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आर्यभूमि : The Land of Aryans

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आर्यभूमि : The Land of Aryans (Hindi)

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आर्यभूमि : The Land of Aryans

13 Jan, 14:55


कांग्रेस से तीतर हुए शरद पवार, ममता बनर्जी, ज्योतिरादित्य सिंधिया और चंद्रबाबू नायडू राजनीति मे सफल रहे लेकिन बीजेपी से अलग होकर किसी ने राजनीति चमकाई हो ऐसा उदाहरण किसी को याद है?

गुजरात मे केशुभाई पटेल, मध्यप्रदेश मे उमा भारती, उत्तरप्रदेश मे कल्याण सिंह और कर्नाटक मे येदियुरप्पा इन चारो ने बगावत करके अलग पार्टी बनाई थी। चारो का ये मानना था कि उनके राज्य मे उन्होंने ही बीजेपी को चमकाया है।

लेकिन ज़ब खुद के नाम पर चुनाव लड़े तों वर्चस्व तों दूर अस्तित्व की लड़ाई भी हार गए। अपनी अपनी पार्टियां बीजेपी मे मिला लीं और राजनीति के गलियारों मे कही खो गए।

इसका कारण ये था कि बीजेपी का सबसे बड़ा वोट बैंक उसकी विचारधारा है। हर चुनाव मे नए वोटर जुड़ जाते है लेकिन बीजेपी का वोट प्रतिशत लड़खड़ाता नहीं है, बीजेपी झारखंड मे हारी मगर वोट प्रतिशत JMM से 10% ज्यादा रहा।

ये वो लड़ाई है जो बीजेपी वर्तमान मे हारती है मगर भविष्य मे जीत जाती है। उत्तरप्रदेश मे 2012 तक वोट प्रतिशत 15 था और अगले ही चुनाव मे 39% पहुँच गया, आज योगीजी उत्तरप्रदेश के सबसे लम्बे टिकाऊ मुख्यमंत्री बन गए।

जैसे जैसे साक्षरता दर बढ़ रही है बीजेपी का वोट बढ़ रहा है क्योंकि उसकी विचारधारा समय के अनुरूप ढलती है। जब मंदिर आंदोलनों का समय था तब राम मंदिर उसका मुद्दा था आज समय बदल गया है, सरकार मे है विदेशी निवेशकों को खुश रखना है युवा वोटबैंक है इसलिए अब विचारधारा उस अनुरूप है।

इसके विपरीत कांग्रेस व्यक्ति आधारित पार्टी है, हर कार्यकर्ता का उद्देश्य है कि राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाना है। क्यों बनाना है ये उन्हें भी नहीं पता, राहुल गाँधी किसी भी भाषण मे विकास के मुद्दों पर बात नहीं करता फिर भी जनता का एक वर्ग है जो उसे वोट दे देता है।

लेकिन बहुत जगह ये वोट वहाँ के लोकल नेताओं की वजह से मिलता है, अशोक चव्हाण की वज़ह से मराठवाडा कांग्रेस का गढ़ था, ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से गुना शिवपुरी कांग्रेस का गढ़ थे। ये सब आज बीजेपी के गढ़ बन गए क्योंकि दोनों नेता बीजेपी मे आ गए।

ये वो गैप है जो कांग्रेस समझ नहीं पा रही है और बीजेपी के लिये मजबूत बिंदु है। लेकिन एक खतरा बीजेपी पर भी है, बीजेपी का एक बड़ा वोट बैंक कट्टरपंथी हिन्दुओ का है इनमे से कितने तों ऐसे भी है जो इतने हार्ड लाइन पर चले गए कि एक बार को नोटा पर स्विंग भी कर सकते है।

विपक्ष मे रहकर हिंदुत्व के मुद्दे उठाना एक बात है सरकार मे रहकर उठाना अलग बात है।

फिलहाल हिंदुत्व की पिच पर बीजेपी अकेली खड़ी है इसलिए उसे डर भी नहीं है। ये एक बड़ा कारण है कि मोहन भागवत मंदिर की राजनीति के विरोध मे है।

उन्हें पता है बीजेपी को खड़ा करने मे मंदिर का बड़ा योगदान है, यही मंदिर कोई अन्य पार्टी भी खड़ी कर सकता है। मोहन भागवत को ये भी पता है कि बीजेपी जितनी मनमानी कर ले लेकिन फिसलने के बाद संघ की शरण मे जायेगी और वे नहीं चाहेंगे बीजेपी उस हाल मे पहुँचे जिस हाल मे उन्हें मिली थी।

दूसरी ओर बीजेपी को इसी स्विंग वोटर की वज़ह से थोड़ा खुद को बदलना होगा। मंदिर बनाकर भी उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र मे निराशा मिली थी, सोचो यदि मध्यप्रदेश, गुजरात और उड़ीसा ने भी साथ छोड़ दिया होता तों आज स्थिति क्या होती? तेलंगाना और आंध्र की 11 सीटों को भी आप नजरंदाज नहीं कर सकते।

भगवान ना करें मगर वो दिन भी आएगा ज़ब मध्यप्रदेश मे 29 मे से 22 सीटें मिलेगी, गुजरात 21 सीटें देगा। उस समय विकल्प की आवश्यकता होंगी, 2029 मे वो युवा वोट करेगा जिसने 26/11 नहीं देखा होगा, घोटाले नहीं देखे होंगे।

इसलिए अब मंदिर राजनीति से ज्यादा सामाजिक मुद्दा बने वही बीजेपी के हित मे है क्योंकि मंदिर बनाकर भी प्रश्न यही पूछा जाएगा कि आपने हिन्दुओ के लिये क्या किया? अगले 10 वर्षो मे कई कट्टर पंथी स्विंग करेंगे उनका बैकअप अन्य वर्गो मे बनाना पड़ेगा।

हालांकि इसका मतलब ये नहीं कि विचारधारा शिफ्ट की जाए, समाज मुद्दे उठाये और बीजेपी राजनीतिक समीकरण बैठाये तों सरकारे 2029 तों क्या 2049 तक भी सुचारु रूप से चलती रहेगी।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

12 Jan, 04:36


2002 मे गुजरात मे चुनाव थे, वो गुजरात बहुत अलग था। उस समय गुजरात सिर्फ इसलिए विकसित राज्य था क्योंकि अन्य राज्यों का हाल ज्यादा बुरा था।

गुजरात मे सड़क और बिजली की स्थिति खराब थी, गुजरात हर साल 6700 करोड़ का नुकसान व्यापार मे करता था, भारत पाकिस्तान के मैच मे भारत हारता तों कई इलाको मे पटाखे फोड़े जाते थे।

गुजरात मे राजनीतिक अस्थिरता थी, मोदीजी को मुख्यमंत्री बने बस 5 महीने हुए थे और कुछ ही महीनो मे चुनाव होने थे। बीजेपी के साथ 3 बार की एंटी इनकमबेंसी बनी हुई थी।

कांग्रेस के पास खाली पिच थी, लेकिन 27 फरवरी 2002 को गोधरा मे मुसलमानो ने साबरमती एक्सप्रेस मे आग लगा दी। इसके बाद हिंसा भड़की और मुसलमानो का ही कत्लेआम हुआ। इस पूरे दंगे को गोधरा की जगह गुजरात नाम दिया गया।

केंद्र और राज्य दोनों जगह बीजेपी की सरकारे थी मगर इको सिस्टम कांग्रेस का था। NDTV ने बड़ी आसानी से गोधरा कांड को दुर्घटना करार दिया और हिंसा की जिम्मेदारी हिन्दुओ के मत्थे मढ़ दी गयी।

कांग्रेस का समीकरण था कि मुसलमानो का वोट, जातियों मे विभाजित हिन्दू और कुछ पढ़े लिखें लोग एंटी इनकमबेंसी मे उसकी तरफ शिफ्ट होंगे। समीकरण गलत भी नहीं था लेकिन हिन्दू शब्द पर इतना ज्यादा हमला किया गया कि गुजरात की जनता जातियों के बारे मे नहीं सोच सकी।

2002 मे बीजेपी की बम्पर जीत हुई, हिंसा के आरोप मोदीजी पर लगाए गए लेकिन ये पासा भी उल्टा पड़ा क्योंकि अगले ही साल 2003 मे जब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान मे चुनाव हुए तों कांग्रेस साफ हो गयी।

2004 मे वाजपेयी सरकार गिरने के बाद तों कांग्रेस ने गुजरात और मोदी को इतना घेरा कि अन्य राज्यों मे भी मोदी एक ब्रांड बन गए। इन आरोपों से उलट 2007 मे पहली बार गुजरात मुनाफे मे आया और व्यापार के 1800 करोड़ रूपये का लाभ हुआ।

आज स्थिति ये है कि विंध्याचल पर्वत के ऊपर सिर्फ हिमाचल मे कांग्रेस की सरकार बची है। जो NDTV गोधरा मे हिन्दुओ को घेर रहा था उसे गुजरात के ही उद्योगपति गौतम अडानी ने खरीद लिया। गुजरात मे आज कांग्रेस सरकार बनाना तों दूर, विपक्ष मे भी नहीं है।

मुद्दे पर बात करें तों यही कि हिन्दुओ को डरना बंद कर देना चाहिए, अब डर को सजगता मे परिवर्तित करने का समय आ गया है। समुदाय विशेष चुप तों नहीं बैठेगा, साबरमती रिपोर्ट्स देखिये, ट्रेन मे किस प्रकार लोगो को कैद करके आग लगानी है इसकी ट्रेनिंग तक उनके पास है।

ऐसा नहीं है कि आप भी अपने घर मे पेट्रोल बम या गोला बारूद जमा करना शुरु कर दे मगर ज़ब भी आपके नगर मे ऐसा कुछ हो तों बस घरो के दरवाजे खोलकर सड़को पर आ जाये।

हर शहर मे कुछ हिन्दू युवकों का गुट होता ही है जो सबकुछ खुद ही कर लेगा आप बस संख्याबल दिखाने के लिये उनके साथ आइये। गुजरात ने एक बार ऐसा किया तों उसके बाद वहाँ कभी गोधरा नहीं हो सका।

दूसरा आप अपने राज्यों से कांग्रेस की बिदाई स्थायी रूप से कीजिये, जैसे महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और हरियाणा ने की है। इन राज्यों मे घटना हुई भी तों हिन्दुओ द्वारा त्वरित कार्रवाई हुई और मामला शांत हो गया। कांग्रेस को हिन्दुओ को राजनीतिक रूप से घेरने का मौका ही नहीं मिला।

सबसे जरूरी हर राज्य मे अपने मंदिरो को क्लेम करना जारि रखिये। उदाहरण के लिये दिल्ली मे 23वे तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर जिसे तोड़कर कुतुबमीनार काम्प्लेक्स बनाया गया।

मंदिर के मुद्दे जातिगत राजनीति को खत्म कर देंगे और हिन्दू एक समूह के रूप मे पहचान बनायेगा। जैसे जैसे हिन्दू एक समाज के रूप मे उभरेगा वैसे वैसे भारत भी एक राष्ट्र के रूप मे उभरता जाएगा। फिर फर्क नहीं पड़ेगा कौन क्या जेहाद करें क्योंकि मजहब कभी एक सभ्यता को नष्ट नहीं कर सकता।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

07 Jan, 10:51


भारत की प्रतिव्यक्ति आय 2800 डॉलर है, यदि 5% टॉप अमीर हटा दे तों ये 1200 डॉलर के आसपास रह जायेगी यानि देश की 95% जनता अफ्रीका से भी गरीब रह जायेगी।

इसे नकारात्मक ढंग से सोचा जाए तों ये 5% हमारे दुश्मन हुए या सरकार ही हमारी दुश्मन हुई, लेकिन यदि प्रश्न ही पलट दे तों?

भारत से इन 5% को निकाल दो या फिर इन्हे बर्बाद कर दो तों भारत की स्थिति क्या होंगी? 140 करोड़ की आबादी वाला युगांडा या सोमालिया? लोग एक दूसरे को मार रहे होंगे, सड़के कसाईं घर मे बदल चुकी होंगी।

अब आप सोचिये हमारे दिमाग़ मे ज़ब इन 5% के खिलाफ नफ़रत भरी जाती है तों नफ़रत भरने वाले इस देश को किस तरफ ले जाना चाहते है? 1917 की रुसी क्रांति आप पढोगे तों समझ जाओगे कि ये क्या चाहते है।

अमेरिका ने अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान जॉर्ज सोरोस को दिया है, वो सोरोस जिसने खुलकर कहा था कि मैं राइट विंग के खिलाफ हुँ। वो सोरोस जिसने बैंक ऑफ़ इंग्लैंड समेत कई देशो तक को बर्बाद किया है।

सोरोस की सबसे बड़ी ताकत थी कि उसने दुनिया भर के मीडिया हॉउस को खरीद रखा था। लेकिन सिर्फ एक भारतीय मीडिया था जहाँ वो ये दौड़ बीजेपी से हार गया। पूरे भारतीय मीडिया मे एक NDTV रह गया था जो बहुत वामपंथी था।

लेकिन NDTV को गौतम अडानी ने खरीद लिया और यही से गौतम अडानी जॉर्ज सोरोस के रडार पर आ गए। उनका NDTV खरीदना हुआ कि हिंडनबर्ग की तलवार चल गयी। उससे पहले आपने कभी राहुल गाँधी को अडानी पर हमला करते नहीं देखा होगा लेकिन फिर राहुल गाँधी को भी एक्टिवेट किया गया।

झारखंड सरकार ने भी ऊर्जा प्रोजेक्टस अडानी को सौपे, अब आप बताइये कि अडानी नहीं तों किसे सौपते? आप और हम तों नहीं ले सकते... जाहिर है ये किसी कोरियन या जापानी कम्पनी को जाते, भारत का व्यापारिक घाटा होता।

लेकिन ये तथ्य बताने की जगह आपको भड़काया जाता है, आपके अवचेतन मन मे भारतीय उद्योगपतियों के लिये नफ़रत भरी जाती है। ध्रुव राठी जैसा अफवाह फैलाने वाला यूट्यूबर खड़ा किया जाता है जो बांग्लादेश तक को विकास का प्रतीक बोलता था।

इनफार्मेशन वार बहुत बड़ी चीज होती है। जॉर्ज सोरोस की कुल सम्पत्ति 6 अरब डॉलर है जबकि गौतम अडानी की 75 अरब डॉलर। अडानी ने अपने नेटवर्क की दम पर खुद को बर्बाद होने से बचा लिया।

अडानी को असली नुकसान तब ही था जब मोदीजी 2024 हारते मगर ऐसा हुआ नहीं, इसलिए जश्न मनाओ। 13 दिन बाद दुनिया एलन मस्क की मुट्ठी मे होंगी, जो कि राइट विंग को सपोर्ट करते है।

जॉर्ज सोरोस 94 साल का है और क़ब्र मे पैर लटकाये बैठा है, अमेरिका दुनिया को पहले की तरह अस्थिर करता रहेगा बस अच्छी बात ये है अब दक्षिणपंथ के दौर की शुरुआत होंगी। चुंकि रिपब्लिकन और बीजेपी दोनों दक्षिणपंथी पार्टी है इसलिए फिलहाल भारत अमेरिका के रडार से दूर ही रहेगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

01 Jan, 15:27


साँप ने अपने मालिक को डसना शुरू कर ही दिया है, 15 अगस्त 2021 को ज़ब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया तों यही उम्मीद थी कि भारत पर आतंकवाद का संकट गहरायेगा मगर कुछ और ही हो गया।

अफगानिस्तान मे ज़ब अशरफ घनी की लोकतांत्रिक सरकार थी तों उसका तालिबान से रोज युद्ध होता था मगर एक बात को लेकर दोनों मे सहमति थी कि पाकिस्तान का एक प्रान्त खेबर पख्तूनवा अफगानिस्तान का हिस्सा है।

इसलिए अब भले ही तालिबान का कब्ज़ा हो गया हो मगर पाकिस्तान के प्रति ये धारणा नहीं बदलने वाली। दूसरा एंगल ये है कि दुनिया मे दो तालिबान है, एक अफगानी तालिबान दूसरा पाकिस्तानी तालिबान।

ये दोनों एक दूसरे के सगे भाई है मगर पाकिस्तानी तालिबान का उद्देश्य पाकिस्तान मे भी सरकार पलटकर तालिबानी शासन लाना है। यही वो साँप है जो पाकिस्तान को परेशान किये हुए है, इसे पाकिस्तान ने पाला था और इसकी वज़ह से भारत मे कई बार आतंकी हमले हुए।

2014 मे मोदी शासन के बाद भारत मे आतंकवाद उतना मजबूत नहीं हो सका, उल्टे भारत द्वारा दो स्ट्राइकस मे उसे ये समझ आ गया कि भारत से भीड़ गए तों पाकिस्तान मे भी सुरक्षित नहीं है।

बेताल किसी की पीठ पर तों बैठेगा ही, इसलिए इन्हे होश आया कि पाकिस्तान मे भी तो शरिया लागू नहीं है तों इन्हे ही पीटना शुरू कर दिया। इमरान खान के समय ये थोड़े बहुत काबू मे भी थे मगर शहबाज शरीफ के आते ही ये ज्यादा सक्रिय हो गए।

पाकिस्तानी तालिबान के पास 60 हजार लड़ाके है, अफगानी तालिबान को इनका समर्थन करना पड़ता है क्योंकि यहाँ मजहब से ज्यादा नस्ल की बात आ जाती है। दोनों ही पठानी कबिलो के है और अफगानिस्तान मे एक कबिला होना मतलब सगे भाई से बढ़कर होना।

पाकिस्तान के ऊपर दूसरे दबाव भी है, अमेरिका और चीन के बीच सैंडविच बन चुका है। एक तरफ अमेरिका है जिसने चीन परस्त इमरान खान को हटाकर अपना गुलाम शहबाज शरीफ बैठा दिया। शरीफ के सत्ता संभालते ही चीन के जितने प्रोजेक्ट चल रहे थे उन पर आतंकी हमले बढ़ गए।

शरीफ ने चीन को आश्वासन दे दिया कि वो आतंकियों से लड़ेंगे। इसका एक सबूत दिखाने के लिये अफगानिस्तान पर बम गिरा दिए, जबकि असली आतंकी खुद की जमीन पर बैठे है। लेकिन इसके पीछे शहबाज शरीफ का भी खेल दिखाई दे रहा है।

अमेरिका शायद चाहता है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान मे युद्ध शुरू हो जाए। किसी तरह अफगानिस्तान के आतंकवादियों को चीन मे घुसने का गेटवे मिल जाए, दरसल पाकिस्तान और चीन की सीमा जिस चीनी इलाके से मिलती है वो उइगर मुसलमानो का इलाका है जो चीन से अलग होकर देश बनाना चाहते है।

यदि किसी तरह आतंकवादी चीन पहुँच जाए और उइगर मुसलमानो को साथ लेकर चीन को परेशान करें तों अमेरिका के हित सध सकते है। अमेरिका को कोई मतलब नहीं है कि युद्ध होने से पाकिस्तान का क्या होगा, शरीफ परिवार की विदेशो मे बहुत प्रॉपर्टी है उन्हें शरण मिल जायेगी।

पाकिस्तान की जनता को आतंकवादियों के सामने मरने के लिये छोड़कर ये भाग जाएंगे और अंततः अफगानिस्तान और पाकिस्तान के माध्यम से चीन को साधा जाएगा।

ध्यान रहे कि सीरिया मे जब विद्रोहियो का कब्ज़ा हुआ तो उन्होंने कहा था कि अगला नंबर चीन का है और ठीक उसके बाद एन्थोनी ब्लिंकन ने कहा कि उन विद्रोहियो को अमेरिका का सपोर्ट है।

बस कंफ्यूजन यही था कि ये विद्रोही चीन मे घुसेंगे कैसे तों उसका गणित अब अफगानिस्तान और पाकिस्तान के माध्यम से बनाया जा रहा है।

बहुत लोगो को लगेगा कि चीन कम्युनिस्ट देश है संभाल लेगा, उसकी सेना भी मजबूत है। लेकिन मैं आज भी यही कहूंगा कि चीन बस एक गुब्बारा है, चीन के आखिरी युद्ध की जानकारी दीवारों पर कुरैदी गयी थी जबकि अमेरिका के युद्ध की जानकारी आईफोन पर उपलब्ध है।

चीन ने वामपंथी पत्रकारो और नेताओं को खरीदकर अपनी छवि तों बना लीं है। कुछ लोग उसे दूसरी सुपरपॉवर भी बोल देते है लेकिन वास्तविकता ज़ब सामने आएगी तों सब चौक चुके होंगे जैसे जापान और जर्मनी को लेकर चौक गए थे।

सारांश मे पाकिस्तान और अफगानिस्तान का युद्ध यदि हुआ तों उसकी छाप 40-50 साल दिखेगी और ये लड़ाई दो देशो तक नहीं रहेगी बल्कि चीन को भी जलायेगी। भारतीय होने के नाते हमें ना खुश होने की जरूरत है ना ही दुखी।

हमें अपना हित देखना है, पाकिस्तान के साथ बॉर्डर जितना मजबूत हो सके उतना अच्छा। बहुत ज्यादा कमजोर पाकिस्तान भी हमारे हित मे नहीं है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

27 Dec, 11:55


राजनीति के ये खूबसूरत क्षण दुर्लभ होते है, जब अपने दुश्मन हो जाते है और दुश्मन अपने हो जाते है।

1998 में वाजपेयी सरकार ने परमाणु परीक्षण किया और अमेरिका ने भारत पर प्रतिबन्ध लगा दिए। भारत को अब दुनिया के किसी कोने में न्यूक्लियर एनर्जी नहीं मिल रही थी, ऊर्जा संकट के बादल छा रहे थे और उपाय सिर्फ यही था कि अमेरिका के साथ समझौता हो जाए। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत आये और इस समझौते के लिए बाते शुरू हुई।

मगर 2001 में जॉर्ज बुश सत्ता में आ गए और फिर तो वैश्विक परिस्थितिया पूरी तरह से बदल गयी। जैसे तैसे सामंजस्य बैठाया तो 2004 में वाजपेयी जी की ही विदाई हो गयी। 2004 का जो भी वोटर पढ़ रहा हो उसे पीड़ा होनी चाहिए क्योकि ये वोट भारत के लिए ऐसा श्राप बना जिसकी कीमत आज तक देश चुका रहा है।

मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गए मगर उनकी सरकार वामपंथी दलों के समर्थन पर टिकी थी वे वाम दल जो चीन की गोदी में बैठे थे।

वाम दलों ने जिम्मेदारी ली थी की भारत अमेरिका के बीच यह डील ना हो सके, सोनिया गाँधी खुद वाम दलों के साथ खड़ी थी मगर मनमोहन डील करना चाहते थे। मनमोहन और वाम दलों की लड़ाई देखते ही देखते मनमोहन और सोनिया में बदल गयी।

मनमोहन ने विपक्ष के नेताओ की बैठक बुलाई और वाजपेयी जी के सामने अपनी परेशानी रखी। वाजपेयी खुद इस डील के राजनीतिक विरोधी थे मगर जब देखा कि ये राष्ट्र हित में है तो वाजपेयी ने आँखों से मनमोहन को समर्थन का इशारा कर दिया।

मनमोहन उस रात सो नहीं सके और राजनीति का एक पाठ पढ़ लिया की दुश्मन हो तो वाजपेयी जैसा हो। सोनिया गाँधी को कोई जानकारी नहीं थी कि क्या हो रहा है, 2008 में सदन में इस डील का प्रस्ताव आया। उम्मीद के अनुसार वाम दलो ने अपना समर्थन वापस ले लिया मगर मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के समर्थन में आ गए।

इसे आप मुलायम सिंह यादव का एक मात्र राष्ट्र हित का काम भी कह सकते है। बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के कुछ सदस्यों ने क्रॉस वोटिंग कर दी और 275 - 259 के वोट से ये डील साइन हो गयी।

इसके बाद 2009 में चुनाव हुए, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 18 साल बाद कांग्रेस 200 पार हुई और ये सोनिया गाँधी के लिए अलार्म था क्योकि राहुल गाँधी के आगे सबसे बड़ा रोड़ा मनमोहन सिंह हो चुके थे। मनमोहन पर शिकंजा कसा गया, 2009 के बाद यदि कोई विदेशी नेता भारत आता तो मनमोहन साइड में बैठते और सोनिया उससे बात करती।

कोई भी फ़ाइल पीएमओ नहीं बल्कि सोनिया गाँधी के घर जाती थी और सोनिया के कहने पर ही मनमोहन काम करते। मनमोहन कांग्रेस के भीष्म बन गए उनकी आँखों के सामने ही भारत लाक्षागृह बनकर जलता रहा। 2G स्पेक्ट्रम, कोयला और दुनिया भर के घोटाले होते रहे, एक बार तो राहुल गाँधी ने जनता के सामने मनमोहन का लिखित अध्यादेश फाड़ दिया था।

डॉलर के भाव में पूरे 50% की बढ़ोत्तरी हुई थी। इसे आप ऐसे समझिये की मोदी काल में डॉलर 25% बढ़ा है तो हम रो रहे है उस समय क्या हाल हुआ होगा। जब 2011 का भाषण पेश हुआ तो मनमोहन द्वारा 1991 में लायी गयी उदारीकरण की नीति का मजाक उड़ रहा था और मजाक बीजेपी नहीं बल्कि कांग्रेस के ही समर्थक दल उड़ा रहे थे।

मनमोहन की छवि बिगड़ने लगी, हालाँकि सोनिया को भी अपनी करनी की सजा मिलना बाकी था। 2014 में कांग्रेस सत्ता से ऐसी बाहर हुई की आज 200 क्या 100 सीटे भी नहीं बची। जिस राहुल गाँधी के लिए मनमोहन के चेहरे पर स्याही पोती गयी वो राहुल गाँधी आज भी भारतीय राजनीति का जोकर ही है।

मनमोहन द्वारा आतंकवादी यासीन मलिक का स्वागत करना और देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानो का बताना विवादित और विरोध योग्य है मगर यह आज भी रहस्य है कि ये गलती उन्होंने खुद की या जान बूझकर करवाई गयी।

मनमोहन को इतिहास ना जाने किस रूप में याद रखेगा मगर इस परमाणु डील के माध्यम से मनमोहन सिंह इतना सीखा गए की वाजपेयी जैसा शत्रु भी वरदान है और सोनिया जैसा मित्र अभिशाप से कम नहीं।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

25 Dec, 15:58


तो अब नई नाराजगी मोहन भागवत से जागी है, इसमें ज्यादातर वो लोग हैं जो या तो 2009 के चुनाव भूल गए या नए नए हिंदूवादी बने है।

बीजेपी के पास दिल्ली का सिन्हासन सिर्फ तब ही तक है जब तक वो संघ से बँधी है और संघ अनुशासन से। जिस दिन इन दो मे से एक भी लिंक टूटी समझो ब्लड ऑन दी स्ट्रीट हो जाएगा।

2009 मे बीजेपी को सिर्फ 116 सीटें मिली थी, उस समय के संघ प्रमुख की वाजपेयी और आडवाणी से लड़ाई शीर्ष पर थी। तब मोहन भागवत की एंट्री हुई, जिन मोदी शाह और योगी के आप गुण गा रहे है यदि 2009 मे भाजपा कार्यालय मे इनका नाम ले लेते तो शायद लाठिया चल जाती।

मोहन भागवत ने सच मे उसी लाठी के दम पर बीजेपी को फिर से खड़ा किया था। जिसकी 2013 की याददाश्त आज भी ताज़ा हो उसे पता होगा कि मोदीजी की घोषणा से एक दिन पहले तक बीजेपी के नेताओं के विरोध की खबरें आ रही थी।

एक वो दौर था और एक ये दौर है जब वसुंधरा जैसी महिला भी एक साल से खामोश बैठी है। ये अनुशासन शक्ति और युक्ति दोनों से आता है। मगर ठीक है ये सोशल मीडिया का दौर है महज राय सामने रखकर भी आप हिन्दुओ के क्या पूरे धर्म के पंडित बन सकते है।

एक विरोध और होता है कि बीजेपी की कुछ योजनाओं से मुसलमान को फायदा मिलता है और मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं करता। यदि आप महाराष्ट्र चुनाव का आंकलन कर लेते तो ये पता होता कि मुसलमानो का वोट लेने से ज्यादा जरूरी है उसे बांटना।

महाराष्ट्र की कई विधानसभा सीटों पर मुसलमानो ने अजीत पवार की NCP को वोट दिया है, क्या वो मुसलमान नहीं जानता था कि NCP को वोट देगा तो बीजेपी ही जीतेगी।

अति कट्टरपंथियो को इस भ्रम से बाहर निकलना होगा कि मुसलमान का वोट नहीं कटता। कम से कम आप ही के हिन्दू शास्त्र तो यही कहते है कि दुनिया मे हर समस्या का समाधान है।

तीसरा विरोध लोगो का सीधे मोदीजी से है आप क्रिसमस मनाने क्यों गए? इन लोगो को सीधी चुनौती है कि बिना गूगल करें मेघालय के मुख्यमंत्री का नाम बता दो? मुझे नहीं खुद की अंतर्रत्मा को। मुख्यमंत्री का नाम नहीं पता तो पार्टी का बता दो, पार्टी भी नहीं पता तो बस ये बता दो कि मेघालय मे ईसाई कितने फीसदी है?

