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Osho Stories - Hindi

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Compiled from Osho Books...

Osho Stories - Hindi (Hindi)

ओशो कहानियाँ - हिंदी नए दरवाज़ों को खोलती हैं और आत्मा की एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। इस टेलीग्राम चैनल 'oshohindistories' पर आपको ओशो द्वारा लिखी गई कहानियों का संग्रह मिलेगा। यह कहानियाँ ओशो की पुस्तकों से संकलित हैं और आपके जीवन को सजाने के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश लेकर आती हैं। यह कहानियाँ न केवल मनोरंजन के लिए हैं, बल्कि आपको आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाने का मार्ग दिखाती हैं। अगर आप अपनी आत्मा की खोज में हैं और अच्छी कहानियों का आनंद लेना चाहते हैं, तो 'ओशो कहानियाँ - हिंदी' चैनल आपके लिए एक आदर्श ठिकाना है।

Osho Stories - Hindi

04 Apr, 13:49


हिंदी बोध कथा - 590


जंगल में पेड़ों की छाया के नीचे फूलों से महकता हुआ एक झरना मधुर गीत गाते हुए रेगिस्तान में पहुँचता है और सामने रेगिस्तान के विशाल विस्तार को देखकर रुक जाता है. वह रेगिस्तान पार करना चाहता था, लेकिन उसे एहसास हुआ कि यह संभव नहीं है।

रेगिस्तान की धूप से गर्म हुई रेत में इसकी धार धुंधली हो रही थी. झरना परेशान, शर्मिंदा हुआ। तब रेत के एक कण ने उससे कहा, इस रेगिस्तान को तो हवा भी पार कर सकती है, तो तू भी इस रेगिस्तान को पार कर सकता है।

झरने ने कहा, हवा उड़ सकती है. मैं कैसे उड़ूँ?

रेत के कण ने कहा, अकेले उड़ने का निर्णय करोगे तो मुश्किल है। यदि आप गर्मी की मदद से हवा के साथ उड़ते हैं तो क्या मुश्किल है?

झरने ने एक कदम पीछे हटते हुए कहा- अरे तो फिर मेरी पहचान क्या रह जायेगी ?

रेत का कण मुस्कुराया और बोला, जो नहीं रहेगी, उसे तुम कैसे जान पाओगे ?

झरने ने एक पल सोचा... और भाप के रूप में, हवा का एक झोंका आकाश में उछला.

रेगिस्तान पार करने के बाद वह एक पहाड़ पर पहुंचा. वहां बारिश होने लगी और नए जंगल में नदी के रूप में बहने लगी, नए फूलों की खुशबू, एक नई दहाड़ के साथ...
अब जब लोग उन्हें 'नदी' कहते हैं तो तब उसे भी हंसी आती है... रेत के उस कण की तरह।




- ओशो

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04 Apr, 13:46


हिंदी बोध कथा - 589


एक भिखारी हमेशा की तरह भीख मांगने निकला। भिखारी भिखारियों के मनोविज्ञान को अच्छी तरह जानते हैं। पूजा की थाली में सिक्के न हों तो लोग सिक्के नहीं रखते। साथ ही अगर किसी भिखारी की झोली में भीख न दिखे तो लोग उसे भीख भी नहीं देते हैं। इसलिए वह अनाज से भरा एक छोटा थैला साथ लेकर चलता था।

सुबह जैसे ही वह सड़क पर आया तो उसने सामने से एक रथ को आते देखा। यह राजा का रथ था। भिखारी इंतजार करने के लिए गर्दन झुकाकर खड़ा हो गया। खुद उसका पीछा करने के बजाय रथ उसके पास आकर रुक गया और राजा उसमें से उतरकर उसकी ओर आया...

भिखारी का हृदय खुशी से उबलने लगा। मुझे आज राजा से भिक्षा मिलेगी! मेरी गरीबी हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगी! कल से भीख मांगने का कोई कारण नहीं होगा! उसके मन में तरह-तरह के विचार घूमने लगे।

राजा उसके सामने आकर खड़ा होगया और अपनी झोली भिखारी के सामने फैला दी। भिखारी अवाक रह गया।

क्या राजा भी मेरी तरह भीख माँगने वाला भिखारी है?

राजा ने कहा, "आश्चर्यचकित मत होइए, महाराज।" हमारे राज्य पर एक दैवीय संकट आ रहा है। राज ज्योतिषाचार्य ने कहा है कि इससे बचने का एक ही उपाय है। समाधान यह है कि मैं सुबह बाहर जाकर जो सबसे पहले व्यक्ति मिलता है उससे भीख मांगता हूं। मुझ पर दया करो, मेरी झोली में कुछ भिक्षा डाल दो।

मैं जानता हूं आप स्वयं भिखारी हैं। लेकिन, आज मैं राज्य के हित में एक याचिकाकर्ता के रूप में आपके सामने खड़ा हूं। शास्त्र के लिए शास्त्र पुरती ही भीख दे दो।

भिखारी का मन बहुत दुखी हुआ... लेकिन जब उसे बताया गया कि उसे शास्त्र पुरती के लिए भीख देनी है तो उसे राहत मिली। उसने अनाज से भरी अपनी आधी बोरी में से केवल एक दाना निकाला और राजा की बोरी में रख दिया। राजा ने सिर झुकाकर थैला बंद किया और रथ की ओर चलने लगा।

उस दिन भिखारी को खूब भीख मिली। लेकिन, उसे खेद था. जब वह घर पहुंचा तो उसकी पत्नी ने कहा, सारे नगर में आपके नाम की चर्चा हो रही है। कि राजा ने तुमसे विनती की भीख देने के लिए। अरे वाह, लगता है आज तुम्हें भी अच्छी भीख मिली होगी ।

भिखारी क्रोधित हो गया और बोला, "अरे मूर्ख औरत, क्या तुम कुछ नहीं जानती?" आज सचमुच राजा मेरे सामने आये। लेकिन, मेरी किस्मत इतनी खराब थी कि वो मुझसे भीख देने को नहीं बल्कि मुझसे भीख मांगने आया था.

