रामचरितमानस🙏🙏🙏

@ramcharitmanas_chaupai


रामचरितमानस चौपाई व श्रीराम के चरित्र का विवरण।

रामचरितमानस🙏🙏🙏

03 Sep, 21:07


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रामचरितमानस🙏🙏🙏

06 May, 05:13


दोहा :
मंत्र परम लघु जासु बस,
बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ,
बस कर अंकुस खर्ब॥256॥

भावार्थ:-
जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यन्त छोटा होता है। महान मतवाले गजराज को छोटा सा अंकुश वश में कर लेता है॥256॥
क्रमशः,,,,,,
🚩जय श्री सीताराम जी की 🚩

रामचरितमानस🙏🙏🙏

06 May, 05:13


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🚩जय श्री सीताराम जी की🚩
आप सभी श्री सीतारामजीके भक्तों को प्रणाम
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🌹
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड
श्री लक्ष्मणजी का क्रोध

बिस्वामित्र समय सुभ जानी।
बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भंजहु भवचापा।
मेटहु तात जनक परितापा॥3॥

भावार्थ:-
विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ॥3॥

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा।
हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ।
ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥

भावार्थ:-
गुरु के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और वे अपनी ऐंड़ (खड़े होने की शान) से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए ॥4॥

दोहा :
उदित उदयगिरि मंच पर,
रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब,
हरषे लोचन भृंग॥254॥

भावार्थ:-
मंच रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल सूर्य के उदय होते ही सब संत रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गए॥254॥

चौपाई :
नृपन्ह केरि आसा निसि नासी।
बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने।
कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥

भावार्थ:-
राजाओं की आशा रूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बंद हो गया। (वे मौन हो गए)। अभिमानी राजा रूपी कुमुद संकुचित हो गए और कपटी राजा रूपी उल्लू छिप गए॥1॥

भए बिसोक कोक मुनि देवा।
बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा।
राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥

भावार्थ:-
मुनि और देवता रूपी चकवे शोकरहित हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेम सहित गुरु के चरणों की वंदना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी॥2॥

सहजहिं चले सकल जग स्वामी।
मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी।
पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥

भावार्थ:-
समस्त जगत के स्वामी श्री रामजी सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही चले। श्री रामचन्द्रजी के चलते ही नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमांच से भर गए॥3॥

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे।
जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं।
तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥

भावार्थ:-
उन्होंने पितर और देवताओं की वंदना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डंडी की भाँति तोड़ डालें॥4॥

दोहा :
रामहि प्रेम समेत लखि,
सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस,
बचन कहइ बिलखाइ॥255॥

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी को (वात्सल्य) प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीताजी की माता स्नेहवश बिलखकर (विलाप करती हुई सी) ये वचन बोलीं-॥255॥

चौपाई :
सखि सब कौतुक देख निहारे।
जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं।
ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥

भावार्थ:-
हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये (रामजी) बालक हैं, इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष रावण और बाण- जैसे जगद्विजयी वीरों के हिलाए न हिल सका, उसे तोड़ने के लिए मुनि विश्वामित्रजी का रामजी को आज्ञा देना और रामजी का उसे तोड़ने के लिए चल देना रानी को हठ जान पड़ा, इसलिए वे कहने लगीं कि गुरु विश्वामित्रजी को कोई समझाता भी नहीं)॥1॥

रावन बान छुआ नहिं चापा।
हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं।
बाल मराल कि मंदर लेहीं॥2॥

भावार्थ:-
रावण और बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गए, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं। हंस के बच्चे भी कहीं मंदराचल पहाड़ उठा सकते हैं?॥2॥

भूप सयानप सकल सिरानी।
सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।।
बोली चतुर सखी मृदु बानी।
तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥3॥

भावार्थ:-
(और तो कोई समझाकर कहे या नहीं, राजा तो बड़े समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरु को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी, परन्तु मालूम होता है-) राजा का भी सारा सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में नहीं आती (यों कहकर रानी चुप हो रहीं)। तब एक चतुर (रामजी के महत्व को जानने वाली) सखी कोमल वाणी से बोली- हे रानी! तेजवान को (देखने में छोटा होने पर भी) छोटा नहीं गिनना चाहिए॥3॥

कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा।
सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत लघु लागा।
उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥

भावार्थ:-
कहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले (छोटे से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र? किन्तु उन्होंने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है। सूर्यमंडल देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अंधकार भाग जाता है॥4॥

रामचरितमानस🙏🙏🙏

10 Apr, 08:15


सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम |

जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 100से आगे .....