पूरी जिम्मेदारी से कह सकता हुँ बिना गूगल के किसी के पास उत्तर नहीं है, एक ईसाई बहुल राज्य मे राजी ख़ुशी से बीजेपी के समर्थन से सरकार चल रही है मगर हमें क्या मेघालय को हमने भारत मन से माना ही कब है, हमारे लिये तो गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा बस यही हमारा भारत है।

हमें अपने ही देश के आधे हिस्सों की डेमोग्राफी नहीं पता, जैसे भारत मे बीजेपी है वैसे अमेरिका मे रिपब्लिकन पार्टी है उन्हें भी अमेरिका के हिन्दुओ से शिकायत है कभी इस्कॉन से तो कभी स्वामी नारायण से। लेकिन फिर भी व्हाइट हॉउस मे दिवाली मनाने से उन्हें ऐतराज़ नहीं है।

हालांकि मैंने खुद क्रिसमस नहीं मनाया ना ही उसकी बधाई दी लेकिन प्रधानमंत्री का दायरा बहुत बड़ा है। केरल मे बीजेपी की सरकार ना बने तो शायद आपको फर्क नहीं पड़ता मगर उस चक़्कर मे पार्टी को धक्का लगता है।

नेता को तो सोचना पड़ेगा, कई राज्य है जहाँ ईसाई वोट यदि बीजेपी को मिल जाए तो जाने कितनी समस्या हल हो जाए। ये वोट प्रतिशत समय के साथ बढ़ा भी है इसलिए साल मे एक बार एक चम्मच दही उन्हें दिया जा सकता है।

राजनीतिक रूप से ही दे रहे है सामाजिक रूप से नहीं, यदि आप राजनीतिक भाषणो को मोदीजी की विचारधारा मान लेते हो तो जब मोदीजी "कृनवंतो विश्वमआर्यम" कहते है तब वो आपको हजम क्यों नहीं होता? विचार का प्रवाह सदा नकारात्मक ही क्यों?

संघ प्रमुख की बात विवादित है कि खुदाई रोक दो मेरा व्यक्तिगत रूप से विरोध भी है मगर इसके लिये वो अयोग्य नहीं हो जाते या इस्तीफे की जरूरत भी नहीं।

हाँ इन्ही मोहन भागवत को कोसने वाले हिंदूवादी यदि हरियाणा चुनाव परिणाम से पहले बीजेपी के बहुमत से संबंधी अपनी कोई भविष्यवाणी या अवलोकन दिखा दे तो सोचा जा सकता है कि उनमे संघ प्रमुख से ज्यादा समझ है।

सारांश मे संघ का हर कदम आपको अच्छा नहीं लगेगा मगर आपको दो कारणों से विश्वास करना ही पड़ेगा, पहला उन्हें जमीन का अनुभव आपकी आयु से ज्यादा है दूसरा आपके सोफे पर बैठे रहने से भी कोई बड़ा तीर नहीं चलने वाला। इसलिए सहमति असहमति ठीक है मगर किसी के पद पर वज्रपात करना मूर्खता है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

22 Dec, 16:10


मोहन यादव, भजनलाल शर्मा, देवेंद्र फडणवीस, पुष्कर सिंह धामी, योगी आदित्यनाथ और नायब सिंह सैनी ये वो मुख्यमंत्री है जो पिछले 10 साल मे मोदी शाह या फिर RSS कैडर से पैदा किये गए।

अपने अपने राज्यों के धुँआधार चेहरों को पछाड़कर इन्हे सत्ता गिफ्ट मे मिली है और ये ही वो समय है जिसमे कुछ ऐसी चीजें हो रही है जो राजनीति हमेशा के लिये बदल देगी।

कुछ दिन पहले मोहन यादव की आलोचना मे एक पोस्ट लिखी थी उसके बाद मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रो से कई मित्रो ने सुधार के लिये तथ्य भेजे जो कि सही सिद्ध हुए, इसलिए पुरानी पोस्ट को थोड़ा रिवर्स कर रहा हुँ।

दरसल इन नए चेहरों के पीछे विचार ये है कि राज्यों की राजनीति 180° से बदल जाए। अब इन राज्यों मे कांग्रेस का फिर से घुसना लगभग असंभव है क्योंकि 2028 मे मध्यप्रदेश और राजस्थान दोनों ही जगह मुद्दे इतने बदल जाएंगे कि कांग्रेस उसमे ढल नहीं पाएगी।

वसुंधरा और शिवराज ने फ्रीबीज और मनमानी चलाकर जो सत्ता जकड़ रखी थी वो अब नए कॉलेज, उद्योग और व्यवसाय मे परिवर्तित हो रही है। उदाहरण के लिये ये चंबल परियोजना देख लीजिये।

मध्यप्रदेश और राजस्थान के बीच चंबल एक बहुत बड़ा इलाका है, आप इसे डकैतो की भूमि के रूप मे जानते होंगे। ये सूखा इलाका है, इसका निवारण यही था कि पार्वती और चंबल नदी को किसी तरह जोड़ा जाए।

ये काम कांग्रेस और अंग्रेजो नहीं बल्कि राजा महाराजाओं के समय से पेंडिंग था। राजतंत्र के दौर मे ज़ब ग्वालियर और धौलपुर रियासत हुआ करती थी, ये दो हिन्दू रियासते एक दूसरे की दुश्मन थी।

कई बार ग्वालियर के महाराज और धौलपुर के राजा साथ बैठे मगर कुछ नहीं हुआ, अंग्रेज आ गए तो उन्हें यहाँ के क्रांतिकारियों का डर था। उसके बाद कई बार ऐसे मौके बने कि दोनों राज्यों मे एक साथ या तो बीजेपी की सरकार आयी या फिर कांग्रेस की।

जब कांग्रेस की सरकार थी तब कुछ होना ही नहीं था, जब बीजेपी की सरकार आयी तो शिवराज और वसुंधरा अपनी अपनी चला रहे थे। 2023 मे इन दोनों को ढेर करके दो नए चेहरे आगे हुए और ये योजना जो 300 सालो से स्थगित थी वो एक ही वर्ष मे लागू हो गयी।

5-10 वर्षो मे ना सिर्फ चंबल बल्कि दोनों राज्यों की 70% आबादी की एक बहुत बड़ी समस्या हल हो चुकी होंगी और चुंकि इन सब पर चर्चा नहीं होती इसलिए ये किसी को पता भी नहीं चलेगा। मगर चुपचाप EVM ऐसे हैक होती है।

ये तो एक ताज़ा उदाहरण है इसके अलावा और भी कई ऐसे विकास कार्य है जो ऐसी जगह हो रहे है जहाँ कभी पूर्व नेता गए ही नहीं। पूर्वी मध्यप्रदेश अपने हाल पर छूट गया था, वहाँ पर भी इको सिस्टम बन रहा है।

उत्तराखंड मे बीजेपी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया था मगर ज़ब काम अनुकूल नहीं हुआ तो उन्हें हटाकर तीर्थ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया और आखिर मे पुष्कर सिंह धामी को। इसका अर्थ यह है कि अब रिपोर्ट कार्ड देखकर मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है।

2022 के चुनाव मे धामी अपनी सीट हार गए लेकिन बीजेपी ने अपना भरोसा जल्दी नहीं खोया और अन्य सीट से लड़ाकर मुख्यमंत्री बनाया। पिछले 2 साल से धामी को नहीं बदला इसका मतलब यही है कि इनका काम ठीक चल रहा है।

ये सब फिलहाल दिल्ली से उंगली पकड़कर चलना सीख रहे है धीरे धीरे स्वायत्ता भी मिल जायेगी। लेकिन ये बिल्कुल अच्छा अप्रोच है, बड़े विकसित देशो मे ऐसे ही काम होता है। बीजेपी जिन राज्यों मे सत्ता पकड़ रही है वहाँ ऐसा परिवर्तन कर रही है इससे वो पुराना घिसा हुआ कल्चर चला जाए।

इस समय वे राज्य बदनसीब है जहाँ बीजेपी की सरकारे नहीं है और इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है। बीजेपी के बिना शायद आप थोड़ा बहुत अच्छा कर भी लो मगर राजनीतिक संस्कृति बदलनी आवश्यक है और वो चेहरों के साथ ही बदलती है।

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आर्यभूमि : The Land of Aryans

22 Dec, 02:03


समर्थन बीजेपी को ही है मगर कुछ बाते है जो चुनाव के मौसम के ना होने पर लिखी जा सकती है।

इस साल सरकार ने लगभग 73 हजार करोड़ रूपये उच्च शिक्षा के लिये खर्च किये है। कॉलेज की पढ़ाई मे कोई बड़ी क्रांति तो ऐसी दिखी नहीं। इस वर्ष पाठ्यक्रम मे परिवर्तन संबंधी कोई भी महंगी प्रोसेस देखने को भी नहीं मिली। ये पैसे का क्या हो रहा है?

इस राशि का एक बड़ा भाग यदि विभाग की सैलरी मे जाता है तो सरकारी नौकरी मे कटौती करो मगर कुछ प्रोडक्टिव करो। हालांकि ये अच्छी बात है कि बड़े संस्थानों को सरकार ने वरीयता दी है, उनके लिये काफी इको सिस्टम बना, यदि ऐसा है तो कही उस पैसे का ब्यौरा तो दो।

ठीक ऐसे ही, गडकरी जी सरकारी बॉन्ड निकाल कर विदेशो से पैसा उठा रहे है और सड़के बनाये जा रहे है। नॉर्थ ईस्ट मे हाइवे बनाये बहुत अच्छी बात है लेकिन आज भी पुराने हाइवे के टोल जनता भर रही है जबकि उनकी क़ीमत निकले सालो बीत गए।

आप किसी भी विभाग पर उंगली रख दो ऐसे प्रश्न तुरंत ही उठ जाएंगे। मनमोहन की तुलना मे अच्छा काम हुआ, इनकम टैक्स भी कम हुआ है और अप्रत्यक्ष कर अंश मात्र कम हुआ मगर पारदर्शिता भी आयी। पूर्ण समाधान तो अब भी दूर की कोढ़ी है।

अब आप सोचकर देखिये हमारे नेता संसद मे क्या कर रहे है। मोदी सरकार बहुमत मे हो या अल्पमत मे उसकी प्रणाली बिल्कुल वही है, जो उसे ठीक लगे बस वही करती है।

लेकिन ऐसे मे आशा विपक्ष से होती है हमारा विपक्ष संसद मे या तो जलील होता है या फिर सदन की कार्रवाई रोककर सरकार का ही काम आसान करता है क्योंकि जिस सदन मे जनता सरकार को जवाब देते देखती उसी सदन मे कभी अम्बेडकर तो कभी गाँधी जैसे फ़ालतू लड़ाई देखकर मनोरंजन करती है।

राहुल गाँधी वो मुद्दे उठाता है जिससे वोटो का एक गुच्छा मिल जाए। जैसे अम्बेडकर का मुद्दा उठा लिया, हरियाणा चुनाव था तो खिलाड़ियों का मुद्दा उठा लिया। फिर हार गए तो आप खुद देख लो अब खिलाड़ियों पर कुछ नहीं बोलता।

विपक्ष मे समाजवादी पार्टी दूसरी बड़ी पार्टी है जिसमे अनपढ़ भरे बैठे है, जिन्हे इन सब मुद्दों की समझ ही नहीं है। तीसरे पर स्टालिन की पार्टी है जो खुद सबसे करप्ट है और इनके सांसद हिन्दी ही नहीं बोल पाते।

कांग्रेस के कुछ चुनिंदा नेता बीजेपी को घेर सकते है लेकिन राहुल गाँधी के आगे उनकी चलती नहीं, और यदि कभी कभार चलती भी है तो फिर राहुल गाँधी उनका नेतृत्व नहीं कर पाता।

बीजेपी के राजनाथ सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे बड़े मंत्रियो से लेकर सुधांशु त्रिवेदी और सांबित पात्रा उनकी बघिया उधेड़ देते है।

ये हाल है लोकतंत्र के मंदिर का, सरकार तानाशाह नहीं है मगर विपक्ष ने उसे वो सारी शक्तियां दे डाली जो किसी तानाशाह को मिलती। फिलहाल इस समस्या का कोई समाधान दिखाई नहीं दे रहा। वो अपवाद है कि कांग्रेस मे भी कोई 2009 की तरह मोहन भागवत जैसा आ जाए जो एक छोर से पूरा परिवर्तन कर दे।

जनता के मुद्दे बहुत है मगर विपक्ष जिस तरह संसद की बैठक रद्द करवा रहा है वो दर्शा रहा है कि ये विपक्ष मे ही बैठने लायक है क्योंकि जो मुद्दे ही नहीं उठा सकते वो सरकार बनाने पर काम क्या ही कर सकेंगे?

संसद के जितने मर्जी सत्र आ जाये विपक्ष अम्बेडकर, संविधान और समानता जैसे आउटडेटेड मुद्दे उठाता रहेगा। जनता 2029 मे एक बार फिर भक्ति, समर्थन और मज़बूरी के नाम पर बीजेपी समर्थित दलों को वोट करती रहेगी।

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आर्यभूमि : The Land of Aryans

19 Dec, 13:28


2003 मे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री तिरुपति दर्शन करके लौट रहे थे। कार तक पहुँचते उससे पहले ही ब्लास्ट हुआ और मुख्यमंत्री बाल बाल बच गए। ये चंद्रबाबू नायडू थे जिन्हे भगवान ने एक बार जान खोने से बचाया और फिर 2024 मे पहचान खोने से।

1982 मे तेलुगु फिल्मो के सुपरस्टार और आंध्र के मुख्यमंत्री एनटी रामाराव कांग्रेस से अलग होकर TDP बनाते है और कांग्रेस को सत्ता के बाहर कर देते है। कालांतर मे उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू TDP पर कब्ज़ा कर लेते है। TDP की छवि शुरू से कांग्रेस विरोधी की रही है और वोट भी इसीलिए मिलते है।

1996 मे चंद्रबाबू मुख्यमंत्री बने और 2004 तक बने रहे, इसी बीच हैदराबाद आईटी हब बना, कांग्रेस विरोध दर्शाना था इसलिए 1999 मे नायडू ने वाजपेयी जी की सरकार को बाहर से समर्थन दिया।

मगर 2004 के बाद नायडू की दशा बिगड गयी, आंध्र के चुनाव मे कांग्रेस ने पराजित किया। नायडू का प्रभाव पूर्वी आंध्र मे ज्यादा था, 2012 मे कांग्रेस ने आंध्र के बंटवारे को मंजूर कर लिया नायडू का प्रभाव सीमित हो गया।

2014 मे नायडू अधिकारिक रूप से NDA मे शामिल हुए। कांग्रेस का बंटवारे का दांव उल्टा पड़ गया क्योंकि नए राज्य तेलंगाना मे TRS ने सत्ता पकड़ लीं और आंध्र मे नायडू जीत गए।

आंध्रप्रदेश मे कांग्रेस विरोधी लहर थी ऐसे मे कांग्रेस एक बार फिर टूटी, जगन मोहन रेड्डी अलग हो गए और नयी पार्टी YSR कांग्रेस बनी। अब नायडू आंध्र के निर्विरोध नेता थे और ओवर कॉन्फिडेंस मे आ गए।

2018 मे बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस के साथ चले गए ताकि तेलंगाना भी जीत सके, मगर दोनों राज्यों की तेलुगु जनता इतनी ज्यादा नाराज हुई कि तेलंगाना तो वापस TRS को मिला ही उल्टे आंध्र प्रदेश मे भी नायडू का सफाया कर दिया।

दूसरी तरफ बीजेपी को 303 सीटें मिल गयी, कांग्रेस मे जाने के कारण TDP के नेता नायडू से दूर होने लगे इसलिए नायडू एक राजनीतिक अछूत हो गए। आंध्र के नए मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी बीजेपी के नए दोस्त बन चुके थे और राज्य सभा मे बीजेपी के सुर मे सुर मिलाने लगे।

रेड्डी ने नायडू को जेल तक भेज दिया, लेकिन फिर दक्षिण मे हिंदुत्व के भविष्य और आंधी कहे जाने वाले पवन कल्याण की एंट्री होती है। पवन कल्याण नायडू और बीजेपी की सुलह करवाते है, 2024 के आंध्र प्रदेश मे ये गठबंधन ऐसा जीता कि रेड्डी का सफाया हो गया।

जो नायडू राजनीतिक अछूत थे वे अब केंद्र मे भी किंग मेकर बन चुके थे। बहुत लोग सोचते थे कि नायडू बहुत सारे मंत्रालय मांगेंगे मगर ऐसा नहीं हुआ।

नायडू ने बीजेपी से दो मंत्रालय लिये और आंध्र लौटकर अपनी खोयी शक्ति संजोने मे लग गए। नायडू के पीछे एक हाथ पवन कल्याण का भी है, हम दक्षिण की खबरें कम सुनते है मगर पवन कल्याण का जो क्रेज बढ़ रहा है वो हमें पता ही नहीं है।

चंद्रबाबू नायडू इसी वज़ह से इतने शरीफ दिखाई पड़ रहे है। 2018 से 2023 जो वनवास इन्होने झेला है वो वनवास आज भी सपने मे आकर डराता जरूर होगा। दूसरी ओर बीजेपी आंध्र प्रदेश मे बेताज बादशाह हो गयी।

जगन मोहन रेड्डी आज भी बीजेपी के हर बिल का समर्थन करते है। नायडू तो खुद सरकार मे है, बीजेपी के अन्नामलाई तो है ही मगर पवन कल्याण भी दक्षिणी राज्यों मे हिंदुत्व की पीच तैयार कर रहे है और इसीलिए तमिलनाडु जैसे राज्य मे भी बीजेपी का वोट शेयर 12% पर पहुँच गया जो 3 से ज्यादा नहीं था।

जिस दिन ये 12 से 35 हुआ समझो तमिलनाडु भी जीत लिया। दक्षिण पर ज़ब भी बीजेपी का शासन होगा वो आंध्रप्रदेश का आभार जरूर व्यक्त करेंगी और नायडू की ये कड़ी परीक्षा है ये 5 साल उन्हें बीजेपी की ज्यादा जरूरत है ताकि अपनी खोयी राजनीतिक भूमि पा सके।

तेलंगाना मे भले ही कांग्रेस लौट चुकी है मगर नायडू के माध्यम से ही तेलंगाना को बीजेपी 2028 मे साध सकती है। तमिलनाडु मे DMK के वोट काटने विजय थालापति आ चुका है। आज नहीं तो कल तमिलनाडु गिरा देंगे।

कर्नाटक की तो चिंता ही नहीं है, बस एक केरल बचता है जहाँ हिन्दुओ के साथ ईसाईयों को भी साथ लेना पड़ेगा, कैसे वो एक यक्ष प्रश्न है? आगामी 10 वर्ष दक्षिण की राजनीति मे ख़ास होने वाले है और केंद्र आंध्रप्रदेश ही रहेगा जैसे उत्तर मे गुजरात और मध्यप्रदेश है।

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आर्यभूमि : The Land of Aryans

17 Dec, 05:48


ये है बशर अल असद और उनकी पत्नी आसमा अल असद, जिन पर सीरिया का तानाशाह होने का आरोप है।

गद्दाफी और सद्दाम हुसैन के चेहरे और हाव भाव ही उन दोनों की तानाशाही दर्शाते थे, मगर इन दोनों को देखकर लगता है कि सिवाय मांसाहार करने के इन्होने किसी पशु को मारने मे भी कोई योगदान नहीं दिया होगा जबकि आरोप रासायनिक हथियार चलाने के है।

राजनीति से पहले असद आँखों के डॉक्टर थे और आसमा इन्वेस्टमेंट बैंकर थी। प्रोफेशनल लोग तानाशाह नहीं हो सकते, इन पर जितने आरोप लगे है वो सब अमेरिकी मीडिया की तरफ से लगे है या ज्यादातर पक्षपाती है।

लेकिन एक बात है कि असद परिवार की कुल सम्पत्ति 15-20 अरब डॉलर की है। ये इतना पैसा है कि यदि ये रूस की जगह भारत आये होते तो 12वे सबसे अमीर व्यक्ति होते। फिलहाल ये रूस मे है लेकिन काफ़ी थिंक टैंक्स ने कहा है कि ये भारत मे निवेश कर सकते है।

असद परिवार ने रूस जाने से पहले ही मोस्को मे एक महल और 18 फ्लैट खरीद लिये थे। 5 दिसम्बर को श्रीमती असद को जब रवाना किया तो एक दिन पहले 25 करोड़ डॉलर का सोना भेज दिया था। जब 8 दिसंबर को असद निकले तो चुपचाप निकले खुद उनकी सेना को इसकी खबर नहीं थी।

चोरी तो की है मगर ये पैसा आतंकवादियों के हाथ मे जाता उससे तो ठीक ही है कि असद ले गए। ये गद्दाफी और सद्दाम जैसे सनकी नहीं है, आप इन दोनों का कोई भी इंटरव्यू देख लीजिये इन्होने बहुत शालीनता से बयान दिए ना कि उक्त तानाशाहो की तरह बाते की।

सारा खेल अमेरिका का रचा हुआ था, इजरायल को सुरक्षा चाहिए थी, सऊदी अरब को ईरान का दोस्त समाप्त करना था और अमेरिका को आतंकवादी तैयार करके ईरान और चीन भेजनें थे। इसका सबसे बड़ा सबूत यही है कि जहाँ जहाँ तख्तापलट हुए वहाँ प्रो अमेरिकी सरकार बनी है।

चार तरफ प्रो अमेरिकी सरकार से घिरे होने के बाद भी असद बचकर निकल गए क्योंकि रूस ने तुर्की से फ्री पैसेज माँगा और अमेरिका के गुलाम तुर्की ने दे भी दिया। कारण बस यही कि असद ने परिस्थिति को प्रोफेशनल ढंग से मैनेज किया।

असद पर व्यक्तिगत हमले हुए मगर उन्होंने खुद कभी जो बाइडन का नाम लेकर हमले नहीं किये और बदले मे उन्हें जान बचाने का मौका मिला। आज रूस मे उनकी इतनी सम्पत्ति है कि नया व्यापार शुरू कर सके। सीरिया की अर्थव्यवस्था का 65% पैसा आज भी उनकी जेब मे है।

