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Dharma Insights (English)

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21 Nov, 15:38


व्यासजीने कहा-

ब्राह्मणो ! जो मोहवश अधर्मका अनुष्ठान कर लेनेपर उसके लिये पुनः सच्चे हृदयसे पश्चात्ताप करता और मनको एकाग्र रखता है, वह पापका सेवन नहीं करता ।

ज्यों- ज्यों मनुष्यका मन पाप-कर्मकी निन्दा करता है, त्यों-त्यों उसका शरीर उस अधर्मसे दूर होता जाता है।

(ब्रह्मापुराण २१८/५ , मनुस्मृति ११/२२९ - २३० , विष्णुधर्मोत्तर २/७३/२३१ - २३३)

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20 Nov, 15:15


जिसका मन सरल है, वाणी सरल है और समस्त क्रियाएँ सरल हैं, उसके लिये भगवान् श्रीरघुनाथजीके प्रेमको उत्पन्न करनेवाली सभी विधियाँ सरल हैं अर्थात् निष्कपट (दम्भरहित) 'मन, वाणी और कर्मसे भगवान्‌का प्रेम अत्यन्त सरलतासे प्राप्त हो सकता है।

तुलसीदासजी कहते हैं कि ऊपरका वेष साधुओंका-सा हो और बोली भी मीठी हो, परंतु मन कठोर हो और कर्म भी मलिन हो - इस प्रकार विषयरूपी जलकी मछली बने रहने से श्रीरामजीकी प्राप्ति नहीं होती (श्रीरामजी तो सरल मनवालेको ही मिलते हैं)।'

(दोहावली १५२-१५३)

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19 Nov, 05:23


यों शास्त्रोंमें धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों पुरुषार्थोंका भी वर्णन है।

आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविकाके विविध साधन- ये सभी वेदोंके प्रतिपाद्य विषय हैं;

परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरिको आत्मसमर्पण करनेमें सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं।

(श्रीमद्भागवत ७/६/२६)

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17 Nov, 07:54


वन और वृक्ष मानव के रक्षक

ऋग्वेद में मानव के रक्षक के रूप में वन, वृक्ष ओषधियों और पर्वतों का उल्लेख किया गया है। एक मंत्र में कहा गया है कि वृक्ष वनस्पति मनुष्य के बहुत उपकारक हैं। अतएव ओषधियों को 'नि:षिध्वरी' (उपकारक, हितकारी, मंगलदायक ) कहा गया है ।

(क) आप ओषधीरुत नोऽवन्तु द्यौर्वना गिरयो वृक्षकेशाः । । (ऋग्वेद ५/४१/११)

(ख) निष्षिध्वरीस्त ओषधीः । (ऋग्वेद ३/५५/२२)

वृक्ष-वनस्पतियाँ शिव के रूप हैं : शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि वृक्ष- वनस्पतियाँ (ओषधियाँ) पशुपति अर्थात् भगवान् शिव हैं। यजुर्वेद के रुद्राध्याय (अध्याय १६) में शिव को वृक्ष, वनस्पति, वन, ओषधि और लता-गुल्म (झाड़ी) का स्वामी बताया गया है।

भगवान् शिव को शिव इसलिए कहा जाता है कि वे विष का पान करते हैं और अमृत प्रदान करते हैं।

वृक्ष-वनस्पतियों का शिवत्व यह है कि वे कार्बन डाई-आक्साइड (CO₂) रूपी विष को पीते हैं और आक्सीजन (O2) रूपी अमृत (प्राणवायु) को छोड़ते हैं।

शिव का दूसरा रूप रुद्र (भयंकर) है । वह संसार का नाशक और संहारक है। वृक्षों का रुद्र रूप यह है कि यदि वृक्षों को अंधाधुंध काटा जाता है और वृक्ष-संपदा को नष्ट किया जाता है तो संसार को जीवनरक्षक तत्त्व प्राणवायु (O2) प्राप्त नहीं होगी और संसार का स्वयं विनाश हो जाएगा।

(क) ओषधयो वै पशुपतिः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/३/१२)

ख) वनानां पतये नमः । वृक्षाणां पतये नमः।
ओषधीनां पतये नमः, कक्षाणां पतये नमः ।। (यजुर्वेद १६/१७ से १९)

वृक्ष-वनस्पतियों के लाभ : यजुर्वेद में वृक्ष-वनस्पतियों के लाभ का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वृक्ष मधुर फल देते हैं। ये वर्षा करने वाले बादलों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं और पृथ्वी को दृढ बनाते हैं। (यजुर्वेद २८/२०)

