बीसी भी मुश्किल से ही पार की होगी, बहुत छोटी और पूरी नग्‍न, उसकी नंगी कलाइयाँ गाड़ीवान के सामने वाले तख़्ते से बँधी हुई। वह बग़ल के रुख चल रही थी, उसके घुटने काँप रहे थे जैसे अभी जवाब दे जायेंगे, काले और अस्त-व्यस्त बालों से घिरा उसका सिर ऊपर की ओर उचका था और उसके फटे हुए दीदे सूनी अमानवीय दृष्टि से शून्य में ताक रहे थे। उसका बदन काली और नीली धारियों तथा निशानों से भरा था। कुमारियों जैसी दृढ़ उसकी बायीं छाती में गहरा घाव था और उसमें से ख़ून की धार निकल रही थी। ख़ून की एक लाल लकीर उसके पेट के ऊपर से होती हुई नीचे बायीं टाँग के घुटने तक खींची थी और उसकी नाज़ुक टाँगों की पिण्डलियों पर धूल के थक्के चढ़े थे। ऐसा लगता था जैसे स्त्री के शरीर से खाल की एक लम्बी डोरी उतार ली गयी हो। और उसके पेट को, इसमें ज़रा भी शक नहीं, मुंगरी से पीटा या बूटदार एड़ियों से रौंदा गया था – वह इतनी बुरी तरह से सूजा और बदरंग बना हुआ था।

स्त्री के लिए भूरी धूल में एक डग के बाद दूसरा डग घसीटना मुश्किल हो रहा था। उसका समूचा बदन ऐंठ रहा था और यह देखकर अचरज हो रहा था कि उसकी टाँगें, जो, उसके बदन की भाँति, चोट के निशानों-खरोंचों से भरी थीं, किस प्रकार उसका बोझ सँभाले थीं, किस प्रकार वह अपने आपको गिरने से और कुहनियों के बल घिसटने से रोके थी।

लम्बे क़द का एक देहाती गाड़ी में खड़ा था। वह सफ़ेद रंग की रूसी कुरती और काले रंग की अस्त्राख़ानी टोपी पहने था जिसके नीचे से निकलकर चटक रंग के लाल बालों का एक गुच्छा उसके माथे पर झूल रहा था। एक हाथ में वह लगाम थामे था और दूसरे में एक हण्टर, जिसे वह बाक़ायदा पहले घोड़े पर और फिर छोटे क़द की उस स्त्री पर झटकार रहा था जो पहले ही इतनी मार खा चुकी थी कि पहचानी तक नहीं

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:38


जाती थी। आदमी की आँखें लाल अंगारा बनी थीं, प्रतिशोध की विजयी भावना उनमें चमक रही थी और उसके बाल उनमें हरी परछाइयाँ डाल रहे थे। उसकी कुरती की आस्तीनें ऊपर तक चढ़ी थीं और उसकी लाल रोएँदार मांसल बाँहें साफ़ दिखायी दे रही थीं। उसका मुँह खुला था जिसमें सफे़द पैने दाँतों की दो पाँतें चमक रही थीं और रह-रहकर, बैठी हुई आवाज़ में, वह चिल्ला उठता था –

''ले, यह ले, कुतिया! हा-हा-हा! और ले, यह और ले!''

स्त्री और गाड़ी के पीछे लोगों की भीड़ चल रही थी – चीख़़ती-चिल्लाती, हँसती, आवाज़ें कसती, सीटी बजाती, कोचती-उकसाती, खिल्लियाँ उड़ाती। बच्चे इधर से उधर लपक-झपक रहे थे। कभी-कभी उनमें से कोई एक दौड़कर आगे निकल जाता और स्त्री के मुँह पर गन्दे शब्दों की बौछार करता। तब भीड़ ठहाका मारकर हँस पड़ती और उसकी हँसी की आवाज़ में हण्टर के हवा में सनसनाने की पतली आवाज़ डूब जाती। भीड़ में स्त्रियों के चेहरे असाधारण उछाह से लहरा रहे थे और उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक रही थीं। पुरुष गाड़ी में खड़े देहाती को लक्ष्य कर निर्लज्जता का बघार लगा रहे थे और वह, भट्टे-सा पूरा मुँह बाये, उनकी ओर मुड़-मुड़कर हँस रहा था। सहसा हण्टर सनसनाकर स्त्री के शरीर से टकराता। लम्बा और पतला, वह उसके कन्धों का चक्कर काटता और बाँहों के नीचे उसकी चमड़ी में धँस जाता। इस पर देहाती उसे अचानक एक झटका देता और स्त्री, एक तेज़ चीख़़ मारकर, कमर के बल धूल में गिर जाती। भीड़ के लोग उछलकर आगे बढ़ते, झुक करके उसके इर्द-गिर्द एक दीवार-सी खड़ी कर देते और वह आँखों से ओझल हो जाती।

