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लक्ष्य 👉 (आर्यो)हिन्दुओ में एकजुटता एव जागरूकता बढ़ाना
धर्म 👉 सनातन
वर्ण 👉 कर्म आधारित

United Hindu Official (Hindi)

यदि आप हिन्दू धर्म के प्रति अपनी भावनाओं को साझा करना चाहते हैं तो 'United Hindu Official' आपके लिए एक आदर्श टेलीग्राम चैनल है। यह चैनल हिन्दू समाज के सदस्यों को एक साथ लाने और उन्हें जागरूक बनाने का मिशन ले कर चल रहा है। 'United Hindu Official' का उद्देश्य है आर्यों के बीच एकजुटता को बढ़ाना और हिन्दू समाज को उनके सनातन धर्म और कर्म आधारित जीवन सूत्रों की महत्वपूर्णता के प्रति जागरूक करना। इस चैनल में आपको धार्मिक ज्ञान, सनातन भारतीय सस्कृति, और विभिन्न धार्मिक विचारों का साझा करने का मौका मिलेगा। यहाँ पर आप अपने विचारों को बांट सकते हैं और दूसरों के साथ उन्हें साझा कर सकते हैं। 'United Hindu Official' चैनल आपके लिए एक सहायक हो सकता है अपने धार्मिक और आध्यात्मिक साधनों में और आपको हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की समझ में मदद कर सकता है। यदि आप एक ऐसे समुदाय का हिस्सा बनना चाहते हैं जो हिन्दू समाज के मूल्यों को महत्व देता है तो 'United Hindu Official' चैनल में शामिल हो जाएं और एक सक्रिय सदस्य बनें।

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14 Jan, 14:21


*आत्मबोध🕉️🚩*

*मकर संक्रांति क्यों मनाई जाती है ? हमें क्या करना चाहिए उस दिन?*

🚩हिन्दू संस्कृति अति प्राचीन संस्कृति है, उसमें अपने जीवन पर प्रभाव पड़ने वाले ग्रह, नक्षत्र के अनुसार ही वार, तिथि त्यौहार बनाये गये हैं । इसमें से एक है मकर संक्रांति..!! इस साल 15 जनवरी को मकर संक्रांति मनाई जायेगी ।

🚩सनातन हिंदू धर्म ने माह को दो भागों में बाँटा है- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष । इसी तरह वर्ष को भी दो भागों में बाँट रखा है। पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। उक्त दो अयन को मिलाकर एक वर्ष होता है ।

🚩सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश को उत्तरायण माना जाता है । इस राशि परिवर्तन के समय को ही मकर संक्रांति कहते हैं । यही एकमात्र पर्व है जिसे समूचे भारत में मनाया जाता है, चाहें इसका नाम प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग हो और इसे मनाने के तरीके भी भिन्न हो, किंतु यह बहुत ही महत्व का पर्व है ।

🚩इसी दिन से अलग-अलग राज्यों में गंगा नदी के किनारे माघ मेला या गंगा स्नान का आयोजन किया जाता है । कुंभ के पहले स्नान की शुरुआत भी इसी दिन से होती है ।

🚩सूर्य पर आधारित हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का बहुत अधिक महत्व माना गया है । वेद और पुराणों में भी इस दिन का विशेष उल्लेख मिलता है । होली, दीपावली, दुर्गोत्सव, शिवरात्रि और अन्य कई त्यौहार जहाँ विशेष कथा पर आधारित हैं, वहीं मकर संक्रांति खगोलीय घटना है, जिससे जड़ और चेतन की दशा और दिशा तय होती है । मकर संक्रांति का महत्व हिंदू धर्मावलंबियों के लिए वैसा ही है जैसे वृक्षों में पीपल, हाथियों में ऐरावत और पहाड़ों में हिमालय ।

🌍विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नाम से मनाया जाता है:-

🚩उत्तर प्रदेश : मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व कहा जाता है ।
🚩गुजरात और राजस्थान : उत्तरायण पर्व के रूप में मनाया जाता है। पतंग उत्सव का आयोजन किया जाता है ।
🚩आंध्रप्रदेश : संक्रांति के नाम से तीन दिन का पर्व मनाया जाता है ।
🚩तमिलनाडु : किसानों का ये प्रमुख पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है ।
🚩महाराष्ट्र : लोग गजक और तिल के लड्डू खाते हैं और एक दूसरे को भेंट देकर शुभकामनाएं देते हैं ।
🚩पश्चिम बंगाल : हुगली नदी पर गंगा सागर मेले का आयोजन किया जाता है ।
🚩असम : भोगली बिहू के नाम से इस पर्व को मनाया जाता है ।
🚩पंजाब: एक दिन पूर्व लोहड़ी(इस बार १४ जनवरी पर्व के रूप में मनाया जाता है ।

🚩मकर संक्रांति के दिन ही पवित्र गंगा नदी का धरती पर अवतरण हुआ था। महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था, कारण कि उत्तरायण में देह छोड़ने वाली आत्माएँ या तो कुछ काल के लिए देवलोक में चली जाती हैं या पुनर्जन्म के चक्र से उन्हें छुटकारा मिल जाता है।

🚩दक्षिणायन में देह छोड़ने पर बहुत काल तक आत्मा को अंधकार का सामना करना पड़ सकता है । सब कुछ प्रकृति के नियम के तहत है, इसलिए सभी कुछ प्रकृति से बद्ध है । पौधा प्रकाश में अच्छे से खिलता है, अंधकार में सिकुड़ भी सकता है । इसीलिए मृत्यु हो तो प्रकाश में हो ताकि साफ-साफ दिखाई दे कि हमारी गति और स्थिति क्या है ।

🚩क्या करें मकर संक्रांति को..???

🌞मकर संक्रांति या उत्तरायण दान-पुण्य का पर्व है । इस दिन किया गया दान-पुण्य, जप-तप अनंतगुना फल देता है । इस दिन गरीब को अन्नदान, जैसे तिल व गुड़ का दान देना चाहिए। इसमें तिल या तिल के लड्डू या तिल से बने खाद्य पदार्थों को दान देना चाहिए । कई लोग रुपया-पैसा भी दान करते हैं।

🚩मकर संक्रांति के दिन साल का पहला पुष्य नक्षत्र है मतलब खरीदारी के लिए बेहद शुभ दिन ।

🚩उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण के इन नामों का जप विशेष हितकारी है ।

ॐ मित्राय नमः । ॐ रवये नमः ।
ॐ सूर्याय नमः । ॐ भानवे नमः ।
ॐ खगाय नमः । ॐ पूष्णे नमः ।
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः । ॐ मरीचये नमः ।
ॐ आदित्याय नमः । ॐ सवित्रे नमः ।
ॐ अर्काय नमः । ॐ भास्कराय नमः ।
ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः ।

🚩ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नम:। इस मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना करनी चाहिए। उनका चिंतन करके प्रणाम करना चाहिए। इससे सूर्यनारायण प्रसन्न होंगे, निरोगता देंगे और अनिष्ट से भी रक्षा करेंगे।

🚩यदि इस दिन नदी तट पर जाना संभव नहीं है, तो अपने घर के स्नानघर में पूर्वाभिमुख होकर जल पात्र में तिल मिश्रित जल से स्नान करें । साथ ही समस्त पवित्र नदियों व तीर्थ का स्मरण करते हुए ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र और भगवान भास्कर का ध्यान करें । साथ ही इस जन्म के पूर्व जन्म के ज्ञात अज्ञात मन, वचन, शब्द, काया आदि से उत्पन्न दोषों की निवृत्ति हेतु क्षमा याचना करते हुए सत्य धर्म के लिए निष्ठावान होकर सकारात्मक कर्म करने का संकल्प लें । जो संक्रांति के दिन स्नान नहीं करता वह 7 जन्मों तक निर्धन और रोगी रहता है।

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14 Jan, 14:21


*आत्मबोध🕉️🚩*

*उत्तरायण होते सूर्य की कृतज्ञ वंदना का सनातन पर्व मकर संक्रान्ति की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ🙏🏻☀️*

भारत की धार्मिक परम्परा का यह प्रमुख पर्व पौष मास में सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने वाले दिन मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है, मकर संक्रान्ति बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर (जाता हुआ) होता है। इसी कारण इस पर्व को 'उतरायण' (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते हैं।

*आज के दिन का उत्सव देश भर में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। मकर संक्रांति, उत्तरायण, खिचड़ी, पोंगल, तिल संक्रांति, टुसू, माघ बिहु, सकट पर्व या कोई और नाम हो, उत्सवधर्मिता, प्रकृति की उपासना और सौहार्द का भाव इन सब में समान रूप से निहित है। आप सब में भी सूर्य की सात्विकता, ऊर्जा और तेज का संचार हो।*

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14 Jan, 14:18


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार मनुष्य जीवन किस प्रकार शुद्ध/पवित्र होता है?*

*यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा । ब्रह्म तेन पुनातु मा॥*

*पद पाठ—*
यत्। ते। पवित्रम्। अर्चिषि। अग्ने। विततमिति विऽततम्। अन्तरा। ब्रह्म। तेन। पुनातु। मा॥

*(यजुर्वेद - अध्याय 19; मन्त्र 41)*

(ऋषिः - वैखानस ऋषिः, देवता - अग्निर्देवता, छन्दः - निचृदगायत्री, स्वरः - षड्जः)

*मन्त्रार्थ—*
हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर (ते) तेरे (अर्चिषि) सत्कार करने योग्य शुद्ध तेजःस्वरूप में (अन्तरा) सब से भिन्न (यत्) जो (विततम्) विस्तृत सब में व्याप्त (पवित्रम्) शुद्धस्वरूप (ब्रह्म) उत्तम वेद विद्या है, (तेन) उससे (मा) मुझ को आप (पुनातु) पवित्र कीजिये।

*व्याख्या—*
हे मनुष्यों! तुम लोग जो देवों का देव, पवित्रों का पवित्र, व्याप्तों में व्याप्त अन्तर्यामी ईश्वर और उसकी विद्या वेद है, वेदानुकूल आचरण से निरन्तर पवित्र होइए।

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14 Jan, 14:18


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२३४/३५० (234/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*द्वादश अध्याय : भक्तियोग*

*अध्याय १२ श्लोक ०५ (12/05)*
*क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।*
*अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥*

*शब्दार्थ—*
क्लेश:—कष्ट; अधिक-तर:—अत्यधिक; तेषाम्—उन; अव्यक्त—अव्यक्त के प्रति; आसक्त—अनुरक्त; चेतसाम्—मन वालों का; अव्यक्ता—अव्यक्त की ओर; हि— निश्चय ही; गति:—प्रगति; दु:खम्—दु:ख के साथ; देह-वद्भि:—देहाभिमानी के द्वारा; अवाप्यते—प्राप्त किया जाता है।

*अनुवाद—*
(यद्यपि मेरे ही लिये कर्मादि करनेमें लगे हुए साधकोंको भी बहुत क्लेश होता है? परंतु) जिनका चित्त अव्यक्तमें आसक्त है? उन अक्षरचिन्तक परमार्थदर्शियोंको तो देहाभिमानका परित्याग करना पड़ता है, इसलिये उन्हें और भी अधिक क्लेश उठाना पड़ता है। क्योंकि जो अक्षरात्मिका अव्यक्तगति है वह देहाभिमानयुक्त पुरुषोंको बड़े कष्टसे प्राप्त होती है? अतः उनको अधिक क्लेश होता है।

