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Ek Kavita Pratidin !

01 Oct, 14:34


इक बार उस ने मुझ को देखा था मुस्कुरा कर
इतनी तो है हक़ीक़त बाक़ी कहानियाँ हैं
~ मेला राम वफ़ा

Ek Kavita Pratidin !

27 Sep, 03:05


सब माया है, सब ढलती फिरती छाया है
इस इश्क़ में हम ने जो खोया जो पाया है
जो तुम ने कहा है, 'फ़ैज़' ने जो फ़रमाया है
सब माया है , सब माया है

हाँ गाहे-गाहे दीद की दौलत हाथ आई
या एक वो लज़्ज़त नाम है जिस का रुस्वाई
बस इस के सिवा तो जो भी सवाब कमाया है
सब माया है , सब माया है

इक नाम तो बाक़ी रहता है, गर जान नहीं
जब देख लिया इस सौदे में नुक़सान नहीं
तब शमा पे देने जान पतिंगा आया है
सब माया है , सब माया है

मालूम हमें सब क़ैस मियाँ का क़िस्सा भी
सब एक से हैं, ये राँझा भी ये 'इंशा' भी
फ़रहाद भी जो इक नहर सी खोद के लाया है
सब माया है , सब माया है

क्यूँ दर्द के नामे लिखते लिखते रात करो
जिस सात समुंदर पार की नार की बात करो
उस नार से कोई एक ने धोका खाया है?
सब माया है , सब माया है

जिस गोरी पर हम एक ग़ज़ल हर शाम लिखें
तुम जानते हो हम क्यूँकर उस का नाम लिखें
दिल उस की भी चौखट चूम के वापस आया है
सब माया है , सब माया है

वो लड़की भी जो चाँद-नगर की रानी थी
वो जिस की अल्हड़ आँखों में हैरानी थी
आज उस ने भी पैग़ाम यही भिजवाया है
सब माया है , सब माया

जो लोग अभी तक नाम वफ़ा का लेते हैं
वो जान के धोके खाते, धोके देते हैं
हाँ ठोक-बजा कर हम ने हुक्म लगाया है
सब माया है , सब माया है

जब देख लिया हर शख़्स यहाँ हरजाई है
इस शहर से दूर इक कुटिया हम ने बनाई है
और उस कुटिया के माथे पर लिखवाया है
सब माया है ,सब माया है....

--- इब्ने इंशा

Ek Kavita Pratidin !

25 Sep, 13:59


'कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ।
आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होइ।।'

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21 Sep, 12:32


"उसने देखा था कि शहरों में वादविवाद का एक नया रूप पुरानी और नयी पीढ़ी को लेकर उजागर हो रहा है। उसके पीछे पुरानी पीढ़ी का यह विश्वास था कि हम बुद्धिमान हैं और हमारे बुद्धिमान हो चुकने के बाद दुनिया से बुद्धि नाम का तत्त्व ख़त्म हो गया है और नयी पीढ़ी के लिए एक कतरा भी नहीं बचा है”

“वहीं पर नयी पीढ़ी की यह आस्था थी कि पुरानी पीढ़ी जड़ थी, थोड़े से खुश हो जाती थी और अपने और समाज के प्रति ईमानदार न थी, जबकि हम चेतन हैं, किसी भी हालत में खुश नहीं होते हैं और अपने प्रति ईमानदार हैं और समाज के प्रति कुछ नहीं हैं, क्योंकि समाज कुछ नहीं है।”
#रागदरबारी

यह किताब कभी पुरानी नहीं पड़ती।

Ek Kavita Pratidin !

19 Sep, 06:42


" कहा जाता है कि एक बार उन्होंने ( बु्द्ध ने) अपने हाथ में कुछ सूखी पत्तियाँ लेकर अपने प्रिय शिष्य आनंद से पूछा, कि हाथ की इन पत्तियों के अलावा क्या और भी कही पत्तियाँ हैं? आनंद ने जवाब दिया ' पतझड़ की पत्तियाँ सभी तरफ गिर रहीं हैं, और वे इतनी हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती'।

तब बुद्ध ने कहा--
' इसी तरह मैंने तुम्हें मुठ्ठी भर सत्य दिये हैं, लेकिन इनके अलावा कई हजार और सत्य हैं, इतने कि उनकी गिनती नहीं हो सकती'।

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30 May, 09:26


आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं

सामान सौ बरस का है पल की ख़बर नहीं

हैरत इलाहाबादी

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06 Mar, 09:50


यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे - सुभद्रा कुमारी चौहान



यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

Ek Kavita Pratidin !