ऋग्वेद में कहा गया है कि वृक्ष-वनस्पति हमारे रक्षक हैं। न हम इनकी उपेक्षा करें और न ये हमारा साथ छोड़ें। (ऋग्वेद ३/५३/२०)

इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य और वृक्ष परस्पर संबद्ध हैं। दोनों एक दूसरे के उपकारक हैं। वृक्ष आक्सीजन द्वारा मनुष्य को जीवनीशक्ति देते हैं और मनुष्य आदि कार्बन डाई-आक्साइड देकर वृक्षों को पोषक भोजन देते हैं।

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15 Nov, 08:25


भगवान ने कहा

जो सब कर्मोंको परमात्मामें अर्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पापसे लिप्त नहीं होता-ठीक उसी तरह जैसे कमलका पत्ता पानीसे लिप्त नहीं होता।

जिसका.अन्तःकरण योगयुक्त है— परमानन्दमय परमात्मामें स्थित है तथा जो सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाला.है, वह योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें तथा सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है।

योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचार-विचारवाले श्रीमानों (धनवानों) के घरमें जन्म लेता है। तात ! कल्याणमय शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता।

(अग्निपुराण ३८१/९-१०)

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15 Nov, 07:10


श्रीराम बड़े ही रूपवान् और पराक्रमी थे। वे किसीके दोष नहीं देखते थे। भूमण्डलमें उनकी समता करनेवाला कोई नहीं था। वे अपने गुणोंसे पिता दशरथके समान एवं योग्य पुत्र थे।

वे सदा शान्त चित्त रहते और सान्त्वनापूर्वक मीठे वचन बोलते थे; यदि उनसे कोर्इ कठोर बात भी कह देता तो वे उसका उत्तर नहीं देते थे।

कभी कोई एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकारसे सदा संतुष्ट रहते थे और मनको वशमें रखनेके कारण किसीके सैकड़ों अपराध करनेपर भी उसके अपराधोंको याद नहीं रखते थे।

अस्त्र-शस्त्रोंके अभ्यासके लिये उपयुक्त समयमें भी बीच-बीचमें अवसर निकालकर वे उत्तम चरित्रमें ज्ञानमें तथा अवस्थामें बढ़े- चढ़े सत्पुरुषोंके साथ ही सदा बातचीत करते।

वे बड़े बुद्धिमान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आये हुए मनुष्योंसे पहले स्वयं ही बात करते और ऐसी बातें मुँहसे निकालते जो उन्हें प्रिय लगे; बल और पराक्रमसे सम्पन्न होनेपर भी अपने महान् पराक्रमके कारण उन्हें कभी गर्व नहीं होता था।

झूठी बात तो उनके मुखसे कभी निकलती ही नहीं थी। वे विद्वान् थे और सदा वृद्ध पुरुषोंका सम्मान किया करते थे। प्रजाका श्रीरामके प्रति और श्रीरामका प्रजाके प्रति बड़ा अनुराग था।

वे परम दयालु क्रोधको जीतनेवाले और ब्राह्मणोंके पुजारी थे। उनके मनमें दीन- दुःखियोंके प्रति बड़ी दया थी। वे धर्मके रहस्यको जाननेवाले, इन्द्रियोंको सदा वशमें रखनेवाले और बाहर-भीतरसे परम पवित्र थे।

अपने कुलोचित आचार, दया, उदारता और शरणागतरक्षा आदिमें ही उनका मन लगता था। वे अपने क्षत्रियधर्मको अधिक महत्त्व देते और मानते थे। वे उस क्षत्रियधर्मके पालनसे महान् स्वर्ग (परम धाम) की प्राप्ति मानते थे; अत: बड़ी प्रसन्नताके साथ उसमें संलग्न रहते थे ।

अमङ्गलकारी निषिद्ध कर्ममें उनकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती थी; शास्त्रविरुद्ध बातोंको सुनने में उनकी रुचि नहीं थी; वे अपने न्याययुक्त पक्षके समर्थन में बृहस्पतिके समान एक-से-एक बढ़कर युक्तियाँ देते थे।

उनका शरीर नीरोग था और अवस्था तरुण। वे अच्छे वक्ता, सुन्दर शरीरसे सुशोभित तथा देश - कालके तत्त्वको समझनेवाले थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि विधाताने संसार में समस्त पुरुषोंके सारतत्त्वको समझनेवाले साधु पुरुषके रूपमें एकमात्र श्रीरामको ही प्रकट किया है।

