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# घृमपान के अतियोग--
सुश्रुत मतेन--कर्णश्वेड, दौर्बल्य।
० अणुतैल निर्माणार्थ--
माहेन्द्रजल, अजादुग्ध प्रयोग।
# अणु तैल की मात्रा--अर्द पल।
सुश्रुत ने रसों के आधार पर दन्तपवन द्र॒व्यों का उल्लेख किया है-कवषाय रस--खदिर.
तिक्त रस--निम्ब
मधुर रस--मधुक
कटु रस--करंज
# सुश्रुत और वाग्भट ने गण्डूष के 4 भेदों (स्निग्घ, शमन, शोधन, रोपण) उल्लेख किया है।
वाग्भट ने मूर्धतैल के 4 भेद (अभ्यंग, सेक, पिचु, शिरोबस्ति) » स्नान से लाभ--वृष्य, आयुष्य, ओजस्कर।
० पादाभ्यंग से लाभ--दृष्टिप्रसादन।
० गन्धमाल्यनिषेवण से लाभ--वृष्य, आयुष्य, काम्यम्, सौमनस्यम्, अलक्ष्मीहर
० पादत्रधारण के लाभ--चक्षुष्य, वृष्य।
० छत्र धारण के लाभ--गुप्त्यावरण, शंकरम्।
० ईति अर्थात् आकस्मिक रूप से घटनाचक्र का विस्फोट।
० सुश्रुत मतेन ईति के भेद 6--अतिदवृष्टि, अनावृष्टि, मूषिका, शलभा, शुकों का झुण्ड, प्रत्यासन्नश्च राजान्।
० चरक मतेन देहबल-
उत्तम--आदानकाल के प्रारम्भ एवं विर्सगकाल के अन्त में। हीन--आदानकाल के अन्त में एवं विसर्गकाल के प्रारम्भ में।
वाग्भट मतेन देहबल--
उत्तम--हेमन्त, शिशिर हीन--वर्षा, ग्रीष्म।
मध्यम--शरद्, वसन्त
० वाग्भट ने ग्रीष्म ऋतुचर्या में पञ्चसार (मधु, खर्जर, द्राक्षा, फालसा, मिश्री) से बना मन्थ उपयोगी कहा है।
० वाग्भट ने वर्षा ऋतुचर्या में नदीजल एवं मन्थ सेवन वर्जनीय कहा है।
० शरद ऋतुचर्या में चरक एवं वाग्भट ने हंसोदक का उपयोग, सुश्रुत ने अगस्त नक्षत्र उदय से निर्विष जल का सेवन करने के लिए कहा है।
० वाग्भट ने शरदऋतुचर्या में निम्न 10 का सेवन वर्जित कहा है--तुषार, क्षार, सौहित्य (भरपेट भोजन), दधि, तैल, वसा, आतप, तीक्ष्ण मद्ध, दिवास्वाप, पुरोवात।
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