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Bhagavad Gita Daily (English)

Welcome to 'Bhagavad Gita Daily' - your daily source of spiritual upliftment through the timeless wisdom of the Bhagavad Gita. This Telegram channel provides you with one translated verse of the Bhagavad Gita every day, allowing you to connect with the teachings of this sacred text and find guidance for your spiritual journey. The Bhagavad Gita is a 700-verse Hindu scripture that is part of the Indian epic Mahabharata. It is a conversation between Prince Arjuna and the god Krishna, who serves as his charioteer. The verses of the Bhagavad Gita cover various aspects of life, duty, and morality, offering profound insights and practical wisdom for navigating the complexities of existence. By joining 'Bhagavad Gita Daily', you will receive a daily dose of inspiration and reflection, helping you to deepen your understanding of the teachings of the Bhagavad Gita and apply them to your own life. Each verse is translated to ensure accessibility and clarity, making it easier for you to grasp the profound concepts presented in this sacred scripture. In addition to the daily verses from the Bhagavad Gita, this channel also provides links to other spiritual resources, such as the @Isha_Upanishad and @Mandukya_Upanishad channels, offering you a comprehensive platform for exploring the richness of Hindu philosophy and spirituality. Whether you are a long-time student of the Bhagavad Gita or someone who is just beginning to explore its teachings, 'Bhagavad Gita Daily' is the perfect companion for your spiritual journey. Join us today and take a step closer to spiritual enlightenment and inner peace. Let the timeless wisdom of the Bhagavad Gita guide you on your path to self-realization and transcendence.

Bhagavad Gita Daily

19 Feb, 00:52


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक ९

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ||


अनुवाद: मैं धरती की पवित्र सुगन्ध, अग्नि का तेज, समस्त भूतों में प्राण और तपस्वियों में तप हूँ।

BG 7.9: I am the pure fragrance of the earth, the brilliance in fire, the life in all beings, and the austerity in the ascetics.

Bhagavad Gita Daily

18 Feb, 01:32


भगवद्गीता– अध्याय १, श्लोक ४०

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||

अनुवाद:
अर्जुन ने कहा, "कुल के नष्ट होने से सनातन कुलधर्म का नाश हो जाता है। धर्म का नाश होने से अधर्म संपूर्ण कुल पर हावी हो जाता है।"

BG 1.40:
Arjuna said, "When the family line is destroyed, the eternal family dharma perishes. With the perishing of dharma, adharma dominates the entire family line."

Bhagavad Gita Daily

17 Feb, 00:58


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक ९

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ||


अनुवाद: हे धनञ्जय! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में असमर्थ हो, तो अभ्यासयोग के माध्यम से मुझे प्राप्त करने का प्रयत्न करो।

BG 12.9: O Dhananjaya! If you are unable to focus your mind steadily on Me, seek to attain Me through the yoga of practice.

Bhagavad Gita Daily

16 Feb, 00:51


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २९

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||


अनुवाद: मुझे समस्त यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, सभी लोकों का महान् ईश्वर, तथा भूतमात्र का सच्चा मित्र जानकर, व्यक्ति शांति को प्राप्त करता है।

BG 5.29: Knowing Me to be the enjoyer of all sacrifices (yajnas) and austerities, the Supreme Lord of all worlds, and the true friend of all beings, one attains peace.

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15 Feb, 00:47


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ८

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: ||

अनुवाद:
तुम्हें अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, क्योंकि कर्म निष्क्रियता से श्रेष्ठ है और तुम्हारे शरीर का भरण-पोषण भी निष्क्रियता से संभव नहीं होगा।

BG 3.8:
You should perform your prescribed duties, for action is superior to inaction, as even the maintenance of your body will not be possible through inaction.

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14 Feb, 01:04


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक ८

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ||


अनुवाद: मैं समस्त सृष्टि का स्रोत हूँ, और सभी वस्तुएं मुझसे उत्पन्न होती हैं। यह जानकर, बुद्धिमान व्यक्ति भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे भजते हैं।

BG 10.8: I am the source of all creation, and everything evolves from Me. Realizing this, the wise, filled with devotion, worship Me.

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13 Feb, 00:48


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ३

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ||

अनुवाद:
हे पार्थ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, क्योंकि यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हे शत्रु विनाशक! हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग कर उठ खड़े हो।

BG 2.3:
O Partha! Do not yield to unmanliness, as it doesn't befit you. Give up this petty weakness of heart and arise, O scorcher of foes!

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12 Feb, 00:43


भगवद्गीता– अध्याय १७, श्लोक ३

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स: ||

अनुवाद:
हे भरतवंशी! प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके अंतःकरण के अनुरूप होती है। व्यक्ति श्रद्धामय है; जैसी उसकी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही होता है।

BG 17.3: O Descendant of Bharata! A person's faith conforms to their inner nature. A person is made of faith; as their faith is, so are they.

Bhagavad Gita Daily

11 Feb, 00:48


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक ४३

पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् |
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ||


अनुवाद: आप इस चराचर जगत् के पिता और परम पूजनीय महानतम गुरु हैं। हे अतुलनीय शक्ति के स्वामी! तीनों लोकों में आपके समतुल्य कोई नहीं है, तो आप से बढ़कर कोई कैसे हो सकता है?

BG 11.43: You are the Father of this world, moving and non-moving, and the greatest Guru, most revered. O Lord of incomparable power! In all three worlds, there is none even equal to You; how then can anyone be greater than You?

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10 Feb, 01:12


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक ८

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय: |
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन: ||

अनुवाद:
वे योगी, जिनका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, जो किसी भी परिस्थिति में निर्विकार रहते हैं, जो अपने इंद्रियों पर विजय प्राप्ति कर चुके हैं और जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने के टुकड़े को एक समान देखते हैं, उन्हे युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।

BG 6.8:
The yogi, whose self (atman) is content with knowledge and wisdom, who remains unmoved under any circumstances, who has conquered their senses, and who looks upon a lump of earth, a stone, and a piece of gold equally, is said to have achieved union.

Bhagavad Gita Daily

09 Feb, 01:09


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ४७

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||


अनुवाद: तुम्हें केवल अपने कर्म पर ही अधिकार है, उसके फल पर नहीं। कर्मफल को कभी भी अपना उद्देश्य बनने न दो और न ही अकर्म में आसक्त हो।

BG 2.47: You have the right to your action alone, not to the fruit thereof. Never let the fruit of action be your motive, and do not be attached to inaction either.

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08 Feb, 02:02


भगवद्गीता– अध्याय १६, श्लोक २१

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: |
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ||


अनुवाद: नरक का द्वार तीन प्रकार का है और आत्मा के लिए विनाशकारी है। अत: काम, क्रोध और लोभ—इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए।

BG 16.21: The gate to hell is threefold and destructive of the self (atman). Thus, lust, anger, and greed—these three should be abandoned.

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07 Feb, 01:05


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक १३–१४

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी ||
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय: |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ||


अनुवाद: जो भूतमात्र के प्रति द्वेष रहित, मित्रवत और करुणामय हैं; अहंकार और ममता से मुक्त हैं; सुख-दुःख में समान हैं, और क्षमाशील हैं, तथा जो सदा संतुष्ट, संयमी, दृढ़ निश्चयी हैं, और जिनका मन-बुद्धि मुझमें अर्पित होता है—ऐसे भक्त मुझे प्रिय होते हैं।

BG 12.13-14: One who harbors no hatred towards any being, who is friendly and compassionate, free from possessiveness and ego, who remains equanimous in both joy and sorrow, and is forgiving; who remains always content, disciplined, firm in resolve, with mind and intellect devoted to Me—such a devotee is dear to Me.

Bhagavad Gita Daily

06 Feb, 02:07


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक १९

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ||


अनुवाद: अनेक जन्मों के पश्चात, ज्ञानवान व्यक्ति यह जानकर मुझमें शरण लेते हैं कि वासुदेव ही सब कुछ हैं। ऐसे महात्मा अत्यंत दुर्लभ होते हैं।

BG 7.19: After many births, a wise person takes refuge in Me, realizing that Vasudeva is everything. Such a great soul is very rare.

Bhagavad Gita Daily

05 Feb, 00:40


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक ६

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||

अनुवाद:
न सूर्य, न ही चन्द्रमा और न ही अग्नि उसे प्रकाशित करते हैं। मेरे परम धाम को प्राप्त करने के पश्चात् कोई (संसार में) लौटकर नहीं आता।

BG 15.6: Neither the sun, nor the moon, nor fire illuminates That. Having attained My Supreme Abode, one does not return (to the world).