छंद :

बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही।।
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती।।
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं।।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें।।
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं।।
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।।
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।।
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी।।
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।।

भावार्थ:-संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान् हो गये और गृहस्थ दरिद्र । हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती।।कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घरमें दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखायी पड़ा।।जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तबसे कुटुम्बी शत्रुरूप हो गये। राजा लोग पापपरायण हो गये, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही [बिना अपराध] दण्ड देकर उसकी विडम्बना (दुर्दशा) किया करते हैं।।धनी लोग मलिन (नीच जाति के होनेपर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विजका चिह्न जनेऊमात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं।।कवियों के तो झुंड हो गये, पर दुनिया में उदार (कवियोंका आश्रय-दाता)सुनायी नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं है। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुखी होकर मरते हैं।।

दोहा :

सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड।।101क।।
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान।।101ख।।

भावार्थ:-हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये, कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गये (छा गये)।मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि मर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इन्द्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं।।101(क -ख)।।

शेष अगली पोस्ट में....

गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 101, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर

रामचरितमानस🙏🙏🙏

21 Mar, 13:14


परेउ मुरूछि महि लागत सायक।
सुमिरत राम राम *रघुनायक*।।

हनुमानजी भरत जी द्वारा बिना अग्रभाग के वाण प्रहार से जब पृथ्वी पर गिरने लगे तो यदि केवल राम राम कहते हुए गिरते तो भरत जी को कुछ आशंकाएं हो सकती थी कि नहीं?
राम राम,
तो कौन राम?
इस रामावतार से पहले,
इन अवतारी राम से परिचय से पहले भी तो निराकार राम के नाम था कि नहीं???
सुग्रीव इन अवतारी राम से परिचय पूर्व ही सीता जी को रावण द्वारा आकाश मार्ग से हरण कर ले जाते हुए तथा सीता जी के आर्त पुकार सुनकर .. राम राम हा राम पुकारी।
इसलिए प्रभु ने गिरते हुए हनुमानजी के मुख से कहला दिया -
सुमिरत राम राम *रघुनायक* -
तात्पर्य ये कि मैं रघुकुल के नायक अर्थात् आप भी जिनके सेवक हैं, मैं भी उन्हीं के दास हूं।
मेरे आराध्य वही रघुकुल के नायक राम जी हैं -
सुमिरत राम राम रघुनायक।
और इसीलिए भरत जी ने उन्हें जागृत करने के लिए अचूक औषधि राम प्रेम का प्रयोग किया...
जौं मोरे मन बच अरू काया। प्रीति राम पद कमल *अमाया*।।
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला।।
🙏🙏🙏
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सीताराम

रामचरितमानस🙏🙏🙏

20 Mar, 05:22


*🚩जय श्री सीताराम जी की* 🚩
*आप सभी श्री सीतारामजीके भक्तों को प्रणाम*
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🌹
*श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड प्रतापभानु की कथा*

चौपाई :
*गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ*।
*निज आश्रम तापस लै गयऊ॥*
*आसन दीन्ह अस्त रबि जानी*।
*पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥*

भावार्थ:-
सारी थकावट मिट गई, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला- ॥1॥

*को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें।*
*सुंदर जुबा जीव परहेलें*॥
*चक्रबर्ति के लच्छन तोरें*।
*देखत दया लागि अति मोरें॥2॥*

भावार्थ:-
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है॥2॥

*नाम प्रतापभानु अवनीसा*।
*तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥*
*फिरत अहेरें परेउँ भुलाई*।
*बड़ें भाग देखेउँ पद आई॥3॥*

भावार्थ:-
(राजा ने कहा-) हे मुनीश्वर! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं॥3॥

*हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा।*
*जानत हौं कछु भल होनिहारा॥*
*कह मुनि तात भयउ अँधिआरा।*
*जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥4*॥

भावार्थ:-
हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होने वाला है। मुनि ने कहा- हे तात! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है॥4॥

दोहा :
*निसा घोर गंभीर बन,*
*पंथ न सुनहु सुजान।*
*बसहु आजु अस जानि तुम्ह,* *जाएहु होत बिहान॥159 (क)॥*

