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Dharma Insights (English)

Welcome to Dharma Insights, a channel that delves deep into the spiritual teachings of Hindu scriptures to offer you a daily dose of inspiration and self-discovery. If you are someone who seeks inner peace and enlightenment, this channel is the perfect place for you. Our carefully curated collection of quotes will not only enlighten your mind but also touch your soul. From the Bhagavad Gita to the Upanishads, we bring you profound wisdom and insights that will guide you on your spiritual journey. Whether you are new to Hindu philosophy or a seasoned practitioner, you will find something valuable in our daily doses of wisdom. Join us at @dharmainsights and let the ancient teachings of Dharma illuminate your path to self-realization.

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13 Jan, 06:49


जिनके चिन्तन, स्मरण और कीर्तनसे ये दैत्य आदि निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं; वे भगवती दुर्गा श्रीहरिकी शक्ति कही गयी हैं।यह बात किसी औरने नहीं, साक्षात् श्रीहरिने ही कही है।

'दुर्ग' शब्द विपत्तिका वाचक है और 'आकार' नाशका। जो दुर्ग अर्थात् विपत्तिका नाश करनेवाली हैं; वे देवी ही सदा 'दुर्गा' कही गयी हैं। 'दुर्ग' शब्द दैत्यराज दुर्गमासुरका वाचक है और 'आकार' नाश अर्थका बोधक है।

पूर्वकालमें देवीने उस दुर्गमासुरका नाश किया था; इसलिये विद्वानोंने उनका नाम 'दुर्गा' रखा।

(ब्रह्मवैवर्तपुराण ४/२७/२१)

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12 Jan, 16:25


शिवसे शिक्षा

भगवान् भूतभावन श्रीविश्वनाथके चरित्रोंसे
प्राणियोंको नैतिक, सामाजिक, कौटुम्बिक अनेक प्रकारकी शिक्षा मिलती है।  समुद्र मन्थनमें निकलनेवाले कालकूट विषका भगवान् शंकरने पान किया और अमृत देवताओंको दिया।

राष्ट्रके नेता और समाज एवं कुटुम्बके स्वामीका यही कर्तव्य है, उत्तम वस्तु राष्ट्रके अन्यान्य लोगोंको देनी चाहिये और अपने लिये परिश्रम, त्याग तथा तरह-तरहकी कठिनाइयोंको ही रखना चाहिये। विषका भाग राष्ट्र या बच्चोंको देनेसे वैमनस्य और उससे सर्वनाश हो जायगा ।

शिवजीने न विषको हृदय (पेट)- में उतारा और न उसका वमन ही किया, अपितु कण्ठमें ही रोक रखा। इसीलिये विष और कालिमा भी उनके भूषण हो गये। जो संसारके हितके लिये विषपानसे भी नहीं हिचकते, वे ही राष्ट्र या जगत्के ईश्वर हो सकते हैं।

समाज या राष्ट्रकी कटुताको पी जानेसे ही नेता राष्ट्रका कल्याण कर सकता है। परंतु फिर भी उस कटुताका विष वमन करनेसे फूट और उपद्रव ही होगा। साथ ही उस विषको हृदयमें रखना भी बुरा है। अमृत पानके लिये सभी उत्सुक होते हैं, परंतु विषपानके लिये शिव ही हैं; वैसे ही फलभोगके लिये सभी तैयार रहते हैं, परंतु त्याग तथा परिश्रम को स्वीकारनेके लिये महापुरुष ही प्रस्तुत होते हैं।

जैसे अमृतपानके अनुचित लोभसे देव-दानवोंका विद्वेष स्थिर हो गया, वैसे ही अनुचित फलकामनासे समाजमें विद्वेष स्थिर हो जाता है।

(भक्तिसुधा, स्वामी करपात्रीजी महाराज, पृष्ठ ४६४)

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11 Jan, 15:49


हे हनुमान्जी ! तुम्हारी जय हो। तुम कल्याणके स्थान, संसारके भारको हरनेवाले, बन्दरके आकारमें साक्षात् शिवस्वरूप हो। तुम राक्षसरूपी पतंगोंको भस्म करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीके क्रोधरूपी अग्निकी ज्वालमालाके मूर्तिमान् स्वरूप हो।

तुम्हारी जय हो। तुम पवन और अंजनी देवीके आनन्दके स्थान हो। नीची गर्दन किये हुए, दुःखी सुग्रीवके दुःखमें तुम सच्चे बन्धुके समान सहायक हुए थे। तुम राक्षसोंके कराल क्रोधरूपी प्रलयकालकी अग्निका नाश करनेवाले और सिद्ध, देवता तथा सज्जनोंके लिये आनन्दके समुद्र हो।

तुम्हारी जय हो। तुम एकादश रुद्रोंमें और जगत्पूज्य ज्ञानियोंमें अग्रगण्य हो, संसारभरके शूरवीरोंके प्रसिद्ध सम्राट् हो। तुम सामवेदका गान करनेवालोंमें और कामदेवको जीतनेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ हो। तुम श्रीरामजीके हितकारी और श्रीराम भक्तोंके साथ रहनेवाले रक्षक हो।

तुम्हारी जय हो। तुम संग्राममें विजय पानेवाले, श्रीरामजीका सन्देशा (सीताजीके पास) पहुँचानेवाले और अयोध्याका कुशल मंगल (श्रीरघुनाथजीसे) कहनेवाले हो। तुम श्रीरामजीके वियोगरूपी सूर्यसे जलते हुए भरत आदि अयोध्यावासी नर नारियोंका ताप मिटानेके लिये कल्पवृक्ष हो। तुम्हारी जय हो।

तुम श्रीरामजीको राज्य-सिंहासनपर विराजमान देख, आनन्दमें विह्वल होकर नाचनेवाले हो। जैसे श्रीरामजी अयोध्यामें सिंहासनपर विराजित हो शोभा पा रहे थे, वैसे ही तुम इस तुलसीदासकी मानसरूपी अयोध्यामें सदा विहार करते रहो।

(विनय पत्रिका, श्रीगोस्वामीतुलसीदासजी, पृष्ठ ४०)

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11 Jan, 15:18


श्रीदेवी बोली -

सम्पूर्ण इच्छाओंको त्यागकर मेरी ही शरणको प्राप्त, सभी प्राणियोंपर दया करनेवाले, मान अहंकारसे रहित, मनसे मेरा ही चिन्तन करनेवाले, मुझमें ही अपना प्राण समर्पित करनेवाले तथा मेरे स्थानोंका वर्णन करनेमें संलग्न रहनेवाले जो संन्यासी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और ब्रह्मचारी मेरे ऐश्वरसंज्ञक योगकी सदा भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं- मुझमें निरन्तर अनुरक्त रहनेवाले उन साधकोंके अज्ञानजनित अन्धकारको मैं ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशसे नष्ट कर देती हूँ; इसमें सन्देह नहीं है।

(देवीभागवत ७/३९/३४ से ३६)

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08 Jan, 15:24


जो ज्ञानी, योगयुक्त, शास्त्रज्ञ तथा मनको वशमें रखनेवाले हैं, उनपर आसक्तिका प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमलके पत्तेपर जल नहीं ठहरता।

रागके वशीभूत हुए पुरुषको काम अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। फिर उसके मनमें
कामभोगकी इच्छा जाग उठती है। तत्पश्चात् तृष्णा बढ़ने लगती है। तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ (पापमें प्रवृत्त करनेवाली) तथा नित्य उद्वेग करनेवाली बतायी गयी है। उसके द्वारा प्रायः अधर्म ही होता है। वह अत्यन्त भयंकर पापाबन्धनमें डालनेवाली है।

खोटी बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये जिसे त्यागना अत्यन्त कठिन है, जो शरीरके जरासे जीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग बताया गया है, उस तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको सुख मिलता है।

यह तृष्णा यद्यपि मनुष्योंके शरीरके भीतर ही रहती है, तो भी इसका कहीं आदि अन्त नहीं है। लोहेके पिण्डकी आगके समान यह तृष्णा प्राणियोंका विनाश कर देती है ।

जैसे काष्ठ अपनेसे ही उत्पन्न हुई आगसे जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार जिसका मन वशमें नहीं है, वह मनुष्य अपने शरीरके साथ उत्पन्न हुए लोभके द्वारा स्वयं नष्ट हो जाता है।

(महाभारत, वनपर्व २/३३ से ३८)

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08 Jan, 10:41


मुझ अव्यक्तके व्यक्त स्वरूपको कामसे मोहित दृष्टिवाले नहीं जानते, अज्ञानी और पापी पुरुषोंके लिये मैं प्रकट नहीं होता हूँ।

जो अन्त समयमें श्रद्धायुक्त होकर मेरा स्मरण करते हुए अपना शरीर त्याग करता है, हे राजन् ! वह मेरी कृपासे मुक्त हो जाता है।

भक्तिपूर्वक जिस-जिस देवताको स्मरण करता हुआ प्राणी अपने कलेवरका त्याग करता है, हे राजन् ! उनकी भक्ति करनेसे उन्हींके लोकको प्राप्त होता है।

इस कारण हे राजन् ! रात-दिन मेरे अनेक रूप स्मरण करनेयोग्य हैं, उन सबसे मैं ही उसी प्रकार प्राप्त होता हूँ, जैसे नदियोंका जल सागरमें ही जाता है।

(गणेशगीता ६/१५ से १८)

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07 Jan, 14:59


आहारनिद्रा भय मैथुनानि
समानि चैतानि नृणां पशूनाम् ।
ज्ञाने नराणामधिको विशेषो
ज्ञानेन हीना पशुभिः समानाः ।।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि भोजन, नींद, भय तथा मैथुन करना, ये सब बातें मनुष्यों एवं पशुओं में समान रूप में पायी जाती हैं, किन्तु ज्ञान मनुष्य में ही पाया जाता है।अतः ज्ञान रहित मनुष्य को पशुओं के समान समझना चाहिए ।

आशय यह है कि भोजन करना, नींद लगने पर सो जाना, किसी भयंकर वस्तु से डर जाना तथा मैथुन करके सन्तान पैदाकरना- ये सब बातें मनुष्यों में भी पायी जाती हैं और पशुओं में भी। किन्तु अच्छे-बुरे का ज्ञान, विद्या का ज्ञान आदि केवल मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है, पशु नहीं। इसीलिए जिस मनुष्य में ज्ञान न हो, उसे पशु ही समझना चाहिए ।

(चाणक्य नीति १७/१७)

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06 Jan, 07:39


हे मानव ! मार्ग के चढ़ाव को जानता हुआ और प्रोत्साहित किया हुआ तू फिर इस पथ पर आरोहण कर क्योंकि उन्नति करना आगे बढ़ना प्रत्येक जीव का, प्रत्येक मनुष्य का मार्ग है, उद्देश्य है, लक्ष्य है ।

भावार्थ

मन्त्र में हारे-थके और निरुत्साही व्यक्ति के लिए एक दिव्य सन्देश है-

१) हे मानव ! यदि तू प्रयत्न करके थक गया है तो क्या हुआ ! तू हतोत्साह मत हो। उत्साह के घट रीते मत होने दे। आशा को अपने जीवन का सम्बल बनाकर फिर इस मार्ग पर आरोहण कर ।

२) मार्ग की चढ़ाई को देखकर घबरा मत। सदा स्मरण रख कि तेरे लिए चढ़ाई का मार्ग ही नियत है। आशा और उत्साह से इस मार्ग पर आगे-ही-आगे बढ़ता जा। आगे बढ़ना, उन्नति करना ही जीवन-मार्ग है। पीछे हटना, अवनति करना मृत्यु-मार्ग है। पथ कठिन है तो क्या हुआ ! परीक्षा तो कठिनाई में ही होती है ।

(अथर्ववेद ५/३०/७)

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06 Jan, 06:23


न च सत्यात्परो धर्मो न साध्वी पार्वतीपरा ।

There is no dharma greater than the truthfulness. There is no lady more chaste than Parvati.

(Brahmvaivarta Purana, brahm 11/17)

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05 Jan, 15:07


दानेन पाणिर्न तु कंकणेन
स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन
ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन ।।

आचार्य चाणक्य यहाँ सच्ची सुन्दता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि दान से ही हाथों की सुन्दरता है, न कि कंकण पहनने से, शरीर स्नान से शुद्ध होता है न कि चन्दन लगाने से, तृप्ति मान से होती है, न कि भोजन से, मोक्ष ज्ञान से मिलता है, न कि शृंगार से।

आशय यह है कि हाथों की सच्ची सुन्दरता दान देने में है, सोने-चाँदी के कड़े-कंगन पहनने से हाथ सुन्दर नहीं कहे जा सकते। शरीर नहाने से स्वच्छ-साफ होता है, चन्दन, तेल फुलेल आदि लगाने से नहीं। सज्जन सम्मान से सन्तुष्ट होते हैं, खाने-पीने से नहीं। आत्मा का ज्ञान होने पर ही मोक्ष मिलता है, सज-संवरकर रहने या बनाव-शृंगार करने से नहीं ।

(चाणक्य नीति १७/१२)

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03 Jan, 07:27


(मनुस्मृति १।८६)
पद्मपुराण (१। १८। ४४१)
पराशरस्मृति (१। २३)
लिङ्गपुराण (१।३९ ।७)
भविष्यपुराण (१।२।११९)

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02 Jan, 13:26


पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः ।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः ॥

नदियाँ अपने जलका पान स्वयं नहीं करतीं, वृक्ष अपने फलोंका भक्षण स्वयं नहीं करते, जल बरसानेवाले मेघ खेतमें उगे हुए अन्नको स्वयं नहीं खाते, सज्जनोंकी विभूतियाँ परोपकारके लिये ही होती हैं।

(सेवा अंक, गीत प्रेस, पृष्ठ ३५६)

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02 Jan, 11:18


O man earn like a man who has hundreds of hands and give it to others like the, man who has thousands of hands.

Attain the full fruit of your labor and skill in this world.