Bhagavad Gita Daily

04 Feb, 01:45


भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ३७

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् |
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ||


अनुवाद: वह सुख, जो प्रारंभ में विष के समान होता है, परंतु परिणाम में अमृत के समान है, उसे आत्मबुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न सात्त्विक सुख कहा जाता है।

BG 18.37: That happiness, which is initially like poison but in the end like nectar, is known as Sattvik happiness, arising out of intellect due to self-realization.

Bhagavad Gita Daily

03 Feb, 01:29


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक १६

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ||

अनुवाद:
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले व्यक्ति मुझे भजते हैं: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी।

BG 7.16: O best among the Bharatas! Four kinds of people of virtuous deeds worship me: the distressed, the seeker of knowledge, the seeker of wealth, and the wise.

Bhagavad Gita Daily

02 Feb, 01:08


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक ३४

मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् |
कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा ||


अनुवाद: मैं सर्वभक्षी मृत्यु और भविष्य में होने वाले सभी घटनाओं का मूल हूँ। नारियों के गुणों में मैं कीर्ति, समृद्धि, वाणी, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।

BG 10.34: I am the all-devouring death and the origin of all future events. Among the virtues of women, I am fame, prosperity, speech, memory, intelligence, endurance, and forgiveness.

Bhagavad Gita Daily

01 Feb, 01:19


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक २५

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄ न्यान्ति पितृव्रता: |
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ||

अनुवाद:
देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मुझे पूजने वाले मुझे प्राप्त होते हैं।

BG 9.25:
Worshippers of the devatas attain the devatas, worshippers of the ancestors attain the ancestors, worshippers of the bhutas attain the bhutas, and My worshippers attain Me.

Bhagavad Gita Daily

31 Jan, 00:43


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक ८

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय: ||


अनुवाद: अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर कर दो, तत्पश्चात तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

BG 12.8: Fix your mind and intellect solely on Me, and there is no doubt that you will dwell in Me thereafter.

Bhagavad Gita Daily

30 Jan, 01:08


भगवद्गीता– अध्याय ४, श्लोक ३४

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ||

अनुवाद:
ज्ञानीजनों के समीप जाकर उस ज्ञान को दण्डवत् प्रणाम, प्रश्न और सेवा द्वारा प्राप्त करो, और वे तत्वदर्शी तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश देंगे।

BG 4.34: Attain that knowledge by approaching the wise through prostration, inquiry, and service, and those seers of truth will impart it upon you.

Bhagavad Gita Daily

29 Jan, 00:44


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक १२

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ||


अनुवाद: ऐसा कभी कोई समय नहीं था जब मैं नहीं था, न तुम नहीं थे, न ये सभी राजा नहीं थे; और न ही भविष्य में ऐसा होगा कि हम में से कोई भी न रहे।

BG 2.12: Never was there a time when I did not exist, nor you, nor all these kings; nor in the future shall any of us cease to exist.

Bhagavad Gita Daily

28 Jan, 01:21


भगवद्गीता– अध्याय १३, श्लोक १५

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च |
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ||


अनुवाद: वह समस्त भूतों के भीतर भी हैं और बाहर भी; वह गतिहीन हैं और गतिमान भी। अपनी सूक्ष्मता के कारण वह समझ से परे हैं। वह दूर भी हैं और पास भी।

BG 13.15: It is inside all beings and outside as well; it is motionless and moving, too. Because of its subtlety, it is incomprehensible. It is far away and near, too.

Bhagavad Gita Daily

27 Jan, 01:08


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २७–२८

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: |
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ||
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: |
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ||

अनुवाद:
बाहरी आनंद के सभी विचारों को बंद करके, भौहों के बीच की जगह पर दृष्टि केंद्रित करके, नासिका में आने वाली और जाने वाली श्वास के प्रवाह को बराबर करते हुए इंद्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित करके जो मुनि कामनाओं और भय से मुक्त हो जाता है, वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
 

BG 5.27-28: Shutting out all thoughts of external enjoyment, with the gaze fixed on the space between the eyebrows, equalizing the flow of the incoming and outgoing breath in the nostrils, and thus controlling the senses, mind, and intellect, the sage, who becomes free from desire and fear, always lives in freedom.

Bhagavad Gita Daily

26 Jan, 00:46


भगवद्गीता– अध्याय १, श्लोक ४०

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||

अनुवाद:
अर्जुन ने कहा, "कुल के नष्ट होने से सनातन कुलधर्म का नाश हो जाता है। धर्म का नाश होने से अधर्म संपूर्ण कुल पर हावी हो जाता है।"

BG 1.40:
Arjuna said, "When the family line is destroyed, the eternal family dharma perishes. With the perishing of dharma, adharma dominates the entire family line."

Bhagavad Gita Daily

25 Jan, 02:05


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक ३०

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: ||


अनुवाद: यदि कोई अत्यंत दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मुझे भजता है, तो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि उसने उचित संकल्प लिया है।

BG 9.30: Even if an extremely sinful person worships Me with exclusive devotion, he should certainly be considered righteous, because he has taken the right resolve.

Bhagavad Gita Daily

24 Jan, 01:09


भगवद्गीता– अध्याय ४, श्लोक ६

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ||

अनुवाद:
मैं जन्महीन, अविनाशी और समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया के द्वारा स्वयं को प्रकट करता हूँ।

BG 4.6: Despite being birthless, imperishable, and the Lord of all beings, keeping My Nature (Prakriti) under control, I manifest Myself through My Divine Energy (Yogmaya).

Bhagavad Gita Daily

23 Jan, 00:47


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक ३२

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त: |
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा: ||


अनुवाद: मैं पूर्ण रूप से प्रकट, लोकों का नाश करने में रत, लोकसंहारक काल हूँ। तुम्हारे बिना भी, व्यूह रचना में खड़े विरोधी सेना के सभी योद्धाओं का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

BG 11.32: I am the fully manifested world-destroying Time, engaged in destroying the worlds now. Even without you, all the warriors arrayed in the opposing army will cease to exist.

Bhagavad Gita Daily

22 Jan, 00:48


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक २६

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् |
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||


अनुवाद: जहाँ भी चंचल और अस्थिर मन भटकता हो, उसे वहीं से रोककर, आत्मा के नियंत्रण में लाना चाहिए।

BG 6.26: From wherever the unsteady and fickle mind wanders, restraining it from there, one should bring it under the control of the self (atman).

Bhagavad Gita Daily

21 Jan, 02:51


भगवद्गीता– अध्याय ८, श्लोक १३

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||


अनुवाद: जो व्यक्ति एकाक्षर ब्रह्म 'ॐ' का उच्चारण करते हुए और मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्याग देते हैं वह परम गति को प्राप्त होते हैं।

BG 8.13: One who departs from the body uttering the single-syllable Brahman 'Om' and remembering Me attains the Supreme Goal.

Bhagavad Gita Daily

20 Jan, 02:22


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक १५

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||

अनुवाद:
मैं सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान रहता हूँ और मुझसे स्मृति, ज्ञान तथा अपोहन (उनका अभाव) भी उत्पन्न होता है। वस्तुतः, मैं ही वेदों का ज्ञान, वेदांत का प्रवर्तक, और वेदों का ज्ञाता हूँ।

BG 15.15:
I remain seated in the hearts of all beings, and from Me come memory, knowledge, as well as their absence. Indeed, I am the knowledge of the Vedas, the originator of Vedanta, and the knower of the Vedas.

Bhagavad Gita Daily

19 Jan, 00:32


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक २७

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||


अनुवाद: वास्तव में, जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु निश्चित है, और मरने वाले के लिए जन्म निश्चित है; इसलिए, जो अपरिहार्य है तुम्हें उस पर शोक नहीं करना चाहिए।

BG 2.27: Indeed, death is certain for the born, and certain is birth for the dead; therefore, you should not grieve over the inevitable.

Bhagavad Gita Daily

18 Jan, 01:59


भगवद्गीता– अध्याय १७, श्लोक ९

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन: |
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा: ||

अनुवाद:
राजासिक व्यक्ति कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गर्म, तीखे, सूखे और दाहकारक भोजन पसंद करते हैं। ऐसे भोज्य पदार्थों के सेवन से पीड़ा, शोक तथा रोग उत्पन्न होते हैं।

BG 17.9: Rajasic people prefer foods that are bitter, sour, salty, very hot, pungent, dry, and burning. Such foods produce pain, grief, and disease.

Bhagavad Gita Daily

17 Jan, 01:24


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ४२

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स: ||


अनुवाद: इन्द्रियों को श्रेष्ठ कहा गया है, परन्तु इन्द्रियों से श्रेष्ठ है मन; मन से श्रेष्ठ है बुद्धि; और बुद्धि से भी श्रेष्ठ है आत्मा।

BG 3.42: The senses are said to be superior, but superior to the senses is the mind; superior to the mind is the intellect; and even superior to the intellect is the self (atman).