*अध्याय १२ श्लोक ०६ (12/06)*
*ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परा:।*
*अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥*

*शब्दार्थ—*
ये—जो; तु—लेकिन; सर्वाणि—समस्त; कर्माणि—कर्मों को; मयि—मुझमें; सन्न्यस्य—त्याग कर; मत्-परा:—मुझमें आसक्त; अनन्येन—अनन्य; एव—निश्चय ही; योगेन—ऐसे भक्तियोग के अभ्यास से; माम्—मुझको; ध्यायन्त:—ध्यान करते हुए; उपासते—पूजा करते हैं;

*अनुवाद—*
परंतु जो समस्त कर्मोंको मुझ ईश्वरके समर्पण करके मेरे परायण होकर अर्थात् मैं ही जिनकी परमगति हूँ ऐसे होकर केवल अनन्ययोगसे अर्थात् विश्वरूप आत्मदेवको छोड़कर जिसमें अन्य अवलम्बन नहीं है? ऐसे अनन्य समाधियोगसे ही मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
                   
           शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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13 Jan, 03:44


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार सुयोग्य वधू के गुण)*

*चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम् । द्यौर्भूमि: कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥*

*पद पाठ—*
चित्तिः । आः । उपऽबर्हणम् । चक्षुः । आः । अभिऽअञ्जनम् । द्यौः । भूमिः । कोशः । आसीत् । यत् । अयात् । सूर्या । पतिम् ॥

*(ऋग्वेद - मण्डल - 10; सूक्त - 85; मन्त्र - 7)*

(ऋषिः - सूर्या सावित्री, देवता - सूर्याविवाहः, अर्यमा, छन्द: - पादनिचृदनुष्टुप्, स्वर: - गान्धारः)

*मन्त्रार्थ—*
(सूर्या) सूर्यकान्तिसदृश योग्य नववधू (पतिम्-अयात्) पति-वर को प्राप्त होती है, (उपबर्हणं चित्तिः-आ) शिर का भूषण चेतानेवाली विद्या है (अभ्यञ्जनं चक्षुः-आः) नेत्र को सुन्दर बनानेवाला अञ्जन उसका यथार्थ दिखानेवाला स्नेहदर्शन है (कोशः-द्यौः-भूमिः आसीत्) कोश अर्थात् धनरक्षणस्थान के समान द्यावापृथिवीमय सब जगत् है, माता-पिता हैं ॥

*व्याख्या—*
सुयोग्य वधू वही कहलाती है, जिसकी विद्या ज्ञान ही मस्तक का भूषण है और उसका स्नेहदर्शन-स्नेहदृष्टि आँख का अञ्जन है, उसकी सम्पत्ति समस्त प्राणिजगत् या माता-पिता का आश्रय है, ऐसी वधू सुख शान्ति को प्राप्त करती है ॥

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13 Jan, 03:44


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२३३/३५० (233/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*द्वादश अध्याय : भक्तियोग*

*अध्याय १२ श्लोक ३,४ (12/3,4)*
*ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।*
*सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥*
*सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।*
*ते प्राप्‍नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥*

*शब्दार्थ—*
ये—जो; तु—लेकिन; अक्षरम्—इन्द्रिय अनुभूति से परे; अनिर्देश्यम्—अनिश्चित; अव्यक्तम्—अप्रकट; पर्युपासते—पूजा करने में पूर्णतया संलग्न; सर्वत्र-गम्— सर्वव्यापी; अचिन्त्यम्—अकल्पनीय; च—भी; कूट-स्थम्—अपरिवर्तित; अचलम्— स्थिर; ध्रुवम्—निश्चित; सन्नियम्य—वश में करके; इन्द्रिय-ग्रामम्—सारी इन्द्रियों को; सर्वत्र—सभी स्थानों में; सम-बुद्धय:—समदर्शी; ते—वे; प्राप्नुवन्ति—प्राप्त करते हैं; माम्—मुझको; एव—निश्चय ही; सर्व-भूत-हिते—समस्त जीवों के कल्याण के लिए; रता:—संलग्न।

*अनुवाद—*
लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके तथा सबों के प्रति समभाव रखकर परम सत्य की निराकार कल्पना के अन्तर्गत उस अव्यक्त की पूरी तरह से पूजा करते हैं, जो इन्द्रियों की अनुभूति के परे है, सर्वव्यापी है, अकल्पनीय है, अपरिवर्तनीय है, अचल तथा ध्रुव है, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्न रहकर अन्तत: मुझे(ईश्वर को) प्राप्त करते हैं।
(उन अक्षरउपासकोंके सम्बन्धमें वे मुझे (ईश्वर को) प्राप्त होते हैं इस विषयमें तो कहना ही क्या है, क्योंकि ज्ञानीको तो मैं (ईश्वर) अपना आत्मा ही समझता हूँ यह पहले ही कहा जा चुका है। जो भगवत्स्वरूप ही हैं उन संतजनोंके विषयमें युक्ततम या अयुक्ततम कुछ भी कहना नहीं बन सकता।) 
          
           शेष क्रमश: कल

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12 Jan, 07:26


*इतिहासबोध 🦁 🚩*
*12 जनवरी : राष्ट्रीय युवा दिवस : स्वामी विवेकानन्द जन्म जयंती*

वैश्विक क्षितिज को भारतीय अध्यात्म एवं संस्कृति की सुगंध से सुवासित करने वाले युवा संन्यासी, भारतीय मेधा के अप्रतिम प्रतिमान, युवाओं के प्रेरणास्रोत, युग प्रवर्तक स्वामी विवेकानंद जी को उनकी जयंती पर कोटिशः नमन एवं देश के सभी युवाओं को "राष्ट्रीय युवा दिवस" की हार्दिक शुभकामनाएं।

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12 Jan, 07:25


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार मनुष्य, न तो स्वयं दूसरों को कष्ट देने वाले बने न ही दूसरों पर इसका मिथ्यारोप लगाएं।*

*अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य। अधा स वीरैर्दशभिर्वि यूया यो मा मोघं यातुधानेत्याह॥*

*पद पाठ—*
अद्य । मुरीय । यदि । यातुऽधान: । अस्मि । यदि। वा । आयु: । ततप । पुरुषस्य । अध । स: । वीरै: । दशऽभि: । वि । यूया: । य: । मा । मोघम् । यातुऽधान । इति ।आह ॥४.१५॥

*(अथर्ववेद - काण्ड 8; सूक्त 4; मन्त्र 15)*

(ऋषिः - चातनः, देवता - इन्द्रासोमौ, अर्यमा, छन्दः - जगती, सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त)

*मन्त्रार्थ—*
(यदि) = यदि मैं (यातुधान:) = पीड़ा का आधान करनेवाला राक्षस (अस्मि) = हूँ, तो (अद्या मुरीय) = आज ही मर जाऊँ। (यदि वा) = अथवा यदि (पूरुषस्य) = किसी भी पुरुष के (आयुः ततप) = जीवन को मैं सन्तस करता हूँ तो मैं उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँ। पापी बनने से मर जाना अच्छा है। २. परन्तु (यः) = जो (मा) = मुझे (मोघम्) = व्यर्थ ही (यातुधान इति आह) = कि हे "यातुधान" ! अर्थात् जो मुझ पर यातुधान होने का दोषारोपण करता है। यातुधानः= यातनाओं का निधान। अर्थात् मुझपर व्यर्थ ही दोषारोपण करता है,पीड़ित करनेवाला कहता है, (स:) = वह (दशभिः वीरैः) = दसों पुत्रों से सब बन्धुओं से (वियूया:) = पृथक् हो जाए। सब बन्धु उसे अच्छा न समझें और उसका सामाजिक बहिष्कार कर दें।

*व्याख्या—*
यदि मैंने किसी मनुष्य के प्राणों को कष्ट पहुँचाया हो, अथवा मैं राक्षस हूँ, तो आज ही मेरी मृत्यु हो। हाँ, अगर किसीने झूठी वाणी से मुझे यातुधान अर्थात् दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाला कहा है, यदि वह आरोप असत्य सिद्ध हो जाय तो आरोपकर्त्ता को १० पुत्रों से सदा के लिए वियुक्त करने का दण्ड दिया जाय, अर्थात् उसे मृत्युदण्ड दिया जाय या पुत्रों से अलग कर दिया जाय। १० पुत्र इसलिये कहा कि वेदाज्ञा के अनुसार गृहस्थी को १० पुत्र उत्पन्न करने की स्वतन्त्रता दी है, इससे अधिक की नहीं। यथा “दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि" (ऋग्वेद १०।८५।४५)।

अर्थात् सत्पुरुषों के दुःखदायी होने से मनुष्य का मर जाना अच्छा है, और मिथ्या अपवादियों का भी नाश होना चाहिये। न मैं राक्षसीवृत्तिवाला बनूं और न ही किसी के जीवन को कष्टमय करनेवाला होऊँ।

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12 Jan, 07:25


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२३२/३५० (232/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु भक्तियोगो नाम द्वादशो अध्याय:*

*अध्याय १२ श्लोक ०१ (12/01)*
*अर्जुन उवाच—*
*एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।*
*ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:॥*

*शब्दार्थ—*
अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा; एवम्—इस प्रकार; सतत—निरन्तर; युक्ता:—तत्पर; ये—जो; भक्ता:—भक्तगण; त्वाम्—आपको; पर्युपासते—ठीक से पूजते हैं; ये—जो; च—भी; अपि—पुन:; अक्षरम्—इन्द्रियों से परे; अव्यक्तम्—अप्रकट को; तेषाम्— उनमें से; के—कौन; योग-वित्-तमा:—योगविद्या में अत्यन्त निपुण।

*अनुवाद—*
अर्जुन ने पूछा—जो भक्त इस प्रकार निरन्तर आपमें लगे रहकर आप- की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निराकारकी ही उपासना करते हैं, उनमें से उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?