(Atharvaveda 3/24/5)

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01 Jan, 13:34


हे ब्रह्मदेव ! आपसे प्रार्थना करता हूं कि हमारी माता को सुख हो, और पिता को सुख हो, राष्ट्रों के लिये सब जगत् के लिये सब जीवों के लिये सुख और शान्ति प्राप्त हो।

हमारा समस्त संसार उत्तम विभूति से युक्त तथा उत्तम ज्ञानों से सम्पन्न हो और हम चिरकाल तक अपनी चक्षुओं से सूर्य और ज्ञान के प्रकाशक परमेश्वर का दर्शन करें ।

(अथर्ववेद १/३१/४)

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31 Dec, 14:54


मनीषी पुरुष कहते हैं कि मनुष्य दान देनेसे उपभोगकी सामग्री पाता है। बड़े-बूढ़ोंकी सेवासे उसको उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और अहिंसा धर्मके पालनसे वह दीर्घजीवी होता है।

इसलिये स्वयं दान दे, दूसरोंसे याचना न करे, धर्मात्मा पुरुषोंकी पूजा करे, उत्तम वचन बोले, सबका भला करे, शान्तभावसे रहे और किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे।

(महाभारत, अनुशासनपर्व १६३/१२ - १३)

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29 Dec, 15:46


यक्षने पूछा- धर्मका मुख्य स्थान क्या है? यशका मुख्य स्थान क्या है? स्वर्गका मुख्य स्थान क्या है? और सुखका मुख्य स्थान क्या है?

युधिष्ठिर बोले- धर्मका मुख्य स्थान दक्षता है, यशका मुख्य स्थान दान है, स्वर्गका मुख्य स्थान सत्य है और सुखका मुख्य स्थान शील है।

यक्षने पूछा- मनुष्यकी आत्मा क्या है? इसका दैवकृत सखा कौन है? इसका उपजीवन (जीवनका सहारा) क्या है? और इसका परम आश्रय क्या है?

युधिष्ठिर बोले- पुत्र मनुष्यकी आत्मा है, स्त्री इसकी दैवकृत सहचरी है, मेघ उपजीवन है और दान इसका परम आश्रय है।

यक्षने पूछा- धन्यवादके योग्य पुरुषोंमें उत्तम गुण क्या है? धनोंमें उत्तम धन क्या है? लाभोंमें प्रधान लाभ क्या है? और सुखोंमें उत्तम सुख क्या है?

युधिष्ठिर बोले- धन्य पुरुषोंमें दक्षता ही उत्तम गुण है, धनोंमें शास्त्रज्ञान प्रधान है, लाभोंमें आरोग्य श्रेष्ठ है और सुखोंमें संतोष ही उत्तम सुख है।

यक्षने पूछा— लोकमें श्रेष्ठ धर्म क्या है? नित्य फलवाला धर्म क्या है? किसको वशमें रखनेसे मनुष्य शोक नहीं करते? और किनके साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती?

युधिष्ठिर बोले- लोकमें दया श्रेष्ठ धर्म है, वेदोक्त धर्म नित्य फलवाला है, मनको वशमें रखनेसे मनुष्य शोक नहीं करते और सत्पुरुषोंके साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती।

यक्षने पूछा- किस वस्तुको त्यागकर मनुष्य प्रिय होता है? किसको त्यागकर शोक नहीं करता? किसको त्यागकर वह अर्थवान् होता है? और किसको त्यागकर सुखी होता है?

युधिष्ठिर बोले- मानको त्याग देनेपर मनुष्य प्रिय होता है, क्रोधको त्यागकर शोक नहीं करता, कामको त्यागकर वह अर्थवान् होता है और लोभको त्यागकर सुखी होता है।

यक्षने पूछा- राजन्! मोह किसे कहते हैं? मान क्या कहलाता है? आलस्य किसे जानना चाहिये? और शोक किसे कहते हैं?

युधिष्ठिर बोले— धर्ममूढ़ता ही मोह है, आत्माभिमान ही मान है, धर्मका पालन न करना आलस्य है और अज्ञानको ही शोक कहते हैं।

यक्षने पूछा-ऋषियोंने स्थिरता किसे कहा है? धैर्य क्या कहलाता है? परम स्नान किसे कहते हैं? और दान किसका नाम है?

युधिष्ठिर बोले- अपने धर्ममें स्थिर रहना ही स्थिरता है, इन्द्रियनिग्रह धैर्य है, मानसिक मलोंका त्याग करना परम स्नान है और प्राणियोंकी रक्षा करना ही दान है ।

(महाभारत, वनपर्व ३१३/७० से ८८ तक)

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26 Dec, 12:22


(देवीगीता ३/१२ से १९ तक)

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25 Dec, 15:07


जो सबका मित्र, सब कुछ सहनेवाला, मनोनिग्रहमें तत्पर, जितेन्द्रिय, भय और क्रोधसे रहित तथा आत्मवान् है, वह मनुष्य बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

जो नियमपरायण और पवित्र रहकर सब प्राणियोंके प्रति अपने-जैसा बर्ताव करता है, जिसके भीतर सम्मान पानेकी इच्छा नहीं है तथा जो अभिमानसे दूर रहता है, वह सर्वथा मुक्त ही है।

जो जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभ-हानि तथा प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वोंको समभावसे
देखता है, वह मुक्त हो जाता है।

जो किसीके द्रव्यका लोभ नहीं रखता, किसीकी अवहेलना नहीं करता, जिसके मनपर द्वन्द्वोंका प्रभाव नहीं पड़ता और जिसके चित्तकी आसक्ति दूर हो गयी है, वह सर्वथा मुक्त ही है।

(महाभारत, आश्वमेधिकपर्व १९/२ से ५ तक)

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24 Dec, 15:24


हे मनुष्यो ! आप लोग परस्पर अच्छी प्रकार मिलकर रहो! परस्पर मिलकर प्रेम से बात चीत करो, विरोध छोड़ कर एक समान वचन कहो। आप लोगों के सब चित्त एक समान होकर ज्ञान प्राप्त करें।

जिस प्रकार पूर्व के विद्वान् जन सेवनीय और भजन करने योग्य प्रभु का ज्ञान सम्पादन करते हुए अच्छी प्रकार उपासना करते रहें उसी प्रकार आप लोग भी ज्ञान सम्पन्न होकर सेवनीय अन्न और उपास्य प्रभु का सेवन और उपासना करो।

(ऋग्वेद १०/१९१/२)

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24 Dec, 14:37


इन श्रीकृष्णको ही तुम सब आत्माओंका आत्मा समझो। संसारके कल्याणके लिये ही योगमायाका आश्रय लेकर वे यहाँ देहधारीके समान जान पड़ते हैं।

जो लोग भगवान् श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको जानते हैं उनके लिये तो इस जगत्में जो कुछ भी चराचर पदार्थ हैं, अथवा इससे परे परमात्मा, ब्रह्म, नारायण आदि जो भगवत्स्वरूप हैं, सभी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं।

श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कोई प्राकृत अप्राकृत वस्तु है ही नहीं। सभी वस्तुओंका अन्तिम रूप अपने कारणमें स्थित होता है। उस कारणके भी परम कारण हैं भगवान् श्रीकृष्ण।

तब भला बताओ, किस वस्तुको श्रीकृष्णसे भिन्न बतलायें। जिन्होंने पुण्यकीर्ति मुकुन्द मुरारीके पदपल्लवकी नौकाका आश्रय लिया है, जो कि सत्पुरुषोंका सर्वस्व है, उनके लिये यह भवसागर बछड़ेके खुरके गढ़ेके समान है। उन्हें परमपदकी प्राप्ति हो जाती है और उनके लिये विपत्तियोंका निवासस्थान - यह संसार नहीं रहता ।

(श्रीमद्भागवत १०/१४/५५ से ५८)

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22 Dec, 15:32


(मनुस्मृति ४/१६२ - १६३)

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20 Dec, 15:09


घटोत्कच ब्राह्मणोंका द्वेषी और यज्ञोंका नाश करनेवाला था। वह धर्म का लोप कर रहा था।

भगवान् श्रीकृष्ण धर्मरक्षक तथा धर्मसंस्थापक हैं। इसी करण अधार्मिक घटोत्कचका स्वयं अपने हाथों वध करना चाहते थे, यद्यपि घटोत्कच पाण्डव भीमका पुत्र होनेके कारण श्रीकृष्णके कुटुम्बका ही एक सदस्य था।

श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके, कुटुम्ब-परिवारोंके, सम्बन्धियोंके नित्य हितैषी और हित-साधक थे; परंतु धर्मविरोधी होनेपर वे किसीको स्वजन-कुटुम्बीके नाते क्षमा नहीं करते थे। धर्मरक्षण एवं धर्मके द्वारा लोकसंग्रह या लोकहितपर उनकी दृष्टि रहती थी। कंस सगे मामा थे, पर अधार्मिक होनेके कारण स्वयं श्रीकृष्णने उनका वध किया।

शिशुपाल तो पाण्डवोंके सदृश ही श्रीकृष्णकी बूआका लड़का था, पर पापाचारी था; अतएव उन्होंने उसको दण्ड दिया। यहाँतक कि जब उन्होंने देखा कि उन्हींका आश्रित यादववंश सुरापान-परायण, धन-वैभवसे उन्मत्त और अभिमानमें चूर होकर अधार्मिक और उद्दण्ड हुआ जा रहा है, तब उसके भी विनाशकी व्यवस्था करा दी।

उन्हें धर्म प्रिय है, अधार्मिक स्वजन नहीं!

महाभारत-युद्धके समय एक दिन अपने भाइयों तथा योद्धाओंको बुरी तरह पराजित हुए देखकर दुर्योधनने भीष्मपितामहसे पाण्डवोंकी विजयका कारण पूछा। उसके उत्तरमें भीष्मजीने कहा कि 'पाण्डव धर्मात्मा हैं और वे पूर्णब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित हैं। इसीसे वे जीत रहे हैं और जीतेंगे।'

उसके बाद भीष्मजीने भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका विस्तारसे वर्णन किया और दुर्योधनसे कहा कि 'मैं तो तुम्हें राक्षस समझता हूँ; क्योंकि तुम परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णसे और अर्जुनसे द्वेष करते हो। मैं तुमसे ठीक-ठीक कह रहा हूँ कि श्रीकृष्ण सनातन, अविनाशी, सर्वलोकमय, नित्य, जगदीश्वर, जगद्धर्ता और अविकारी हैं।

ये ही युद्ध करनेवाले हैं, ये ही 'जय' हैं और ये ही जीतनेवाले हैं। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं जय है। श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी रक्षा करते हैं, अतएव उन्हींकी विजय होगी।

(दुर्योधनके प्रति पितामह भीष्मने बड़े विस्तारसे भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन किया है। उसे महाभारत भीष्मपर्व, अध्याय ६५ से ६८ तक देखना चाहिये। इसी प्रकार शान्तिपर्व, अध्याय ४७, ५१ देखिये।)

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19 Dec, 16:15


(धर्मशास्त्र अंक, गीता प्रेस, पृष्ठ २३)

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19 Dec, 12:33


इदं हि पुंसस्तपस: श्रुतस्य वा
स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयो: ।
अविच्युतोऽर्थ: कविभिर्निरूपितो
यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम् ॥

'विद्वानोंने यही निरूपित किया है कि भगवान्‌का गुणानुवाद-कीर्तन ही तप, वेदाध्ययन, भलीभाँति किये हुए यज्ञ, मन्त्र, ज्ञान और दान आदि सबका अविनाशी फल है।'

(श्रीमद्भा० १।५।२२ )

रामकथा सुंदर कर तारी । संसय बिहग उड़ावनिहारी ॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर
सुनु गिरिराजकुमारी।।

श्रीरामचन्द्रजीकी कथा हाथकी सुन्दर ताली है, जो सन्देहरूपी पक्षियोंको उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुगरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुल्हाड़ी है। हे
गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो।

(रामचरितमानस, बालकाण्ड, गीता प्रेस, पृष्ठ १२३)

अतएव श्रीहरिकथामें यथार्थ अनुराग होना भक्ति है और इस भक्तिसे भगवान्की प्राप्ति निश्चय ही हो जाती है।

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18 Dec, 06:02


- स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी

(Reel by dharmic.wisdom_)

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17 Dec, 15:21


हे मानसिक पाप ! दूर हट जा क्या बुरी बातें तू बताता है। दूर चला जा, तुझको मैं नहीं चाहता, वृक्षों और वनों में फिरता रह, घरों में और गौ आदि पशुओं में मेरा मन है।

भावार्थ

विद्वानों को योग्य है कि वनचर डाकू आदियों के समान दुष्कर्मों में अपना मन न लगावें, किन्तु सत्यव्यवहारी होकर परस्पर रक्षा करें।

(अथर्ववेद ६/४५/१)

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15 Dec, 16:19


अथर्ववेद के कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्त

अथर्ववेद में महत्त्वपूर्ण सूक्तों की संख्या बहुत अधिक है यहाँ पर केवल कुछ विशिष्ट सूक्तों का ही परिचय दिया जा रहा है।

१) पृथिवी सूक्त : अथर्ववेद का पृथिवीसूक्त या भूमिसूक्त (अ० १२/१) अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूक्त है। विश्व के किसी भी धर्मग्रन्थ में मातृभूमि का इतना सशक्त वर्णन प्राप्त नहीं है। इस सूक्त के ६३ मंत्रों में पृथिवी को माता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पृथिवी को रत्नों की खान, पालक, रक्षक और समग्र ऐश्वर्य प्रदान करने वाली कहा गया है ।

देशवासियों के लिए निर्देश है कि वे देशरक्षार्थ बलिदान होने को उद्यत रहें। पृथिवी भाषाभेद, धर्मभेद, विचारभेद होने पर भी मानवमात्र को एक परिवार के तुल्य पालती है। पृथिवी के आधारभूत तत्त्व हैं - सत्य, ऋत, दीक्षा (अनुशासन), तप (तपोमय जीवन), ब्रह्म (आस्तिकता एवं ज्ञानोन्नति) एवं यज्ञ (आत्मसमर्पण एवं स्वार्थत्याग)।

(क) माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। (अथर्ववेद १२/१/२२)

(ख) वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम । (अथर्ववेद १२/२/६२)

(ग) जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं
नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् । (अथर्ववेद १२/१/४५)

(घ) सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं दीक्षा तपो
ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति ।। (अथर्ववेद १२/१/१)