Bhagavad Gita Daily

16 Jan, 01:26


भगवद्गीता– अध्याय १६, श्लोक २४

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ||


अनुवाद: इसलिए, क्या करना चाहिए और क्या नहीं, यह निश्चित करने के लिए शास्त्रों को प्रामाणिक मानो और शास्त्रविहित कर्मों का पालन करो।

BG 16.24: Therefore, let the scriptures be your authority in determining what should be done and what should not be done. Knowing this, you ought to perform only such action as is ordained by the scriptures.

Bhagavad Gita Daily

15 Jan, 01:43


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक ९

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ||


अनुवाद: हे धनञ्जय! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में असमर्थ हो, तो अभ्यासयोग के माध्यम से मुझे प्राप्त करने का प्रयत्न करो।

BG 12.9: O Dhananjaya! If you are unable to focus your mind steadily on Me, seek to attain Me through the yoga of practice.

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14 Jan, 01:11


भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ६८-६९

य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय: ||

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: |
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ||


अनुवाद: जो भी मुझमें परम भक्ति के साथ इस परम गोपनीय ज्ञान को मेरे भक्तों को सुनाएगा, वह निस्संदेह मुझे प्राप्त करेगा। मनुष्यों में उस से अधिक मेरा प्रिय कार्य करने वाला कोई भी नहीं है, और भूमंडल में उस से अधिक मेरा प्रिय दूसरा कोई भी नहीं होगा।

BG 18.68-69: Whoever, with supreme devotion to Me, imparts this supreme secret to My devotees will undoubtedly attain Me. There is no one among humans who performs a service dearer to Me than they, and there will never be anyone dearer to Me on earth.

Bhagavad Gita Daily

13 Jan, 01:07


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २३

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ||


अनुवाद: जो व्यक्ति इस लोक में शरीर त्यागने से पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होते हैं, वे योगी और सुखी मनुष्य हैं।

BG 5.23: The person who is able to withstand the impulse arising from desire and anger before departing from the body in this world is a yogi and a happy person.

Bhagavad Gita Daily

12 Jan, 01:02


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक २५

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते |
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ||

अनुवाद:
इस आत्मा को अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा गया है। अतः इसे ऐसा जानकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।

BG 2.25:
This self (atman) is said to be unmanifest, inconceivable, and immutable. Therefore, knowing it as such, you should not grieve.

Bhagavad Gita Daily

11 Jan, 01:27


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक १८

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ||


अनुवाद: आप जानने योग्य परम अविनाशी तथा इस विश्व के परम आश्रय हैं। आप ही सनातन धर्म के रक्षक और मेरे मत में शाश्वत आदि पुरुष हैं।

BG 11.18: You are the Supreme Imperishable worthy of being known, as well as the ultimate resort of this world. You, too, are the protector of the Sanatana Dharma and, in my opinion, the Everlasting Primal Person.

Bhagavad Gita Daily

10 Jan, 02:46


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक १७

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ||


अनुवाद: दुःखों का नाश करने वाला योग केवल उन्हीं के लिए संभव है जो आहार, विहार, कर्म, नींद, और जागरूकता में संयमित हैं।

BG 6.17: Only those regulated in diet, recreation, action, sleep, and wakefulness can do yoga that dispels sorrows.

Bhagavad Gita Daily

09 Jan, 01:07


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक २०

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||

अनुवाद:
हे गुडाकेश (निद्राविजयी)! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं समस्त भूतों का आदि, मध्य और अंत भी हूँ।

BG 10.20:
O Conqueror of Sleep! I am the self (atman), seated in the hearts of all beings. I am the beginning, the middle, and the end of all beings, too.

Bhagavad Gita Daily

07 Jan, 23:56


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक ३

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ||


अनुवाद: हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है, और उन प्रयत्नशील मनुष्यों में भी कोई एक ही मुझे तत्व से जानता है।

BG 7.3: Among thousands of humans, scarcely one strives for perfection, and even among those striving, scarcely one knows Me in essence.

Bhagavad Gita Daily

07 Jan, 01:05


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ३२–३३

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् |
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ||
अथ चेतत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि |
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ||


अनुवाद: हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यशाली होते हैं जिनके लिए इस प्रकार का युद्ध स्वर्ग के खुले द्वार के समान अपने आप आ जाता है और यदि तुम इस धर्मयुद्ध में लड़ने से इनकार करोगे तो अपने धर्म और कीर्तिका त्याग करके अवश्य ही पाप को प्राप्त करोगे।

BG 2.32-33: O Partha! Happy are the kshatriyas to whom a war like this comes of its own accord, like an open door to heaven. Now, if you refuse to fight this war for the sake of dharma, having forsaken your duty and fame, you will certainly incur sin.

Bhagavad Gita Daily

06 Jan, 01:01


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक १०–११

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ||


अनुवाद: उस दिव्य विश्वरूप में, अर्जुन ने अनेकानेक मुखों और नेत्रों को देखा, जिनमें अनगिनत अद्भुत दृश्य थे और वो कई दिव्य आभूषणों से सुशोभित तथा कई दिव्य आयुधों को धारण किए हुए थे। दिव्य मालाओं तथा वस्त्रों को परिधान किए हुए दिव्य गंधों से लिपित होकर उन्होंने स्वयं को सर्वाश्चर्यमय, प्रकाशमान, और अनन्त के रूप में प्रकट किया था, जिनके मुखें सभी दिशाओं में थे।

BG 11.10-11: In that divine cosmic form, Arjuna beheld numerous mouths and eyes, possessing countless wondrous sights adorned with many celestial ornaments and wielding a multitude of uplifted divine weapons. Wearing heavenly garlands and garments anointed with divine fragrances, He revealed Himself as the all-wonderful, resplendent, and boundless one, having faces in all directions.

Bhagavad Gita Daily

05 Jan, 00:08


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ३५

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ||


अनुवाद: अपना धर्म, भले ही दोषयुक्त हो, दूसरे के बखूबी निभाए गए धर्म से श्रेष्ठ है। अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु को प्राप्त होना बेहतर है; दूसरे का धर्म भय से परिपूर्ण होता है।

BG 3.35: One's own dharma, even if imperfect, is superior to the well-performed dharma of another. Death while performing one's own dharma is superior; the dharma of another is fraught with fear.

Bhagavad Gita Daily

04 Jan, 00:43


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक २२

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||


अनुवाद: जो लोग केवल मुझ पर ध्यान केंद्रित करके मुझमें तल्लीन होकर मेरी पूजा करते हैं, मैं उन्हें वह प्रदान करता हूँ जिसकी उन्हें कमी है और जो उन्होंने पहले ही प्राप्त कर लिया है उसे संरक्षित करता हूँ।

BG 9.22: For those who worship me with minds focused on me alone and always immersed in me, I provide what they lack and preserve what they have already attained.

Bhagavad Gita Daily

03 Jan, 01:08


भगवद्गीता– अध्याय १३, श्लोक १५

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च |
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ||


अनुवाद: वह समस्त भूतों के भीतर भी हैं और बाहर भी; वह गतिहीन हैं और गतिमान भी। अपनी सूक्ष्मता के कारण वह समझ से परे हैं। वह दूर भी हैं और पास भी।

BG 13.15: It is inside all beings and outside as well; it is motionless and moving, too. Because of its subtlety, it is incomprehensible. It is far away and near, too.

Bhagavad Gita Daily

02 Jan, 02:20


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक १

श्रीभगवानुवाच |
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: |
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ||


अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा, "जो व्यक्ति कर्मफल पर आश्रित न होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वही संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्निहोत्र और क्रियाओं का त्याग किया है।"

BG 6.1: Sri Bhagavan said, "One who acts upon their duties without depending on the fruits of action is a renunciate and a yogi, not the one who has merely given up fire rituals and actions."

Bhagavad Gita Daily

01 Jan, 02:27


भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ७८

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||


अनुवाद: संजय ने कहा, "जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।"

BG 18.78: Sanjaya said, "Wherever Krishna, the Lord of Yoga, and Arjuna, the wielder of the bow, are present, prosperity, victory, opulence, and firm policy will undoubtedly prevail; this is my conviction."

Bhagavad Gita Daily

31 Dec, 02:31


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक २१

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||


अनुवाद: महान व्यक्ति जैसे आचरण करते हैं, दूसरे भी वही करते हैं; वह जो कुछ प्रमाण देते हैं, लोग उसी का अनुसरण करते हैं।

BG 3.21: Whatever a great person does, others also do; whatever standard they set, people follow accordingly.