*अध्याय १२ श्लोक ०२ (12/02)*
*श्रीभगवानुवाच—*
*मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।*
*श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥*

*शब्दार्थ—*
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; मयि—मुझमें; आवेश्य—स्थिर करके; मन:—मन को; ये—जो; माम्—मुझको; नित्य—सदा; युक्ता:—लगे हुए; उपासते— पूजा करते हैं; श्रद्धया—श्रद्धापूर्वक; परया—दिव्य; उपेता:—प्रदत्त; ते—वे; मे—मेरे द्वारा; युक्त-तमा:—योग में परम सिद्ध; मता:—माने जाते हैं।

*अनुवाद—*
श्रीभगवान् बोले - जो भक्त मुझ विश्वरूप परमेश्वरमें मनको समाधिस्थ करके सर्व योगेश्वरोंके अधीश्वर रागादि पञ्चक्लेशरूप अज्ञानदृष्टिसे रहित मुझ सर्वज्ञ परमेश्वरकी निरन्तर तत्पर हुए उत्तम श्रद्धासे युक्त होकर उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठतम योगी हैं। यह मैं मानता हूँ। क्योंकि वे लगातार मुझमें ही चित्त लगाकर रात-दिन व्यतीत करते हैं। अतः उनको युक्ततम कहना उचित ही है।  
          
           शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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11 Jan, 16:01


*आत्मबोध🕉️🚩*

*अंग्रेजी कैलेंडर को नकार भारतीय पञ्चांग का महत्व बढ़ाता राम मंदिर प्राणप्रतिष्ठा की पहली वर्षगांठ का महोत्सव*

भारतीय पञ्चांग अनुसार मूल प्रतिष्ठा पौष शुक्ल द्वादशी को है, इसलिए वर्षगांठ की तिथि 22 जनवरी को न होकर 11 जनवरी 2025 को होगी। क्योंकि आज लोग जिस ग्रेगोरियन (अंग्रेजी) कैलेंडर का पालन करते हैं वह केवल एक सौर कैलेंडर है जिसमें चंद्रमा की गति का ध्यान नहीं रखा जाता। हिन्दू वैदिक चंद्र-सौर पञ्चांग(कैलेंडर) का पालन करते हैं जो सूर्य और चंद्रमा दोनों की गति को ध्यान में रखता है।

मंदिर बोर्ड द्वारा 22 जनवरी के बजाय पौष शुक्ल द्वादशी को वर्षगांठ मनाने का निर्णय एक महत्वपूर्ण संकेतक है। सबसे पहले, यह दर्शाता है कि भारतीय समाज ने पारंपरिक हिंदू चंद्र-सौर कैलेंडर का उपयोग करके महत्वपूर्ण "तिथियों" को पहचानना आरम्भ कर दिया है। क्योंकि मंदिरों में धर्म का सही मार्ग दिखाने की शक्ति होती है, इसलिए यह उत्सव आधुनिक युग के भारतीयों को हिंदू तिथियों के साथ स्वयं को पुनः जोड़ने में सफल रहेगा।

विस्तार से पढ़ें⤵️
https://www.thejaipurdialogues.com/featured/ayodhya-ram-mandir-anniversary-a-sanatani-celebration/

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11 Jan, 16:01


*इतिहासबोध 🦁 🚩*

*पौष शुक्ल द्वादशी : अयोध्या में रामलला प्राणप्रतिष्ठा की प्रथम वर्षगांठ : सनातनधर्मियों का महत्वपूर्ण उत्सव*

रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हमारे सनातन रूपी आकाश में धर्म की विजय पताका के रूप में सुशोभित हुई है। आज दिनांक 11/01/2025 को वैदिक पंचांग के अनुसार इस भव्य तिथि की प्रथम वर्षगांठ है।
प्राणप्रतिष्ठा की तिथि साधारण न होकर अत्यन्त अद्भुत है, यह पौष शुक्ल वैकुंठ एकादशी के पारायण की तिथि है। यह तिथि ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं के संगम का प्रतीक है, जो अपने साथ श्रीराम के दिव्य सन्देश –धर्म, सत्य और न्याय को भी संरेखित करती है। जब भगवान श्रीहरि नारायण के वैकुंठ के द्वार भक्तों के लिए खुले रहते हैं, ऐसी पावन बेला की यह तिथि भक्तों को आध्यात्मिक उत्थान एवं दिव्य अनुग्रह प्रदान करती है।
इस पावन अवसर पर यजुर्वेद के मंत्रों से अयोध्या में त्रिदिवसीय उत्सव का आरंभ किया गया। पंचामृत अभिषेक, भव्य-दिव्य आरती का आयोजन, लाखों भक्तों के दर्शन करने की सुव्यवस्था, प्रसाद वितरण आदि का समुचित प्रबन्ध उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा करवाया गया।
माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी देश की जनता को इस वर्षगांठ का बधाई संदेश ज्ञापित करते हुए कहा है– _"सदियों के बलिदान और संघर्ष से निर्मित अयोध्या राम मन्दिर, हमारी संस्कृति और आध्यात्मिकता की एक शानदार विरासत है। सियावर रामचंद्र की जय।"_
आज श्रीराम मन्दिर वर्षगांठ के शुचि अवसर पर हम सभी को हमारे प्रभु श्रीराम की शिक्षाओं एवं उनके आदर्शों को स्मरण कर अपने जीवन में उतारना चाहिए। उनकी भक्ति, निष्ठा, त्याग, सत्य के प्रति समर्पण आदि सद्गुण हमारे प्रेरक स्रोत हैं। आइए हम सभी भगवान् श्रीराम के आशीर्वाद से अपने जीवन को सकारात्मक एवं समृद्ध बनाएं।
*🚩🕉️।।जय जय श्री राम।।🕉️🚩*

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07 Jan, 03:22


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा के गुण–कर्म–स्वभाव का वर्णन*

*त्वꣳ राजेव सुव्रतो गिरः सोमाविवेशिथ । पुनानो वह्ने अद्भुत ।।*

*पद पाठ—*
त्वम् । राजा । इव । सुव्रतः । सु । व्रतः । गिरः । सोम । आ । विवेशिथ । पुनानः । वह्ने । अद्भुत । अत् । भुत ।।

*(सामवेद – मंत्र संख्या 972)*

(ऋषिः - असित कश्यप ऋषि:, देवता - पवमानः सोमः, छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः)

*मन्त्रार्थ—*
हे (वह्ने) जगत् के भार के ढोनेवाले, (अद्भुत) आश्चर्यकारी गुण-कर्म-स्वभाववाले, (सोम) सबको उत्पन्न करनेवाले, सद्भावों को प्रेरित करनेवाले, ऐश्वर्यशालिन् जगदीश्वर ! (पुनानः) हदयों को पवित्र करते हुए (त्वम्) आप (राजा इव) सम्राट् के समान (सुव्रतः) सुकर्म करनेवाले हो। आप (गिरः) वेदवाणियों में (आविवेशिथ) प्रविष्ट हो, अर्थात् वेदवाणियाँ आपका ही वर्णन कर रही हैं, [क्योंकि ऋग्वेद कहता है कि ‘जिसने ऋचा पढ़कर परमेश्वर को नहीं जाना, उसे ऋचा से क्या लाभ’] (ऋ० १।१६४।३९) ।।

*व्याख्या—*
जैसे कोई उत्तम राजा राष्ट्र को उन्नत करनेवाले ही कार्य करता है, वैसे ही विश्वब्रह्माण्ड का अधीश्वर परमात्मा भी जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदि सब कर्म शुभ, निःस्वार्थ तथा परोपकार करने वाला ही होता है।

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07 Jan, 03:22


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२२८/३५० (228/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शनयोग*

*अध्याय ११ श्लोक ४६ (11/46)*
*किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।*
*तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥*

*शब्दार्थ—*
किरीटिनम्—मुकुट धारण किये; गदिनम्—गदाधारी; चक्र-हस्तम्—चक्रधारण किये; इच्छामि—इच्छुक हूँ; त्वाम्—आपको; द्रष्टुम्—देखना; अहम्—मैं; तथा एव— उसी स्थिति में; तेन एव—उसी; रूपेण—रूप में; चतु:-भुजेन—चार हाथों वाले; सहस्र-बाहो—हे हजार भुजाओं वाले; भव—हो जाइये; विश्व-मूर्ते—हे विराट रूप।

*अनुवाद—*
हे विराट रूप! हे सहस्रभुज भगवान्! मैं आपके मुकुटधारी चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, जिसमें आप अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए हों। मैं उसी रूप को देखने की इच्छा करता हूँ।

*अध्याय ११ श्लोक ४७ (11/47)*
*श्रीभगवानुवाच—*
*मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।*
*तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्॥*

*शब्दार्थ—*
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; मया—मेरे द्वारा; प्रसन्नेन—प्रसन्न; तव— तुमको; अर्जुन—हे अर्जुन; इदम्—इस; रूपम्—रूप को; परम्—दिव्य; दर्शितम्— दिखाया गया; आत्म-योगात्—अपनी अन्तरंगशक्ति से; तेज:-मयम्—तेज से पूर्ण; विश्वम्—समग्र ब्रह्माण्ड को; अनन्तम्—असीम; आद्यम्—आदि; यत्—जो; मे—मेरा; त्वत् अन्येन—तुम्हारे अतिरिक्त अन्य के द्वारा; न दृष्ट-पूर्वम्—किसी ने पहले नहीं देखा।

*अनुवाद—*
श्रीभगवान् ने कहा—हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंग शक्ति के बल पर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्वरूप का दर्शन कराया है। इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा था।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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06 Jan, 11:47


*इतिहासबोध 🦁 🚩*
*पौष शुक्ल सप्तमी : गुरु गोबिंद सिंह जन्म जयंती*

*भक्ति और शक्ति के अद्वितीय संगम, धर्म एवं हिंदू राष्ट्र की रक्षा हेतु सर्वस्व न्योछावर कर, अपने त्याग एवं बलिदान से देश-धरा को कृतज्ञ करने वाले 'सर्ववंशदानी' खालसा पंथ के संस्थापक परमपूज्य दशमेश गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती पर उनके चरणों में शत्-शत् वंदन।*

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06 Jan, 05:42


*आत्मबोध🕉️🦁*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा से सर्व प्रकार के भयों से निर्भयता प्रदान करने की सुन्दर प्रार्थना*

*यतोयतः समीहसे ततो नोऽअभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥*

*(यजुर्वेद अध्याय 36 मन्त्र 22)*

*मन्त्रार्थ—*
हे भगवन् ईश्वर! आप अपने कृपादृष्टि से (यतोयतः) जिस-जिस स्थान से (समीहसे) सम्यक् चेष्टा करते हो (ततः) उस उससे (नः) हमको (अभयम्) भयरहित (कुरु) कीजिये (नः) हमारी (प्रजाभ्यः) प्रजाओं से और (नः) हमारे (पशुभ्यः) गौ आदि पशुओं से (शम्) सुख और (अभयम्) निर्भय (कुरु) कीजिये।

*व्याख्या—*
हे दयालु परमेश्वर! जिस-जिस देश/स्थान से आप सम्यक् चेष्टा करते हो उस-उस देश से हमको अभय करो, अर्थात् जहाँ-जहाँ से हमको भय प्राप्त होने लगे, वहाँ-वहाँ से सर्वथा हम लोगों को अभय (भयरहित) करो तथा प्रजा से हमको सुख करो, हमारी प्रजा सब दिन सुखी रहे, भय देनेवाली कभी न हो तथा पशुओं से भी हमको अभय करो, किंच किसी से किसी प्रकार का भय हम लोगों को आपकी कृपा से कभी न हो, जिससे हम लोग निर्भय होके सदैव परमानन्द को भोगें और निरन्तर आपका राज्य तथा आपकी भक्ति करें।

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06 Jan, 05:42


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२२७/३५० (227/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शनयोग*

*अध्याय ११ श्लोक ४४ (11/44)*
*तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।*
*पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु: प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥*

*शब्दार्थ—*
तस्मात्—अत:; प्रणम्य—प्रणाम करके; प्रणिधाय—प्रणत करके; कायम्—शरीर को; प्रसादये—कृपा की याचना करता हूँ; त्वाम्—आपसे; अहम्—मैं; ईशम्— भगवान् से; ईड्यम्—पूज्य; पिता इव—पिता तुल्य; पुत्रस्य—पुत्र का; सखा इव— मित्रवत्; सख्यु:—मित्र का; प्रिय:—प्रेमी; प्रियाया:—प्रिया का; अर्हसि—आपको चाहिए; देव—मेरे प्रभु; सोढुम्—सहन करना।

*अनुवाद—*
आप(ईश्वर) प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान् हैं। अत: मैं शरीर को भलीभांति चरणों में निवेदित कर सादर प्रणाम करता हूँ और आप(ईश्वर) की कृपा की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है या मित्र अपने मित्र की धृष्टता सह लेता है या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, उसी प्रकार आप(ईश्वर) कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।

*अध्याय ११ श्लोक ४५ (11/45)*
*अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।*
*तदेव मे दर्शय देवरूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास॥*

