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देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करने का एक प्रयास

Mazdoor Bigul (Hindi)

Mazdoor Bigul एक Telegram चैनल है जो देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करने का एक प्रयास करता है। इस चैनल का उद्देश्य मजदूरों की आवाज को सुनना और उनकी समस्याओं को साझा करना है। यहाँ आप मजदूरों के लिए नौकरी के अवसर, सरकारी योजनाएं, और अन्य महत्वपूर्ण सूचनाएं पा सकते हैं।nnMazdoor Bigul चैनल में आपको देश भर के विभिन्न क्षेत्रों से मजदूरों की कहानियाँ, उनकी मुश्किलें और उनकी मांगों के बारे में जानकारी मिलेगी। यहाँ पर एक साथ होकर मजदूर वर्ग की भावनाओं को समझने और उनके लिए समर्थन प्रदान करने का प्रयास किया जाता है।nnअगर आप भी मजदूरों की समस्याओं को सुनना चाहते हैं और उनके साथ समर्थन करना चाहते हैं, तो आपको Mazdoor Bigul चैनल में शामिल होना चाहिए। यहाँ पर आप नए मित्रों से मिल सकते हैं और मिलकर मजदूर वर्ग के लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर देश के मजदूर वर्ग को समृद्धि और सामर्थ्य की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाएं।

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:14


🌄🌅 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 उन साहित्‍यकारों की याददिहानी के साथ जिन्होंने मानवता के बेहतर भविष्य के लिए अपनी जिंदगी लगा दी 📚
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: उम्मीद का शायर
स्‍मृति दिवस - 20 नवम्‍बर
🖌 आशीष
📱https://ahwanmag.com/archives/1478
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फ़ैज़ की कविता में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है दबे-कुचलों के प्रति दुख-दर्द की भावना, जनमानस से अटूट रिश्ता। चाहे दुनिया के किसी भी कोने में इंसानी रक्त बहे, फ़ैज़ किसी भी घटना से अप्रभावित नहीं रहे। इसीलिए जब ईरान में छात्रों को मौत के अन्धे कुँए में धकेला जाता है तो वे एक कविता ‘ईरानी तुलबाँ के नाम’ लिखते हैं, अफ्रीकी स्वतन्त्रता प्रेमियों के समर्थन में ‘AFRICA COME BACK’ का नारा लगाते हैं और साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-सीना’ और फिलिस्तीनी बाँकों को श्रद्धांजलि पेश करने के लिए ‘दो नज़्में फिलिस्तीन के लिए’ लिखकर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं। फ़ैज़ की नज़्में देश-काल की सीमाओं को लाँघकर दुखी जनों की आवाज़ बनकर सामने आती है। वे सच्चे मायने .......

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:11


फ़ैज़ के स्मृति दिवस (20 नवम्बर) पर

तराना
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएँगे

कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएँगे
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है

जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं

जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से न टाले जाएँगे
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत

चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक

कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे

Mazdoor Bigul

20 Nov, 06:11


बोल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा

बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकाँ में

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक

बोल जो कुछ कहना है कह ले

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:49


फ़ासीवाद के सवाल पर एक जरूरी बहस - भाग - 7

‘Lalkaar-Pratibaddh’ Group’s Understanding of Fascism
A Menagerie of Dogmatic Blunders
(Part – VII)
'ललकार-प्रतिबद्ध' ग्रुप की फ़ासीवाद की समझदारी
कठमुल्लावादी ग़लतियों की नुमाइश भाग - 7
• Abhinav Sinha
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To read the complete article, follow this link 👇
https://anvilmag.in/archives/707
To download the PDF of this article, follow this link 👇
http://anvilmag.in/wp-content/uploads/2024/11/Critique-of-Sukhwinder-on-Fascism-Part-VII.pdf