जीवन के किसी मोड़ पर एक भिखारी की मुलाकात एक राजा से होती है। और वह भी क्षण हाथ से निकल जाता है। मैंने अपने सारे कष्टों को हमेशा के लिए दूर करने का एक मौका आया था वह भी खो दिया। और मुझे खुशी है कि आज आपको यह बहुत सारी भिक्षा मिली।

उसने गुस्से में एक झोली फेंक दि... सारा अनाज ज़मीन पर गिर गया.

उसमें एक बीज चमक रहा था...
भिखारी ने राजा को अनाज का एक दाना जो दिया था.

उसकी भिक्षा का एक दाना सोने में बदल गया... सिर्फ एक दाना! यह जानकर कि वह जन्म से ही एक भिखारी है , भिखारी निराशा में रोने लगा.




- ओशो

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02 Apr, 08:20


हिंदी बोध कथा - 588


एक मुसलमान फकीर मरने के करीब था! किसी ने उससे पूछा कि आपने किससे ज्ञान सीखा.?

उसने कहा, बड़ा कठिन है! किस-किस के नाम लूं? जीवन में एक भी क्षण ऐसा नहीं बीता जब मैंने किसी से कुछ न सीखा हो!

और उस फकीर ने कहा! एक बार एक गांव में मैं आधी रात भटका हुआ पहुंचा! गांव के सारे लोग सो गए थे, सिर्फ एक आदमी एक मकान के पास, दीवाल के पास बैठा हुआ मुझे मिला। मेरे मन में खयाल हुआ कि हो न हो यह कोई चोर होना चाहिए।

इतनी रात किसी दूसरे के मकान की दीवाल से यह कौन टिका है? मेरे मन में यही खयाल उठा कि कोई चोर होना चाहिए। लेकिन उस आदमी ने मुझसे पूछा, राहगीर, भटक गए हो? चलो, कृपा करो, मेरे घर में ठहर जाओ, अब तो रात बहुत गहरी हो गई और सरायों के दरवाजे भी बंद हो चुके हैं।

वह मुझे अपने घर ले गया और मुझे सुला कर उसने कहा कि मैं जाऊं, रात्रि में ही मेरा व्यवसाय चलता है। तो मैंने पूछा, क्या है तुम्हारा व्यवसाय? उसने कहा कि परमात्मा के एक फकीर से झूठ न बोल सकूंगा, मैं एक गरीब चोर हूं।

वह चोर चला गया। और उस फकीर ने कहा कि मैं बहुत हैरान रह गया, इतनी सचाई तो मैं भी नहीं बोल सकता था। मेरे मन में भी कितनी बार चोरी के खयाल नहीं उठे! और मेरे मन में भी कौन-कौन सी बुराइयां नहीं पाली हैं! लेकिन मैंने कभी किसी को नहीं कहीं।

इतना सरल तो मैं भी न था जितना वह चोर था। और रात जब पूरी बीत गई तो वह चोर वापस लौटा, धीरे-धीरे कदमों से घर के भीतर प्रवेश किया ताकि मेरी नींद न खुल जाए। मैंने उससे पूछा, कुछ मिला? कुछ लाए? उस चोर ने कहा, नहीं, आज तो नहीं, लेकिन कल फिर कोशिश करेंगे। वह खुश था, निराश नहीं था।

फिर तीस दिन मैं उसके घर में मेहमान रहा और वह तीस दिन ही घर के बाहर रोज रात को गया और हर रोज खाली हाथ लौटा और सुबह जब मैंने उससे पूछा कि कुछ मिला? तो उसने कहा, नहीं, आज तो नहीं, लेकिन कल जरूर मिलेगा, कल फिर कोशिश करेंगे।

फिर महीने भर के बाद मैं चला आया। और जब मैं परमात्मा की खोज में गहरा डूबने लगा और परमात्मा का मुझे कोई कोर - किनारा न मिलता था और मैं थक जाता था और हताश हो जाता था और सोचने लगता था कि छोड़ दूं इस दौड़ को, खोज को, तब मुझे उस चोर का खयाल आता था जो रोज खाली हाथ लौटा, लेकिन कभी निराश न हुआ और उसने कहा कि कल फिर कोशिश करेंगे।

और उसी चोर के बार-बार खयाल ने मुझे निराश होने से बचाया। जिस दिन, जिस दिन मुझे परमात्मा की ज्योति मिली, उस दिन मैंने अपने हाथ जोड़े और उस चोर के लिए प्रणाम किया, अगर वह उस रात मुझे न मिला होता तो शायद मैं कभी का निराश हो गया था!

ऐसे उस फकीर ने बहुत सी बातें कहीं जिनसे उसने सीखा! जिंदगी चारों तरफ बहुत बड़ी शिक्षा है। जिंदगी चारों तरफ बहुत बड़ा सत्य है। जिंदगी चारों तरफ रोज-रोज खड़ी है द्वार पर। हमारी आंखें बंद हैं और हम पूछते हैं: सत्संग करने कहां जाएं?

और हम पूछते हैं: किसके चरण पकड़ें, किसको गुरु बनाएं? और जिंदगी चारों तरफ खड़ी है सब कुछ लुटा देने को, सब कुछ खोल देने को, और उसके प्रति हमारी आंखें बंद हैं, और हृदय बंद है.!!




- ओशो

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02 Apr, 08:16


हिंदी बोध कथा - 587


एक आदमी सूफी फकीर जुनैद के पास आया और बोला, मुझे शिष्य बना लो।

जुनैद ने कहा, लेकिन शिष्य बनना बहुत कठिन है।

उस आदमी ने कहा, तो फिर मुझे भक्त तो स्वीकार कर लो।

जुनैद ने कहा, हे पिता, सच्चा भक्त बनना तो और भी कठिन है।

उस आदमी ने कहा, क्या कह रहे हो? कुछ तो मेरे लिये करो.

जुनैद ने कहा, यहां एक ही चीज आसान है. गुरु बनना

आदमी की पूरी शारीरिक भाषा ही बदल गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, अरे वाह, तो क्या मैं गुरु बनने के लिए तैयार हूं या सीधे!