२) ब्रह्मचर्य सूक्त : अथर्ववेद (११.५) में इस सूक्त के २६ मंत्रों में ब्रह्मचर्य (संयम), ब्रह्मचारी के गुण-धर्म, गुरु-शिष्य के उदात्त संबन्ध और अनुशासन के महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ब्रह्मचारी को राष्ट्र की ज्योति और देश का रक्षक बताया गया है। आचार्य, राजा, युवकवर्ग और कन्याओं को ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य बताया गया है। ब्रह्मचर्य से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की। राजा ब्रह्मचर्य का पालन करने पर ही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है । संयमी आचार्य ही विद्यार्थी को संयमी बना सकता है ।

(क) ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत। (अथर्ववेद ११/५/१९)

(ख) आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते। (अथर्ववेद १२/५/१७)

(ग) ब्रह्मचारी ......श्रमेण लोकान् तपसा पिपर्ति। (अथर्ववेद ११/५/४)

३) मधुविद्या-सूक्त : अथर्ववेद के कांड ९ सूक्त १ के २४ मंत्रों में मधुविद्या का विस्तृत वर्णन किया गया है। मधुविद्या का अभिप्राय है- जीवन में माधुर्य गुण हो। द्युलोक, अन्तरिक्ष, पृथिवी आदि सभी पंच भूतों में मधुरता है। प्रकृति की सभी वस्तुएँ मधुरता प्रदान करती हैं। मधुविद्या को ही मधुकशा कहते हैं। जो मधुविद्या को जान लेता है, उसके जीवन में मधुरता का वास होता है।

(क) यो वै कशायाः सप्त मधूनि वेद मधुमान् भवति । (अथर्ववेद ९/१/२२)

(ख) मधु जनिषीय मधु वंशिषीय । (अथर्ववेद ९/१/१४)

(ग) मधुमान् भवति, मधुमद् अस्याहार्यं भवति । (अथर्ववेद ९/१/२३)

४)ब्रह्मविद्या : अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में ब्रह्मविद्या का विस्तृत वर्णन है। इनमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति आदि का विस्तृत वर्णन है। ब्रह्म का अनेक नामों से अनेक रूप में वर्णन है। उच्छिष्ट ब्रह्म (११/७/१ से २७), स्कम्भ ब्रह्म (१०/७/१- ४४), रोहित ब्रह्म (१३/१/९, मंत्र १८८), आत्मविद्या (४/२/१ से ८), अध्यात्म (१६/८/१ से ३४), ज्येष्ठ ब्रह्म (१०/८/१ से ४४), महद् ब्रह्म (१/३२), ब्रह्मविद्या (४/१/१ से ७ तथा ५/६/१ से १४), विराट् ब्रह्म (८. सूक्त ९ और १०), विश्वस्रष्टा (६.६१) आदि ।

इन सूक्तों में ब्रह्म, ईश्वर और अध्यात्म का तथा अन्य दार्शनिक विषयों का बहुत विस्तार से वर्णन है। इनमें ईश्वर, ब्रह्म, जीव, प्रकृति, सृष्टि-उत्पत्ति, लोक और परलोक, आध्यात्मिक विद्याएँ, दार्शनिक सिद्धान्त और मनोविज्ञान का सूक्ष्म विवेचन हुआ है।

५) विवाह सूक्त : अथर्ववेद का पूरा १४वाँ कांड 'विवाह-सूक्त' है । इसमें २ सूक्त और १३९ मन्त्र हैं। इसमें विवाह-संस्कार की विधियों, पति-पत्नी के कर्तव्य, विवाह-संबन्ध का अविच्छेद्य होना, पतिव्रता-धर्म, पत्नी के अधिकार और कर्तव्य आदि का विस्तृत विवेचन है । पति अग्नि तत्त्व है और स्त्री सोमीय तत्त्व है ।

दोनों के संयोग से ही सृष्टिक्रम चलता है। स्त्री के कर्तव्यों में बताया गया है कि वह लज्जाशील हो, मधुरभाषिणी हो, पति और पति के परिवार वालों का सदा आदर करे, कुल-परम्पराओं का पालन करे, सास-ससुर की सेवा करे। दूसरी ओर उसे गृहस्वामिनी और परिवार की सम्राज्ञी कहा गया है। वह परिवार की स्वामिनी है । वह वीर और योग्य पुत्रों को जन्म दे ।

(क) पत्युरनुव्रता भूत्वा सं नयस्वामृताय कम् । (अथर्ववेद १४/१/४२)

(ख) सम्राज्ञ्येधि श्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत देवृषु । (अथर्ववेद १४/१/४४)

(ग) सुमंगली प्रतरणी गृहाणां सुशेवा पत्ये श्वशुराय शंभूः । (अथर्ववेद १४/२/२६)

(घ) पितृभ्यश्च नमस्कुरु । (अथर्ववेद १४/२/२०)

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14 Dec, 10:14


(गर्ग संहिता, गोलोक० १६/२२ से २८)

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14 Dec, 08:35


नारीस्तनभरनाभीदेशं दृष्ट्वा मा गा मोहावेशम्|
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचिन्तय वारं वारम्॥
(भज- गोविन्दं भज गोविन्दं ... )

अर्थः स्त्री के अंगों को देखकर मोह से उन्मत्त मत हो जाओ। ये अंग केवल माँस, मज्जा और वसा से बने हैं। इस बात को बार-बार विचार करने पर विषय वासनाओं से दूर रहा जा सकता है।

विशेषः मनुष्य के पतन के दो मूल कारण बताए गए हैं। एक है कंचन (धन-दौलत), दूसरे श्लोक में जिसका विसर्जन करने को कहा गया है। और दूसरा कारण है स्त्री। आदि शंकर सावधान करते हैं कि हे मानव! स्त्री के मांसल शरीर की सुंदरता और उससे मिलनेवाला सुख शाश्वत नहीं हैं। वह तुम्हें पतन के गर्त में धकेल देगा। तुम्हें दुःख और अशांति देगा।

यह श्लोक स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अन्वित होता है और हमें सावधान करता है कि हे मनुष्य! तुम शारीरिक भोग विलास की लालसा में पड़कर अपना विनाश मत करो। स्त्री और पुरुष का आकर्षण सहज है और संसार चलाने के लिए आवश्यक भी है।

पर उसमें वासना न होकर पवित्रता, आत्म-संयम और अनुशासन का होना अति आवश्यक है। वरना मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाएगा।

(भज गोविन्दम् , आदि शंकराचार्य, ३)

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11 Dec, 08:21


जिनके हृदयमें जब भी मङ्गलधाम श्रीहरि बस जाते हैं, तभीसे उनके लिये नित्य उत्सव है, और नित्य मङ्गल है ।

(श्रीपाण्डवगीता ४४ )

'प्रातःकाल, सायंकाल, रात्रिमें अथवा मध्याह्नमें किसी भी समय श्रीनारायणका स्मरण करनेसे पुरुषके समस्त पाप तत्काल क्षीण हो जाते हैं। मुने! अतएव श्रीविष्णुभगवानका अहर्निश स्मरण करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण पाप क्षीण हो
जानेके कारण फिर नरकमें नहीं जाता।'

(विष्णुपुराण २/७/४१ से ४५)

'भगवान् अनन्त हैं । उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणों को गिन लूँगा, वह मूर्ख है, बालक है । यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार कभी पृथ्वी के धूलि - कणों को गिन ले; परंतु समस्त शक्तियोंके आश्रय भगवान् के अनन्त गुणों का कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता ।'

(श्रीमद्भागवत ११/४/२ )

उन कल्याणकीर्ति भगवान्को बारंबार नमस्कार है, जिनका कीर्तन, जिनका स्मरण, जिनका दर्शन, जिनका वन्दन, जिनके नाम-गुणोंका श्रवण और जिनका पूजन लोगोंके उत्कट पापों का शीघ्र ध्वंस कर देता है ।

(श्रीमद्भागवत २/४/१५)

'हे नरकनाशक ! मैं चाहे स्वर्ग, पृथ्वीपर या नरकमें रहूँ, किंतु शरत्कालीन कमलको तिरस्कृत करनेवाले आपके चरण-युगलको मरते समय भी याद करता रहूँ ।'

( श्रीमुकुन्दमाला ८ )

'हे हरे ! हजारों अपराध करनेवाले, भयंकर संसार-समुद्रतलमें पड़े हुए और निराश्रय मुझ शरणागतको आप केवल अपनी कृपासे ही अपना लीजिये । हे भगवन् ! हे अच्युत ! जिसने अविवेकरूपी बादलों द्वारा दिशाओंको अन्धकाराच्छन्न कर दिया है और जिसके कारण निरन्तर दुःखरूपी वृष्टि हो रही है, उस जन्म-मृत्युरूपी दुर्दिनमें पथभ्रष्ट हुए मेरी ओर आप निहार लीजिये।

(श्रीआळवन्दारस्तोत्र ५१-५२ )

'हे भगवन् ! जिस प्रकार आपने मुझे अपनी नित्यस्थित भवदीयता ( मैं आपका हूँ - इस भाव ) को स्वयं जनाया, इसी तरह कृपा करके मुझे अपनी अनन्यभोग्यतारूपा भक्ति भी दीजिये ।"

(श्रीआळवन्दारस्तोत्र ५७)

'हे नाथ ! शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण और बुद्धि आदिमें मैं जो कोई भी होऊँ, गुणके अनुसार (भला-बुरा ) जैसा भी होऊँ, मैं तो आज ही अपनेको आपके चरण-कमलोंमें समर्पण कर चुका।"

(श्रीआळवन्दारस्तोत्र ५५)

विप्र (नारदजी ) ! यदि मुक्ति चाहते हो तो सच्चिदानन्दखरूप परमदेव भगवान् नारायणका सम्पूर्ण चित्तसे भजन करो । भगवान् विष्णुकी शरण लेनेवाले मनुष्यको शत्रु मार नहीं सकते, ग्रह पीड़ा नहीं दे सकते तथा राक्षस उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते । देवपूज्य भगवान् जनार्दन में जिसकी दृढ़ भक्ति है उसके सम्पूर्ण श्रेय सिद्ध हो जाते हैं। अतः भक्त पुरुष सबसे बढ़कर हैं।"

(नारदपुराण पूर्व० ३४/४ से ६)

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10 Dec, 10:48


यदि वृक्ष अकेला है तो वह बलवान्, दृढमूल तथा बहुत बड़ा होनेपर भी एक ही क्षणमें आँधीके द्वारा बलपूर्वक शाखाओंसहित धराशायी किया जा सकता है।

किंतु जो बहुत-से वृक्ष एक साथ रहकर समूहके रूपमें खड़े हैं, वे एक-दूसरेके सहारे बड़ी-से-बड़ी आँधीको भी सह सकते हैं।

इसी प्रकार समस्त गुणोंसे सम्पन्न मनुष्यको भी अकेले होनेपर शत्रु अपनी शक्तिके अन्दर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्षको वायु।

किंतु परस्पर मेल होनेसे और एकसे दूसरेको सहारा मिलनेसे जातिवाले लोग इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त होते हैं, जैसे तालाबमें कमल।

(विदुरनीति ४/६१ से ६५)

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09 Dec, 15:46


भगवान शिव भगवान् विष्णु से बोले -

'मेरे दर्शनका जो फल है, वही आपके दर्शनका है। आप विष्णु मेरे हृदय में निवास करते हैं और मैं आप विष्णुके हृदयमें रहता हूँ। जो हम दोनोंमें भेद नहीं समझता, वही मुझे मान्य है।

(शिवपुराण, रुद्र संहिता, सृष्टि खण्ड ९/५४ - ५६)

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08 Dec, 06:28


जिसकी कृपापूर्ण चितवन बड़ी ही सुन्दर है, जिसका मुखारविन्द मन्द मुस्कानकी छटासे अत्यन्त मनोहर दिखायी देता है, जो चन्द्रमाकी कलासे परम उज्ज्वल है,

जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंको शान्त कर देनेमें समर्थ है, जिसका स्वरूप सच्चिन्मय एवं परमानन्दरूपसे प्रकाशित होता है तथा जो गिरिराजनन्दिनी पार्वतीके भुजपाशसे आवेष्टित है, वह शिव-नामक कोई अनिर्वचनीय तेज:पुंज सबका मंगल करे।

जो निर्विकार होते हुए भी अपनी मायासे ही विराट् विश्वका आकार धारण कर लेते हैं, स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) जिनके कृपाकटाक्षके ही वैभव बताये जाते हैं तथा योगीजन जिन्हें सदा अपने हृदयके भीतर अद्वितीय आत्मज्ञानानन्दस्वरूपमें ही देखते हैं,

उन तेजोमय भगवान् शंकरको, जिनका आधा शरीर शैलराजकुमारी पार्वतीसे सुशोभित है, निरन्तर मेरा नमस्कार है।

(कल्याण, गीता प्रेस, फरवरी २०२३, पृष्ठ २७)

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07 Dec, 11:30


इस भवसागर में जल के बुदबुदों के समान न मालूम कितने जीव उत्पन्न होते और मरते हैं; परन्तु जगत् में जन्म उसी का सफल है, जो भगवान् शिव का सेवक हो।

(जगद्धरभट्टप्रणीतः स्तुतिकुसुमाञ्जलिः , भारतीय विद्या संस्थान, पृष्ठ २६४)

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07 Dec, 04:31


ऐ मनुष्यो! मिल-जुलकर प्रगति करो; मिल-जुलकर बातचीत करो; मिल-जुलकर विचार करो। तुम्हारे पूर्वज विद्वान् मिल- जुलकर विचार करते हुए ही अपने-अपने अधिकारके अनुसार सदा आचरण करते आये हैं।

तुम सबके विचार, संघटन, मन और चित्त समान हों। मैं (ईश्वर) तुम सबको यही समान उपदेश देता हूँ और समान भोगाधिकारसे युक्त करता हूँ।

तुम्हारा सबका अभिप्राय समान हो, हृदय समान हों, मन समान हो, जिससे तुम सब अच्छी प्रकार साथ-साथ रह सको ।

(ऋग्वेद १०/१९१/४)

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06 Dec, 17:40


ब्रह्माजी श्रीराधासे कहते हैं -

'जैसे समस्त ब्रह्माण्डमें सभी जीवधारी श्रीकृष्णके अंशांश हैं, उसी प्रकार उन सबमें तुम्हीं शक्तिरूपिणी होकर विराजमान हो।

समस्त पुरुष श्रीकृष्णके अंश हैं और सारी स्त्रियाँ तुम्हारी अंशभूता हैं। परमात्मा श्रीकृष्णकी तुम देहरूपा हो, अतः तुम्हीं उनकी आधारभूता हो।

माँ! इनके प्राणोंसे तुम प्राणवती हो और तुम्हारे प्राणोंसे परमेश्वर श्रीहरि प्राणवान् हैं। अहो ! क्या किसी शिल्पीने किसी हेतुसे इनका निर्माण किया है ? कदापि नहीं।

अम्बिके! ये श्रीकृष्ण नित्य हैं और तुम ही नित्या हो। तुम इनकी अंशस्वरूपा हो या ये ही तुम्हारे अंश हैं, इसका निरूपण किसने किया है ?'

(ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड १५/१०७)

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06 Dec, 10:02


हे प्रभो! यह संसार-बन्धन यज्ञ, दान, तप तथा इष्टापूर्त आदि कर्मोंसे भी नहीं टूटता बल्कि और दृढ़ हो जाता है। किन्तु आपके चरणकमलोंका दर्शन करते ही यह तुरंत नष्ट हो जाता है- इसमें सन्देह नहीं।

जिसका चित्त आपके स्वरूपमें आधे क्षणके लिये भी निश्चल होकर संलग्न हो जाता है, उसका सम्पूर्ण अनर्थोंका मूलकारण अज्ञान तत्काल नष्ट हो जाता है।

अतः हे राम! मेरा मन सदा आपहीमें लगा रहे, वह आपको छोड़कर और कहीं भी न जाय।

जिसकी वाणी एक क्षण भी 'राम-राम' ऐसा सुमधुर गान करती है, वह ब्रह्मघाती अथवा मद्यपी भी क्यों न हो, समस्त पापोंसे छूट जाता है।

हे राम ! अब मुझे वालीको जीतने अथवा स्त्री आदिका सुख प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं है। मैं तो संसार-बन्धनको काटनेवाली आपकी भक्ति ही चाहता हूँ।

हे रघुश्रेष्ठ ! यह संसार आपकी मायाका विलास है और मैं भी आपहीका अंश हूँ। अतः अपने चरणकमलोंकी भक्ति देकर मुझे इस संसार-संकटसे बचाइये।

पहले जब मेरा चित्त आपकी मायासे ढँका हुआ था, मुझे अपने शत्रु-मित्र और उदासीन दिखायी देते थे। किन्तु हे रघुनाथजी! अब आपके चरणकमलोंका दर्शन पाते ही मुझे सब कुछ ब्रह्मरूप ही भासता है।

प्रभो! संसारमें मेरा कौन मित्र है और कौन शत्रु ? जबतक जीव आपकी मायासे बँधा रहता है तभीतक उसपर सत्त्वादि गुणोंका प्रभाव पड़ता रहता है।

जबतक मायाका प्रभाव रहता है तभीतक शत्रु-मित्रादि भेदभाव रहता है। उसके दूर होते ही समस्त भेदभाव दूर हो जाता है और जबतक यह अज्ञानजन्य भेद-भाव रहता है तभीतक मृत्युका भय है।

इसलिये जो पुरुष अविद्याकी उपासना करता है (अर्थात् अविद्याजन्य पदार्थोंकी कामना करता है) वह घोर अन्धकारमें पड़ता है।

ये पुत्र-स्त्री आदि सम्पूर्ण बन्धन मायामय ही हैं। अतः हे रघुश्रेष्ठ! अपनी दासीरूप इस मायाको हमसे दूर कीजिये।

प्रभो ! मेरी चित्तवृत्ति सदा आपके चरणकमलोंमें लगी रहे, वाणी आपके नाम-संकीर्तन और कथा-वार्तामें लगी रहे, हाथ आपके भक्तोंकी सेवामें लगे रहें और मेरा शरीर (आपके पादस्पर्श आदिके मिससे) सदा आपका अंग-संग करता रहे।

(अध्यात्मरामायण, किष्किंधाकांड १/८० से ८७ तक)

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05 Dec, 15:47


स्प्रष्टुमप्यसमर्थो हि ज्वलन्तमिव पावकम् ।
अधर्मः संततो धर्मं कालेन परिरक्षितम् ॥

धर्मका स्वरूप प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी है, काल उसकी सब ओरसे रक्षा करता है। अतः अधर्ममें इतनी शक्ति नहीं है कि वह फैलकर धर्मको छू भी सके।

(महाभारत, अनुशासनपर्व १६४/७)

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30 Nov, 16:23


(श्रीकृष्णाअंक, गीता प्रेस, पृष्ठ १८८ - १९०)

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29 Nov, 09:26


श्रीराम प्रलयकालमें प्रज्वलित हुई अग्रिके समान तेजस्वी हैं। वे साधु पुरुषोंके आश्रयदाता कल्पवृक्ष हैं और संकटमें पड़े हुए प्राणियोंके लिये सबसे बड़ा सहारा हैं।

(वाल्मीकि रामायण ४/१५/१८-१९)

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29 Nov, 04:56


इस संसारके स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णुभगवान् जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं।

जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तो वे पद्मसे फिर उत्पन्न हुईं [ और पद्मा कहलायीं]। तथा जब वे परशुराम हुए तो ये पृथिवी हुईं।

श्रीहरिके राम होनेपर ये सीताजी हुईं और कृष्णावतारमें श्रीरुक्मिणीजी हुईं। इसी प्रकार अन्य अवतारोंमें भी ये भगवान् से कभी पृथक् नहीं होतीं।

भगवान्‌के देवरूप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती हैं और मनुष्य होनेपर मानवीरूपसे प्रकट होती हैं। विष्णुभगवान्‌के शरीरके अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती हैं।

(श्रीविष्णुपुराण १/९/१४३ से १४५)

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28 Nov, 05:06


चरित्र निर्माणकी साधना

श्रीमनुजीने मनुष्यके चरित्र-निर्माणके लिये प्रधान दस बातें बतलायी हैं-

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥

(१) धृति- भारी कष्ट पड़नेपर भी धैर्यका त्याग न करना, (२) क्षमा- कोई अपराध कर दे तो उसका बदला लेनेकी इच्छा न रखकर अपराधको सहन कर लेना, (३) दम- मनको वशमें करके उसे अपने नियन्त्रणमें रखना, (४) अस्तेय- दूसरेके स्वत्वपर चोरी, जोरी, ठगी आदि किसी प्रकारसे भी अपना अधिकार नहीं जमाना, (५) शौच- सदाचार, सद्गुण आदिके द्वारा मन, बुद्धि, इन्द्रियों और शरीरको सब प्रकारसे पवित्र रखना, (६) इन्द्रिय- निग्रह-विषयोंमें विचरण करनेवाली इन्द्रियोंको अपने अधीन रखना, (७) धी- बुद्धिको तीक्ष्ण और सात्त्विक बनाना, (८) विद्या- जिससे परमात्माका यथार्थ अनुभव हो, ऐसा सात्त्विक ज्ञान प्राप्त करना' (९) सत्य- जो बात जैसी सुनी, समझी और देखी गयी हो, उसको निष्कपट और विनय-भावसे ज्यों-की-त्यों यथार्थ कहना, उससे न अधिक कहना और न कम; एवं (१०) अक्रोध- मनके विपरीत घटनाके प्राप्त होनेपर उसे ईश्वरका विधान मानकर संतुष्ट रहना, किसीपर क्रोध न करना-ये धर्मके दस लक्षण हैं।

(मनुस्मृति ६/९२)

महर्षि पतंजलिजीने मनुष्यके चरित्र-निर्माणके लिये जो यम-नियमोंके नामसे आदेश दिया है, वह भी इससे मिलता-जुलता-सा ही है। वे कहते हैं-

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।

'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये पाँच 'यम' हैं।'

( योग० २ । ३० )

शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।

'शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान - ये पाँच 'नियम' हैं । '

(योग० २।३२)

भगवान् श्रीकृष्णने मानव-चरित्र-निर्माणके लिये उत्तम गुण और आचरणोंको लक्ष्यमें रखकर दैवी सम्पदाके नामसे गीताके सोलहवें अध्यायके पहले, दूसरे और तीसरे श्लोकोंमें इस प्रकार कहा है-

'भयका सर्वथा अभाव, अन्तःकरणकी पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञानके लिये ध्यानयोगमें निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियोंका दमन, भगवान्, देवता और गुरुजनोंकी पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मोंका आचरण एवं वेद-शास्त्रोंका अभ्यास तथा भगवान्‌के नाम और गुणोंका कीर्तन, स्वधर्मपालनके लिये कष्ट- सहन और शरीर तथा इन्द्रियोंके सहित अन्तःकरणकी सरलता,

मन-वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कभी किंचिन्मात्र भी कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना, कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्याग,

अन्तःकरणकी उपरति अर्थात् चित्तकी चंचलताका अभाव, किसीकी भी निन्दादि न करना, सब भूत-प्राणियोंमें हेतुरहित दया, इन्द्रियोंका विषयोंके साथ संयोग होनेपर भी उनमें लिपायमान न होना, कोमलता, लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरणमें लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओंका अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, बाहरकी शुद्धि एवं किसीमें भी शत्रुभावका न होना और अपनेमें पूज्यताके अभिमानका अभाव-ये सब हे अर्जुन! दैवी सम्पदाको लेकर उत्पन्न हुए पुरुषके लक्षण हैं।'

श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराणोंमें मानव-चरित्र- निर्माणके हेतुभूत जिन आदर्शोंका बहुत विस्तारके साथ वर्णन पाया जाता है, उन सबको भगवान्ने गीतामें साररूपसे संक्षेपमें बतलाया है।

इस प्रकार भाषा, वेष, खान-पान और चरित्र- इन चारोंके समूहको ही संस्कृति कहते हैं। अतः मनुष्यको उपर्युक्त भारतीय संस्कृतिके आदर्श सद्गुण-सदाचारोंको अपने जीवनमें अच्छी प्रकार उतारना चाहिये । यही मनुष्यकी मनुष्यता है। इसके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं, पशु ही है।

नीतिमें बतलाया गया है

येषां न विद्या न तपो न दानं
न चापि शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥

'जिनमें न विद्या है न तप है, न दान है न शील (सदाचार) है, न गुण है और न धर्म ही है, वे इस मनुष्यलोकमें पृथ्वीके भार बने हुए मनुष्यरूपमें पशु ही फिर रहे हैं।'

(चाणक्य ० १०।७.)

इसलिये मनुष्यको मनुष्यताके अनुरूप आचरण करना चाहिये

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26 Nov, 13:55


गोमाता भारतकी आत्मा है

गौ समस्त प्राणियोंकी परम श्रेष्ठ शरण है, यह सम्पूर्ण विश्वकी माता है- 'सर्वेषामेव भूतानां गाव: शरणमुत्तमम्', 'गावो विश्वस्य मातरः ।' यह निखिलागमनिगमप्रतिपाद्य सर्ववन्दनीया एवं अमितशक्तिप्रदायिनी दिव्यस्वरूपा है। कोटि-कोटि देवताओंकी दिव्य अधिष्ठान है। इसकी पूजा समस्त देवताओंकी पूजा है। इसका निरादर समस्त देवताओंका निरादर है। यह भारतीय संस्कृतिकी प्रतीक- रवरूपा है।

परम दिव्यामृतको देनेवाली सकलहितकारिणी तथा सम्पूर्ण विश्वका पोषण करनेवाली है। इसकी आराधनासे सकल देववृन्द एवं विश्वनियन्ता भगवान् श्रीसर्वेश्वर अतिशय प्रसन्न होते हैं।

तभी तो वे व्रजराजकिशोर 'गोपाल' एवं 'गोविन्द' बनकर व्रजके वनोपवनोंमें, गिरिराजकी मनोरम घाटियोंमें तथा कालिन्दीके कमनीय कूलोंपर नंगे चरणों असंख्य गोसमूहोंके पीछे-पीछे अनुगमन करते हुए उनकी सेवामें निरत रहा करते थे।

अग्निपुराण में कहा गया है -

गौएँ सम्पूर्ण मनुष्योंकी उत्तम शरण
हैं। गौएँ परम पवित्र, महामङ्गलमयी, स्वर्गकी सोपानभूत, धन्य और सनातन (नित्य) हैं।

(अग्निपुराण २९२/१८)


विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा है -

'गौ- रूपी तीर्थमें गुङ्गा आदि सभी नदियों तथा तीथका आवास है, उसकी परम पावन धूलिमें पुष्टि विद्यमान हैं, उसके गोमयमें साक्षात् लक्ष्मी है तथा इन्हें प्रणाम करनेमें धर्म सम्पन्न हो जाता है। अतः गोमाता सदा सर्वदा प्रणाम करने योग्य है।'

(विष्णुधर्मो ० २/४२/५८)

शास्त्रोंमें स्थल-स्थलपर गौकी गरिमा, महिमा एवं सर्वोपादेयता निर्दिष्ट की गयी है। गौका दर्शन, स्पर्श और अर्चन परम पुण्यमय है।

भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीश्यामसुन्दरने गाण्डीवधारी अर्जुनको महाभारतके अनुशासन पर्व (५१ । २७ । ३२) में इस प्रकार उपदेश किया है-

‘गोमाताकी पुण्यमयी महिमाका कीर्तन, श्रवण, दर्शन एवं उसका दान सम्पूर्ण पापोंको दूर करता है। निर्भय होकर जिस भूमिपर गाय श्वास लेती है वह परम शोभामयी है, वहाँसे पाप पलायित हो जाता है।'

भगवान् मनुने गोदानका फल कितना उत्कृष्ट बताया है—

'अनडुहः श्रियं पुष्टां गोदो ब्रह्मस्य विष्टपम्'

अर्थात् 'बैलको देनेवाला अतुल सम्पत्ति तथा गायको देनेवाला दिव्यातिदिव्य सूर्यलोकको प्राप्त करता है।

(मनुस्मृति ४/२३१)


शास्त्र इस प्रकारका संदेश देता है - 'अन्तकाय गोघातकम्' अर्थात् गोघातकको प्राणदण्ड दिया जाना चाहिये।

और अथर्ववेदका कहना है-

'यदि तू हमारी गौ, घोड़े एवं पुरुषोंकी हत्या करता है तो हम सीसेकी गोलीसे तुझे बींध देंगे, जिससे तू हमारे वीरोंका वध न कर सके।'

(अथर्ववेद १/१६/४)


- हत्याकी तो बात दूर रही गौकी ताड़ना, उसे अपशब्द कहना, पैरसे आघात करना, भूखी रखना तथा कठोरतासे हाँकना आदिका भी शास्त्रोंमें निषेध किया गया है। किंतु महाघोर दुःखका विषय है कि उसके सर्वथा विपरीत आचरण करनेवाली हमारी सरकार भारतकी संस्कृति और धर्मको ठुकराकर मदान्धतासे गोहत्याके जघन्यतम कृत्यमें संलग्न है। क्या उसे अतीतका इतिहास स्मरण नहीं है?