राजकुमार श्रीराम श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त थे। वे अपने सद्गुणोंके कारण प्रजाजनोंको बाहर विचरनेवाले प्राणकी भाँति प्रिय थे।

भरतके बड़े भार्इ श्रीराम सम्पूर्ण विद्याओंके व्रतमें निष्णात और छहों अङ्गोंसहित सम्पूर्ण वेदों यथार्थ ज्ञाता थे। बाणविद्यामें तो वे अपने पितासे भी बढ़कर थे।

(वाल्मीकि रामायण २/१/९ से १९ तक)

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11 Nov, 16:59


विराट् से सृष्टि - उत्पत्ति

सृष्टि विराट् का एक अंशमात्र - यह पूरा ब्रह्माण्ड विराट् की शक्ति का चतुर्थांश या अंशमात्र है। उसकी शक्ति का तीन-चौथाई अंश इस ब्रह्माण्ड के बाहर है। (यजुर्वेद ३१/३)

इसका अभिप्राय यह है कि उस परमात्मा या विराट् की शक्ति का कहीं अन्त नहीं है। वह अनन्त, 'अप्रमेय, अनिर्वचनीय और अवर्णनीय है। यह सारी सृष्टि उसकी शक्ति का अंशमात्र है। अतिरिक्त अंश अव्यक्त होने के कारण अदृश्य है I

विराट् से पंचभूत आदि - विराट् पुरुष से ही चर और अचर, स्थावर और जंगम जगत् की उत्पत्ति हुई है। (यजुर्वेद ३१/४)

चर के लिए 'साशन' (खाने वाला, भोजन आदि करने वाला) शब्द है और अचर या स्थावर के लिए 'अनशन' (भोजन न करने वाला) शब्द दिया गया है ।

विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों से विविध लोकों आदि की सृष्टि की कल्पना की गई है। विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष की उत्पत्ति हुई और शिरोभाग से द्युलोक की। उसके पैर से भूमि और श्रोत्र (कान) से दिशाएं उत्पन्न हुईं। इसी प्रकार उसके अन्य अवयवों से विभिन्न लोक उत्पन्न हुए।' (यजुर्वेद ३१/१३)

उसके मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई तथा चक्षु से सूर्य की । श्रोत्र से वायु और प्राण की उत्पत्ति हुई तथा मुख से अग्नि की। (यजुर्वेद ३१/१२)

उस विराट् पुरुष से ही गाय, अश्व आदि प्राणी तथा ग्राम्य, जंगली और आकाशीय सभी पशु-पक्षी आदि उत्पन्न हुए। (यजुर्वेद ३१/४ से ८)

हिरण्यगर्भ- उस विराट् पुरुष को ही हिरण्यगर्भ, प्रजापति आदि नामों से संबोधित किया गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद आदि में इस हिरण्यगर्भ का बहुत विस्तार से वर्णन है। सृष्टि का प्रारम्भ हिरण्यगर्भ से होता है। ( ऋग्वेद १०/१२१/१ , यजुर्वेद १३/४)

हिरण्यगर्भ क्या है ? - विराट् पुरुष या प्रजापति को हिरण्यगर्भ कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि वह विराट् पुरुष ज्योतिर्मय तत्त्व है। वह अमर, अनश्वर और शाश्वत है । 'हिरण्यं गर्भे यस्य सः' जिसके गर्भ में हिरण्य है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस हिरण्य का अर्थ स्पष्ट किया गया है कि ज्योति या तेज को हिरण्य कहते हैं । ( शतपथ ब्राह्मण ६/७/१/२)

शतपथ ब्राह्मण ने हिरण्य का अर्थ अमृत लिया है अर्थात् वह अमर है, अनश्वर है, सदा रहने वाला है। (शतपथ ब्राह्मण ९/४/४/५)

यह ज्योतिर्मय और अमर तत्त्व जिसके गर्भ या मूल में है, उसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। इससे ज्ञात होता है कि विराट् पुरुष या प्रजापति ज्योतिर्मय पुंज है। यह अमर और अनश्वर है ।

इस हिरण्यगर्भ सूक्त से ज्ञात होता है कि विराट् पुरुष को एक ज्योतिपुंज के रूप में चित्रित किया गया है। वह सर्वशक्तिमान् है। वह द्युलोक और पृथिवी का आधार है।( ऋग्वेद १०/१२१/१)