भावार्थ:-
हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना॥159 (क)॥

*तुलसी जसि भवतब्यता,*
*तैसी मिलइ सहाइ।*
*आपुनु आवइ ताहि पहिं,*
*ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)*॥

भावार्थ:-
तुलसीदासजी कहते हैं- जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥159 (ख)॥

चौपाई :
*भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा।*
*बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥*
*नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही।*
*चरन बंदि निज भाग्य सराही॥1॥*

भावार्थ:-
हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की॥1॥

*पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई।*
*जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥*
*मोहि मुनीस सुत सेवक जानी*।
*नाथ नाम निज कहहु बखानी॥2॥*

भावार्थ:-
फिर सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए॥2॥

*तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना।*
*भूप सुहृद सो कपट सयाना॥*
*बैरी पुनि छत्री पुनि राजा।*
*छल बल कीन्ह चहइ निज काजा।।*

भावार्थ:-
राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था॥3॥

*समुझि राजसुख दुखित अराती।*
*अवाँ अनल इव सुलगइ छाती*॥
*ससरल बचन नृप के सुनि काना।*
*बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥4॥*

भावार्थ:-
वह शत्रु अपने राज्य सुख को समझ करके (स्मरण करके) दुःखी था। उसकी छाती (कुम्हार के) आँवे की आग की तरह (भीतर ही भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ॥4॥

दोहा :
*कपट बोरि बानी मृदल,*
*बोलेउ जुगुति समेत।*
*नाम हमार भिखारि अब,*
*निर्धन रहित निकेत॥160॥*

भावार्थ:-
वह कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला- अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं॥160॥
क्रमशः,,,,
*🚩जय श्री सीताराम जी की* 🚩

रामचरितमानस🙏🙏🙏

27 Feb, 09:48


27 फरवरी- श्रीरामचरितमानस
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ।।
( सुंदरकांड 43/1)
राम राम बंधुओं , बिभीषण के राम जी के पास आने के मंतब्य को लेकर सुग्रीव जी संदेह प्रकट करते हैं । राम जी उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि चाहे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या करके भी यदि कोई मेरी शरण में आता है तो मैं उसे अपना लेता हूँ कारण जीव जब तक मुझमें नहीं लगता है तब तक उसके पिछले पाप नष्ट नहीं होते हैं ।
मित्रों , हम आप राम जी में नहीं लगे हैं इसलिए हमारे पिछले नष्ट नहीं हो रहे हैं । जैसे ही हम राम जी में लगेंगे राम जी हमें अपनाकर अच्छा बना देंगे अस्तु बिना देरी किए , जय राम शरण , जय राम शरण 🚩🚩🚩

रामचरितमानस🙏🙏🙏

26 Feb, 18:38


https://youtu.be/I21itNGFpsE

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26 Feb, 18:19


https://youtu.be/EysSA2_5uYc

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26 Feb, 18:17


https://youtu.be/ZdfgQZHxAEs

रामचरितमानस🙏🙏🙏

26 Feb, 18:16


(🚩जय श्री सीताराम जी की* 🚩
*आप सभी श्री सीतारामजीके भक्तों को प्रणाम करता हूँ ।*
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🌹
*श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड*
*शिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी*

*सैल सकल जहँ लगि जग माहीं।*
*लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥*
*बन सागर सब नदी तलावा।*
*हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥*

भावार्थ:-
जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा॥2॥

*कामरूप सुंदर तन धारी।*
*सहित समाज सहित बर नारी॥*
*गए सकल तुहिमाचल गेहा।*
*गावहिं मंगल सहित सनेहा॥3॥*

भावार्थ:-
वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मंगल गीत गाते हैं॥3॥

*प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए*।
*जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥*
*पुर सोभा अवलोकि सुहाई। )*
*लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥4॥*

भावार्थ:-
हिमाचल ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥4॥

छन्द :
*लघु लाग बिधि की निपुनता*
*अवलोकि पुर सोभा सही।*
*बन बाग कूप तड़ाग सरिता*
*सुभग सब सक को कही॥*
*मंगल बिपुल तोरन पताका*
*केतु गृह गृह सोहहीं।*
*बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि*
*देखि मुनि मन मोहहीं॥*

