कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि |
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये
योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।
योगजन यह समझते हैं कि सुख की खोज में लौकिक कामनाओं के पीछे भागना रेगिस्तान में जल को ढूंढने की मृग-तृष्णा के समान है। इसी सत्य को जानकर वे अपनी निजी कामनाओं का त्याग करते हैं और अपने सभी कर्म भगवान के सुख के लिए करते हैं “भोक्तारं यज्ञ तपसाम्" अर्थात जो अकेला सभी कर्मों का परम भोक्ता है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ‘समर्पण' को नवीन शैली में व्यक्त कर रहे हैं। वे कहते हैं कि सिद्ध योगी अन्तःकरण की शुद्धि हेतु कर्म करते हैं। तब फिर कर्म भगवान को कैसे समर्पित हो जाते हैं? वास्तव में भगवान हमसे कुछ अपेक्षा नहीं करते। वे परम सत्य हैं और अपने आप में पूर्ण और सिद्ध हैं। हम अणु आत्माएँ सर्व शक्तिमान भगवान को क्या सौंप सकती हैं जो भगवान के पास न हो? इसलिए भगवान को कुछ अर्पित करने के लिए यह कहने की परम्परा है-“हे भगवान! मैं तुम्हारी वस्तु तुम्हें लौटा रहा हूँ।" इसी समान मत को व्यक्त करते हुए संत यमुनाचार्य कहते हैं
मम नाथ यद् अस्ति योऽस्म्यहं सकलम् तद्धी तवैव माधव ।
नियतस्वम् इति प्रबुद्धधैरथवा किं नु समर्पयामि ते।।
(श्रीस्त्रोत रत्न-50)
"हे भाग्य की देवी लक्ष्मी के स्वामी विष्णु भगवान, जब मैं अज्ञानी था तब मैं समझता था कि मैं तुम्हे बहुत पदार्थ दे सकता हूँ किन्तु अब जब मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया तब मैं यह मानता हूँ कि मेरे स्वामित्व में जो भी है वह सब पहले से ही आप का है। इसलिए मैं तुम्हें क्या अर्पित कर सकता हूँ।" फिर भी एक कर्म जो भगवान के हाथ में न होकर हमारे हाथ में होता है वह हमारे स्वयं के अन्त:करण (मन और बुद्धि) को शुद्ध करना है। जब हम अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर लेते है और उसे भगवान की भक्ति में तल्लीन कर लेते हैं तब भगवान अन्य कर्मों की अपेक्षा इससे अधिक प्रसन्न होते हैं। इसे जानकर योगी जन अपने निहित स्वार्थों की अपेक्षा अपने परम लक्ष्य के रूप में भगवान के सुख के लिए अपने अन्तःकरण की शुद्धि करते हैं। इस प्रकार से योगी जन यह जानते हैं कि वे भगवान को जो सबसे सर्वोत्तम वस्तु अर्पित कर सकते हैं वह अन्त:करण की शुद्धि है और वे उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं। रामायण में इस सिद्धान्त का रोचक वर्णन मिलता है। भगवान राम ने जब सुग्रीव को युद्ध से पूर्व भयभीत होते हुए देखा तो उन्होंने उसे इस प्रकार से सांत्वना दी
kāyena manasā buddhyā kevalair indriyair api
yoginaḥ karma kurvanti saṅgaṁ tyaktvātma-śhuddhaye
The yogis, while giving up attachment, perform actions with their body, senses, mind, and intellect, only for the purpose of self-purification.
The yogis understand that pursuing material desires in the pursuit of happiness is as futile as chasing the mirage in the desert. Realizing this, they renounce selfish desires, and perform all their actions for the pleasure of God, who alone is the bhoktāraṁ yajña tapasām (Supreme enjoyer of all activities). However, in this verse, Shree Krishna brings a new twist to the samarpaṇ (dedication of works to God). He says the enlightened yogis perform their works for the purpose of purification. How then do the works get dedicated to God?
The fact is that God needs nothing from us. He is the Supreme Lord of everything that exists and is perfect and complete in Himself. What can a tiny soul offer to the Almighty God, that God does not already possess? Hence, it is customary while making an offering to God to say: tvadiyaṁ vastu govinda tubhyameva samarpitaṁ “O God,
I am offering Your item back to You.” Expressing a similar sentiment, Saint Yamunacharya states:
The yogis understand that pursuing material desires in the pursuit of happiness is as futile as chasing the mirage in the desert. Realizing this, they renounce selfish desires, and perform all their actions for the pleasure of God, who alone is the bhoktāraṁ yajña tapasām (Supreme enjoyer of all activities). However, in this verse, Shree Krishna brings a new twist to the samarpaṇ (dedication of works to God). He says the enlightened yogis perform their works for the purpose of purification. How then do the works get dedicated to God?