गाय 'अघ्न्या' है। इसका वध सर्वथा अनुचित है।

'श्रुतिमें गौओंको अघ्न्या (अवध्य) कहा गया है। ऐसी स्थितिमें कौन उन्हें मारनेका विचार करेगा? जो पुरुष गाय और बैलोंको मारता है, वह महान् पाप करता है।'

(महाभा०, शान्ति० २६२/४७)


हिरण्यकशिपु, रावण, कुम्भकर्ण, शिशुपाल तथा कंसादिका अभिमान चूर-चूर होकर विनष्ट हो गया। उनके अत्याचारका भीषण परिणाम उन्हें भोगना पड़ा। अतएव सत्ताके महामदमें आकर सन्मार्गको नहीं छोड़ बैठना चाहिये।

सरकारको अब भी देशकी समृद्धि तथा प्रतिष्ठाको ध्यानमें रखते हुए सम्पूर्ण गोवधपर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये। धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक आदि सभी दृष्टियोंसे गोमाता परमोपकारिणी है, इसका विनाश राष्ट्रका विनाश है। यह भारतकी अतुलनीय अमूल्य सम्पत्ति है, अतः इसकी रक्षा राष्ट्रकी रक्षा है।

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26 Nov, 05:08


(संक्षिप्त नारदपुराण, पूर्वभाग- द्वितीय पाद, गीता प्रेस, पृष्ठ ४१६)

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24 Nov, 15:22


पत्नी के कर्तव्य : ऋग्वेद में पत्नी को गृहपत्नी अर्थात् गृहस्वामिनी या गृहलक्ष्मी कहा गया है। (ऋग्वेद १०/८५/२६)

इसका अभिप्राय यह है कि घर की व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व स्त्री पर होता है, अत: वह गृहस्वामिनी है।

ऋग्वेद में ही स्त्री को घर कहा गया है। 'जायेदस्तम्' अर्थात् जाया (पत्नी) इत् (ही) अस्तम् (घर) है।' वस्तुतः घर या घर की व्यवस्था स्त्री पर निर्भर है, अतः उसे घर कहा गया है । (ऋग्वेद ३/५३/४)

अतएव संस्कृत का सुभाषित है - "न गृहं
गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते" घर घर नहीं है, अपितु गृहिणी (स्त्री) ही घर है ।

पत्नी का कर्तव्य है कि वह पूरे परिवार को सुख दे। वह पति, सास, ससुर एवं मान्य जनों की सेवा करे। (अथर्ववेद १४/२/२७)

स्त्री के लिए उपदेश है कि वह लज्जाशील हो, दृष्टि नीचे रखे और अपने अंगों को खुला न रखे। (ऋग्वेद ८/३३/१९)

एक मंत्र में स्त्री के लिए आदेश है कि उसकी दृष्टि में मृदुता हो, कुटिलता नहीं, वह परिवार को सुख दे, वह वीर सन्तान को जन्म दे, वह देवभक्त एवं आस्तिक हो, उसमें सौमनस्य हो, उसका देवर आदि के प्रति व्यवहार अच्छा हो, वह पति की हितचिन्तक हो, वह संयमी जीवन व्यतीत करे,।तेजस्विनी हो, पशुओं आदि के प्रति भी उसका व्यवहार उत्तम हो। (अथर्ववेद १४/२/१७ और १८)

अथर्ववेद में कहा गया है कि वह इन्द्राणी के तुल्य विदुषी हो। ( अथर्ववेद १४/२/३१)

इन्द्राणी के वर्णन में कहा गया है कि वह विद्वत्ता में अग्रगण्य, ज्ञानियों में मूर्धन्य और उच्चकोटि की वक्ता है । ( ऋग्वेद १०/१५९/२)

स्त्री के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए कहां गया है कि वह पतिव्रता हो, कोमल स्वभाव वाली हो,।मधुरभाषिणी हो और क्रोध के दुर्गुण से बची हुई हो। ( अथर्ववेद १४/१/४२ , अथर्ववेद ३/२५/४)

वह पतिभक्त होने के साथ ही सच्चरित्र हो। (ऋग्वेद १/७३/३)

अथर्ववेद में एक रोचक प्रसंग दिया गया है कि गन्धर्व-अप्सराओं में तीन विशेषताएँ हैं : सौन्दर्य, अलंकृत रहना और आमोद-प्रमोद का जीवन व्यतीत करना । परन्तु गृहपत्नी में चार विशेषताएँ होती हैं : उक्त तीन विशेषताओं के अतिरिक्त उसमें चौथी विशेषता होती है - संयम या चरित्रबल। संयम और चरित्र-बल के कारण वह अप्सराओं से भी श्रेष्ठ है । (अथर्ववेद ३/२४/६)

स्त्री के लिए आदेश है कि वह अपने मान्यजनों को प्रतिदिन प्रणाम करे।' (अथर्ववेद १४/२/२०)

प्रणाम करना उसकी सुशीलता और विनीतता का सूचक है।

वेदों में यह उच्च शिक्षा दी गई है कि स्त्री अबला नहीं, अपितु सबला है । वह स्वयं वीर और वीरपुत्रों की माता होने के कारण शत्रुओं या कुदृष्टि से देखने वालों का मान-मर्दन कर सकने में समर्थ है। (ऋग्वेद १०/८६/९ , अथर्ववेद २०/१२६/९)

वेदों में स्त्री के पतिव्रता गुण का महत्त्व बताया गया है कि पतिव्रता स्त्री के पुण्य से उसका पति दीर्घायु होता है और उसकी अकालमृत्यु नहीं होती । (ऋग्वेद १०/८६/११)

वेदों में एक सुन्दर बात कही गई है कि स्त्रियों पर देवों की कृपा रहती है और देवों से उसे दिव्य गुण प्राप्त होते हैं। उसे सोम सुशीलता एवं विनय देता है, गन्धर्व उसे कण्ठमाधुर्य देते हैं तथा अग्नि उसे तेजस्विता, ऐश्वर्य और सन्तान देता है। (ऋग्वेद १०/८५/४१)

वेदों में जहाँ पत्नी के ऊपर महान् उत्तरदायित्व डाला गया है तथा कर्तव्यों की लंबी सूची दी गई है, वहीं उसे बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। उसे गृहपत्नी, गृहस्वामिनी, गृहलक्ष्मी, कल्याणी और सम्राज्ञी आदि कहा गया है। पति के परिवार में पहुँचकर वह गृहस्वामिनी हो जाती है। घर की सारी व्यवस्था का उत्तरदायित्व उस पर होता है, उसे 'सम्राज्ञी'- कहा गया है । सास-ससुर, ननद और देवर आदि की वह सम्राज्ञी (स्वामिनी) हो जाती है। छोटे और बड़े सभी को उसका आदेश मानना पड़ता है । ( ऋग्वेद १०/८५/४६ , अथर्ववेद १४/१/४४)

अतः पत्नी का कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने उत्तरदायित्व का योग्यतापूर्वक निर्वहन करे ।

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21 Nov, 15:38


व्यासजीने कहा-

ब्राह्मणो ! जो मोहवश अधर्मका अनुष्ठान कर लेनेपर उसके लिये पुनः सच्चे हृदयसे पश्चात्ताप करता और मनको एकाग्र रखता है, वह पापका सेवन नहीं करता ।

ज्यों- ज्यों मनुष्यका मन पाप-कर्मकी निन्दा करता है, त्यों-त्यों उसका शरीर उस अधर्मसे दूर होता जाता है।

(ब्रह्मापुराण २१८/५ , मनुस्मृति ११/२२९ - २३० , विष्णुधर्मोत्तर २/७३/२३१ - २३३)

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20 Nov, 15:15


जिसका मन सरल है, वाणी सरल है और समस्त क्रियाएँ सरल हैं, उसके लिये भगवान् श्रीरघुनाथजीके प्रेमको उत्पन्न करनेवाली सभी विधियाँ सरल हैं अर्थात् निष्कपट (दम्भरहित) 'मन, वाणी और कर्मसे भगवान्‌का प्रेम अत्यन्त सरलतासे प्राप्त हो सकता है।

तुलसीदासजी कहते हैं कि ऊपरका वेष साधुओंका-सा हो और बोली भी मीठी हो, परंतु मन कठोर हो और कर्म भी मलिन हो - इस प्रकार विषयरूपी जलकी मछली बने रहने से श्रीरामजीकी प्राप्ति नहीं होती (श्रीरामजी तो सरल मनवालेको ही मिलते हैं)।'

(दोहावली १५२-१५३)

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19 Nov, 05:23


यों शास्त्रोंमें धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों पुरुषार्थोंका भी वर्णन है।

आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविकाके विविध साधन- ये सभी वेदोंके प्रतिपाद्य विषय हैं;

परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरिको आत्मसमर्पण करनेमें सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं।

(श्रीमद्भागवत ७/६/२६)

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17 Nov, 07:54


वन और वृक्ष मानव के रक्षक

ऋग्वेद में मानव के रक्षक के रूप में वन, वृक्ष ओषधियों और पर्वतों का उल्लेख किया गया है। एक मंत्र में कहा गया है कि वृक्ष वनस्पति मनुष्य के बहुत उपकारक हैं। अतएव ओषधियों को 'नि:षिध्वरी' (उपकारक, हितकारी, मंगलदायक ) कहा गया है ।

(क) आप ओषधीरुत नोऽवन्तु द्यौर्वना गिरयो वृक्षकेशाः । । (ऋग्वेद ५/४१/११)

(ख) निष्षिध्वरीस्त ओषधीः । (ऋग्वेद ३/५५/२२)

वृक्ष-वनस्पतियाँ शिव के रूप हैं : शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि वृक्ष- वनस्पतियाँ (ओषधियाँ) पशुपति अर्थात् भगवान् शिव हैं। यजुर्वेद के रुद्राध्याय (अध्याय १६) में शिव को वृक्ष, वनस्पति, वन, ओषधि और लता-गुल्म (झाड़ी) का स्वामी बताया गया है।

भगवान् शिव को शिव इसलिए कहा जाता है कि वे विष का पान करते हैं और अमृत प्रदान करते हैं।

वृक्ष-वनस्पतियों का शिवत्व यह है कि वे कार्बन डाई-आक्साइड (CO₂) रूपी विष को पीते हैं और आक्सीजन (O2) रूपी अमृत (प्राणवायु) को छोड़ते हैं।

शिव का दूसरा रूप रुद्र (भयंकर) है । वह संसार का नाशक और संहारक है। वृक्षों का रुद्र रूप यह है कि यदि वृक्षों को अंधाधुंध काटा जाता है और वृक्ष-संपदा को नष्ट किया जाता है तो संसार को जीवनरक्षक तत्त्व प्राणवायु (O2) प्राप्त नहीं होगी और संसार का स्वयं विनाश हो जाएगा।

(क) ओषधयो वै पशुपतिः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/३/१२)

ख) वनानां पतये नमः । वृक्षाणां पतये नमः।
ओषधीनां पतये नमः, कक्षाणां पतये नमः ।। (यजुर्वेद १६/१७ से १९)

वृक्ष-वनस्पतियों के लाभ : यजुर्वेद में वृक्ष-वनस्पतियों के लाभ का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वृक्ष मधुर फल देते हैं। ये वर्षा करने वाले बादलों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं और पृथ्वी को दृढ बनाते हैं। (यजुर्वेद २८/२०)

ऋग्वेद में कहा गया है कि वृक्ष-वनस्पति हमारे रक्षक हैं। न हम इनकी उपेक्षा करें और न ये हमारा साथ छोड़ें। (ऋग्वेद ३/५३/२०)

इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य और वृक्ष परस्पर संबद्ध हैं। दोनों एक दूसरे के उपकारक हैं। वृक्ष आक्सीजन द्वारा मनुष्य को जीवनीशक्ति देते हैं और मनुष्य आदि कार्बन डाई-आक्साइड देकर वृक्षों को पोषक भोजन देते हैं।

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15 Nov, 08:25


भगवान ने कहा

जो सब कर्मोंको परमात्मामें अर्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता-ठीक उसी तरह जैसे कमलका पत्ता पानीसे लिप्त नहीं होता।

जिसका.अन्तःकरण योगयुक्त है— परमानन्दमय परमात्मामें स्थित है तथा जो सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाला.है, वह योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें तथा सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है।

योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचार-विचारवाले श्रीमानों (धनवानों) के घरमें जन्म लेता है। तात ! कल्याणमय शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता।

(अग्निपुराण ३८१/९-१०)

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15 Nov, 07:10


श्रीराम बड़े ही रूपवान् और पराक्रमी थे। वे किसीके दोष नहीं देखते थे। भूमण्डलमें उनकी समता करनेवाला कोई नहीं था। वे अपने गुणोंसे पिता दशरथके समान एवं योग्य पुत्र थे।

वे सदा शान्त चित्त रहते और सान्त्वनापूर्वक मीठे वचन बोलते थे; यदि उनसे कोर्इ कठोर बात भी कह देता तो वे उसका उत्तर नहीं देते थे।

कभी कोई एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकारसे सदा संतुष्ट रहते थे और मनको वशमें रखनेके कारण किसीके सैकड़ों अपराध करनेपर भी उसके अपराधोंको याद नहीं रखते थे।

अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासके लिये उपयुक्त समयमें भी बीच-बीचमें अवसर निकालकर वे उत्तम चरित्रमें ज्ञानमें तथा अवस्थामें बढ़े- चढ़े सत्पुरुषोंके साथ ही सदा बातचीत करते।