जुनैद ने कहा, यह तुम्हारा पहला पाठ है! जो लोग शिष्य बनने के योग्य भी नहीं हैं, वे सीधे गुरु बनने के लिए तुरंत तैयार हो जाते हैं, क्योंकि यही उनका मूल उद्देश्य होता है।




- ओशो

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02 Apr, 08:13


हिंदी बोध कथा - 586


एक बार एक बादशाह का अपने सरदार से झगड़ा हो गया। क्रोध में आकर उसने दरबार में सरदार को थप्पड़ मार दिया। सरदार का गुस्सा भी फूटा. लेकिन सम्राट को मारना मृत्युदंड को आमंत्रित करना था। उसने अपने से छोटे सरदार को थप्पड़ मार दिया। उस सरदार ने भी सोचा.

पलटवार तो करना बेकार है, इसलिए उसने एक तीसरे सरदार को थप्पड़ मार दिया । वह चिल्लाया, "अरे,क्यो तुम बिना किसी कारण मुझे थप्पड़ मार रहे हो?"

दूसरे सरदार ने कहा, अरे भाई, मुझे क्या मालूम? बड़े सरदार को गुस्सा आ गया, उन्होंने मुझे मारा. मैं उससे नाराज नहीं हो सकता. मैं उनसे पूछताछ नहीं कर सकता. परन्तु फिर मैं जिसे मार सकता था, उसे मारा। मैंने भी वही किया है। तू भी वही कर। ऐसे ही चलता चाहिए राज्य का कारभार !!!




- ओशो

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02 Apr, 08:11


हिंदी बोध कथा - 585


डायोजनीज एक बार मेले में घूम रहा था। वहां बहुत भीड़ थी. एक धनुर्धर अपनी विद्या का प्रदर्शन करने के लिए खड़ा था... वह बहुत नौसिखिया था। उसने एक पेड़ पर एक लक्ष्य बोर्ड लटका रखा था और तेजी से ऊसपर तीर चला रहा था... उनमें से कोई भी निशान से नहीं लगा, लक्ष्य के करीब भी नहीं पहुंचा... सभी तीर इधर उधर मारे जा रहे थे.

डायोजनीज भीड़ के बीच से अंदर घुसा और तीरंदाज के लटकते लक्ष्य के ठीक सामने एक लेटे हुए पेड़ के सहारे बैठ गया और दांत कोरने लगा।

सभी लोग चिल्लाने लगे, हे डायोजनीज, तुम्हें क्या हो गया है? आप वहां कहां बैठते हैं तीर लगेगा तो क्या भाव पड़ेगा ?

डायोजनीज हंसा और बोला, अरे पागलों, क्या तुमने अभी तक ध्यान नहीं दिया? तीर चलाते समय यह सबसे सुरक्षित स्थान है। इसका तीर कहीं और भी लग सकता है, पर यहाँ कभी भी किसी भी परिस्थिति में नहीं!!




- ओशो

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03 Mar, 14:38


हिंदी बोध कथा - 584


बुद्ध के पास एक आदमी आया।
उसने कहा. जो नहीं कहा जा सकता, वही सुनने आया हूं। बुद्ध ने आंखें बंद कर लीं। बुद्ध को आंखें बंद किये देख वह आदमी भी आंख बंद करके बैठ गया।

आनंद पास ही बैठा था - बुद्ध का अनुचर, सदा का सेवक - सजग हो गया कि मामला क्या है? झपकी खा रहा होगा, बैठा - बैठा करेगा क्या। जम्हाई ले रहा होगा। देखा कि मामला क्या है? इस आदमी ने कहा, जो नहीं कहा जा सकता वही सुनने आया हूं। और बुद्ध आंख बंद करके चुप भी हो गये और यह भी आंख बंद करके बैठ गया। दोनों किसी मस्ती में खो गये। कहीं दूर… शून्य में दोनों का जैसे मिलन होने लगा।

आनंद देख रहा है, कुछ हो जरूर रहा है; मगर शब्द नहीं कहे जा रहे है - न इधर से न उधर से। न ओंठ से बन रहे हैं शब्द, न कान तक जा रहे हैं शब्द; मगर कुछ हो जरूर रहा है! कुछ अदृश्य उपस्थिति उसे अनुभव हुई। जैसे किसी एक ही आभामंडल में दोनों डूब गये।

और वह आदमी आधी घड़ी बाद उठा। उसकी आंखों से आनंद के आंसू बह रहे थे। झुका बुद्ध के चरणों में, प्रणाम किये और कहा: धन्यभाग मेरे! बस ऐसे ही आदमी की तलाश में था जो बिना कहे कह दे। और आपने खूब सुंदरता से कह दिया! मैं तृप्त होकर जा रहा हूं।

वह आदमी रोता आनंदमग्न, बुद्ध से विदा हुआ। उसके विदा होते ही आनंद ने पूछा कि मामला क्या है? हुआ क्या? न आप कुछ बोले न उसने कुछ सुना। और जब वह जाने लगा और उसने आपके पैर छुए तो आपने इतनी गहनता से उसे आशीष दिया, उसके सिर पर हाथ रखा, जैसा आप शायद ही कभी किसी के सिर पर हाथ रखते हों! बात क्या है, इसकी गुणवत्ता क्या थी?

बुद्ध ने कहा: आनंद! तू जानता है, जब तू जवान था, हम सब जवान थे - सगे भाई थे, चचेरे भाई थे बुद्ध और आनंद, एक ही राजघर में पले थे, एक ही साथ बड़े हुए थे - तो तुझे घोड़ों से बहुत प्रेम था। तू जानता है न, कुछ घोड़े होते हैं कि उनको मारो तो भी ठिठक जाते हैं, मारते जाओ तो भी नहीं हटते। बड़े जिद्दी होते हैं! फिर कुछ घोड़े होते हैं, उनको जरा चोट करो कि चल पड़ते हैं। फिर कुछ घोड़े होते हैं, उनको चोट नहीं करनी पड़ती, सिर्फ कोड़ा फटकारों, आवाज कर दो, मारो मत और चल पड़ते हैं। और भी कुछ घोड़े होते हैं, तू जानता है भलीभांति, जिनको कोड़े की आवाज करना भी अपमानजनक मालूम होगा, जो सिर्फ कोड़े की छाया देखकर चलते हैं। यह उन्हीं घोड़ों में से एक था। सिर्फ कोड़े की छाया।