Bhagavad Gita Daily

30 Dec, 02:45


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक १२

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् |
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ||


अनुवाद: सूर्य का जो तेज समस्त जगत को प्रकाशित करता है, जो चंद्रमा से आता है और जो अग्नि में चमकता है; उस तेज को मेरा ही जानो।

BG 15.12: The radiance of the sun that illuminates the entire world, that comes from the moon, and that shines in fire; know that radiance to be Mine.

Bhagavad Gita Daily

29 Dec, 01:40


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक ८

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय: ||


अनुवाद: अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर कर दो, तत्पश्चात तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

BG 12.8: Fix your mind and intellect solely on Me, and there is no doubt that you will dwell in Me thereafter.

Bhagavad Gita Daily

28 Dec, 01:55


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक १६

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ||

अनुवाद:
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले व्यक्ति मुझे भजते हैं: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी।

BG 7.16: O best among the Bharatas! Four kinds of people of virtuous deeds worship me: the distressed, the seeker of knowledge, the seeker of wealth, and the wise.

Bhagavad Gita Daily

27 Dec, 01:46


भगवद्गीता– अध्याय १७, श्लोक ८

आयु:सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: |
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया: ||


अनुवाद: सात्त्विक व्यक्ति आयु, सद्गुण, शक्ति, स्वास्थ्य, प्रसन्नता तथा संतोष बर्धक भोजन पसंद करते हैं। ऐसे भोज्य पदार्थ रसयुक्त, स्निग्ध (चिकनाई से युक्त), पौष्टिक तथा हृदय को प्रिय लगने वाले होते हैं।

BG 17.8: Sattvic people prefer foods that enhance life, virtue, strength, health, happiness, and satisfaction. Such foods are succulent, oleaginous, wholesome, and pleasant to the heart.

Bhagavad Gita Daily

26 Dec, 01:34


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ३

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ||

अनुवाद:
हे पार्थ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, क्योंकि यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हे शत्रु विनाशक! हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग कर उठ खड़े हो।

BG 2.3:
O Partha! Do not yield to unmanliness, as it doesn't befit you. Give up this petty weakness of heart and arise, O scorcher of foes!

Bhagavad Gita Daily

25 Dec, 03:55


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक १२–१३

अर्जुन उवाच |
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ||
आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ||


अनुवाद: अर्जुन ने कहा, "आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत दिव्य पुरुष, आदिदेव, जन्महीन और सर्वव्यापी हैं। समस्त ऋषिजन और देवर्षि नारद, तथा असित, देवल और व्यास आपका वर्णन इस प्रकार करते हैं। स्वयं आपने भी मुझे ऐसा कहा है।"

BG 10.12-13: Arjuna said, "You are the Supreme Brahman, the Supreme Abode, the Supreme Holiness, the Eternal Divine Being, the Primal God, Birthless, and Omnipresent. All the sages and the divine sage Narada, as well as Asita, Devala, and Vyasa, describe you thus. You Yourself have told me this too."

Bhagavad Gita Daily

24 Dec, 01:40


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २९

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||


अनुवाद: मुझे समस्त यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, सभी लोकों का महान् ईश्वर, तथा भूतमात्र का सच्चा मित्र जानकर, व्यक्ति शांति को प्राप्त करता है।

BG 5.29: Knowing Me to be the enjoyer of all sacrifices (yajnas) and austerities, the Supreme Lord of all worlds, and the true friend of all beings, one attains peace.

Bhagavad Gita Daily

22 Dec, 23:16


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक ५५

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित: |
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव ||

अनुवाद:
हे अर्जुन! जो भक्त मेरे लिए अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाहन करता है, मुझ पर निर्भर रहता है और मेरे प्रति समर्पित है, जो सभी आसक्तियों से मुक्त है और सभी प्राणियों के प्रति द्वेष रहित है, वह निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करता है।

BG 11.55:
O Arjuna! The devotee, who performs all their duties for My sake, depends upon Me and is devoted to Me, who is free from all attachments and is without malice toward all beings, certainly attains Me.

Bhagavad Gita Daily

22 Dec, 02:03


भगवद्गीता– अध्याय ४, श्लोक ११

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ||

अनुवाद:
हे पार्थ! जिस प्रकार से लोग मेरी पूजा करते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार अनुग्रह करता हूँ; क्योंकि सब प्रकार से वे मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

BG 4.11:
O Partha! In whatever way people worship me, I favour them accordingly, as they follow My path in every way.

Bhagavad Gita Daily

21 Dec, 01:27


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक १७

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ् क्षति |
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ||


अनुवाद: जो न हर्षित होते हैं और न द्वेष करते हैं, न शोक करते हैं और न आकांक्षा, तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देते हैं, वैसे भक्तिमान् व्यक्ति मुझे प्रिय हैं।

BG 12.17: Those who neither rejoice nor harbor hatred, neither lament nor desire, and renounce both good and evil actions—such devoted individuals are dear to me.

Bhagavad Gita Daily

20 Dec, 00:46


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक २६

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ||


अनुवाद: जो कोई मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल भी भक्ति से अर्पण करता है, मैं उस शुद्ध हृदय वाले व्यक्ति की भक्तिपूर्वक दी गई इस भेंट को स्वीकार करता हूँ।

BG 9.26: Whoever offers Me a leaf, a flower, a fruit, or even water with devotion, I accept this devoutly made offering by that pure-hearted person.

Bhagavad Gita Daily

19 Dec, 00:12


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक ८

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ||


अनुवाद: मैं समस्त सृष्टि का स्रोत हूँ, और सभी वस्तुएं मुझसे उत्पन्न होती हैं। यह जानकर, बुद्धिमान व्यक्ति भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे भजते हैं।

BG 10.8: I am the source of all creation, and everything evolves from Me. Realizing this, the wise, filled with devotion, worship Me.

Bhagavad Gita Daily

18 Dec, 01:23


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ५०

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् ||

अनुवाद:
बुद्धियुक्त व्यक्ति इस जीवन में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्मों को त्याग देता है। इसलिए, योग में रत हो जाओ, क्योंकि कर्मों में कुशलता ही योग है।

BG 2.50: Endowed with wisdom, one relinquishes both good and evil deeds in this life. Therefore, immerse yourself in Yoga, for Yoga is indeed proficiency in actions.

Bhagavad Gita Daily

17 Dec, 02:03


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक ६

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||

अनुवाद:
न सूर्य, न ही चन्द्रमा और न ही अग्नि उसे प्रकाशित करते हैं। मेरे परम धाम को प्राप्त करने के पश्चात् कोई (संसार में) लौटकर नहीं आता।

BG 15.6: Neither the sun, nor the moon, nor fire illuminates That. Having attained My Supreme Abode, one does not return (to the world).

Bhagavad Gita Daily

16 Dec, 00:05


भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ६६

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ||


अनुवाद: सभी धर्मों का परित्याग करके केवल मुझमें शरण लो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा; चिंता मत करो।

BG 18.66: Abandoning all dharmas, take refuge in Me alone. I shall liberate you from all sins; do not worry.

Bhagavad Gita Daily

15 Dec, 01:35


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ३४

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ||

अनुवाद: प्रत्येक इंद्रिय में अपने संबंधित इंद्रिय विषयों के प्रति राग और द्वेष होता है, लेकिन किसी को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे शत्रु हैं।

BG 3.34: Each sense has attachment and aversion for its corresponding sense objects, but one should not be under their control, for they are foes.

Bhagavad Gita Daily

14 Dec, 02:03


भगवद्गीता– अध्याय ८, श्लोक १७

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु: |
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना: ||


अनुवाद: जो व्यक्ति यह जानते हैं कि ब्रह्मा जी का एक दिन एक हजार युगों तक चलता है और उनकी एक रात भी उतनी ही अवधि की होती है, वे दिन और रात की सत्यता जानते हैं।

BG 8.17: Those who know that a day of Brahma lasts a thousand ages (yugas) and a night of his is also of equal duration know the truth about day and night.

Bhagavad Gita Daily

12 Dec, 23:44


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक ११

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: |
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ||


अनुवाद: उन (भक्तों) पर अनुग्रह करके, मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

BG 10.11: Out of compassion for them (the devotees), I, dwelling in their self (atman), destroy the darkness born of ignorance with the luminous lamp of knowledge.

Bhagavad Gita Daily

08 Dec, 01:51


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक २२

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||


अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा, "हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरे लिए न कोई कर्तव्य है, न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्मरत हूँ।"

BG 3.22: Sri Bhagavan said, "O Partha! In the three worlds, there is no duty for Me to perform, nothing unattained that needs to be attained, yet I remain engaged in action."

Bhagavad Gita Daily

07 Dec, 02:36


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक १९

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता |
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन: ||


अनुवाद: वायुरहित स्थान पर दीपक की लौ झिलमिलाहट नहीं करती। इस दृष्टांत का प्रयोग आत्मयोग में लीन योगी के नियंत्रित मन के लिए किया जाता है।

BG 6.19: The flame of a lamp in a windless place doesn't flicker. This analogy is used for the controlled mind of a yogi absorbed in the yoga of the self (atman).