*शब्दार्थ—*
अदृष्ट-पूर्वम्—पहले कभी न देखा गया; हृषित:—हर्षित; अस्मि—हूँ; दृष्ट्वा—देखकर; भयेन—भय के कारण; च—भी; प्रव्यथितम्—विचलित, भयभीत; मन:—मन; मे— मेरा; तत्—वह; एव—निश्चय ही; मे—मुझको; दर्शय—दिखलाइये; देव—हे प्रभु; रूपम्—रूप; प्रसीद—प्रसन्न होइये; देव-ईश—देवों के ईश; जगत्-निवास—हे जगत के आश्रय अथवा जगत् में निवास करने वाले।

*अनुवाद—*
पहले कभी न देखे गये आपके(ईश्वर के) इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है। अत: आप(ईश्वर) मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुन: दिखाएँ।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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06 Jan, 05:41


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार ईश्वर के प्रति हमारी आस्था कैसे दृढ़ की जा सकती है?*

*तमु ष्टवाम यं गिर इन्द्रमुक्थानि वावृधुः। पुरूण्यस्य पौंस्या सिषासन्तो वनामहे॥*

*पद पाठ—*
तम् । ऊँ इति । स्तवाम । यम् । गिरः । इन्द्रम् । उक्थानि । ववृधुः । पुरूणि । अस्य । पौंस्या । सिसासन्तः । वनामहे॥

*(ऋग्वेद - मण्डल 8; सूक्त 95; मन्त्र 6)*

*मन्त्रार्थ—*
हम उपासक (तम् उ इन्द्रम्) उस प्रभु की ही (स्तुवाम) गुण वन्दना करें (यम्) जिसको (गिरः) वेदवाणी से सुसंस्कृत हमारी वाणियाँ (उक्थानि) एवं हमारे प्रशंसनीय कर्म (वावृधुः) बढ़ाते रहते हैं। फिर हम (अस्य) इस परमेश्वर के (पुरूणि) बहुत से (पौंस्या) बल ऐश्वर्य को (सिषासन्तः) प्राप्त करना चाहते हुए (वनामहे) उसका भजन करते हैं।

*व्याख्या—*
प्रभु के गुणों की निरन्तर वन्दना से उसके प्रति उपासक नया उत्साह पाता है--यही परमेश्वर का विस्तार है। हमारे सुकर्म, परमेश्वर के प्रति हमारी आस्था को सुदृढ़ तथा विस्तृत करते हैं।

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06 Jan, 05:41


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२२६/३५० (226/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शनयोग*

*अध्याय ११ श्लोक ४२ (11/42)*
*यच्च‍ावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।*
*एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥*

*शब्दार्थ—*
यत्—जो; च—भी; अवहास-अर्थम्—हँसी के लिए; असत्-कृत:—अनादर किया गया; असि—हो; विहार—आराम में; शय्या—लेटे रहने पर; आसन—बैठे रहने पर; भोजनेषु—या भोजन करते समय; एक:—अकेले; अथ वा—या; अपि—भी; अच्युत—हे अच्युत; तत्-समक्षम्—साथियों के बीच; तत्—उन सभी; क्षामये— क्षमाप्रार्थी हूँ; त्वाम्—आपसे; अहम्—मैं; अप्रमेयम्—अचिन्त्य।

*अनुवाद—*
यही नहीं, मैंने कई बार आराम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है। हे अच्युत! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

*अध्याय ११ श्लोक ४३ (11/43)*
*पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।*
*न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥*

*शब्दार्थ—*
पिता—पिता; असि—हो; लोकस्य—पूरे जगत के; चर—सचल; अचरस्य—तथा अचलों के; त्वम्—आप हैं; अस्य—इसके; पूज्य:—पूज्य; च—भी; गुरु:—गुरु; गरीयान्—यशस्वी, महिमामय; न—कभी नहीं; त्वत्-सम:—आपके तुल्य; अस्ति— है; अभ्यधिक:—बढ़ कर; कुत:—किस तरह सम्भव है; अन्य:—दूसरा; लोक-त्रये— तीनों लोकों में; अपि—भी; अप्रतिम-प्रभाव—हे अचिन्त्य शक्ति वाले।

*अनुवाद—*
आप(ईश्वर) इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं। आप(ईश्वर) परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं। न तो कोई आपके तुल्य है, न ही कोई आपके समान हो सकता है। हे अतुल शक्ति वाले प्रभु! भला तीनों लोकों में आप(ईश्वर)से बढक़र कोई कैसे हो सकता है?

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06 Jan, 05:41


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : धन और जीवन की वृद्धि के लिए वैदिक प्रार्थना।*

*उदेनमुत्तरं नयाग्ने घृतेनाहुत। समेनं वर्चसा सृज प्रजया च बहुं कृधि॥*

*पद पाठ—*
उत् । एनम् । उत्ऽतरम् । नय । अग्ने । घृतेन । आऽहुत । सम् । एनम् । वर्चसा । सृज । प्रऽजया । च । बहुम् । कृधि॥

*(अथर्ववेद काण्ड:6 सूक्त:5 मन्त्र:1)*

(देवता: अग्निः ऋषि: अथर्वा छन्द: अनुष्टुप् स्वर: वर्चः प्राप्ति सूक्त)

*मन्त्रार्थ—*
(घृतेन) घृत से (आहुत) आहुति पाये हुए (अग्ने) हे अग्नि के समान तेजस्वी परमेश्वर ! (एनम्) इस पुरुष को (उत्तरम्) अधिक ऊँचा (उत् नय) उठा। (एनम्) इस को (वर्चसा) तेज से (सम् सृज) संयुक्त कर, (च) और (प्रजया) प्रजा से (बहुम्) प्रवृद्ध (कृधि) कर।

*व्याख्या—*
मनुष्य, परमेश्वर की भक्ति से तेजस्वी होकर अपना सामर्थ्य और प्रजा बढ़ावे।

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06 Jan, 05:41


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२२५/३५० (225/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शनयोग*

*अध्याय ११ श्लोक ४० (11/40)*
*नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।*
*अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्‍नोषि ततोऽसि सर्व:॥*

*शब्दार्थ—*
नम:—नमस्कार; पुरस्तात्—सामने से; अथ—भी; पृष्ठत:—पीछे से; ते—आपको; नम: अस्तु—मैं नमस्कार करता हूँ; ते—आपको; सर्वत:—सभी दिशाओं से; एव—निस्सन्देह; सर्व—क्योंकि आप सब कुछ हैं; अनन्त-वीर्य—असीम पौरुष; अमित विक्रम:—तथा असीम बल; त्वम्—आप; सर्वम्—सब कुछ; समाप्नोषि—आच्छादित करते हो; तत:—अतएव; असि—हो; सर्व:—सब कुछ।

*अनुवाद—*
हे अनन्त सामर्थ्य वाले भगवन्! आपके लिए अग्रत: और पृष्ठत: नमस्कार है। हे सर्वात्मन् ईश्वर! आपको सब ओर से नमस्कार है। क्योंकि आप(ईश्वर) अनन्त पराक्रमशाली हैं और आप(ईश्वर) समस्त संसार को व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप(ईश्वर) ही सर्वरूप हैं।

*अध्याय ११ श्लोक ४१ (11/41)*
*सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।*
*अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥*

*शब्दार्थ—*
सखा—मित्र; इति—इस प्रकार; मत्वा—मानकर; प्रसभम्—हठपूर्वक; यत्—जो भी; उक्तम्—कहा गया; हे कृष्ण—हे कृष्ण; हे यादव—हे यादव; हे सखे—हे मित्र; इति—इस प्रकार; अजानता—बिना जाने; महिमानम्—महिमा को; तव—आपकी; इदम्—यह; मया—मेरे द्वारा; प्रमादात्—मूर्खतावश; प्रणयेन—प्यार वश; वा अपि— या तो।

*अनुवाद—*
आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है, क्योंकि मैं आपकी महिमा को नहीं जानता था। मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें।
        
              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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06 Jan, 05:40


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा से परोपकार के लिए ऐश्वर्य की कामना*

*इमं वृषणं कृणुतैकमिन्माम्॥*

*पद पाठ—*
इमम् । वृषणम् । कृणुत । एकम् । इत् । माम्॥

*(सामवेद मन्त्र संख्या - 591)*

(देवता: विश्वे देवाः, ऋषि: वामदेवो गौतमः, छन्द: एकपात् त्रिष्टुप्, स्वर: धैवतः, काण्ड: आरण्यं काण्डम्)

*मन्त्रार्थ—*
हे परमात्मा, जीवात्मा, मन, बुद्धि आदि सब देवो, सब विद्वान् गुरुजनो तथा राज्याधिकारियो ! तुम (इमम्) इस (माम्) मुझको (एकम् इत्) अद्वितीय (वृषणम्) मेघ के समान धन, अन्न, सुख आदि की वर्षा करनेवाला (कृणुत) कर दो।

*व्याख्या—*
जैसे परमात्मा और शरीर में स्थित, समाज में स्थित तथा राष्ट्र में स्थित सब देव परोपकारी हैं, वैसे ही उनसे प्रेरणा लेकर मैं भी निर्धनों के ऊपर धन, अन्न आदि की वर्षा करनेवाला, अनाथों का नाथ और दूसरों के दुःख को हरनेवाला बनूँ।

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06 Jan, 05:40


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२२४/३५० (224/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशो अध्याय:*

*अध्याय ११ श्लोक ३८ (11/38)*
*त्वमादिदेव: पुरुष: पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।*
*वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।*

*शब्दार्थ—*
त्वम्—आप; आदि-देव:—आदि परमेश्वर; पुरुष:—पुरुष; पुराण:—प्राचीन, सनातन; त्वम्—आप; अस्य—इस; विश्वस्य—विश्व का; परम्—दिव्य; निधानम्—आश्रय; वेत्ता—जानने वाला; असि—हो; वेद्यम्—जानने योग्य, ज्ञेय; च—तथा; परम्—दिव्य; च—और; धाम—वास, आश्रय; त्वया—आपके द्वारा; ततम्—व्याप्त; विश्वम्—विश्व; अनन्त-रूप—हे अनन्त रूप वाले।

*अनुवाद—*
आप(ईश्वर) आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं। आप(ईश्वर) सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है। आप(ईश्वर) भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं। हे अनन्त रूप! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे(ईश्वरसे) व्याप्त है।

*अध्याय ११ श्लोक ३९ (11/39)*
*वायुर्यमोऽग्न‍िर्वरुण: शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।*
*नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।।*

*शब्दार्थ—*
वायु:—वायु; यम:—नियन्ता; अग्नि:—अग्नि; वरुण:—जल; शश-अङ्क:—चन्द्रमा; प्रजापति:—ब्रह्मा; त्वम्—आप; प्रपितामह:—परदादा; च—तथा; नम:—मेरा नमस्कार; नम:—पुन: नमस्कार; ते—आपको; अस्तु—हो; सहस्र-कृत्व:—हजार बार; पुन: च—तथा फिर; भूय:—फिर; अपि—भी; नम:—नमस्कार; नम: ते— आपको मेरा नमस्कार है।

*अनुवाद—*
आप(ईश्वर) वायु हैं तथा परम नियन्ता भी हैं। आप(ईश्वर) अग्नि हैं, जल हैं तथा चन्द्रमा हैं। आप(ईश्वर) आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं। अत: आपको(ईश्वर को) हजार बार नमस्कार है और पुन:-पुन: नमस्कार है।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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06 Jan, 05:40


