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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र (Hindi)

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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

04 Sep, 13:27


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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

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Yoga Sutras | योग सूत्र

23 Jun, 05:04


कैवल्य का अनुभव 4.26-4.34

तब विवेक चित्त को कैवल्य की ओर धकेल देता है।4.26 तब भी आने वाले अंतरालों में संस्कारों (अनुभवों की छाप) के कारण भटका सकते हैं।4.27 पहले बताए अनुसार ऐसे क्लेश कारकों को रोकना चाहिए।4.28 विवेक में भी ललक रहित होने से धर्म-मेघ समाधि होती है।4.29 इससे क्लेशकारी कर्म हट जाते हैं।4.30 तब सभी पर्दे एवं अशुद्धियाँ दूर होकर ही अनंत ज्ञान की प्राप्ति होती है।4.31 तब प्रयोजन को पूर्ण करके त्रिगुणों का क्रम समाप्त हो जाता है।44.32 क्षणों की शृंखलाओं के परिणाम से ग्रहणीय क्रम होता है।4.33 पुरुषार्थ के पूर्ण होने पर त्रिगुण अपने स्रोत में वापिस स्थित हो जाते हैं। चित्त अपनी शक्ति सहित स्थिर हो जाता है। तब आपे में स्थित अवस्था कैवल्य(केवल लयमयी ) होती है।4.34

इति कैवल्य पाद, योग सूत्र ।

Yoga Sutras | योग सूत्र

23 Jun, 05:01


इच्छा अभिव्यक्ति एवं सिद्ध चित्त का व्यवहार 4.7-4.25

योगियों के कर्म न काले न सफ़ेद होते हैं । परंतु अन्य के तीन प्रकार के होते हैं।4.7 इस कारण उनके अनुसार ही इच्छाओं के फलों की अभिव्यक्ति होती है।4.8 संस्कारों के मिलने पर वर्ग, स्थान एवं समय के कारण रुकी इच्छाएं भी क्षण भर में खड़ी हो जाती हैं।4.9 ये सदा से हैं, क्योंकि घटित होने की इच्छा सनातन है।4.10 प्रयोजन एवं फल पर आधारित ये इकट्ठी होती हैं व इनके अभाव में नहीं होती ।4.11 अभिव्यक्त हो चुकी एवं होने वाली अस्तित्व में तो हैं; बस समय आने पर धारण होतीं हैं।4.12 वे प्रकट एवं सूक्ष्म गुणों के रूप में हैं।4.13 उनके (गुण धर्मों के) एक होने पर वस्तु का मूल तत्व बनता है।4.14 एक ही वस्तु, विभिन्न चित्तों के विभन्न ढंगों से विभन्न दिखाई देती है।4.15 वस्तु एक ही दृष्टिकोण पर निर्भर नहीं है। यदि वह प्रत्यक्ष या अनुमानित नहीं हो तो कैसी होगी?।4.16 तब जानने की इच्छा से चित्त पर उसका प्रतिबिंब पड़ने पर ही उसका ज्ञान होगा; अन्यथा नहीं होगा।4.17 चित्त में बनने वाली आकृतियों को जानने वाला उसका स्वामी पुरुष है, जो कभी नहीं बदलता।4.18 न ही यह अपना आभास करता है क्योंकि यह तो खुद दृष्टा है।4.19 एक समय में दोनों धारण नहीं हो सकते।4.20 चित्त में दृश्य के ज्ञान व अनुभव की छाप मिलने से अस्त-व्यस्तता होती है।4.21 जैसे ही चित्त न बदलने वाले अपने स्वरूप को पहचानता है वह अपने बोध का सूक्ष्मता से ग्रहणकर्ता बन जाता है।4.22 दृष्टा एवं दृश्य दोनों से रंगा हुआ चित्त सब अर्थों को जानने वाला हो जाता है।4.23 तब भी असंख्य वासनाओं से चित्रित चित्त अपने दायरे से बड़े प्रयोजन के लिए संयुक्त क्रिया-कलापों को करता है।4.24 उसके कार्यकलाप विवेक से दिखाई देने पर आपे के बोध से भी हट जाते हैं।4.25

Yoga Sutras | योग सूत्र

23 Jun, 04:56


 
एक में अनेक चित्त 4.1-4.6

प्रकृति मे स्थित होने से वर्ग में बदलाव होता है।4.2 निमित्त कारण प्रकृति प्रेरक नहीं है; उससे तो रुकावटें दूर होतीं हैं। किसान के कर्म की तरह।4.3 अन्य चित्तों का निर्माण सीमित प्रयोजन के कारण होता है।4.4 अलग प्रयोजनों के लिए एक ही चित्त अनेक को बनाता है।4.5 इनमें ध्यान से उत्पन्न हुआ चित्त समाप्त नहीं होता।4.6

