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02 Aug, 12:09


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20 Jun, 12:18


शायरों और पेशेवर गानेवालियों के बीच भी कजरी – दंगल होते हैं । किसी जमाने में , कजरी – दंगल के शायर मारकंडे , श्याम लाल , भैरों , खुदाबख्श , पलटू , रहमान , सुनरिया गौ – निहारिन आदि का बहुत नाम था । स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राष्ट्रीय कजरी – दंगलों का आयोजन होता था । दंगल में गाई जाने वाली कजलियों का अपना अलग – अलग राग और स्वर होता है , मगर पिछले कुछ वर्षों से सिनेमा की गीतों और कव्वाली का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा है ।

कजरी लोकगीत का विषय
कजली / कजरी लोकगीत का मुख्य विषय है , शृंगार – रस के संयोग और वियोग – पक्ष । एक ओर स्त्री अपने पति के परदेश से आगमन पर आनंद से झूम उठती है आरे बाव बहेला पुरवैया , अब पिया मोरे सोवे ए हरी , कलियाँ चुनि – चुनि सेजियाँ डसवली , सइयाँ सुतेले आधी राति । इधर दूसरी ओर प्रियतम परदेश से नहीं लौटा है । सभी सहेलियाँ तो खुशी से मगन हैं और वह अकेली विरह में तप रही है बादल बरसे , बिजुरी चमके , जियरा ललचे मोर सखिया । सइयाँ घरे न अइलें पानी बरसन लागेला मोर सखिया ।

कजली की ध्वनि दो प्रकार की मानी सकती है एक को बहर या ग़ज़ल की बंदिश में कजरी – दंगलों में सुना जा सकता है । दूसरी है दुनमुनिया कजली , जिसे औरतें वृत्त बनाकर ताल देते हुए झुक – झुककर गाती कहो चित लाके , शीश नवाके , गणपति बाँके ना । सँवलिया सुत गिरजा के ना ।। शायद ही ऐसा कोई विषय बचा होगा , जिस पर कजली न लिखी गई हो । राष्ट्रीय – अंतरराष्ट्रीय समस्याओं , गांधीजी के अहिंसा – आंदोलन , गोरक्षा , ऐतिहासिक लड़ाइयों के साथ साथ ताश के खेल , कुश्ती के दाँव – पेंच , मिठाई एवं फलों के प्रकारों आदि पर भी शायरों ने कजली लिखी हैं । देवी देवताओं की प्रार्थना के रूप में भजन – कजली और निर्गुणियाँ कजली भी मिलती हैं ।

‘ ककहरा ‘ कजरी , जिसमें ‘ क ‘ से ‘ ज्ञ ‘ तक प्रत्येक अक्षर पर पंक्तियाँ लिखी गई हैं , से लेकर ‘ अधर ‘ कजरी तक लिखी गई हैं , जिसमें प – वर्ग वर्गों का प्रयोग नहीं किया जाता । कजरी के शायर लोग समाज के प्रति कितने सजग रहते थे , इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि इन्होंने समाज की प्रत्येक बुराई की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया । ये अपने पूरे परिवेश से जुड़े रहते थे- बड़ी से लेकर छोटी छोटी घटनाएँ तक इन पर असर डालती थीं ।

कजरी – एक पर्व
मिर्जापुर की कजरी काफी प्रसिद्ध है । इस संबंध में एक कहावत प्रचलित है- ‘ लीला रामनगर की भारी , कजली मिर्जापुर सरनाम ‘ । अष्टभुजा के ऊपर का पर्वत वर्षाकाल में और भी सुंदर हो जाता है । नीचे पुण्यसलिला गंगा , बहुत दूर तक विंध्यमाला चारों ओर छाए हुए काले – काले मेघ – मिर्जापुर की कजरी की मादकता इनसे और बढ़ जाती है और प्रसिद्ध कवि प्रेमधन कह उठते हैं साँचहुँ सरस , सुहावन , सावन गिरिवर विंध्याचल पैरामा , हरि – हरि मिर्जापुर की कजरी लागे प्यारी रे हरी । यहाँ नागपंचमी के पहले झूले पड़ जाते हैं । कजरी तीज को ‘ कजरहवा ताल ‘ पर रात – भर कजली उत्सव होता है , जिसे सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड़ होती है । से लोग बनारस से भी आते हैं और रातभर झूम – झूमकर बहुत कजरी सुनते हैं । यहाँ के कजली शायरों में वक्फत , सूरा , हरीराम , लक्ष्मण , मोती आदि के नाम लिए जाते रहे हैं ।


चित्र खींचा है लक्ष्मण मिर्जापुरी ने विरहिणी to राधा का कैसा मर्म – स्पर्शी नहिं आए घनश्याम , घेरि आई बदरी । बैठी तीरे बृज – बाम , तू न मेरो लाज धाम ॥ आई सावन की बहार , मुझे मोरवा पुकार । पड़े बुन्दन फुहार , घेरि आई बदरी ॥ कान्हा हमें बिसराय , रहे सौतन लगाय । करी कौन उपाय , घेर आई बदरी ।।

मिर्जापुर की कजरी का अपना एक रंग है और बनारस की कजरी का एक अलग रंग । इन दोनों रंगों में से कोई भी एक – दूसरे से कम नहीं । स्त्रियों द्वारा गाई जाने वाली कजलियों में अब भी वास्तविक सौंदर्य और माधुर्य सुरक्षित है ।