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार कौन सत्कार करने योग्य हैं?*

*अग्ने त्वन्नोऽअन्तमऽउत त्राता शिवो भव वरूथ्यः । वसुरग्निर्वसुश्रवाऽअच्छा नक्षि द्युमत्तमँ रयिन्दाः । तन्त्वा शोचिष्ठ दीदिवः सुम्नाय नूनमीमहे सखिभ्यः॥*

*पद पाठ—*
अग्ने। त्वम्। नः। अन्तमः। उत। त्राता। शिवः। भव। वरुथ्यः। वसुः। अग्निः। वसुश्रवा इति वसुऽश्रवाः। अच्छ। नक्षि। द्युमत्तममिति द्युमत्ऽतमम्। रयिम्। दाः।

*(यजुर्वेद - अध्याय 25; मन्त्र 47)*

(ऋषिः - गोतम ऋषिः, देवता - अग्निर्देवता, छन्दः - शक्वरी, स्वरः - धैवतः)

*मन्त्रार्थ—*
हे (अग्ने) वेदवेत्ता पढ़ाने और उपदेश करने हारे विद्वान्! आप (अग्निः) अग्नि के समान (नः) हम लोगों के (अन्तमः) समीपस्थ (त्राता) रक्षा करने वाले (शिवः) कल्याणकारी (उत) और (वरूथ्यः) घरों में उत्तम (वसुश्रवाः) जिन के श्रवण में बहुत धन और (वसुः) विद्याओं में वसाने हारे हो, ऐसे (भव) हूजिये जो (द्युमत्तमम्) अतीव प्रकाशवान् (रयिम्) धन हम लोगों के लिये (अच्छ, दाः) भलीभांति देओ तथा हम को (नक्षि) प्राप्त होते हो सो (त्वम्) आप हम लोगों से सत्कार पाने योग्य हो॥४७॥

*व्याख्या—*
मनुष्यों को चाहिये कि सब के उपकारी वेदादि शास्त्रों के ज्ञाता, अध्यापक, उपदेशक, विद्वानों का सदैव सत्कार करें और वे सत्कार को प्राप्त हुए विद्वान् लोग भी सब के लिये उत्तम उपदेशादि अच्छे गुणों और धनादि पदार्थों को सदा देवें, जिससे परस्पर प्रीति और उपकार से बड़े-बड़े सुखों का लाभ होवे।

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06 Jan, 05:40


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : २२३/३५० (223/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशो अध्याय:*

*अध्याय ११ श्लोक ३६ (11/36)*
*अर्जुन उवाच—*
*स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।*
*रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा:॥*

*शब्दार्थ—*
अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा; स्थाने—यह ठीक है; हृषीक-ईश—हे इन्द्रियों के स्वामी; तव—आपके; प्रकीर्त्या—कीर्ति से; जगत्—सारा संसार; प्रहृष्यति—हर्षित हो रहा है; अनुरज्यते—अनुरक्त हो रहा है; च—तथा; रक्षांसि—असुरगण; भीतानि—डर से; दिश:—सारी दिशाओं में; द्रवन्ति—भाग रहे हैं; सर्वे—सभी; नमस्यन्ति—नमस्कार करते हैं; च—भी; सिद्ध-सङ्घा:—सिद्धपुरुष।

*अनुवाद—*
अर्जुन ने कहा—हे हृषीकेश! आप(ईश्वर)के नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं। यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं। यह ठीक ही हुआ है।

*अध्याय ११ श्लोक ३७ (11/37)*
*कस्माच्च‍ ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।*
*अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥*

*शब्दार्थ—*
कस्मात्—क्यों; च—भी; ते—आपको; न—नहीं; नमेरन्—नमस्कार करें; महा- आत्मन्—हे महापुरुष; गरीयसे—श्रेष्ठतर लोग; ब्रह्मण:—ब्रह्मा की अपेक्षा; अपि— यद्यपि; आदि-कर्त्रे—परम स्रष्टा को; अनन्त—हे अनन्त; देव-ईश—हे ईशों के ईश; जगत्-निवास—हे जगत के आश्रय; त्वम्—आप हैं; अक्षरम्—अविनाशी; सत्- असत्—कार्य तथा कारण; तत् परम्—दिव्य; यत्—क्योंकि।

*अनुवाद—*
हे महात्मा! आप(ईश्वर), ब्रह्मा से भी बढक़र हैं, आप आदि स्रष्टा हैं। तो फिर वे आपको सादर नमस्कार क्यों न करें? हे अनन्त, हे देवेश, हे जगन्निवास! आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् से परे हैं।

             शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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01 Jan, 08:15


🔆 अंग्रेज़ी नव वर्ष मनाने वाले सनातनियों के समक्ष कवि अंकुर 'आनन्द' की कविता प्रस्तुत है:—

*ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं*
*है अपना ये त्यौहार नहीं*
*है अपनी ये तो रीत नहीं*
*है अपना ये व्यवहार नहीं*
*धरा ठिठुरती है सर्दी से*
*आकाश में कोहरा गहरा है*
*बाग़ बाज़ारों की सरहद पर*
*सर्द हवा का पहरा है*
*सूना है प्रकृति का आँगन*
*कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं*
*हर कोई है घर में दुबका हुआ*
*नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं*
*चंद मास अभी इंतज़ार करो*
*निज मन में तनिक विचार करो*
*नये साल नया कुछ हो तो सही*
*क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही*
*उल्लास मंद है जन -मन का*
*आयी है अभी बहार नहीं*
*ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं*
*है अपना ये त्यौहार नहीं*
*ये धुंध कुहासा छंटने दो*
*रातों का राज्य सिमटने दो*
*प्रकृति का रूप निखरने दो*
*फागुन का रंग बिखरने दो*
*प्रकृति दुल्हन का रूप धार*
*जब स्नेह – सुधा बरसायेगी*
*शस्य – श्यामला धरती माता*
*घर -घर खुशहाली लायेगी*
*तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि*
*नव वर्ष मनाया जायेगा*
*आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर*
*जय गान सुनाया जायेगा*
*युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध*
*नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध*
*आर्यों की कीर्ति सदा -सदा*
*नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा*
*अनमोल विरासत के धनिकों को*
*चाहिये कोई उधार नहीं*
*ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं*
*है अपना ये त्यौहार नहीं*
*है अपनी ये तो रीत नहीं*
*है अपना ये त्यौहार नहीं*

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01 Jan, 07:47


*आत्मबोध🕉️🚩*

*वास्तविक कैलेंडर भारतीय सनातन कैलेंडर हैं, किसी समय यह पूरे विश्व में चलता था। पूरी जानकारी के लिए देखे ये वीडियो👆🏻👇🏻*

अंग्रेजी कैलेंडर में सितंबर, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर कहां से आया इसका वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि इसे हमारे कैलेंडर से लिया गया।

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01 Jan, 07:46


*विचारणीय 💭🕉️*

*हमारे सब त्यौहार हिन्दू पंचांग के अनुसार शुभ कार्यों का आरंभ हिन्दू पंचांग के अनुसार*

*जन्मपत्री, पितृकार्य, शुभकर्म, पर्व-उत्सव, समस्याओं का निराकरण हिन्दू पंचांग के अनुसार तो नया साल अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार क्यों?*

*#कैलेंडर_बदलें_संस्कृति_नहीं*

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01 Jan, 07:46


*आत्मबोध🕉️🚩*

*सनातनी हो तो सनातन नववर्ष मनाओ जो प्रकृति भी मनाती है🕉️🌱*

1 जनवरी : सनातन धर्म का नया साल नहीं है केवल ईसाइयों का है और बस अंग्रेजी वर्ष बदल रहा है।

*राष्ट्र की स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करते हुए अंग्रेजी नववर्ष मनाकर अपने उन महान पूर्वजों के बलिदान को अपमानित हम न करें जिन्होंने इनके अत्याचार सहकर भी मानसिक गुलामी नहीं स्वीकारी।*

हमारा भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को होता है। जो प्रकृति में बसन्त ऋतु के आगमन पर आरंभ होता है न कि सर्दी की भयंकर रात में

*आप सभी सनातनियों से विनम्र निवेदन है देखादेखी कर गुलाम मानसिकता का परिचय देते हुए...अंग्रेजी नववर्ष की शुभकामना ना दें..!!!*

*"कैलेंडर" भले ही बदलो "धर्म" और वास्तविकता नहीं...सत्य सनातन धर्म की जय 🚩🚩*

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26 Dec, 06:37


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा का ज्ञान रूपी प्रकाश कैसे योगाभ्यास में रत योगी के मानस को व्यापक ज्ञानवाला कर देता है यह वर्णन*

*दूरादिहेव यत्सतोऽरुणप्सुरशिश्वितत् । वि भानुं विश्वथातनत्।।*

*पद पाठ—*
दूरात् । दुः । आत् । इह । इव । यत् । सतः । अरुणप्सुः । अशिश्वितत् । वि । भानुम् । विश्वथा । अतनत् ।

*(सामवेद - मन्त्र 219)*

(ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः, देवता - अश्विनौ, मित्रावरुणौ, छन्दः - गायत्री , स्वरः - षड्जः)

*मन्त्रार्थ—*
*प्रथम—खगोल पक्ष में।* (अरुणप्सुः) चमकीले रूपवाला सूर्यरूपी इन्द्र (यत्) जब (दूरात्) खगोल में स्थित दूरवर्ती प्रदेश से, मङ्गल-बुध-चन्द्रमा आदि ग्रहोपग्रहों को (इह इव सतः) मानो यहीं समीप में ही स्थित करता हुआ (अशिश्वितत्) चमकाता है, तब (भानुम्) अपने प्रकाश को (विश्वथा) बहुत प्रकार से (वि अतनत्) विस्तीर्ण करता है ॥
*द्वितीय—अध्यात्म के पक्ष में।* (अरुणप्सुः) तेजस्वी रूपवाला इन्द्र परमेश्वर (यत्) जब, (दूरात्) दूर से अर्थात् व्यवधानयुक्त अथवा दूरस्थ प्रदेश से, पदार्थों को (इह इव सतः) यहाँ समीपस्थ के समान करता हुआ (अशिश्वितत्) योगी के मानस को प्रकाशित करता है, तब (भानुम्) भासमान जीवात्मा को (विश्वथा) सर्व प्रकार से (वि अतनत्) योगैश्वर्य प्राप्त कराकर विस्तीर्ण अर्थात् व्यापक ज्ञानवाला कर देता है।।

*व्याख्या—*
चमकीला सूर्य जब अपने प्रकाश को मङ्गल, बुध, बृहस्पति, चन्द्र आदि ग्रहोपग्रहों पर फेंकता है, तब उसके प्रकाश से वे प्रकाशित हो जाते हैं और वह प्रकाश हमारी आँखों पर प्रतिफलित होकर उन दूरस्थित पदार्थों को भी समीप में स्थित के समान दिखाता है। उसी प्रकार योगाभ्यास से योगियों के मनों में परमात्मा का दिव्य आलोक प्रतिबिम्बित होकर उनके अन्दर वह शक्ति उत्पन्न कर देता है, जिससे वे सूक्ष्म, ओट में स्थित तथा दूरस्थित पदार्थों को भी साक्षात् समीपस्थ के समान देखने लगते हैं।