भावार्थ:-
नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं॥

दोहा :
*जगदंबा जहँ अवतरी,*
*सो पुरु बरनि कि जाइ।*
*रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख,*
*नित नूतन अधिकाइ॥94॥*

भावार्थ:-
जिस नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं॥94॥

चौपाई :
*नगर निकट बरात सुनि आई।*
*पुर खरभरु सोभा अधिकाई*॥
*करि बनाव सजि बाहन नाना।*
*चले लेन सादर अगवाना॥1॥*

भावार्थ:-
बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले॥1॥

*हियँ हरषे सुर सेन निहारी।*
*हरिहि देखि अति भए सुखारी॥*
*सिव समाज जब देखन लागे।*
*बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥*

भावार्थ:-
देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले॥2॥

*धरि धीरजु तहँ रहे सयाने।*
*बालक सब लै जीव पराने॥*
*गएँ भवन पूछहिं पितु माता।*
*कहहिं बचन भय कंपित गाता॥3॥*

भावार्थ:-
कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं॥3॥

*कहिअ काह कहि जाइ न बाता।*
*जम कर धार किधौं बरिआता॥*
*बरु बौराह बसहँ असवारा।*
*ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥*

भावार्थ:-
क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं॥4॥

छन्द :
*तन छार ब्याल कपाल भूषन*
*नगन जटिल भयंकरा।*
*सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि*
*बिकट मुख रजनीचरा॥*
*जो जिअत रहिहि बरात देखत*
*पुन्य बड़ तेहि कर सही।*
*देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर*
*बात असि लरिकन्ह कही॥*

भावार्थ:-
दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।

दोहा :
*समुझि महेस समाज सब,*
*जननि जनक मुसुकाहिं।*
*बाल बुझाए बिबिध बिधि,*
*निडर होहु डरु नाहिं॥95॥*

भावार्थ:-
महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है ।।95।।
क्रमशः,,,,,
*🚩जय श्री सीताराम जी की* 🚩

रामचरितमानस🙏🙏🙏

04 Feb, 09:48


4 फ़रवरी - श्रीरामचरितमानस
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं ।
तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं ।।
(अयोध्याकाण्ड 190/2)
राम राम बंधुओं, राम जी को मनाने सारा अवध व राजा जनक चित्रकूट पहुँचें हुए हैं । आपसी वार्ता उपरांत वशिष्ठ जी के पास राम जी आते हैं और कहते हैं कि आप सब बहुत दिनों से कष्ट सह रहें हैं , अब आप वह करें जिससे सबका हित हो । वशिष्ठ जी कहते हैं कि राम , तुम्हारे बिना ही सब दुखी हैं और जो सुखी हैं वे तुम्हीं से सुखी हैं । किसमें क्या है तुम सबके ह्रदय की बात जानते हो ।
मित्रों , राम जी के साथ ही सब सुख है , कारण राम जी सुख हैं , सुखसिंधु हैं ,फिर अभी तक हम आप सुख के लिए अन्यत्र क्यों भटक रहे हैं । अस्तु सुखधाम का साथ करें पर पहले राम राम करें , राम राम कहें 🚩🚩🚩

रामचरितमानस🙏🙏🙏

27 Jan, 20:12


27 जनवरी - श्रीरामचरितमानस
अहह दैव मैं कत जग जायउँ ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ ।।
( लंकाकांड )
राम राम बंधुओं , लक्ष्मण जी को शक्ति लगी है , हनुमान जी पूरा पर्वत ही लेकर अयोध्या के ऊपर से जा रहें हैं । भरत जी निसाचर समझ कर बिना फ़र का बाण उन्हें मारते हैं । हनुमान जी राम राम कहते हुए मूर्छित होकर गिर पड़ते हैं ।भरत जी उन्हें जगाते हैं , हनुमान जी सब बात उन्हें बताते हैं । तब भरत अपने को कोसते हुए कहते हैं कि हे दैव! मैं संसार में क्यू पैदा हुआ ? प्रभु के एक भी काम नहीं आया ।
मित्रों , भरत जी की तरह हमें भी यह भाव रखना चाहिए कि हमने अभी तक क्या राम कार्य किया ? नाम जपा , सुमिरन किया , परहित किया ? कुछ भी तो नहीं किया तो फिर राम काज में लग जाएँ अस्तु सीताराम जय सीताराम 🚩🚩🚩