घोड़ा ठिठककर खड़ा हो गया, लेकिन क्षण-भर बाद वह फिर डगमगाता-सा लुढ़क चलता और लांछित स्त्री उसके पीछे-पीछे घिसटने लगती। घोड़ा रह-रहकर अपने कोढ़ियल सिर को इस तरह हिलाता मानो कह रहा हो –
''कितनी बुरी बीतती है उस घोड़े के साथ, जिसे लोग अपने जैसे चाहे घिनौने काम में जोत लेते हैं।''

और आकाश – दक्खिनी आकाश – एकदम स्वच्छ और साफ़ था। बादलों की कहीं ज़रा-सी भी निशानी नज़र नहीं आ रही थी और सूरज जी खोलकर धरती पर अपनी गर्म किरनों की बौछार कर रहा था।

प्रतिशोधपूर्ण न्याय का यह चित्र, जो मैंने यहाँ दिया है, मेरी कल्पना की देन नहीं है। नहीं, दुर्भाग्यवश यह कोई मनगढ़न्त चीज़ नहीं है। इसे ‘भण्डाफोड़’ कहा जाता है और इसके द्वारा पति विश्वासघात करनेवाली अपनी कुलटा स्त्रियों को दण्डित करते हैं। यह जीवन से लिया गया चित्र है। यह उन प्रथाओं में से एक है जो हमारे यहाँ प्रचलित हैं और इसे 15 जुलाई 1891 के दिन, निकोलायेवस्की विला में ख़ेरसोन गुबेर्निया के कान्दीबोवका गाँव में, ख़ुद अपनी आँखों से मैंने देखा था।

वोल्गा प्रदेश में, जहाँ का मैं रहने वाला हूँ, यह मैंने सुना था कि अपने पतियों के साथ विश्वासघात करने वाली पत्नियों के शरीर पर कोलतार पोता जाता था और उसपर पंख चिपका दिये जाते थे। यह भी मैं जानता था कि कुछ अधिक सूझ-बूझ वाले पति और ससुर और भी आगे बढ़कर विश्वासघात करने वाली अपनी पत्नियों पर गर्मियों के दिनों में शीरा पोतकर उन्हें पेड़ों से बाँध देते थे और कीड़े-मकोड़े काट-काटकर उनके बदन में घाव कर डालते थे। कभी-कभी ऐसी स्त्रियों के हाथ-पाँव बाँधकर उन्हें चींटियों-दीमकों की बाँबी में डाल दिया जाता था।

यह सब मैंने सुना ही था। अब उसे ख़ुद अपनी आँखों से देखकर सिद्ध हो गया कि जाहिल और हृदयहीन लोगों के बीच – उन लोगों के बीच, जिन्हें ‘कुत्ता कुत्ते को खाये’ वाली जीवन प्रणाली ने लालच और ईर्ष्या से धधकते जंगली जानवरों में परिवर्तित कर दिया था – इस तरह की चीज़ों का होना सचमुच में सम्भव है!

(1895)

Mazdoor Bigul

15 Oct, 05:37


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
कात्‍यायनी की दो कविताएं
कात्यायनी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2022/09/blog-post_13.html

1️⃣ सामान्यता की शर्त

जिस गन्दे रास्ते से हम रोज़ गुज़रते हैं
वह फिर गन्दा‍ लगना बन्द हो जाता है।

रोज़ाना हम कुछ अजी‍बोग़रीब चीज़ें देखते हैं
और फिर हमारी आँखों के लिए
वे अजीबोग़रीब नहीं रह जाती।

