कुछ लोग समझते हैं फरिश्ते हैं गांव में,
मां बाप से पूछो क्यों चले आए थे छोड़कर,
राजनीति की दलदल में फंस गया है गांव,
रौशनी कहीं और निकल आई छांव रह गया है गाँव,
यूं तो ऐसा है कि मन जाने को तड़पता है,
मगर वहां ना रोजी है ना रोटी का अता पता है,
बुरे नहीं है लोग लोग तो वैसे हैं जैसे यहां हैं,
बस काम नहीं है तो लगे हैं एक दूसरे को नंगा करनें में,
इस प्रतियोगिता में ख़ुद ही पड़े हैं,
पढ़ तो रहे हैं मगर बढ़ नहीं रहे,
वही सरकारी नौकरी, वही दामाद की खोज,
वही खेत का बवाल, वही घूम घूम खाने की मौज,
नहीं, बुरा कुछ भी नहीं है,
मगर सोच में बदलाव की रफ़्तार बहुत धीमी है,
नकली धर्म जाती समाज की जड़े बहुत जकड़ी हैं,
असल छोड़कर दलालों की पकड़ यहां तगड़ी है,
भागी किसकी बिटिया, कौन ब्याह लाया नीच लड़की को,
कहां फौजदारी हुई, कौन हांक गया बकरी को,
पटीदार ने दहेज़ दस लाख दिया हम तो बारह देंगे ही,
उसने कर्ज़ा आठ लिया हम तो दस लेंगे ही,
बिक गए खेत, घर है बस नाम का,
मुफ़्त है राशन मिल रहा सरकार का,
आदत है, हां आदत है हर दफा वही करने का,
चुनाव के पहले पैर छुआनें बाद में पैर पड़ने का,
बाक़ी कुछ कसर कानून पूरी करता है,
एक थोड़ा झगड़ा हो मुकद्दमा तमाम उम्र चलता है,
जो शहर निकल आए वो बुरा भला कुछ तो उसे बताते हैं,
हां त्यौहार पड़ जाए याद गज़ब जताते हैं,
लौटना चाहते हैं वहां कुछ न करने के लिए,
चलो बस किसी तरह काट लेंगे ज़िंदगी वहीं गांव में गांव के प्रेम में रहनें के लिए..!!