Bhagavad Gita Daily

06 Dec, 02:15


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक २२

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: |
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ||


अनुवाद: वेदों में मैं सामवेद हूँ और देवताओं में मैं इंद्र हूँ; इंद्रियों में मैं मन हूँ और मैं भूतों की चेतना हूँ।

BG 10.22: Among the Vedas, I am the Samaveda, and among the devatas, I am Indra; among the senses, I am the mind, and I am the consciousness in beings.

Bhagavad Gita Daily

05 Dec, 01:07


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २३

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ||


अनुवाद: जो व्यक्ति इस लोक में शरीर त्यागने से पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होते हैं, वे योगी और सुखी मनुष्य हैं।

BG 5.23: The person who is able to withstand the impulse arising from desire and anger before departing from the body in this world is a yogi and a happy person.

Bhagavad Gita Daily

04 Dec, 01:55


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक ९

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ||


अनुवाद: मैं धरती की पवित्र सुगन्ध, अग्नि का तेज, समस्त भूतों में प्राण और तपस्वियों में तप हूँ।

BG 7.9: I am the pure fragrance of the earth, the brilliance in fire, the life in all beings, and the austerity in the ascetics.

Bhagavad Gita Daily

03 Dec, 01:04


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ६२-६३

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ||
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||


अनुवाद: इन्द्रियों के विषयों के बारेमे ही चिन्तन करने वाला व्यक्ति उनमें आसक्त हो जाता है । आसक्ति कामना की ओर ले जाती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मृतिभ्रम; स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।

BG 2.62-63: A person who thinks solely about sense objects develops an attachment to them. Attachment leads to desire, and from desire arises anger. Anger induces delusion, and delusion leads to confusion of memory; from confusion of memory comes loss of intellect, and loss of intellect leads to outright perishment.

Bhagavad Gita Daily

02 Dec, 00:12


भगवद्गीता– अध्याय १६, श्लोक १-३

श्रीभगवानुवाच |
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: |
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् |
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता |
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ||


अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा, "हे भरतवंशी! भय का अभाव, मन की शुद्धि, ज्ञान और योग में स्थिरता, दान, आत्मसंयम, यज्ञ, शास्त्र अध्ययन, तप और सरलता; अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, द्वेष का अभाव, भूतमात्र के प्रति दया, लोभ का अभाव, कोमलता, लज्जा, और चपलता का अभाव; तेज, क्षमा, धैर्य, शौच, घृणा तथा गर्व का अभाव—ये सब दैवी सम्पदा के साथ जन्मे व्यक्ति के लक्षण हैं।"

BG 16.1-3: Sri Bhagavan said, "O descendant of Bharata! Absence of fear, purity of mind, steadfastness in knowledge and yoga, charity, self-control, sacrifice (yajna), study of scriptures, austerity, and simplicity; non-violence, truthfulness, absence of anger, renunciation, tranquility, absence of malice, compassion towards all beings, absence of greed, gentleness, modesty, and absence of fickleness; vigour, forgiveness, perseverance, cleanliness, absence of hatred as well as pride—these are the qualities of one born with divine wealth."

Bhagavad Gita Daily

01 Dec, 01:50


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक ३०

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: ||


अनुवाद: यदि कोई अत्यंत दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मुझे भजता है, तो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि उसने उचित संकल्प लिया है।

BG 9.30: Even if an extremely sinful person worships Me with exclusive devotion, he should certainly be considered righteous, because he has taken the right resolve.

Bhagavad Gita Daily

30 Nov, 00:13


भगवद्गीता– अध्याय १७, श्लोक १६

मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: |
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ||

अनुवाद:
मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म-नियंत्रण और भावों की शुद्धि; इन सबको मानसिक तप कहा जाता है।

BG 17.16:
Tranquility of mind, gentleness, silence, self-control, and purity of emotions; these are called the mental austerities.

Bhagavad Gita Daily

29 Nov, 02:35


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक ८

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय: |
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन: ||

अनुवाद:
वे योगी, जिनका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, जो किसी भी परिस्थिति में निर्विकार रहते हैं, जो अपने इंद्रियों पर विजय प्राप्ति कर चुके हैं और जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने के टुकड़े को एक समान देखते हैं, उन्हे युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।

BG 6.8:
The yogi, whose self (atman) is content with knowledge and wisdom, who remains unmoved under any circumstances, who has conquered their senses, and who looks upon a lump of earth, a stone, and a piece of gold equally, is said to have achieved union.

Bhagavad Gita Daily

28 Nov, 00:03


भगवद्गीता– अध्याय ४, श्लोक १-३

श्रीभगवानुवाच |
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: |
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप ||
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन: |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ||


अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा, "मैंने यह अविनाशी योग सूर्यदेव को सिखाया, जिन्होंने इसे मनु को बताया, और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया। हे शत्रु विनाशक! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना; परन्तु, बहुत समय बीत जाने के कारण यह योग इस लोक में लुप्तप्राय हो गया। वह पुरातन योग, जो वास्तव में सर्वोच्च रहस्य है, आज मैंने तुम्हें सिखाया है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो।"

BG 4.1-3: Sri Bhagavan said, "I taught this imperishable Yoga to Surya, who conveyed it to Manu, and Manu imparted it to Ikshvaku. O scorcher of foes! Thus received through succession, the royal sages knew this; however, due to the long passage of time, this Yoga was lost in this world. That very ancient Yoga, which is indeed the supreme secret, has been taught to you by me today, for you are my devotee and friend."

Bhagavad Gita Daily

27 Nov, 02:06


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक १५

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||

अनुवाद:
मैं सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान रहता हूँ और मुझसे स्मृति, ज्ञान तथा अपोहन (उनका अभाव) भी उत्पन्न होता है। वस्तुतः, मैं ही वेदों का ज्ञान, वेदांत का प्रवर्तक, और वेदों का ज्ञाता हूँ।

BG 15.15:
I remain seated in the hearts of all beings, and from Me come memory, knowledge, as well as their absence. Indeed, I am the knowledge of the Vedas, the originator of Vedanta, and the knower of the Vedas.

Bhagavad Gita Daily

26 Nov, 01:07


भगवद्गीता– अध्याय ८, श्लोक १३

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||


अनुवाद: जो व्यक्ति एकाक्षर ब्रह्म 'ॐ' का उच्चारण करते हुए और मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्याग देते हैं वह परम गति को प्राप्त होते हैं।

BG 8.13: One who departs from the body uttering the single-syllable Brahman 'Om' and remembering Me attains the Supreme Goal.

Bhagavad Gita Daily

25 Nov, 01:37


भगवद्गीता– अध्याय १४, श्लोक ९

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रज: कर्मणि भारत |
ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे सञ्जयत्युत ||


अनुवाद: हे भरतवंशी! सत्त्वगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्म में, जबकि तमोगुण ज्ञानको ढककर प्रमाद में लगाता है।

BG 14.9: O descendant of Bharata! Sattva attaches to happiness, Rajas to action, while Tamas veils up knowledge and attaches to negligence.

Bhagavad Gita Daily

24 Nov, 00:13


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक ७

मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||

अनुवाद:
हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। यह सबकुछ मुझमें ऐसे पिरोया हुआ है, जैसे धागे में मणियाँ।

BG 7.7: O Dhananjaya! There is nothing superior to Me. All this is strung on Me like gems on a thread.

Bhagavad Gita Daily

22 Nov, 23:48


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक २१

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||


अनुवाद: महान व्यक्ति जैसे आचरण करते हैं, दूसरे भी वही करते हैं; वह जो कुछ प्रमाण देते हैं, लोग उसी का अनुसरण करते हैं।

BG 3.21: Whatever a great person does, others also do; whatever standard they set, people follow accordingly.

Bhagavad Gita Daily

22 Nov, 00:08


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक २७

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ||


अनुवाद: वास्तव में, जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु निश्चित है, और मरने वाले के लिए जन्म निश्चित है; इसलिए, जो अपरिहार्य है तुम्हें उस पर शोक नहीं करना चाहिए।

BG 2.27: Indeed, death is certain for the born, and certain is birth for the dead; therefore, you should not grieve over the inevitable.