हम इतने समझौते देखते हैं आसपास
कि समझौतों से हमारी नफ़रत ख़त्म हो जाती है।

इसीतरह, ठीक इसीतरह हम मक्का़री, कायरता,
क्रूरता, बर्बरता, उन्माद
और फासिज़्म के भी आदी होते चले जाते हैं।

सबसे कठिन है एक सामान्य आदमी होना।
सामान्यता के लिए ज़रूरी है कि
सारी असामान्य चीज़ें हमें असामान्य लगें
क्रूरता, बर्बरता, उन्माद और फासिज़्म हमें
हरदम क्रूरता, बर्बरता, उन्माद और फासिज़्म ही लगे
यह बहुत ज़रूरी है
और इसके लिए हमें लगातार
बहुत कुछ करना होता है
जो इनदिनों ग़ैरज़रूरी मान लिया गया है।
_____
2️⃣ सफल नागरिक

दुनिया में जब घटती होती हैं रोज़-रोज़
तमाम चीज़ें – मसलन मँहगाई, भूख,
भ्रष्टाचार, ग़रीबी, तरह-तरह के अन्या‍य
और अत्या‍चार और लूट और युद्ध और नरसंहार,
तो हम दोनों हाथ फैलाकर कहते हैं,
‘हम भला और क्या कर सकते हैं
कुछ सवाल उठाने और कुछ शिकायतें
दर्ज़ करते रहने के अलावा !’
इसतरह हम धीरे-धीरे चीज़ों के
बद से बदतर होते जाने को देखने
और इन्तज़ार करने के आदी हो जाते हैं।
इसतरह क्रूरता हमारे भीतर
प्रवेश करती है और फिर
अपना एक मज़बूत घर बनाती है।
इसतरह हम
सबसे अधिक क्रूर लोगों के शासन में
जीने लायक एक दुनिया बनाते हैं
और सफल और शान्तिप्रिय, नागरिक बन जाते हैं
और हममें से कुछ लोग
बड़े कवि बन जाते हैं।

(कविताओं के साथ दिया चित्र सुप्रसिद्ध इतालवी चित्रकार रेनातो गुत्तुस्सो का 1941 में बनाया गया चित्र 'Crocifissione/Crucifixion' है, जिसमें सलीब पर चढ़ाए गए ईसा की छवि को पुनर्सृजित करते हुए तत्कालीन इतालवी समाज में व्याप्त फासिस्ट आतंक को अभिव्यक्त किया गया है ! गुत्तुस्सो अभिव्यंजनावादी यथार्थवादी इतालवी चित्रकार था जो फासिस्ट दौर में प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी था !)

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


Ismail

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


Home Sweet Home

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


Obaida

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


Oceans of Injustice

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


फ़िलिस्तीन की दो फ़ीचर फ़िल्में और पाँच छोटी फ़िल्में हमने आज लखनऊ सिनेफ़ाइल्स के टेलीग्राम चैनल पर अपलोड की हैं। इनका संक्षिप्त परिचय हम नीचे दे रहे हैं।
इनके अलावा फ़िलिस्तीन पर दो चर्चित डॉक्युमेंट्री फ़िल्में हम पहले ही शेयर कर चुके हैं -

हर्नान ज़िन की फ़िल्म - ‘बॉर्न इन ग़ाज़ा’ और
एबी मार्टिन की फ़िल्म ‘ग़ाज़ा फ़ाइट्स फ़ॉर फ़्रीडम’

आज की फ़िल्में
***
200 मीटर्स (1 घण्टा 35 मिनट)
निर्देशक : अमीन नायफ़ेह
(हिन्दी व अंग्रेज़ी सबटाइटल्स)