दंगल में अब कजरी का स्थान धीरे – धीरे कव्वाली लेती जा रही है । पहले कजरी गाते समय हारमोनियम का इस्तेमाल नहीं होता था , अब हारमोनियम भी बजाया जाता है ।

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20 Jun, 12:18


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( कजरी गायन शैली )
कजरी लोकगीत – लोकसंगीत की विधा कजली अथवा कजरी विभिन्न प्रांतों में जीवन के विभिन्न प्रसंगों , उत्सवों , त्यौहारों आदि पर गाये जाने वाले गीतादि लोकसंगीत के अंतर्गत आते है । यह विभिन्न प्रकार के स्वर , ताल , पद द्वारा गाये जाते हैं । इसी में कजरी नामक एक गीत का प्रकार है जो कि सावन में गायी जाती है यह उत्तर प्रदेश में गाया जाने वाला एक प्रकार का लोकप्रिय लोकगीत है । इसे हम ऋतु गीत भी कह सकते हैं वैसे वर्षा ऋतु में कभी भी इस गीत को गाया जा सकता है । कजरी को कजली भी कहा जाता है ।

कजरी लोकगीत का वर्णन
इसका क्षेत्र मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग है । मिर्जापुर और उसके आसपास का क्षेत्र कजरी के लिए अधिक प्रसिद्ध है । बनारस में कजरी मिर्जापुर से ही पहुँची जो बाद में वहाँ अपना ली गयी । इन गीतों में विरह का बहुत ही मार्मिक वर्णन मिलता है । कई गीत श्रृंगार रस के भी दिखाई देते हैं । कई गीतों में प्रकृति वर्णन का सुन्दर चित्रण मिलता है । कजरी गायन की अनेक शैलियाँ प्रचलित हैं । कुछ में ठुमरी अंग विशेष रूप से दिखाई देता है ।

प्रारम्भ में कुछ कजरी लोकगीत के उदाहरण इस प्रकार हैं –

( 1 ) सखियां झूलन चली फूल यगियन । घिर आयी कारी बदरिया ॥ फूलवा बीनें , हरवा गुथैय । सखियां …..

( 2 ) नहीं आये सजना हमार । सावनमा आई गइले ननदी ॥ इस गीत में कहरवा ताल का वजन मिलता है ।

( 3 ) कैसे खेलन जैबू , सावनमां कजरिया । बदरिया घेरी आई ननदी ॥

सरस सावन , आँखों को सुख पहुंचाने वाली मखमली हरियाली , रिमझिम फुहार – इनका असल चित्र वस्तुत : कजरी में ही मिलता है । वैसे , देखा जाय , तो अधिकांश लोकगीत किसी – न – किसी ऋतु अथवा त्यौहार के होते हैं । वर्षा – ऋतु के आगमन पर लोगों के मन में जिस नए उल्लास एवं उमंग का संचार होता है , उसको अभिव्यक्त करती है कजरी / कजली । इसी कारण इसे वर्षा के साथ मनुष्य के तादात्म्य का सुर में , साज में और छंद में आलाप कहा गया है । सावन – भादों के महीने में बनारस , मिर्जापुर और इनके निकटवर्ती इलाके कजली से गूंजते हैं । न केवल स्त्रियाँ , बल्कि पुरुष भी कजली गाते हैं और बड़े उत्साह से गाते हैं ।

कजरी लोकगीत का नामकरण
कहा जाता है कि कजरी का नामकरण सावन के काले बादलों के कारण पड़ा है । भारतेन्दु ‘ के अनुसार , मध्य प्रदेश के दादूराय नामक लोकप्रिय राजा की मृत्यु के बाद वहाँ की स्त्रियों ने एक नए गीत की तर्ज का आविष्कार किया , जिसका नाम ‘ कजली ‘ पड़ा । कुछ लोग कजरी वन से भी इसका संबंध जोड़ते हैं ।

पं . वलदेव उपाध्याय के विचार में आजकल की कजरी प्राचीन लावनी की ही प्रतिनिधि है । कजली का संबंध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व के साथ जुड़ा हुआ है । भादों के कृष्ण पक्ष की तृतीया को ( तीजा ) कज्जली व्रत पर्व मनाया जाता है । यह स्त्रियों का मुख्य त्योहार है । स्त्रियां इस दिन नए वस्त्र – आभूषण पहनती हैं , कज्जली देवी को पूजा करती हैं और अपने भाइयों को ‘ जई ‘ बाँधने के लिए देती हैं । उस दिन वे रात – भर जागती और कजरी गाती हैं ।

अखाड़ा – दंगल की परंपरा
कजली / कजरी लोकगीत के कई अखाड़े भी होते हैं । प्रत्येक अखाड़े का अलग – अलग गुरु ( शायर ) होता है और उनके शिष्यों की परंपरा लंबी होती है । ज्येष्ट दशमी को अखाड़ों में ढोलक का पूजन करके कजली शुरू होती है और अनंत चतुर्दशी को समाप्त की जाती है । कुछ अखाड़ों में आश्विन कृष्णाष्टमी तक कजलो – गायन चलता है । पहले सभी अखाड़े कजली गाते हुए स्थानीय नदेसर मुहल्ले में इकट्ठे होते थे और वहाँ रात भर गाई जाती थी । दो गुरु – घरानों में कजली प्रतियोगिता भी हाती थी । एक अखाड़ा दूसरे अखाड़े को इलायची भेंट करके निमंत्रण देता था । काशी में कजली – दंगलों की परंपरा काफी पुरानी है ।