Bhagavad Gita Daily

20 Nov, 23:48


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक १२–१३

अर्जुन उवाच |
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ||
आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ||


अनुवाद: अर्जुन ने कहा, "आप परम ब्रह्म, परम धाम, परम पवित्र, शाश्वत दिव्य पुरुष, आदिदेव, जन्महीन और सर्वव्यापी हैं। समस्त ऋषिजन और देवर्षि नारद, तथा असित, देवल और व्यास आपका वर्णन इस प्रकार करते हैं। स्वयं आपने भी मुझे ऐसा कहा है।"

BG 10.12-13: Arjuna said, "You are the Supreme Brahman, the Supreme Abode, the Supreme Holiness, the Eternal Divine Being, the Primal God, Birthless, and Omnipresent. All the sages and the divine sage Narada, as well as Asita, Devala, and Vyasa, describe you thus. You Yourself have told me this too."

Bhagavad Gita Daily

19 Nov, 23:58


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक ४६

तपस्विभ्योऽधिकोयोगी ज्ञानिभ्योऽपिमतोऽधिक: |
कर्मिभ्यश्चाधिकोयोगी
तस्माद्योगीभवार्जुन ||


अनुवाद: योगी तपस्वियों से, शास्त्रज्ञों से और कर्मियों से भी श्रेष्ठ होते हैं। अतः हे अर्जुन! तुम योगी बनो।

BG 6.46: The yogi is superior to the ascetics, the learned, and the performers of actions. Therefore, O Arjuna! Be a yogi.

Bhagavad Gita Daily

19 Nov, 00:02


भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ५८

मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ||


अनुवाद: अपने मन को मेरे प्रति समर्पित करके तुम मेरी कृपा से सभी बाधाओं को पार कर जाओगे। परंतु यदि अहंकारवश तुम मेरी बातों की उपेक्षा करोगे, तो तुम्हारा विनाश हो जाएगा।

BG 18.58: With your mind devoted to Me, you shall, by My grace, overcome all obstacles. But if, driven by ego, you disregard My words, you shall perish.

Bhagavad Gita Daily

18 Nov, 00:34


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक २२

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||


अनुवाद: जो लोग केवल मुझ पर ध्यान केंद्रित करके मुझमें तल्लीन होकर मेरी पूजा करते हैं, मैं उन्हें वह प्रदान करता हूँ जिसकी उन्हें कमी है और जो उन्होंने पहले ही प्राप्त कर लिया है उसे संरक्षित करता हूँ।

BG 9.22: For those who worship me with minds focused on me alone and always immersed in me, I provide what they lack and preserve what they have already attained.

Bhagavad Gita Daily

17 Nov, 00:12


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक ९

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ||


अनुवाद: हे धनञ्जय! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में असमर्थ हो, तो अभ्यासयोग के माध्यम से मुझे प्राप्त करने का प्रयत्न करो।

BG 12.9: O Dhananjaya! If you are unable to focus your mind steadily on Me, seek to attain Me through the yoga of practice.

Bhagavad Gita Daily

16 Nov, 02:08


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक १०

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य: |
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||


अनुवाद: जो व्यक्ति सभी कर्मों को ब्रह्म में अर्पित करके आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, वे पाप से उसी प्रकार से अप्रभावित रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पत्ते को जल छू नहीं पाता।

BG 5.10: One who performs actions, dedicating them to Brahman and renouncing all attachments, remains unaffected by sin, just as a lotus leaf remains untouched by water.

Bhagavad Gita Daily

15 Nov, 02:19


भगवद्गीता– अध्याय १३, श्लोक १६

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ||

अनुवाद:
अविभक्त होते हुए भी वह समस्त भूतों में विभक्त के समान विद्यमान हैं। उन्हें समस्त भूतों के पालनकर्ता, संहारक और निर्माता के रूप में जानो।

BG 13.16:
Although undivided, it exists in every being in divided form. Know it as the sustainer, destroyer, and creator of all beings.

Bhagavad Gita Daily

14 Nov, 02:19


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ३

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ||

अनुवाद:
हे पार्थ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, क्योंकि यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हे शत्रु विनाशक! हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग कर उठ खड़े हो।

BG 2.3:
O Partha! Do not yield to unmanliness, as it doesn't befit you. Give up this petty weakness of heart and arise, O scorcher of foes!

Bhagavad Gita Daily

13 Nov, 01:04


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक ६

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||

अनुवाद:
न सूर्य, न ही चन्द्रमा और न ही अग्नि उसे प्रकाशित करते हैं। मेरे परम धाम को प्राप्त करने के पश्चात् कोई (संसार में) लौटकर नहीं आता।

BG 15.6: Neither the sun, nor the moon, nor fire illuminates That. Having attained My Supreme Abode, one does not return (to the world).

Bhagavad Gita Daily

12 Nov, 01:30


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक १६

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ||

अनुवाद:
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले व्यक्ति मुझे भजते हैं: आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी।

BG 7.16: O best among the Bharatas! Four kinds of people of virtuous deeds worship me: the distressed, the seeker of knowledge, the seeker of wealth, and the wise.

Bhagavad Gita Daily

11 Nov, 01:08


भगवद्गीता– अध्याय १४, श्लोक २७

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च |
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ||


अनुवाद: क्योंकि अमर और अविनाशी ब्रह्म, शाश्वत धर्म और परम आनंद का आश्रय मैं ही हूँ।
 
BG 14.27: For I am the abode of Brahman, the immortal and imperishable, of the eternal dharma, and of absolute bliss.

Bhagavad Gita Daily

10 Nov, 00:01


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ३८

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ||

अनुवाद: जैसे आग धुएं से, दर्पण धूल से और गर्भ गर्भाशय से आवृत होता है, वैसे ही ज्ञान कामना से आवृत हो जाता है।

BG 3.38: As fire is covered by smoke, a mirror by dust, and the fetus by the womb, likewise, knowledge is shrouded by desire.

Bhagavad Gita Daily

08 Nov, 23:37


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक ३८

त्वमादिदेव: पुरुष: पुराण
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||


अनुवाद: अर्जुन ने कहा, "आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस विश्व के परम आश्रय हैं। आप सबको जाननेवाले भी हैं और जानने योग्य भी, आप ही परम धाम हैं। केवल आप ही अनंत रूप धारण करके संपूर्ण विश्व में व्याप्त हैं।"

BG 11.38: Arjuna said, "You are the primal God, the ancient person; you are the ultimate resort of this world. You are both the knower and worth knowing; you are the Supreme Abode. You alone pervade the entire world, assuming endless forms."

Bhagavad Gita Daily

08 Nov, 00:04


भगवद्गीता– अध्याय ४, श्लोक ३८

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ||

अनुवाद:
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, निःसन्देह, कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध व्यक्ति समय के साथ स्वयं ही उसे आत्मा में प्राप्त कर लेते हैं।

BG 4.38: Indeed, there is no purifier in this world like knowledge. A person who is accomplished in yoga attains that in the self (atman) on their own accord over time.

Bhagavad Gita Daily

06 Nov, 23:36


भगवद्गीता– अध्याय १, श्लोक ४०

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ||

अनुवाद:
अर्जुन ने कहा, "कुल के नष्ट होने से सनातन कुलधर्म का नाश हो जाता है। धर्म का नाश होने से अधर्म संपूर्ण कुल पर हावी हो जाता है।"

BG 1.40:
Arjuna said, "When the family line is destroyed, the eternal family dharma perishes. With the perishing of dharma, adharma dominates the entire family line."

Bhagavad Gita Daily

06 Nov, 00:11


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक ३१

पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् |
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ||


अनुवाद: पवित्र करनेवालों में मैं वायु हूँ और शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ; मत्सादि जलचरों में मैं मगर हूँ और नदियों में मैं गंगा हूँ।

BG 10.31:
Among purifiers, I am the wind, and among wielders of weapons, I am Rama; among aquatics like fish, I am the crocodile, and among rivers, I am the Ganga.

Bhagavad Gita Daily

04 Nov, 23:54


भगवद्गीता– अध्याय १७, श्लोक ८-१०

आयु:सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: |
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया: ||
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन: |
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा: ||
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् |
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ||


अनुवाद: सात्त्विक व्यक्ति आयु, सद्गुण, शक्ति, स्वास्थ्य, प्रसन्नता तथा संतोष बर्धक भोजन पसंद करते हैं। ऐसे भोज्य पदार्थ रसयुक्त, स्निग्ध (चिकनाई से युक्त), पौष्टिक तथा हृदय को प्रिय लगने वाले होते हैं। राजासिक व्यक्ति कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गर्म, तीखे, सूखे और दाहकारक भोजन पसंद करते हैं। ऐसे भोज्य पदार्थों के सेवन से पीड़ा, शोक तथा रोग उत्पन्न होते हैं। तामसिक व्यक्ति अधपका, स्वादरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट तथा अपवित्र भोजन पसंद करते हैं।

BG 17.8-10: Sattvic people prefer foods that enhance life, virtue, strength, health, happiness, and satisfaction. Such foods are succulent, oleaginous, wholesome, and pleasant to the heart. Rajasic people prefer foods that are bitter, sour, salty, very hot, pungent, dry, and burning. Such foods produce pain, grief, and disease. Tamasic people prefer foods that are half-cooked, tasteless, putrid, stale, leftover, and impure.

