1974 में आयी यह फ़िल्म आज बेहद प्रासंगिक और बेहद दिलचस्प है।
यह दिग्गज फ़िल्मकार मृणाल सेन की शायद सबसे प्रायोगिक फ़िल्म है। तकनीक, कैमरे और शिल्प के साथ किये गये सेन के कई प्रयोग अपने समय से बहुत आगे के थे।
कहानी बस इतनी है कि एक कंपनी 100 पदों के लिए विज्ञापन देती है और आवेदन करने वाले होते हैं 30,000। बेरोज़गारी से सभी बुरी तरह परेशान हैं और वहाँ बलवा हो जाता है। हर कोई मौक़े की तलाश में है। बेरोज़गारों को नौकरी की सख़्त ज़रूरत है, एक फ़ोटोग्राफ़र है जिसे स्कूप की तलाश है, दुकानदार और साहूकार लोगों को चूस रहे हैं, पुलिस निकम्मी बनी हुई है, नियोक्ता नये पद निकाल रहे हैं जबकि छह महीने से वेतन बढ़ाने की माँग पर जारी हड़ताल से मज़दूर लगभग कंगाल हो गये हैं। एक छोटी-सी कम्पनी के इर्दगिर्द बुनी यह कहानी पूरे समाज की तस्वीर पेश करती है। आख़िरकार, मज़दूर, बेरोज़गार और किसान सभी इस शोषण और धोखाधड़ी के ख़िलाफ़ एकजुट हो जाते हैं।
लेकिन इसे कहने का अन्दाज़ बहुत निराला है और देश-समाज के हालात पर चुटीली टिप्पणियाँ इसकी ख़ासियत हैं।
इसकी शुरुआत एक परिकथा की तरह होती है। एक सूत्रधार स्क्रीन पर आकर गाता है।
“धरती पर अवतरित हुए नए भगवान की जय हो!
अभाव और ग़रीबी से चिन्तित देवताओं का राजा सौ नौकरियों की व्यवस्था करता है। लेकिन उनके लिए हज़ारों कतार में लग जाते हैं। बहुत सारे लोग, बहुत सारे चेहरे, बहुत सारी समस्याएँ! भीड़ का मोहभंग हो जाता है और व्यापक असन्तोष लोगों को इकट्ठा करने लगता है क्योंकि यह बात फैल जाती है कि यह भी एक और धोखा ही है।