लगभग बीस – चालीस गज की दूरी पर आमने – सामने दो मंच बनाए जाते हैं , जिन पर प्रतिद्वंदी अखाड़े वाले बैठते हैं । पहले एक अखाड़े का उस्ताद खड़ा होता है और सुमिरिनी से दंगल प्रारंभ होता है । उसके बाद दूसरा दल उसी छंद और उसी तर्ज में तथा उसी विषय पर कजली गाकर पहले का जवाब देता है , फिर एक कजली और गाता है , जिसका जवाब पहलेवाले दल को देना होता है । जब तक शायर जवाब सोचता है , तब तक उसके दल के अन्य सह – गायक ( जिन्हें ‘ डेवढ़िया ‘ कहते हैं ) टेक की कड़ी को दुहराते रहते हैं । गाते समय ढोलक , लकड़ी , चंग आदि बजाए जाते हैं । शायरों को प्रतिद्वंदी पर चोट करने के लिए काफी श्रम करके नए – नए विषयों और छंदों में कजलियाँ तैयार करनी पड़ती हैं । आमतौर से ये दंगल रात के दस – गयारह बजे से शुरू होकर सुबह तक चलते रहते हैं । श्रोताओं को बहुत आनन्द आता है ।

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20 Jun, 04:54


Ugc Net Exam Cancelled

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12 Jun, 05:07


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चैती गायन शैली
चैती गायन- चैती भारतीय संस्कृति के अनुसार होलिका पर्व के पश्चात् चैत माह का आरम्भ होता है । चैती उत्तर प्रदेश में चैत के महीने में गाया जाने वाला लोकगीत है । चैती के अर्द्ध – शास्त्रीय गीत विधाओं में भी सम्मिलित किया जाता है । चैत्र के महीने में गाए जाने वाले इस राग का विषय प्रेम प्रकृति और होली रहते हैं ।

कजरी या कजली भी उत्तर प्रदेश का लोकगीत है ।

चैत्र के महीने में राम का जन्म होने के कारण इस गीत की हर पंक्ति के बाद अकसर रामा शब्द लगाया जाता है । संगीत के आयोजनों में अधिकतर चैती , टप्पा और दादरा ही गाए जाते हैं । यह राग अकसर राग बसन्त या मिश्र बसन्त में निबद्ध होते हैं ।
उत्तर प्रदेश मुख्यतया वाराणसी में चैती , ठुमरी , दादरा गाए जाते हैं । जहाँ चैती उत्सव को प्रमुखतया देखा जा सकता है । बारह मासे में चैत का महीना गीत संगीत के मास के रूप में चित्रित किया गया है ।

चैत शैली के राग
चैती गायन में कुछ राग विशेष के स्वरों का मिश्रण इन गीतों की धुनों में प्रयुक्त होता है तथा विविध आयामों द्वारा इनमें सौन्दर्य का संचार किया जाता है । अधिकांशतः ये धुनें काफी , राग पहाड़ी , पीलू आदि रागों पर आधारित होती हैं । • इसलिए इनकी गणना उपशास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत की जा सकती है । इस विधा का निर्वहन दीपचन्द , अद्धा , तिताला एवं कहरवा तालों में बहुतायत से होता है ।

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12 Jun, 05:06


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होरी गायन शैली – होरी शब्द की व्युत्पत्ति का सम्बन्ध शास्त्रीय संगीत की धमार शैली के साथ जोड़ा जा सकता है , क्योंकि इसके साहित्य में प्रायः होरी का वर्णन मिलता है ।

भारतीय संस्कृति में शृंगार और आनन्द महोत्सव के रूप में बसन्त एवं होली क्रीड़ा का हमेशा से महत्त्व रहा है । प्राचीन ग्रन्थों में इसे मदनोत्सव कहा जाता है ।। ऋतुराज के आने पर उसके मनमोहक वातावरण में स्वयं को सम्मिलित करते अपनी उमंगों को व्यक्त करने का त्योहार है होली । होरी मूलत : ब्रज शैली का गायन है ।

ख्याल गायक जब होली सम्बन्धी गीतों को विभिन्न तालों में गाते हैं , तब उन्हें होरी कहा जाता है । राधा – कृष्ण और कृष्ण – गोपियों की फाल्गुन मास की लीलाओं के वर्णन को जब धमार ताल में गाते हैं , तो उसे धमार कहा जाता है । जब ख्याल गायक उसे त्रिताल दीपचन्दी कहरवा आदि तालों में गाते हैं , तब उसे होरी कहा जाता है ।

होरी की विशेषता
होरी की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

• उपशास्त्रीय संगीत प्रधान होरी का ढाँचा ठुमरी एवं धमार के अनुरूप ही होता है तथा अधिकांशत : उन्हीं रागों पर आधारित होती है इसमें रागों की शास्त्रबद्धता , नियमबद्धता एवं ताल – लय का कठोर अनुपालन होता है ।
• धमार तथा होरी / होली में बहुत अन्तर है । इन दोनों की शैलियाँ अलग – अलग होती हैं । होरी में तान , आलाप , मुर्की तथा खटके आदि का प्रयोग ख्याल गायन की तरह होता है । इन गीतों को मौसमी गीत भी कहा जाता है । होरी को अधिकत फाल्गुन में तथा होली के अवसर पर ही गाया जाता है ।