01 Nov, 17:53


मानव–गौरव–हित मैंने
उन्मत्त लड़ाई छेड़ी।
अब पड़ी हुई है माँ के
पैरों में अरि की बेड़ी॥19॥

पर हाँ, जब तक हाथों में
मेरी तलवर बनी है,
सीने में घुस जाने को
भाले की तीव्र अनी है॥20॥

जब तक नस में शोणित है
श्वासों का ताना–बाना,
तब तक अरि–दीप बुझाना
है बन–बनकर परवाना॥21॥

घासों की रूखी रोटी,
जब तक सोत का पानी।
तब तक जननी–हित होगी
कुबार्नी पर कुबार्नी॥22॥

राणा ने विधु तारों को
अपना प्रण–गान सुनाया।
उसके उस गान वचन को
गिरि–कण–कण ने दुहराया॥23॥

इतने में अचल–गुहा से
शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई?
कन्या के क्रन्दन में थी
करूणा की व्यथा समाई॥24॥

उसमें कारागृह से थी
जननी की अचिर रिहाई।
या उसमें थी राणा से
माँ की चिर छिपी जुदाई॥25॥

भालों से, तलवारों से,
तीरों की बौछारों से,
जिसका न हृदय चंचल था
वैरी–दल ललकारा से॥26॥

दो दिन पर मिलती रोटी
वह भी तृण की घासों की,
कंकड़–पत्थर की शय्या,
परवाह न आवासों की॥27॥

लाशों पर लाशें देखीं,
घायल कराहते देखे।
अपनी आँखों से अरि को
निज दुर्ग ढाहते देखे॥28॥

तो भी उस वीर–व्रती का
था अचल हिमालय–सा मन।
पर हिम–सा पिघल गया वह
सुनकर कन्या का क्रन्दन॥29॥

आँसू की पावन गंगा
आँखों से झर–झर निकली।
नयनों के पथ से पीड़ा
सरिता–सी बहकर निकली॥30॥

भूखे–प्यासे–कुम्हालाये
शिशु को गोदी में लेकर।
पूछा, "तुम क्यों रोती हो
करूणा को करूणा देकर्"॥31॥

अपनी तुतली भाषा में
वह सिसक–सिसककर बोली,
जलती थी भूख तृषा की
उसके अन्तर में होली॥32॥

'हा छही न जाती मुझछे
अब आज भूख की ज्वाला।
कल छे ही प्याछ लगी है
हो लहा हिदय मतवाला॥33॥

माँ ने घाछों की लोती
मुझको दी थी खाने को,
छोते का पानी देकल
वह बोली भग जाने को॥34॥

अम्मा छे दूल यहीं पल
छूकी लोती खाती थी।
जो पहले छुना चुकी हूँ,
वह देछ–गीत गाती थी॥35॥

छच कहती केवल मैंने
एकाध कवल खाया था।
तब तक बिलाव ले भागा
जो इछी लिए आया था॥36॥

छुनती हूँ तू लाजा है
मैं प्याली छौनी तेली।
क्या दया न तुझको आती
यह दछा देखकल मेली॥37॥

लोती थी तो देता था,
खाने को मुझे मिठाई।
अब खाने को लोती तो
आती क्यों तुझे लुलाई॥38॥

वह कौन छत्रु है जिछने
छेना का नाछ किया है?
तुझको, माँ को, हम छभको,
जिछने बनबाछ दिया है॥39॥

यक छोती छी पैनी छी
तलवाल मुझे भी दे दे।
मैं उछको माल भगाऊँ
छन मुझको लन कलने दे॥40॥

कन्या की बातें सुनकर
रो पड़ी अचानक रानी।
राणा की आँखों से भी
अविरल बहता था पानी॥41॥

उस निर्जन में बच्चों ने
माँ–माँ कह–कहकर रोया।
लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर
धीरज ने धीरज खोया॥42॥