मैंने इससे कुछ कहा नहीं, मैं सिर्फ अपनी शून्यता में लीन हो गया। इसे बस मेरी छाया दिख गयी, सत्संग हो गया। इसका नाम सत्संग।



- ओशो

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02 Mar, 04:20


हिंदी बोध कथा - 583


एक बार एक जहाज़ समुद्र में डूब गया। जहाज पर एक प्रसिद्ध नगर योजनाकार सवार था। वह अकेला बच जा पहुंचा और एक निर्जन द्वीप पर पहुंच गया। वहाँ रहने के लिए प्रचुर सामग्री थी। लेकिन, बुद्धि तो सदैव लगी रहनी चाहिए, इसलिए उन्होंने वहां भी एक शहर बसाया... बिल्कुल वैसा ही शहर, जिसमें वह रहता था।

उसने सड़कें डिज़ाइन कीं, दुकानें बनाईं, घर बनाए, बस स्टॉप बनाए, रेलवे स्टेशन बनाए, होटल बनाए, चर्च बनाए...

20 साल बाद, जब एक जहाज उस द्वीप से गुजर रहा था, तो जहाज की मंडली ने मानव अस्तित्व के संकेत देखे और द्वीप पर आ गए। उन्हें यह देखकर खुशी हुई कि प्रसिद्ध नगर योजनाकार, जिसके बारे में माना जाता है कि 20 साल पहले एक जहाज़ दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई थी, अभी भी जीवित था और वह उस शहर को देखकर प्रसन्न हुए जिसे उसने अकेलेने ही बनाया था।

नगर भ्रमण कराते समय नगर नियोजक सराहना करते हुए कह रहा था, देखो, मैं इस दुकान में काल्पनिक खरीदारी करता था। जब मैं काम से थक जाता था तो इसी होटल में रुकता था।

यह मेरा चर्च है...

उस खूबसूरत चर्च को देखते-देखते एक आदमी का ध्यान दूसरे चर्च पर चला गया...

यह एक जीर्ण-शीर्ण, जीर्ण-शीर्ण चर्च था...

उन्होंने पूछा, क्या यहां पहले से ही कोई चर्च था?

नागार्चनाकर ने कहा, छी छी, मैंने वह भी बना लिया है।

प्रश्नकर्ता ने कहा, लेकिन फिर यह चर्च इतना सुंदर क्यों है, जबकि दूसरा चर्च इतना जर्जर है? इतना अधिक पतन क्यों हो रहा है?

नगर नियोजक ने कहा, यह मेरे संप्रदाय का चर्च है। यह शत्रु संप्रदाय का चर्च है।

उस आदमी ने कहा, लेकिन आपके संप्रदाय का एक चर्च ही आपके लिए काफी था... आपने यह दूसरा, उजाड़ चर्च क्यों बनाया जो आपके संप्रदाय का भी नहीं है?

मेयर ने कहा, उस चर्च के बिना इस चर्च में कोई मज़ा नहीं है!




- ओशो

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01 Mar, 11:31


हिंदी बोध कथा - 582


होतेई, जापान में एक महान बुद्ध, की एक
सुंदर कहानी है। जापान में उन्हें लाफिंग बुद्धा कहा जाता है, क्योंकि जैसे ही उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ तो उन्होंने हंसना शुरू कर दिया।

लोगों ने उससे पूछा, "तुम क्यों हंस रहे हो?"

उन्होंने कहा, "क्योंकि मैं प्रबुद्ध हो गया हूँ!"

“लेकिन,” उन्होंने कहा, “हम आत्मज्ञान और हँसी के बीच कोई संबंध नहीं देख सकते हैं। हंसने की क्या बात है?”

होतेई ने कहा, ''मैं इसलिए हंस रहा हूं क्योंकि मैं उस चीज की तलाश कर रहा था जो पहले से ही मेरे अंदर थी। मैं खोज रहा था खोजी को; इसे खोजना असंभव था। आप साधक को कहां खोज सकते हैं? आप ज्ञाता को कैसे जान सकते हैं? यह ऐसा था जैसे कोई कुत्ता अपनी ही पूँछ का पीछा कर रहा हो या आप अपनी ही छाया का पीछा कर रहे हों; आप इसे पकड़ नहीं सकते.

यह कितना हास्यास्पद था, पूरा प्रयास कितना बेतुका था! इसीलिए मैं हंस रहा हूं: मैं हमेशा से एक बुद्ध रहा हूं! अब यह बड़ा अजीब लगता है कि लाखों जन्मों तक मैं बेहोश रहा। यह अविश्वसनीय लगता है कि मैं अपने आप को कैसे खोता चला गया। अब जब मुझे पता चला है तो मेरे अंदर बड़ी हंसी उठ रही है।”

और ऐसा कहा जाता है कि वह अपनी मृत्यु तक हंसते रहे; यह दुनिया के लिए उनका एकमात्र संदेश था।



- ओशो

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29 Feb, 11:28


हिंदी बोध कथा - 581


एक जेन फकीर अपने बगीचे में गड्ढा खोद रहा है। बगीचे में कुछ पौधे लगा रहा है। कोई पूछने आया है उससे। उससे कोई पूछता है कि मुझे शांत होना है, मैं क्या करूं? तो वह फकीर गड्ढा खोदता है और वह कहता है कि जो करते हो, वही करो। वह कहता है कि शायद आप काम में हैं इसलिए आप बेमन से कुछ जवाब दिए दे रहे हैं। तो फकीर कहता है कि अगर समझ में न आया हो तो बैठ कर देखो कि मैं क्या कर रहा हूं। तो वह आदमी थोड़ी देर बैठ जाता है।