यह फ़िल्म उन लाखों फ़िलिस्तीनी लोगों की ज़िन्दगी हमारे सामने लाती है जिन्हें इज़रायल की ‘segregation wall’ की वजह से रोज़ परेशानियों से गुज़रना होता है। बेहतर स्कूलों और नौकरी के अवसरों के लिए अनगिनत लोग अलग-अलग रहने के लिए मजबूर हैं। जिन जगहों पर वे पीढ़ियों से रह रहे हैं, वहीं आने-जाने के लिए उन्हें “परमिट,” “इज़राइली आईडी” और अन्तहीन चेकपॉइंट और रोड बैरियर से गुज़रना पड़ता है और अक्सर “अवैध” तरीक़ों का सहारा लेना पड़ता है। कभी उन्हें परमिट नहीं मिलता तो कभी बायोमीट्रिक काम नहीं करता।
यह इज़रायल के क़ब्ज़े में फ़िलिस्तीन के आम लोगों की ज़िन्दगी में रोज़ आने वाली दुश्वारियों और छोटी-छोटी ख़ुशियों के लिए उनके संघर्ष को दिखाती है। बिना लाउड हुए यह फ़िल्म यह अहसास करा जाती है कि आम फ़िलिस्तीनी हर दिन किस यंत्रणा और अपमान से गुज़रते हैं। फ़िल्म एक परिवार और कुछ आम लोगों की ज़िन्दगी के चन्द दिनों में होने वाले अनुभवों पर है और दमन या हिंसा के दृश्य इसमें कहीं नहीं हैं, लेकिन इसे देखते हुए हम उस पृष्ठभूमि को नहीं भूल पाते जहाँ इज़रायल का नृशंस क़ब्ज़ा है और उसे बनाये रखने के लिए निरन्तर हमले होते रहते हैं।

इसमें अंग्रेज़ी सबटाइटल्स वीडियो में एंबेडेड हैं। इसलिए हिन्दी सबटाइटल्स चलाने पर VLC मीडिया प्लेयर के Tools मेन्यू में जाकर सबटाइटल्स में फ़ॉण्ट साइज़ Large कर लें, कलर येलो कर लें और बैकग्राउण्ड ऑन कर लें।

इसमें सबटाइटल्स थोड़े आगे-पीछे हैं। VLC मीडिया प्लेयर में आप वीडियो चलने के दौरान कीबोर्ड शॉर्टकट G या H से इसे ठीक कर सकते हैं: अगर सबटाइटल्स डायलॉग से पीछे हों तो G बटन को कुछ बार दबाकर इसे एडजस्ट करें और अगर सबटाइटल्स डायलॉग से आगे हों तो H बटन को कुछ बार दबाकर इसे एडजस्ट करें। (इस सुविधा के लिए हमें खेद है, सारे टाइमकोड ठीक करने में बहुत समय लगता इसलिए फ़िलहाल इसे ऐसे ही शेयर कर रहे हैं।)

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फ़रहा (1 घण्टा 30 मिनट)
निर्देशक : दारिन जे. सलाम
(हिन्दी व अंग्रेज़ी सबटाइटल्स)

अंतरराष्ट्रीय सहयोग से बनी यह फ़िल्म 1948 के नक़बा (आपदा) का ऐतिहासिक विवरण पेश करती है, जब इज़रायली सैनिकों और ज़ायनिस्टों के हथियारबन्द गिरोहों में सैकड़ों फ़िलिस्तीनी गाँवों पर हमले करके लाखों लोगों को उनके घरों से बेदखल कर दिया था। यह नक़बा के दौरान एक फ़िलिस्तीनी लड़की के वयस्क होने के अनुभव के बारे में है। फ़िल्म की निर्देशक दारिन जे. सलाम ने इसे एक सच्ची कहानी के आधार पर लिखा है, जो उन्होंने बचपन में रादिया नाम की लड़की के बारे में सुनी थी। रादिया की आँखों से हम देखते हैं कि कैसे एक क्रूर और अमानवीय क़ब्ज़ा शुरू हुआ जो आज भी जारी है।
इसका प्रीमियर 14 सितंबर 2021 को टोरंटो फ़िल्म फ़ेस्टिवल में हुआ था। इसके प्रसारण से इज़रायल इतना बौखलाया कि नेटफ़्लिक्स पर दबाव डालकर इसे हटवा दिया गया।

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होम स्वीट होम (3 मिनट 15 सेकंड)
निर्देशक : उमर रम्माल

बिना कुछ बोले यह फ़िल्म इज़रायली सेटलर्स द्वारा फ़िलिस्तीनी घरों पर क़ब्ज़े की सच्चाई को बेहद मार्मिक ढंग से दिखाती है।
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द प्रेज़ेंट (24 मिनट)
निर्देशक : सारा नबलुसी