वह स्वतन्त्रता कैसी है
वह कैसी है आजादी।
जिसके पद पर बच्चों ने
अपनी मुक्ता बिखरा दी॥43॥

सहने की सीमा होती
सह सका न पीड़ा अन्तर।
हा, सiन्ध–पत्र लिखने को
वह बैठ गया आसन पर॥44॥

कह 'सावधान्' रानी ने
राणा का थाम लिया कर।
बोली अधीर पति से वह
कागद मसिपात्र छिपाकर॥45॥

"तू भारत का गौरव है,
तू जननी–सेवा–रत है।
सच कोई मुझसे पूछे
तो तू ही तू भारत है॥46॥

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01 Nov, 17:53


तू प्राण सनातन का है
मानवता का जीवन है।
तू सतियों का अंचल है
तू पावनता का धन है॥47॥

यदि तू ही कायर बनकर
वैरी सiन्ध करेगा।
तो कौन भला भारत का
बोझा माथे पर लेगा॥48॥

लुट गये लाल गोदी के
तेरे अनुगामी होकर।
कितनी विधवाएं रोतीं
अपने प्रियतम को खोकर॥49॥

आज़ादी का लालच दे
झाला का प्रान लिया है।
चेतक–सा वाजि गंवाकर
पूरा अरमान किया है॥50॥

तू सन्धि–पत्र लिखने का
कह कितना है अधिकारी?
जब बन्दी माँ के दृग से
अब तक आँसू है जारी॥51॥

थक गया समर से तो तब,
रक्षा का भार मुझे दे।
मैं चण्डी–सी बन जाऊं
अपनी तलवार मुझे दे।"॥52॥

मधुमय कटु बातें सुनकर
देखा ऊपर अकुलाकर,
कायरता पर हँसता था
तारों के साथ निशाकर॥53॥

झाला सम्मुख मुसकाता
चेतक धिक्कार रहा है।
असि चाह रही कन्या भी
तू आँसू ढार रहा है॥54॥

मर मिटे वीर जितने थे,
वे एक–एक कर आते।
रानी की जय–जय करते,
उससे हैं आँख चुराते॥55॥

हो उठा विकल उर–नभ का
हट गया मोह–धन काला।
देखा वह ही रानी है
वह ही अपनी तृण–शाला॥56॥

बोला वह अपने कर में
रमणी कर थाम "क्षमा कर,
हो गया निहाल जगत में,
मैं तुम सी रानी पाकर।"॥57॥

इतने में वैरी–सेना ने
राणा को घेर लिया आकर।
पर्वत पर हाहाकार मचा
तलवारें झनकी बल खाकर॥58॥

तब तक आये रणधीर भील
अपने कर में हथियार लिये।
पा उनकी मदद छिपा राणा
अपना भूखा परिवार लिये॥59॥

हल्दीघाटी : : श्यामनारायण पाण्डेय

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07 Oct, 04:34


याद रखना

वह कहेंगे :

कम बोलो

कम खाओ

कम सजो

कम घूमो

कम हँसो

कम खिलखिलाओ

कम बनाओ दोस्त

कम करो सपने

कम हो

रहो कम

मेरी दोस्त!

तुम कम सुनना...

~शैलजा पाठक

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18 Aug, 01:32


बाँस के फूल
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सात बहिनों वाले देस में
प्रकृति दुल्हन का जोड़ा कभी नहीं उतारती है
पूरब में सबसे पहले सूरज झाँकता है अचल‌ अरुणाचल से
तो‌ किरणें सीधे
पर्वत के किरीट मणि पर पड़ती हैं
मणि पुर चमक उठता है
बाँस के झुरमुटों के बीच से आती मुलायम पीली धूप से

सतरंगी शिरोई के फूलों से पट जाती हैं पगडंडियाँ
पूरे आश्चर्य के साथ केवल यहीं उगती हैं ये
पूरब के स्विड्जरलैंड में पर्यटक
सुकून तलाशने आते रहे हैं बरसों से
चाय की पत्तियाँ यहाँ लहराते हुए उड़कर आती हैं
जैसे असम से पोलो‌ खेलने आई हों
घरों के दीवारों पर लटके धान के गुच्छे
किसी दुर्दांत अकाल से बचने की कामना लिए लटके हुए हैं