To read the earlier parts of this critique, please click on the links 👇
First part - https://anvilmag.in/archives/677⁣
second part - https://anvilmag.in/archives/685
third part - https://anvilmag.in/archives/690
Fourth part - https://anvilmag.in/archives/694
Fifth part - https://anvilmag.in/archives/698
Sixth part - https://anvilmag.in/archives/703
*️⃣ Hindi and Punjabi versions will also be uploaded soon.
अभी यह बहस सिर्फ अंग्रेजी में है। हिंदी व पंजाबी में जल्द ही अपलोड की जाएगी।
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𝟏𝟔. 𝐒𝐮𝐤𝐡𝐰𝐢𝐧𝐝𝐞𝐫’𝐬 𝐀𝐜𝐜𝐨𝐮𝐧𝐭 𝐨𝐟 𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐈𝐧𝐝𝐢𝐚: 𝐀 𝐌𝐞𝐧𝐚𝐜𝐞 𝐭𝐨 𝐭𝐡𝐞 𝐃𝐞𝐯𝐞𝐥𝐨𝐩𝐦𝐞𝐧𝐭 𝐨𝐟 𝐀𝐧𝐲 𝐔𝐧𝐝𝐞𝐫𝐬𝐭𝐚𝐧𝐝𝐢𝐧𝐠 𝐨𝐟 𝐅𝐚𝐬𝐜𝐢𝐬𝐦 𝐢𝐧 𝐈𝐧𝐝𝐢𝐚

𝘈. “𝘉𝘢𝘳𝘦-𝘯𝘢𝘬𝘦𝘥” 𝘝𝘢𝘤𝘶𝘪𝘵𝘺 𝘰𝘧 𝘚𝘶𝘬𝘩𝘸𝘪𝘯𝘥𝘦𝘳’𝘴 𝘝𝘦𝘳𝘺, 𝘝𝘦𝘳𝘺 𝘉𝘳𝘪𝘦𝘧 𝘈𝘤𝘤𝘰𝘶𝘯𝘵 𝘰𝘧 𝘍𝘢𝘴𝘤𝘪𝘴𝘮 𝘪𝘯 𝘐𝘯𝘥𝘪𝘢

From page number 47 to 49 in his booklet on fascism, Sukhwinder presents a very, very brief account of fascist rise in India. He warns the readers that they should consult “other books”. Well, to say the least, after systematic dumbing down of the minds of the readers with this very, very brief account, even reading the best of the research works on fascism in India, would not be able to play the role of an antidote. We will explain why we are saying this.

First of all, any person has the right to present a brief account of any historical process. However, the usefulness of such account depends on one basic pre-requisite that it must fulfil: it must capture at least the nodal points or defining moments of that process. Sukhwinder’s account completely fails to capture the milestones or the turning points in the rise of fascism in India. It is a very poor factual account with inaccuracies. Secondly, if a Marxist presents even a very brief account of a socio-economic and political phenomenon, it must have two basic elements: one, causal analysis and two, the identification of the phases of the process. Both these elements are missing. Allow us to demonstrate this fact.

The account of Sukhwinder is a thoroughly impoverished selection of facts from a variety of sources. A reader can get a better view of things by reading Wikipedia articles on the subject, if not scholarly research works! For instance, he does not even mention the core of the ideology of Hindutva fascism, as it originated and evolved through Savarkar to Golwalkar and later. The essence of fascist ideology itself is lost in his account. Secondly, he does not discuss the basic phases of evolution of fascist ideology and organization from 1925 to 1947 (foundations of fascist ideology, origins of the cadre structure and development of a limited support base among the urban petty-bourgeoisie and upper-caste landlordist reaction), from 1948 to 1962 (period of relative downturn and sidelining of the RSS due to the assassination of Gandhi, even though the ban on the RSS was lifted very soon and the development of cadre organization and infiltration into state apparatus continued), from India’s China War (1962) to the mid-1980s (the re-emergence of the RSS in the mainstream bourgeois politics, continued growth of cadre organization, continued infiltration into the state apparatus, and beginnings of the rise of fascist social movement), the mid-1980s to 1996 (the period of first paroxysm with the demolition of the Babri Masjid when Indian fascism moved from a long ‘war of positions’ to a period of ‘war of movement’, formation of BJP or BJP-led governments in some states,