वे बड़े बुद्धिमान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आये हुए मनुष्योंसे पहले स्वयं ही बात करते और ऐसी बातें मुँहसे निकालते जो उन्हें प्रिय लगे; बल और पराक्रमसे सम्पन्न होनेपर भी अपने महान् पराक्रमके कारण उन्हें कभी गर्व नहीं होता था।

झूठी बात तो उनके मुखसे कभी निकलती ही नहीं थी। वे विद्वान् थे और सदा वृद्ध पुरुषोंका सम्मान किया करते थे। प्रजाका श्रीरामके प्रति और श्रीरामका प्रजाके प्रति बड़ा अनुराग था।

वे परम दयालु क्रोधको जीतनेवाले और ब्राह्मणोंके पुजारी थे। उनके मनमें दीन- दुःखियोंके प्रति बड़ी दया थी। वे धर्मके रहस्यको जाननेवाले, इन्द्रियोंको सदा वशमें रखनेवाले और बाहर-भीतरसे परम पवित्र थे।

अपने कुलोचित आचार, दया, उदारता और शरणागतरक्षा आदिमें ही उनका मन लगता था। वे अपने क्षत्रियधर्मको अधिक महत्त्व देते और मानते थे। वे उस क्षत्रियधर्मके पालनसे महान् स्वर्ग (परम धाम) की प्राप्ति मानते थे; अत: बड़ी प्रसन्नताके साथ उसमें संलग्न रहते थे ।

अमङ्गलकारी निषिद्ध कर्ममें उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती थी; शास्त्रविरुद्ध बातोंको सुनने में उनकी रुचि नहीं थी; वे अपने न्याययुक्त पक्षके समर्थन में बृहस्पतिके समान एक-से-एक बढ़कर युक्तियाँ देते थे।

उनका शरीर नीरोग था और अवस्था तरुण। वे अच्छे वक्ता, सुन्दर शरीरसे सुशोभित तथा देश - कालके तत्त्वको समझनेवाले थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि विधाताने संसार में समस्त पुरुषोंके सारतत्त्वको समझनेवाले साधु पुरुषके रूपमें एकमात्र श्रीरामको ही प्रकट किया है।

राजकुमार श्रीराम श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त थे। वे अपने सद्गुणोंके कारण प्रजाजनोंको बाहर विचरनेवाले प्राणकी भाँति प्रिय थे।

भरतके बड़े भार्इ श्रीराम सम्पूर्ण विद्याओंके व्रतमें निष्णात और छहों अङ्गोंसहित सम्पूर्ण वेदों यथार्थ ज्ञाता थे। बाणविद्यामें तो वे अपने पितासे भी बढ़कर थे।

(वाल्मीकि रामायण २/१/९ से १९ तक)

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11 Nov, 16:59


विराट् से सृष्टि - उत्पत्ति

सृष्टि विराट् का एक अंशमात्र - यह पूरा ब्रह्माण्ड विराट् की शक्ति का चतुर्थांश या अंशमात्र है। उसकी शक्ति का तीन-चौथाई अंश इस ब्रह्माण्ड के बाहर है। (यजुर्वेद ३१/३)

इसका अभिप्राय यह है कि उस परमात्मा या विराट् की शक्ति का कहीं अन्त नहीं है। वह अनन्त, 'अप्रमेय, अनिर्वचनीय और अवर्णनीय है। यह सारी सृष्टि उसकी शक्ति का अंशमात्र है। अतिरिक्त अंश अव्यक्त होने के कारण अदृश्य है I

विराट् से पंचभूत आदि - विराट् पुरुष से ही चर और अचर, स्थावर और जंगम जगत् की उत्पत्ति हुई है। (यजुर्वेद ३१/४)

चर के लिए 'साशन' (खाने वाला, भोजन आदि करने वाला) शब्द है और अचर या स्थावर के लिए 'अनशन' (भोजन न करने वाला) शब्द दिया गया है ।

विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों से विविध लोकों आदि की सृष्टि की कल्पना की गई है। विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष की उत्पत्ति हुई और शिरोभाग से द्युलोक की। उसके पैर से भूमि और श्रोत्र (कान) से दिशाएं उत्पन्न हुईं। इसी प्रकार उसके अन्य अवयवों से विभिन्न लोक उत्पन्न हुए।' (यजुर्वेद ३१/१३)

उसके मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई तथा चक्षु से सूर्य की । श्रोत्र से वायु और प्राण की उत्पत्ति हुई तथा मुख से अग्नि की। (यजुर्वेद ३१/१२)

उस विराट् पुरुष से ही गाय, अश्व आदि प्राणी तथा ग्राम्य, जंगली और आकाशीय सभी पशु-पक्षी आदि उत्पन्न हुए। (यजुर्वेद ३१/४ से ८)

हिरण्यगर्भ- उस विराट् पुरुष को ही हिरण्यगर्भ, प्रजापति आदि नामों से संबोधित किया गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद आदि में इस हिरण्यगर्भ का बहुत विस्तार से वर्णन है। सृष्टि का प्रारम्भ हिरण्यगर्भ से होता है। ( ऋग्वेद १०/१२१/१ , यजुर्वेद १३/४)

हिरण्यगर्भ क्या है ? - विराट् पुरुष या प्रजापति को हिरण्यगर्भ कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि वह विराट् पुरुष ज्योतिर्मय तत्त्व है। वह अमर, अनश्वर और शाश्वत है । 'हिरण्यं गर्भे यस्य सः' जिसके गर्भ में हिरण्य है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस हिरण्य का अर्थ स्पष्ट किया गया है कि ज्योति या तेज को हिरण्य कहते हैं । ( शतपथ ब्राह्मण ६/७/१/२)

शतपथ ब्राह्मण ने हिरण्य का अर्थ अमृत लिया है अर्थात् वह अमर है, अनश्वर है, सदा रहने वाला है। (शतपथ ब्राह्मण ९/४/४/५)

यह ज्योतिर्मय और अमर तत्त्व जिसके गर्भ या मूल में है, उसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। इससे ज्ञात होता है कि विराट् पुरुष या प्रजापति ज्योतिर्मय पुंज है। यह अमर और अनश्वर है ।

इस हिरण्यगर्भ सूक्त से ज्ञात होता है कि विराट् पुरुष को एक ज्योतिपुंज के रूप में चित्रित किया गया है। वह सर्वशक्तिमान् है। वह द्युलोक और पृथिवी का आधार है।( ऋग्वेद १०/१२१/१)

वह आत्मिक और शारीरिक शक्ति देने वाला है। उसकी कृपा से अमरत्व की प्राप्ति होती है, उसकी अकृपा ही मृत्यु है। (ऋग्वेद १०/१२१/२)

वह चराचर जगत् का स्वामी है। (ऋग्वेद १०/१२१/३)

उसने ही अन्तरिक्ष में ग्रह नक्षत्रादि को स्थापित किया हुआ है। (ऋग्वेद १०/१२१/५)

सारी दिशाएं उसके बाहु के तुल्य हैं। हिमयुक्त पर्वत और समुद्र उसकी कृपा पर निर्भर हैं । (ऋग्वेद १०/१०१/४)

एक रूप है और वह सारे संसार का स्वामी है। उसकी कृपा से ही संसार में सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। वह मानवमात्र की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। अतएव उसकी उपासना की जाती है।

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10 Nov, 06:38


Hinduism FAQs , Chinmaya mission, page 25

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08 Nov, 11:31


इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वहारिषु ।
संयमे यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम् ॥

जैसे कुशल सारथी रथमें जुड़े हुए घोड़ोंको नियमन करता है, वैसे ही विद्वान् मनुष्यको विषयोंके दोषोंको जानते हुए, विषयोंमें आकृष्ट होकर उनकी ओर दौड़नेवाली इन्द्रियोंको रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।

(मनुस्मृति २/८८)

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07 Nov, 13:24


A generous person must give something in charity to a needy person. He ought to see the auspicious path of the virtues.

The riches rotate like the wheels of a chariot and go to the others.

(Rig veda 10/117/5)

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04 Nov, 15:32


पति के कर्तव्य :

ऋग्वेद और अथर्ववेद के तीन सूक्तों (१८६ मंत्र) में विवाह संस्कार का वर्णन है। इन सूक्तों में पति और पत्नी के अधिकार और कर्तव्यों का भी विस्तृत विवेचन है ।

(ऋग्वेद १०/८५/१ - ४७ , अथर्ववेद १४/१/१ से ६४ , १२/२/१ से ७५)

पति का सर्वप्रथम कर्तव्य है - पत्नी के भरण-पोषण की पूर्ण व्यवस्था करना । मंत्र का कथन है कि पति सौभाग्य के लिए पत्नी का पाणिग्रहण करता है और वह यह कहता है कि मैं इसके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व लेता हूँ।

(ऋग्वेद १०/८५/३६ , अथर्ववेद १४/१/५० , अथर्ववेद १४/१/५२)

पति का कर्तव्य है कि वह पत्नी के जीवन स्तर को उन्नत करे। उसकी शिक्षा का स्तर ऊँचा करे और आर्थिक समृद्धि से उसके भरण-पोषण की व्यवस्था उन्नत करे ।

(अथर्ववेद ११/१/२१)

जीवन में नवीनता का संचार करे। (अथर्ववेद १८/३/१७)

इसका अभिप्राय है कि बाह्य परिस्थितियों के अनुसार अपने जीवन को ढाल सके और नवीन परिवर्तनों को अपना सके । पति को यह भी आदेश दिया गया है कि वह पत्नी से छिपाकर कोई काम न करे।

(अथर्ववेद १४/१/५७)

चाहे वह अन्न-पान की बात हो या अन्य कोई प्रसंग। इस प्रकार पति और पत्नी दोनों के कार्य एक-दूसरे की जानकारी में होने चाहिएँ। पति का यह भी कर्तव्य है कि वह सभी सुविधाएँ प्रदान करके पत्नी को प्रसन्न रखे, जिससे वह पति को आत्म-समर्पण के लिए उद्यत रहे।

(ऋग्वेद १०/७१/४)

मनु ने भी इस विषय का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। मनु का कथन है कि जिस परिवार में स्त्रियों का आदर होता है, वहाँ देवों का निवास होता है। जहाँ उनका अनादर होता है, वहाँ श्री नष्ट हो जाती है। स्त्री को वस्त्र, आभूषण और सद्व्यवहार से प्रसन्न रखे। प्रसन्न स्त्री से उत्पन्न होने वाली संतान भी प्रसन्नचित्त, स्वस्थ और सुयोग्य होती है।

(मनुस्मृति ३/५५ - ६२)

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01 Nov, 10:27


शिक्षा का उद्देश्य

वेदों में शिक्षा के उद्देश्य के विषय में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य इतस्ततः दिए गए हैं। उनको संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है :

१) बुद्धि का परिष्कार और बौद्धिक विकास : अथर्ववेद का कथन है कि शिक्षा का उद्देश्य है - व्यक्ति की बुद्धि को विकसित करना, उसे परिष्कृत करना, उसे तीक्ष्ण बनाना, उन्नति की ओर ले जाना और महान् सौभाग्य प्राप्त करना।" (अथर्ववेद ७/१६/१) अर्थात् जीवन का सर्वांगीण विकास करना और उसे सौभाग्ययुक्त बनाना ।

२) जीवन को तपस्वी बनाना : शिक्षा का अन्य उद्देश्य है - जीवन को सघा हुआ बनाना। तप और साधना से ही जीवन सधा हुआ बनता है। इसके लिए साधारण और कठिन साधनाएँ करनी पड़ती हैं। अतः अथर्ववेद का कथन है कि तपस्वी जीवन व्यतीत करने हुए, वेदों को पढ़ते हुए, दीर्घायु और मेधावी हों। (अथर्ववेद ७/६१/२)

३) आचार शिक्षा और चरित्र-निर्माण : शिक्षा के उद्देश्य में अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं - चरित्रनिर्माण, सत्यनिष्ठता, सत्याचरण। असत्य, झूठ, छल-प्रपंच आदि का परित्याग। जब तक चारित्रिक शुद्धि और परिष्कार नहीं होगा, तब तक विद्या फलीभूत नहीं होगी। अतएव यजुर्वेद में कहा गया है कि- मैं असत्य को छोड़कर सत्य को अपनाता हूँ। (यजुर्वेद१/५)

४) व्रत और श्रद्धा : किसी एक लक्ष्य को लेकर उसके प्रति समर्पित भाव से जुट जाना व्रत है। यजुर्वेद में व्रत को जीवन की आधारशिला बताते हुए कहा गया है कि व्रत से मनुष्य दीक्षित होता है, दीक्षा से दाक्षिण्य या प्रवीणता आती है, उस दक्षता के कारण ही मनुष्य में श्रद्धा उत्पन्न होती है और श्रद्धा से ही जीवन के लक्ष्य-रूप सत्य-ब्रह्म की प्राप्ति होती है । (यजुर्वेद १९/३०)

५) विद्या और बुद्धि का समन्वय : विद्या के साथ व्यावहारिक बुद्धि का होना आवश्यक है। व्यवहार-शून्य और लौकिक ज्ञान-शून्य विद्या को विद्या नहीं कहा जा सकता है । अत: वेद का कथन है कि सरस्वती (विद्या) के साथ धी (व्यवहार- आवश्यक है ।' (अथर्ववेद १९/११/२)

६) ज्ञान और कर्म का समन्वय : शिक्षा वही सफल होती है, जिसमें कर्मठता की दीक्षा दी जाती है। प्रगतिशील, कर्मठ एवं सतत संघर्षशील बनाना शिक्षा का लक्ष्य है। अतएव अथर्ववेद में कहा गया है कि मेरी बुद्धि सदा कर्मठ रहे। (अथर्ववेद २०/८९/३)

यजुर्वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय ही अभीष्ट है। कर्ममार्ग (अविद्या) से जीवननिर्वाह होता है और ज्ञानमार्ग (विद्या) से मोक्ष (अमृत) प्राप्त होता है। (यजुर्वेद ४०/१४)