‘अल हादिया’ (शाब्दिक अर्थ 'उपहार') - फ़राह नबलुसी की आधे घण्टे की यह फ़िल्म इज़रायल के क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में एक फ़िलिस्तीनी पिता और उसकी बेटी के एक दिन के बारे में है जो अपनी पत्नी के लिए शादी की सालगिरह पर तोहफ़ा ख़रीदने निकलता है। फ़िल्म अपने ही देश में क़दम-क़दम पर चेकपॉइंट से गुज़रने और अपमान का सामना करने के फ़िलिस्तीनियों के रोज़ के अनुभव को बहुत प्रभावशाली ढंग से पेश करती है। गत वर्ष इसे ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया था और इसने सर्वश्रेष्ठ लघु फिल्म के लिए ब्रिटिश अकादेमी (BAFTA) पुरस्कार जीता है।

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उबैदा (7 मिनट 20 सेकेंड)
निर्देशक : मैथ्यू कैसल

यह लघु फिल्म इज़रायली सेना द्वारा गिरफ़्तार किये गये एक फ़िलिस्तीनी बच्चे के अनुभवों की पड़ताल करती है। हर साल, लगभग 700 फ़िलिस्तीनी बच्चे इज़रायली सेना द्वारा गिरफ़्तार किये जाते हैं और उन्हें ऐसे हालात में रखा जाता है जहाँ दुर्व्यवहार व्यापक और संस्थागत है। इन युवा क़ैदियों के लिए, काग़ज़ पर भी बहुत कम अधिकारों की गारण्टी है। रिहा होने के बाद भी हिरासत का अनुभव इन बाल-क़ैदियों की ज़िन्दगी को प्रभावित करता रहता है।

Mazdoor Bigul

13 Oct, 06:06


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इस्माइल (28 मिनट)
निर्देशक : नोरा अल-शरीफ़

1949 में एक शरणार्थी शिविर में रहने वाला एक युवा फिलिस्तीनी आसन्न मौत से बचने के लिए संघर्ष करता है, जब वह और उसका छोटा भाई लापरवाही से एक बारूदी सुरंग में प्रवेश कर जाते हैं।
फ़िलिस्तीनी चित्रकार इस्माइल शमौत के जीवन के एक दिन से प्रेरित, यह फ़िल्म एक ऐसे युवक की दिलचस्प कहानी बताती है जो 1948 में इज़रायली सेना द्वारा बेदखल करके शरणार्थी शिविर में भेजे जाने के बाद अपने माता-पिता के गुज़ारे के लिए संघर्ष कर रहा था। दयनीय जीवन और कष्टदायक परिस्थितियों के बावजूद वह रोम जाकर पेंटिंग सीखने के अपने सपने को छोड़ता नहीं है। एक दिन अपने छोटे भाई के साथ रेलवे स्टेशन पर पेस्ट्री बेचकर लौटते समय वे अनजाने में एक ऐसे इलाक़े में दाख़िल हो जाते हैं जहाँ इज़रायली सेना ने बारूदी सुरंगें बिछा रखी हैं। मौत का सामना करते हुए और खुद को और अपने भाई को बचाने के लिए संघर्ष करते हुए हम इस्माइल की जिजीविषा और हौसले से रूबरू होते हैं।

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Oceans of Injustice (अन्याय के महासागर), (11 मिनट 15 सेकेंड)
फ़राह नबलुसी की यह बेहद काव्यमय लघु फ़िल्म आज़ादी, इंसाफ़ और बराबरी के लिए फ़िलिस्तीनी अवाम के संघर्ष के बारे में लोगों को जागरूक करती है।

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हमारा सुझाव है कि आप फ़िल्म और सबटाइटल्स कंप्यूटर या लैपटॉप पर डाउनलोड करके इसे देखें। फ़िल्म और सबटाइटल्स की फ़ाइलें एक फ़ोल्डर में डाउनलोड करने के बाद VLC Media Payer या ऐसे ही किसी अन्य प्रोग्राम के ज़रिए इसे देखा जा सकता है। VLC में आप इसके सबटाइटल्स का फ़ॉण्ट भी सुविधानुसार बड़ा कर सकते हैं और इसका रंग भी बदल सकते हैं या पढ़ने में आसानी के लिए सबटाइटल्स के पीछे बैकग्राउण्ड भी लगा सकते हैं। इसके लिए VLC के Tools मेनू में जाकर Preferences और फिर Subtitles/OSD पर क्लिक करें और सुविधानुसार चयन करें।