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:48


“अगर हमें ज़िन्दा रहना है तो हमें हत्या करनी होगी, हत्या करनी होगी और हत्या करनी होगी। .. अगर हम हत्या नहीं करते हैं तो हम अस्तित्वमान नहीं रह सकते.. एकतरफ़ा विलगाव से ‘शान्ति’ की कोई गारण्टी नहीं मिलेगी- यह एक ज़ायनवादी- यहूदी राज्य की गारण्टी देता है जिसमें बहुसंख्या यहूदियों की होगी।” – अरनोन सोफ्फ़र, इज़रायली प्रोफ़ेसर
यह कथन इज़रायली राज्य का सच ज़ाहिर करता है। वह सच जो तमाम इज़रायली कुकर्मों पर सफ़ेदी पोतने वाले लाख चाहकर भी छिपा नहीं पाते हैं। आज जिसे इज़रायल देश कहा जाता है वह असल में फ़िलिस्तीन ही है। ज़ायनवादियों ने 19वीं शताब्दी के अन्त से ही इस योजना को पेश किया कि फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर यहूदियों का देश बसे और इसके लिए साम्राज्यवादियों से गुहार भी लगायी। यह एक लम्बी परियोजना थी जिसे ज़ायनवादी अंजाम देना चाहते थे। सबसे पहले 1883 से 1903 के बीच यहूदियों को इस इलाक़े में आने के लिए प्रेरित किया गया। तब 25 हज़ार से ज़्यादा यहूदी यहाँ आये। उस समय मुख्य रूप से फ़्रांस ने इन यहूदीवादी गतिविधियों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया था। दूसरी घुसपैठ 1904 से 1914 के बीच हुई। तब 40 हज़ार यहूदी इस इलाक़े में आकर बसे।
थियोडोर हर्ज़ल के अनुसार:
“हमें निर्धारित की गयी भूसम्पदा पर निजी सम्पत्ति को लगातार धीरे-धीरे ज़ब्त करना होगा। हमें ग़रीब जनता को बॉर्डर के पार भेजने का प्रोत्साहन देने के लिए उसे अपने ही देश में रोज़गार से वंचित करके पारगमन देशों में रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए प्रयत्न करने होंगे। सम्पत्ति मालिक हमारी तरफ़ आ जायेंगे। ज़ब्ती लूट और ग़रीबों को हटाये जाने की प्रक्रिया दोनों ही बहुत सावधानी और सोचे-समझे तरीक़े से करनी होगी।
ज़ायनवादी उपनिवेश मूल निवासी जनता की इच्छा की अवज्ञा करके ही बनाया जाये। यह उपनिवेश बरक़रार और विकसित केवल देशी जनता से स्वतन्त्र, एक ताक़तवर सैन्यदल के संरक्षण में ही हो सकता है – एक ऐसी लौह दीवार जिसे मूल जनता तोड़ न पाये। यही सम्पूर्णता में अरब के प्रति हमारी नीति है। इसे प्रतिपादित निरूपित करने के लिए कोई भी अन्य तरीक़ा पाखण्ड होगा।”
यह कथन इज़रायल बनने की प्रक्रिया को समझा देता है और इसमें प्रथम विश्व युद्ध के बाद प्रमुखतः ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की भूमिका रही। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ओटोमन साम्राज्य की ब्रिटेन से हार के बाद फ़िलिस्तीन ब्रिटिश हुकूमत का उपनिवेश बन गया। 1918 में ब्रिटिश सेना ने फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। ब्रिटिश कैबिनेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ में इस ज़ायनवादी परियोजना पर मुहर लगा दी। इस घोषणा में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन को ‘राष्ट्रीय यहूदी मातृभूमि’ बनाने का समर्थन किया। इसमें फ़िलिस्तीनी बाशिन्दों का कहीं भी ज़िक्र नहीं था। 1922 में लीग ऑफ़ नेशंस ने ‘मैण्डेट फॉर फ़िलिस्तीन’ में ब्रिटेन की हुकूमत को स्वीकार किया। इस मैण्डेट ने ‘बाल्फ़ोर घोषणा’ को ही शब्दशः अपना लिया। एक ओर सत्ता के गलियारों में सौदेबाजी हो रही थी तो दूसरी ओर यहूदी घरानों ने फ़िलिस्तीनी ज़मीन खरीदना और यहाँ बसना शुरू किया। यहूदी सेटलरों का लगातार फ़िलिस्तीन आकर बसने को ज़ायनवादी बढ़ावा देते रहे क्योंकि वे आबादी के अनुपात में सेटलरों की संख्या इतनी बढ़ाना चाहते थे कि फ़िलिस्तीनी अस्मिता को मिटाया जा सके। 1935 तक ही 60,000 से अधिक यहूदी प्रवासी फ़िलिस्तीन आये। यह 1917 में कुल यहूदी आबादी की संख्या से भी अधिक थी। आर्थिक तौर पर फ़िलिस्तीनी आबादी मुख्यतः खेती पर निर्भर थी। 1930 के दशक में यहूदी आबादी ने आर्थिकी में फ़िलिस्तीनियों को पछाड़ दिया। ज़ायनवादियों ने 1921 में हैगनाह के नाम से एक गिरोह संगठित किया जो एक ख़तरनाक आतंकवादी संगठन के रूप में विकसित हो गया। इसका काम ही था अरब गाँवों और मुहल्लों पर हमला करके उनके घरों और खेतों को जलाने के साथ-साथ उन्हें मार-पीटकर भगा देना तथा वहाँ यहूदियों के लिए नयी बस्तियाँ बसाना। आज भी गज़ा को नेस्तनाबूद कर सेटलर बसावट का प्रस्ताव या वेस्ट बैंक में लगातार ज़मीनों का सेटलरों और इज़रायली सेना का फ़िलिस्तीनी घरों और ज़मीन पर क़ब्ज़ा ज़ायनवाद की ऐतिहासिक योजना की ही निरन्तरता है। यह कोई आकस्मिक उठा बर्बरता का उन्मादी दौरा नहीं है। 1948 तक ब्रिटिश हुकूमत के मातहत रहते हुए भी फ़िलिस्तीन में एक यहूदी अर्द्ध-राज्य अस्तित्व में आ चुका था जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का समर्थन प्राप्त था। 1936-39 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ अरब विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस युद्ध में फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवादी ताक़तों के बिखरे प्रयासों को बरतानवी हुकूमत ने ख़ून में डुबो दिया। राशिद खालिदी बताते हैं कि:

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:48


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इज़रायल : साम्राज्यवादी हितों के लिए खड़ा किया गया एक सेटलर-कोलोनियल राज्य
सनी
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://ahwanmag.com/archives/8233

यहूदी राज्य यूरोप की रक्षा की दीवार का अंग बनेगा और यह सभ्यता की बर्बरता के ख़िलाफ़ चौकी होगा।
– थियोडोर हर्ज़ल
ज़ायनवादी सिद्धान्तकार हर्ज़ल ने यह बात अपनी पुस्तक ‘यहूदी राज्य’ में इज़रायल के बनने से क़रीब 50 साल पहले कही थी। यह एक नये क़िस्म के औपनिवेशिक राज्य की वकालत थी जिसे साम्राज्यवाद के युग में खड़ा किया जाना था। 1948 में यही ज़ायनवादी योजना अमली-रूप लेती है और आज जिस इज़रायल को हम देख रहे हैं यह इस सेटलर-कोलोनियल परियोजना का ही नतीजा है। इज़रायल एक सेटलर-कोलोनियल राज्य है। इज़रायल के राज्य के इस चरित्र को समझकर ही फ़िलिस्तीनी अवाम के संघर्ष को, गज़ा के बर्बर नरसंहार के बावजूद इज़रायल को मिल रहे बेशर्म साम्राज्यवादी समर्थन को और इज़रायली राज्य के अन्तरविरोधों को समझ सकते हैं। साथ ही इसकी रोशनी में हम फ़िलिस्तीन पर इज़रायली राज्य द्वारा लागू की जा रही अपार्थाइड नीतियों को समझ सकते हैं।
लेख लिखे जाने तक रफ़ा में इज़रायली हमला जारी है जिसमें हर रोज़ फ़िलिस्तीनी नागरिक मारे जा रहे हैं। इज़रायल हमास के ख़िलाफ़ युद्ध हार चुका है क्योंकि तमाम दावों के बाद भी वह हमास की सैन्य क्षमता को नष्ट करने में असफल रहा है। इज़रायल का गज़ा में नरसंहार 7 अक्टूबर के बाद शुरू हुआ। 7 अक्टूबर का दिन ‘प्रिज़न ब्रेक’ था जिस दिन फ़िलिस्तीनियों ने गज़ा की ‘खुली जेल’ में जारी बर्बर औपनिवेशिक दमन के ख़िलाफ़ इज़रायल में घुसकर हमला किया और सैकड़ों उपनिवेशवादियों को मार दिया। यह फ़िलिस्तीनियों का प्रतिरोध युद्ध के दौरान उठाया गया साहसपूर्ण क़दम था। हथियारों के विराट ज़ख़ीरे और ‘आइरन क्लेड’ अमरीकी मदद के बावजूद इज़रायल के भीतर हमला हुआ और सैकड़ों सेटलरों को हमास के लड़ाके बन्धक बनाकर गज़ा ले गये। आइरन डोम से लेकर दुनिया में सर्वश्रेष्ठ सर्विलांस के तमाम उपकरणों के बावजूद इज़रायल 7 अक्टूबर के हमले के जवाब में हमास को सैन्य तौर हराने में असफल रहा है। इस असफलता के प्रतिशोध में ही इज़रायली सेना गज़ा में मासूमों पर बमवर्षा कर एक पूरी क़ौम को ख़त्म करने पर आमादा है। न सिर्फ़ इस बम वर्षा में आम नागरिक मारे जा रहे हैं बल्कि इज़रायल एआई का चुनिन्दा तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। फ़िलिस्तीनी कलाकारों-लेखकों को निशाना बनाया गया है ताकि फ़िलिस्तीन की कविताओं, गीतों, चित्रों, कहानियों और उसकी संस्कृति तथा उसके इतिहास को मिटाया जा सके। डॉक्टरों को मारकर, अस्पतालों को नेस्तनाबूद कर गज़ा को यातना गृह में तब्दील कर दिया गया है। गज़ा से लेकर दुनिया भर में सड़कों पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति का झण्डा लहरा रहा है जबकि सत्ता के गलियारों में झूठे शान्ति प्रस्तावों के साथ ही हत्यारों की ‘आत्मरक्षा’ के ‘डिस्कोर्स’ में हथियारों के ज़ख़ीरों के सौदे हो रहे हैं। अरब देशों के शासक वर्ग फ़िलिस्तीनी मुक्ति युद्ध को साम्राज्यवादियों के समक्ष बटखरे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं हालाँकि अरब जनता के फ़िलिस्तीनी जनता के प्रति गहरे लगाव के दबाव में वे इज़रायल से नाराज़गी भी व्यक्त करते रहते हैं। साम्राज्यवादी शक्तियाँ खोखले शान्ति प्रस्तावों के साथ और दीर्घकालिक समाधान की बातें करते हुए इस युद्ध को जारी रखना चाहती हैं। 1917 का बाल्फ़ोर घोषणापत्र, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का व्हाइट पेपर, 1948 का यूनाइटेड नेशंस का प्रस्ताव, 1967 का प्रस्ताव या ‘ओस्लो समझौता’; सब इज़रायल के सेटलर-कोलोनियल राज्य पर मुहर लगाने का ही काम करते आये हैं।
आज साम्राज्यवादी मीडिया के माध्यम से इज़रायल द्वारा गज़ा में किये जा रहे नरसंहार का विरोध करना भी ‘यहूदी-विरोधी’ घोषित किया जा रहा है और आलम यह है कि इज़रायल नाज़ियों द्वारा किये नरसंहार की आड़ में इस शताब्दी के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम दे रहा है। शान्ति प्रस्तावों, मानवीय सहायता के ढोंग और दीर्घकालिक तौर पर ‘टू-स्टेट सोल्यूशन’ की बातें असल में एक पर्दा है जो इज़रायल के कृत्रिम सेटलर-कोलोनियल राज्य पर और उसकी अपार्थाइड नीतियों पर पर्दा डालने का काम करता है। गज़ा में आज जो नरसंहार हो रहा है उसके पीछे छिपे मुनाफ़े के सौदों और उन सौदों को बरक़रार रखने के लिए बनाये गये कृत्रिम इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की निशानदेही करनी होगी।

इज़रायली सेटलर कोलोनियल राज्य की स्थापना और अपार्थाइड नीतियाँ

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:47


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन कविता के साथ 📚
_____
क‍व‍िता - सुखी-सम्पन्न लोग
कविता कृष्णपल्लवी
📱https://unitingworkingclass.blogspot.com/2024/11/blog-post_28.html