Yoga Sutras | योग सूत्र

23 Jun, 04:54


4. कैवल्य पाद

सिद्धियों के पाँच कारक 4.1

जन्म, औषधी, मंत्र, तप एवं समाधि से सिद्धियाँ होतीं हैं।4.1  
 

Yoga Sutras | योग सूत्र

23 Jun, 03:47


21. आकाश गमन 3.42

शरीर और आकाश के संबंध पर, छोटे रेशे व शरीर के संबंध पर संयम करने से, दोनों की एकात्मता देखने पर आकाश में गमन की सिद्धि होती।3.42
 
22. स्पष्टता सिद्धि 3.43

कल्पना रहित वृत्ति से शरीर रहिता पर संयम का अभ्यास स्पष्टता पर पड़ा पर्दा हटा देता है।3.43
 
23. पंचतत्व सिद्धि 3.44-3.46

पंचतत्वों के स्थूल स्वरूप पर सूक्ष्म, तार्किक व प्रयोजन पूर्ण संयम करने से उन पर नियंत्रण होता है।3.44 इससे अणिमा इत्यादि सिद्धियाँ प्राप्त होती एवं शरीर की संपदा में चोट व हानि होने से बचाव होता है।3.45 तेज, सौंदर्य, बल एवं हीरे जैसी दृढ़ता शरीर की संपदा हैं।3.46
 
24. परा-इंद्रिय सिद्धि 3.47-3.48

ग्रहणता, स्वरूप, क्षमता, अवलोकन एवं प्रयोजन पर संयम करने से इंद्रियों पर नियंत्रण होता है।3.47 तब इससे बिना इंद्रियों के काम किये, मनस-स्फुरण होना इनका उच्चतम नियंत्रण है।3.48
 
25. भूमि सिद्धि 3.49

सत्व एवं पुरुष के अंतर को जानने से, सभी स्थानों में स्थित ज्ञानों का सार ज्ञात होता है।3.49
 
26. केवल्य सिद्धि 3.50

उस स्थिति में भी अनासक्ति से दोषयुक्त बीजों की समाप्ति कैवल्य है।3.50
 
27. विवेक सिद्धि 3.51-3.55

दैवी निमंत्रण मिलने पर गर्व करने से पुनः अनिष्ट हो सकता है।3.51 विवेक (अंतर स्पष्ट करने की क्षमता के विकास) का ज्ञान क्षणों के क्रमों में संयम करने से होता है।3.52 विवेक द्वारा समानांतर वर्ग, लक्षण एवं स्थान का अंतरभेद स्पष्ट होता है।3.53 विवेक द्वारा जनित ज्ञान रूपांतरित करने वाला, सभी विषयों एवं आयामों मे बिना किसी क्रम का है।3.54 विवेक द्वारा सत्व एवं पुरुष की साम्य स्थिति का अनुभव ही कैवल्य है।3.55

इति विभूति पाद, योग सूत्र ।

Yoga Sutras | योग सूत्र

23 Jun, 03:44


11. शारीरिक ज्ञान3.29

नाभी चक्र पर संयम करने से शारीरिक व्यवस्था का ज्ञान होता है।3.29
 
12. भूख प्यास नियंत्रण 3.30

गले के नीचे के गड्ढे पर संयम करने से भूख प्यास हट जाती है।3.30
 
13. शरीर की स्थिरता 3.31

कूर्म नाड़ी पर संयम शरीर को स्थिरता देता है।3.31
 
14. सिद्धों के दर्शन 3.32-3.33

मस्तिष्क (माथे) पर प्रकाश में संयम करने से सिद्धों के दर्शन होते हैं।3.32 अथवा प्रतिभा से भी ये सभी प्राप्त होते हैं।3.33
 
15. चित्त का ज्ञान 3.34

हृदय पर संयम से चित्त का ज्ञान होता है।3.34
 
16. तन्मात्रा सिद्धि 3.35-3.37

सत्व  एवं पुरुष एक-दूसरे से भिन्न हैं। दोनों में पुरुष पर संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है।3.35 उससे सुनने, महसूस करने, देखने, चखने एवं सूँघने की प्रतिभा (सूक्ष्म आभास) प्राप्त होती है।3.36 ये समाधि के लिए रुकावट हैं पर सिद्धियों का अनुभव देने वाले हैं।3.37

17. परकाया प्रवेश 3.38

जब  शरीर से बांधने वाले कारणों को शिथिल किया जाता है एवं शरीर में व्याप्त संवेदनाओं को महसूस किया जाता है, तब चित्त दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकता है।3.38
 
18. वायु गमन सिद्धि 3.39

उदान वायु  पर संयम से नियंत्रण होने पर जल, कीचड़, काँटों इत्यादि को छुए बिना उनके ऊपर से चला जाता है।3.39

19. तेजस सिद्धि 3.40

समान वायु पर संयम द्वारा नियंत्रण से तेज व कांति की प्राप्ति होती है।3.40
 
20. दूरश्रवण सिद्धि 3.41

सुनने और आकाश के संबंध पर संयम से सुनने की दिव्य शक्ति प्राप्त होती है।3.41