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23 May, 08:18


पाट : वाद्यों के अक्षरों के समूह को पाट कहा गया है। वाद्यों के ये बोल पाटाक्षर भी कहलाते है।
ताल : जो प्रबंध गीतों की लय का माप करती है, वे ताल है। जैसे- आदिताल, एकताल, इत्यादि।
तेन और पद, पाट और विरूद, तथा स्वर और ताल - यह दो-दो अंग एक साथ बनाए गए है। तेन और
पद से प्रबंध का स्वरूप प्रकाशित होता है। पाट और विरूद से प्रबंध की विभिन्न क्रियाओं का पालन होता
है। स्वर और ताल से प्रबंध को गति प्रदान होती है। इन अंगों के बिना प्रबंध की कोई सत्ता नहीं हैं।

प्रबंध का वर्गीकरण :
प्रबंधों का वर्गीकरण तीन वर्गो में किया गया है-
1 सूड़ प्रबंध
2 आलिक्रम प्रबंध
3 विप्रकीर्ण प्रबंध।
सूड प्रबंध को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है-
(1) शुद्ध सूड प्रबंध तथा (2) सालग/छायालग सूड प्रबंध

शुद्ध सूड प्रबंध 8 थे -

1 एला, 2 करण, 3 ढेंकी, 4 वर्तनी, 5 झोंषड़, 6 लव, 7 रास, एवं 8 एकताली।

सालग/छायालग सूड प्रबंध 7 थे -

1 ध्रुव, 2 मध्य, 3 प्रतिमढय, 4 निस्सारूक, 5 अड्ड, 6 रास एवं 7 एकताली।
इनमें से एला नामक प्रबंध को सर्वोपरि, उत्तम व महाकठिन प्रबंध माना गया है।
प्राचीन प्रबंधों से यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न श्रेणियों की बंदिशों में ताल-राग, छंद और वस्तु निर्मित की
विचित्रता, विशेष अवसर और रस का प्रभाव था। प्राचीन काल के उपरान्त मध्ययुगीन ग्रंथों में प्रबंध के
स्वरूप में परिवर्तन आया और नए प्रबंधों की रचना हुई। दक्षिण भारत में तो 17वीं शताब्दी तक प्रबंधों का
प्रचलन था। पं0 व्यंकटमखी के समय तक प्रबंधों का अस्तित्व था, किन्तु बाद में वे अप्रचलित हो गए।
दक्षिण संगीत में जो पल्लवि, अनुपल्लवि और चरणम् का विकास हुआ, उसका मूल हमें ध्रुव, अंतरा और
आभोग में मिलता है। इसी प्रकार उत्तरी संगीत में ध्रुपद के स्थायी, अंतरा, संचारी और आभोग की तुलना
प्रबंध के अवयवों के साथ की जा सकती है।
अतः उत्तरी और दक्षिणी दोनों ही संगीत प्रणालियों की बंदिशों का यदि ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाए तो
यह पता चलता है कि प्राचीन प्रबंधों से इनका कुछ-न-कुछ संबंध अवश्य है। आधुनिक गीत में पाए जाने
वाले दो भागों स्थायी और अंतरे का प्रबंधों के दो भागों के साथ संबंध है। आधुनिक स्थायी को ध्रुव के
समान माना जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक बंदिश में यह बराबर कायम रहती है और अंतरे को धातु के
समान माना जा सकता है।

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23 May, 08:18


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प्रबंध
संगीत में प्रबंध का अर्थ है "धातु और अंगों की सीमा में बँधकर जो रूप बनता है, वह प्रबंध कहलाता है।" आधुनिक काल में
बन्दिश शब्द का प्रबंध के स्थान पर प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ भी बाँधने से है।

ठाकुर जयदेव सिंह के मत से,

"Prabandh was a vocal composition form, a systematic and organized Geeti (song) with Sanskrit
texts. The word "Prabandh" literally means anything well-knit or well-fitted."

कोई भी शब्द रचना सार्थक अथवा निरर्थक प्रबंध कहला सकती है, यदि वह धातु और अंगों से बद्ध हो।
इस प्रकार प्रबंध का संबंध रचना से है। प्रबंध ही बाद में गीत कहे गये। प्रबंध में अक्षर ज्यादा और गीत में
स्वरों का फैलाव अधिक देखने को मिलता है। प्रबंधों के ही अधिक और विकसित पर सरल रूप गीत
कहलाए। गीत का अर्थ है- 'जो गाया गया' अर्थात् प्रबंधों को सरल रूप देकर गाना ही गीत कहलाया।

अनेक ग्रंथों में प्रबंध शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे- मतंग के बाद नामदेव ने 'भरत-भाष्य' में प्रबंधों को
'देशी गीत का ध्याय' कहा है, 'मानसोल्लास' में प्रबंध संज्ञा का प्रयोग हुआ है। इसके अलावे 'संगीत राज',
'संगीत दर्पण', 'संगीत पारिजात', 'नाट्य चूड़ामणि', 'अनूप संगीत' इत्यादि अनेक ग्रंथों में प्रबंध संज्ञा का
प्रयोग किया गया है और इस प्रबंध संज्ञा को धातु और अंगों से निबद्ध माना है।