वह गड्ढा खोद रहा है, खोद रहा है, खोद रहा है, पसीना बहा रहा है, धूप है, वह गड्ढा खोद रहा है। वह आदमी कहता कि काफी देर हो गई देखते-देखते आप गड्ढा खोद रहे हैं। लेकिन मैं कुछ और पूछने आया हूं, मैं पूछने आया हूं कि मैं शांत कैसे हो जाऊं? तो वह फकीर कहता है कि मैं सिर्फ गड्ढा ही खोद रहा हूं और बिलकुल शांत हूं। अगर मैं गड्ढा भी खोदूं और कुछ और भी करूं तो अशांत हो जाऊंगा। मैं सिर्फ गड्ढा ही खोद रहा हूं। और अशांति का कोई उपाय नहीं है। मैं सिर्फ गड्ढा खोद रहा हूं और मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। तो तुम भी जो करते हो वह करो।

वह आदमी कहता है कि कुछ जीवनचर्या बता दें कि आप, ताकि जैसा आप कहें वैसा मैं करूं? तो वह फकीर कहता है कि जब मुझे नींद आती है तो मैं सो जाता हूं। अपनी तरफ से मैं कभी नहीं सोया। जब नींद आती है, सो जाता हूं। और जब नींद खुल जाती है, उठ आता हूं, अपनी तरफ से मैं कभी नहीं उठा। और जब भूख लगती है तो मैं मंागने चला जाता हूं, अपनी तरफ से मैंने कभी नहीं खाया। जब भूख नहीं लगती है तो मैं नहीं खाता।

और सांस भीतर आती है तो भीतर आने देता हूं, बाहर जाती है तो बाहर जाने देता हूं। और मेरी कोई चर्या नहीं है और मैं बड़ा शांत हूं। और तुम्हें भी शांत होना है तो तुम भी ऐसा ही करो।

वह आदमी कहता है कि ये तो हम भी सब करते हैं, जब सोते हैं, सो जाते हैं, जब खाते हैं खा लेते हैं। इसमें आप कौन सी नई बात कर रहे हैं? तो फिर उसने कहा कि तुम जाओ और जरा गौर से देखना कि जब तुम सोते हो तो तब तुम सोते ही हो, कि और भी बहुत कुछ करते हो।

और गौर से देखना कि जब तुम खाते हो तो सिर्फ खाते ही हो या और भी बहुत कुछ भी करते हो। क्योंकि फकीर ने कहा कि मैंने तो ऐसा आदमी ही नहीं देखा जो सिर्फ खाता हो, तो सिर्फ खाता ही हो। आदमी खाता और कहीं और कुछ भी करता रहता है। और उस फकीर ने जाते वक्त कहा कि हमने इतना ही जाना कि हम जो हैं, वहीं हैं। जहां हैं, वहीं है। जैसे थे वहीं हैं। और हमें न कहीं जाना है, और न कहीं हमें पहुंचना है।

मेरी दृष्टि में परम साधना का यही अर्थ है। और परम शांति का यही अर्थ है कि हम जहां हैं, वहीं रहें । उसमें हम पूरे राजी हो जाएं, न आगे जाएं, न पीछे जाएं। क्योंकि पीछे जाएंगे तो भी मतलब नहीं, आगे जाएंगे तो भी मतलब नहीं। क्योंकि पीछे और आगे हम जाएंगे, तो किससे पीछे जाएंगे, किससे आगे जाएंगे। अपनी ही जगह से हटते रहेंगे न। अपनी ही जगह से हटते रहेंगे।



- ओशो

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29 Feb, 11:26


हिंदी बोध कथा - 580


एक अमीर आदमी हमेशा मंदिर में प्रार्थना करता था। जब यह अमीर आदमी घर बंद करके मंदिर में दर्शन के लिए जाता था तो दस कदम चलकर फिर वापस आता था और ताला खींचकर देखता था कि ताला ठीक से लगा है या नहीं और फिर वापस चला जाता था। सौ कदम चलने पर भी उसे यही शंका होती थी। लेकिन, लोग क्या कहेंगे, यह सोचकर कभी वापस नहीं गया।

जब वह मन्दिर में भगवान के सामने खड़ा होता था तब भी उसे वैसी ही चिन्ता रहती थी। शीघ्र अभिवादन करने के बाद वह फिर घर की ओर भाग जाता था । यह देखकर उसे राहत मिली कि ताला लगा हुआ है।

एक बार वह किसी परेशानी में पड़ गया और मंदिर में जाकर भगवान से प्रार्थना करने लगा। उसने कहा, "यदि मैंने तुम्हें आत्मा में याद किया है, तो प्रभु प्रसन्न होओ और मुझ पर अपनी कृपा करो।"

एक क्षण में उस पर चारों ओर से चाबियों की बौछार होने लगी। हजारों चाबियाँ. विभिन्न प्रकार की चाबियाँ.

भयभीत होकर उसने कहा,
“भगवान्, यह क्या है?”

प्रभु की वाणी हृदय में गूँज उठी, उन्होंने कहा कि तुम यहाँ वर्षों से मेरे सामने खड़े हो। लेकिन, आंखें बंद होती हैं लेकिन तुम्हारी आँखों के सामने मेरी मूर्ति न रहते हुए, ताला तैरता रहता था, हाँ या न बोलो ? इतनी लगन से ताले की पूजा करने के बाद ताला तुमसे प्रसन्न हुआ तो क्या वर्षा ना होगी, अब तुम ही बताओ?




- ओशो

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29 Feb, 11:24


हिंदी बोध कथा - 579


एक सूफी फकीर एक मस्जिद में प्रार्थना के लिए आता था। कई दिनों तक उनका अवलोकन करने के बाद एक बार उस मस्जिद में प्रतिदिन आने वाले एक अन्य भक्त ने उनसे पूछा, मैं आपको प्रतिदिन देखता हूं। आप प्रार्थना करने तो आते हैं, लेकिन प्रार्थना करते नजर नहीं आते। आपके होंठ नहीं हिल रहे हैं. तुम पत्थर की तरह खड़े हो. यह कैसी प्रार्थना है?

सूफी फकीर ने कहा, एक बार मैं सड़क पर चल रहा था। रास्ते में एक महल पड़ा. महल के दरवाजे पर एक भिखारी खड़ा था। राजा अंदर आये और भिखारी से पूछा, तुम क्या चाहते हो?