वह आत्मिक और शारीरिक शक्ति देने वाला है। उसकी कृपा से अमरत्व की प्राप्ति होती है, उसकी अकृपा ही मृत्यु है। (ऋग्वेद १०/१२१/२)

वह चराचर जगत् का स्वामी है। (ऋग्वेद १०/१२१/३)

उसने ही अन्तरिक्ष में ग्रह नक्षत्रादि को स्थापित किया हुआ है। (ऋग्वेद १०/१२१/५)

सारी दिशाएं उसके बाहु के तुल्य हैं। हिमयुक्त पर्वत और समुद्र उसकी कृपा पर निर्भर हैं । (ऋग्वेद १०/१०१/४)

एक रूप है और वह सारे संसार का स्वामी है। उसकी कृपा से ही संसार में सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। वह मानवमात्र की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। अतएव उसकी उपासना की जाती है।

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10 Nov, 06:38


Hinduism FAQs , Chinmaya mission, page 25

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08 Nov, 11:31


इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वहारिषु ।
संयमे यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम् ॥

जैसे कुशल सारथी रथमें जुड़े हुए घोड़ोंको नियमन करता है, वैसे ही विद्वान् मनुष्यको विषयोंके दोषोंको जानते हुए, विषयोंमें आकृष्ट होकर उनकी ओर दौड़नेवाली इन्द्रियोंको रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।

(मनुस्मृति २/८८)

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07 Nov, 13:24


A generous person must give something in charity to a needy person. He ought to see the auspicious path of the virtues.

The riches rotate like the wheels of a chariot and go to the others.

(Rig veda 10/117/5)

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04 Nov, 15:32


पति के कर्तव्य :

ऋग्वेद और अथर्ववेद के तीन सूक्तों (१८६ मंत्र) में विवाह संस्कार का वर्णन है। इन सूक्तों में पति और पत्नी के अधिकार और कर्तव्यों का भी विस्तृत विवेचन है ।

(ऋग्वेद १०/८५/१ - ४७ , अथर्ववेद १४/१/१ से ६४ , १२/२/१ से ७५)

पति का सर्वप्रथम कर्तव्य है - पत्नी के भरण-पोषण की पूर्ण व्यवस्था करना । मंत्र का कथन है कि पति सौभाग्य के लिए पत्नी का पाणिग्रहण करता है और वह यह कहता है कि मैं इसके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व लेता हूँ।

(ऋग्वेद १०/८५/३६ , अथर्ववेद १४/१/५० , अथर्ववेद १४/१/५२)

पति का कर्तव्य है कि वह पत्नी के जीवन स्तर को उन्नत करे। उसकी शिक्षा का स्तर ऊँचा करे और आर्थिक समृद्धि से उसके भरण-पोषण की व्यवस्था उन्नत करे ।

(अथर्ववेद ११/१/२१)

जीवन में नवीनता का संचार करे। (अथर्ववेद १८/३/१७)

इसका अभिप्राय है कि बाह्य परिस्थितियों के अनुसार अपने जीवन को ढाल सके और नवीन परिवर्तनों को अपना सके । पति को यह भी आदेश दिया गया है कि वह पत्नी से छिपाकर कोई काम न करे।

(अथर्ववेद १४/१/५७)

चाहे वह अन्न-पान की बात हो या अन्य कोई प्रसंग। इस प्रकार पति और पत्नी दोनों के कार्य एक-दूसरे की जानकारी में होने चाहिएँ। पति का यह भी कर्तव्य है कि वह सभी सुविधाएँ प्रदान करके पत्नी को प्रसन्न रखे, जिससे वह पति को आत्म-समर्पण के लिए उद्यत रहे।

(ऋग्वेद १०/७१/४)

मनु ने भी इस विषय का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। मनु का कथन है कि जिस परिवार में स्त्रियों का आदर होता है, वहाँ देवों का निवास होता है। जहाँ उनका अनादर होता है, वहाँ श्री नष्ट हो जाती है। स्त्री को वस्त्र, आभूषण और सद्व्यवहार से प्रसन्न रखे। प्रसन्न स्त्री से उत्पन्न होने वाली संतान भी प्रसन्नचित्त, स्वस्थ और सुयोग्य होती है।

(मनुस्मृति ३/५५ - ६२)

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01 Nov, 10:27


शिक्षा का उद्देश्य

वेदों में शिक्षा के उद्देश्य के विषय में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य इतस्ततः दिए गए हैं। उनको संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है :