उनकी पूरी संस्कृति
बाँस के इर्द-गिर्द घूमती है
बाँस के मचान पर बैठे शिकारी के हाथ बाँस का तीर
बाँस के खंभे दरवाजे और बाँस की ही दीवारें
बाँस की कुर्सी और बाँस की चटाई
बाँस के गोलाकार छाते ही बचाते हैं मूसलाधार वर्षा से
बाँस की टोपियाँ ही छत हैं
टोकरी, डोंगा, परात, बक्सा, सूप, डलिया
पंखा, खिलौने सब बाँस के

ऊँची-ऊँची लहराती बाँस की पत्तियाँ
मानों मणि पुर के आदिवासियों का आदिम ध्वज हों
जो प्रकृति की सत्ता को बता रही हों सर्वोच्च
सूखे गिरे बाँस के खोखलों में से गुजरती हवा
कोई आदिम धुन छेड़ रही है
बाँस से ही बनती है बांसुरी
और बाँस के टिट्ठी ही ठुमुक कर चलती है मसान

बाँस के बेहया खेत
जो उगते हैं बिना खाद पानी के
बाकि जगहों पर बँसवारी बन उपेक्षित रहते हैं
पर इस अंचल में पूजनीय हैं
रोजी-रोटी है बाँस
हालाकि बाँस होना ठूठ होना है
शाप है बाँस होना

बाँस की सर्वाधिक प्रजातियाँ हैं पूरब में
मणिपुर में भी
पर जो बाँस पोषक थे आज उनकी बन रही हैं केवल लाठियाँ
टकरा रही हैं जनजातियाँ बाँसभूमि की
बाँस के गाँठों से खून बहने लगा है अब
इतना कि लोकटक झील लाल है एकदम
बराक भी हो चुकी है लाल
ब्रह्मपुत्र भी लालपन लिए बढ़ रही
मेघना भी

चारों तरफ बाँस के झुरमुटों में साँय-साँय की आवाज़ है
कोई भी कभी भी आकर बाँस कर सकता है किसी को
इतना खौंफ बच्चों ने पहली बार देखा
और बूढ़ों ने अबतक कभी नहीं
मणि पुर की वृद्धाएँ एक साथ कह रही हैं
बाँस फर आया है मणि पुर में
भीषण भयानक तबाही लिए
अकाल से पहले ही विनाश हो रहा है आज शायद
अमंगल का फूल खिला है पूरब में
जरूर बाँस के फूल खिल आए हैं मणि पुर में ।

~ केतन यादव


( नोट : * मणि पुर की बराक नदी ब्रह्मपुत्र और गंगा में मिलकर संयुक्त रूप से मेघना कहलाती है और बंगाल की खाड़ी में मिलती है।
* बाँस के फूल को पूर्वोत्तर में भयंकर अपशकुन माना जाता है। जीवन में एक बार ही फूलते हैं ये बाँस। विज्ञान के सामने भी रहस्य की तरह हैं बाँस के फूल )

Ek Kavita Pratidin !

03 Aug, 09:30


शहतूत...

क्या आपने कभी शहतूत देखा है,  जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर  उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है.  गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं.  मैंने कितने मज़दूरों को देखा है  इमारतों से गिरते हुए,  गिरकर शहतूत बन जाते हुए

*सबीर हका की कविताएं तडि़त-प्रहार की तरह हैं। सबीर का जन्म 1986 में ईरान के करमानशाह में हुआ। अब वह तेहरान में रहते हैं और इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं।*

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29 Jul, 06:27


तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

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13 Jul, 16:09


रजनीश ओशो के ऊपर ऐसा कटाक्ष सिर्फ़ गोंडवी ही लिखा सकते थे।

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10 Jul, 15:25


वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है 

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है 
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है 
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू 
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है 
सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर 
झोले में उस के पास कोई संविधान है 
उस सर-फिरे को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप 
वो आदमी नया है मगर सावधान है 
फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए 
हम को पता नहीं था कि इतना ढलान है 
देखे हैं हम ने दौर कई अब ख़बर नहीं 
पावँ तले ज़मीन है या आसमान है 
वो आदमी मिला था मुझे उस की बात से 
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है 

----- दुष्यंत कुमार