अंत में, थकाहारा, पिंजरे की परिक्रमा करने के बाद वह द्वार पर आ रुका. उस ने एक निराश नजर अपने चारों ओर डाली और सिर झुका कर धीरेधीरे पिंजरे के अंदर चला गया. मुड़ कर एक बार फिर ललचाई नजरों से उस ने पिंजरे के खुले द्वार को निहारा और हताशा से मुंह फेर लिया. पिंजरे में अपनी चोंच को पंखों के बीच छिपा कर आंख मूंद खामोश बैठ गया. अब चाह कर भी वह उस दिन पिंजरे को छोड़ कर नहीं जा सकता था.
वह शायद पछता रहा था कि मैं ने उस दिन उड़ जाने का मौका क्यों खो दिया. काश, उस दिन थोड़ी हिम्मत कर के मैं उड़ गया होता तो फिर चाहे मेरा जो होता, इस गुलामी से लाख गुना बेहतर होता, पर अब क्या करूं? उस ने मान लिया कि मुक्त उड़ान का, खुले आकाश का, बागों और खेतों की सैर का, प्रकृति की ममतामयी गोद का और नन्हे से अपने घोंसले का उस का सपना भी उसी की तरह इस पिंजरे में कैद हो कर रह जाएगा और एक दिन शायद उसी के साथ दफन भी हो जाएगा.
मुझे लगा जैसे आज उस का रोमरोम रो रहा है और वह पूरी मानव जाति को कोसते हुए कह रहा है:
‘यह आदमी नामक प्राणी कितना स्वार्थी है. खुद तो आजाद रहना चाहता है पर आजाद पंछियों को कैद कर के रखता है. ऊपर से हुक्म चलाता है, यह जताने के लिए कि कोई ऐसा भी है जो उस के इशारों पर नाचता है. मुझे कैद कर दिया पिंजरे में. ऊपर से हुक्म देता है, यह बोलो, वह बोलो. बोल दिया तो ‘शाबाश’ कहेगा, लाल फल खाने को देगा. न बोलो तो डांट पिलाएगा.
‘मुझे नहीं सीखनी इनसान की भाषा. खुद तो बोलबोल कर इनसानों ने इनसानियत का सत्यानाश कर रखा है. और हमें उन के बोल बोलने की सीख देते हैं. कहां बोलना है, कैसे बोलना है और कितना बोलना है यह इनसान अभी तक समझ नहीं पाया. इसे इनसान समझ लेता तो बहुत से दंगेफसाद, झगड़े और उपद्रव खत्म हो जाते.
‘चला है मुझे सिखाने, मेरी चुप्पी से ही कुछ सीख लेता कि दर्द अकेले ही सहना पड़ता है. फिर चीखपुकार क्यों? इतना भी इनसान की समझ में नहीं आता. बहुत श्रेष्ठ समझता है अपनेआप को. शौक के नाम पर पशुपक्षियों को कैद कर के उन पर हुक्म चलाता है और कहता है ‘पाल’ रखा है.
‘कुत्तेबिल्ली इसलिए पालता है कि उन पर धौंस जमा सके. दुनिया को दिखाना चाहता है कि देखो, ये कैसे मेरा हुक्म बजा लाते हैं. कैसे मेरे इशारों पर जीतेमरते हैं. हुक्म चलाने की, शासन करने की, अपनी आदम इच्छा को आदमी न जाने कब काबू कर पाएगा? इसीलिए तो निरंकुश घूम रहा है सारी सृष्टि में.
‘इनसान मिलजुल कर क्या खाक रहेगा, जबकि इसे दूसरा कोई ऐसा चाहिए जिस पर यह हुक्म चलाए. जब तक लोग हैं तो लोगों पर राज करता है. लोग न मिलें तो हम पशुपक्षियों पर रौब गांठता है. जब लोगों ने हुक्म मानने से यह कहते हुए मना कर दिया कि जैसे तुम, वैसे हम. तो फिर तुम कौन होते हो हम पर राज करने वाले? तब शामत हम सीधेसादे पशुपक्षियों पर आई. किसी ने मेरी बिरादरी को पिंजरे में डाला तो किसी ने प्यारी मैना को. किसी ने बंदर को धर पकड़ा तो किसी ने रीछ की नाक में नकेल डाल दी.
‘इनसान है कि हमें अपने इशारों पर नचाए जा रहा है. हमें नाचना है. हमारी मजबूरी है कि हम इनसान से कमजोर हैं. हमारे पास इनसान जैसा शरीर नहीं. हमारे पास आदमी जैसा फितरती दिमाग नहीं. आदमी जैसा सख्त दिल नहीं. हम आदमी जैसे मुंहजोर नहीं. इसीलिए हम बेबस हैं, लाचार हैं और इनसान हम पर अत्याचार करता चला आ रहा है.
काश, इनसान में यह चेतना आ जाए कि वह किसी को गुलाम बनाए ही क्यों? खुद भी आजाद रहे और दूसरे प्राणियों को भी आजाद रहने दे. जैसेजैसे ऐसा होता जाएगा वैसेवैसे यह दुनिया सुघड़ होती जाएगी, सुंदर होती जाएगी, सरस होती जाएगी. जब आदमी के ऊपर न तो किसी का शासन होगा और न ही आदमी किसी पर शासन करेगा तब उस की समझ में आएगा कि आजाद रहने और आजाद रहने देने का आनंद क्या है. बंद आकाश और खुले आकाश का अंतर क्या है? तब आदमी महसूस करेगा कि जब वह हम पशुपक्षियों को अपना गुलाम बनाता है तो हम पर और हमारे दिल पर क्या गुजरती है.’
तोते की टें…टें की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. मैं झटके से उठा. खूंटी पर से तोते का पिंजरा उतारा और चल पड़ा झुरमुट वाले खेतों की ओर.
खेत शुरू हो गए थे. पकी फसल की बालियां खाने के लिए हरे चिकने तोते झुरमुट से खेतों तक उड़ान भरते और चोंच में अनाज की बाली लिए लौटते. झुरमुट और खेत दोनों में उन के टें…टें के स्वर छाए थे. पिंजरे का तोता भी अब चहकने लगा था.
मैं रुक गया और पिंजरे को अपने चेहरे के सामने ले आया और ‘पट्टूपट्टू’ पुकारने लगा. वह पिंजरे में इधर से उधर, उधर से इधर व्याकुलता से घूमता जा रहा था. बीचबीच में पंख भी फड़फड़ाता जाता. उस में अप्रत्याशित चपलता आ गई थी. शायद यह दूसरे तोतों की आवाज का करिश्मा था जो वह मुक्ति के लिए आतुर हो रहा था.
मैं ने ज्यादा देर करना ठीक नहीं समझा. पिंजरे का द्वार झुरमुटों की तरफ कर के खोला और प्यार से बोला, ‘‘जा, उड़ जा. जा, शाबाश, जा.’’