१) बुद्धि का परिष्कार और बौद्धिक विकास : अथर्ववेद का कथन है कि शिक्षा का उद्देश्य है - व्यक्ति की बुद्धि को विकसित करना, उसे परिष्कृत करना, उसे तीक्ष्ण बनाना, उन्नति की ओर ले जाना और महान् सौभाग्य प्राप्त करना।" (अथर्ववेद ७/१६/१) अर्थात् जीवन का सर्वांगीण विकास करना और उसे सौभाग्ययुक्त बनाना ।

२) जीवन को तपस्वी बनाना : शिक्षा का अन्य उद्देश्य है - जीवन को सघा हुआ बनाना। तप और साधना से ही जीवन सधा हुआ बनता है। इसके लिए साधारण और कठिन साधनाएँ करनी पड़ती हैं। अतः अथर्ववेद का कथन है कि तपस्वी जीवन व्यतीत करने हुए, वेदों को पढ़ते हुए, दीर्घायु और मेधावी हों। (अथर्ववेद ७/६१/२)

३) आचार शिक्षा और चरित्र-निर्माण : शिक्षा के उद्देश्य में अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं - चरित्रनिर्माण, सत्यनिष्ठता, सत्याचरण। असत्य, झूठ, छल-प्रपंच आदि का परित्याग। जब तक चारित्रिक शुद्धि और परिष्कार नहीं होगा, तब तक विद्या फलीभूत नहीं होगी। अतएव यजुर्वेद में कहा गया है कि- मैं असत्य को छोड़कर सत्य को अपनाता हूँ। (यजुर्वेद१/५)

४) व्रत और श्रद्धा : किसी एक लक्ष्य को लेकर उसके प्रति समर्पित भाव से जुट जाना व्रत है। यजुर्वेद में व्रत को जीवन की आधारशिला बताते हुए कहा गया है कि व्रत से मनुष्य दीक्षित होता है, दीक्षा से दाक्षिण्य या प्रवीणता आती है, उस दक्षता के कारण ही मनुष्य में श्रद्धा उत्पन्न होती है और श्रद्धा से ही जीवन के लक्ष्य-रूप सत्य-ब्रह्म की प्राप्ति होती है । (यजुर्वेद १९/३०)

५) विद्या और बुद्धि का समन्वय : विद्या के साथ व्यावहारिक बुद्धि का होना आवश्यक है। व्यवहार-शून्य और लौकिक ज्ञान-शून्य विद्या को विद्या नहीं कहा जा सकता है । अत: वेद का कथन है कि सरस्वती (विद्या) के साथ धी (व्यवहार- आवश्यक है ।' (अथर्ववेद १९/११/२)

६) ज्ञान और कर्म का समन्वय : शिक्षा वही सफल होती है, जिसमें कर्मठता की दीक्षा दी जाती है। प्रगतिशील, कर्मठ एवं सतत संघर्षशील बनाना शिक्षा का लक्ष्य है। अतएव अथर्ववेद में कहा गया है कि मेरी बुद्धि सदा कर्मठ रहे। (अथर्ववेद २०/८९/३)

यजुर्वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय ही अभीष्ट है। कर्ममार्ग (अविद्या) से जीवननिर्वाह होता है और ज्ञानमार्ग (विद्या) से मोक्ष (अमृत) प्राप्त होता है। (यजुर्वेद ४०/१४)

७) अध्यात्म और भौतिकवाद का समन्वय : वेद अध्यात्म और भौतिकवाद
के समन्वय की शिक्षा देता है। यजुर्वेद और ईश उपनिषद् का कथन है कि केवल
भौतिकवाद या प्रकृतिवाद अनर्थ का कारण है और केवल अध्यात्म उससे भी अधिक अनर्थकारी है, अतः जीवन के समन्वित विकास के लिए दोनों का समन्वय अभीष्ट है। भौतिकवाद जीवन की ज्वलन्त समस्याओं को हल करता है और अध्यात्मक अमरत्व एवं आत्मिक शान्ति प्रदान करता है । (यजुर्वेद ४०/११)

८) ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित करना : ऋग्वेद में शिक्षा का उद्देश्य बताया गया है - अज्ञानी को ज्ञान-ज्योति देना, उसके अज्ञानान्धकार को दूर करना, निष्क्रिय और निश्चेष्ट को सक्रिय और सचेष्ट बनाना तथा प्रबुद्ध बनाना।" (ऋग्वेद १/६/३)

९) लोकहितकारी सद्बुद्धि देना : शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य की ओर संकेत करते हुए यजुर्वेद में कहा गया है कि शिक्षा के द्वारा ऐसी सुमति (सद्बुद्धि) प्राप्त हो, जो विश्वजनीन हो अर्थात् जिससे संसार का कल्याण कर सकें । (यजुर्वेद १७/७४)