सीरिया के मूर्ख लोग असद की ना जाने किस बर्बादी का जश्न मना रहे है। जिसके पास विद्या का धन है वो कभी बर्बाद नहीं होता, सरस्वती और लक्ष्मी की कृपा उस पर एक साथ बनी रहती है। ये तो असद परिवार का अहसान है कि ये पैसा लेकर भागे, अनाधिकारिक सम्पत्ति तो 100 अरब डॉलर के पार है। ये आतंकियों के हाथ लगती तो पूरी दुनिया के लिये बुरा होता।

यदि 15-20 अरब डॉलर बर्बादी है तो ऐसी बर्बादी तो सब ही चाहेंगे। असद दम्पत्ति का सुरक्षित बाहर निकलना एक सबक भी है कि दुश्मन से रिश्ते खराब करो मगर मर्यादाए इतनी तो हो कि बुरे समय मे उससे इंसानियत की उम्मीद रखी जा सके।

असद दम्पत्ति को कोई मलाल नहीं करना चाहिए, अनपढ नागरिको के देश मे राजा होने से अच्छा है कि शिक्षित राजा के देश मे नागरिक बन जाओ।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

13 Dec, 17:27


जो अंगूठा काटकर खुशी से तिलक कर रहा है वास्तव मे सिंहासन उसका है और जो सिंहासन पर बैठा है वो बिना तिलक करने वाले के कोई काम नहीं करेगा।

राजशाही वैसे तो जा चुकी है मगर राजपरिवार अब भी सभी रस्मे निभाते है। मेवाड़ मे नए महाराणा का राजतिलक होना था, उदयपुर मे होना चाहिए था मगर पारिवारिक लड़ाई के कारण चित्तोड़ मे हुआ।

इस राजतिलक मे रावत देवव्रत ने अपना अंगूठा काटकर तिलक किया, शुरू मे तो ये कुप्रथा लगी। मगर देवव्रत जी के चेहरे का तेज उनके इंटरव्यू तक ले गया, ये तो स्मार्ट निकले, देवव्रत जी बहुत पढ़े लिखें है और अंधविश्वासी तो कतई नहीं।

600 साल पहले जोधपुर की राजकुमारी हंसा बाई का रिश्ता मेवाड़ आया। राणा लाखा ने गलतफहमी मे ये रिश्ता अपने लिये स्वीकार कर लिया जबकि ये उनके बेटे चुंडा के लिये था। अहसास होने पर हताशा भरे स्वर मे कहा कि मैं तो बूढा हो गया हुँ मेरे लिये क्यों आएगा।

उसी बीच चुंडा का आना हुआ, उन्होंने ये सुन लिया और जोधपुर संदेश भेजा कि राजकुमारी का विवाह उनके पिता से करें। जोधपुर के राजा ने शर्त रखी कि अगला राणा चुंडा नहीं बल्कि हंसा बाई की संतान होगा। तब चुंडा ने हामी भर दी और मेवाड़ के भीष्म कहलाये।

चुंडा और उनके वंशजो को प्रशासन का काम मिला, कई आंतरिक राजनीति हुई मगर चुंडा ने अपनी प्रतिज्ञा निभाई। पहले हंसा के पुत्र और फिर पौत्र कुंभा का तिलक किया और गद्दी पर बैठाया।

बाद मे राणा कुंभा के ही नेतृत्व मे चुंडा के बच्चों ने कई युद्ध लड़े और मुस्लिम सुल्तानो को हराया। चित्तौड़ किले मे बना विजय स्तम्भ उसी का प्रमाण है।

चुंडा के वंशज चुंडावत कहलाये, आप मेवाड़ का इतिहास पढोगे तो आपको यह उपनाम बहुत मिलेगा। चुंडावत अपने पूर्वज चुंडा की परंपरा निभा रहे है।

एक बार किसी महाराणा की युद्धभूमि मे मृत्यु हो गयी तो उसके राजकुमार का रक्त से तिलक किया गया क्योंकि युद्धक्षेत्र मे कुमकुम नहीं था। तब से ये ही परंपरा चली आ रही है।

चित्तौड़ के पास सलूम्बर मे उनकी स्थाई सीट थी, चित्तौड़ के सारे राज्यादेश ये ही स्वीकृत करते थे क्योंकि प्रशासन इनके ही हाथ मे था।

तब से आजतक ये रस्म चली आ रही है कि सलूम्बर का बड़ा बेटा मेवाड़ के राणा का राजतिलक अपने रक्त से करता है। फिलहाल देवव्रत जी चुण्डावत परिवार के प्रमुख है इसलिए ये उन्होंने किया।

वृद्धाश्रमो के युग मे आप 600 साल पुराने पूर्वज के वचन का मान रखते हुए अपने ही सिन्हासन पर किसी और का तिलक कर रहे हो वो भी अंगूठा काटकर, तो भाई आप गलत ही युग मे पैदा हो गए या यू कह लो कि सृष्टि का संतुलन आप जैसो से ही है।

अंत मे एक प्रश्न व्यवस्था पर उठता है, औरंगजेब द्वारा शाहजहाँ को दी गयी प्रताड़ना पढ़ा सकते हो मगर चुंडा का पितृप्रेम नहीं पढ़ा सकते। पढ़ा देते और यदि समाज मे ये उतर जाता तो कितने ही परिवार सम्पत्ति विवाद मे खून नहीं बहाते और समाज मेवाड़ जैसा होता।

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आर्यभूमि : The Land of Aryans

08 Dec, 07:31


53 वर्षो की एक महान सत्ता का अंत हुआ और ज़ब भारत सो रहा था तब सीरिया गिर गया। विद्रोही दमास्कस मे घुस आये है और राष्ट्रपति बशर अल असद देश छोड़ चुके है।

वो असद परिवार जिसने इंदिरा गाँधी से नरेंद्र मोदी तक भारत के एक दर्जन प्रधानमंत्री देखे। कश्मीर मुद्दे पर हमेशा भारत का साथ दिया, 1930 से 1971 तक सीरिया के 18 राष्ट्रपति हो चुके थे। इतनी ज्यादा अस्थिरता थी मगर फिर 1971 मे हाफिज अल असद तानाशाह बने।

सन 2000 से उनके बेटे बशर अल असद राष्ट्रपति थे। यदि आप गूगल पर सर्च करो सीरिया बिफोर वॉर तो आप समझ पाओगे कि असद परिवार ने सीरिया को क्या बनाया था। ये मध्यपूर्व का स्वर्ग था।

जो हुआ उसके पीछे आपको स्टॉक मार्केट भी समझना पड़ेगा। स्टॉक मार्केट मे ऐसा भी होता है कि आप पहले 110 रूपये का शेयर बेच दो और फिर ज़ब क़ीमत 100 हो जाये तो खरीद लो और लाभ कमाओ।

अब यदि आप अमेरिकी है और अरबो डॉलर आपके पास है, आप देखते है भारत मे अडानी के शेयर ऊपर जा रहे है तो आप विपक्ष को पैसा खिलाइये। विपक्ष अडानी की इमेज़ बिगाड़ेगा और क़ीमत गिरायेगा।

आप तो पहले ही शेयर बेचकर बैठे होंगे और जब शेयर गिरेंगे आप प्रॉफिट बनाओगे। ये सारा धंधा अरबो डॉलर मे ही होता है और इस काम के लिये कुख्यात नाम है जॉर्ज सोरोस। जॉर्ज सोरोस पर कितनी ही कम्पनी बर्बाद करने के आरोप है।

राहुल गाँधी जब अमेरिका गया था तो इसी के शुभचिंतको से मिलकर आया था। सीरिया मे जो हो रहा है वो यही है, अमेरिका की आदत है हर 20 साल मे दुनिया को चॉकलेट बॉक्स की तरह हिलाता है ताकि कुछ नयी चॉकलेट खाने को मिले।

2010 मे अमेरिका ने अरब जगत को हिलाया था और अरब स्प्रिंग हुआ था। ट्यूनिशिया, मिस्त्र, लीबिया और इराक बुरी तरह जल गए। विश्व स्तर पर कई ट्रांसपोर्ट कंपनीया बर्बाद हुई, जॉर्ज सोरोस जैसे लोगो ने जमकर शॉर्ट सेलिंग की और पैसा बनाया।

अमेरिका की हथियार बनाने वाली कम्पनियो के शेयर जमकर उठे, इस तरह चारो और पैसा ही पैसा हो गया। लेकिन इसमें नुकसान उस देश का हो जाता है, सीरिया मे वही हुआ। जब विपक्षीयो ने आंदोलन किया तो कई आतंकवादी भी जनता के साथ होकर उत्पात करने लगे।

क्रॉस बॉर्डर टेरर शुरू हुआ और आज सीरिया आपके सामने है। असद परिवार भले ही तानाशाह था मगर आप उनसे पहले का सीरिया देख लोगे तो पूरा जंगल राज था। लोकतंत्र का वहाँ रास्ता ही नहीं है अब भी तानाशाही ही चलेगी।

इसका रिवर्स भी होता है मान लो विपक्ष सरकार नहीं गिरा पाता तो उसे जान से मरवा भी दिया जाता है ताकि बाते बाहर ना आये। भारत की बात करें तो आप खुद देख लो ममता बनर्जी अचानक से आकर राहुल गाँधी के खिलाफ हो गयी और खुद विपक्षी नेता बनने की बात कर रही है।

राहुल गाँधी अमेरिका मे आग से खेलकर आया है, एक बड़ा डर है कि यदि इसने जॉर्ज सोरोस से कोई डील की थी तो इसे अमेरिका मरवा ना दे क्योंकि ये लौटकर कुछ विशेष कर नहीं पाया है। किसानो की आड़ मे दिल्ली मे दंगे नहीं कर पाया, खालिस्तान ठन्डे बक्से मे पड़ा है। राहुल गाँधी पर एक जानलेवा हमला हो सकता है क्योंकि जहाँ तख्तापलट नहीं हुआ वहाँ ऐसा ही हुआ है।

आप सोचोगे कि राहुल गाँधी को तो जेल भेज देना चाहिए, मगर ये भी समझो कि राहुल गाँधी बीजेपी के लिये एक वरदान है। ज़ब इसकी सांसदी गयी थी तो एक बच्चा भी उसके विरोध मे सामने नहीं आया था। ये जेपी नारायण नहीं है जिसके कहने पर जनता सड़क पर आ जाए।

इसलिए विपक्ष मे ऐसा कमजोर नेतृत्व भारत को सीरिया होने से बचा रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश मे जो आंतरिक हिंसा हुई वो इसीलिए हुई क्योंकि विपक्ष मे इतना दम था कि नेता के खिलाफ जनता को भर सके।

दूसरी ओर मोदीजी की अप्रूवल रेटिंग 75% के पार है, लगा था लोकसभा के बाद अब उनकी हवा कम होंगी मगर हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजो के बाद ये एक नयी लहर बन गयी है।

सबसे बड़ी बात ये है कि कांग्रेस ने जो 60 साल मे जज, NGO, यूनिवरसिटीज और अफसरशाही का एक इको सिस्टम बनाया था वो बीजेपी ने 10 साल मे बुरी तरह काटा है। भारत की CBI, IB और रॉ इतनी सशक्त है कि गृहयुद्ध नहीं होने देगी।

इसलिए लग नहीं रहा कि भारत सीरिया बनेगा, फिलहाल सीरिया मे असद परिवार के हम भारतीय आभारी रहेंगे। आशा है सीरिया से इतना पैसा लेकर भागे हो कि तीन पीढ़ियां सुकून से जी सके और प्रार्थना है उन सवा दो करोड़ नागरिको के लिये जो अकेले खडे है अपनी मौत के सामने।

हमारे लिये सबक यही है कि दिल्ली का सिन्हासन सिर्फ लोकतान्त्रिक रूप से हिलना चाहिए जैसे 2014 मे हिला था, यदि हिंसा और आंदोलन करके हिलाया जाए तो सड़को पर आ जाना। सेना के साथ मिलकर विपक्षीयो को भगा भगा कर मारना मगर भारत को सीरिया मत बनने देना।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

05 Dec, 16:46


प्रतिशोध से बड़ी चीज है मनमाना प्रतिशोध।

2009 मे मोदीजी को कुछ निवेशकों से मिलने अमेरिका जाना था तब सोनिया गाँधी ने कांग्रेस के नेताओं से ओबामा प्रशासन को पत्र लिखवाया था कि मोदी को इजाजत ना दे। इस कारण गुजरात की इन्वेस्टमेंट समिट फेल हो गयी और गुलाम नबी आजाद तथा मणिशंकर अय्यर ने गुजरात का मज़ाक बनाया।

अगले ही साल टाटा गुजरात मे पधारे और उसके बाद गुजरात ऐसा उठा कि आज तक पीछे नहीं मुड़ा। डोनाल्ड ट्रम्प ने खुद मोदीजी को बुलाकर पूरे अमेरिका के सामने "माय फ्रेंड" कहा जो कि साधारणतः कोई अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं कहता।

गुजरात का मजाक बनाने वाले अय्यर, आज़ाद और सोनिया की राजनीति मिट्टी मे मिल गयी। लेकिन मोदी और गुजरात का सितारा आज भी चमक रहा है। ये होता है मनमाना प्रतिशोध, दुश्मन की ऐसी दशा करो कि हस्ती मिट जाए।

अब ये दोबारा महाराष्ट्र मे हुआ, 2019 मे शरद पवार की गोद मे बैठा उद्धव ठाकरे इतना घमंड मे था कि उसने अमित शाह को दिल्ली से बुलवाया था जबकि वो गृहमंत्री बन चुके थे। देवेंद्र फडणवीस जो तब भी मुख्यमंत्री थे उनको मातोश्री के बाहर रुकने को कहा था।

देश के गृहमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री का ऐसा अपमान करके उद्धव ठाकरे खुद को किसी मुग़ल बादशाह से कम नहीं समझ रहा था जब मुख्यमंत्री भी बना तो चार बार प्रयास किया कि फडणवीस को जेल भेज सके।

लेकिन वो फडणवीस के नहीं बल्कि अपने ही अंत से बस 2 साल दूर था।

एक रात मे जगाकर कहा गया कि अब उसके पास ना पार्टी है ना ही कुर्सी। 2024 मे देवेंद्र फडणवीस आज फिर मुख्यमंत्री बने और उद्धव की हैसियत इतनी भी नहीं बची कि विपक्ष मे बैठ सके। जिस मंच से मुसलमानो का तुष्टिकरण होना था उसी मंच से एकनाथ शिंदे ने बालासाहेब और आनंद दिघे का नाम दहाड़ा।

फिर से एक पूर्ण प्रतिशोध, राजनीति का एक और सबसे सुंदर अध्याय। लोकसभा चुनाव के बाद एक उदासी आयी थी मगर पहले चंडीगढ़ और आज मुंबई का वो दृश्य उत्साह मे दिवाली से कम नहीं।

1951 मे बीजेपी (जनसंघ) के सिर्फ 3 सांसद थे मगर आज 20 राज्यों के मुख्यमंत्री, दर्जन भर केंद्रीय मंत्री, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री समेत उद्योग, खेल और फ़िल्म जगत के बड़े बड़े चेहरे एक साथ एक स्वर मे शक्ति प्रदर्शन कर रहे है कि भारत की दिशा और गति अब बदल चुकी है।

यही वो पूर्ण प्रतिशोध है जिसकी चमक कई हीरो और जेवरातो से ज्यादा है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

04 Dec, 10:13


बांग्लादेश मे तख्तापलट होता है, सीरिया मे विरोधी उग्र हो गए, पाकिस्तान मे अचानक से नरसंहार शुरू हुआ, साउथ कोरिया मे सैन्य शासन लग गया, भारत मे किसानों की आड़ मे बिना बात अचानक आंदोलन होने लगे। ये सच मे सिर्फ संयोग है???

ये हो ही नहीं सकता, चिन्मय दास जी चार महीने से विरोध कर रहे थे मगर गिरफ्तार अब हुए। एक माहौल बनाया जा रहा है कि भारत बस किसी भी तरह बांग्लादेश पर हमला कर दे?

जब तक डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति नहीं बनते कुछ ना कुछ आकस्मिक होता रहेगा। ये समय हमारे धैर्य का है, चिन्मय दास तो कुछ नहीं है इन दो महीनो मे बांग्लादेश के हिन्दुओ के साथ बहुत कुछ होगा। जो विपक्ष चार महीने से मुँह मे दही जमाये बैठा था वो अब अचानक हिन्दुओ के लिये आवाज़ उठा रहा है।

एक कोशिश है बस कि भारत युद्ध छेड़ दे, और ये युद्ध अभी हुआ तो इस युद्ध का कोई परिणाम भी नहीं आएगा क्योंकि जो अन्य युद्ध चल रहे है वे भी बस चल रहे है। गलवान वैली के बाद एक बात जो समझ आयी वो ये कि भारतीयों का माइंडसेट युद्ध वाला नहीं है।

गलवान वैली देखा जाए तो भारत की विजय हुई थी मगर हमारे 20 सैनिको की वीरगति का जिस तरह विधवा आलाप करके अपमान किया गया वो दर्शाता है कि हम मन से मजबूत नहीं है। बांग्लादेश से लड़ोगे तो तैयार रहो 500-1000 तो इस तरफ भी मारे जाएंगे।

मीडिया उनकी विधवाओ की तस्वीरे दिखायेगा सोशल मीडिया पर क्या सेक्युलर क्या हिंदूवादी सब आंसू बहाकर सेना और सरकार का मोरल डाउन करेंगे और फिर मोदी सरकार को हटाने के लिये एक सत्ता विरोधी आंदोलन होगा।

यदि किसी को ये बस थ्योरी लग रही हो तो फ्रेंच और रशियन क्रांति को डिटेल मे पढ़ लो ये ही सब उस समय भी हुआ था। जब विपक्ष कमजोर होता है तो राजा को युद्ध मे उलझाकर तख्तापलट किया जाता है।

बांग्लादेश को आप आसानी से हरा दोगे लेकिन मन की लड़ाई हार जाओगे क्योंकि फिलिस्तीन मे 50 हजार के मरने पर भी वो मौत से नहीं डर रहे और आपने 5 हजार के मरते ही आंसू बहाने शुरू कर दिए और अपनी सरकार को कोसना भी।

बांग्लादेश मे जो हो रहा है वो बस उकसाने वाली बात है कि बस किसी तरह भारत आक्रमण कर दे और 2-3 सालो के लिये नए भूराजनैतिक समीकरण मे उलझ जाए। सरकार ये समझ गयी है, जनता का भी एक वर्ग समझ गया है मगर कुछ अपवाद है जिन्हे युद्ध चाहिए।

उन्हें लग रहा है कि युद्ध 1 बजे शुरू होगा और 2 बजे तक बांग्लादेश के सारे हिन्दू भारत मे आ चुके होंगे। बांग्लादेश शमशान बन जाएगा और भारत का ना कोई सैनिक और ना कोई नागरिक मरेगा। भारत के शहरो पर कोई गोला नहीं गिरेगा और बस रामायण वाली स्टाइल मे धर्म की पताका लहरा रही होंगी।

इन लोगो के लिये राजनीति एक गली मोहल्ले के झगड़े बराबर है, युद्ध तो निश्चित होगा। भारत ने पिछले एक महीने मे ही कुछ सैन्य परिक्षण भी किये है, चीन से तो अभी लड़ना नहीं है, पाकिस्तान भी नहीं तो संभव है युद्ध बांग्लादेश से हो।

युद्ध से विरोध नहीं है मगर युद्ध तैयारियो, अवलोकनो और अपने समय के हिसाब से होना चाहिए ना कि दुश्मन के एजेंडे मे फसकर और उसके उकसावे मे आकर। यदि बांग्लादेश से युद्ध करना है तो अभी 6 महीने और लो, शेख हसीना के कुछ लोग होंगे जो अंडरग्राउंड होंगे और ख़ुफ़िया जानकारी देंगे।

कौन सी मिसाइल किस क्षेत्र के लिये उपयुक्त रहेगी, उसकी गणना होंगी। यदि राजशाही पर रासायनिक बम गिरा दिया तो 40 किमी दूर ही भारत के गाँव है वे भी झूलस जाएंगे। ऐसी और ना जाने कितनी ही गणना है जिनमे समय लगता है और इसे करके ही युद्ध हमारे फेवर मे होगा।

इन चिल्लम चिल्लाई और उकसावे मे युद्ध की मांग करने वालो के कहने मे आकर दिमाग़ को पर्दा करने की आवश्यकता नहीं। हर काम समय के साथ ही होता है, जल्दबाजी मे बस तराइन और पानीपत जैसे हाल होते है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

02 Dec, 13:26


बांग्लादेश के हिन्दुओ को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी चाहिए और इसका सबक पंजाब मे है।

एक समय था जब कनाडा जाने वाले सिखो ने भारत की आजादी के लिये सोसायटीज बनाई थी, कनाडा से भारत लौटने वाले सिख क्रांतिकारी बनते थे। अंग्रेज छोड़कर गए और कनाडा मे भारतीय राष्ट्रवाद का पंजाबी राष्ट्रवाद मे परिवर्तन हो गया।

आज आप बांग्लादेशी हिन्दुओ के लिये बात कर रहे हो मगर शायद बहुत से लोग नहीं जानते कि किसी जमाने मे बंगाली भाषा के आधार पर अलग देश की थ्योरी भी आयी थी।

यदि दिल्ली से सेना ढाका जाती है और हिन्दुओ के लिये अलग देश बना भी देती है तो कल को ये ही हिन्दू हिंदुत्व भूलकर बांग्ला राष्ट्रवाद को बढ़ावा देंगे और पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों पर दावेदारी ठोकेंगे।

जैसे राजस्थान के साहित्य मे क्षत्राणियों का त्याग भरा है वैसे ही बंगाल के साहित्य मे साम्यवाद कूट कूटकर भरा है, ये सुभाषचंद्र बोस का नहीं ममता बनर्जी का समाज है। इनके रोम रोम मे राम नहीं बल्कि ज्योति बसु रमा है।

एक विकल्प हो सकता है कि बांग्लादेश के हिन्दू लिखित मे भारत सरकार से हस्तक्षेप की मदद मांगे और आश्वासन दे कि यदि उन्हें बांग्लादेश से मुक्ति मिले तो वे भारतभूमि के किसी भी हिस्से पर दावा नहीं ठोकेंगे। दूसरा हम बांग्लादेश का वो हिस्सा कट करेंगे जिसकी सीमा भारत से ना लगे।

भूमि छोड़ो अलग देश बनाने के बाद ये भारत की नदियों के एक लौटे पानी पर भी दावा नहीं करेंगे।यदि ऐसा होता है तो फिर भारत को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन लेना चाहिए या युद्ध के बारे मे सोचना चाहिए।

बांग्लादेशी हिन्दुओ के लिये भिड़ जाना आज ठीक लगेगा मगर भविष्य मे ये हिन्दू भारत के लिये संकट पैदा करेंगे। इनके अंदर कार्ल मार्क्स और लेनिन की आत्मा जन्म लेगी, एक ज्योति बसु या ममता बैनर्जी पैदा करेंगे और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत के खिलाफ मुहीम चलाएंगे।

उनके आंसुओ से आप सहानुभूति रखिये मगर भावनाओं मे मत बहिये। धर्म से ज्यादा बड़ा मुद्दा नस्ल का है जिसके खून मे कार्ल मार्क्स भरा है और ये नस्ल कभी हिन्दुराष्ट्र के काम नहीं आएगी।

पश्चिम बंगाल मे आज भी हिन्दू 75% है, यदि इनका खून खौल जाए तो ये भी मुसलमानो के खिलाफ रिबेल कर सकते थे। राज्य का विपक्ष तो इनका साथ ही देगा, मगर नहीं ये केंद्र सरकार के भरोसे है वो सरकार जिसे खुद तो कभी वोट भी नहीं देंगे।

इसलिए ये मसला आज धर्म का लग रहा हो मगर कल नस्ल का बन जाएगा, ये ही बांग्लादेशी मुसलमान भाई हो जाएंगे और हर गैर बंगाली दुश्मन हो जाएगा।

आप बांग्लादेश छोड़िये जब भारत के एकीकरण और हिन्दू राज्य का प्रोसेस शुरू होगा आप खुद देखेंगे कि बंगाल से सबसे ज्यादा विरोध देखने को मिलेगा शायद केरल से भी ज्यादा। पंजाबी सिंधी तमिल समेत जो कौमे शरणार्थी बनकर आयी थी आज वही सेकुलरिज्म के सबसे बड़ी भक्त है।

इतिहास से सबक लो, गलती मत दोहराओ। देवी देवताओं की टूटी हुई मूर्ति देखकर खून खौलता है एक दिन सही समय आने पर चुन चुन कर बदला भी लेंगे। मगर इन भावनाओं मे हम उन नस्लों को शरण नहीं दे सकते जो बॉर्डर के इस पार आते ही हिन्दू से कम्युनिस्ट बन जायेगी।

100 मुसलमानो को आप हरा सकते हो मगर 10 कम्युनिस्टो को नहीं क्योकि मुसलमान गर्दन पर प्रहार करता है और कम्युनिस्ट दिमाग़ पर। उद्देश्य दोनों का ही आतंकवाद है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

01 Dec, 07:37


2011 मे एक इंटरव्यू मे राज ठाकरे से पूछा गया कि मनमोहन सिंह को क्या करना चाहिए उन्होंने कहा इस्तीफ़ा दे देना चाहिए। फिर पूछा गया आप किसे प्रधानमंत्री देखना चाहोगे तो राज ने कहा गुजरात वाले नरेंद्र मोदी को।

उस समय किसी ने इस बात को सीरियस नहीं लिया, मगर नरेंद्र मोदी एक विकल्प बनकर उभरे। 2012 तक तो बच्चे बच्चे की जुबान पर नाम था, 2013 मे पार्टी की जुबान पर और 2014 मे तो पूरा भारत ही मोदीमय हो गया।

यदि 2029 मे मोदीजी दोबारा नहीं लड़ेंगे तो उनका उत्तराधिकारी ढूंढना RSS ने तो शुरू कर दिया होगा। सभी को अपनी थ्योरीज ढूंढ़नी चाहिए, मुझे देवेंद्र फडणवीस का नाम सबसे ऊपर दिखाई दे रहा है क्योंकि.....