फकीर ने कहा, यही तुम मुझसे पूछते हो? क्या तुम्हें मुझे देखकर पता नहीं चलता? मेरे पास कोई कपड़ा नहीं है, मेरा पेट मेरी पीठ से चिपका हुआ है, मेरे पास इस कटोरे के अलावा कुछ भी नहीं है। क्या तुम्हें ये सब नहीं दिखता? फिर आप राजा क्यों बने हो ?

राजा शर्मिंदा हुआ. वह भिखारी के लिए कपड़े, भोजन और कुछ पैसे लाया।

यह दृश्य देखकर मैंने प्रभु से विनती करना बंद कर दिया। क्या वह समस्त लोकों का राजा नहीं है? उसने देख लिया होगा कि मुझमें क्या कमी थी. वह उसकी भरपाई करेगा. मैं बस सच्चे दिल से ही उनके सामने खड़ा होता हूं।'




- ओशो

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20 Feb, 01:41


हिंदी बोध कथा - 578


मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी को लेकर हवाई-अड्डे पर गया। वहां सौ रुपये में पूरे गांव का चक्कर लगवाने की व्यवस्था थी। अनेक लोग उड़े, वापिस लौट गये, पायलट देखता रहा कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी दोनों खड़े विचार करते हैं; हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। सौ रुपया! जब कोई भी न रहा और सारे उड़नेवाले जा चुके तो वह पायलट उतर कर आया और उसने कहा कि कंजूस मैंने बहुत देखे। अब तुम कब तक सोचते रहोगे? बंद होने का समय भी आ गया।

दोनों नसरुद्दीन पति-पत्नी एक दूसरे की तरफ देखने लगे। बड़ी आकांक्षा कि एक दफा हवाई जहाज में उड़ लें; लेकिन सौ रुपये को छोड़ना!

आखिर पायलट को दया आ गई। उसने कहा, तुम एक काम करो। मैं तुम्हें मुफ्त घुमा देता हूं, लेकिन एक शर्त है। और वह शर्त यह है कि तुम एक भी शब्द बोलना मत। अगर तुम एक भी शब्द बीच में बोले, तो सौ रुपये देना पड़ेंगे। नसरुद्दीन प्रसन्न हो गया और उसने कहा कि बिलकुल ठीक!

वे दोनों बैठे। पायलट ने बड़ी बुरी तरह खतरनाक ढंग से हवाई जहाज उड़ाया। उलटा, नीचा, तिरछा, कलाबाजियां कीं, और बड़ा हैरान हुआ कि सब मुसीबत में वे चुप रहे दोनों। कई दफा जान को खतरा भी आ गया होगा, उलटे हो गये, लेकिन वे चुप ही रहे। नीचे उतर कर उसने कहा कि मान गये नसरुद्दीन! तुम जीत गये। पर उसने कहा, ‘तुम्हारी पत्नी कहां है?’

नसरुद्दीन ने कहा, ‘ऐसा वक्त भी आया जब मैं बोलने के करीब ही था, लेकिन संयम बड़ी चीज है। मेरी पत्नी तो गिर गई। तब मैं बिलकुल बोलने के करीब था लेकिन संयम बड़ी चीज है, शास्त्रों में कहा है। मैंने बिलकुल सांस रोक कर आंख बंद करके संयम रखा है। और संयम का फल सदा मीठा होता है। दोहरे फायदे हुए। सौ रुपया भी बचा, पत्नी से झंझट भी मिटी। संयम का फल मीठा है।’

संयम का अर्थ है जबर्दस्ती। तो तुम यह भी कर सकते हो कि तुम्हारा मन तो था शाही वस्त्र पहनने का और तुमने संयम से लंगोटी लगा ली। यह सादा जीवन नहीं है। इसमें चेष्टा है। इसमें समझ नहीं है, इसमें प्रयास है। और तुम्हें लंगोटी को थोपने के लिए अपने ऊपर निरंतर जद्दोजहद करनी पड़ेगी। मन की आकांक्षा तो शाही वस्त्रों की थी। तुमने किसी प्रलोभन के वश, स्वर्ग, ईश्वर का दर्शन, योग, अमृत, कुछ पाने की आकांक्षा में लंगोटी लगा ली।

ध्यान रहे, संयम सदा लोलुपता का अंग है। तुम कुछ पाना चाहते हो, इसीलिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है। सादगी लोलुपता से मुक्ति है। सादा आदमी वह है जिसे लंगोटी लगाने में आनंद आ रहा है। वह कोई संयम नहीं है। उसके भीतर कोई संघर्ष नहीं चल रहा है, कि पहनूं शाही वस्त्र, और वह लंगोटी लगा रहा है। कोई लड़ाई नहीं है। सादा आदमी अपने भीतर लड़ता नहीं। और जो भी लड़ता है, वह जटिल है।




- ओशो

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20 Feb, 01:39


हिंदी बोध कथा - 577


एक फर्जी साधु मौनी महाराज के नाम से मशहूर था. उसने केवल दाढ़ी बढ़ा रखी थीऔर भगवा कपड़े पहने थे. उसे किसी भी चीज़ के बारे में कुछ भी नहीं पता था. दो वेतनभोगी शिष्य उसकी ओर से भक्तों को उत्तर देते थे।

एक दिन जब ये दोनों शिष्य उपस्थित नहीं थे तो एक भक्त ने आगे आकर पूछा, भगवन्, भगवान कहाँ हैं?

मौनी महाराज चौंके, उन्होंने दोनों शिष्यों को खोजने के लिए चारों ओर देखा।

उत्तर पाकर भक्त के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई।

उन्होंने अगला प्रश्न पूछा, भगवन, धर्म क्या है?

अब महाराज की नजर आकाश पर टिकी थी। वे ऊपर देख रहे थे, नीचे देख रहे थे।

भक्त को उत्तर मिल गया. उन्होंने अगला प्रश्न पूछा,भगवान, मोक्ष किसे कहते हैं?

लेकिन अब महाराज की चिंता बढ़ गई है. उसने बेचैनी से भौंहें सिकोड़कर ,अपने हाथ हवामें उछालकर कहा 'मुझे क्या पता?'