प्रबंध का विस्तार एवं सुसम्बद्ध ढंग से निरूपण सर्वप्रथम "संगीत रत्नाकर" में ही उपलब्ध होता है।
सारंगदेव के अनुसार भी केवल धातु और अंगों का होना ही प्रबंध के लिए अनिवार्य है। मतंग मुनि ने अपने
ग्रंथ 'वृहद्देशी' में 49 देशी प्रबंधों का उल्लेख किया है एवं पंडित सारंगदेव ने भी 75 प्रबंधों का उल्लेख
किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि 7वीं सदी से 13वीं सदी तक संगीत में शास्त्रीय शैली प्रबंध गान का
खुब प्रचलन रहा होगा।
प्रबंध में विशेषतयः जिन तत्वों का समावेश रहता है, वे है-

· रसो से संबंद्ध
· आध्यात्म से संबंद्ध
• विशेष ऋतुओं से संबंद्ध
• भाषाओं से संबंद्ध
· छन्दों पर आधारित
· अक्षरों की आवृति से
· नाट्य के तत्वों से युक्त
· शैली की विशेषता से युक्त।

प्रबंध की धातु :
पंडित सारंगदेव ने अपने ग्रंथ में प्रबंध की पाँच धातुओं का उल्लेख किया है, लेकिन साधारणतः चार धातुओं
का ही उल्लेख मिलता है, जिसके नाम इस प्रकार है-

(1) उदग्राह
(2) ध्रुव
(3) मेलापक
(4) आभोग

उदग्राह धातु : प्रबंध गीतों का वह भाग है, जिसे प्रबंध गायन के पहले गाया जाता है। विद्वानों का मत है
कि उदग्राह का अर्थ है प्रारंभ करना। अतः उदग्राह के द्वारा ही प्रबंध गायन का प्रारंभ होता था।
ध्रुव धातु : ध्रुव धातु प्रबंध गायन शैली का दुसरा खंड है। प्रबंध गीत में मेलापक और आभोग धातु का भी
लोप किया जा सकता है, लेकिन ध्रुव धातु का नहीं। यह एक अत्यंत आवश्यक भाग माना जाता है। (ध्रुव
धातु यानि अचल धातु)
मेलापक धातु : मेलापक धातु प्रबंध गीत का तीसरा चरण है। इस धातु का नाम मेलापक इसलिए पड़ा
क्योंकि इस धातु को उदग्राह और ध्रुव धातुओं से मिलाया जाता था।
आभोग धातु : आभोग प्रबंध का चौथा चरण था। प्रबंध गीतों को पूर्ण आभोग धातु से किया जाता था।
इन चारों धातुओं के अलावा सारंगदेव ने पाँचवे धातु का उल्लेख अपने ग्रंथ 'संगीत रत्नाकर' में किया है,
जिसका नाम अन्तर धातु रखा था। विद्वानों के मत से इस धातु का प्रयोग किसी विशेष प्रबंधों में किया
जाता था।

संक्षेप में हम कह सकते है कि उदग्राह का लक्षण है गीत को ग्रहण करना, मेलापक का लक्षण है उदग्राह
और ध्रुव को जोड़ना, बार-बार प्रयुक्त होने पर ध्रुव, और ध्रुव का अच्छी तरह भोग कराने के कारण आभोग
संज्ञाएँ है।

धातुओं की संख्या के आधार पर प्रबंध के तीन भेद माने गए है - दो धातु होने पर 'द्विधातु', तीन धातु होने
पर 'त्रिधातु', और चार धातु होने पर 'चतुर्धातु' कहते है। प्रबंध में कम-से-कम दो धातु का रहना अनिवार्य
है।

प्रबंध के अंग :

प्रबंध में 6 अंग है। प्रबंध गान का स्वरूप उसके विभिन्न अंगों से बनता था। जिस प्रकार ध्रुपद गायन शैली
में स्वर, ताल और शब्द होते है, उसी तरह मध्यकालीन प्रबंधों में अंग प्रधान होते थे, जो निम्नलिखित है-
· स्वर
· विरूद
· तेन
· पद
• पाट
· ताल

स्वर : स्वर नामक अंग से षड़जादि ध्वनियाँ और उनके सांगीतिक स्वर सा, रे, ग, म, प, ध, नि स्वराक्षरों
का भान होता है।
विरूद : किसी गीत के अंतर्गत नाटक में आए हुए नायक की प्रशंसा में कहे गए शब्द विरूद कहलाता है।
तेन : तेन को तेनक भी कहा गया है, जिसका अर्थ है मंगल ध्वनि अथवा मंगल सूचक।
पद : पद से अभिप्राय है- शब्द समूह। नाटक में कार्य करने वाले पात्रों के गुणों को प्रकट करने वाले
शब्द-समूह पद कहलाते है।

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20 May, 15:37


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टप्पा गायन शैली – टप्पा संस्कृत भाषा का शब्द माना जाता है , जिसका अर्थ – उछलना कूदना छलांग लगाना है । यह पंजाब में अत्यधिक लोकप्रिय है । मूलरूप से यह पंजाब की लोक गायन शैली रही है , जो कालान्तर में विभिन्न विशेषताओं से विभूषित होकर सम्पूर्ण भारत में तो प्रचलित हुई ही है । इसने भारतीय उपशास्त्रीय संगीत की गायन शैली में प्रमुख स्थान प्राप्त किया है ।