अगला प्रधानमंत्री RSS का ही बनेगा और उसकी हिन्दी धाराप्रवाह होंगी ये तो तय है इसलिए योगी और हिमांता आउट। जनता मे पकड़ रखेगा इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया, पीयूष गोयल और अश्विनी वैष्णव भी आउट। ये तीनो तो कॉर्पोरेट लेवल के लोग है, ज़ब विदेशियों को लूटना हो तो इनकी प्रतिभा आगे आएगी।

अगला प्रधानमंत्री, मोदीजी से ज्यादा कट्टर होगा इसलिए नितिन गडकरी, शिवराज सिंह चौहान और राजनाथ सिंह भी बाहर हुए। अब इस थ्योरी मे सिर्फ दो लोग बच रहे है अमित शाह और देवेंद्र फडणवीस।

लक्ष्मण को सिंहासन कभी नहीं मिलता ये बीजेपी की परंपरा रही है इसलिए अमित शाह भी बाहर होते है। बचते है सिर्फ देवेंद्र फडणवीस, जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तो काम जोरो शोरो से किया था।

दिल्ली NCR और पश्चिमी महाराष्ट्र मे सड़क, हॉस्पिटल और स्कूल विकास का मापदंड नहीं होते अपितु मापदंड होता है औद्योगिकीकरण।

देवेंद्र फडणवीस ने क्या किया ये तब समझ आया जब उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बना। ठाकरे तो शायद कांग्रेस के कांट्रेक्ट पर आया था कि महाराष्ट्र को बर्बाद करो और नाम गुजरात का लगाओ। ठाकरे असल मायने मे महाराष्ट्र का लालू प्रसाद यादव था।

यदि बीजेपी फडणवीस को इस मुख्यमंत्री ना बनाये तो समझ लेना वो ही अगला प्रधानमंत्री है।फडणवीस मे काफी परिवर्तन भी आये है 10 साल पहले मोब लिंचिंग करने वाले को हिन्दू नहीं मानते थे मगर आज प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई कहते है।

संभाजी नगर मे खडे होकर औरंगजेब पर जो लाइन बोली वो दर्शाती है कि रवैया अब बदल गया है या यू कहे समय की धार देखकर अपना असली चेहरा दिखा दिया है।

योगी हिमांता गृह और रक्षा के लिये ज्यादा श्रेष्ठ है बजाय प्रधानमंत्री के, सिंधिया, गोयल और वैष्णव कॉर्पोरेट लेवल के है इनके लिये प्रोडक्ट आधारित मंत्रालय बेस्ट है।

हालांकि ये सिर्फ मेरी थ्योरी है इसका कोई सपोर्टिंग डॉक्यूमेंट मेरे पास भी नहीं है मगर ये एक अवलोकन है। असहमति होना भी स्वाभाविक है क्योंकि विधि का विधान अभी 5 वर्ष दूर है। मगर ये थ्योरी सही हुई तो देवेंद्र फडणवीस दिल्ली के सिन्हासन पर बैठेंगे जरूर।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

25 Nov, 03:13


कभी कभी सालो तक कुछ नहीं होता और कभी कभी मिनटो मे इतिहास बदल जाता है।

2014 मे महाराष्ट्र की राजनीतिक डिक्शनरी मे बीजेपी मतलब गोपीनाथ मुंडे, शिवसेना मतलब ठाकरे वंश और NCP मतलब शरद पवार होता था। उस समय शायद ही किसी ने इन तीन पार्टियों के लिये इस तस्वीर की कल्पना की होंगी।

2014 मे मोदीजी की आंधी मे लोकसभा के साथ साथ विधानसभाये भी हिल गयी। महाराष्ट्र मे 46 सीटों वाली बीजेपी 122 पर आ खड़ी हुई, शिवसेना का बाला साहेब के बिना ये पहला चुनाव था। उद्धव को पूरा सीनियर ठाकरे वाला ट्रीटमेंट मिल रहा था इसलिए उसने बीजेपी को समर्थन दे दिया।

बीजेपी ने सभी को चौकाते हुए देवेंद्र फडणवीस को आगे कर दिया। RSS के बाग़ से निकले फूलो मे सुगंध कुछ ज्यादा होती है क्योंकि सड़के नापा हुआ व्यक्ति होता है। यही कारण था कि देवेंद्र फडणवीस का काम 2019 मे उन्हें फिर जीता गया इस बार सीटें 105 थी।

दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे जो 1997 से ही खुद मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहा था। उसकी महत्वकांक्षा तीव्र हो गयी, इसलिए उसने NCP और कांग्रेस से हाथ मिलाकर बाल ठाकरे को पूर्ण तिलांजलि दे दी। मातोश्री के सामने मुसलमान रैली करने लगे, साधूओ की हत्या हुई।

कंगना रनौत के ऑफिस पर बुलडोजर चला क्योंकि उसने सुशांत के केस पर सवाल पूछा था। नवनीत राणा का तो दोष ही यही था कि उसने हनुमान चालीसा मातोश्री के बाहर पढ़ दी थी। लेकिन उद्धव अपने मद मे चूर था।

ज्यादातर वंशवादी नेताओं की कमजोरी यही है कि उन्हें जमीनी कार्यकर्ताओ और जनता के बारे मे कुछ पता नहीं होता। उद्धव ठाकरे अपने खिलाफ उठने वाली आवाजे तो पुलिस के माध्यम से दबा रहा था मगर उसके विधायको का अपने अपने क्षेत्रो मे जाना मुश्किल हो रहा था।

खुद एकनाथ शिंदे के काफ़िले पर एक बार पत्थर फेका गया था, बगावत भी एकनाथ शिंदे ने ही की, ठाकरे नाम पर जो कलंक लगना था सो लग गया मगर शिवसेना का नाम बच गया। शरद पवार की कहानी भी अलग नहीं है, पुत्री के मोह मे भतीजे को इग्नोर कर रहे थे इसलिए अजीत पवार ने बगावत कर दी।

हालांकि इसमें एक एंगल ये भी हो सकता है कि चाचा भतीजे का एक गुप्त समझौता हो और ये बस हवा का रुख देख रहे हो। शरद पवार एक मंझे हुए नेता है, ऐसा लग रहा है कि ये NCP को एकजुट कर अपनी बेटी के लिये कुछ अधिकार सुनिश्चित कर लेंगे और अजीत पवार ही इसे लीड करेंगे। NCP अब BJP के साथ ही चलेगी।

पता नहीं आप ऑब्जर्व कर रहे है या नहीं मगर लोकसभा मे जो हुआ उसके बाद मोदी जी की एक सहानुभूति की लहर उठी है। पहले हरियाणा मे बहुमत और अब महाराष्ट्र मे जो शानदार प्रदर्शन हुआ इतना तो कभी गुजरात और मध्यप्रदेश मे भी बीजेपी नहीं कर पायी। गुजरात, मध्यप्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र वे चार राज्य हो गए जो बीजेपी को हैट्रिक देकर उसके गढ़ बने है।

शायद जननेता की पहचान यही होती है। इससे पहले कोई उदासीन आकर झारखंड याद दिलाये तो बस दो बिंदु की बात है, लोकसभा मे झारखंड की जनता ने मोदीजी को ही वोट डाले थे और दूसरा यह कि ये राजनीति के लिये ठंडा प्रदेश है यहाँ के परिणाम पार्टियों की दिशा तय नहीं करेंगे।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

23 Nov, 14:21


1) शरद पवार जबरदस्ती खुद का बोझ ढो रहे है, अजीत पवार के साथ विलय कर लेना चाहिए पुत्री प्रेम मे पुत्री का ही भविष्य अंधकार मे कर रहे है।

2) बीजेपी की तारीफ बनती है पहली बार एकनाथ शिंदे से चुनावी समीकरण बनाया है और अजीत पवार तो दोनों के लिये ही आउट ऑफ़ सिलेबस थे। इस चुनाव मे सबसे ज्यादा चौकाने वाला काम अजीत पवार ने ही किया है।

3) उद्धव, केजरीवाल और तमाम पुराने चेहरों मे एक गलतफहमी कॉमन है "जनता वक़्त के साथ सब भूल जाती है"। उद्धव के तो सांसदों को भी सोचना चाहिए कि इसके साथ रहने मे भविष्य है या शिंदे के साथ।

4) पहले जाटलैंड अब मराठवाड़ा, 240 के लिये सॉरी बोलने का तरीका काफी अद्भुत है जाटों और मराठो का।

5) झारखंड का शोक करने की आवश्यकता नहीं है, झारखंड देर सबेर जीत लेंगे असली लड़ाई महाराष्ट्र मे ही थी।

6) हेमंत सोरेन का लोहा मानना होगा, लोकसभा चुनाव मे झारखंड की जनता ने बीजेपी को ही वोट दिया मगर विधानसभा मे यदि वो हेमंत मे भविष्य देख रहे है तो हमें बिना किसी क्रोध के उसके नेतृत्व की भूरी भूरी प्रशंसा करनी होंगी। शायद घुसपैठियों का मुद्दा उतना बड़ा नहीं था जितना हमने बना लिया था।

7) देवेंद्र फडणवीस ने जिस तरह पहले एकनाथ शिंदे फिर अजीत पवार का मैंनेजमेंट संभाला और अंत मे ये चुनाव भी जीते। महाराष्ट्र जैसे राज्य मे ये सब करना देवेंद्र फडणवीस की मुंबई से ज्यादा दिल्ली की राह आसान कर रहा है।

अंत मे हम सबके लिये एक सबक - लव जेहाद की ब्रांड एम्बेसडर स्वरा भास्कर का पति हार गया। उस सना मलिक की वजह से जिसे हम खुद पसंद नहीं करते, ये दर्शाता है कि कुछ सीटों को जीतने के लिये BJP को NCP जैसी सेक्युलर पार्टियों को भी भविष्य मे साथ लेना चाहिए।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

22 Nov, 05:47


यदि इंडी गठबंधन जीत जाता और राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बनता तो ये सरकार आज यानि 22 नवंबर को गिरी होती और इंडी गठबंधन भी टूट जाता।

इसके केंद्र मे होते गौतम अडानी, बात कुछ ऐसी है कि गौतम अडानी ने बहुत सालो पहले अमेरिका के निवेशकों से पैसा उठाकर भारत मे कुछ नए प्रोजेक्ट शुरु किये थे, अब अमेरिका मे ये केस दर्ज हुआ कि अडानी ने इस पैसे से कई अधिकारियो को रिश्वत देकर सोलर और पोर्ट के प्रोजेक्ट उठाये।

इसके बाद से राहुल गाँधी गौतम अडानी की गिरफ्तारी की मांग कर रहा है, हालांकि ये आरोप अभी साबित होना बाकि है मगर राहुल गाँधी किसी परिचय का मोहताज तो है नहीं।

हम तो मान लेते है कि अडानी ने रिश्वत दी होंगी, लेकिन किसे? सोलर प्रोजेक्ट तमिलनाडु मे एमके स्टालिन ने दिए है, मतलब रिश्वत भी.... कोलकाता का बंदरगाह ममता बनर्जी ने दिया है मतलब रिश्वत भी.... अशोक गहलोत और हेमंत सोरेन ने भी सोलर प्रोजेक्ट अडानी को दिए थे मतलब रिश्वत....

राहुल गाँधी और उसके समर्थको का तो बस एक ओबसेशन है अडानी और अंबानी से, अन्यथा बाकि लोग अडानी से खुश है। राहुल गाँधी ने जिस तरह मुकेश अंबानी का समारोह इग्नोर किया वो दर्शाता है कि राहुल गाँधी राजनीति की पीच पर अब भी बच्चा ही है क्योंकि TMC, DMK, JMM और समाजवादी के तो प्रवक्ता भी कुछ बोलने से बचते है।

मान लो इंडी गठबंधन उस दिन सरकार बना लेता तो निश्चित ही राहुल गाँधी आनन फ़ानन मे अडानी के खिलाफ फैसले करता और एक नयी जैन डायरी देश के सामने आ जाती। ममता बनर्जी और एमके स्टालिन को झक मारकर इंडी गठबंधन छोड़ना पड़ता और बीजेपी को समर्थन देकर एक और मजबूती देनी पडती।

इसलिए ये समझ लीजिये कि इंडी गठबंधन लीजिटिमेट नहीं है, ये ज़ब भी सरकार मे आएगा राहुल गाँधी के बचपने की भेंट चढ़ जाएगा। गठबंधन चलाने के लिये नरसिम्हाराव, वाजपेयी और मनमोहन वाला दिमाग़ लगता है या फिर नेतृत्व क्षमता मोदी जैसी हो कि 2-2 मंत्रालय बांटकर ही राज कर सके।

बहुत लोग समझ रहे है कि मुकेश अंबानी अडानी को डूबाना चाहते है मगर शायद उन्हें पता नहीं है कि हिंडनबर्ग कांड के बाद अडानी के सस्ते शेयर सबसे ज्यादा अंबानी ने ही खरीदे थे इसलिए ये तो महेन्द्र कपूर का गाना गा रहे होंगे "भगवान करें ये और बढ़े, बढ़ता ही रहे और फूले फले"

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

21 Nov, 06:07


1) India after Modi -

https://unu.edu/article/how-indias-economy-has-fared-under-ten-years-narendra-modi

2) Govt job cuts -

https://www.business-standard.com/article/news-ians/ias-official-s-suspension-bjp-seeks-governor-s-intervention-113080200906_1.html

3) Shortage of government officials -

https://www.clearias.com/ias-ips-vacancies/

4) Example of outsourcing -

https://pib.gov.in/Pressreleaseshare.aspx?PRID=1519434

आर्यभूमि : The Land of Aryans

21 Nov, 06:06


लेख तैयार था बस वोटिंग खत्म होने की प्रतीक्षा थी क्योंकि पहले लिखता तो शून्य जितना ही सही मगर प्रभाव हो सकता था।

डोनाल्ड ट्रम्प जो अमेरिका मे करने की कोशिश कर रहे है वो भारत मे नरेंद्र मोदी पहले ही कर चुके है इसे डीप स्टेट मे परिवर्तन कह सकते है। बीजेपी शासन मे प्रशासनिक सेवा और अन्य सरकारी नौकरियों मे भयावह कटौती हुई है।

भारत मे सरकारी नौकरी की व्यवस्था अंग्रेजो के जमाने की है। भारत को गुलाम रखने के लिये अंग्रेजो ने इसका प्रयोग किया और आप जब भी किसी सरकारी अधिकारी के सामने जाओगे वो आपको गुलामो वाला ही अहसास देगा। सरकारी नौकर की सोच बिल्कुल तय है कि युद्ध भी शुरु हो जाए तो भी 1 बजे लंच ही करना है।

ये सरकारी नौकर ही थे जिनकी वजह से रिसर्च के लिये कभी बजट नहीं दिया जा सका। मनमानी पर रोक लगाने की कोशिश करो तो इन्होने यूनियन बना रखी थी, जनता को मरने के लिये छोड़ देते थे और सरकार को ब्लेकमेल करते थे। मगर पिछले 7 सालो मे आपने शायद ही किसी यूनियन को हड़ताल करते सुना हो।

जब 2014 मे मोदीजी प्रधानमंत्री बने थे तो सबसे बड़ा सवाल यही होता था कि ऑफिस मे तो कांग्रेस के लोग ही बैठे होंगे उनके भ्रष्टाचार पर कैसे नियंत्रण लगाओगे? लेकिन फिर सरकार ने स्ट्रेटजी बदली, इन नौकरियों मे अपार कटौती हुई और IIT तथा IIM को प्रोजेक्ट आउटसोर्स होने लगे।

इसलिए आज इतनी रिसर्च हो रही है... किसी जमाने मे पोलियो से पीड़ित भारत से कोविड वैक्सीन बनाने की आशा करना हास्यप्रद था। मगर ये संभव हुआ क्योंकि सरकारी अफसरों का जाला कट गया और एक विभाग दूसरे से आसानी से कोर्डिनेट कर रहा था।

आज भी आप UPSC के छात्रों से बात करो तो कांग्रेस की नई पीढ़ी की झलक दिखती है। उनका मानना है उदारीकरण कांग्रेस ने किया तो अब जो भी डेवलपमेंट हो उसका सारा श्रेय उठाकर बस कांग्रेस को दे दो। ये छात्र हमेशा मेक इन इंडिया को कोसते पाए जाएंगे क्योंकि यदि स्वदेशी बनेगा तो विदेशी कम्पनियो से मिलने वाली रिश्वत संकट मे आ जाएगी।

इसके विपरीत मोदीजी को सबसे ज्यादा पसंद कॉर्पोरेट मे किया जाता है, क्योंकि हमें पता है ये ही वो व्यक्ति है जिसके राज मे हम अमेरिका और इंग्लैंड बड़े पैकेज की नौकरी के लिये जाएंगे मज़बूरी मे नहीं। बीजेपी ने वही किया भी है, IIT का क्रेडिट भले ही कांग्रेस खा ले मगर उसका यूटिलाइजेशन बीजेपी ने किया है।

इसलिए अब आधार कार्ड से जुड़े काम आउटसोर्स होते है, हथियार खरीदने से पहले DRDO रिसर्च करता है कि भारत मे बना सकते है या नहीं। तेजस इसी तर्ज पर बना है उसे सरकारी नौकरो ने नहीं बनाया है। इसी आउटसोर्सिंग ने कांग्रेस का लगभग पूरा तंत्र खत्म किया।

आज यदि कांग्रेस आ भी जाए तो उसके 5 साल सिस्टम समझने मे ही बर्बाद होने वाले है। भारत मे ये काम क्लासिक तरीके से हुआ जबकि डोनाल्ड ट्रम्प इसे बिल्कुल एक फर्जी तरीके से कर रहे है। ट्रम्प अमेरिका को एक कंपनी की तरह चलाने की कोशिश मे है, अमेरिका या तो बर्बाद होगा या आबाद होगा। लेकिन ये भी एक बात है कि भारत मे ऐसा करने मे 5-7 साल लगे ट्रम्प शायद जल्दी कर ले।

अमेरिका की समस्या भी भारत जैसी ही है, सरकारी कर्मचारी ऐसे काम करते है जैसे अब भी सोवियत संघ चल रहा हो। आपने खुद देखा जब जॉर्ज बुश राष्ट्रपति थे तो इराक से व्यर्थ मे युद्ध करवाया, ओबामा को सीरिया तथा लीबिया मे घुसाया और बाइडन को यूक्रेन तथा गाजा मे।

ट्रम्प का कहना साफ है कि अब जब कोई सोवियत संघ है ही नही, अमेरिका का वैसे ही इतना वर्चस्व है तो ये खून खराबा क्यों? इसलिए ट्रम्प अमेरिका की डीप स्टेट मे इतना परिवर्तन कर रहे है और कुछ ऐसे ही कारणों से मोदीजी ने भारत की डीप स्टेट मे किये।

तथ्यों के लिंक्स आप नीचे पढ़ सकते हो

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

19 Nov, 08:17


महाराष्ट्र और झारखंड के हिन्दुओ...

बांग्लादेशी कभी बाबूलाल मरांडी के घर मे नहीं घुसेंगे, वफ्फ बोर्ड कभी एकनाथ शिंदे के घर पर दावा नहीं ठोकेगा। ये सब आपके साथ होगा, कांग्रेस तो समुदाय विशेष को वचन दे चुकी है की हिन्दुओ के साथ जो करना है करो।

तुम्हारी सारी जातिया धरी की धरी रह जायेगी और तुम्हे मराठा या आदिवासी की तर्ज पर नहीं बल्कि इस तर्ज पर काटा जाएगा की तुम कुरान की आयते बोल सकोगे या नहीं। छत्रपति शिवाजी महाराज और बिरसा मुंडा की मूर्तियां तोड़कर पाकिस्तान के झंडे लगाए जाएंगे। जहाँ हिन्दी और मराठी के बोर्ड दिख रहे है वहाँ उर्दू होंगी।

और ये डरा नहीं रहा हुँ ये सच मे होगा, क्योंकि यदि ये इनकी नियत नहीं होती तो झारखंड मे हेमंत सोरेन ने कभी बांग्लादेशी घुसपैठियों पर कुछ क्यों नहीं कहा? महाराष्ट्र मे उद्धव ठाकरे ने NRC का विरोध क्यों किया? जाहिर है ये घुसपैठिये इनका वोट बैंक है।

हो सकता है बीजेपी शिवसेना बस एक पासा फेक रही हो लेकिन ये पता है की ये एक गंभीर समस्या तो है। यदि आप ये पासा नहीं पकड़ते तो जो दूसरा पक्ष है वो तो खुलकर आपको ही काटने के सपने देख रहा है।

ये तो हो गयी सामाजिक गाँठ, अब बात विकास की करते है तो समझ लो कोई विकास नहीं होने वाला। हिमाचल प्रदेश दिवालिया हो चुका है, ये लोग 2029 तक सिर्फ ये बोलेंगे की केंद्र सरकार हमें पैसे नहीं दे रही है। ये जितना बोल रहे है उसके आधे भी काम नहीं करवा पाएंगे।

सबसे बड़ी बात क्या आप वीर सावरकर को कोसने वाले राहुल गाँधी को माफ़ कर दोगे??? वीर सावरकर महाराष्ट्र मे एक पितृ चरित्र रखते है, किसी विदेशी महिला का पुत्र महाराष्ट्र आकर वीर सावरकर को कुछ भी बोलता है और आप उसे पीटना तो छोड़ो वोट दोगे? देखा जाए तो ये वोट आपके स्वाभिमान का भी है।

विदेशी निवेश अब ज्यादातर गुजरात और उत्तरप्रदेश चला जाता है यदि महाराष्ट्र मे कांग्रेस आ गयी तब तो उद्योगो के पास भागने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।

आप खुद देख रहे हो कभी बैंगलोर जाने वाले स्टार्ट अप अब गुरुग्राम और नोएडा की शोभा बढ़ा रहे है। ये बात सही है मुंबई कांग्रेस के राज मे चमकी है मगर तब की कांग्रेस पूंजीवाद की बात करती थी आज तो ये कम्युनिस्टो से बड़े उद्योग विरोधी है।

झारखंड का हाल भी कुछ अलग नहीं है यदि 5 साल का हिसाब लगाओ तो यही है की केंद्र सरकार ने इन्हे काम नहीं करने दिया। एक बार को इस झूठ को मान भी ले तो गुजरात और मध्यप्रदेश का विकास तो 2007-13 के बीच ही सबसे ज्यादा हुआ है वो कैसे?