भक्त ने उनके चरणों में प्रणाम किया... तभी दोनों शिष्य लौट आये। उन्होंने पूछा कि यह सब क्या है?

भक्त ने कहा, मैंने महाराज से कुछ प्रश्न पूछे।

दोनों शिष्यों ने कहा, ओह, लेकिन जब हम यहां नहीं हैं तो वे कैसे उत्तर देंगे? क्या आप यह साधारण सी बात भी नहीं जानते?

लेकिन, उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया। उनके हाव-भाव से मेरी शंका का समाधान हो गया. मुझे इस बात का पक्का आभास हो गया कि महाराजा की चुप्पी भी कितनी शक्तिशाली है।

कैसे, दोनों शिष्य और स्वयं महाराज भी चकित थे।

भक्त ने कहा, मैंने पूछा, भगवान कहां हैं, उन्होंने चारों ओर देखा और मुझसे कहा कि वह हर जगह हैं. फिर मैंने पूछा, धर्म क्या है? उन्होंने एक बार ऊपर देखा, फिर नीचे। उन्होंने इस कृत्य के माध्यम से मुझे बताया कि श्रेष्ठता और हीनता में विश्वास न करना, सभी को समान रूप से देखना ही धर्म है। फिर मैंने पूछा, मोक्ष क्या है? उन्होंने अपने माथे पर हाथ मारा और इशारा किया कि उन्हें नहीं पता. तो मुझे एहसास हुआ कि मोक्ष कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो तैयार होकर आती है, इसे अर्जित करना पड़ता है।

भक्त संतुष्ट मन से बाहर चला गया और मौनी महाराज और उनके शिष्य ठहाके लगाकर हंसने लगे।




- ओशो

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04 Feb, 13:44


हिंदी बोध कथा - 576


फकीर झुगान सुबह होते ही जोर से पुकारता... “झुगान! झुगान!”

सूना होता था उसका कक्ष। उसके सिवाय और कोई भी नहीं। सूने कक्ष में स्वयं की ही गूंजती आवाज को वह सुनता “झुगान! झुगान!”

उसकी आवाज को आसपास के सोए वृक्ष भी सुनते। वृक्ष पर सोए पक्षी भी सुनते। निकट ही सोया सरोवर भी सुनता।

और फिर वह स्वयं ही उत्तर देता “जी, गुरुदेव! आज्ञा, गुरुदेव!” उसके इस प्रत्युत्तर पर वृक्ष हंसते। पक्षी हंसते। सरोवर हंसता। और फिर वह कहता “ईमानदार बनो, झुगान! स्वयं के प्रति ईमानदार बनो!” वृक्ष भी गंभीर हो जाते। पक्षी भी। और वह कहता “जी, गुरुदेव!” और फिर कहता “स्वयं को पाना है तो दूसरों पर ज्यादा ध्यान मत देना” वृक्ष भी चौंककर स्वयं का ध्यान करते। पक्षी भी। सरोवर भी।

और झुगान कहता “जी, हां! जी, हां!” और फिर इस एकालाप के बाद झुगान बाहर निकलता तो वृक्षों से कहता “सुना?” पक्षियों से कहता “सुना?”सरोवर से कहता “सुना?” और फिर हंसता। कहकहे लगाता।

कहते हैं वृक्षों को, पक्षियों को, सरोवरों को उसके कहकहे अभी भी याद हैं। लेकिन मनुष्यों को?

नहीं - मनुष्यों को कुछ भी याद नहीं है।




- ओशो

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31 Dec, 08:45


हिंदी बोध कथा - 575


एक आदमी को अचानक ईश्वर और सत्य की खोज करने की इच्छा महसूस हुई। गांव के लोगों ने उसे एक जाने-माने फकीर के पास भेज दिया।

फकीर ने उसकी बात सुनी और कहा, मेरे साथ कुएं पर चलो। वहीं पानी भरते हुए बातें करते हैं।

कुएं पर एक बड़ी बाल्टी रखी हुई थी. राहट को कुएं में गिराते समय फकीर ने कहा, जब यह घड़ा भर जाएगा तो यह तुम्हें प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन कराएगा।

उसने हाथ से पानी खींचा, घड़े में डाला और सारा पानी नीचे से बह गया। दूसरी बार राहट खींची, कलशी का पानी डाला, पानी फिर बह गया। प्रभु-दर्शन करने वाले व्यक्ति ने झुककर घडे की ओर देखा।

उसका कोई तल ही नहीं था. वह फकीर से कहने ही वाला था कि फकीर ने कहा, उंह, अभी कुछ मत कहो। जब घड़ा भर जाए तो जितना चाहो बोलो।

कुछ देर तक संघर्ष करने के बाद आखिर उस आदमी ने फकीर से कहा, "गुरुदेव, चाहे आप जीवन भर पानी डालते रहें, फिर भी यह घड़ा नहीं भरेगा।"

फकीरा ने आश्चर्यचकित मुख से पूछा, क्यों?

उस आदमी ने कहा, अरे, घडे का कोई तल ही नहीं है। नीचे छेद बड़ा है. पानी कैसे ठहरेगा?

फकीर ने कहा, लेकिन तुम मेरे पास ईश्वर और सत्य की तलाश में आए थे...

उस आदमी को कुछ समझ नहीं आया. उसने सोचा, यह पागल है क्या? फकीर ने उसका चेहरा पढ़ा और फकीर ने कहा, ओह, क्या तुम्हारे पास दिल है? और उसको तल है । क्या तुम तुम्हारा मन इस संसार की भौतिक चीज़ों से भरते हो?

मन का पर्याप्त न समझते हुए, अब आप इसे ईश्वर और सत्य से भरने आया हैं। प्रभु तुम्हारे लिए बस एक नई ध्वनि है, बस... एक नई ध्वनि। तभी आना जब वह निदिध्यास हो जाए।




- ओशो

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23 Dec, 05:30


हिंदी बोध कथा - 574


गौतम बुद्ध के पास कोई आया और पूछा, हे प्रभु, आत्मा है या नहीं?