Bhagavad Gita Daily

04 Nov, 01:10


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २९

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ||


अनुवाद: मुझे समस्त यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, सभी लोकों का महान् ईश्वर, तथा भूतमात्र का सच्चा मित्र जानकर, व्यक्ति शांति को प्राप्त करता है।

BG 5.29: Knowing Me to be the enjoyer of all sacrifices (yajnas) and austerities, the Supreme Lord of all worlds, and the true friend of all beings, one attains peace.

Bhagavad Gita Daily

02 Nov, 23:54


भगवद्गीता– अध्याय १२, श्लोक १७

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ् क्षति |
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ||


अनुवाद: जो न हर्षित होते हैं और न द्वेष करते हैं, न शोक करते हैं और न आकांक्षा, तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देते हैं, वैसे भक्तिमान् व्यक्ति मुझे प्रिय हैं।

BG 12.17: Those who neither rejoice nor harbor hatred, neither lament nor desire, and renounce both good and evil actions—such devoted individuals are dear to me.

Bhagavad Gita Daily

01 Nov, 23:56


भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ७८

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||


अनुवाद: संजय ने कहा, "जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं वहाँ निश्चित रूप से श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।"

BG 18.78: Sanjaya said, "Wherever Krishna, the Lord of Yoga, and Arjuna, the wielder of the bow, are present, prosperity, victory, opulence, and firm policy will undoubtedly prevail; this is my conviction."

Bhagavad Gita Daily

31 Oct, 23:40


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ४७

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||


अनुवाद: तुम्हें केवल अपने कर्म पर ही अधिकार है, उसके फल पर नहीं। कर्मफल को कभी भी अपना उद्देश्य बनने न दो और न ही अकर्म में आसक्त हो।

BG 2.47: You have the right to your action alone, not to the fruit thereof. Never let the fruit of action be your motive, and do not be attached to inaction either.

Bhagavad Gita Daily

30 Oct, 23:21


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक १९

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता |
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन: ||


अनुवाद: वायुरहित स्थान पर दीपक की लौ झिलमिलाहट नहीं करती। इस दृष्टांत का प्रयोग आत्मयोग में लीन योगी के नियंत्रित मन के लिए किया जाता है।

BG 6.19: The flame of a lamp in a windless place doesn't flicker. This analogy is used for the controlled mind of a yogi absorbed in the yoga of the self (atman).

Bhagavad Gita Daily

29 Oct, 23:48


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक २१-२२

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति |
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ||
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते |
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् ||

अनुवाद:
जो भक्त श्रद्धापूर्वक जिस दिव्य स्वरूप की पूजा करना चाहता है, मैं उसकी आस्था उसी स्वरूप में स्थिर कर देता हूँ। आस्था से संपन्न भक्त उस विशेष दिव्य स्वरूप की पूजा करता है और अपनी वांछित वस्तुएँ प्राप्त करता है जो मेरे द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं।

BG 7.21-22:
Whatever divine form a devotee seeks to worship with reverence, I stabilize their faith in that very form. Endowed with faith, the devotee worships that particular divine form and obtains their objects of desire, which are determined by Me alone.

Bhagavad Gita Daily

28 Oct, 23:54


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक २०

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||

अनुवाद:
हे गुडाकेश (निद्राविजयी)! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं समस्त भूतों का आदि, मध्य और अंत भी हूँ।

BG 10.20:
O Conqueror of Sleep! I am the self (atman), seated in the hearts of all beings. I am the beginning, the middle, and the end of all beings, too.

Bhagavad Gita Daily

27 Oct, 23:31


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक २२

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||


अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा, "हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरे लिए न कोई कर्तव्य है, न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्मरत हूँ।"

BG 3.22: Sri Bhagavan said, "O Partha! In the three worlds, there is no duty for Me to perform, nothing unattained that needs to be attained, yet I remain engaged in action."

Bhagavad Gita Daily

26 Oct, 23:58


भगवद्गीता– अध्याय १३, श्लोक ३३

यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: |
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ||


अनुवाद: हे भरतवंशी! जिस प्रकार से एक ही सूर्य सारे जगत को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार से आत्मा पूरे शरीर को प्रकाशित करती है।

BG 13.33: O descendant of Bharata! Just as one sun illuminates the entire world, so does the self (atman) illuminate the entire body.

Bhagavad Gita Daily

25 Oct, 23:46


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक ६

यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान् |
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ||


अनुवाद: जैसे सर्वत्र विचरण करने वाली महान् वायु सदा आकाश में स्थित रहती है, वैसे ही समस्त भूत मुझमें स्थित रहते हैं।

BG 9.6: Just as the mighty wind, moving everywhere, always resides in the sky, similarly, all beings reside in Me.

Bhagavad Gita Daily

24 Oct, 23:39


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक १

श्रीभगवानुवाच |
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: |
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ||


अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा, "जो व्यक्ति कर्मफल पर आश्रित न होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वही संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्निहोत्र और क्रियाओं का त्याग किया है।"

BG 6.1: Sri Bhagavan said, "One who acts upon their duties without depending on the fruits of action is a renunciate and a yogi, not the one who has merely given up fire rituals and actions."

Bhagavad Gita Daily

23 Oct, 23:58


भगवद्गीता– अध्याय ४, श्लोक ११

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ||

अनुवाद:
हे पार्थ! जिस प्रकार से लोग मेरी पूजा करते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार अनुग्रह करता हूँ; क्योंकि सब प्रकार से वे मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

BG 4.11:
O Partha! In whatever way people worship me, I favour them accordingly, as they follow My path in every way.

Bhagavad Gita Daily

23 Oct, 00:07


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक ५५

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित: |
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव ||

अनुवाद:
हे अर्जुन! जो भक्त मेरे लिए अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाहन करता है, मुझ पर निर्भर रहता है और मेरे प्रति समर्पित है, जो सभी आसक्तियों से मुक्त है और सभी प्राणियों के प्रति द्वेष रहित है, वह निश्चित रूप से मुझे प्राप्त करता है।

BG 11.55:
O Arjuna! The devotee, who performs all their duties for My sake, depends upon Me and is devoted to Me, who is free from all attachments and is without malice toward all beings, certainly attains Me.

Bhagavad Gita Daily

22 Oct, 00:04


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक १६

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: |
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि: ||

अनुवाद:
असत् का कोई अस्तित्व नहीं है, और सत् का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता; इन दोनों की प्रकृति तत्त्वदर्शियों द्वारा देखी गई है।

BG 2.16:
The unreal has no existence, and the real never ceases to be; the nature of both has been perceived by the seers of truth.

Bhagavad Gita Daily

20 Oct, 23:46


भगवद्गीता– अध्याय १६, श्लोक १-३

श्रीभगवानुवाच |
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: |
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् |
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता |
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ||


अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा, "हे भरतवंशी! भय का अभाव, मन की शुद्धि, ज्ञान और योग में स्थिरता, दान, आत्मसंयम, यज्ञ, शास्त्र अध्ययन, तप और सरलता; अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, द्वेष का अभाव, भूतमात्र के प्रति दया, लोभ का अभाव, कोमलता, लज्जा, और चपलता का अभाव; तेज, क्षमा, धैर्य, शौच, घृणा तथा गर्व का अभाव—ये सब दैवी सम्पदा के साथ जन्मे व्यक्ति के लक्षण हैं।"

BG 16.1-3: Sri Bhagavan said, "O descendant of Bharata! Absence of fear, purity of mind, steadfastness in knowledge and yoga, charity, self-control, sacrifice (yajna), study of scriptures, austerity, and simplicity; non-violence, truthfulness, absence of anger, renunciation, tranquility, absence of malice, compassion towards all beings, absence of greed, gentleness, modesty, and absence of fickleness; vigour, forgiveness, perseverance, cleanliness, absence of hatred as well as pride—these are the qualities of one born with divine wealth."

Bhagavad Gita Daily

20 Oct, 00:14


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २७–२८

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: |
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ||
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: |
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ||

अनुवाद:
बाहरी आनंद के सभी विचारों को बंद करके, भौहों के बीच की जगह पर दृष्टि केंद्रित करके, नासिका में आने वाली और जाने वाली श्वास के प्रवाह को बराबर करते हुए इंद्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित करके जो मुनि कामनाओं और भय से मुक्त हो जाता है, वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
 

BG 5.27-28: Shutting out all thoughts of external enjoyment, with the gaze fixed on the space between the eyebrows, equalizing the flow of the incoming and outgoing breath in the nostrils, and thus controlling the senses, mind, and intellect, the sage, who becomes free from desire and fear, always lives in freedom.