गुजरात और मध्यप्रदेश मे बीजेपी की सरकार थी और केंद्र मे कांग्रेस की। उस समय कांग्रेस के नेता इन दो राज्यों के खिलाफ प्रान्तवादी जहर उगलते थे फिर भी ये दोनों राज्य प्रगति कर गए। इसलिए बहुत विचार करो की कही ऐसा तो नहीं कि केंद्र सरकार के नाम के आड़े आपका पैसा नेता खुद ही दबा रहे हो।

इसलिए चुनाव करने मे आपको कोई चिंता नहीं करना चाहिए और झारखंड मे बीजेपी तथा महाराष्ट्र मे महायुति की पार्टियों को वोट देना चाहिए। कुछ शिकायते तो लोगो को राम राज्य मे भी थी मगर आज प्रश्न शिकायतो का नहीं नियत का है। एक है तो सेफ है, मगर बटेंगे तो कटेंगे।

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आर्यभूमि : The Land of Aryans

18 Nov, 10:05


बीजेपी को अपर हैंड है क्योंकि उसके पीछे RSS है अन्यथा इसका हाल भी अन्य पार्टियों जैसा होता। देखा जाये तो ऊपर मैंने गलत ही लिखा बीजेपी को कांग्रेस टक्कर नहीं दे सकती, बीजेपी को अब जो भी पार्टी टक्कर देगी वो उससे ज्यादा कट्टरपंथी हिन्दू होंगी और उसके पास RSS से बेहतर मैनेजमेंट होगा जो की बहुत ही कम संभावित है।

अब ये चुनौती 2034 मे मिले या 2039 मे, तब तक तो बीजेपी दिल्ली के सिन्हासन मे बिल्कुल फिट हो चुकी है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

18 Nov, 10:05


2009 का चुनाव बीजेपी के लिये सबसे बड़ी घंटी था, लगातार दूसरी बार सीटें कम हुई थी। उन दिनों के एस सुदर्शन RSS प्रमुख थे जो की आडवाणी और वाजपेयी को रिटायर होने के लिये कह रहे थे।

चुनाव से पहले सुदर्शन ने इस्तीफ़ा दिया और मोहन भागवत अगले संघ प्रमुख बने और यही से स्थिति बेहतर होने लगी। मोहन भागवत ने संघ कैडर से नितिन गडकरी को बीजेपी अध्यक्ष बनाया और खुद सीटों का आंकलन करने मे जुट गए की आखिर गड़बड़ कहाँ हो रही है।

मोहन भागवत ने अपनी तानाशाही भी दिखाई, जैसे उमा भारती को फिर से बीजेपी मे आने का न्योता दिया। सुषमा स्वराज और वैकेया नायडू नितिन गडकरी को इस्तीफे की धमकी देने लगे तो भागवत ने गडकरी को कह दिया की ठीक है उनके इस्तीफे मंजूर कर लो।

बीजेपी ने 116 सीटें जीती थी, इसके अलावा 60 के आसपास वे सीटें थी जो बहुत कम मार्जिन से हारी। RSS ने 2009 से ही इन्हे टारगेट करना शुरू कर दिया मगर समस्या ये थी की बहुमत का आंकड़ा अभी बहुत दूर था। जितने राज्यों मे आज बीजेपी की सरकारे है उसके आधे मे तो उस समय अस्तित्व भी नहीं था।

इसलिए सबसे बड़ा प्रश्न यही था की आखिर बहुमत के आसपास कैसे पहुंचेंगे? 2011 मे राज ठाकरे का इंटरव्यू हुआ तो उन्होंने कहा की प्रधानमंत्री के रूप मे नरेंद्र मोदी उनकी अगली पसंद होंगे। ये बात माननी होंगी की राज ठाकरे ही वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मोदीजी की भविष्यवाणी की थी।

उस समय मोदीजी खुद अपने भाग्य से अंजान थे मगर मोहन भागवत ने इसे बहुत सीरियस लिया। नरेंद्र मोदी के तेवर की चर्चा नागपुर मे बहुत हुई जब उन्होंने मुसलमानो की टोपी पहनने से मना कर दिया और खुद को राष्ट्रवादी हिन्दू कहा।

2012 वो दौर था जब युवा पीढ़ी फेसबुक और व्हाट्सप्प की ओर अग्रसर हो रही थी। RSS ने उसी जमाने मे फेसबुक पर पेज बनाकर अलख जगाना शुरू कर दिया। आप आज भी देखोगे तो सबसे पुराने पोस्ट्स RSS और बीजेपी के ही दिखेंगे।

RSS ने टेक्नोलॉजी का बहुत ज्यादा प्रयोग किया, इच्छाशक्ति इतनी मजबूत थी की भाग्य भी साथ देने लगा। अख़बार कांग्रेस के भ्रष्टाचार की खबरों से भरने लगे, सोनिया गाँधी पुत्र मोह मे ऐसी अंधी हुई की उसने कांग्रेस की राजनीतिक पिच बनाने की जगह राहुल गाँधी पर फोकस किया और RSS को खुला मैदान मिल गया।

2012 मे एक और घटना हुई भारत का स्टॉक मार्केट बहुत तेजी से गिरा क्योंकि विदेशी निवेशक भागने लगे ठीक इसके विपरीत गुजरात की समिट सफल रही और गुजरात को अरबो डॉलर का अप्रत्यक्ष निवेश मिला। फेसबुक व्हाट्सप्प नए थे इसलिए कोई भी न्यूज़ घर घर मे तेजी से फ़ैल रही थी।

2013 आते आते लोगो का कांग्रेस से दम घुटने लगा, मोहन भागवत ने 2012 के गुजरात चुनाव के बाद ही नरेंद्र मोदी को सूचित कर दिया था की अब गांधीनगर छोड़ दिल्ली जाने का समय आ गया है। हालांकि ये तब भी नहीं बताया था की दिल्ली प्रधानमंत्री बनकर जाना है।

अमित शाह को उत्तरप्रदेश भेज दिया गया, इसी बीच नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लग गए और संघ ने फ़ौरन गडकरी का इस्तीफ़ा लेकर फिर से राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बना दिया। ये भी एक सर्कस ही समझो की आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने की शपथ लेने वाले राजनाथ सिंह से ही नरेंद्र मोदी का नाम सार्वजनिक करवाया गया।

आगे तो जो हुआ वो इतिहास है, बीजेपी 116 से सीधे 282 पर आ गयी। ये जो लोग आज 240 मे मुँह फुला रहे है ये शायद नहीं जानते या भूल गए की 2014 मे यदि 240 आयी होती तो भी बीजेपी ने जश्न मनाया होता क्योंकि हालात उतने अच्छे नहीं थे।

बाद मे कई गलतियां मोदीजी ने भी की तो कई मोहन भागवत ने, 2024 मे जेपी नड्डा ने जो हरकत की वो संघ परिवार पर अब तक का सबसे बड़ा कलंक थी और ये एक कारण भी था की थोड़ा नुकसान हो गया।

लेकिन फिर भी ओवरआल देखा जाए तो ये रिश्ते हॅसते खेलते चल रहे है और ये एक बड़ी वज़ह है की जब तक RSS है बीजेपी को कुछ नहीं होगा। संभव है बीजेपी एक दो चुनाव हार भी जाए मगर कांग्रेस जैसा बेड़ा गर्क भी नहीं होने वाला।

बहुत लोग मोदीजी से चिढ़े हुए है की इनके आने के बाद हिंदुत्व का कुछ ज्यादा ही प्रचार हुआ है। कट्टर हिन्दू है तो इन्हे हटा दो लेकिन ये नादान इस बात से अंजान है की 2029 मे जिस दिन मोदी हटे उस दिन उनसे भी ज्यादा हार्ड चेहरा आ जायेगा।

इस समय साइज के हिसाब से बीजेपी को सिर्फ कांग्रेस टक्कर दे सकती है लेकिन उसने 99 सीटों पर ही जो जश्न मनाया है उससे यही लग रहा है की इनकी दौड़ ज्यादा से ज्यादा 120 तक ही है। कांग्रेस को दो काम करने होंगे, पहला गाँधी परिवार को ढोना बंद करो दूसरा अपनी पार्टी के अंदर एक मोहन भागवत या पवन कल्याण जैसा नेता तराशो।

आर्यभूमि : The Land of Aryans

16 Nov, 08:19


कनाडा मे कुछ सिखो ने जो बेवकूफी की उससे दो सबक ले लो

पहला आप जिस देश मे जाओ वहाँ की संस्कृति का सम्मान करो अपना थोपने की कोशिश मत करो। दूसरा देश मे तानाशाही ले आओ मगर राहुल गाँधी और जस्टिन ट्रूडो जैसे नेता मत पैदा करो।

गुरु नानक जयंती निकली लेकिन इस बार खालिस्तान का मुद्दा ऐसा गरम था की किसी ने उसे अपनेपन से नहीं मनाया अन्यथा गुरुपर्व या प्रकाश पर्व ये शब्द ही हिन्दू संस्कृति मे सार्थक है। हिन्दुओ की इस नफ़रत का पूरा श्रेय पंजाब के उन ग्रंथियो को जाता है जिन्होंने खालिस्तान का विरोध नहीं किया।

कुछ सिखो ने कनाडा मे नारे लगा दिए की कनाडा हमारा है और श्वेतो को यूरोप चले जाना चाहिए। ये जस्टिन ट्रूडो की राहुल नीति की देन है, जस्टिन ट्रूडो ने वोट बैंक के लालच मे सिखो के ख़ालिस्तानी आंदोलन को बिना सोचे समझें अंधा समर्थन दिया।

ख़ालिस्तानियों मे एक उम्मीद बैठा दी की खालिस्तान बन सकता है, अब दिक्क़त ये हो गयी की उनकी भूख तो बढ़ गयी मगर भारत मे शासन इतना सशक्त है की तथाकथित खालिस्तान सिर्फ ड्रग्स सप्लाय तक सीमित होकर रह गया।

2024 के चुनाव मे कांग्रेस लगातार तीसरी बार हारी और इन्हे समझ आ गया की अभी तो खालिस्तान 5 साल और भूल जाओ। इसलिए सॉफ्ट टारगेट पर आया कनाडा, कनाडा के लोग तन से ही नहीं मन से भी खूबसूरत है और शांत है।

इसलिए अब ये उनके पीछे पड़ गए "गोरो कनाडा छोड़ो", अब ये जो समस्या भारत की होनी थी वो कनाडा की हो गयी और सारा श्रेय जाता है कनाडा के राहुल गाँधी यानि जस्टिन ट्रूडो को। जिनकी 2015 मे 68% अप्रूवल रेटिंग हुआ करती थी अब 30% रह गयी है।

इन राहुल गांधीयो या जस्टिन ट्रूडो के साथ यही समस्या रहती है इन्हे सत्ता की ऐसी भूख होती है की एक बार को ये सोच लेते है की देश मेरा नहीं हो सकता तो इसके होने का भी कोई मतलब नहीं।

ये तो नेता चुनने की बात हुई लेकिन समाज के रूप मे हमें भी परिपक्व होना होगा। अंग्रेजो ने 130 साल भारत पर राज किया है, बिल्कुल वे ख़राब थे मगर आज जो लंदन मे उनके बच्चे रह रहे है वे हमारे दुश्मन नहीं है।

यूनाइटेड किंगडम का कोई भी नागरिक अब हमारा शत्रु नहीं होना चाहिए क्योंकि उसके मन मे भी भारत को नुकसान पहुंचाने का कोई ख्याल नहीं है। ये ही बाते मुसलमानो पर लागू होती है, आज मुसलमानो को गजवा ए हिन्द दिख रहा है उनका इतिहास देखकर हम भी ये नहीं कह सकते की ये आगे शांत बैठेंगे इसलिए हम लड़ रहे है।

लेकिन जिस दिन मुसलमान सामूहिक रूप से कहने लगे की कोई दारुल इस्लाम या कोई गजवा ए हिन्द नहीं, हम भारत की जो संस्कृति है उसका सम्मान करते है और भारत सभी देशो मे सबसे महान देश है। उसी दिन मुसलमानो से भी बेर ख़त्म कर देना, ये लड़ाई स्थाई नहीं है।

ये धर्मयुद्ध सिर्फ तब तक है जब तक इस्लामिक कट्टर पंथी गैर मुसलमानो के सफाये की अवधारणा नहीं बदलते और ख्याली पुलाव से ऊपर विज्ञान की राह नहीं पकड़ते। ये संप्रदाय, जाति और पंथ की लड़ाई सिर्फ नुकसान करती है।

जिन सिखो को 10 साल पहले एक सैनिक के रूप मे देखा जाता था आज लोगो को उन्हें देखकर यदि नफरत हो रही है तो ये दर्शाता है की समाज का आचरण बदलना आवश्यक है। ये सब बाते हिन्दुओ पर भी लागू हो उससे पहले बेहतर है हम खुद ही संभल जाए।

हमारा दुश्मन कोई नहीं है, कनाडा मे भी जस्टिन ट्रूडो की सरकार अगले साल गिर जायेगी तो किसी भी कनाडाई लड़के या लड़की को देखकर नफ़रत करने की आवश्यकता नहीं है। वो भी हमारा ही परिवार है, राजनीतिक सीमाये मनुष्य ने बनाई है ये ईश्वर प्रदत्त नहीं है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

15 Nov, 13:10


मजहब हमेशा संस्कृति की तुलना मे ज्यादा भयानक होता है मगर अंत मे नहीं जीत पाता।

भारत मे जो आप देख रहे है की कही पटरी उखाड़ी जा रही है तो कही हत्या हो रही है ये सब बुझने वाले दिये जैसा है। थोड़ा इतिहास मे जाइये और सोचिये हिन्दू धर्म कैसे स्थापित हुआ?

जब मनुष्य दर दर भटक रहा था, एक दूसरे को शिकार करके खा रहा था तब मनु को ज्ञान की प्राप्ति हुई और एक सभ्यता की नींव पड़ी यही सभ्यता आगे चलकर हिन्दू धर्म कहलायी।

इसलिए हिन्दू धर्म के मूल मे आपको हमेशा जीवन पद्धति दिखाई देगी क्योंकि उस जमाने का प्रॉब्लम स्टेटमेंट यही था जिसका समाधान हिन्दू धर्म ने ढूंढा।

आज भी हिन्दू धर्म यदि बचा है तो वो इसी कारण से बचा है। ठीक यही समस्या मध्य पूर्व के लोगो ने महसूस की और एक नयी सभ्यता विकसित हुई जो कालांतर मे यहूदी धर्म कहलायी। हिन्दू और यहूदी दोनों धर्मों मे अनेक विविधता है, लेकिन दोनों मे कभी धर्म के आधार पर युद्ध नहीं हुए क्योंकि दोनों के मूल मे सभ्यता का विकास था।

अब आगे बढ़ते है जब दोनों धर्मों मे रूढ़िवाद शुरू हुआ तो इनके नए वर्जन पनपने लगे। जैसे हिन्दू का बौद्ध और यहूदी का ईसाई, हालांकि भारत मे शांति थी मगर मध्यपूर्व मे भयावह हिंसा शुरू हो गयी और ऐसे मजहब का गणित सेट हुआ।

इस्लाम का जब उदय हुआ तो सऊदी अरब मे एक समृद्ध यहूदी संस्कृति थी। खुद इस्लाम कहता है कि हजरत मुहम्मद की पहली पत्नी खादिजा एक सफल व्यापारी थी तो इसका मतलब तो यही हुआ कि इस्लाम से पहले कोई जेहालत नहीं थी बल्कि समृद्ध यहूदी संस्कृति थी।

मगर इस्लाम की नींव ही इस पर पड़ी कि सऊदी की ये संस्कृति एंटी इस्लाम है और इसे नष्ट करना है। मदीना मे जहाँ यहूदी अपने देवी देवताओं की पूजा करते थे मुहम्मद ने स्वयं उन्हें नष्ट किया। इसके बाद इस्लाम जहाँ भी गया वहाँ उसने पुरानी सभ्यता को ध्वस्त किया और इस्लामिक स्वरूप दिया।

भारत मे कुतुबमीनार और अढ़ाई दिन का झोपड़ा इसके सर्वोत्तम उदाहरण है। इस्लाम की यही नींव आज भी केरी फॉरवर्ड हो रही है और ये होती रहेगी। भारत मे हिन्दू बुरा है, म्यांमार मे बौद्ध बुरा है, अमेरिका मे ईसाई बुरा है और इजरायल मे यहूदी बुरा है। इस्लाम की ये धारणा कभी नहीं बदल सकती क्योंकि नींव ही यही है।

इसी वज़ह से आप इन्हे बांट भी नहीं सकते, आपने 1971 मे बाँटा नतीजा क्या हुआ की दोनों बंटकर फिर एक हो गए क्योंकि नींव तो वही है, ये ही बलूचिस्तान मे होगा और फिर कुर्दीस्तान मे। इसके विपरीत हिन्दू हमेशा सोते हुए प्रतीत होगा क्योंकि वो सभ्य ढंग से समाधान ढूंढेगा।

साधारण हिन्दू और यहूदी आपको हमेशा ये ही बाते करते मिलेंगे की रोटी कैसे खाये, पेड़ कैसे बचाये। ये कट्टरता तो अभी अभी आयी है, लेकिन इस कहानी का एक पहलू यह है की हिन्दू और यहूदी दोनों धर्म जब चाहे तब अन्य धर्मों का खात्मा कर सकते है।

ये हो भी रहा है बस तरीके अलग अलग है, इस्लामिक आतंक के मेग्निट्यूड को आप 4 भागो मे विभक्त कीजिये और विचार कीजिये हमारी उनके साथ डीलिंग मे क्या क्या परिवर्तन आये है। 1994 मे वे भयानक रूप से हावी थे, 2004 मे स्थिति थोड़ी नॉर्मल थी, 2014 मे समाज जागृत हुआ और 2024 मे आज अपर हैंड तो हमारा ही है।

वे तो लड़ेंगे ही, 20 करोड़ तो क्या एक लाख भी हुए तो भी लड़ेंगे क्योंकि नींव ही लड़ाई है। समस्या थोड़ी सी हमारी है और ये आज की नहीं सदियों की समस्या है, रावण के आतंक से जब कई पीढ़ियां व्यर्थ हो गयी तब राम जन्मे, पांडवो से पहले ना जाने कितने योग्य राजकुमार लाक्षागृह मे जला दिए गए तब समाज मे कृष्ण जन्मे।

देर से जागना तो हमारी नियत मे ही है लेकिन ये भी एक बात है की ज़ब ज़ब हम जागे तब तब पूर्ण समाधान किया है। आज रावण या दुर्योधन का नाम लेने वाला कोई नहीं बचा कुछ ऐसा ही सभ्यता के शत्रुओ के साथ भी होगा।

जरूरत है तो बस ये की उनके आतंकवाद को रो रोकर ओवररेट मत करो। दूसरा समाज को जागृत करो, राजनीति और समाज की बाते करने मे झिझकने की आवश्यकता नहीं है खुलकर करो। ये धर्मयुद्ध जीता जा सकता है और हम जीत भी रहे है बस ये जो चूड़ी तोड़ने वाले कुछ कट्टरपंथी जन्मे है इनसे बचकर रहो।

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आर्यभूमि : The Land of Aryans

13 Nov, 06:46


अमेरिका ने उबड़ खाबड़ अफगानिस्तान बचाने के लिये खुद समेत पूरी दुनिया को वात्या भट्टी मे बैठा दिया।

1978 मे सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और अमेरिका को डर था की अफगानिस्तान कम्युनिस्ट देश ना बन जाए। इसलिए अमेरिका ने तालिबान को खड़ा किया, इस प्रोसेस मे अमेरिका ने ईरान को लगभग नकार ही दिया।

1979 मे ईरान मे हुई इस्लामिक क्रांति की एक बड़ी वजह यह भी थी की ईरान के राजा को अमेरिका से मदद नहीं मिली। ईरान मे जो अमेरिका को नुकसान हुआ वो अफगानिस्तान से बड़ा था। 1980 जिमी कार्टर चुनाव हार गए और रोनाल्ड रीगन राष्ट्रपति बने।

रोनाल्ड रीगन जितने मार्जिन से जीते उतनी बड़ी जीत मैंने किसी लोकतंत्र मे नहीं देखी। लेकिन रीगन ने फिर भी अपनी नीति नहीं बदली और तालिबान को फंड देते रहे। समस्या सिर्फ तालिबान की नहीं थी, ईरान मे शिया आंदोलन की वजह से सऊदी अरब ने वहाबी आंदोलन शुरू कर दिए।

आप खुद देखे तो 1980 के बाद तब्लीगी जमात और वफ्फ बोर्ड को भयंकर फंडिंग मिली। ये फंडिंग सुन्नी इस्लाम को कटटर करने की थी, रोनाल्ड रीगन ये तमाशा देखते रहे और भारत समेत अमेरिका और यूरोप मे इस्लामिक कट्टरपंथ का जहर फैलता गया।

एक नेता के रूप मे हम भी रोनाल्ड रीगन का सम्मान करते है उनकी जगह कोई डेमोक्रेट बैठा होता तो और समस्या फैलती। ठीक है जो हो गया सो हो गया मगर अब 2024 है, डोनाल्ड ट्रम्प बिल्कुल प्रैक्टिकल सोच रहे है।

इस समय दुनिया मे दो ही कैंसर है एक चीन दूसरा ईरान। चीन दुनिया को आर्थिक रुप से अस्थिर कर रहा है तो ईरान आतंकवाद फैलाकर सभ्यता की राह मे रोढ़ा बन रहा है। ट्रम्प नाटो के खिलाफ है क्योंकि नाटो का जन्म सोवियत संघ के कम्युनिज्म को रोकने के लिये था।

अब सोवियत संघ की जगह रूस ले चुका है और कम्युनिज्म का ठेकेदार चीन है। इसलिए ट्रम्प दो काम करेंगे पहला रूस का कल्याण ताकि उसकी चीन पर से निर्भरता खत्म हो और चीन को थोड़ा आइसोलेट कर सके। दूसरा इजरायल को फ्री हैंड देंगे की जो बने करो।

अब इजरायल हमास की सुरंगो मे समुद्र का पानी भर सकता है जिसके जो बाइडन खिलाफ थे। इजरायल के 100 जहाज ईरान के आसमान मे थे लेकिन ये अमेरिकी दबाव ही था जो आग नहीं उगली, अब कोई दबाव नही होगा।

लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से यदि किसी से खुश हुआ तो वो है सऊदी अरब और अफगानिस्तान, आप देखिये पिछले सात सालो मे भारत मे इस्लाम की लड़ाई मुठभेड़ो तक सीमित हो गयी क्योंकि तब्लीगी जमात को सऊदी अब आतंकी संगठन मानता है और फंडिंग नहीं करता।

दूसरी तरफ अफगानिस्तान है, 15 अगस्त 2021 को जब तालिबान के लड़ाके काबुल मे घुसे तो सबसे बड़ा सिरदर्द ये था की पाकिस्तान का यह बेटा भारत मे आतंकवाद को बढ़ावा ना दे। लेकिन तालिबान ने अशरफ घनी से ज्यादा इम्प्रेस कर दिया।

तालिबान ने कश्मीर को भारत का आंतरिक मुद्दा कह दिया, भारत के बंद हो चुके प्रोजेक्टस की सुरक्षा बढ़ा दी और तो और पाकिस्तान मे ही आतंकी हमले शुरू कर दिए। पाकिस्तान मे चीनियों को बलूचिस्तान वाले तो पीट ही रहे है मगर पाकिस्तानी तालिबान भी पीछे नहीं है।

इसलिए 1978 मे अमेरिका ने जो गलत राह पकड़ी थी दुनिया 2024 मे अब यूटर्न ले रही है और फिर शांति की ओर बढ़ रही है। वो बात ठीक है शांति थोड़ी बहुत हिंसा करके ही आएगी मगर स्थापित हो जाएगी।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

10 Nov, 07:46


1)
https://www.conservative.ca/just-the-facts-canadians-feeling-hopeless-after-nine-years-of-trudeau-2/

2)
https://www.conservative.ca/liberal-minister-tells-canadians-that-trudeaus-crime-wave-is-all-in-their-heads/

3)
https://www.conservative.ca/justin-trudeau-has-made-canadian-streets-unsafe/

आर्यभूमि : The Land of Aryans

10 Nov, 07:43


कनाडा मे हिन्दू मंदिर पर हुए हमले के बाद कुछ सिखो से बात की।

एक सिख सहकर्मी से बात हुई जो की पटियाला से है। उसने प्रतिप्रश्न रख दिया कि यदि कोई जाट शराब पीकर किसी मंदिर के सामने हंगामा कर दे तो क्या आप कभी पूरे जाट समुदाय से प्रश्न पूछोगे? हम तो खुद मंदिर पर हुए हमले से गुस्से मे है।"

एक झारखंड के सिख है उन्होंने कहा कि मैं सिख हुँ मगर पंजाबी नहीं इसलिए खालिस्तान की समस्या मेरे लिये वैसी ही है जैसी बाकि हिन्दुओ के लिये है।

कुछ और भी राय मिली जो कि सकारात्मक थी, मगर एक बात कॉमन थी और वो ये कि जब सिख ख़ालिस्तानियों को कुछ समझाने की कोशिश करते है तो ख़ालिस्तानी मर्यादा पार करके बदतमीजी करते है।

इसलिए सिख खुलकर कुछ बोलने से बच रहे है लेकिन ये दरवाजा बंद हो रहा है। खालिस्तान के आंदोलन की सफलता सिखो पर नहीं हिन्दुओ पर भी निर्भर करती है, जिस दिन हिन्दुओ ने धैर्य तोड़ा और सिखो पर हमले शुरू किये समझो खालिस्तान का विचार खिल उठेगा।

सिखो को और ज्यादा गेस्चर दिखाना ही पड़ेगा और हिन्दुओ को अपना विरोध बहुत सोच समझकर दर्ज करना होगा। ख़ालिस्तानियों की वजह से कनाडा मे हिन्दुओ की नहीं बल्कि सिखो की बेज्जती हो रही है।

एक ज़माने मे पग धारण किया हुआ सरदार सिपाही लगता था मगर अब गौरो को उसमे घुसपैठिया दिखता है। ये जस्टिन ट्रूडो की घटिया राजनीति की देन है। जिसे वहाँ के ख़ालिस्तानी स्वर्ग समझ रहे है, पता नहीं सिखो ने गौर किया या नहीं मगर ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड मे भी सिखो को अब नस्लवाद का सामना करना पड़ रहा है।

उस मंदिर पर हुए हमले मे दो सकारात्मक डेवलपमेंट हुई, पहला हिन्दुओ ने सड़को पर आकर पहली बार एकजुटता दिखाई दूसरा कनाडा की श्वेत आबादी हिन्दुओ के साथ आयी। जस्टिन ट्रूडो ने सच मे खुद को कनाडा का राहुल गाँधी ही सिद्ध किया।

एक बात और समझ लीजिये कि ख़ालिस्तानी भारत मे नहीं कनाडा मे रहते है। ड्रग्स, गैंग वॉर और अपराध से कनाडा का समाज पीड़ित हो रहा है। मैं अपने टेलीग्राम और व्हाट्सप्प चैनल पर 3 आर्टिकल भेज रहा हुँ, ट्रूडो के विपक्षीयो ने नंबर्स के साथ ये बात कही है।

इसलिए कैंसर कनाडा पाल रहा है भारत नहीं, भारत मे G20 सम्मलेन के समय एक मेट्रो पीलर के नीचे खालिस्तान जिंदाबाद लिख दिया था। उसके बाद दिल्ली पुलिस ने जो तोड़ा तो कोई बचाने भी नहीं आया। भारत मे खालिस्तान का बस इतना रोल है।

भारत मे सिख आबादी दो करोड़ है यदि इनमे से 10 लाख भी ख़ालिस्तानी होते तो दिल्ली मे नहीं भी तो अमृतसर मे तो धमाके हो रहे होते। इसे आप मुसलमानो से समझ लीजिये, मुसलमानो की आबादी दस हजार भी हो जाती है तो मोहल्ला ही नहीं पूरे शहर मे आतंकवाद शुरू हो जाता है।

पंजाब के संकट को बिल्कुल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन मुट्ठी भर मूर्खो के लिये पूरे सिख समाज को कटघरे मे लेकर हम भारत को नहीं बल्कि जस्टिन ट्रूडो और राहुल गाँधी को जीता रहे है।

कड़वाहट आ गयी है इसमें कोई दोराय नहीं मगर इस समय इसका निवाकरण सामाजिक नहीं बल्कि कूटनीतिक ढंग से होना चाहिए।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