यह गायन शैली शृंगार रस प्रधान गायन शैली है । इस गायन शैली का प्रचार सर्वप्रथम गुलाम नबी शोरी ने किया , इसलिए इन्हें इसका आविष्कारक माना जाता है । इसमें गीत के शब्द बहुत अल्प होते हैं , इसके स्थायी और अन्तरा नामक दो भाग होते ख्याल की भाँति इसमें भी खटका , मुर्की , मींड ताल आदि का सुन्दर रूप देखने को मिलता है । इसका उद्गम पंजाब के पहाड़ी प्रदेशों में हुआ और विकास अवध के दरबार में ठुमरी के साथ – साथ हुआ । पंजाब के मियाँ शोरी तथा गायकी के जन्मदाता माने जाते हैं ।

इस टप्पा गायन शैली के गीतों का प्रवर्तन पंजाब के ऊँट चराने वालों के द्वारा किया गया । उनकी आकर्षणता के कारण इन्हें शास्त्रीय संगीत में स्थान प्राप्त हुआ । यह पूर्णत : सत्य है कि इस विधा के विवेचन के अभाव में पंजाब से सम्बन्धित कोई । भी विवेचन अर्थात् सांगीतिक विवेचन अधूरा माना जाता है । कुछ विद्वानों ने इस गायन शैली को बेसरा नामक गीति से सम्बन्धित माना है ।

टप्पा की शैली
टप्पा गायन शैली की प्रकृति चंचल है । इसमें कहीं भी स्वर व लय को विश्रान्ति नहीं मिलती है । इसमें प्रयोग की जाने वाली टप्पा नामक ताल 16 मात्राओं की होती है ।

भावपक्ष अधिक प्रबल व महत्त्वपूर्ण माना जाता है । क्षुद्र प्रकृति के रा इसके अन्तर्गत आलाप का प्रयोग नहीं किया जाता है । इसमें कलापक्ष की अपेक्षा जैसे – खमाज , झिंझौटी , काफी , भैरवी , पीलू आदि चंचल व चंचल प्रकृति के रामो में इसे गाया जाता है । अतः टप्पा सम्बन्धित मत चाहे कितने भी हों , अनन्त मूल रूप से इसका स्थान पंजाब ही है ।

टप्पा नामक ताल 16 मात्राओं की होती है । यह मूलरूप से यह पंजाब की लोक गायन शैली रही है, यह गायन शैली शृंगार रस प्रधान गायन शैली है ।

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20 May, 15:34


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दादरा गायन शैली- दादरा वस्तुतः ठुमरी शैली का गायन है । दादरा गीत शृंगार रस प्रधान गीत है इसकी प्रकृति ठुमरी के समान प्रतीत होती है । इसी कारण दादरा गायन शैली को अधिकतर ठुमरी अंग के रागों में गाया जाता है । दादरा ठुमरी की अपेक्षा हल होती है । प्रायः यह देखा गया है कि ठुमरी गाने वाले गायक – गायिकाएँ दादरा गाते हैं । इसमें जन – मन – रंजन करने की पर्याप्त शक्ति होती है ।

दादरा पूर्व उत्तर प्रदेश की विशेष गायन शैली है । यहाँ के गायक दादरा गायन निपुण होते हैं । दादरा भाषा पूर्वी हिन्दी की किसी – न – किसी बोली के अनुरूप होती है । पहले इस गायन को कोठे पर ही गाया जाता था अब इस गायन शैली को प्रतिष्ठित गायक भी गाते हैं ।

दादरा शैली में अन्य गायन शैली की तरह ही स्थायी व अन्तराल दो भाग होते हैं ।

दादरा के राग
दादरा प्रायः काफी , पहाड़ी, खमाज , माण्ड आदि रागों में गाए जाते हैं । दादरा गायन में राग की शुद्धता पर विशेष ध्यान न देकर रंजकता पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है । दादरा में भावात्मक गीत तत्त्व , ताल , राग आदि होता है । दादरा और ठुमरी में भी इन रागों का प्रयोग होता है ।

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06 May, 10:05


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ठुमरी गायन क्या है ?
ठुमरी शब्द का व्यवहार हिन्दुस्तानी संगीत की एक विशेष गेय विधा के लिए किया जाता है । यह एक भावप्रधान व चपल चाल वाला गीत हैं । इसे आजकल शास्त्रीय संगीत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । यह एक प्रकार का शृंगार रस प्रधान नृत्य गीत ही है , क्योंकि शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत लिए हुए है । यह गीत शैली स्वरों के माध्यम से वही भाव मुखरित कर देती है , जो भाव नृत्य में अभिनय के द्वारा व्यक्त किए जाते हैं ।


ठुमरी के नाजुक व चपल मिजाज होने के कारण इसे गाने के लिए इसके मिजाज के रागों को चुना जाता है । ये राग हैं – खमाज , काफी , माण्ड , बरवा , तिलंग , पीलू तथा भैरवी । इस गायन विधा में राग की शुद्धता का ध्यान नहीं किया जाता है , इसलिए मिश्र राग इसके लिए उपयुक्त हैं ।

सुनील कुमार के अनुसार , ‘ ठुम ‘ और ‘ री ‘ इन दोनों शब्दों के योग से ठुमरी शब्द बना है । ठुम शब्द ‘ ठुमकत चाल ‘ अर्थात् राधा जी की चाल और ‘ री ‘ ‘ शब्द ‘ रिझावत ‘ अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के मन को रिझाने की ओर संकेत करता है ।

