भावार्थ :- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। कोई विद्वान् मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त होके और बिजुलीरूप अग्नि जान के उससे उपकार लेने को समर्थ होता है, जैसे उत्तम पुष्टि, पृथिवी का राज्य, मेघ की वृष्टि, उत्तम जल, उत्तम घोड़े और समुद्र बहुत सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही परमेश्वर और बिजुली भी सब आनन्दों को प्राप्त कराते हैं, परन्तु इन दोनों का जाननेवाला विद्वान् मनुष्य दुर्लभ है ॥ ३ ॥ महर्षि दयानन्द जी महाराज.
ભાવાર્થ : કોઈ વિદ્વાન દુર્લભ મનુષ્ય જ પરમેશ્વરની પ્રાપ્તિ અને વિદ્યુત્ નું વિશેષ જ્ઞાન તથા ઉપયોગ કરી શકે છે. જેમ સર્વોત્તમ પુષ્ટિ, પૃથ્વીનું રાજ્ય, મેઘથી વૃષ્ટિ, ઉત્તમ જળ, શ્રેષ્ઠ ઘોડો અને સમુદ્ર (એ) બહુ જ સુખ આપે છે, તેમ જ પરમેશ્વર અને વિદ્યુત્ સમસ્ત આનંદોને પ્રાપ્ત કરાવે છે. પરંતુ એ બન્નેને જાણનાર મહાવિદ્વાન મનુષ્ય દુર્લભ હોય છે. दयाल मुनि जी
भावार्थ - प्रभु का वरण विरला ही व्यक्ति करता है । हरीशरण जी.
भावार्थ :- ज्ञान करने योग्य परमेश्वर और अग्नि तथा राजा वा सभाध्यक्ष (पुष्टिः न रण्वा) शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा के सुख को बढ़ानेवाली पुष्टि के समान अग्नि, विद्युत्, राजा और परमेश्वर तीनों में से प्रत्येक सुख देने वाला है । वह (क्षितिः न पृथ्वी) भूमि के समान सबको अपने में आश्रय देने वाला है । (गिरिः न भुज्म) पर्वत के समान सबको पालन करने वाला है । ( अज्मन् अत्यः न ) वेग में, शत्रुओं के उखाड़ फेंकने में अश्व के समान (सर्गप्रतक्तः) छूटते ही शत्रु के पास पहुंचने और पहुंचाने वाला -(सर्ग-प्रतक्तः ) जल को अपने भीतर दबाव से रखने वाला (क्षोदः ) जल समूह जिस प्रकार (सिन्धुः ) वेग से बहता है, वह रोके नहीं रुकता इसी प्रकार ईश्वर भी (सर्ग-प्रतक्तः) सृष्टि द्वारा जाना जाकर (सिन्धुः न) अगाध सागर के समान सर्जनशक्ति का अक्षय भण्डार है । अग्नि भी जल के समान संसार में अपरिमित है। राजा भी (सर्ग-प्रतक्तः) वेग से आक्रमण करने पर अदम्य वेग से शत्रु पर टूटता और बड़ा पीड़ाजनक, (सिन्धुः न) उमड़ते समुद्र के समान भयंकर है। (ईं) इन सबको (कः) कौन (वराते) वारण कर सकता है। उस प्रभु को कौन पूर्णतया जान सकता है । जयदेव शर्मा जी.
अंग्रेजी भाष्य सम्मिलित नहीं है. द्विपदा चतुष्पदा के कारण.
ऋ. १.६५.३ / द्विपदा चतुष्पदा १.६५.५