१०) चिन्तन-शक्ति को बढ़ाना : शिक्षा का उद्देश्य है मनुष्य में विचार-शक्ति, मननशक्ति, चिन्तन-शक्ति और कर्तव्याकर्तव्य के निर्धारण करने वाली विवेक शक्ति को जागृत करना और बढ़ाना। ऋग्वेद का इसके साथ ही आदेश है कि स्वयं में दिव्य गुणों का विकास करके दूसरों में भी दैवी गुणों का विकास करो। (ऋग्वेद १०/५३/६)

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01 Nov, 06:59


नारदजीने कहा -

तात ! वही पिता, वही गुरु, वही बन्धु, वही पुत्र और वही मेरा ईश्वर है, जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंमें सुदृढ़ भक्ति उत्पन्न करा दे।

यदि बालक अज्ञानवश कुमार्गपर चल रहें हों तो उन्हींको जो उस मार्गसे हटाता है, वही करुणानिधान पिता है। जो श्रीकृष्ण चरणोंमें लगी हुई भक्तिका त्याग कराकर पुत्रको दूसरे किसी विषयमें लगाये, वह कैसा पिता है ?

(संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखण्ड, गीता प्रेस, पृष्ठ ८८)

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29 Oct, 12:43


एकेश्वरवाद

मुख्य देवता एक ही है - ऋग्वेद और अथर्ववेद में स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि देवों की संख्या विशाल है, तथापि मुख्य देवता एक ही है। 'एकं सद्०' कहकर यह तथ्य प्रकट किया है कि मूल तत्त्व या मूलसत्ता एक है। उस एक तत्त्व को ही विद्वान् पृथक्-पृथक् नामों से पुकारते हैं।

कोई उसको इन्द्र कहता है, कोई मित्र, कोई वरुण, कोई अग्नि, कोई सुपर्ण, कोई यम और कोई मातरिश्वा अर्थात् वायु। (ऋग्वेद १/१६४/४६ , अथर्ववेद ९/१०/२८)

इसी भाव को अथर्ववेद ने अन्यत्र भी प्रकट करते हुए कहा है कि वह मूलसत्ता एक ही है। उसका ही अनेक देवों के नाम से उल्लेख किया जाता है। वह पिता है, बन्धु है, सारे लोक उसमें ही लीन हो जाते हैं। (अथर्ववेद २/१/३)

यजुर्वेद का कथन है कि उस एकतत्त्व या विराट् पुरुष को ही अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्र, शुक्र (वीर्य), आप: (जल), ब्रह्म और प्रजापति कहा जाता है। (यजुर्वेद ३२/१)

अथर्ववेद में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है कि वह मूल तत्त्व एक ही है, दो, तीन, चार या दस आदि नहीं। (अथर्ववेद १३/४/१६) अथर्ववेद के ही एक अन्य सूक्त में कहा गया है कि उस एकदेव के ही इन्द्र, महेन्द्र, लोक, प्रजापति, विष्णु आदि नाम हैं। (अथर्ववेद १७/१/१८)

ऋग्वेद और अथर्ववेद में यही भाव अनेक मंत्रों में दिया गया है। ऋग्वेद में इसका विस्तृत वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह एक तत्त्व ही विभिन्न सारे रूपों को अपनाता है । जैसे - एक अग्नि के नाना रूप हैं, जैसे- एक सूर्य सारे लोकों में प्रकाशित हो रहा है, जैसे - एक उषा सर्वत्र नाना रूपों में दिखाई देती है, उसी प्रकार यह एक तत्त्व या एक देवता सारे विभिन्न रूप धारण करता है । (ऋग्वेद ८/५८/२)

निरुक्त में आचार्य यास्क का कथन है कि वह एक देवता महाशक्तिशाली है। उस एक देवता की ही अनेक देवों के नाम से स्तुति की जाती है। अन्य सभी देव उस महान् देव के अंग-प्रत्यंग हैं। (निरुक्त ७/४)

इसका अभिप्राय यह है कि मुख्य देवता एक ही है। उसको ही ईश्वर, अग्नि, इन्द्र, ब्रह्म आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है।

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28 Oct, 04:27


हे समस्त दुःखों और अज्ञानों के विदारक ! महावीर ! राजन् ! परमेश्वर ! मुझे दृढ़ कर। मुझको समस्त प्राणी गण मित्र की आंख से देखें और मैं भी सब प्राणियों को मित्र की आंख से देखूं । हम सब मित्र की आंख से एक दूसरे को देखा करें ।