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19 Oct, 00:05


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक ९

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ||


अनुवाद: मैं धरती की पवित्र सुगन्ध, अग्नि का तेज, समस्त भूतों में प्राण और तपस्वियों में तप हूँ।

BG 7.9: I am the pure fragrance of the earth, the brilliance in fire, the life in all beings, and the austerity in the ascetics.

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17 Oct, 23:49


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ३४

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ||

अनुवाद: प्रत्येक इंद्रिय में अपने संबंधित इंद्रिय विषयों के प्रति राग और द्वेष होता है, लेकिन किसी को उनके वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे शत्रु हैं।

BG 3.34: Each sense has attachment and aversion for its corresponding sense objects, but one should not be under their control, for they are foes.

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16 Oct, 23:51


भगवद्गीता– अध्याय १०, श्लोक ११

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: |
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ||


अनुवाद: उन (भक्तों) पर अनुग्रह करके, मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

BG 10.11: Out of compassion for them (the devotees), I, dwelling in their self (atman), destroy the darkness born of ignorance with the luminous lamp of knowledge.

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16 Oct, 01:12


भगवद्गीता– अध्याय ८, श्लोक १३

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||


अनुवाद: जो व्यक्ति एकाक्षर ब्रह्म 'ॐ' का उच्चारण करते हुए और मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्याग देते हैं वह परम गति को प्राप्त होते हैं।

BG 8.13: One who departs from the body uttering the single-syllable Brahman 'Om' and remembering Me attains the Supreme Goal.

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15 Oct, 00:04


भगवद्गीता– अध्याय ६, श्लोक २६

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् |
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||


अनुवाद: जहाँ भी चंचल और अस्थिर मन भटकता हो, उसे वहीं से रोककर, आत्मा के नियंत्रण में लाना चाहिए।

BG 6.26: From wherever the unsteady and fickle mind wanders, restraining it from there, one should bring it under the control of the self (atman).

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13 Oct, 23:47


भगवद्गीता– अध्याय १८, श्लोक ६८-६९

य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय: ||

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: |
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ||


अनुवाद: जो भी मुझमें परम भक्ति के साथ इस परम गोपनीय ज्ञान को मेरे भक्तों को सुनाएगा, वह निस्संदेह मुझे प्राप्त करेगा। मनुष्यों में उस से अधिक मेरा प्रिय कार्य करने वाला कोई भी नहीं है, और भूमंडल में उस से अधिक मेरा प्रिय दूसरा कोई भी नहीं होगा।

BG 18.68-69: Whoever, with supreme devotion to Me, imparts this supreme secret to My devotees will undoubtedly attain Me. There is no one among humans who performs a service dearer to Me than they, and there will never be anyone dearer to Me on earth.

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13 Oct, 00:39


भगवद्गीता– अध्याय ७, श्लोक ३

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ||


अनुवाद: हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है, और उन प्रयत्नशील मनुष्यों में भी कोई एक ही मुझे तत्व से जानता है।

BG 7.3: Among thousands of humans, scarcely one strives for perfection, and even among those striving, scarcely one knows Me in essence.

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12 Oct, 00:12


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक १२

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् |
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ||


अनुवाद: सूर्य का जो तेज समस्त जगत को प्रकाशित करता है, जो चंद्रमा से आता है और जो अग्नि में चमकता है; उस तेज को मेरा ही जानो।

BG 15.12: The radiance of the sun that illuminates the entire world, that comes from the moon, and that shines in fire; know that radiance to be Mine.

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11 Oct, 00:06


भगवद्गीता– अध्याय १७, श्लोक १६

मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: |
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ||

अनुवाद:
मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म-नियंत्रण और भावों की शुद्धि; इन सबको मानसिक तप कहा जाता है।

BG 17.16:
Tranquility of mind, gentleness, silence, self-control, and purity of emotions; these are called the mental austerities.

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09 Oct, 23:46


भगवद्गीता– अध्याय ४, श्लोक १३

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ||

अनुवाद:
गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, तथापि तुम मुझे अकर्ता और अपरिवर्ती जानो।

BG 4.13:
The four orders of society were created by Me, classifying them in accordance with qualities and actions. Although I am the creator of this system, know Me as non-doer and changeless.

Bhagavad Gita Daily

09 Oct, 00:13


भगवद्गीता– अध्याय २, श्लोक ६३

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||

अनुवाद:
क्रोध से मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मृतिभ्रम; स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।

BG 2.63:
Anger induces delusion, and delusion leads to confusion of memory; from confusion of memory comes loss of intellect, and loss of intellect leads to outright perishment.

Bhagavad Gita Daily

08 Oct, 00:08


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक १०–११

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ||


अनुवाद: उस दिव्य विश्वरूप में, अर्जुन ने अनेकानेक मुखों और नेत्रों को देखा, जिनमें अनगिनत अद्भुत दृश्य थे और वो कई दिव्य आभूषणों से सुशोभित तथा कई दिव्य आयुधों को धारण किए हुए थे। दिव्य मालाओं तथा वस्त्रों को परिधान किए हुए दिव्य गंधों से लिपित होकर उन्होंने स्वयं को सर्वाश्चर्यमय, प्रकाशमान, और अनन्त के रूप में प्रकट किया था, जिनके मुखें सभी दिशाओं में थे।

BG 11.10-11: In that divine cosmic form, Arjuna beheld numerous mouths and eyes, possessing countless wondrous sights adorned with many celestial ornaments and wielding a multitude of uplifted divine weapons. Wearing heavenly garlands and garments anointed with divine fragrances, He revealed Himself as the all-wonderful, resplendent, and boundless one, having faces in all directions.

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07 Oct, 00:26


भगवद्गीता– अध्याय १३, श्लोक १६

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ||

अनुवाद:
अविभक्त होते हुए भी वह समस्त भूतों में विभक्त के समान विद्यमान हैं। उन्हें समस्त भूतों के पालनकर्ता, संहारक और निर्माता के रूप में जानो।

BG 13.16:
Although undivided, it exists in every being in divided form. Know it as the sustainer, destroyer, and creator of all beings.

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05 Oct, 23:53


भगवद्गीता– अध्याय ५, श्लोक २३

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ||


अनुवाद: जो व्यक्ति इस लोक में शरीर त्यागने से पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होते हैं, वे योगी और सुखी मनुष्य हैं।

BG 5.23: The person who is able to withstand the impulse arising from desire and anger before departing from the body in this world is a yogi and a happy person.

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04 Oct, 23:42


भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक ६

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते ||

अनुवाद:
जो व्यक्ति कर्मेन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं, परन्तु मन में इंद्रिय विषयों का चिंतन करते रहते हैं, वे मूढमती होते हैं और मिथ्याचारी कहलाते हैं।

BG 3.6:
Those who restrain the organs of action but continue to ponder over sense objects in the mind are deluded and are called hypocrites.

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04 Oct, 00:59


भगवद्गीता– अध्याय १५, श्लोक १५

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||

अनुवाद:
मैं सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान रहता हूँ और मुझसे स्मृति, ज्ञान तथा अपोहन (उनका अभाव) भी उत्पन्न होता है। वस्तुतः, मैं ही वेदों का ज्ञान, वेदांत का प्रवर्तक, और वेदों का ज्ञाता हूँ।

BG 15.15:
I remain seated in the hearts of all beings, and from Me come memory, knowledge, as well as their absence. Indeed, I am the knowledge of the Vedas, the originator of Vedanta, and the knower of the Vedas.

Bhagavad Gita Daily

03 Oct, 00:18


भगवद्गीता– अध्याय ९, श्लोक २९

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ||

अनुवाद:
मैं समस्त भूतों के प्रति समभाव रखता हूँ, न कोई मुझे घृणित है और न ही प्रिय। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मुझे भजते हैं, वे मुझ में हैं, और मैं भी उन में हूँ।

BG 9.29: I am equanimous to all beings; there is none hateful or dear to Me. But those who worship Me with devotion are in Me, and I am in them as well.

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02 Oct, 00:47


भगवद्गीता– अध्याय ११, श्लोक ३८

त्वमादिदेव: पुरुष: पुराण
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||


अनुवाद: अर्जुन ने कहा, "आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस विश्व के परम आश्रय हैं। आप सबको जाननेवाले भी हैं और जानने योग्य भी, आप ही परम धाम हैं। केवल आप ही अनंत रूप धारण करके संपूर्ण विश्व में व्याप्त हैं।"

BG 11.38: Arjuna said, "You are the primal God, the ancient person; you are the ultimate resort of this world. You are both the knower and worth knowing; you are the Supreme Abode. You alone pervade the entire world, assuming endless forms."