ठुमरी की उत्पत्ति
ठुमरी का जन्म सम्भवतः लखनऊ के दरबार में हुआ है । विद्वानों का मत है कि इसके आबिष्कारक गुलामनबी शोरी या उनके वंशज ही थे । ठुमरी का अधिकतर विकास नृत्य के साथ हुआ । जबकि आधुनिक ठुमरी का विकास अवध के दरबार में हुआ । इस गायन शैली का सम्बन्ध ‘ गौड़ी ‘ गीति के सा भी जोड़ा जाता है ।

ठुमरी गायन के भेद क्या है ?
ठुमरी गायन के भेद – ठुमरी को दो भेदों में विभाजित किया जा सकता है ।

बोल – बाँट या बन्दिश की ठुमरी बोल – बाँट की ठुमरी को बन्दिश की ठुमरी भी कहते हैं । यह ठुमरी छोटे ख्याल से मिलती – जुलती है , इसमें शब्द अधिक होते हैं । इसमें शब्दों और बन्दिशों में कसाव रहता है और मात्राओं के विभाजन का पूरा ध्यान रखा जाता है , इनमें प्रायः रचयिता के नाम के साथ पिया लगा होता है ; जैसे – कदर पिया तथा सनदापिया आदि । कदर पिया व लगन पिया वाजिद अलीशाह के समय के प्रथम ठुमरी गायक थे ।
बोल बनाव की ठुमरी इनमें प्रायः बन्दिश गाकर थोड़ा बहुत आलाप व तान का काम ख्याल ढंग से किया जाता है । इनमें त्रिताल , झपताल जैसी तालों का प्रयोग होता है । बोल – बनाव की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं , ये प्रायः ढीली और लचीली होती हैं , इसके लिए कण्ठ की मधुरता पहला गुण है ।
ठुमरी के अंग अथवा शैलियाँ
ठुमरी के मुख्य रूप से तीन अंग माने गए हैं , जो निम्नलिखित हैं ।
पूर्वी अंग पूरब अंग लखनऊ तथा बनारस में प्रसिद्ध है । रसूलन बाई , बड़ी मोती बाई , सिद्धेश्वरी देवी , बेगम अख्तर तथा गिरिजा देवी पूरव अंग की प्रसिद्ध गायिकाएँ हैं , इसमें बोलबनाव का काम प्रमुखता रखता है । विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति एक ही शब्द के माध्यम से अनेक बिरादरियों के आधार पर की जाती है । भोजपुरी बोली इसके माधुर्य में वृद्धि करती है ।
पहाड़ी अंग पहाड़ी शैली लखनऊ , मुरादाबाद , सहारनपुर , मेरठ और दिल्ली में प्रचलित रही है बरकत अली पंजाब के पहाड़ी प्रदेशों में प्रचलित लोकधुनों में विशेष तरीके से प्रयुक्त होने वाले स्वरों का ठुमरी में बहुत खूबसूरती से प्रयोग करते थे , इसी से यह पहाड़ी अंग की ठुमरी कही जाने लगी । पूर्वी व पहाड़ी में पंजाबी तथा बोलबनाव में तान का काम अधिक होता है ।
पंजाबी अंग यह शैली अन्य की अपेक्षा नई है , इसका सम्बन्ध पंजाब के बरकत अली खाँ , बड़े गुलाम अली तथा नजाकत सलामत अली से माना जाता है ।
डॉ . गीता पैन्तल के अनुसार , पंजाबी अंग की ठुमरी में टप्पा अंग की तानों की भरमार रहती है । पंजाबी अंग की ठुमरी मुल्तानी , काफी और सिन्धी काफी गायन शैलियों में साम्यता रखती है । पंजाबी अंग की ठुमरी सप्तक के ऊँचे स्वरों में अधिक गाई जाती है ।

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24 Apr, 09:41


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लक्षण गीत क्या है ?
लक्षण गीत लक्षण गीत दो शब्दों ‘ लक्षण ‘ व ‘ गीत ‘ के योग से बना हुआ है । लक्षण का अर्थ किसी वस्तु , प्राणी व स्थान इत्यादि के चिह्न से लगाया जा सकता है । गीत एक काव्यात्मक प्रबन्ध है , जो पद साहित्य की एक विशिष्ट शैली है । साधारण रूप से लक्षण गीत का शाब्दिक अर्थ किसी वस्तु , प्राणी या स्थान विशेष के लक्षण बताने वाले गीत है ।

प्रत्येक राग का अलग से लक्षण गीत निर्मित होता है । ताल , संगीत और राग गायन की महत्त्वपूर्ण घटना है , इसलिए जहाँ राग के स्वरूप को गीत के द्वारा उसी राग में स्वरबद्ध कर लक्षण गीतों का निर्माण हुआ , वही विभिन्न तालों के स्वरूप बताने वाले लक्षण गीतों का भी निर्माण हुआ , जिन्हें ताल लक्षण गीत भी कहा जा सकता है ।