(यजुर्वेद ३६/१८)

हे सर्वप्रकाशक ! सर्वोत्पादक परमेश्वर ! सब प्रकार के दुष्ट आचरणों और दुःखदायी, बुरे व्यसनों को दूर करो । जो सुखदायक, कल्याणकारी हैं उसे हमें प्राप्त कराइये।

(शतपथ ब्राह्मण १३/६/२/९ , यजुर्वेद ३०/३)

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26 Oct, 16:02


शतपथ ब्राह्मण में नारी की प्रतिष्ठा-

ब्राह्मण ग्रन्थ के अनेक उद्धरणों से यह स्फुट निर्देश प्राप्त होता है कि तत्तकालीन समाज में स्त्रियों का स्थान अत्यन्त प्रतिष्ठित था-

१) पत्नी के रूप में नारी को 'श्री' का स्वरूप बताया गया है तथा उसके प्रति हिंसा का सर्वथा निषेध किया गया है-

स्त्री वाऽएषा यच्छ्रीर्न वै स्त्रियं घ्नन्ति ।

(शतपथ ब्राह्मण ११/४/३/२)

२) एक अन्य स्थल पर पुनः पत्नियों को 'श्री' का रूप कहा गया है-

श्रियै वाऽएतद्रूपं यत्पत्न्यः।

(शतपथ ब्राह्मण १३/२/६/७)

३) साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि नारी कभी किसी को हानि अथवा कष्ट नहीं पहुँचाती है-

न वै योषा कंचन हिनस्ति ।

(शतपथ ब्राह्मण ६/३/१/३९)

४) नारी को गृह की प्रतिष्ठा बताया गया है-

गृहा वै पत्न्यै प्रतिष्ठा।

(शतपथ ब्राह्मण ३/३/१/१०)

५) यज्ञात्मक अनुष्ठानों में नारी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को यज्ञ का अर्धभाग बताया गया है-

जघनार्द्धे वा एष यज्ञस्य यत्पत्नी।

(शतपथ ब्राह्मण ५/२/१/८)

६) शतपथ ब्राह्मण में राजा की चार पत्नियों का उल्लेख प्राप्त होता है- महिषी, वावाता, परिवृक्ता तथा पालागली-इन सभी की यज्ञिय क्रियाओं में सम्मिलित होना- नारी के यज्ञिय वातावरण में उपस्थिति की सूचना प्राप्त होती है-

चतस्रो जाया उपक्लृप्ता भवन्ति। महिषी वावाता परिवृक्ता पालागली ।

(शतपथ ब्राह्मण १३/४/१/८)

७) शतपथ ब्राह्मण के यज्ञिय क्रिया-कलापों में पत्नी द्वारा अनेक यज्ञिय अनुष्ठानों के सम्पादन पत्नी की अनिवार्य उपस्थिति के परिचायकस्वरूप है।

(शतपथ ब्राह्मण १/९/२/१ , १/९/२/२१)

८) शतपथ ब्राह्मण के अनुसार यजमान की पत्नी अपने पति के साथ यज्ञ में भाग लेती है-

पतिं वाऽनु जाया तदेवाऽस्यापि पत्नी।

(शतपथ ब्राह्मण १/९/२/१४)

९) तैत्तिरीय ब्राह्मण में पत्नी के बिना यज्ञ करने वाले यजमान को ‘अयज्ञिय’ कहा गया है-

अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीकः।

(तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/२/६)

Dharma Insights

25 Oct, 13:33


Blessed are they, noble-souled are they, who always worship Siva (or the ever-auspicious god).

A person who wishes to cross (the ocean) of worldly existence without Sadasiva, is indeed foolish and confounded.

There is no doubt that he, the
hater of Siva, is a great sinner. It was by him that (Halāhala) poison was swallowed, Dakṣa's sacrifice was destroyed, Kāla (god of Death) was burnt down and the king was released.