योगाभ्यासी मनुष्य को परमात्मा द्वारा प्रदत्त दिव्य आलोक से सूक्ष्म, ओट में स्थित और दूरस्थ पदार्थों का दूरस्थित ताराव्यूहों का और ध्रुव आदि नक्षत्रों का समीपस्थ वस्तु के समान हस्तामलकवत् साक्षात्कार हो सकता है, यह योगदर्शन में विभूतिपाद में महर्षि पतञ्जलि ने कहा है।

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26 Dec, 06:37


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२१६/३५० (216/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शनयोग*

*अध्याय ११ श्लोक २२ (11/22)*
*रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।*
*गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥*

*शब्दार्थ—*
रुद्र—शिव का रूप; आदित्या—आदित्यगण; वसव:—सारे वसु; ये—जो; च— तथा; साध्या:—साध्य; विश्वे—विश्वेदेवता; अश्विनौ—अश्विनीकुमार; मरुत:— मरुद्गण; च—तथा; उष्म-पा:—पितर; च—तथा; गन्धर्व—गन्धर्व; यक्ष—यक्ष; असुर—असुर; सिद्ध—तथा सिद्ध देवताओं के; सङ्घा:—समूह; वीक्षन्ते—देख रहे हैं; त्वाम्—आपको; विस्मिता:—आश्चर्यचकित होकर; च—भी; एव—निश्चय ही; सर्वे—सब।

*अनुवाद—*
शिव के विविध रूप, आदित्यगण, वसु, साध्य, विश्वेदेव, दोनों अश्विनीकुमार, मरुद्गण, पितृगण, गन्धर्व, यक्ष, असुर तथा सिद्धदेव सभी आप(ईश्वर)को आश्चर्यपूर्वक देख रहे हैं।

*अध्याय ११ श्लोक २३ (11/23)*
*रूपं महत्ते बहुवक्‍त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।*
*बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्॥*

*शब्दार्थ—*
रूपम्—रूप; महत्—विशाल; ते—आपका; बहु—अनेक; वक्त्र—मुख; नेत्रम्— तथा आँखें; महा-बाहो—हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; बहु—अनेक; बाहु—भुजाएँ; ऊरु—जाँघें; पादम्–चरण; बहु-उदरम्—अनेक पेट; बहु-दंष्ट्रा—अनेक दाँत; करालम्—भयानक; दृष्ट्वा—देखकर; लोका:—सारे लोक; प्रव्यथिता:—विचलित; तथा—उसी प्रकार; अहम्—मैं।

*अनुवाद—*
हे महाबाहु! आप(ईश्वर)के इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु, जंघा, चरण, उदर तथा विकराल दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यन्त विचलित हैं और उन्हीं की भांति मैं भी हूँ।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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26 Dec, 00:43


*शत्रुबोध☪️💀*

*इस्लाम का वो सच जो वो नहीं चाहते कि आप जानें! नीरज अत्रि | इस्लाम, मुस्लिम मानसिकता, जिहाद आदि को समझने के लिए महत्वपूर्ण पॉडकास्ट अवश्य सुनें⤵️*

https://youtu.be/uAH2uQfdIhQ

चेंजमेकर्स के इस एपिसोड में, प्राच्यम के सीईओ कैप्टन प्रवीण चतुर्वेदी ने नीरज अत्रि के साथ कुरान के बारे में बातचीत की। वे इसके इतिहास, इस किताब में किस तरह की आयतें हैं, इसके अनुयायी मुसलमान इस किताब को इतनी गंभीरता से क्यों लेते हैं और क्या कुरान में मजहबी कट्टरता का कोई तत्व है, इस पर चर्चा करते हैं। यह पॉडकास्ट सुनें व अपने परिजनों मित्रों को भी अधिकाधिक संख्या में साझा कर इस्लाम को समझने में सहयोगी बनें।

नीरज अत्रि जी के चैनल को सब्सक्राइब करें।
https://youtube.com/@neerajatri

प्राच्यम् चैनल को सब्सक्राइब करें।
https://youtube.com/@prachyam

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26 Dec, 00:42


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : पर्यावरण रक्षा हेतु वेदों में परमात्मा का आदेश— "हे मनुष्य! तू पृथिवी की हिंसा मत कर"🌏🌱*

*भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्मी। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिंसीः॥*

*(यजुर्वेद अध्याय 13, मंत्र 18)*

*मन्त्रार्थ—*
हे पृथिवी ! तू (भू: असि) भू है, (भूमिः असि) भूमि है, (अदिति: असि) अदिति है, (विश्वधायाः) विश्वधाया है, विश्व को दूध पिलानेवाली है, (विश्वस्य भुवनस्य धर्ती) सब प्राणियों को धारण करनेवाली है। हे पृथिवी माता के पुत्र मनुष्य! तू (पृथिवींयच्छ) पृथिवी को नियन्त्रित कर, इसकी क्षति को रोक, (पृथिवीं दृह) पृथिवी को दृढ़ कर, (पृथिवीं मा हिंसीः) पृथिवी की हिंसा मत कर।

*व्याख्या—*
वेद के अनुसार पृथिवी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। हे पृथिवी माता ! तू ‘भू:’ है, विशिष्ट अस्तित्ववाली है। नभोमण्डल में जो अगणित लोक-लोकान्तर दिखायी देते हैं, उनके मध्य तेरा विशेष अस्तित्व है; क्योंकि तू अनेक प्राणियों को जन्म देकर उनकी माता बनती है। तू केवल ‘भूः’ ही नहीं, अपितु ‘भूमि’ भी है, अर्थात् अपने भूतल पर निवास करनेवाली प्राणियों को अस्तित्व देनेवाली भी है। तुझ पर बसने उवाले सिंह, व्याघ्र, हाथी, हरिण आदि कैसी शान से रहते हैं। तुझ पर रहनेवाले मानव की शान तो निराली ही है, जिसने अपने बुद्धि-कौशल से सुखी जीवन के लिए अनेक ज्ञान-विज्ञानों तथा अनेक उपयोगी वस्तुओं का आविष्कार किया है। हे माँ! तू ‘अदिति’ है, अखण्डनीया है, अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने योग्य नहीं है। जैसे माँ के कभी टुकड़े नहीं किये जाते, वैसे ही पृथिवी भी टुकड़ों में नहीं बाँटी जा सकती। माँ के अङ्ग-प्रत्यङ्ग तो होते हैं, पर उनमें सामञ्जस्य और एकसूत्रत्व रहता है, वैसे ही पृथिवी के भी विभिन्न राष्ट्र तो हो सकते हैं, परन्तु यजुर्वेद अनुसार उनमें परस्पर सौहार्द और एकसूत्रत्व रहना चाहिए। माँ के अङ्ग-प्रत्यङ्ग यदि एक-दूसरे से विद्रोह या विरोध करने लगें, तो उसका जीवन विपत्ति में पड़ जाएगा। ऐसे ही पृथिवी के भिन्न-भिन्न राष्ट्र यदि वाणी और क्रिया से एक-दूसरे के विरोध में तत्पर हो जाएँगे, तो पृथिवी भी निर्जीव हो जाएगी। हे पृथिवी! तू ‘विश्वधायाः’ है, सब सन्तानों को अपना दूध पिलानेवाली है, अपने अन्दर विद्यमान नाना खाद्य एवं पेय पदार्थों से उनका पोषण करनेवाली है। खाद्य-पेय से अतिरिक्त तुझमें विद्यमान सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि अन्य पदार्थ भी तेरा दूध ही हैं, जिनसे तू अपने पुत्र-पुत्रियों को उपकृत करती है। हे जननी! तू सकल भुवन को, सकल प्राणि-समूह को अपनी गोद में धारण करनेवाली है।

हे मानव ! अपनी इस पृथिवी माता पर तू गर्व कर, इसकी क्षति को रोक। देख, प्रतिवर्ष बरसात की उमड़ती नदियों से, समुद्र के तूफान से न जाने कितनी भूमि कट जाती है और उस पर बसे हुए लोगों के घर उजड़ जाते हैं। तू धरती माँ के इस अङ्ग-विच्छेद को रोक, पृथिवी को दृढ़ कर। बाँधों से नदियों की धारा को बाँध। वृक्षारोपण करके पहाड़ों की कटती हुई भूमि को कटने से बचा। तू पृथिवी की हिंसा मत कर, इसकी उपजाऊ शक्ति को नष्ट मत होने दे, अन्यथा सोना उगलनेवाली यह धरती बञ्जर हो जाएगी। हे मनुज! अपनी धरती माता की सेवा कर, इसके पर्यावरण-प्रदूषण को रोक, इसे सजा-सँवार कर रख। तब यह भी युग-युग तक तेरी सेवा करती रहेगी।

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26 Dec, 00:42


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२१५/३५० (215/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशो अध्याय:*

*अध्याय ११ श्लोक २० (11/20)*
*द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्‍तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।*
*दृष्ट्वाद्‍भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥*

*शब्दार्थ—*
द्यौ—बाह्य आकाश से लेकर; आ-पृथिव्यो:—पृथ्वी तक; इदम्—इस; अन्तरम्— मध्य में; हि—निश्चय ही; व्याप्तम्—व्याप्त; त्वया—आपके द्वारा; एकेन—अकेला; दिश:—दिशाएँ; च—तथा; सर्वा:—सभी; दृष्ट्वा—देखकर; अद्भुतम्—अद्भुत; रूपम्—रूप को; उग्रम्—भयानक; तव—आपके; इदम्—इस; लोक—लोक; त्रयम्—तीन; प्रव्यथितम्—भयभीत, विचलित; महा-आत्मन्—हे महापुरुष।

*अनुवाद—*
यद्यपि आप(ईश्वर) एक हैं, किन्तु आप(ईश्वर) आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं। हे महात्मन! आप(ईश्वर) के इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं।

*अध्याय ११ श्लोक २१ (11/21)*
*अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भ‍ीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति।*
*स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि:॥*

*शब्दार्थ—*
अमी—वे सब; हि—निश्चय ही; त्वाम्—आपको; सुर-सङ्घा:—देव समूह; विशन्ति— प्रवेश कर रहे हैं; केचित्—उनमें से कुछ; भीता:—भयवश; प्राञ्जलय:—हाथ जोड़े; गृणन्ति—स्तुति कर रहे हैं; स्वस्ति—कल्याण हो; इति—इस प्रकार; उक्त्वा—कहकर; महा-ऋषि—महर्षिगण; सिद्ध-सङ्घा:—सिद्ध लोग; स्तुवन्ति—स्तुति कर रहे हैं; त्वाम्—आपकी; स्तुतिभि:—प्रार्थनाओं से; पुष्कलाभि:—वैदिक स्तोत्रों से।

*अनुवाद—*
देवों का सारा समूह आप(ईश्वर) की शरण ले रहा है और आप(ईश्वर)में प्रवेश कर रहा है। उनमें से कुछ अत्यन्त भयभीत होकर हाथ जोड़े आप(ईश्वर) की प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों तथा सिद्धों के समूह स्वस्ति अर्थात् “कल्याण हो” कहकर वैदिक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आप(ईश्वर)की स्तुति कर रहे हैं।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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26 Dec, 00:42


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में इन्द्र नाम से परमेश्वर, सूर्य, राजा आदि की महिमा का वर्णन*

*पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत । इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्त्ता वज्री पुरुष्टुतः॥*

*पद पाठ—*
पुराम् । भिन्दुः । युवा । कविः । अमितौजाः । अमित । ओजाः । अजायत । इन्द्रः । विश्वस्य । कर्मणः । धर्त्ता । वज्री । पुरुष्टुतः । पुरु । स्तुतः॥