बुद्ध ने कहा, तुम इसे केवल अपने अंदर जाकर ही इसका उत्तर पा सकते हो।

उन्होंने कहा, मैं ऐसा करूंगा. लेकिन आप ये तो बताओ कि आत्मा है भी या नहीं?

बुद्ध ने कहा, अगर मैं तुमसे कहूं कि मैं आत्मा हूं, तो यह झूठ है, और अगर मैं तुमसे कहूं कि मैं आत्मा नहीं हूं, तो वह भी झूठ है।

उस आदमी ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है? दोनों मिथ्या कैसे हो सकते हैं? या तो यह झूठ होगा कि आत्मा है या यह झूठ होगा कि आत्मा नहीं है।

बुद्ध ने कहा, यदि मैं कहूं कि इनमें से कोई भी सत्य है, तो आप उसी धारणा के साथ आत्मा में प्रवेश करेंगे और फिर, यदि आत्म - जागरूकता उत्पन्न भी होती है, तो आप इसे अस्वीकार कर देंगे, या यदि यह नहीं होता है, तो आप इसे बना लेंगे। असत्य।

यही कारण है कि लोग जो चाहते हैं उसे 'साबित' कर सकते हैं। मनुष्य यह विश्वास करने में शीघ्रता करता है कि उसकी धारणा ही अंतिम सत्य है, और वह अपनी सारी सोच को उसी दिशा में व्यवस्थित करता है, और उसे प्रमाण मिलते हैं। वे बस इतना ही 'देखते' हैं।

लोग धारणाओं के इन वस्त्रों को तब भी नहीं छोड़ पाते, जब वे ध्यान में अपने अंतर्मन तक उतरते हैं, वे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध होते हैं, तब भी जब वे 'स्व' की तह तक उतरते हैं... फिर उन धारणाओं के अनुसार वे देखते हैं 'स्वरूप' और इसी के बारे में वे आत्म-जागरूक महसूस करते हैं। .. उन्हें एहसास नहीं है कि यह उनकी धारणाओं द्वारा बनाया गया एक भ्रम है।




- ओशो

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23 Dec, 05:28


हिंदी बोध कथा - 573


बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि तुम चौबीस घण्टे, राह पर कोई दिखे उसकी मंगल की कामना करना।

वृक्ष भी मिल जाए तो उसकी मंगल की कामना करके उसके पास से गुजरना।
पहाड़ भी दिख जाए तो मंगल की कामना करके उसके निकट से गुजरना।

राहगीर दिख जाए अनजान, तो उसके पास से मंगल की कामना करके राह से गुजरना।

एक भिक्षु ने पूछा, इससे क्या फायदा?
बुद्ध ने कहा, इसके दो फायदे हैं। पहला तो यह कि तुम्हें गाली देने का अवसर न मिलेगा।

तुम्हें बुरा खयाल करने का अवसर न मिलेगा। तुम्हारी शक्ति नियोजित हो जाएगी मंगल की दिशा में। और दूसरा फायदा यह कि जब तुम किसी के लिये मंगल की कामना करते हो तो तुम उसके भीतर भी रिजोनेंस, प्रतिध्वनि पैदा करते हो।

वह भी तुम्हारे लिए मंगल की कामना से भर जाता है।




- ओशो

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22 Dec, 04:52


हिंदी बोध कथा - 572


खैराबादी नाम का एक सूफी फकीर था।
वह जीविका के लिए सब्जियां बेचता था।
एक साधु व्यक्ति सब्जी बेचना भी भक्ति के साधन के रूप में किया जाता था। अगर कोई खोटा सिक्का दे दे तो वह उसे कभी वापस नहीं करता था। बस आसमान की ओर देख, प्रार्थना करता और सिक्का लें लेता, उसे एक तरफ रख देंता और ग्राहक को सब्जी दे देंता।

लोग इतने हुशार हो गए थे कि वे अन्यत्र पाए जाने वाले नकली सिक्के भी उसके पास ले जाते थे; और झूठ बोलते थे कि उसे कल आपकी ही दुकान से यह खोटा सिक्का मिला था।

जैसे ही वह मरने के करीब पहुंच रहा था, पूरा गाँव उसके चारों ओर इकट्ठा हो गया...
इतने सालों तक वह आसमान की ओर हाथ उठाकर जो प्रार्थना करता था, वही प्रार्थना आज वह ऊंचे स्वर में की...

उसने कहा, भगवन्, मैंने आज तक एक भी खोटा सिक्का नहीं दिया... मुझ पर एक कृपा कर दो... यदि मेरा सिक्का खोटा भी निकले तो भी मुझे वापस मत भेजना... मुझे स्वीकार कर लो।




- ओशो

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18 Dec, 03:52


हिंदी बोध कथा - 571


मैंने सुना है, एक आदमी राह से गुजरता था और एक भिखमंगे ने उसके सामने हाथ फैलाए। बूढ़ा, अंधा दुर्बल! उस आदमी ने जल्दी से खीसे में हाथ डाले, लेकिन वह अपना बटुआ तो घर ही भूल आया था। तो वह बड़ा मुश्किल में पड़ गया।

वह पास बैठ गया, उसने बूढ़े का हाथ अपने हाथ में ले लिया और कहा, "बाबा! खीसे में कुछ है नहीं, बटुआ मैं घर भूल आया'।

उस बूढ़े ने कहा, "छोड़ो भी! बटुए और खीसे की बात क्या? तुमने मुझे इतना दिया हाथ हाथ में लेकर, जितना कभी किसी ने मुझे नहीं दिया। जब कभी यहां से गुजरो, क्षणभर को अपना हाथ मेरे हाथ में दे देना, बस बहुत है!'

कौन किसी भिखमंगे का हाथ हाथ में लेता है! कोई पैसे ही देने की थोड़ी बात है... भाव की बात है!

जहां तुम्हें प्रेम करने का अवसर मिले, चूकना मत; नहीं तो चूकने की आदत मजबूत हो जाती है। अगर ज्यादा चूकते रहे तो चूकना तुम्हारा ढंग हो जाता है। प्रेम का रास्ता तब असंभव है। और हम जगह - जगह चूकते हैं।




- ओशो

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