लक्षण गीत के प्रकार क्या है ?
लक्षण गीत के निम्न तीन प्रकार हैं –

राग लक्षण गीत- राग लक्षण गीत किसी राग विशेष के लक्षणों को बताने वाला गीत है । वर्तमान समय में लक्षण गीत के राग में लक्षण गीत का प्रसार अधिक पाया जाता है । इसमें राग के थाट , स्वर , वादी , संवादी गायन , समय एवं प्रकृति इत्यादि का विवरण मिलता है । वर्तमान समय में राग लक्षण गीत की रचनाएँ भी लक्षण गीत के अन्य प्रकारों से अधिकतर पाई जाती हैं । रा लक्षण गीत की कुछ रचनाएँ आज भी प्राप्त होती हैं , जिनमें रागों और बहुत सारे अप्रचलित रागों का विवरण मिलता है । कुछ प्रचलित
ताल लक्षण गीत– ताल के लक्षणों को बताने वाले गीत को ताल लक्षण – गीत की संज्ञा दी गई है । इसमें किसी ताल विशेष के लक्षण अथवा मात्रा , विभाग खाली ताली तथा प्रकृति इत्यादि के अतिरिक्त यह विवरण भी मिलता है कि यह किस ताल वाद्य पर बजने वाला ताल है । विभिन्न तालों के लक्षणों को बताने वाले अनेकों ताल लक्षण – गीत स्वरलिपि सहित हमें प्राप्त होते हैं ।
शास्त्र लक्षण गीत– लक्षण गीत के इस प्रकार से संगीत के विभिन्न शास्त्रीय भेदों की चर्चा मिलती है ; जैसे – नाद , श्रुति , स्वर , ग्राम एवं मूर्च्छना इत्यादि । शास्त्र लक्षण गीत की काफी रचनाएँ हमें प्राप्त हुई हैं ।

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24 Apr, 09:40


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सरगम क्या है ?
संगीत के सुरों को ‘ सरगम ‘ कहा जाता है । सरगम शब्द प्रथम चार सुरों के नामों के प्रथम अक्षर के मेल से बनाया गया है । सरगम को एक प्रकार से संक्षिप्तीकरण भी कह सकते हैं । संगीत के मुख्य सात सुर होते हैं , जिनके नाम षड्ज , ऋषभ , गान्धार , मध्यम , पंचम , धैवत और निषाद हैं । सामान्य भाषा इसे सा , रे , ग , म , प , ध तथा नि कहा जाता है । प्रथम चार सुरों के बिना मात्रा वाले अक्षरों को लेकर सरगम बनाया गया है ।

सात मुख्य सुरों के अतिरिक्त पाँच सहायक सुर भी होते हैं , जिन्हें कोमल रे , कोमल ग , तीव्र म , कोमल ध , और कोमल नि कहा जाता है । इन्हीं सुरों की सहायता से संगीत की रचना की गई है ।।

सरगम गीत क्या है ?
सरगम गीत – रागबद्ध व तालबद्ध स्वर रचना को ‘ सरगम गीत ‘ कहते हैं । इसमें केवल स्वर ही होते हैं तथा किसी भी प्रकार की कोई कविता नहीं होती । सरगम गीत अलग – अलग तालों एवं रागों में निबृद्ध होते हैं । इन्हें गाने अथवा अभ्यास द्वारा • विद्यार्थियों को राग एवं स्वरों के ज्ञान में सहायता मिलती है ।

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17 Apr, 14:14


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चतुरंग क्या है ?
चतुरंग यह हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के शास्त्रीय गान के मंच पर प्रदर्शित की वाली एक शैली है । इसके नाम से ही ज्ञात होता है कि इसमें चार अंगों सम्मिश्रण है । अतः यह चार अंगों के सहयोग से निर्मित गायन शैली चतुरंग को मुख्य रूप से ख्याल अंग के साथ गाया जाता है , परन्तु इसमें ख्याल की अपेक्षा तानों का प्रयोग कम या अल्प किया जाता है ।

चतुरंग की उत्पत्ति
चतुरंग की उत्पत्ति सम्भवतः तीन प्रकार की चतुरंग की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद हैं , किन्तु ऐसा माना जाता है कि सरगम पुस्तक के लेख में बताया गया है कि शैलियाँ एक ही बन्दिश में बाँधकर शिष्यों को बताने के लिए ही संगीत पण्डिता ने चतुरंग का आविष्कार किया ।

चतुरंग के आविष्कारिक काल मतंग काल से उत्पन्न माना जाता है अर्थात मतंग काल इसका प्रचलन को आरम्भ हुआ । अतः चतुरंग शैली मतंगमुनि के काल से चली आ रही है ” क्रमिक पुस्तक ” मालिका के तीसरे भाग में राग देश में चतुरंग गीत प्रकार दिया गया है , जिसकी रचना बन्दिश के तीन घटकों में हुई ।

चतुरंग के चार अंग क्या हैं ?
चतुरंग में चार अंग होते हैं , जिसके परिणामस्वरूप यह चतुरंग के नाम से जाना जाता है । इसमें सर्वप्रथम पद , तराने के बोल , सरगम और अन्त में तबला या मृदंग के पाट अथवा किसी अन्य भाषा के शब्द रहते हैं । इनका वर्णन इस प्रकार है ।

प्रथम अंग इसमें गीत अथवा कविता के शब्द होते हैं ।।
दूसरा अंग यह तराना कहलाता है , इसमें तराने के बोलों का गायन किया जाता है ।
तीसरा अंग यह सरगम कहलाता है , इसमें विशिष्ट राग की सरगम गाई जाती है ।
चौथा अंग यह मृदंग व पखावज का होता है , इसमें मृदंग व पखावज के बोलों की छोटी – सी परन का गायन किया जाता है ।

चतुरंग की विशेषता
यह द्रुत लय प्रधान गायन – शैली है । इसमें छोटे – छोटे आलाप , बोल आलाप तथा बहलावे होते हैं ।
इसमें भाव पक्ष की अपेक्षा कला पक्ष का अधिक महत्त्व होता है । यह अधिकतर चंचल प्रकृति के रागों में ही गाई जाती है ।

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