सुखी-सम्पन्न लोग अक्सर
अपने अकेलेपन की बातें करते हैं।
थोड़ी दार्शनिक मुद्रा में अक्सर
वे कहते हैं कि सबकुछ होते हुए भी
मनुष्य कितना अकेला होता है!
वे सड़क से रोज़ाना गुज़रते
कामगारों को बिना चेहरों वाली
भीड़ की तरह देखते हैं।
अपनी कार के टायर बदलने वाले
या घर की सफाई-पुताई करने वाले
मज़दूर को वे नाम से नहीं जानते
और कुछ ही दिनों बाद
उसका चेहरा भी भूल जाते हैं।
लेबर चौक पर खड़े मज़दूरों को देखकर
उन्हें लगता है कि देश की
आबादी बहुत बढ़ गयी है।
सुखी-सम्पन्न लोगों को आम लोगों से
हमेशा बहुत सारी शिक़ायतें रहतीं हैं।
वे उनके गँवारपन, काहिली, बद्तमीज़ी,
ज़्यादा बच्चे पैदा करने की उनकी आदत
और उनमें देशभक्ति की कमी की
अक्सर बातें करते रहते हैं।
सरकार के बारे में वे हमेशा
सहानुभूतिपूर्वक सोचते हैं और
कहते रहते हैं कि सरकार भी आख़िर क्या करे!
वे आम लोगों को सुधारने और उनके
बिगड़ैलपन को दूर करने के लिए
तानाशाही को सबसे कारगर मानते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
बदलते मौसमों, पेड़ों और
फूलों के बारे में और नदियों-पहाड़ों के बारे में
बस इतनी जानकारी होती है
कि वे उनके बारे में बातें कर सकें
जब उनके पास करने के लिए
कोई और बात न हो.
सुखी-सम्पन्न लोग अपनी छोटी सी
सुखी-सम्पन्न दुनिया में
पूरी उम्र बिता देते हैं
और अपने दुखी होने के कारणों के बारे में
कुछ भी नहीं जान पाते।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
इस बहुत बड़ी दुनिया के आम लोगों की
बहुत बड़ी आबादी के जीवन के बारे में
बहुत कम जानकारी होती है
और दुनिया की सारी ज़रूरतें
पूरी करने वाले मामूली लोग
उनके ज़ेहन में कहीं नहीं होते
जब वे मनुष्यता के संकट की बातें करते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोग मनुष्यता से अपनी दूरी
और उसके कारणों के बारे में
कभी जान नहीं पाते
और अपने सुखी-सम्पन्न जीवन के
अनंत क्षुद्र दुखों के बारे में ही
सोचते हुए और रोते-गाते हुए,
ध्यान और योग और विपश्यना करते हुए,
नियमित हेल्थ चेकअप कराते हुए
और मरने से डरते हुए
एक दिन, आख़िरकार मर ही जाते हैं
सचमुच!

Mazdoor Bigul

19 Nov, 05:46


🌅🌄 सुबह की शुरुआत 🌅🌄
📚 बेहतरीन साहित्‍य के साथ 📚
_____
मेटामॉरफ़ॉसिस
अन्वेषक
📱 https://ahwanmag.com/archives/8228

आज के समय को मेटामॉरफ़ॉसिस काल कहना अधिक उचित होगा। जिस हिसाब से मेटामॉरफ़ॉसिस की प्रक्रिया आज समाज में चल रही है, उतनी इतिहास में कभी नहीं चली होगी। फ़्रेंज़ काफ़्का के लघु उपन्यास ‘मेटामॉरफ़ॉसिस’ में एक छोटा-सा क्लर्क होता है, जो तिलचट्टा बन जाता है, पर हमारे देश में तो बड़े-बड़े लोग, नेता इस प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं। भारतीय समाज थोड़ा जटिल समाज है, इसलिए यहाँ मेटामॉरफ़ॉसिस थोड़ी जटिल प्रक्रिया से होता है। अभी परसों की बात है। विपक्षी पार्टी के बड़े नेता सरकार को बड़े-बड़े शब्दों में गरियाते हुए सोये। पता चला अगले दिन वह सरकार के मन्त्रियों के साथ खड़े होकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। देखा, हुआ न रात भर में मेटामॉरफ़ॉसिस!

मैं सोचता हूँ कि रात भर वह नेता क्या सोच रहा होगा! ऐसा क्या हुआ कि सुबह उठते ही उसे वह सरकार इतनी पसन्द आने लगी जिसे रात में वह गाली दे रहा था। रात में उसे देश में हर जगह .....

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


जाता था, लेकिन समाजवाद के लिए संघर्ष का वह कभी भी विरोधी नहीं बना। उल्लेखनीय है कि निष्क्रिय होने के बाद भी वह समाजवादी पार्टी का सदस्य बना रहा और 1916 में, अपनी मृत्यु के ठीक पहले जब उसने पार्टी से इस्तीफा दिया तो कारण यह बताया कि अब पार्टी की ‘लड़ाकू स्पिरिट' के बारे में उसके मन में सन्देह पैदा हो चुका है। जैक लण्डन के जटिल मानस के जीवनपर्यन्त असमाधानित वैचारिक अन्तर्विरोधों को समझने की दृष्टि से यह तथ्य बहुत गौरतलब है। यह अटकल लगाने के पर्याप्त आधार हैं कि जैक लण्डन यदि 1917 की अक्टूबर क्रान्ति और उसके बाद की दुनिया को देख पाता, यदि वह आखिरी मजदूर आन्दोलन के नये उभार और 1919 में अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन का साक्षी बन पाता, और यदि तीसरे चौथे दशक में फासीवादी उभार तथा महामन्दी के संकट के काल में वह जीवित रहा होता तो दुनिया शायद एक बार फिर उसके विचारों और कृतित्व में मार्क्स द्वारा नीत्शे और स्पेंसर की पराजय होते देख पाती। बहरहाल, अटकल तो फिर भी अटकल है।