06 Nov, 08:45


भारत की रक्षा प्रकृति स्वयं करती है, आज अमेरिका मे वही हुआ।

पहला चरण था बीजेपी 2024 का चुनाव ही हार जाती, मगर नहीं हारी। इसलिए राहुल गाँधी को अमेरिका बुलाकर भारत के खिलाफ प्रो ख़ालिस्तानी बयान दिलवाया गया।

दूसरा चरण था कि हरियाणा मे कांग्रेस को लाकर पंजाब से दिल्ली तक ड्रग्स और ख़ालिस्तानी आतंकवाद की चेन बनाते मगर बीजेपी हरियाणा भी जीती।

आखिरी चरण यही था कि अमेरिका मे डेमोक्रेट्स बने रहे मगर ट्रम्प चचा ने जो पटखनी दी उसके बाद भारत मे अस्थिरता पैदा करने के प्रयासों का भी आधिकारिक अंत हुआ और एक बड़ा संकट टल गया। बस अब डोनाल्ड ट्रम्प अपने पुराने दुश्मन ईरान पर वक्र दृष्टि डालकर, ग्रेटर इजरायल की थ्योरी पर विचार करें। IMEC कोरिडोर का मार्ग प्रशस्त कर दे।

एक बार कोरिडोर बना तो भारत की उपयोगिता इतनी ज्यादा हो जायेगी कि उसे अस्थिर करने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा। एक बार यहूदी बहुल ग्रेटर इजरायल बन गया तो हिन्दू बहुल अखंड भारत का ब्लू प्रिंट भी तैयार हो जाएगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

03 Nov, 06:06


1 नवंबर को मध्यप्रदेश अपना स्थापना दिवस मना रहा था, आप सबको मध्यप्रदेश बीजेपी का गढ़ लगता होगा लेकिन बहुत कम लोग जानते है कि ये कभी कांग्रेस का अभेद किला बन चुका था।

बिहार का जंगल राज तो नहीं बल्कि उससे मिलता जुलता राज मध्यप्रदेश ने 1993 से 2003 तक 10 साल देखा था। वो 10 साल जिन्हे याद कराके बीजेपी आज भी चुनाव जीत रही है, आज भी दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश वालो के लिये किसी भूत से कम नहीं है।

बात 1993 के चुनाव की है मध्यप्रदेश की 320 मे से कांग्रेस को 174 सीटें मिली। कांग्रेस की भीतरी महाभारत के बाद दिगविजय की मुख्यमंत्री बनने की राह आसान हो गयी और जैसे ही कांग्रेस युग आरंभ हुआ मध्यप्रदेश के पाकिस्तान बनने की दस्तक भी होने लगी।

समुदाय विशेष का तुष्टिकरण आसमान पार पहुँच रहा था, ऐसा लग रहा था की बाबरी विधवंस का बदला मध्यप्रदेश की जनता चुकायेगी। मुसलमान सड़को पर यह कहते सुना जाता था की ये जो भी घर बनवा रहे हो अच्छे बनवाना क्योंकि इसमें हम रहेंगे।

दिग्गी का आधिकारिक बयान था की सड़के बनवा कर चुनाव नहीं जीते जाते बल्कि राजनीतिक प्रबंधन से जीते जाते है।

भू माफियाओ का आतंक बढ़ रहा था, सड़के खराब होना छोड़ो थी ही नहीं, 2002 मे गुजरात मे दंगे हुए। गुजरात मध्यप्रदेश से पुलिस सहायता मांगता रहा और दिग्विजय सिंह ने कोई मदद नहीं भेजी। लेकिन वो 2002 अंतिम बार था जब मध्यप्रदेश मे कांग्रेस देखी गयी थी।

2003 मे चुनाव हुए और कांग्रेस सिर्फ 38 सीटों पर सिमट गयी, वो दिन था और आज का दिन है कांग्रेस ने आजतक 100 का आंकड़ा सिर्फ एक बार पार किया है और जिसके नाम पर पार किया वो ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अब बीजेपी मे है।

कोई भी चुनाव हो बीजेपी जब देखती है की जीत मुश्किल है तो दिग्विजय सिंह का नाम प्रयोग करती है, दिग्विजय सिंह वो काली याद है जिसे 2003 के बाद जन्मा बच्चा भी नहीं जीना चाहता क्योंकि वो दिन अब लोककथाओं तक मे मशहूर है।

दूसरी ओर कांग्रेस की मज़बूरी ये है की उन 10 सालो मे दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश मे कोई बड़ा कांग्रेसी नेता नहीं उठने दिया। हर विधानसभा सीट पर दिग्विजय के ही कार्यकर्ता घूमते दिखाई देंगे।

कांग्रेस का पतन बीजेपी के लिये जानना बहुत जरूरी है, बीजेपी ने शिवराज को हटाकर मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया हुआ है।

हो सकता है ये सिर्फ व्यक्तिगत आंकलन हो मगर इन 10 महीनो मे जितनी बार मध्यप्रदेश आना हुआ लोग यही कह रहे है की अपराध बढ़ रहे है। गुजरात और उत्तरप्रदेश हमारे पड़ोस मे ही है मगर जिस तरह से विदेशी निवेश उन्हें मिल रहा है वो सीखने योग्य है।

गुजरात और उत्तरप्रदेश का आप प्रशासन देखिये, वहाँ के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टस इतने विकसित हो गए है जिसकी अभी तक हमने ब्लु प्रिंट भी नहीं बनाई है। वे दो राज्य सेमीकण्डक्टर चीप की फैक्ट्री के लिये निवेशक ढूंढ़ रहे है और हम भूमि अधिग्रहण मे ही जूझ रहे है।

ये बहुत बड़ा अलार्म है क्योंकि मध्यप्रदेश मे बीजेपी अपनी सबसे बड़ी ऊंचाई पर है और ऐसे मे कमान एक बेहद कमजोर मुख्यमंत्री के हाथ मे है। हर बार दिग्विजय के खौफ से जीत मिल पाए इसकी कोई गारंटी नहीं है।

मध्यप्रदेश को गुजरात या उत्तरप्रदेश की तर्ज पर बढ़ाने की सख्त जरूरत है, इतनी मेहनत से बना किला किसी अन्य पार्टी को भेंट करना महामूर्खता होंगी। हो सकता है मोहन यादव नए है इसलिए दिक्क़त आ रही हो मगर थोड़ा गति देनी होंगी।

विशेषार्थ - उत्तरप्रदेश और गुजरात का नाम मापदंड के लिये प्रयोग किया है कृपया प्रान्तवाद से ना जोड़े। देश एक ही है और सब अपने है मगर यदि पडोसी राज्यों से 2-4 पाठ पढ़ ले तो कोई पाप नहीं होगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

28 Oct, 08:57


Document from Parakh Saxena

आर्यभूमि : The Land of Aryans

28 Oct, 08:55


3 दिन पहले जर्मनी के चांसलर आकर गए और अब स्पेन के प्रधानमंत्री आये है। यदि भारतीय मीडिया को इस यात्रा मे TRP नहीं दिख रही है तो ये दर्शाता है की हम कितना ही अखंड भारत की बात कर ले लेकिन हमारी समझ मजबूत भारत जितनी भी नहीं है।

1997 मे आई के गुजराल की सरकार थी और नौसेना के लिये बजट बहुत कम था, इसलिए नौसेना ने पैसा खर्च करने की जगह उसे बचाया ये रकम महज 4 अरब डॉलर की थी। नौसेना ने कुछ सबमरिन की डिजाइन तैयार की और दुनिया भर की कम्पनियो से बात की।

लेकिन इस डिजाइन के अनुसार आज तक कोई कंपनी सबमरीन नहीं बना सकी। वाजपेयी सरकार ने इस प्रोजेक्ट को रफ़्तार दी थी मगर फिर 10 साल अर्थशास्त्री की सरकार आयी और ये प्रोजेक्ट सुन्न पड़ गया। फिर मोदी जी आये तो इन्होने और परेशानी बढ़ा दी।

मोदी सरकार ने ये नियम भी जोड़ दिया की मेक इन इंडिया के अनुसार ये सबमरीन भारत मे बनाओ। हालांकि इसके विकास को लेकर मोदीजी ने सबसे ज्यादा काम किया और हजारों मीटिंग्स हुई लेकिन बात नहीं बनी।

फिर कुदरत का निज़ाम हुआ और रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया, भारत का स्टैंड आप सबको पता ही है। ये स्टैंड जर्मनी को ज्यादा खटका, बहुत लोग नहीं जानते की अमेरिका से ज्यादा रूस ब्रिटेन और जर्मनी का दुश्मन है।

जर्मनी के चाँसलर औलाफ शोल्ज ने जर्मन पार्लियामेंट मे एक डॉक्यूमेंट भेजा "फोकस ऑन इंडिया"। ये डॉक्यूमेंट मैं अटैच कर रहा हुँ आप भी पढ़ लीजिये।

इस डॉक्यूमेंट के अनुसार जर्मनी भारत की रूस पर से निर्भरता खत्म करेगा। अब रूस से हम सिर्फ रक्षा उपकरण और तेल ही आयात करते है, जाहिर है जर्मनी तेल का कुछ नहीं कर सकता लेकिन रक्षा क्षेत्र मे जर्मन टेक्नोलॉजी का कोई तोड़ नहीं है।

इसलिए जर्मनी के चांसलर शोल्ज दिल्ली आये थे, उनके साथ जर्मन कम्पनियो के CEOs भी आये जिन्होंने नौसेना के अधिकारियो से बात की। शोल्ज इसके बात गोवा गए और जर्मनी की नौसेना के साथ फोटो खिचवाया ताकि चीन को संदेश दें सके की जर्मनी ने भारतीय प्रशांत सागर मे दस्तक दें दी है।

शोल्ज का जाना हुआ और स्पेन के प्रधानमंत्री पेडरो भारत आ गए। बोल रहे है की हम तो वडोदरा मे फीते काटने आये है, तो भाई आपकी कम्पनियो के CEO दिल्ली मे नौसेना अधिकारियो के साथ क्या कर रहे है?

स्पेन और जर्मनी का ये कम्पटीशन सदियों पुराना है, अच्छी बात ये है की ये दोनों अपने स्वार्थ के लिये भारत की मदद कर रहे है और ये इतिहास मे पहली बार हो रहा है। मगर इतनी बड़ी डेवलपमेंट की कोई खबर नहीं है।

ये चुनाव चलते रहेंगे, मगर ये मत भूलो की अखंड भारत चाहिए तो असली लड़ाई चीन से है। अफगान, पाक, बांग्ला और बर्मा तो भूख प्यास से खुद ही मर जाएंगे, सेना बस मार्च करने जायेगी। युद्ध चीन से ही लड़ना पड़ेगा।

हमें दो चीजें चाहिए एक जर्मनी की तकनीक भारत मे आये दूसरा जिनपिंग चीन मे बने रहे क्योंकि जर्मन टेक्नोलॉजी दुनिया की सबसे अच्छी तकनीक है और जिनपिंग चीन को अंदर से खोखला कर रहे है।

ये तय समझो कि ये बात 4 अरब डॉलर पर नहीं रुकेगी बल्कि आगे 20-25 अरब डॉलर तक जायेगी, निवेश आएगा जॉब बढ़ेगी और तकनीक उन्नत होंगी इसलिए वी लव जर्मनी एंड स्पेन।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

27 Oct, 09:17


कांग्रेस का उद्धव घर का ना घाट का।

पिछले 10 साल मे अरविन्द केजरीवाल के बाद यदि सबसे नीच कोई नेता हुआ तो वो उद्धव ठाकरे ही है। केजरीवाल ने तो खुद की ही इज्जत मिट्टी पलित की लेकिन उद्धव ठाकरे ने अपने पिता से मिला सबकुछ गवा दिया।

2014 मे महाराष्ट्र मे चुनाव थे, 288 सीटों पर बीजेपी और शिवसेना को मिलकर लड़ना था। लेकिन उद्धव ठाकरे चाहता था की बीजेपी 119 पर लड़े और वो खुद 151 पर। बीजेपी नहीं मानी और दोनों अलग अलग लड़े।

बीजेपी को 122 सीटें मिली जबकि शिवसेना को 63, अब आप खुद सोचकर देखिये किसमे कितनी कुबत थी। बाद मे दोनों ने गठबंधन की सरकार की, मगर बीजेपी समझ गयी थी की बाला साहेब के बाद शिवसेना से ज्यादा सीट शेयर करना मतलब सीटें कांग्रेस को दान करना है।

लेकिन फिर भी बीजेपी ने बड़ा दिल दिखाया और 2019 मे साथ लड़े लेकिन इस बार उद्धव ठाकरे ने धोखा दें दिया और वो कांग्रेस NCP से जा मिला। विधि का विधान भी देखिये वो मुख्यमंत्री बना और अगले ही साल कोरोना आ गया, 2 साल महाराष्ट्र की हालत खराब हो गयी।

उद्धव ठाकरे ने बाला साहेब का हिंदुत्व त्याग दिया बल्कि कुछ फैसले तो ऐसे लिये जिससे वो एक वामपंथी दिखने लगा। उद्धव ठाकरे खुद हिंदुत्व का मज़ाक बनाने लग गया लेकिन आत्मा उद्धव की मरी थी कुछ शिवसैनिको की नहीं।

इसलिए 2022 मे एकनाथ शिंदे ने बगावत कर दी और उद्धव ठाकरे के इतने विधायक तोड़ दिए की उद्धव के हाथ से पार्टी ही छीन गयी। फिर से बीजेपी शिवसेना का गठजोड़ हो गया और इनकी सरकार लौट आयी। अगले साल NCP खुद टूट गयी और अजीत पवार ने उस पर कब्जा कर लिया। जिससे NDA आज मजबूत है।

अब 2024 के चुनाव है जो उद्धव ठाकरे बीजेपी से 150 सीटें माँगा करता था कांग्रेस ने उसे 90 पर सिमट दिया है। उद्धव ठाकरे की शिवसेना को कांग्रेस ने सीट इतनी कम दी है की इस बार वो महाराष्ट्र की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी नहीं रहने वालीं।

राहुल गाँधी तो इतने मे भी गुस्सा है और ये गुस्सा गलत नहीं है। शिवसेना को 90 सीटें देकर कांग्रेस घाटे का सौदा कर रही है, उद्धव ठाकरे का अब तक का रिकॉर्ड 40% के आसपास है मतलब आप 50-60 सीटें NDA को दान करने वाले हो।

उद्धव ठाकरे ने बीजेपी से फिर बात करने की कोशिश की। लेकिन कहते है की जिस रास्ते को पार कर लिया उसे तोड़ो मत क्या पता उसी रास्ते वापस जाना पड़े।

बीजेपी ने उद्धव ठाकरे को कोई घास नहीं डाली, अब महाराष्ट्र मे होगा ये की बीजेपी ही सबसे बड़ी पार्टी होंगी, दूसरी कांग्रेस होंगी, तीसरी शरद पवार की NCP, चौथी एकनाथ शिंदे की शिवसेना। उद्धव ठाकरे की शिवसेना अपने अस्तित्व के लिये लड़ती दिखाई देगी की कही अंतिम ना आ जाए।

10 साल पहले उद्धव ठाकरे को अपने पिता से 140 सीटों पर वर्चस्व मिला था लेकिन मुख्यमंत्री बनने की महत्वकांक्षा की वजह से आज वो ना तो मुख्यमंत्री है, ना कभी दोबारा बन पायेगा, ना उसके पास अपने पिता की पार्टी है, ना ही उसके पास हिंदुत्व की विरासत बची और तो और इस बार उसे खुद को सबसे निचला होने से बचाना है।

कांग्रेस ने सच मे बड़ा दिल दिखाया है, जब एकनाथ शिंदे ही 60 सीटों पर लड़ रहे है तो तुमने कहाँ उद्धव ठाकरे को 90 सीटें दें दी। इससे अच्छा तो इसे अलग ही कर देते कम से कम कुछ नयी सीटों पर वर्चस्व तो मिलता। जिंदगी मे पहली बार राहुल गाँधी से सहमति बनी है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

26 Oct, 03:12


इजरायल ने ईरान पर आक्रमण कर दिया है।

आप तय मानो ये दूसरा गल्फ वॉर है, 2003 मे जो लोग सद्दाम हुसैन की तबाही नहीं देख सके वे अब खुमेनी की देख ले। अमेरिका ने अफगानिस्तान को इसीलिए छोड़ा था ताकि ईरान की बैंड बजा सके। ईरान मे तख्तापलट अब तय है बस समय उनकी जनता को तय करना है।

ये लड़ाई 1979 से चल रही है जिसने अब युद्ध का रूप लिया है। 1979 तक ईरान मे राजशाही थी और ईरान के संबंध अमेरिका और इजरायल से मधुर थे। मगर 1979 मे हुई इस्लामिक क्रांति ने सबकुछ बदल दिया।

तब से ईरान एक टेरर फंडिंग स्टेट बन गया, ईरान ने खुद की अर्थव्यवस्था चौपट कर लीं और यमन, लेबनान तथा सीरिया मे आतंकवादी खडे कर दिए। कुछ ही महीने पहले ईरान मे कट्टर इस्लाम के खिलाफ भयानक आंदोलन भी हुए।

इजरायल के दुश्मन हमास, हुती और हिजबुल्लाह जैसे आतंकी संगठनो को ईरान फंड कर रहा था। ये बात अमेरिका भी जानता था की इजरायल इन आतंकी संगठनों को भले ही तबाह कर दें मगर ईरान किसी और नाम से नया आतंकी संगठन बना देगा इसलिए जड़ काटना जरुरी है।

लेकिन आप ये भी निश्चित मानिये की इसमें भारत अप्रत्यक्ष रूप से जुडा हुआ है, IMEC कोरिडोर की सफलता के लिये ये बड़ा आवश्यक है की ईरान मे सत्ता परिवर्तन हो। ईरान एक आतंकी स्टेट है जो यमन और सूडान मे टेरर फंडिंग करके व्यापार को प्रभावित करता है और फिर दुनिया को उसकी शर्ते माननी पडती है।

IMEC कॉरिडोर भी भारत से पहले यूएई जाएगा तो ईरान फारस की खाड़ी मे इसे रोकेगा। इसलिए भारत का हित इसमें ही है की ईरान धूल चाट ले, लघुकाल मे थोड़ी दिक्क़त आएगी स्टॉक मार्केट गिरेगा विपक्ष चिल्लायेगा मगर आप हाथी की चाल चलिए।

ईरान मे वही होगा जो इराक मे हो चुका है, हो सकता है ईरान के आतंकवादी अमेरिका मे हमला कर दें और अमेरिका फिर सीधे ईरान से भिड़ जाए। खुमेनी को उसके बंकर से सद्दाम की तरह निकालकर मारा जाएगा या जनता खुद ही आंदोलन कर देगी और गद्दाफी की तरह घसीट घसीट कर मारेगी।

ईरान मे फिर आतंकी संगठन खडे होंगे जो बलूचिस्तान के आंदोलन को हवा देंगे और अंत मे ये डेड गेम पाकिस्तान की तबाही को ही आमंत्रण देगा। इसलिए थोड़ा एक्सपोर्ट, फोरेक्स और स्टॉक मार्केट गिर जाने दो दूर भविष्य मे हमारे ही हित मे होगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

24 Oct, 09:56


ईरान सचमुच एक मूर्ख देश है, खुले मंच से बोल रहा है की डॉलर के विरुद्ध स्ट्रेटजी बनानी है। बात कही भी तो मोदीजी से, लेकिन मोदीजी ने समझदारी से बात को संभाल लिया।

ये बात सही है की रूस मे हुआ ब्रिक्स सम्मलेन भारत के लिये अच्छा रहा। चीन के साथ संबंध मधुर भले ही नहीं हुए मगर कर्कशता खत्म हुई, पुतिन आज शराब मे डूबे होंगे मगर पुतिन चीन के संदर्भ मे भारत को समझ नहीं रहे है।

60 सालो मे पहली बार चीन बैकफुट पर बैठा है, इस समय आप एक चीनी बनकर सोचिये अगर अमेरिका मे डोनाल्ड ट्रम्प जीत गए और 5-6 महीने मे ये दो बड़े युद्ध बंद हो गए तो क्या होगा? ये चीन के लिये अलार्म होगा, अमेरिका फिर से हाथ धोकर पीछे पड़ जाएगा। ट्रेड वॉर फिर से शुरू हो जायेगा और चीन को बहुत कुछ गवाना पड़ेगा।

समस्या सिर्फ अमेरिका तक की होती तो कोई बात नहीं थी लेकिन भारत मे जिस तरह से दक्षिणपंथ की आंधी उठ रही है वो चीन के लिये अभिशाप है। जाति के बवंडर मे फंसे भारतीय अब हिंदुत्व के लिये वोट डाल रहे है।

2040 तक अखंड भारत की मांग बहुत जोर पकड़ेगी, इसलिए आज सवाल गलवान का नहीं है अक्साई चीन का है। दिल्ली वाले बेवकूफ नहीं है जो 20-25 चौकियो के लिये तेजस और राफेल खडे करेंगे, अग्निवीर जैसी स्कीम ये सब संयोग नहीं है 25 साल बाद की तैयारी है।

1962 मे चीन को अपर हैंड था क्योंकि भारतीय सेना तैयार नहीं थी। लेकिन इस बार तैयार छोड़ो वो आक्रमण करने के हिसाब से तैयार है। 4 अक्टूबर को जो वायु सेना प्रमुख ने कहा वो सुनिए।

अमर प्रीत सिंह किसी पार्टी के नेता नहीं है मगर उन्होंने खुलकर कहा है की हम युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार है। बम कहाँ और कौन सा गिराएंगे वो जब गिराएंगे देख लेना। आप इतिहास मे जाओ और याद करो आखिरी बार कब वायु सेना प्रमुख इतने ज्यादा कॉन्फिडेंस मे थे?

विदेश मंत्रालय को पूरी तरह पता है की आज नहीं तो कल रिपब्लिकन अमेरिका की सत्ता मे लौट आएंगे। रूस के हथियार चीन के सामने नहीं टिकेंगे, अंत मे जरूरत अमेरिका की ही पड़ेगी। आप ये भी तय मानिये की यदि भारत चीन युद्ध हुआ तो अमेरिका और जापान भी लड़ेंगे।

आज लगता है की अमेरिका अपनी सेना नहीं भेजेगा लेकिन चीन के विरुद्ध वो जरूर भेजेगा। इसलिए भारत ईरान का डी डॉलर करने वाला प्रस्ताव नहीं मानेगा, वैसे भी डोनाल्ड ट्रम्प बोल चुके है की यदि डॉलर से भागे तो 100% टैक्स लगेगा।

अमेरिका मे डोनाल्ड ट्रम्प की स्थिति अब मजबूत हो रही है और कनाडा मे जस्टिन ट्रूडो की सरकार गिराने का प्रयास हो रहा है। इसलिए कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं है सिर्फ हित और स्वार्थ सिद्ध होने चाहिए।

1971 के बाद से देखो तो भारत के लोग जात पात और मजहब के नाम पर वोट करते थे इसलिए सरकार बनती बिगड़ती थी मगर पिछले 10 साल से सिर्फ हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर वोट हो रहा है इसलिए एंटी इनकम्बेसी मुँह छिपाई बैठी है। राम मंदिर और कश्मीर का मामला सुलझ गया है।

मोदी युग के बाद बीजेपी की जो नस्ल आएगी वो मोदीजी से ज्यादा आक्रमक होंगी और उस पर अखंड भारत का ही दबाव बनेगा। वाजपेयी < आडवाणी < मोदी, अब तक तक ट्रेंड ज्यादा आक्रमक वाला ही रहा है।

आगे ये और बढेगा, इसलिए ब्रिक्स का जो भी आउटपुट आये आप ये तय मानिये चीन हमारा शत्रु ही है और उसकी कुटाई भी हमारे ही हाथों निश्चित है। अब ये कुटाई 2025 मे होंगी या 2045 मे वो राज अभी अमर प्रीत जी को ही पता है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

19 Oct, 12:23


जस्टिन ट्रूडो बस दो बयान और दूर है इसके बाद कनाडा के राहुल गाँधी की पदवी हासिल कर सकते है।

जैसे भारत मे नरेंद्र मोदी सरकार के प्रमुख है मगर राज्य की प्रमुख राष्ट्रपति है और नरेंद्र मोदी कुछ करना चाहे तो उन्हें भी राष्ट्रपति भवन को जवाब देना होगा।

ठीक वैसे ही कनाडा के राजा चार्ल्स तृतीय ही है, वे रहते लंदन मे है मगर कनाडा मे उनका गवर्नर जनरल है। जस्टिन ट्रूडो को इन्हे ही अब उत्तर देना होगा कि भारत पर जो आरोप आप लगा रहे हो वो कितने सही है।

ट्रूडो के साथ ये सवाल जवाब टीवी पर हुए और उन्होंने ऑन रिकॉर्ड कहा कि उनके पास भारत के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। दुनिया के किसी वर्ल्ड लीडर की टीवी पर पूरी दुनिया के सामने ऐसी किरकिरी होती आज तक नहीं देखी।

दरअसल कनाडा मे जल्द ही चुनाव होने है और जस्टिन ट्रूडो के खिलाफ हवा चल रही है तो ये सोच रहे है की कनाडा बनाम भारत का माहौल बन जाए, कनाडा के लोग भारत को दुश्मन मान ले तो ये बहुत बड़े हीरो बन जाएंगे।

थोड़ा अजीब लॉजिक है लेकिन ये ही कारण है कि मैंने इन्हे कनाडा का राहुल गाँधी कहा। बस ये भी एक दो बयान और दें दें तो पूरे ही पागल लगेंगे।

लेकिन भारत सरकार की प्रतिक्रिया बहुत अच्छी है, इसका इलाज भी वही है की भाव मत दो। ये बयानबाजी प्रवक्ताओं के मुँह से ठीक लगती है प्रधानमंत्री को सोच समझकर ही बोलना चाहिए।

