शायरों और पेशेवर गानेवालियों के बीच भी कजरी – दंगल होते हैं । किसी जमाने में , कजरी – दंगल के शायर मारकंडे , श्याम लाल , भैरों , खुदाबख्श , पलटू , रहमान , सुनरिया गौ – निहारिन आदि का बहुत नाम था । स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राष्ट्रीय कजरी – दंगलों का आयोजन होता था । दंगल में गाई जाने वाली कजलियों का अपना अलग – अलग राग और स्वर होता है , मगर पिछले कुछ वर्षों से सिनेमा की गीतों और कव्वाली का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा है ।
कजरी लोकगीत का विषय
कजली / कजरी लोकगीत का मुख्य विषय है , शृंगार – रस के संयोग और वियोग – पक्ष । एक ओर स्त्री अपने पति के परदेश से आगमन पर आनंद से झूम उठती है आरे बाव बहेला पुरवैया , अब पिया मोरे सोवे ए हरी , कलियाँ चुनि – चुनि सेजियाँ डसवली , सइयाँ सुतेले आधी राति । इधर दूसरी ओर प्रियतम परदेश से नहीं लौटा है । सभी सहेलियाँ तो खुशी से मगन हैं और वह अकेली विरह में तप रही है बादल बरसे , बिजुरी चमके , जियरा ललचे मोर सखिया । सइयाँ घरे न अइलें पानी बरसन लागेला मोर सखिया ।
कजली की ध्वनि दो प्रकार की मानी सकती है एक को बहर या ग़ज़ल की बंदिश में कजरी – दंगलों में सुना जा सकता है । दूसरी है दुनमुनिया कजली , जिसे औरतें वृत्त बनाकर ताल देते हुए झुक – झुककर गाती कहो चित लाके , शीश नवाके , गणपति बाँके ना । सँवलिया सुत गिरजा के ना ।। शायद ही ऐसा कोई विषय बचा होगा , जिस पर कजली न लिखी गई हो । राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय समस्याओं , गांधीजी के अहिंसा – आंदोलन , गोरक्षा , ऐतिहासिक लड़ाइयों के साथ साथ ताश के खेल , कुश्ती के दाँव – पेंच , मिठाई एवं फलों के प्रकारों आदि पर भी शायरों ने कजली लिखी हैं । देवी देवताओं की प्रार्थना के रूप में भजन – कजली और निर्गुणियाँ कजली भी मिलती हैं ।
‘ ककहरा ‘ कजरी , जिसमें ‘ क ‘ से ‘ ज्ञ ‘ तक प्रत्येक अक्षर पर पंक्तियाँ लिखी गई हैं , से लेकर ‘ अधर ‘ कजरी तक लिखी गई हैं , जिसमें प – वर्ग वर्गों का प्रयोग नहीं किया जाता । कजरी के शायर लोग समाज के प्रति कितने सजग रहते थे , इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि इन्होंने समाज की प्रत्येक बुराई की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया । ये अपने पूरे परिवेश से जुड़े रहते थे- बड़ी से लेकर छोटी छोटी घटनाएँ तक इन पर असर डालती थीं ।
कजरी – एक पर्व
मिर्जापुर की कजरी काफी प्रसिद्ध है । इस संबंध में एक कहावत प्रचलित है- ‘ लीला रामनगर की भारी , कजली मिर्जापुर सरनाम ‘ । अष्टभुजा के ऊपर का पर्वत वर्षाकाल में और भी सुंदर हो जाता है । नीचे पुण्यसलिला गंगा , बहुत दूर तक विंध्यमाला चारों ओर छाए हुए काले – काले मेघ – मिर्जापुर की कजरी की मादकता इनसे और बढ़ जाती है और प्रसिद्ध कवि प्रेमधन कह उठते हैं साँचहुँ सरस , सुहावन , सावन गिरिवर विंध्याचल पैरामा , हरि – हरि मिर्जापुर की कजरी लागे प्यारी रे हरी । यहाँ नागपंचमी के पहले झूले पड़ जाते हैं । कजरी तीज को ‘ कजरहवा ताल ‘ पर रात – भर कजली उत्सव होता है , जिसे सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड़ होती है । से लोग बनारस से भी आते हैं और रातभर झूम – झूमकर बहुत कजरी सुनते हैं । यहाँ के कजली शायरों में वक्फत , सूरा , हरीराम , लक्ष्मण , मोती आदि के नाम लिए जाते रहे हैं ।
चित्र खींचा है लक्ष्मण मिर्जापुरी ने विरहिणी to राधा का कैसा मर्म – स्पर्शी नहिं आए घनश्याम , घेरि आई बदरी । बैठी तीरे बृज – बाम , तू न मेरो लाज धाम ॥ आई सावन की बहार , मुझे मोरवा पुकार । पड़े बुन्दन फुहार , घेरि आई बदरी ॥ कान्हा हमें बिसराय , रहे सौतन लगाय । करी कौन उपाय , घेर आई बदरी ।।
मिर्जापुर की कजरी का अपना एक रंग है और बनारस की कजरी का एक अलग रंग । इन दोनों रंगों में से कोई भी एक – दूसरे से कम नहीं । स्त्रियों द्वारा गाई जाने वाली कजलियों में अब भी वास्तविक सौंदर्य और माधुर्य सुरक्षित है ।
दंगल में अब कजरी का स्थान धीरे – धीरे कव्वाली लेती जा रही है । पहले कजरी गाते समय हारमोनियम का इस्तेमाल नहीं होता था , अब हारमोनियम भी बजाया जाता है ।