(Skanda Purana, Maheshvar - kedar, chaprer 1 verse 16-18)

Dharma Insights

25 Oct, 09:12


पाप के कारण

ऋग्वेद और अथर्ववेद में पाप के कारणों पर विचार किया गया है और उनको दूर करने का उपाय भी बताया गया है।

पाप के पांच कारण - ऋग्वेद में पाप के पांच कारण बताए गए हैं। ये हैं - नियति, सुरा, क्रोध, द्यूत और अज्ञान। साथ ही पाप को दूर करने का उपाय बताया गया है - ईश्वर को सर्वव्यापक मानना, हृदय में साक्षीरूप में उसकी सत्ता का ज्ञान, ईश्वरोपासना और मनोबल। (ऋग्वेद ७/८६/६)

१) नियति - नियति का अर्थ है प्रारब्ध। पूर्वजन्म के कुकर्मों के आधार पर कुछ बुरे संस्कार भी इस जीवन में आते हैं। वे मनुष्य को पापों की ओर लगाते हैं।

२) सुरा - सुरा मदिरा है । यह बुद्धि को भ्रष्ट कर देती है, अतः व्यक्ति पापों की ओर प्रवृत्त होता है ।

३) क्रोध - क्रोध बुद्धि को विकृत कर देता है, अतः मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य को भूल जाता है और कोई भी पाप हिसा आदि कर देता है I

४) द्यूत - जुआ। यह दुर्व्यसन है। कठिनाई से छूटता है। द्यूत में हार जाने पर व्यक्ति धन के लिए चोरी आदि कुकर्म करता है।

५) अज्ञान - अविवेक । अज्ञान से कर्तव्य-बोध का अभाव रहता है और मनुष्य अनजाने में असत्यभाषण, अनाचार आदि पाप करने लगता हैI

पाप-प्रवृत्ति को दूर करने का उपाय बताया गया है कि यदि मनुष्य समझता है कि हमारे हृदय में परमात्मा बैठा है और वह हमारे पापों को देख रहा है तो वह पाप से डरता है और पाप नहीं करता । दूसरा उपाय है ईश्वरोपासना। ईश्वर की उपासना या भक्ति से सात्त्विक विचार आते हैं और व्यक्ति पापों से बचता है I

पापी को महादुःख - अथर्ववेद के एक मंत्र में बताया गया है कि पापी को महादुःख भोगना पड़ता है। साथ ही पांच पापों के नाम भी गिनाए हैं । ये हैं :-

१) अघशंस - किसी दूसरे का अशुभ या बुरा सोचना।

२) ब्रह्मद्विष् - नास्तिक होना, परमात्मा को न मानना, ज्ञानियों और विद्वानों से द्रोह करना।

३) क्रव्याद् - मांसाहार। मांसाहार से बुद्धि भ्रष्ट होती है और तामसी वृत्तियां बढ़ती हैं।

४) घोरचक्षुष् - दूसरे को बुरी दृष्टि से देखना, नजर लगाना।

५) किमीदिन् - भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न करना, भला-बुरा सब खाना, घेटू होना, भूख से अधिक खा लेना।

ये पाचों दुर्गुण मनुष्य के जीवन के लिए घातक हैं। (अथर्ववेद ८/४/२ , ऋग्वेद ७/१०४/२)

पाप का फल-भोक्ता पापी ही - ऋग्वेद का कथन है कि जो दुर्भावना रखता है, किसी से कपट करता है या किसी का अनिष्ट सोचता है, वह पापी है और उस पाप का फल उसे भोगना पड़ता है। (ऋग्वेद ८/१८/१४) 

इसका अभिप्राय है कि जो व्यक्ति दूसरे का अहित-चिन्तन करता है, दूसरे से द्रोह करता है या छल-प्रपंच करता है। वह शारीरिक और मानसिक रूप से अपना ही अहित और अनिष्ट करता है। बुरे विचार आना मन और बुद्धि के लिए अहितकर हैं। अशुभ चिन्तन पहले स्वयं को हानि पहुचाते हैं, बाद में किसी अन्य को। पाप का सोचना और करना दोनों ही प्रकार मनुष्य के पतन के सूचक हैं ।

शुभ विचारों से पाप का नाश - ऋग्वेद के एक मंत्र में दुर्विचारों और शुभ विचारों का अन्तर बताया गया है। दुर्विचार पाप हैं और पतन की ओर ले जाते हैं। शुभ विचार पुण्य हैं, वे विजय और उन्नति की ओर ले जाते हैं। मंत्र का कथन है कि हमने पाप छोड़ दिए हैं, हम निष्पाप हो गए हैं। अतएव हम विजयी हुए हैं और हमें ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है। (ऋग्वेद १०/१६४/५)

सोते-जागते जो पाप किए जाते हैं, वे द्वेषी और अहितचिन्तक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार शुभ विचारों को उन्नति का साधक और दुर्विचारों को पतन का कारण माना गया है|

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