मोदीजी कम बोलते है इसलिए उनका एक स्तर बना हुआ है, जबकि पिछले एक साल मे ट्रूडो की अप्रूवल रेटिंग गिर चुकी है। भारत सरकार जो भी जवाब दें रही है उसमे "कनाडा सरकार" की जगह ट्रूडो सरकार शब्द का प्रयोग कर रही है।

कनाडा के लोग शिक्षित है, मीडिया एक एक बयान को छाप रहा है और कनाडा के लोगो को मैसेज स्पष्ट है की भारत ट्रूडो के खिलाफ है कनाडा के नहीं।

सब सही है बस एक बात खटकती है की कनाडा मे जो हिन्दू और सिख आबादी है ये कितनी बड़ी निकम्मी है। बगल मे अमेरिका है जहाँ हिन्दुओ और सिखो को लुभाने की कोशिश होती है और आपकी कनाडा मे कोई हैसियत ही नहीं। जबकि कनाडा मे भारतीयों का प्रवास अमेरिका से पुराना है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

15 Oct, 14:14


बाबा सिद्दीकी की हत्या, दिव्या खोसला का आलिया भट्ट पर आरोप और इस नवरात्री पर बॉलीवुड का भव्य सेलिब्रेशन ये सब बाते आपस मे जुडी हुई है।

पहली बात तो फ़िल्म कैसे बनती है? एक लेखक के मन मे फ़िल्म की कहानी होती है जिसे वो डायरेक्टर को बताता है फिर डायरेक्टर उस फ़िल्म को बनाने के लिये फंडिंग और प्रोडयुसर की व्यवस्था करता है।

फाइनेंसर ढूंढना बहुत टेड़ा खेल है। इस पूरे खेल मे जो आप फाइनेंस वाली चीजें देख रहे है उसमे बाबा सिद्दीकी जैसे नेताओं का बड़ा योगदान होता है। ये ही नेता ब्लैक का पैसा अलग अलग फिल्मो मे खुद लगाकर या दुसरो का लगवाकर उसे व्हाइट करते है।

फाइनेंस मे इनका डायरेक्ट रोल होता है इस वजह से हर फ़िल्म सितारा इनसे डरता है। इसलिए कलाक़ारो को इनकी इफ्तार पार्टी मे जाना ही पड़ता है। ऑल आईज ऑन रफाह जैसे ट्रेंड्स मे फसना पड़ता है क्योंकि यदि आपने ऐसा नहीं किया तो आपको फिल्मे मिलनी बंद हो सकती है।

इसके विपरीत कुछ कलाकार ऐसे भी है जो अपने टैलेंट के दम पर ही इन्हे ठेंगा दिखा देते है, जैसे पंकज त्रिपाठी, मनोज वाजपेयी या फिर नवाजुद्दीन सिद्दीकी। दिव्या खोसला का केस भी कुछ ऐसा ही है।

दिव्या खोसला टी सीरीज की मालकिन है, जब कोई फ़िल्म पीट जाती है तो निर्माता सबसे पहले टी सीरीज के दरवाजे खटखटाता है ताकि टी सीरीज फ़िल्म के गाने खरीद कर कुछ पैसा तो दें दें। ये स्थिति दिव्या खोसला को बहुत ऊपर बनाती है और वो किसी के दबाव मे नहीं आती।

दिव्या खोसला ने आलिया भट्ट पर आरोप लगाया की उसने खुद अपनी फिल्मो के टिकट खरीद कर उसे ओवर रेट किया। ये तो हमें भी पहले से पता है, आलिया भट्ट तो क्या खुद शाहरुख़ खान का यही हाल है।

कपूरो और खानो की फिल्मे कमाई के आंकड़ों से हॉलीवुड को सीधी टक्कर देती है लेकिन जब ऑस्कर की बात आती है तो दूर दूर तक नाम नहीं होता। वास्तविकता दिव्या खोसला पहले ही बता चुकी है की ये लोग PR स्टंट करते है। एक बात जो उन्होंने नहीं कही वो यही की इसमें भी बाबा सिद्दीकी जैसे लोगो का समर्थन मिलता है।

पिछले 30 सालो से आप देखो तो पीके तक तो लगभग हर तीसरी फ़िल्म ने लव जेहाद, हिन्दू नफरत और जातिवाद को बढ़ावा देने के मुद्दे पर ही बल दिया है। जबकि इन्ही दिग्गज कलाकारो का एक चेहरा इस बार नवरात्री पर भी देखने को मिला।

काजोल और रानी मुखर्जी ने माता रानी की चौकी रखी और लगभग सारे सेलिब्रिटी जिस संख्या मे पहुँचे और जो भक्ति दिखाई वो आश्चर्यजनक थी। ये कैमरे के सामने एक्टिंग नहीं थी, ये सच मे धर्म के प्रति समर्पण था।

बड़ी बड़ी अभिनेत्रियों का दुर्गा नृत्य करना, विधिवत एक दूसरे को कुमकुम लगाना प्रमाण था की ये लोग भले ही कितने ही अंग्रेजो के गुलाम बनते थे मगर पिछले कुछ सालो मे इनके अंदर का हिन्दू जगा है।

अब बाबा सिद्दीकी मर गया है आप देखिये बॉलीवुड के नाम पर जो इस्लामिक इंडस्ट्री खड़ी हो रही थी इसकी कमर टूटेगी और हर बार मस्जिद के मलबो के नीचे से एक मंदिर ही निकलेगा।

इसलिए अब बॉलीवुड का बहिष्कार मत कीजिये बल्कि उसके अच्छे कंटेंट को बढ़ावा देना शुरू कीजिये क्योंकि इस हत्या के बाद जिस नवीन बॉलीवुड का निर्माण होगा उसमे समय जरूर लगेगा मगर हमारे हित मे होगा।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

09 Oct, 14:57


100 साल पहले अंग्रेज हमारे दुश्मन थे और कांग्रेस हमारी लड़ाई लड़ रही थी, अब कांग्रेस देश की दुश्मन है और अंग्रेज हमारे साथ खडे है। ये कहानी बड़ी रोचक है।

2014 मे कश्मीर के चुनावों मे बीजेपी को 25 सीट मिली थी। वो जमाना अलग था धारा 370 लगी हुई थी। कांग्रेस का इको सिस्टम कुछ ऐसा था कि हिन्दू बहुल इलाको मे कम सीट थी और मुस्लिम बहुल मे ज्यादा।

तो होता यही था कि हिन्दू किसी को भी वोट दे सरकार उसकी बनती थी जिसे मुसलमान चाहते थे। बावजूद इसके बीजेपी ने 25 सीट जीतकर पीडीपी की सरकार बनवाई और पहले दिन से 370 के खिलाफ भिड़ गयी।

जिन्हे राजनीति गली मोहल्ले जितनी ही समझ आती है उन्होंने उस समय कड़ी निंदा की लेकिन बीजेपी लगी रही और 2019 तक 370 को तोप से उड़ा दिया।

जिस 370 ने हमारे श्यामा प्रसाद मुखर्जी को तड़पा तड़पा कर मारा था, वो 370 हट चुकी थी और लाल चौक पर मुखर्जी का तिरंगा लहरा रहा था। लेकिन इसके बाद अभी एक लड़ाई और थी, राहुल गाँधी फ़ौरन इंग्लैंड गया और जमकर भारत के खिलाफ जहर उगला।

शुक्र है उस समय कंजर्वेटिव पार्टी की सरकार थी, हालांकि राहुल गाँधी लेबर पार्टी के नेताओं से भी मिला और ब्रिटिश पार्लियामेंट मे कश्मीर का मुद्दा उठ गया। लेबर पार्टी के कई लोग पाकिस्तान से भी जुड़े थे, इसलिए पाकिस्तान से बात करने की भी बात हुई मगर प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और उनके लोगो ने एक नहीं सुनी।

उसी बीच राहुल गाँधी की चीन से गुप्त समझौते की खबरें भी आयी मगर अच्छी बात वही थी कि अमेरिका मे रिपब्लिकन और ब्रिटेन मे कंजर्वेटिव मेजॉरिटी लेकर बैठे थे। अमेरिका ने उसी समय दक्षिण चीनी सागर मे जापान के साथ नौसेना अभ्यास शुरू कर दिया और चीन अमेरिकी दबाव मे बेबस हो गया।

इसलिए राहुल गाँधी का प्रयास असफल हो गया वो वापस लौटा और नई उधेड़ बुन मे लगा रहा लेकिन अमेरिका कश्मीर मे G20 की बैठक मे आ गया। यूरोप ने तो अलग से एक डेलिगेशन तक भेजा। पाकिस्तान और कांग्रेस ने बहुत शोर मचाया लेकिन गौरो ने नहीं सुनी तो नहीं सुनी।

अब जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है हिन्दुओ और मुसलमानो के बीच बराबर सीटें है, पता नहीं जम्मू के हिन्दुओ ने 29 तक ही क्यों रखा संभव है अगली बार बीजेपी जम्मू की पूरी 43 सीटें जीत लेगी और सरकार बना लेगी।

लेकिन ना भी बनाये तो दिक्क़त नहीं है जम्मू कश्मीर अब दिल्ली जैसा है, नेशनल कॉन्फ्रेंस भले ही सत्ता मे आ जाये लेकिन पुलिस अब केंद्र सरकार की है और अधिकारी सारे LG के लोग है। अब राहुल गाँधी विदेश जाकर ये तो नहीं बोल सकता कि भारत कश्मीर मे लोकतंत्र को मार रहा है क्योंकि वो खुद नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ सत्ता मे होगा।

सत्ता होंगी मगर किसी काम की नहीं आपको जम्मू कश्मीर मे स्कूल और हॉस्पिटल बनाने पड़ेंगे नहीं बनाये तो दिल्ली वाले सक्सेना की तरह वहाँ का LG तुम्हे मारेगा और बीजेपी टीवी पर कपडे उतारेगी। काम करवाया तो आतंकवादियों को देने के लिये पैसे कहाँ से लाओगे?

कश्मीर की जीत कांग्रेस के लिये एक फांस बन गयी है, लोग मानेंगे नहीं मगर हमें सच मे आभार मानना चाहिए डोनाल्ड ट्रम्प, बोरिस जॉनसन, व्लादिमीर पुतिन और इमेंन्युल मेक्रोन जैसे नेताओं का। आपने पराये होकर भी उस समय हमारा साथ दिया और कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र मे नहीं उठने दिया। आप नहीं होते तो दिक्क़ते जरूर बढ़ जाती।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

05 Oct, 14:01


वीर सावरकर एक जनेऊधारी ब्राह्मण जिसने बाद मे कोट पहनना शुरू किया, बहादुरशाह जफर को हीरो बताने वाला देशभक्त जो बाद मे मुग़ल सल्तनत के नाम से नफ़रत करने लगा, जो व्यक्ति ब्रिटिश साम्राज्य को बर्बाद करना चाहता था उसी ने अंत मे ब्रिटेन की विजय की प्रार्थना की।

इससे दो बाते समझ आती है या तो सावरकर बहुत दुविधा मे थे या बहुत प्रैक्टिकल थे और समय के साथ बदलते राष्ट्रहित को गहराई से समझते थे।

1942 मे गांधीजी भारत छोड़ो आंदोलन कर रहे थे और ब्रिटेन मे जर्मनी लगातार बम गिरा रहा था। उस समय गांधीजी ने कहा था की ब्रिटेन को अहिंसा का प्रयोग करना चाहिए।

उसी बात पर विन्सटन चर्चिल को इतना गुस्सा आया कि उसने ये तक कह दिया कि "ये बुड्ढा कल मरता हो तो आज मर जाए।"

दूसरी ओर सुभाषचंद्र बोस जापानियों से हाथ मिला चुके थे लेकिन एक वीर सावरकर थे जो भारतीयों से कह रहे थे कि ब्रिटेन की तरफ से युद्ध लड़ो और युद्ध करना सीखो। उस समय यह बात विवादित होंगी लेकिन आज भारत का जो अस्तित्व बचा हुआ है वो उसी वजह से बचा है।

मुझे नहीं लगता कि भारतीय सैनिको ने सावरकर की बात मानकर युद्ध लड़ा होगा मगर उस युद्ध के फायदे हमें बाद मे दिखे। 15 अगस्त 1947 को तो नेहरूजी ये प्लान कर रहे थे कि सेना डिसमेंटल कर देते है और पुलिस देश संभाल लेगी।

लेकिन भला हो पाकिस्तान का जिसने फ़ौरन ही युद्ध छेड़ दिया और नेहरू जी को सेना की क़ीमत समझ गयी। सावरकर के फंडे 30 साल पहले क्लियर हो चुके थे उन्हें पता था कि मुसलमान मुग़ल सल्तनत की तैयारी मे जुटे है और हिन्दू ICS की तैयारी करने मे लगा है।

मुसलमान लगातार हिन्दू नरसंहार कर रहे थे और गांधीजी अहिंसा मे लगे थे, केरल मे तो हिन्दुओ को इसलिए मारा गया था क्योकि अंग्रेजो ने तुर्की के खलीफा को पीटा था। कांग्रेस भले ही आँख मूँद रही थी मगर सावरकर राजनीति समझ रहे थे।

मुसलमानो ने तब्लीगी जमात तक बना ली ज़ो कि आज भी कायम है, सऊदी अरब ने उसे आतंकवादी संगठन बोलकर प्रतिबंधित किया हुआ है जबकि भारत मे यह संगठन एक आवारा पशु की तरह आज भी ऑपरेट कर रहा है।

इसी तब्लीगी जमात का उत्तर देने के लिये उस ज़माने मे वीर सावरकर, केशव हेडगेवार जैसे हिंदूवादी नेता खडे हुए। लेकिन गाँधीजी अंधे सेक्युलरिज्म मे जमात के साथ खडे थे। 1947 मे उस कौम ने ठेंगा ही दिखाया ना?

दूसरी और जो हिन्दूवादी नेता देश बचाने मे लगे थे उन बेचारो को गांधीजी के चक़्कर मे कांग्रेस का विरोध करना पड़ा। उस समय कांग्रेस मे अच्छे नेता थे लेकिन गांधीजी ने उस समय सोनिया गाँधी की तरह कांग्रेस को जकड़ा हुआ था। उन दिनों बीजेपी नहीं थी इसलिए कांग्रेस के नेता कम्युनिस्ट पार्टी मे चले जाते थे।

गांधीजी का विरोध करने से आज उन हिंदूवादी नेताओं को विलेन के रूप मे प्रस्तुत किया जाता है लेकिन ये लोग समय से बहुत आगे थे। आप आज भी देखिये ब्रिटेन के साथ भारत के संबंध देर सबेर सुधर गए, लेकिन मुसलमान उन्ही आदर्शो पर बैठे है जो उस समय तय हुए थे।

सोचकर देखिये 1945 के समय हिन्दू यदि गांधीजी की बात मान लेता तो आज पाकिस्तान कितना बड़ा होता? यदि हिन्दू युद्ध नहीं लड़ता और उसकी युद्ध शैली कंगाल होती तो क्या हम 1950 तक भी टिक पाते?

उस समय सावरकर की बाते भले ही जहर लगी हो लेकिन आज के हालात कहते है कि ये लोग अपने समय से बहुत आगे थे। सैम मानेक शा और जेएफआर जेकब जैसे बड़े अधिकारियों ने खुद स्वीकारा है की पाकिस्तान के विरुद्ध विश्वयुद्ध का अनुभव उनके काम आया।

गांधीजी सही थे या गलत, नहीं पता लेकिन एक बात पक्की है कि देश विचारो की प्रयोगशाला नहीं होता और गांधीजी ने देश को वही समझा।

इसके विपरीत सावरकर ने समय समय पर अपनी विचारधारा बदली और उसे भारत के वर्तमान के अनुरूप ढाला। जब भारत सुपर पॉवर बन जायेगा तब शायद गाँधी के आदर्श कुछ काम आये लेकिन फिलहाल तो सावरकर के आदर्शो की ही आवश्यकता है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

02 Oct, 08:47


जो आज हिजबुल्लाह के साथ खडे है वो कल पाकिस्तान के साथ भी खडे होंगे।

हमास से ज्यादा बड़ा डर हिजबुल्लाह का था, क्योंकि हिजबुल्लाह लेबनान जैसे बड़े देश पर राज कर रहा है उसके पास लड़ाके ज्यादा है और सबसे बड़ी बात उसे रूस का खुला समर्थन है।

जब हिजबुल्लाह ने हमले शुरू किये तो इजरायल थोड़ा बैकफुट पर था। लेकिन इजरायल ने कोई जल्दबाजी नहीं की और आराम से रिसर्च की। उसने पहले ईरान मे घुसकर हमास के चीफ को मारा ताकि हमास कमजोर पड़ जाए, हुआ भी वही।

इसके बाद इजरायल ने देखा की हिजबुल्लाह के आतंकवादी वायरलेस की जगह पेजर का प्रयोग करते है तो उन्होंने पेजर बनाने वाली कंपनी मे सेंधमारी की और इन पेजर्स मे 3-4 ग्राम बारूद डालकर एक साथ विस्फोट किया।

इजरायल ने पेजर ही नहीं बल्कि रेडियो और फ्रीज तक मे धमाके किये जिसकी वज़ह से हिजबुल्लाह के नेटवर्क की धज्जिया ही उड़ गयी और अब इजरायल ने आख़िरकार एयर स्ट्राइक की है और हिजबुल्लाह चीफ नसरल्लाह को मार गिराया।

हिजबुल्लाह चीफ जैसे ही मरा सबसे पहले ईरान हिल गया, क्योंकि ईरान का खुला समर्थन था। ईरान बाते कर रहा है की सारे इस्लामिक देश एक साथ आ जाओ और इजरायल से लड़ो। अरे भैया लड़ेगा कौन???

पाकिस्तान मे अमेरिका परस्त सरकार बैठी है, बांग्लादेश मे नहीं थी तो अब हो गयी और भारत की सरकार तो खुद इजरायल को हथियार भेज रही है। जिन तीन देशो मे इस्लाम के 60 करोड़ मजदूर रहते है वो 60 करोड़ सिवाय चीखने के और कुछ नहीं कर सकते।

अब बचे बाकि 100 करोड़ तो उन मे से 25 करोड़ इंडोनेशिया मे है जिन्हे वैसे ही कोई लेना देना नहीं शेष 75 मे से 20 करोड़ पेट्रोल बेचकर खुश है। बाकि मे से आधे अमेरिका यूरोप मे खुद भीख मांग रहे है, अरे भाई तो लड़ने किसे भेजोगे????

ईरान खुद भूखा नंगा देश है, इनके पास एक इस्लामिक गार्डज नाम की आर्मी है लेकिन इस आर्मी का काम बस ये है की ईरान मे कोई महिला हिजाब ना पहने तो उसे गोली मारो। इन तथाकथित इस्लामिक सरदारों का पुरुषार्थ बस औरतों और बच्चों पर हाथ उठाने मे है।

इनसे होना जाना कुछ नहीं है, इनके मजदूर कश्मीर मे रैली कर रहे है। यदि इतनी ही बहादुरी है तो जाओ गाजा और लेबनान जब बांग्लादेश से भारत और पाकिस्तान से यूरोप मे घुसपैठ करते हो तब तो वीजा नहीं सोचते। तो अब वैसे ही गाजा भी चले जाओ आलम ए इस्लाम बचाने के लिये।

लेकिन गाजा नहीं जाएंगे क्योंकि यहाँ इजरायल ने यमदूत भेज रखे है, यदि मुफ्त की खैरात बंट रही होती तो गाजा जाने वालो मे सबसे पहले ये ही होते। रहा सवाल भारत सरकार का तो वो अमेरिका की नहीं सुन रही तुम्हारी क्या ही सुनेगी।

लेकिन हमें गर्व है की हमारे वोट से एक ऐसी सरकार बनी जो इजरायल को हथियार भेज रही है। भले ही बंदूके अमेरिका की हो लेकिन गोलिया हिंदुस्तानी है, 2024 चुनाव मे ये एक अच्छा सबक है की अबकी बार मुसलमानो का कोई तुष्टिकरण नहीं है।

तुम चीखो चिल्लाओ लेकिन आज हालात ऐसे है की आजाद भारत मे पहली बार केबिनेट मुसलमानो से मुक्त है, मुसलमानो के सबसे बड़े दुश्मन इजरायल की समर्थक है। भारत के रास्ते एकदम इस्लाम से अलग है और ये स्पष्ट हो रहा है।

बाकि इजरायल जो कर रहा है वो वीरता तो है लेकिन उससे ज्यादा मज़बूरी है। इजरायल की पूर्व प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर कह चुकी है की इजरायल अहिंसा और पराजय झेल ही नहीं सकता, वो कभी विकल्प नहीं है।

इजरायल शरणार्थीयों का देश है उनके पास जीतने के अलावा कोई विकल्प नहीं है इसलिए उनकी नीति हमेशा आक्रमक ही होंगी।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

21 Sep, 11:04


जब वाजपेयी नहीं थे तब लोग चाहते थे की वाजपेयी आये और हिंदुत्व का झंडा लहराये। वाजपेयी आये भारत परमाणु शक्ति बना, कारगिल आज़ाद भारत का पहला युद्ध था जिसमे भारत ने अपनी शर्तो पर सन्धि की।

लेकिन फिर गुजरात दंगे हो गए, उससे 3 महीने पहले ही अमेरिका अफगानिस्तान मे घुस चुका था, विदेशी खुदरा कम्पनियो को चीन मे घुसने से रोकना था, रूस मे पुतिन की सत्ता आ चुकी थी जो की फिर से रूस को रूढ़िवादी बनाने की जिद पर थे।

वाजपेयी जी चौतरफ़ा नए नए समीकरण समझ रहे थे और ऐसे मे उनसे वही गलती हुई जो हर इंसान करता है। 4 मे से 1 काम बिगाड़ दिया और कुछ पुराने मुद्दों पर थोड़े सॉफ्ट पड़ गए।

लेकिन जनता के अनुसार आपका परफेक्ट होना ही आवश्यक है क्योंकि राजनीति की बात करते समय लोगो को ऐसा लगता है की वे तो अपने व्यवसाय और नौकरी मे कही भी कोई गलती नहीं करते।

महंगाई से त्रस्त हार्ड हिंदुत्व की भूखी जनता को सॉफ्ट हिंदुत्व ऐसा चुभा की 2004 मे उसने भारतीय इतिहास की सबसे भ्रष्ट और हिन्दू विरोधी सरकार ही चुन डाली। आप अंदाज इस बात से लगा सकते है की 2004 मे सोनिया गाँधी ही उम्मीदवार थी।

लोग एक बार को एक विदेशी महिला को बैठाने के लिये आतुर थे, वो भी वाजपेयी जी को हटाकर। अंग्रेज हमें क्या देकर गए थे यदि वो जानना हो तो 2004 का चुनाव उत्कृष्ट उदाहरण है या उस समय के जिन नए वोटर्स ने कांग्रेस को वोट दिया उनकी मेंटल स्टेट पढ़ लीजिये।

2004 तक जो चीन भारत के बराबर था वो 2009 तक बहुत आगे था, चीन ने तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश के आसपास गाँव बसाने शुरू कर दिए और जनता तब भी नहीं समझ सकी।

लेकिन 2009 के बाद जब प्रभाव दिखा और चीन ने अंदर घुसना शुरू किया, पाकिस्तान ने सैनिको के सिर काटने शुरू किये तब जनता को ध्यान आया की इससे अच्छे तो वाजपेयी के 100 रूपये के प्याज़ थे। फिर जनता वाजपेयी से ज्यादा हार्ड फेस मोदी ले आयी।

जो कुछ वाजपेयी जी के साथ हुआ ठीक वैसा ही मोदीजी के साथ हुआ। पहले पुरानी चीजें ठीक की फिर नई बनाई और अब विरोध झेल रहे है। बस इन दोनों नेताओं मे फर्क था जनता की जागृति का।

2004 के समय की जनता ने एक बार को विदेशी महिला स्वीकार ली थी और 2024 मे विदेशी महिला के खून को भी नहीं स्वीकारा। आज लोगो को योगी जी बड़े पसंद आ रहे है मगर ये तय मानिये की 2029 मे यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो 2039 तक ये ही कट्टर पंथी उनकी जान के दुश्मन हो जायेंगे।

क्योंकि सत्ता के बाहर रहकर आप जितना हार्ड होते है वो सत्ता मे रहकर नहीं हो सकते। जनता इसे एक पाप की तरह देखती है और सजा देती है, लगभग हर परिपक्व लोकतंत्र मे ये ही हाल है।

वोटर का चरित्र दोहरा होता है राम मंदिर जब तक नहीं बना तब तक तो "बन ही नहीं सकता", जैसे ही बन गया "इसमें कौन सी बड़ी बात थी"
परमाणु शक्ति जब तक नहीं बने तब तक "चीन बन गया है पता नहीं हम कब बनेंगे" जैसे ही बन गए "क्या फर्क पड़ता है उससे"

लेकिन चलो अंत मे सोशल मीडिया और इंटरनेट का धन्यवाद करना चाहिए, जो पुरानी घटनाये सीधे प्रचारित कर देता है और वोटर की याददाश्त 2004 जितनी खराब नहीं होती।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

15 Sep, 17:20


भारत सरकार को बिना बताये राहुल गाँधी व्हाइट हॉउस मे अमेरिकी शकुनियो से मिलने गया।

जिन्हे नहीं पता हो वे जान ले की अमेरिका को जब भी किसी देश मे तख्तापलट करना होता है तो वो उस देश के विपक्षीयो से मेल मिलाप शुरू कर देता है। जब अफगानिस्तान मे नूर मुहम्मद की सरकार गिरानी थी तो अमेरिका ने तालिबान को खड़ा किया।

जब सीरिया मे बशर अल असद की सरकार गिरानी थी तो इस्लामिक स्टेट खड़ा किया गया, बांग्लादेश मे आप खुद देख रहे है एक अमेरिकी एजेंट ही बैठा है और अब भारत के लिये राहुल गाँधी को प्रयोग किया जा रहा है।

राहुल गाँधी की आप लाइफ साईकल देखो तो कुछ चीजें पता चलेगी, वो जब पैदा हुआ तो उसकी दादी शासक थी जब युवा हुआ तो पिता शासक थे। जिस आयु मे बच्चा बड़ा होता है वो राहुल गाँधी एक राजकुमार की तरह पला है।

लेकिन 1989 आखिरी था जब उस परिवार का कोई व्यक्ति गद्दी पर बैठा। आप जो देखते हो की राहुल गाँधी कभी चीन तो कभी भारत के किसी अन्य दुश्मन से मिलता हुआ पाया जाता है वो इसी सनक का एक नमूना है।

यदि आपने इतिहास नहीं भी मगर लोक कथाये भी पढ़ी हो तो आपको पता होगा की राजा का बेटा बहुत बार राजा ना बन पाने पर गद्दारी करता था।

आप सोचकर देखिये पिछले 40 सालो मे सिखो पर कोई जबरदस्ती हमला नहीं हुआ है लेकिन फिर भी राहुल गाँधी अमेरिका मे बोल कर आया की सिखो को भारत मे पगड़ी नहीं पहनने देते। तुरंत बाद अमेरिका मे पोषित सिख आतंकवादी गुरपतवंत पन्नू इस बयान का स्वागत करता है।

अमेरिका ने ये कोशिश चीन के साथ भी की है और जो लोग 2014 मे अख़बार पढ़ते थे वे महसूस कर रहे होंगे की जिनपिंग के अंदाज इतने बदले हुए क्यों है?