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 359)*

(ऋषिः - जेता माधुच्छन्दसः, देवता - इन्द्रः, छन्दः - अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः, काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्)

*मन्त्रार्थ—*
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (पुराम्) मन में दृढ़ हुई तमोगुण की नगरियों का (भिन्दुः) विदारक, (युवा) नित्य युवा रहनेवाला अर्थात् अजर-अमर, (कविः) वेदकाव्य का कवि, अथवा क्रान्तदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित तेजवाला, (वज्री) न्याय-दण्ड को धारण करनेवाला, (पुरुष्टुतः) बहुस्तुत (इन्द्रः) ब्रह्माण्ड का सम्राट् परमात्मा (विश्वस्य कर्मणः) सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि के भ्रमण, ऋतु-निर्माण, नदी-प्रवाह, वर्षा, पाप-पुण्य का फल प्रदान आदि सब कर्मों का (धर्ता) नियामक (अजायत) बना हुआ है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। (पुराम्) शत्रु की नगरियों या किलेबन्दियों का (भिन्दुः) तोड़नेवाला, (युवा) तरुण, (कविः) राजनीतिशास्त्र का पण्डित व दूरदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित पराक्रमवाला, (वज्री) विविध शस्त्रास्त्रों का संग्रहकर्ता और उनके प्रयोग में कुशल, (पुरुष्टुतः) अनेकों प्रजाजनों से प्रशंसित (इन्द्रः) शूरवीर राजा वा सेनापति (विश्वस्य कर्मणः) सब राजकाज वा सेनासंगठन-कार्य का (धर्ता) भार उठानेवाला (अजायत) होता है ॥ तृतीय—सूर्य के पक्ष में। (पुराम्) अन्धकार, बादल, बर्फ आदि नगरियों का (भिन्दुः) विदारणकर्ता, (युवा) पदार्थों को मिलाने और अलग करनेवाला, (कविः) अपनी धुरी पर घूमनेवाला, अथवा पृथिवी, मङ्गल, बुध, चन्द्रमा आदि ग्रहोपग्रहों को अपने चारों ओर घुमानेवाला, (अमितौजाः) अपरिमित बल और प्रकाश वाला, (वज्री) किरणरूप वज्रवाला, (पुरुष्टुतः) बहुत-से खगोलज्योतिष को जाननेवाले विद्वान् वैज्ञानिकों द्वारा वर्णन किया गया (इन्द्रः) सूर्य (विश्वस्य कर्मणः) सौरमण्डल में दिखायी देनेवाले सब प्राकृतिक कर्मों का (धर्ता) धारक (अजायत) बना हुआ है।

*व्याख्या—*
जैसे राष्ट्र का राजा सब राज्यकार्य का और सेनापति सेना के संगठनकार्य का नेता होता है, अथवा जैसे सूर्य सौरमण्डल का धारणकर्ता है, वैसे ही विविध लोक-लोकान्तरों के समष्टिरूप इस महान् ब्रह्माण्ड में विद्यमान सम्पूर्ण व्यवस्था का करनेवाला राजाधिराज परमेश्वर है, यह सबको जानना चाहिए।

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26 Dec, 00:42


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२१४/३५० (214/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशो अध्याय:*

*अध्याय ११ श्लोक १८ (11/18)*
*त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।*
*त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्‍ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥*

*शब्दार्थ—*
त्वम्—आप; अक्षरम्—अच्युत; परमम्—परम; वेदितव्यम्—जानने योग्य; त्वम्— आप; अस्य—इस; विश्वस्य—विश्व के; परम्—परम; निधानम्—आधार; त्वम्—आप; अव्यय:—अविनाशी; शाश्वत-धर्म-गोप्ता—शाश्वत धर्म के पालक; सनातन:— शाश्वत; त्वम्—आप; पुरुष:—परमपुरुष; मत: मे—मेरा मत है।

*अनुवाद—*
आप(ईश्वर) परम आद्य ज्ञेय वस्तु हैं। आप(ईश्वर) इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं। आप(ईश्वर) अव्यय तथा पुराण पुरुष हैं। आप(ईश्वर) सनातन धर्म के पालक भगवान् हैं। यही मेरा मत है।

*अध्याय ११ श्लोक १९ (11/19)*
*अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।*
*पश्यामि त्वां दीप्‍तहुताशवक्‍त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्॥*

*शब्दार्थ—*
अनादि—आदिरहित; मध्य—मध्य; अन्तम्—या अन्त; अनन्त—असीम; वीर्यम्— महिमा; अनन्त—असंख्य; बाहुम्—भुजाएँ; शशि—चन्द्रमा; सूर्य—तथा सूर्य; नेत्रम्— आँखें; पश्यामि—देखता हूँ; त्वाम्—आपको; दीप्त—प्रज्ज्वलित; हुताश-वक्त्रम्— आपके मुख से निकलती अग्नि को; स्व-तेजसा—अपने तेज से; विश्वम्—विश्व को; इदम्—इस; तपन्तम्—तपाते हुए।

*अनुवाद—*
आप(ईश्वर) आदि, मध्य तथा अन्त से रहित हैं। आप(ईश्वर)का यश अनन्त है। आप(ईश्वर)की असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा आप(ईश्वर)की आँखें हैं। मैं आप(ईश्वर)के मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकलते और आप(ईश्वर)के तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को तपते हुए देख रहा हूँ।            
              शेष क्रमश: कल

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26 Dec, 00:42


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : हृदय की पवित्रता के लिए सुन्दर वैदिक प्रार्थना*

*पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः । पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा॥*

*पद पाठ—*
पुनन्तु। मा। देवजना इति देवऽजनाः। पुनन्तु। मनसा। धियः। पुनन्तु। विश्वा। भूतानि। जातवेद इति जातऽवेदः। पुनीहि। मा॥३९॥

*(यजुर्वेद - अध्याय 19; मन्त्र 39)*

(ऋषिः - वैखानस ऋषिः, देवता - विद्वांसो देवता, छन्दः - अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः)

*मन्त्रार्थ—*
( मा ) = मुझे ( देवजना: ) = परमेश्वर के प्यारे विद्वान् महात्मा सन्त जन जो देव कहलाने योग्य हैं ( पुनन्तु ) = पवित्र करें। ( मनसा धियः ) = सोच विचार से किये कर्म ( पुनन्तु ) = पवित्र करें। ( विश्वा ) = सब ( भूतानि ) = प्राणिगण और पृथ्वी जलादि भूत ( पुनन्तु ) = पवित्र करें। ( जातवेदः ) = वेदों को संसार में प्रकट करनेवाला अन्तर्यामी प्रभु ( मा ) = मुझे ( पुनीहि ) = पवित्र करे ।

*व्याख्या—*
भावार्थ = हे पतित पावन भगवन्! आपकी कृपा से आपके प्यारे महात्मा सन्तजन, हमें उपदेश देकर पवित्र करें। हमारे विचारपूर्वक किये कर्म भी, हमें पवित्र करें । भगवन्! प्रकृति और इसके कार्य जो चर और अचर भूत हैं, ये सब आपके अधीन हैं, आपकी कृपा से हमें पवित्र होने में ये अनुकूल हैं। आपने हमें सांसारिक और पारमार्थिक सुख देने के लिए, चार वेद प्रकट किये हैं, आप कृपा करें कि, उन वेदों का स्वाध्याय करते हुए, हम सब आपके पुत्र अपने लोक और परलोक को सुधारें । यह तब ही हो सकता है, जब आप हमको पवित्र करें । मलिन हृदय से तो न आपकी भक्ति हो सकती है और न ही वेदों का स्वाध्याय, इसीलिए हमारी बारम्बार ऐसी प्रार्थना है कि, 'जातवेदः पुनीहि मा' ।

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26 Dec, 00:42


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२१३/३५० (213/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशो अध्याय:*

*अध्याय ११ श्लोक १६ (11/16)*
*अनेकबाहूदरवक्‍त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।*
*नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥*

*शब्दार्थ—*
अनेक—कई; बाहु—भुजाएँ; उदर—पेट; वक्त्र—मुख; नेत्रम्—आँखें; पश्यामि— देख रहा हूँ; त्वाम्—आपको; सर्वत:—चारों ओर; अनन्त-रूपम्—असंख्य रूप; न अन्तम्—अन्तहीन, कोई अन्त नहीं है; न मध्यम्—मध्य रहित; न पुन:—न फिर; तव—आपका; आदिम्—प्रारम्भ; पश्यामि—देखता हूँ; विश्व-ईश्वर—हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्व-रूप—ब्रह्माण्ड के रूप में।

*अनुवाद—*
हे विश्वेश्वर! मैं आपको अनेक बाहु, उदर, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ और न मध्य को और न आदि को।

*अध्याय ११ श्लोक १७ (11/17)*
*किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्‍तिमन्तम्।*
*पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्‍तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।*

*शब्दार्थ—*
किरीटिनम्—मुकुट युक्त; गदिनम्—गदा धारण किये; चक्रिणम्—चक्र समेत; च— तथा; तेज:-राशिम्—तेज की किरणें, तेज पुंज; सर्वत:—चारों ओर; दीप्ति-मन्तम्—प्रकाश युक्त; पश्यामि—देखता हूँ; त्वाम्—आपको; दुर्निरीक्ष्यम्—देखने में कठिन; समन्तात्— सर्वत्र; दीप्त-अनल—प्रज्ज्वलित अग्नि; अर्क—सूर्य की; द्युतिम्—धूप; अप्रमेयम्— अनन्त।

*अनुवाद—*
मैं आपका मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रधारण किये हुये तथा सब ओर से प्रकाशमान् तेज का पुंज, दीप्त अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय, देखने में अति कठिन और अप्रमेयस्वरूप सब ओर से देखता हूँ।

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26 Dec, 00:41


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : पवित्रता के स्रोत परमात्मा से जीवन में पवित्रता की प्रार्थना*

*स पवस्व विचर्षण आ मही रोदसी पृण । उषाः सूर्यो न रश्मिभि:॥*

*पद पाठ—*
सः । पवस्व । विऽचर्षणे । आ । माही इति । रोदसी इति । पृण । उषाः । शूर्यः । न । रश्मिऽभिः॥

*(ऋग्वेद - मण्डल 9; सूक्त 41; मन्त्र 5)*

(ऋषिः - मेध्यातिथिः, देवता - पवमानः सोमः, छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः)

*मन्त्रार्थ—*
(विचर्षण) हे सर्वद्रष्टा परमात्मन् ! (उषाः सूर्यः न रश्मिभिः) जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से उषःकाल को प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार (मही रोदसी) इस महान् पृथिवीलोक और द्युलोक को (आपृण) अपने ऐश्वर्य से पूरित करिये और (पवस्व) उस ऐश्वर्य से अपने सत्कर्मी उपासकों को पवित्र करिये।

*व्याख्या—*
परमात्मा ही एकमात्र पवित्रता का केन्द्र है। पवित्रता चाहनेवालों को चाहिये कि पवित्र होने के लिये उसी परमात्मा की उपासना करके अपने आपको पवित्र बनायें।

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26 Dec, 00:41


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२१२/३५० (212/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशो अध्याय:*

*अध्याय ११ श्लोक १४ (11/14)*
*तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जय:।*
*प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।*