बचपन से कठिन जीवन, बीहड़ घुमक्कड़ी की तकलीफों और धुआँधार लेखन की दिनचर्या ने जैक लण्डन के खूबसूरत और मजबूत शरीर को पैंतीस की उम्र तक खोखला कर डाला था। 1914 में मेक्सिको यात्रा के दौरान उसे प्लूरसी और गम्भीर पेचिश ने धर पकड़ा। 1915 में तुर्की-यात्रा के दौरान गठिया ने प्रचण्ड हमला किया। पाँच माह तक हवाई में स्वास्थ्य लाभ भी किया, पर कोई खास फायदा नहीं हुआ। 1916 में घर लौटने के बाद गठिया के साथ ही 'यूरेमिया' (मूत्ररुधिरता) का भी प्रकोप हुआ और उसके बाद 'रेनल कॉलिक' (गुर्दे से जुड़ा उदरशूल) का हमला हुआ। अनिद्रा स्थायी समस्या बन चुकी थी। नवम्बर में 'इण्टस्टिंशियल नेफ्राइटिस' (गुर्दे की बीमारी) ने निर्णायक प्रहार किया। महज चालीस वर्षों का जीवन, लेकिन बेहद तूफानी, सर्जनाशील और प्रयोगों से भरा हुआ जीवन जीने के बाद, जैक लण्डन ने 22 नवम्बर, 1916 की शाम को आखिरी साँस ली। वह उत्तप्त-उद्दीप्त उल्कापिण्ड-सा जीवन बुझ गया और क्षितिज पर शेष रह गई प्रकाश की एक रेखा!

Mazdoor Bigul

10 Nov, 13:24


रचनाएँ सोवियत संघ में प्रकाशित हुईं। जैक लण्डन की लगभग ऐसी ही लोकप्रियता सभी पूर्वी यूरोपीय देशों में थी जहाँ उसकी रचनाओं के अतिरिक्त उनपर बनी फिल्मों को भी लोगों ने काफी पसन्द किया। पोलैण्ड में 1909 से लेकर 1990 तक जैक लण्डन की लोकप्रियता का आलम यह था कि हर वर्ष 'बेस्टसेलर' किताबों की सूची में उसकी कुछ किताबें शामिल होती थीं और स्कूली छात्रों तक की सबसे अधिक संख्या जिस विदेशी लेखक से परिचित होती थी, वह जैक लण्डन ही था। इस स्थिति में 1990 के बाद परिवर्तन आया जब अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के निर्बाध वर्चस्व ने पोलैण्ड सहित समूचे पूर्वी यूरोप को विश्व मण्डी का एक अविभाज्य अंग बना दिया। लेकिन इन बदली स्थितियों में इन देशों में सिर्फ जैक लण्डन की ही लोकप्रियता नहीं घटी है। सभी महान लेखकों के साथ यह हुआ है कि उनके कृतित्व को कचरा साहित्य ने ढाँप लिया है।