७) अध्यात्म और भौतिकवाद का समन्वय : वेद अध्यात्म और भौतिकवाद
के समन्वय की शिक्षा देता है। यजुर्वेद और ईश उपनिषद् का कथन है कि केवल
भौतिकवाद या प्रकृतिवाद अनर्थ का कारण है और केवल अध्यात्म उससे भी अधिक अनर्थकारी है, अतः जीवन के समन्वित विकास के लिए दोनों का समन्वय अभीष्ट है। भौतिकवाद जीवन की ज्वलन्त समस्याओं को हल करता है और अध्यात्मक अमरत्व एवं आत्मिक शान्ति प्रदान करता है । (यजुर्वेद ४०/११)

८) ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित करना : ऋग्वेद में शिक्षा का उद्देश्य बताया गया है - अज्ञानी को ज्ञान-ज्योति देना, उसके अज्ञानान्धकार को दूर करना, निष्क्रिय और निश्चेष्ट को सक्रिय और सचेष्ट बनाना तथा प्रबुद्ध बनाना।" (ऋग्वेद १/६/३)

९) लोकहितकारी सद्बुद्धि देना : शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य की ओर संकेत करते हुए यजुर्वेद में कहा गया है कि शिक्षा के द्वारा ऐसी सुमति (सद्बुद्धि) प्राप्त हो, जो विश्वजनीन हो अर्थात् जिससे संसार का कल्याण कर सकें । (यजुर्वेद १७/७४)

१०) चिन्तन-शक्ति को बढ़ाना : शिक्षा का उद्देश्य है मनुष्य में विचार-शक्ति, मननशक्ति, चिन्तन-शक्ति और कर्तव्याकर्तव्य के निर्धारण करने वाली विवेक शक्ति को जागृत करना और बढ़ाना। ऋग्वेद का इसके साथ ही आदेश है कि स्वयं में दिव्य गुणों का विकास करके दूसरों में भी दैवी गुणों का विकास करो। (ऋग्वेद १०/५३/६)

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01 Nov, 06:59


नारदजीने कहा -

तात ! वही पिता, वही गुरु, वही बन्धु, वही पुत्र और वही मेरा ईश्वर है, जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंमें सुदृढ़ भक्ति उत्पन्न करा दे।

यदि बालक अज्ञानवश कुमार्गपर चल रहें हों तो उन्हींको जो उस मार्गसे हटाता है, वही करुणानिधान पिता है। जो श्रीकृष्ण चरणोंमें लगी हुई भक्तिका त्याग कराकर पुत्रको दूसरे किसी विषयमें लगाये, वह कैसा पिता है ?

(संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखण्ड, गीता प्रेस, पृष्ठ ८८)

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29 Oct, 12:43


एकेश्वरवाद

मुख्य देवता एक ही है - ऋग्वेद और अथर्ववेद में स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि देवों की संख्या विशाल है, तथापि मुख्य देवता एक ही है। 'एकं सद्०' कहकर यह तथ्य प्रकट किया है कि मूल तत्त्व या मूलसत्ता एक है। उस एक तत्त्व को ही विद्वान् पृथक्-पृथक् नामों से पुकारते हैं।

कोई उसको इन्द्र कहता है, कोई मित्र, कोई वरुण, कोई अग्नि, कोई सुपर्ण, कोई यम और कोई मातरिश्वा अर्थात् वायु। (ऋग्वेद १/१६४/४६ , अथर्ववेद ९/१०/२८)

इसी भाव को अथर्ववेद ने अन्यत्र भी प्रकट करते हुए कहा है कि वह मूलसत्ता एक ही है। उसका ही अनेक देवों के नाम से उल्लेख किया जाता है। वह पिता है, बन्धु है, सारे लोक उसमें ही लीन हो जाते हैं। (अथर्ववेद २/१/३)

यजुर्वेद का कथन है कि उस एकतत्त्व या विराट् पुरुष को ही अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्र, शुक्र (वीर्य), आप: (जल), ब्रह्म और प्रजापति कहा जाता है। (यजुर्वेद ३२/१)

अथर्ववेद में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है कि वह मूल तत्त्व एक ही है, दो, तीन, चार या दस आदि नहीं। (अथर्ववेद १३/४/१६) अथर्ववेद के ही एक अन्य सूक्त में कहा गया है कि उस एकदेव के ही इन्द्र, महेन्द्र, लोक, प्रजापति, विष्णु आदि नाम हैं। (अथर्ववेद १७/१/१८)

ऋग्वेद और अथर्ववेद में यही भाव अनेक मंत्रों में दिया गया है। ऋग्वेद में इसका विस्तृत वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह एक तत्त्व ही विभिन्न सारे रूपों को अपनाता है । जैसे - एक अग्नि के नाना रूप हैं, जैसे- एक सूर्य सारे लोकों में प्रकाशित हो रहा है, जैसे - एक उषा सर्वत्र नाना रूपों में दिखाई देती है, उसी प्रकार यह एक तत्त्व या एक देवता सारे विभिन्न रूप धारण करता है । (ऋग्वेद ८/५८/२)

निरुक्त में आचार्य यास्क का कथन है कि वह एक देवता महाशक्तिशाली है। उस एक देवता की ही अनेक देवों के नाम से स्तुति की जाती है। अन्य सभी देव उस महान् देव के अंग-प्रत्यंग हैं। (निरुक्त ७/४)

इसका अभिप्राय यह है कि मुख्य देवता एक ही है। उसको ही ईश्वर, अग्नि, इन्द्र, ब्रह्म आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है।

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28 Oct, 04:27


हे समस्त दुःखों और अज्ञानों के विदारक ! महावीर ! राजन् ! परमेश्वर ! मुझे दृढ़ कर। मुझको समस्त प्राणी गण मित्र की आंख से देखें और मैं भी सब प्राणियों को मित्र की आंख से देखूं । हम सब मित्र की आंख से एक दूसरे को देखा करें ।

(यजुर्वेद ३६/१८)

हे सर्वप्रकाशक ! सर्वोत्पादक परमेश्वर ! सब प्रकार के दुष्ट आचरणों और दुःखदायी, बुरे व्यसनों को दूर करो । जो सुखदायक, कल्याणकारी हैं उसे हमें प्राप्त कराइये।

(शतपथ ब्राह्मण १३/६/२/९ , यजुर्वेद ३०/३)

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26 Oct, 16:02


शतपथ ब्राह्मण में नारी की प्रतिष्ठा-

ब्राह्मण ग्रन्थ के अनेक उद्धरणों से यह स्फुट निर्देश प्राप्त होता है कि तत्तकालीन समाज में स्त्रियों का स्थान अत्यन्त प्रतिष्ठित था-

१) पत्नी के रूप में नारी को 'श्री' का स्वरूप बताया गया है तथा उसके प्रति हिंसा का सर्वथा निषेध किया गया है-

स्त्री वाऽएषा यच्छ्रीर्न वै स्त्रियं घ्नन्ति ।

(शतपथ ब्राह्मण ११/४/३/२)

२) एक अन्य स्थल पर पुनः पत्नियों को 'श्री' का रूप कहा गया है-

श्रियै वाऽएतद्रूपं यत्पत्न्यः।

(शतपथ ब्राह्मण १३/२/६/७)

३) साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि नारी कभी किसी को हानि अथवा कष्ट नहीं पहुँचाती है-

न वै योषा कंचन हिनस्ति ।

(शतपथ ब्राह्मण ६/३/१/३९)

४) नारी को गृह की प्रतिष्ठा बताया गया है-

गृहा वै पत्न्यै प्रतिष्ठा।

(शतपथ ब्राह्मण ३/३/१/१०)

५) यज्ञात्मक अनुष्ठानों में नारी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को यज्ञ का अर्धभाग बताया गया है-

जघनार्द्धे वा एष यज्ञस्य यत्पत्नी।

(शतपथ ब्राह्मण ५/२/१/८)

६) शतपथ ब्राह्मण में राजा की चार पत्नियों का उल्लेख प्राप्त होता है- महिषी, वावाता, परिवृक्ता तथा पालागली-इन सभी की यज्ञिय क्रियाओं में सम्मिलित होना- नारी के यज्ञिय वातावरण में उपस्थिति की सूचना प्राप्त होती है-

चतस्रो जाया उपक्लृप्ता भवन्ति। महिषी वावाता परिवृक्ता पालागली ।

(शतपथ ब्राह्मण १३/४/१/८)

७) शतपथ ब्राह्मण के यज्ञिय क्रिया-कलापों में पत्नी द्वारा अनेक यज्ञिय अनुष्ठानों के सम्पादन पत्नी की अनिवार्य उपस्थिति के परिचायकस्वरूप है।

(शतपथ ब्राह्मण १/९/२/१ , १/९/२/२१)

८) शतपथ ब्राह्मण के अनुसार यजमान की पत्नी अपने पति के साथ यज्ञ में भाग लेती है-

पतिं वाऽनु जाया तदेवाऽस्यापि पत्नी।

(शतपथ ब्राह्मण १/९/२/१४)

९) तैत्तिरीय ब्राह्मण में पत्नी के बिना यज्ञ करने वाले यजमान को ‘अयज्ञिय’ कहा गया है-

अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः।

(तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/२/६)

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25 Oct, 13:33


Blessed are they, noble-souled are they, who always worship Siva (or the ever-auspicious god).

A person who wishes to cross (the ocean) of worldly existence without Sadasiva, is indeed foolish and confounded.

There is no doubt that he, the
hater of Siva, is a great sinner. It was by him that (Halāhala) poison was swallowed, Dakṣa's sacrifice was destroyed, Kāla (god of Death) was burnt down and the king was released.

(Skanda Purana, Maheshvar - kedar, chaprer 1 verse 16-18)

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25 Oct, 09:12


पाप के कारण

ऋग्वेद और अथर्ववेद में पाप के कारणों पर विचार किया गया है और उनको दूर करने का उपाय भी बताया गया है।

पाप के पांच कारण - ऋग्वेद में पाप के पांच कारण बताए गए हैं। ये हैं - नियति, सुरा, क्रोध, द्यूत और अज्ञान। साथ ही पाप को दूर करने का उपाय बताया गया है - ईश्वर को सर्वव्यापक मानना, हृदय में साक्षीरूप में उसकी सत्ता का ज्ञान, ईश्वरोपासना और मनोबल। (ऋग्वेद ७/८६/६)

१) नियति - नियति का अर्थ है प्रारब्ध। पूर्वजन्म के कुकर्मों के आधार पर कुछ बुरे संस्कार भी इस जीवन में आते हैं। वे मनुष्य को पापों की ओर लगाते हैं।

२) सुरा - सुरा मदिरा है । यह बुद्धि को भ्रष्ट कर देती है, अतः व्यक्ति पापों की ओर प्रवृत्त होता है ।

३) क्रोध - क्रोध बुद्धि को विकृत कर देता है, अतः मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य को भूल जाता है और कोई भी पाप हिसा आदि कर देता है I

४) द्यूत - जुआ। यह दुर्व्यसन है। कठिनाई से छूटता है। द्यूत में हार जाने पर व्यक्ति धन के लिए चोरी आदि कुकर्म करता है।

५) अज्ञान - अविवेक । अज्ञान से कर्तव्य-बोध का अभाव रहता है और मनुष्य अनजाने में असत्यभाषण, अनाचार आदि पाप करने लगता हैI

पाप-प्रवृत्ति को दूर करने का उपाय बताया गया है कि यदि मनुष्य समझता है कि हमारे हृदय में परमात्मा बैठा है और वह हमारे पापों को देख रहा है तो वह पाप से डरता है और पाप नहीं करता । दूसरा उपाय है ईश्वरोपासना। ईश्वर की उपासना या भक्ति से सात्त्विक विचार आते हैं और व्यक्ति पापों से बचता है I

पापी को महादुःख - अथर्ववेद के एक मंत्र में बताया गया है कि पापी को महादुःख भोगना पड़ता है। साथ ही पांच पापों के नाम भी गिनाए हैं । ये हैं :-

१) अघशंस - किसी दूसरे का अशुभ या बुरा सोचना।

२) ब्रह्मद्विष् - नास्तिक होना, परमात्मा को न मानना, ज्ञानियों और विद्वानों से द्रोह करना।

३) क्रव्याद् - मांसाहार। मांसाहार से बुद्धि भ्रष्ट होती है और तामसी वृत्तियां बढ़ती हैं।

४) घोरचक्षुष् - दूसरे को बुरी दृष्टि से देखना, नजर लगाना।

५) किमीदिन् - भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न करना, भला-बुरा सब खाना, घेटू होना, भूख से अधिक खा लेना।

ये पाचों दुर्गुण मनुष्य के जीवन के लिए घातक हैं। (अथर्ववेद ८/४/२ , ऋग्वेद ७/१०४/२)

पाप का फल-भोक्ता पापी ही - ऋग्वेद का कथन है कि जो दुर्भावना रखता है, किसी से कपट करता है या किसी का अनिष्ट सोचता है, वह पापी है और उस पाप का फल उसे भोगना पड़ता है। (ऋग्वेद ८/१८/१४) 

इसका अभिप्राय है कि जो व्यक्ति दूसरे का अहित-चिन्तन करता है, दूसरे से द्रोह करता है या छल-प्रपंच करता है। वह शारीरिक और मानसिक रूप से अपना ही अहित और अनिष्ट करता है। बुरे विचार आना मन और बुद्धि के लिए अहितकर हैं। अशुभ चिन्तन पहले स्वयं को हानि पहुचाते हैं, बाद में किसी अन्य को। पाप का सोचना और करना दोनों ही प्रकार मनुष्य के पतन के सूचक हैं ।

शुभ विचारों से पाप का नाश - ऋग्वेद के एक मंत्र में दुर्विचारों और शुभ विचारों का अन्तर बताया गया है। दुर्विचार पाप हैं और पतन की ओर ले जाते हैं। शुभ विचार पुण्य हैं, वे विजय और उन्नति की ओर ले जाते हैं। मंत्र का कथन है कि हमने पाप छोड़ दिए हैं, हम निष्पाप हो गए हैं। अतएव हम विजयी हुए हैं और हमें ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है। (ऋग्वेद १०/१६४/५)

सोते-जागते जो पाप किए जाते हैं, वे द्वेषी और अहितचिन्तक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार शुभ विचारों को उन्नति का साधक और दुर्विचारों को पतन का कारण माना गया है|

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24 Oct, 08:53


वैदिक आर्यों के जीवन में सत्य

वैदिक ऋषियों के अनुसार सत्य पर ही भूमि टिकी हुई है। (ऋग्वेद १०/८५/१ , अथर्ववेद १४/१/१)