रामचरितमानस🙏🙏🙏

11 Dec, 14:05


L
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा।
निज अनुरूप सुभग बरू मागा।।

सीता जी द्वारा गौरी पूजन में किस चीज की अधिकता है?
पूजा कीन्हि
*अधिक अनुरागा*।
वैसे पूजा पाठ तो हम भी करते हैं पर उसमें अनुराग की अपेक्षा राग अधिक रहता है/दिखावा अधिक प्रेम अनुराग कम होता है कि नहीं?
खैर अपनी ओर न चलकर उस ओर चलते हैं 🙏
सीता जी द्वारा गौरी पूजन में पुष्प,गंध अक्षत आदि की अपेक्षा अनुराग अधिक रहा और उन्होंने याचना किया तो - *निज अनुरूप*..।
और इस अनुराग युक्त पूजन का तत्काल प्रभाव देखिए कि संयोग ऐसा बना कि उसी गौरी पूजन के बीच फूलवारी में पहुंच गई जहां राम लखन गुरु जी के पूजा हेतु पुष्प तोड़ रहे..
एक सखि सिय संग बिहाई।
और
गई रही देखन फूलवाई।।
अर्थात् गौरी जी ने संयोग जुटा दिया कि देख लो ये तुम्हारे अनुरुप (निज अनुरूप सुभग बरू मागा) है कि नहीं?
यदि हां
तो उस प्रकार के संयोग बनाएंगे।
तो सीता जी ने जब देखा तो उनकी प्रतिक्रिया के सारांश यही है कि उनके अनुरूप क्या ये तो उससे भी अधिक हैं (निज निधि पहिचानी)।
वैसे पंचवटी में एक ऐसी भी मिलती है जिसके अनुरूप वे नहीं रहे (मन माना *कछु* तुम्हहि निहारी) , पूर्ण को देखकर भी अपूर्णता(मम अनुरूप पुरुष जग नाहीं)।

तात्पर्य ये कि सीता जी ने अत्यधिक अनुराग युक्त पूजन किया तो संयोग भी बना और वो एक सखी के माध्यम से अपने अनुरूप वर के पास पहुंच गईं..
🙏🙏🙏
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सीताराम

रामचरितमानस🙏🙏🙏

03 Dec, 05:56


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

*🌞श्री सीताराम सुप्रभातम* 🌞

जेहिं-जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥

भावार्थ:-भगवान हमें यही दें कि हम अपने कर्मवश भ्रमते हुए जिस-जिस योनि में जन्में, वहाँ-वहाँ (उस-उस योनि में) हम तो सेवक हों और सीतापति श्री रामचन्द्रजी हमारे स्वामी हों और यह नाता अन्त तक निभ जाए॥

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

रामचरितमानस🙏🙏🙏

09 Nov, 02:28


*🚩जय श्री सीताराम जी की*🚩
*आप सभी श्रीसीतारामजीके भक्तों को प्रणाम*
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🌹
*श्री रामचरित मानस उत्तर काण्ड*
*शिव-पार्वती संवावद, गरुड़ मोह, गरुड़जी का काकभुशुण्डि से रामकथा और राम महिमा सुनना*

चौपाई
*गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा।*
*मैं सब कही मोरि मति जथा॥*
*राम चरित सत कोटि अपारा।*
*श्रुति सारदा न बरनै पारा॥१॥*

भावार्थ :
(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा, जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली।श्री रामजी के चरित्र सौ करोड़ (अथवा) अपार हैं।
श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते॥१॥

*राम अनंत अनंत गुनानी।*
*जन्म कर्म अनंत नामानी॥*
*जल सीकर महि रज गनि जाहीं।*
*रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥२॥*

भावार्थ :
भगवान्‌ श्री राम अनंत हैं, उनके गुण अनंत हैं, जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं।जल की बूँदें और पृथ्वी के रजकण चाहे गिने जा सकते हों, पर श्री रघुनाथजी के चरित्र वर्णन करने से नहीं चूकते॥२॥

*बिमल कथा हरि पद दायनी।*
*भगति होइ सुनि अनपायनी॥*
*उमा कहिउँ सब कथा सुहाई।*
*जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥३॥*

भावार्थ :
यह पवित्र कथा भगवान्‌ के परम पद को देने वाली है।इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है।
हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को सुनाई थी॥३॥