पश्चिम में सर्वहारा साहित्य के एक प्रवर्तक के रूप में जैक लण्डन ने अपने जीवनकाल में ही विश्वव्यापी ख्याति अर्जित कर ली थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमेरिकी पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की अवस्था में संक्रमण की अभिलाक्षणिकताएँ स्पष्ट हो चुकी थीं। इसके साथ ही साहित्य में सामाजिक-राजनीतिक आलोचना की सघनता- तीक्ष्णता बहुत अधिक बढ़ गई थी। मार्क ट्वेन ने अपनी साहित्यिक रचनात्मकता का पटाक्षेप साम्राज्यवाद-विरोधी पैम्फलेटों के लेखन के साथ किया। 'मकरेकर्स' नाम से प्रसिद्ध लेखकों का ग्रुप सामाजिक अन्तर्विरोधों को उजागर करने में ज़ोला की शैली के साथ डिकेन्स की वस्तुपरकता और मार्क ट्वेन की तीक्ष्ण तिक्तता का संश्लेषण कर रहा था। विरासत के इसी सूत्र को थामकर जैक लण्डन, अप्टन सिंक्लेयर और थियोडोर ड्रेज़र ने घोषित तौर पर सर्वहारा की पक्षधरता के साथ लेखन की शुरुआत की। जैक लण्डन और अप्टन सिंक्लेयर ने सचेतन तौर पर समाजवाद की विचारधारा को स्वीकार किया और राजनीति के क्षेत्र में भी सक्रिय हुए। उन्होंने पूँजीवादी समाज के सभी बुनियादी अन्तर्विरोधों, बुर्जुआ जनवाद की वास्तविकता और बुर्जुआ वर्ग की समस्त आत्मिक रिक्तता को अपनी रचनाओं में उजागर करने के साथ ही मजदूर वर्ग की चेतना और संघर्षों के नये उभार को भी देखा तथा बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के राजनीतिक संघर्ष की अपरिहार्यता पर बल देते हुए इसी में मानवता का भविष्य खोजने की कोशिश की। इतिहास का सिंहावलोकन करते हुए आज यह बेहिचक कहा जा सकता है कि मक्सिम गोर्की और जैक लण्डन वे पहले लेखक थे जिनकी रचनाओं में उन्नीसवीं शताब्दी के क्रान्तिकारी बुर्जुआ यथार्थवाद से समाजवादी यथार्थवाद में संक्रमण को लक्षित किया जा सकता है।

हावर्ड फास्ट ने अपनी चर्चित आलोचनात्मक कृति साहित्य और यथार्थ में लिखा है : "जिस समय जैक लण्डन 'आयरन हील' लिख रहे थे, लगभग उसी समय गोर्की ने 'माँ' लिखा। दोनों ही लेखकों ने स्वयं को सचेत रूप से अपने देश के अगुआ दस्ते सर्वहारा वर्ग से जोड़ा-गोर्की ने रूस की सामाजिक जनवादी पार्टी से (जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बनी) तथा जैक लण्डन ने अमेरिका की समाजवादी पार्टी के वाम पक्ष से (जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बनी)। दोनों ही लेखक 1905 की क्रान्ति में रूसी सर्वहारा वर्ग की अस्थायी हार से गम्भीर रूप से प्रभावित हुए। 'आयरन हील' में जैक लण्डन ने उस उभरते फासिज्म का अविश्वसनीय चित्र खींचा जो अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग को कुचलकर मानव-सभ्यता के विकास को सैकड़ों वर्ष पीछे धकेल देगा। लेकिन गोर्की क्योंकि संघर्ष के बीच में थे, इसलिए वे भविष्य को अधिक आशान्वित रूप में देखते हैं।” हावर्ड फास्ट ने जैक लण्डन की महत्ता के साथ ही यहाँ उसके उन अन्तर्विरोधों की ओर भी इंगित किया है जो जीवन के आखिरी छह वर्षों के दौरान उसे निराशा के गर्त में धकेलने के साथ ही समाजवादी विचार से भी दूर ले गये। जैक लण्डन के इन अन्तर्विरोधों के स्रोत उसके जीवन में, उसके विचारों में और तत्कालीन अमेरिकी समाज में मौजूद थे। बहरहाल, इन अन्तर्विरोधों और विचलन के बावजूद यह तथ्य अपनी जगह पर कायम है कि जैक लण्डन अमेरिकी साहित्य में यथार्थवादी परम्परा का एक मील का पत्थर और पश्चिम में सर्वहारा साहित्य के प्रवर्तकों में से एक था।

पहले विश्वयुद्ध में अमेरिका की भागीदारी का समर्थन करने के बाद वह अपने पुराने कामरेडों से और अधिक दूर हो गया। लेकिन इन सबके बावजूद, जैक लण्डन की समाजवाद में आस्था और उत्पीड़ितों की पक्षधरता आखिरी साँस तक बनी रही। समाजवाद की विजय के प्रति गहरी शंका के बावजूद, कम-से-कम एक यूटोपिया के रूप में वह उसे लगातार अपनाये रहा। उसका तर्कशील मस्तिष्क पूँजीवादी विश्व की भौतिक-आत्मिक शक्तिमत्ता और पूँजी के विश्वव्यापी वर्चस्व की व्याख्या के लिए नीत्शे के नस्ली श्रेष्ठता के विचारों और सामाजिक डार्विनवाद के प्रतिक्रियावादी सिद्धान्तों को अपनाने तक चला