मनुष्य का अपने जीवन में सुख-सम्पत्ति की इच्छाओं पर नियन्त्रण ऋत और सत्य के द्वारा होना चाहिए और इस नियन्त्रण में रहने के लिए अपने मन को दृढ़ बनाने के लिए प्रार्थना की गई है कि मेरे मन का विचार सत्य से युक्त हो। (ऋग्वेद १०/१२७/४ , अथर्ववेद ५/३/४)

वचन और कर्म दोनों से ही सत्य के पालन की प्रतिज्ञा एवं प्रार्थना की जाती है। (ऋग्वेद १/११३/४)

यजुर्वेद के ऋषि का संकल्प है कि मैं अनृत से सत्य को प्राप्त करता हूँ। (तैत्तिरीय संहिता १/५/१०/३)

सत्य को वैदिक युग में विश्व का नियन्त्रक और संचालक तक माना गया है-जिस प्रकार द्युलोक, दिन-रात तथा सारा जगत् आश्रित है, जिसकी महिमा से प्रतिदिन सूर्योदय होता है और जल प्रवाहित होता है, ऐसा सत्य वचन हमारी रक्षा करे।' (ऋग्वेद १०/३७/२)

ऋग्वेद में आये सत्य के द्वारा पृथ्वी के स्तम्भन को अथर्ववेद में और भी स्पष्ट कर दिया गया है कि ऋत, सत्य, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ पृथ्वी को धारण करते हैं। (अथर्ववेद १२/१/१)

पारलौकिक आनन्द की प्राप्ति का साधन भी सत्य है। देवत्व को प्राप्त करने वाले पितरों को धर्म में स्थित और सत्यवादी कहा गया है। (ऋग्वेद १०/१५/९ , अथर्ववेद १८/३/४७) इससे यह प्रमाणित होता है कि सत्य और धर्म अभिन्न तत्त्व हैं।

वैदिक आर्यों के देवता भी सत्य आचरण करने वाले और धर्म से युक्त थे - मेधावी और सत्यधर्मा देव अग्नि के पास आकर यज्ञ कार्य में उनकी स्तुति करो । (ऋग्वेद १/१२/७ , सामवेद ३२)

और भी - हे अग्नि, तुम होता, अशेष बुद्धिसम्पन्न, सत्यपरायण, बहुत अधिक अद्भुत कीर्ति से युक्त हो। (ऋग्वेद १/१/५)

विविध स्थलों पर भी ऋषि ने अपने आराध्य को सत्यधर्मा, सत्यवचन, सत्यवान्, सत्यबल सम्पन्न आदि गुणों से विभूषित किया है। (ऋग्वेद १/३/३ , १/२९/१ , १/३६/४ , १/१५१/८ , १/१२/७ , सामवेद १/३/१२)

एक स्थल पर सोम के लिए ऋषि का कथन है कि विद्वान् को यह विदित है कि सत्य और असत्य वचन परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं, उनमें से जो सत्य और सरलतम है; उसी का पालन सोम करते हैं और असत्य की हिंसा करते हैं। (ऋग्वेद ७/१०४/१२ , अथर्ववेद ८/४/१२)

यम-यमी संवाद सूक्त में यम यमी से कहता है कि हम सत्य वक्ता हैं, असत्य कभी नहीं बोलते। (अथर्ववेद १८/१/४ , ऋग्वेद १०/१०/४)

संहिताओं में जनसामान्य को भी सत्य मार्ग पर चलने (ऋग्वेद ९/११३/४),  सत्य बोलने और तदनुकूल आचरण करने का आदेश ऋषि देते हैं। (ऋग्वेद ४/३३/६) मन, वाणी और कर्म की एकरूपता ही सत्य है। अथर्ववेद में ऋषि प्रतिज्ञा करता है - मैं सत्य बोलूंगा, झूठ कभी भी नहीं। (अथर्ववेद ४/९/७)

अथर्ववेद में निर्देश मिलता है कि - सत्य के मार्ग को भलीभांति देखो। (अथर्ववेद १८/४/४३)

ऋग्वेद के ऋषि ने भी एक स्थल पर परामर्श दिया है कि सत्य की नौकायें शुभ कर्म करने वाले को पार लगाती हैं। (ऋग्वेद ९/७३/१)

वाजसनेयि संहिता में ऋषि निर्देश देता है कि हे सन्तानों ! जैसे हम यथार्थ अविनाशी, अव्यभिचारी सत्पुरुषों में श्रेष्ठ सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य कराना आदि गुण हैं उसी प्रकार उन्हें धारण कर तुम भी सुखी रहो।' (वाजसनेयि संहिता ११/४७)

हम यह कह सकते हैं कि वैदिक आर्यों के जीवन में सत्य का अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान था।

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23 Oct, 18:01


धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥

"अतिक्रमण (उल्लङ्घन) किया हुआ धर्म ही व्यक्तियों को नष्ट कर देता है और धर्मपालन से रक्षित धर्म ही व्यक्तियों को सुरक्षित रखता है। अतः 'नष्ट हुआ अर्थात् उपेक्षित और अधर्माचरण से तिरस्कृत धर्म हमें नष्ट न करे' - ऐसा समझकर धर्म का हनन (त्याग) न करे ।। "

(मनुस्मृति ८.१५)

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21 Oct, 11:56


‘गौएँ स्वर्गकी सीढ़ियाँ हैं, गौएँ स्वर्गमें भी पूजी जाती हैं, गौएँ समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवियाँ हैं, उनसे बढ़कर और कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं है।'

( महाभारत, अनु० ५१ । ३३)

'जिसके घरमें बछड़ेसहित एक भी गौ नहीं है, उसका मंगल कैसे होगा और उसके पापोंका नाश कैसे होगा ?"

(अत्रिसंहिता २१८ - २१९ )

'गौओंका सदा दान करना चाहिये, सदा उनकी रक्षा करनी चाहिये और सदा उनका पालन-पोषण करना चाहिये ।

(बृहत्पराशरस्मृति ५। २३)

'राजन्! जो प्याससे व्याकुल गायोंके जल पीनेमें विघ्न डालता है, उसे ब्रह्महत्यारा समझना चाहिये।'

(महाभारत, अनु० २४ । ७)

'जो नराधम मनमें भी गायोंको दुःख देनेकी इच्छा कर लेता है, उसे चौदह इन्द्रोंके कालतक नरकमें रहना पड़ता है। '

(पद्मपुराण, पाताल० १९ । ३४ )

'राजन्! जो मनुष्य जान-बूझकर भगवान्‌की निन्दा करता है और गायोंको दुःख देता है, नरकसे कभी छुटकारा नहीं हो सकता।'

(पद्मपुराण, पाताल० १९ । ३६ )

'गौकी हत्या करनेवाले, उसका मांस खानेवाले तथा गोहत्याका अनुमोदन करनेवाले लोग गौ शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक नरकमें डूबे रहते हैं।

( महाभारत, अनु० ७४ । ४)

'गोभक्त मनुष्य जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब उसे प्राप्त होती है। स्त्रियोंमें भी जो गौओंकी भक्त हैं, वे मनोवाञ्छित कामनाएँ प्राप्त कर लेती हैं। पुत्रार्थी मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन्या । धन चाहनेवालेको धन और धर्म चाहनेवालेको धर्म प्राप्त होता है। विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख । भारत! गोभक्तके लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है।'

(महाभारत, अनु० ८३ । ५०-५२ )

'जो गौओंको प्रतिदिन जल और तृणसहित भोजन प्रदान करता है, उसे अश्वमेधयज्ञके समान पुण्य प्राप्त होता है, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है।'

(बृहत्पराशरस्मृति ५। २६-२७ )

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18 Oct, 17:17


श्रीरामचन्द्रजी बोले-

पुरुषत्व- स्त्रीत्वका भेद अथवा जाति, नाम और आश्रम-ये कोई भी मेरे भजनके कारण नहीं हैं। उसका कारण तो एकमात्र मेरी भक्ति ही है।

जो मेरी भक्तिसे विमुख हैं, वे यज्ञ, दान, तप अथवा वेदाध्ययन आदि किसी भी कर्मसे मुझे कभी नहीं देख सकते।

अतः हे भामिनि ! मैं संक्षेपसे अपनी भक्तिके साधनोंका वर्णन करता हूँ। उनमें पहला साधन तो सत्संग ही है।

मेरे जन्म-कर्मोकी कथाका कीर्तन करना दूसरा साधन है, मेरे गुणोंकी चर्चा करना - यह तीसरा उपाय है और (गीता-उपनिषदादि) मेरे वाक्योंकी व्याख्या करना उसका चौथा साधन है।

हे भद्रे ! अपने गुरुदेवकी निष्कपट होकर भगवद्बुद्धिसे सेवा करना पाँचवाँ, पवित्र स्वभाव, यम-नियमादिका पालन और मेरी पूजामें सदा प्रेम होना छठा तथा मेरे मन्त्रकी सांगोपांग उपासना करना सातवाँ साधन कहा जाता है।

मेरे भक्तोंकी मुझसे भी अधिक पूजा करना, समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना करना, बाह्य पदार्थोंमें वैराग्य करना और शम-दमादि-सम्पन्न होना—यह मेरी भक्तिका आठवाँ साधन है तथा तत्त्वविचार करना नवाँ है। हे भामिनि ! इस प्रकार यह नौ प्रकारकी भक्ति है।

हे शुभलक्षणे ! जिस किसीमें ये साधन होते हैं वह स्त्री, पुरुष अथवा पशु-पक्षी आदि कोई भी क्यों न हो उसमें प्रेम-लक्षणा-भक्तिका आविर्भाव हो ही जाता है।

भक्तिके उत्पन्न होनेमात्रसे ही मेरे स्वरूपका अनुभव हो जाता है और जिसे मेरा अनुभव हो जाता है उसकी उसी जन्ममें निस्सन्देह मुक्ति हो जाती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि मोक्षका कारण भक्ति ही है।

(अध्यात्मरामायण ३/१०/२० से २९ तक)

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18 Oct, 14:04


श्रीकृष्णकी निर्मल निष्काम भक्ति ही यथार्थ परमार्थ है, जो इस भक्तिको पाना चाहे, वह मन लगाकर शुद्ध चित्तसे भगवान् श्रीकृष्णके अमंगल-नाश करनेवाले पवित्र चरित्रोंका बारम्बार गान करे और सज्जनोंके पास बैठकर सदा उन्हींको सुने।

(श्रीमद्भागवत १२/३/१५)

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17 Oct, 15:34


मनुष्यको चाहिये कि तपको क्रोधसे, सम्पत्तिको डाहसे, विद्याको मान-अपमानसे और अपनेको प्रमादसे बचावे। क्रूर स्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है। क्षमा सबसे महान् बल है। आत्मज्ञान सर्वोत्तम ज्ञान है और सत्य ही सबसे बढ़कर हितका साधन है ।

(नारद पुराण, पुर्व ० ६०/४८)

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17 Oct, 09:27


शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः ॥

'हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। यह शरीर भी पाँच भूतोंका बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है; फिर किसलिये रो रहा है?'

(मार्कण्डेयपुराण २३ । ११)

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15 Oct, 15:02


[ श्रीरामजी बोले-]

जो मनुष्य अपने अहितका अनुमान करके शरणमें आये हुएका त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं; उन्हें देखनेमें भी हानि है (पाप लगता है)।

जिसे करोड़ों ब्राह्मणोंकी हत्या लगी हो, शरणमें आनेपर मैं उसे भी नहीं त्यागता । जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं।

जो मनुष्य निर्मल मनका होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल छिद्र नहीं सुहाते।

(रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड ४३/३)

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15 Oct, 08:10


महर्षि शातातप बतलाते हैं कि -

प्रत्येक व्यक्तिको प्रात:काल जगकर यह समझना चाहिये कि 'यह जीवन क्षणिक है, इसमें महान् भय उपस्थित है। पता नहीं कब मरण हो जाय, कब कौन-सी व्याधि आ जाय, कब कौन शोक आ जाय, अर्थात् ये अत्यन्त समीपमें ही आये हुए हैं' ऐसा समझकर धर्मका ही अनुष्ठान करना चाहिये, भजन-पूजन, भगवत्सेवा इत्यादि
उत्तम कामोंमें ही अपना समय लगाना चाहिये, मृत्यु कब आकर घेर लेगी, इसका कुछ पता नहीं।

यह समझना चाहिये कि हम कालके मुँहमें ही पड़े हैं, अतः अच्छे कामको कलके लिये नहीं टालना चाहिये।

'कल करूँगा, आज करूँगा, पूर्वाह्णमें करूँगा, अपराह्नमें करूँगा', इस प्रकारसे टाल-मटोल करके सत्कर्मकी उपेक्षा नहीं
करनी चाहिये। अच्छे कामोंको, सत्कर्मोंको, धर्माचरणको तत्काल ही कर ले और बुरे कामको टालता रहे ।

मृत्यु किसीकी प्रतीक्षा नहीं करती। वह तो अपने नियत समयपर आयेगी ही। चाहे मनुष्यने अपना काम कर लिया हो चाहे वह काम करनेवाला हो, इसका खयाल मृत्यु नहीं करती। अर्थात् मृत्यु नियत है, काल नियत है, थोड़ा-सा समय मिला है, अतः जैसे बन पड़े, जितनी जल्दी बन पड़े, आत्मकल्याणमें लग जाना चाहिये ।

(वृद्धशातातपस्मृति , श्लोक ६५ -६६)

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14 Oct, 15:43


प्रायश्चित्त करनेपर पाप कहाँ चला जाता है ?

'पापी व्यक्तिका पाप प्रायश्चित्त कर लेनेपर कहाँ चला जाता है अथवा किसका आश्रय लेकर रहता है,' इस प्रश्नके उत्तरमें उत्तराङ्गिरसस्मृति में बतलाया गया है कि वह पाप न तो कर्ताको लगता है और न प्रायश्चित्त बतलानेवाली धर्मपरिषद्को, बल्कि वह पाप उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जिस प्रकार हवा और सूर्यकी किरणोंसे जल विलीन हो जाता है।

(उत्तराङ्गिरसस्मृति ६/१०)

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12 Oct, 04:52


आप सभी को दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएं

जय श्री राम 🏹❤️

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