एक बार तो जिनपिंग 3 दिन के लिये गायब भी हो चुके है और उस समय भी उनके प्रतिद्वंदी ली केकियांग जो अमेरिका के खास है वे ही जिम्मेदार थे।

यदि ये 2014 वाले जिनपिंग होते तो इस समय रूस को चुपचाप नहीं बल्कि खुलकर हथियार बेचते। आप माने ना माने मगर अमेरिका चीन को झुका चुका है। शायद इसीलिए अब उसकी आँखे भारत की ओर है।

भारत की सबसे कमजोर कड़ी इस समय कांग्रेस है जिसने 65 साल राज किया मगर 10 सालो से छटपटा रही है। राहुल गाँधी जो 35 वर्षो से सपना लिये है की एक दिन वो दिल्ली का सम्राट बनेगा, इस इंतजार मे जो बैचेनी छिपी है उसका अंदाज आप और हम लगा भी नहीं सकते।

शायद भारत मे भी ब्रिटेन या फ्रांस जैसी क्रांति हो जब राजपरिवार को मार दिया गया था। ये करना जनता के लिये मुश्किल है लेकिन ये हम जानते है की प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के अलावा भी कुछ छिपी हुई शक्तियां है जो असल मे इस देश को चला रही है।

वे शक्तियां सच मे देश के प्रति वफादार है और भ्रष्ट नहीं है, संभवतः यदि वे लोग इस अवलोकन को पढ़े तो निर्णय ले पाएंगे की उन्हें क्या करना चाहिए? जो राष्ट्र के लिये कंटक होंगे उनका कट जाना ही बेहतर है।

दूसरी तरफ इस समय सच मे चीन के साथ यदि शांति स्थापित हो जाए तो बड़ी राहत होंगी क्योंकि सात समुन्दर पार घर के भेदी ने ना जाने क्या राज खोल दिया हो।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

13 Sep, 03:44


1814 मे अंग्रेजो ने अमेरिका पर आक्रमण करके उसकी राजधानी वाशिंगटन को पूरा जला दिया था। उस समय कैमरे नहीं थे मगर ये पेंटिंग उसी जमाने की है।

1776 मे अमेरिका को अंग्रेजो से आजादी मिली और 1789 मे जॉर्ज वाशिंगटन पहले राष्ट्रपति बने। उस समय अमेरिका की बहुत दयनीय दशा थी, उसके आधे हिस्से पर स्पेन कब्जा जमाये बैठा था।

कनाडा को लेकर मतभेद था कि ये अलग देश है या अमेरिका का ही हिस्सा है। मगर वाशिंगटन के बाद जब फ़्रांस और ब्रिटेन मे युद्ध छिड़ गया तो अमेरिका ने कनाडा के कई हिस्सों पर छापे मारे।

मगर जब फ़्रांस हार गया तो अंग्रेजो ने अमेरिका पर धावा बोला और 1814 मे अंग्रेजी सेना वाशिंगटन मे घुस गयी। अंग्रेजो ने वाशिंगटन को जमकर लूटा और भयानक रक्तपात किया।

व्हाइट हॉउस को भी लूटा गया और जला दिया गया, राष्ट्रपति जेम्स मेडिसन को पास के गाँव मे शरण लेनी पड़ी। अंग्रेज तांडव कर ही रहे थे कि मानो देवताओं ने अमेरिका की तरफ से युद्ध की घोषणा कर दी।

अमेरिकी इतिहास के सबसे भयावह तूफ़ानो मे से एक तूफान अमेरिका मे आ गया जबकि इसका कोई अनुमान नहीं था। अमेरिका मे उस सदी की सबसे भीषण वर्षा हुई और सारी आग बुझ गयी। पहले अंग्रेजो ने अमेरिकियो को मारा फिर तूफान ने अंग्रेजो को।

अंग्रेजो को वाशिंगटन छोड़कर भागना पड़ा और अमेरिका की आजादी बरकरार रही। लेकिन बर्बाद अमेरिका और ज्यादा लूट गया।

अमेरिकियो को समझ आया की शिक्षा ही वो हथियार है जो आगे उनके काम आएगा इसलिए बर्बाद हो चुकी यूनिवर्सिटीज फिर से खड़ी की गयी।

ज्ञान आया तो अमेरिका ने बाद मे स्पेन को हराया और पश्चिमी अमेरिका आजाद हुआ और आज जितना बड़ा हुआ।

रिसर्च होने लगी और 130 साल बाद अमेरिका ने 1945 मे अपने सुपरपॉवर होने का सफऱ पूरा किया। तब वो यह शक्ति सोवियत संघ के साथ साझा करता था लेकिन 1991 से वो जग सिर मोर बना बैठा है। आज देखिये ब्रिटेन अमेरिका के आगे बोना लगता है।

गौरी और लक्ष्मी, सरस्वती के साथ ही आएगी। देश मे जितनी ज्यादा शिक्षा होंगी देश उतना शक्तिशाली और सम्पन्न होगा। जब नालंदा थी तो भारत सुपर पॉवर था, जब ऑक्सफ़ोर्ड बनी तो ब्रिटेन भी सुपरपॉवर बना और आज उसी यूनिवर्सिटी कल्चर के नाम पर अमेरिका है।

गद्दार नेता वहाँ भी पैदा होते है और भारत से ज्यादा भयावह होते है मगर फिर भी वो जीत जाते है क्योंकि ज्ञान जागृति का अलख जगाए रखता है।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

08 Sep, 15:06


जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था तो ये ही लग रहा था की हफ्ते दो हफ्ते मे जीत जाएगा। लेकिन अब सब उल्टा हो रहा है यूक्रेन रूस मे घुस रहा है और हमले कर रहा है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ये अब पहली बार है की रूस मे विदेशी सेना घुस आयी है, उस समय तो जोसेफ़ स्टालिन ने देशभक्ति जगाकर रूस के नागरिको को ही लड़ने भेजा था और हिटलर को पीछे हटना पड़ा था।

लेकिन आज मंजर कुछ और है, पुतिन स्टालिन जैसे ना सही लेकिन एक मजबूत नेता तो है मगर अब वो भारत और चीन से गुहार लगा रहे है की मध्यस्थता करो। ये आप तय मानिये की असली विनती भारत से ही है।

इस समय भारत ही है जिसकी इतनी हैसियत तो है की प्रधानमंत्री ने एक महीने रूस और अगले ही महीने यूक्रेन की यात्रा की। अमेरिका तो 2022 से ही कह रहा है की भारत को युद्ध रुकवाना चाहिए।

भारत की चिंता स्विट्ज़रलैंड जैसी है, स्विट्ज़रलैंड ने भी ये मध्यस्थता करने की कोशिश की थी तो यूक्रेन ने शर्त रखी थी की रूस इस मीटिंग का भाग नहीं होगा। इस बेतुकी जिद की वजह से ये मध्यस्थता नहीं हो सकी।

यूक्रेन का ये रवैया तब था ज़ब वो बैकफुट पर था अब तो यूक्रेन के पास अपर हैंड है। यूक्रेन लगातार रूस के गाँवों पर कब्जा कर रहा है, रूस की पुलिस चौकियो पर अपने झंडे लगा रहा है। इस बार जैलेंसकी क्या शर्त रखेंगे पता नहीं।

हालांकि भारत की सॉफ्ट पॉवर स्विट्ज़रलैंड से कही ज्यादा है। स्विट्ज़रलैंड को निष्पक्ष की जगह पश्चिमी देश ही कहा जाता है। भारत की बात अलग है, भारत यूक्रेन पर दबाव बना सकता है और मध्यस्थता कर सकता है।

हालांकि ये भारत से ज्यादा रूस के लिये चिंता का प्रश्न है, क्या यूक्रेन कब्जाये गए रुसी इलाके वापस देगा? रूस जिस क्रिमिया पर कब्जा जमाये बैठा है क्या यूक्रेन उसकी जिद छोड़ देगा? यदि पुतिन झुकते है तो राजनीतिक पतन हो जाएगा, नहीं झुकते है तो रूस के बड़े हिस्से पर यूक्रेन कब्ज़ा कर लेगा।

पुतिन के सामने इस समय राजधर्म नाम का संकट है, रूस से पुतिन है या पुतिन से रूस, जोसेफ़ स्टालिन की तरह एक बर्बर तानाशाह कहलाना चाहोगे, जार निकोलस की तरह रूस की बर्बादी कहलाना चाहोगे या फिर निकिता ख्रुश्चेव की तरह वनवास काटोगे।

पुतिन के मन मे इस समय ये ही प्रश्न घूम रहे होंगे वैसे भारतीय मूल्य तो ये ही कहते है की देश व्यक्ति से ऊपर होता है। जो भी हो एक बात तो तय है की भारत की सॉफ्ट पॉवर अब बढ़ रही है, हम 2013 की स्थिति मे नहीं है अब दुनिया मे कोरोना हो, अंतरिक्ष की समस्या हो या युद्ध की मगर भारतीय संस्थाओ का हस्तक्षेप अनिवार्य हो जाता है।

ये सॉफ्ट पॉवर हम कैसे प्रयोग करते है उसी पर निर्भर होगा की हम विश्व गुरु बनते है या एक साधारण देश मात्र रह जाएंगे।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

05 Sep, 15:24


जब से जो बाइडन राष्ट्रपति बने सबसे पहले अफगानिस्तान, फिर श्रीलंका, पाकिस्तान और अब बांग्लादेश गिर चुके है, म्यांमार पहले ही गिर गया था तो उस पर प्रतिबन्ध लग गए।

दक्षिण एशिया पर तीर चला और भारत को छोड़कर सब ढेर हो गए, सबसे बड़ी बात चारो ही जगह अमेरिका का कनेक्शन है। लेकिन 2024 के चुनाव मे पूरा प्रयास था कि एक कमजोर सरकार बने।

कमजोर सरकार का इतिहास है मनमोहन सिंह या यू कहे सोनिया गाँधी की सरकार। पता नहीं अब कितने लोगो को याद होगा मगर मनमोहन काल मे जब भारत मे कोई आतंकवादी घटना होती थी तो सबसे पहले अमेरिका से सलाह ली जाती थी।

वो दौर ऐसा था कि अमेरिका यदि इराक मे एक गोली भी चला देता था तो बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज पूरा हिल जाता था। भारत की विदेश नीति इतनी ज्यादा सॉफ्ट थी कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने जब एक समर्थन माँगा तो पाकिस्तान नाराज ना हो इसलिए भारत ने मना कर दिया था।

चीन श्रीलंका, हिन्द महासागर और अरब सागर मे पैठ जमा रहा था और इस वजह से अमेरिका पर भारत की निर्भरता बढ़ रही थी। ये अमेरिका का भारत के खिलाफ स्वर्णिम समय था, उसके लिये भारत एक मित्र से ज्यादा कॉलोनी बन रहा था।

मगर 2014 मे जब मोदी युग का आरंभ हुआ तो चीजें काफी ज्यादा बदल गयी। भारत ने कॉलोनी बनने की जगह मित्रता को चुना। यदि मनमोहन का समय होता तो इस समय पेट्रोल का भाव 135 रूपये के आसपास होता क्योंकि भारत रूस से तेल नहीं खरीद पाता।

लेकिन सरकार मजबूत थी इसलिए रुसी पेट्रोल से भारत बच गया। बीजेपी को प्रो अमेरिका पार्टी भी कहा जाता है लेकिन अमेरिका के हित मे ये है कि भारत उसके अनुरूप चले। इसलिए 2024 मे पूरी लॉबी इस सरकार को गिराने मे जुटी थी।

राहुल गांधी ने ऑन रिकॉर्ड लंदन मे बोला था कि मोदी को हटाने मे मेरी मदद कीजिये। यह तय मानिये कि 2024 मे यदि बीजेपी हार जाती और राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बन जाता तो भारत का हाल वही होता तो पाकिस्तान और बांग्लादेश मे हुआ।

डोनाल्ड लू इसी मिशन पर दक्षिण एशिया मे है, लेकिन भगवान का धन्यवाद कहिये कि 2024 का वोटर 2004 के वोटर जैसा नहीं था। उस समय वालो ने वाजपेयी जी तक को वनवास दे दिया था और इस समय वालो ने मोदीजी को भी बचाये रखा।

चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, एकनाथ शिंदे और चिराग पासवान जैसे लोग स्वार्थ के लिये ही सही मगर उस बवंडर को रोके हुए है जो भारत की सीमा पर खड़ा है। प्रार्थना कीजिये की डोनाल्ड ट्रम्प सत्ता मे वापस लौटे क्योंकि इस समय अमेरिका मे एक वे ही है जो भारत को नहीं गिराना चाहते।

डोनाल्ड लू जो की इस समय अमेरिका की तरफ से दक्षिण एशिया देख रहे है उन्होंने ये बहुत बड़ा दाव खेला था। क्योंकि राहुल गांधी अमेरिका के विपरीत चीन का भी गुलाम बन सकता था, लेकिन शायद अमेरिका ने कुछ सोचकर एक पासा फेका हो।

इसलिए जो लोग चुनाव के परिणामो से दुखी थे वे शुक्र मनाये क्योंकि आपका जहाज समुद्र की लहरों से नहीं बल्कि एक सुनामी से लड़कर अपने तट पर पहुंचा है। आप दुखी हो की जहाज का इंजन थोड़ा स्लो हो गया मगर ये भूल रहे हो की कोशिश स्लो करने की नहीं इंजन को तबाह करने की थी।

बीजेपी मुस्लिम वोटर्स मे सेंध लगाने की कोशिश कर रही है वह विरोध योग्य है मगर यदि बीजेपी का विरोध किया तो वो लोग सत्ता मे बैठेंगे जिनका हिन्दू विरोध देखकर आप शायद एक बार को औरंगजेब को पसंद करने लग जाए।

इसलिए बीजेपी का विरोध कीजिये, ट्रक भरकर विरोध कीजिए लेकिन जब कही चुनाव हो तब मत कीजिए क्योंकि आपकी दो लाइन की फ़्रॉस्ट्रेशन देश के एक हिस्से को हिमाचल प्रदेश की तरह 5 साल के लिये अपंग बना देगी।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

01 Sep, 12:03


कोलकाता रेप केस का मुख्य आरोपी भले ही संजय रॉय हो मगर आप थोड़ा ठीक से देखो तो ऐसा लगेगा की असली आरोपी ममता बनर्जी खुद है।

संजय रॉय पर इससे पहले अपनी 2 पत्नियों को मारने का केस था लेकिन बड़ी ही आसानी से TMC के गुंडों की वजह से उस पर केस ही नहीं हुआ। इसी साल मोमिता से पहले वो 3 महिलाओ के साथ गलत कर चुका था मगर पुलिस ने केस ही दर्ज नहीं किया।

मोमिता के रेप के बाद पुलिस के आने से पहले ही इसे सुसाइड बता दिया गया, पोस्टमार्टम तक कर दिया गया, यदि उसकी सहकर्मी वीडियो नहीं बनाती तो हमें तो पता भी नहीं चलता की कोलकाता मे कोई रेप हुआ है।

लेकिन बंगाल का ये भ्रष्टाचार देखकर आपको कुछ याद आया? लालू के समय का बिहार या फिर मुलायम के समय का उत्तर प्रदेश? दरअसल जिन राज्यों ने क्षेत्रीय पार्टियों को सत्ता सौपी है उनका हाल ये ही हुआ है।

ममता बनर्जी खुद एक स्त्री है मगर उसके चेहरे पर एक शिकन नहीं है, सोनिया गाँधी बाटला हॉउस के आतंकवादियों के लिये रोई थी मगर यहाँ वो मोमिता के खिलाफ कपिल सिब्बल को मैदान मे उतार चुकी है।

कहने का मतलब ये है की समाज मे ऐसी औरते भी होती है, क्या ममता और सोनिया संजय रॉय से कम गुनहगार है?

दरअसल क्षेत्रीय पार्टियों की आदते हमारे दो बड़े प्रधानमंत्रियों ने बिगाड़ी है एक इंदिरा गाँधी दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी। इंदिरा गाँधी ने ज़ब इमरजेंसी लगाई तो उसकी वज़ह से यूपी, बिहार और बंगाल जैसे राज्यों मे क्षेत्रीय पार्टियों को गति मिली।

लालू, भालू, ममता ये सभी इसी इमरजेंसी की पैदाइश है। लेकिन 1998 मे जब वाजपेयी युग शुरू हुआ तो वाजपेयी जी को गठबंधन करना पड़ा और तब पहली बार इन्ही नेताओं की एंट्री दिल्ली मे मंत्री के रूप मे हुई।

यहाँ इनके दांतो पर जो सत्ता का खून लगा उसकी सजा आज पूरा देश भुगत रहा है। गरीब घरो से आये इन लालचियों ने पहली बार सत्ता का सुख भोगा और इसके बाद वो भूख ऐसी बढ़ी की ये पूरा देश बेचने को तैयार थे।

बंगाल मे जो रेप हुआ उसकी मूल जड़ यही है, ममता बनर्जी का यूट्यूब पर शायद आपको एक पुराना वीडियो भी मिल जाए वो बांग्लादेशियो को भगाने के लिये रो रही थी और वाजपेयी सरकार कुछ नहीं कर रही थी।

इसके बाद 2011 मे जब उसे सत्ता मिली तब उसने स्टैंड बदला और आज देखिये उसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं है। जबकि ये निर्भया से बड़ा काण्ड है, इस काण्ड से पहले संजय रॉय को पकड़ने के 6-7 पर्याप्त कारण थे लेकिन ममता बनर्जी ने कुछ नहीं किया।

या यू कहे उसने TMC वालो के लिये जो इको सिस्टम बनाया वो बड़ा कमाल है। RG KAR मेडिकल कॉलेज मे जहाँ ये रेप हुआ वहाँ इससे पहले 10 से ज्यादा लोग आकस्मिक रूप से मर चुके है और सबको सुसाइड ही बताया गया। मोमिता को भी पुलिस ने सुसाइड ही बनाया था मगर ये कह लीजिए की इस बार ममता बनर्जी की किस्मत खराब थी।

इसलिए मोदी सरकार को मैं आजाद भारत की सबसे अच्छी सरकार कहता हुँ, बिल्कुल शिकायते होंगी आपको। आजकल तो तुष्टिकरण के आरोप भी लगने लगे है लेकिन ये भी एक बात है की शायद ये लोग रेप के आरोपियों के साथ खडे हो जाए मगर दोषियों के साथ कभी खडे नहीं होते।

वाजपेयी जी के समय जो रायता फैला था वो ED के नाम पर ही सही लेकिन सारा जेल मे सिमट गया था पर फिर जनता को लोकतंत्र पर खतरा भी दिखने लगा।

मोदी राज का दूसरा पहलू ये भी रहा की पिछले 10 साल से ये सारे निशाचर सत्ता से दूर छटपटाते रहे। वाजपेयी काल के बाद पहली बार हुआ की ये केंद्र की सत्ता से दूर रहे, वो ही चीजें उन्हें सबसे ज्यादा काट रही है।

आप सोचकर देखिये लालू का एक गुंडा शाहबुद्दीन, जिसे वो वाजपेयी जी के काल मे मंत्री बनाना चाहता था। बाद मे पता भी चल गया की वो ISI का एजेंट था, वाजपेयी जी ने उसे मंत्री नहीं बनाया और जब मोदी काल मे उसे सजा हुई तो खुद पढ़े लिखें लोगो ने कहा ये तो लोकतंत्र की हत्या है।

वाजपेयी ने शाहबुद्दीन को नहीं स्वीकारा मगर आज के राहुल गाँधी को देखकर लगता है की वो तो गले लगा लेता।

दरसल भारत का पढ़ा लिखा समाज खुद आज तक लोकतंत्र की परिभाषा निर्धारित नहीं कर सका। यही कारण है की कपिल सिब्बल ने संजय का साथ देने से पहले एक बार भी नहीं सोचा, मणिपुर पर चिल्लाने वाला राहुल गाँधी बिल्कुल शांत है।

इन नामो मे से किसी के खिलाफ एक्शन हुआ तो राहुल गांधी को बस इतना बोलना है की विपक्ष की आवाज दबाई जा रही है और पूरा माहौल मोमिता से पलटकर ममता बनर्जी के साथ हो जाएगा।

इसलिए ये रेप जनता का, जनता के द्वारा ही हुआ है और ये आगे भी होता रहेगा तब तक, जब तक की हम लोकतंत्र को समझ नहीं जाते।

✍️परख सक्सेना✍️
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आर्यभूमि : The Land of Aryans

25 Aug, 06:58


मोदी और ट्रम्प जैसे ग्लोबल लीडर्स को हटा दो और निष्पक्षता से आंकलन करो तो इस समय सबसे महान नेता सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद है।

अमेरिका ने इराक मे 33 साल से राज कर रहे सद्दाम हुसैन को मार डाला, 41 साल से लीबिया पर राज कर रहे गद्दाफी को निपटा दिया लेकिन 53 वर्षो से सीरिया संभाल रहे असद परिवार को नहीं हटा सका।

बशर अल असद खुद 24 सालो से राष्ट्रपति है और वो भी जन समर्थन के साथ। इनके पिता हाफ़िज़ अल असद ने 1971 मे सीरिया मे तख्तापलट करके सत्ता स्थापित की थी। हाफ़िज़ अल असद एक गुस्सैल मगर दूरदर्शी व्यक्ति थे, उन्होंने सीरिया को सेक्युलर बनाये रखा।

हाफ़िज़ अल असद ने कट्टरपंथी मुसलमानो का दमन किया और इस्लाम सीरिया की राजनीति मे हावी नहीं हो सका, सीरिया को मॉडर्न बनाया गया। सीरिया का फायदा भारत के साथ था तो क्या बाबरी मस्जिद और क्या कश्मीर, सीरिया ने हर जगह भारत को मौन समर्थन दे दिया। सीरिया मे आज भी महिलाओ को छोटे कपडे पहनने की आजादी है।

सन 2000 मे उनकी मृत्यु हुई और लंदन से लौटे उनके बेटे डॉ बशर अल असद राष्ट्रपति बने। बशर थोड़े शांत स्वभाव के है, 2011 से पहले सीरिया एक विकसित और सम्पन्न देश था। मज़हबी राजनीति से ये इतना दूर थे की कट्टरपंथियो के लिये काउंसलिंग की व्यवस्था तक करवाई।

सीरिया मे शिक्षा मुफ्त है और सबसे बड़ी बात ये धार्मिक नहीं है। जिस भी मौलाना ने ये कहा की धरती चपटी है उसे जेल भेजा गया, बस बशर अल असद का पाप यही था की वे रूस के करीबी थे और रूस पर ज्यादा विश्वास करते थे।

ये बाते बराक ओबामा को सही नहीं लगी और आख़िरकार सीरिया मे सत्ता विरोधी आंदोलन शुरू हो गए, शुरू मे बशर अल असद बैकफुट पर रहे मगर आज रूस की मदद से वो फ्रंट रनर है। सीरिया मे साक्षरता 86% है वो भी बिना मदरसे वाली।

इसलिए सीरिया मे अरब स्प्रिंग सफल नहीं हो सका, ये बात सही है की सीरिया का कुछ हिस्सा अब भी बशर अल असद के पास नहीं है। लेकिन देर सबेर वो इसे जीत हीं लेंगे, इतना भय के वातावरण मे भी असद रमजान मे जनता के बीच जाकर मिलते है।

आपने कभी नहीं सुना होगा की बशर अल असद हवाई बाते कर रहे हो, वे मीडिया मे कम आते है जितनी जरूरत है उतना बोलते है और चले जाते है।

निःसंदेह असद परिवार ने ये सब रणनीति अपने फायदे के लिये बनाई होंगी लेकिन आज वो उसी की वजह से बचे है। साधारणतः ऐसा होता नहीं है की अमेरिका लोकतंत्र की लड़ाई छेड़े और आप बचे रहे।

सीरिया आज उसी हाल मे है जिस हाल मे ब्रिटेन 1945 मे था, लेकिन लिख लीजिये सीरिया पुनः खड़ा होगा और उसके इस उद्भव को हमारी हीं पीढ़ी हीं देखेगी। इस सदी के सबसे संघर्षशील राष्ट्रध्यक्ष को सम्मान देना तो बनता है।

✍️परख सक्सेना✍️
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