*कछुक राम गुन कहेउँ बखानी।*
*अब का कहौं सो कहहु भवानी॥*
*सुनि सुभ कथा उमा हरषानी।*
*बोली अति बिनीत मृदु बानी॥४॥*

भावार्थ :
मैंने श्री रामजी के कुछ थोड़े से गुण बखान कर कहे हैं।
हे भवानी! सो कहो, अब और क्या कहूँ? श्री रामजी की मंगलमयी कथा सुनकर पार्वतीजी हर्षित हुईं और अत्यंत विनम्र तथा कोमल वाणी बोलीं-॥४॥

*धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी।*
*सुनेउँ राम गुन भव भय हारी*॥५॥

भावार्थ :
हे त्रिपुरारि।मैं धन्य हूँ, धन्य-धन्य हूँ जो मैंने जन्म-मृत्यु के भय को हरण करने वाले श्री रामजी के गुण (चरित्र) सुने॥५॥

दोहा :
*तुम्हरी कृपाँ कृपायतन*
*अब कृतकृत्य न मोह।*
*जानेउँ राम प्रताप प्रभु*
*चिदानंद संदोह॥५२ क॥*

भावार्थ :
हे कृपाधाम।अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गई।
अब मुझे मोह नहीं रह गया।
हे प्रभु! मैं सच्चिदानंदघन प्रभु श्री रामजी के प्रताप को जान गई॥५२ (क)॥

*नाथ तवानन ससि स्रवत*
*कथा सुधा रघुबीर।*
*श्रवन पुटन्हि मन पान करि*
*नहिं अघात मतिधीर॥५२ ख॥*

भावार्थ :
हे नाथ! आपका मुख रूपी चंद्रमा श्री रघुवीर की कथा रूपी अमृत बरसाता है।हे मतिधीर मेरा मन कर्णपुटों से उसे पीकर तृप्त नहीं होता॥५२ (ख)॥

चौपाई
*राम चरित जे सुनत अघाहीं।*
*रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥*
*जीवनमुक्त महामुनि जेऊ।*
*हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ॥१॥*

भावार्थ :
श्री रामजी के चरित्र सुनते-सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर देते हैं), उन्होंने तो उसका विशेष रस जाना ही नहीं।जो जीवन्मुक्त महामुनि हैं, वे भी भगवान्‌ के गुण निरंतर सुनते रहते हैं॥१॥

*भव सागर चह पार जो पावा।*
*राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥*
*बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा।*
*श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥२॥*

भावार्थ :
जो संसार रूपी सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिए तो श्री रामजी की कथा दृढ़ नौका के समान है। श्री हरि के गुणसमूह तो विषयी लोगों के लिए भी कानों को सुख देने वाले और मन को आनंद देने वाले हैं॥२॥

*श्रवनवंत अस को जग माहीं।*
*जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं॥*
*ते जड़ जीव निजात्मक घाती।*
*जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती॥३॥*

भावार्थ :
जगत्‌ में कान वाला ऐसा कौन है, जिसे श्री रघुनाथजी के चरित्र न सुहाते हों। जिन्हें श्री रघुनाथजी की कथा नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो अपनी आत्मा की हत्या करने वाले हैं॥३॥

*हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा।*
*सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा॥*
*तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई।*
*कागभुशण्डि गरुड़ प्रति गाई॥४॥*

भावार्थ :
हे नाथ! आपने श्री रामचरित्र मानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया।
आपने जो यह कहा कि यह सुंदर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कही थी-॥४॥
*🚩जय श्री सीताराम जी की*🚩

रामचरितमानस🙏🙏🙏

09 Oct, 18:13


॥दस प्रकार के लोग धर्म - विषयक बातों को महत्त्वहीन समझते हैं । ये लोग हैं - --- >>
नशे में धुत्त व्यक्ति ( किसी भी प्रकार का दुर्व्यसन करने वाला) , लापरवाह , पागल , थका - हारा व्यक्ति , क्रोध , भूख से पीड़ित , जल्दबाज , लालची (जो धर्म को ही व्यवसाय बना दे ) डरा हुआ (सदा भयभीत रहने वाला) तथा काम पीड़ित व्यक्ति >>> विवेकशील व्यक्तियों को ऐसे लोगों की संगति से बचना चाहिए ।
ये सभी विनाश की और ले जाते हैं|

दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्।
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः||
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डितः||

रामचरितमानस🙏🙏🙏

09 Oct, 04:58


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