*शब्दार्थ—*
तत:—तत्पश्चात्; स:—वह; विस्मय-आविष्ट:—आश्चर्यचकित होकर; हृष्ट-रोमा—हर्ष से रोमांचित; धनञ्जय:—अर्जुन; प्रणम्य—प्रणाम करके; शिरसा—शिर के बल; देवम्—भगवान् को; कृत-अञ्जलि:—हाथ जोड़कर; अभाषत—कहने लगा।

*अनुवाद—*  
तब आश्चर्यचकित एवं रोमांचित हुए अर्जुन ने प्रकाशमय विश्व रूप परमात्मा को भक्तिसहित प्रणाम करने के लिए मस्तक झुकाया और वह हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करने लगे।

*अध्याय ११ श्लोक १५ (11/15)*
*अर्जुन उवाच—*
*पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्।*
*ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥*

*शब्दार्थ—*
अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा; पश्यामि—देखता हूँ; देवान्—समस्त देवताओं को; तव—आपके; देव—हे प्रभु; देहे—शरीर में; सर्वान्—समस्त; तथा—भी; भूत— जीव; विशेष-सङ्घान्—विशेष रूप से एकत्रित; ब्रह्माणम्—ब्रह्मा को; ईशम्—शिव को; कमल-आसन-स्थम्—कमल के ऊपर आसीन; ऋषीन्—ऋषियों को; च—भी; सर्वान्—समस्त; उरगान्—सर्पों को; च—भी; दिव्यान्—दिव्य।

*अनुवाद—*  
अर्जुन ने कहा— हे भगवन्! मैं आपके शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देख रहा हूँ। मैं कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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21 Dec, 06:59


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : पापों व रोगों से दूर रहने हेतु परमात्मा से प्रार्थना*

*वि देवा जरसावृतन्वि त्वमग्ने अरात्या। व्याहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥*

*पद पाठ—*
वि । देवा: । जरसा । अवृतन् । वि । त्वम् । अग्ने । अरात्या । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा॥

*(अथर्ववेद - काण्ड 3; सूक्त 31; मन्त्र 1)*

(ऋषिः - ब्रह्मा, देवता - पाप्महा, अग्निः, छन्दः - अनुष्टुप्, सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त)

*व्याख्या—*
(देवाः) दिव्यगुण युक्त, सदाचारी, उदार विद्वान् लोग (जरसा) वृद्धावस्था से (वि अवृतन्) पृथक् रहे हैं और (अग्ने) आग (त्वम्) तू (अरात्या) कंजूसी से, अदान भावना से (वि) सदा अलग रही है । (अहम्) मै (सर्वेण) सब (पाप्मना) पाप से (वि) दूर रहूँ (यक्ष्मेण) यक्ष्मा आदि रोगों से (वि) पृथक् रहूँ और (आयुषा) उत्तम तथा पूर्णायु से, सुजीवन से (सम्) संयुक्त रहूँ ।

*मन्त्रार्थ—*
जैसे देव वृद्धावस्था से पृथक् रहते हैं वैसे ही मैं भी पापों से दूर रहूँ । देव, परोपकारी, उदाराशय व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होते । शरीर के वृद्ध होने पर भी इनके मन में जवानी की तरंगें उठती हैं । जिसका मन जवान है उन्हें बुढापा कैसा ? जैसे अग्नि अदान-भावना से मुक्त रहती है उसी प्रकार मैं भी रोगों से दूर रहूँ । अग्नि का गुण है ताप और प्रकाश । अग्नि अपने इन गुणों से कभी पृथक् नहीं होती । यदि अग्नि में ये गुण न रहें तो वह अग्नि नहीं रहती; फिर तो वह राख की ढेरी बन जाती है और उसे उठाकर कूड़े पर फेंक दिया जाता है । ‘शरीरं व्याधिमन्दिरम्’ शरीर बीमारियों का घर है, ऐसा मत सोचो । हमारी तो ऐसी कामना और भावना होनी चाहिए कि जिस प्रकार अग्नि ताप और प्रकाश से युक्त होती है, मैं भी वैसा ही ओजस्वी और तेजस्वी बनूँ, आधियाँ और व्याधियाँ मेरे निकट न आएँ ।मैं सदा सुन्दर, शोभन एवं श्रेष्ठ जीवन से युक्त रहूँ।

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21 Dec, 06:58


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२११/३५० (211/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अथ श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशो अध्याय:*

*अध्याय ११ श्लोक १२ (11/12)*
*दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।*
*यदि भा: सदृशी सा स्याद्भ‍ासस्तस्य महात्मन:॥*

*शब्दार्थ—*
दिवि—आकाश में; सूर्य—सूर्य का; सहस्रस्य—हजारों; भवेत्—थे; युगपत्— एकसाथ; उत्थिता—उपस्थित; यदि—यदि; भा:—प्रकाश; सदृशी—के समान; सा— वह; स्यात्—हो; भास:—तेज; तस्य—उस; महा-आत्मन:—परम स्वामी का।

*अनुवाद—*
यदि आकाश में हजारों सूर्य एकसाथ उदय हों, तो उनका प्रकाश शायद परमपुरुष परमात्मा के इस विश्वरूप के तेज की समता कर सके।

*अध्याय ११ श्लोक १३ (11/13)*
*तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।*
*अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥*

*शब्दार्थ—*
तत्र—वहाँ; एक-स्थम्—एकत्र, एक स्थान में; जगत्—ब्रह्माण्ड; कृत्स्नम्—सम्पूर्ण; प्रविभक्तम्—विभाजित; अनेकधा—अनेक में; अपश्यत्—देखा; देव-देवस्य— भगवान् के; शरीरे—विश्वरूप में; पाण्डव:—अर्जुन ने; तदा—तब

*अनुवाद—*
उस समय अर्जुन भगवान् के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सका।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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21 Dec, 06:58


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में प्रभातकाल के सूर्य के समान अन्धकारविनाशक परमात्मा का उदय अपने हृदय में करने की प्रेरणा*

*प्रत्यु अदर्श्यायत्यू३च्छन्ती दुहिता दिवः । अपो मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी॥*

*पद पाठ—*
प्रति । उ । अदर्शि । आयती । आ । यती । उच्छन्ती । दुहिता । दिवः । अप । उ । मही । वृणुते । चक्षुषा । तमः । ज्योतिः । कृणोति । सूनरी । सु । नरी।

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 303)*

(ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः, देवता - उषाः, छन्दः - बृहती, स्वरः - मध्यमः, काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्)

*मन्त्रार्थ—*
(आयती) आती हुई, (उच्छन्ती) उदित होती हुई (दिवः दुहिता) द्यौ-लोक की पुत्री उषा (प्रति अदर्शि उ) दिखाई दी है। (मही) महती यह उषा (चक्षुषा) दर्शनप्रदान से (तमः) अन्धकार को (अप उ वृणुते) दूर कर रही है। (सूनरी) सुनेत्री यह उषा (ज्योतिः) ज्योति को (कृणोति) उत्पन्न कर रही है ॥१॥ इस मन्त्र में स्वभावोक्ति अलङ्कार है और प्राकृतिक उषा के वर्णन से आध्यात्मिक उषा का वर्णन ध्वनित हो रहा है।

*व्याख्या—*
जैसे सूर्योदय से पूर्व व्याप्त घने रात्रि के अन्धकार को विच्छिन्न करता हुआ प्राकृतिक उषा का प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है, वैसे ही परमात्मारूप सूर्य के उदय से पूर्व मनोभूमि में व्याप्त तामसिक वृत्तियों के जाल को विच्छिन्न कर आध्यात्मिक उषा का प्रकाश आत्मा में फैलता है। यह उषा योगमार्ग में ऋतम्भरा प्रज्ञा के नाम से प्रसिद्ध है।

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21 Dec, 06:58


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२१०/३५० (210/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शनयोग*

*अध्याय ११ श्लोक १०,११ (11/10,11)*
*अनेकवक्‍त्रनयनमनेकाद्भ‍ुतदर्शनम्।*
*अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥*
*दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।*
*सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥*

*शब्दार्थ—*
अनेक—कई; वक्त्र—मुख; नयनम्—नेत्र; अनेक—अनेक; अद्भुत—विचित्र; दर्शनम्—दृश्य; अनेक—अनेक; दिव्य—दिव्य, अलौकिक; आभरणम्—आभूषण; दिव्य—दैवी; अनेक—विविध; उद्यत—उठाये हुए; आयुधम्—हथियार; दिव्य— दिव्य; माल्य—मालाएँ; अम्बर—वस्त्र; धरम्—धारण किये; दिव्य—दिव्य; गन्ध— सुगन्धियाँ; अनुलेपनम्—लगी थीं; सर्व—समस्त; आश्चर्य-मयम्—आश्चर्यपूर्ण; देवम्—प्रकाशयुक्त; अनन्तम्—असीम; विश्वत:-मुखम्—सर्वव्यापी।

*अनुवाद—*
अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे। यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी अस्त्र शस्त्रों को धारण किए हुए था। यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं। सब कुछ आश्चर्यमय, तेजोमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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19 Dec, 05:16


*इतिहासबोध 🦁🚩*
*19 दिसम्बर : काकोरी वीर बलिदान दिवस*

*बलिदानी—*
अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने के लिए क्रांतिकारियों ने काकोरी कांड को अंजाम दिया था। इस कांड के लिए राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां , ठाकुर रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को फांसी की सजा सुनाई गई थी। बिस्मिल, अशफाक और रोशन सिंह को पृथक्-पृथक् स्थान पर 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई।
क्रांतिकारी राजेंद्र लाहिड़ी को भी 19 दिसंबर को ही फांसी दी जानी थी, किन्तु जनता के विद्रोह को देखते हुए राजेंद्र लाहिड़ी को गोंडा जेल में दो दिन पहले अर्थात् 17 दिसंबर, 1927 को फांसी पर चढ़ा दिया गया था।

*चुनी गईं जेल—*
अशफाक उल्ला खां को गोरखपुर जेल में फांसी की सजा दी गई थी।
पंडित राम प्रसाद 'बिस्मिल' को फैजाबाद जेल में फांसी की सजा दी गई थी।
ठाकुर रोशन सिंह को इलाहाबाद जेल में फांसी दी गई थी।

*क्या था काकोरी कांड?—*
काकोरी कांड को अंजाम देने के कारण इन स्वातंत्र्यवीरों को फांसी पर चढ़ाया गया था। 9 अगस्त 1925 की रात थी जब चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद 'बिस्मिल', अशफाक उल्ला खां, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह समेत तमाम क्रांतिकारियों ने लखनऊ से कुछ दूरी पर काकोरी और आलमनगर के बीच ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया था। इस घटना ने अंग्रेजी सरकार को झंझोड़ कर रख दिया था। वहीं खजाना लूटे जाने के बाद चंद्रशेखर आजाद पुलिस के हाथ नहीं लगे थे, लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह पुलिस के चंगुल में फंस गए। बाद में अंग्रेजी सरकार ने मुकदमा चलाकर देश के इन महान क्रांतिकारियों को मृत्युदंड दिया।



*भारत के इन सपूतों को कोटि-कोटि नमन 🙏🏻*

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19 Dec, 03:41


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार कौन मनुष्य वर्तमान और अगले जन्म में सुख पाते हैं?*

*अग्निँ हृदयेनाशनिँ हृदयाग्रेण पशुपतिङ्कृत्स्नहृदयेन भवँयक्ना। शर्वम्मतस्नाभ्यामीशानम्मन्युना महादेवमन्तःपर्शव्येनोग्रन्देवँवनिष्ठुना वसिष्ठहनुः शिङ्गीनि कोश्याभ्याम्॥*

*(यजुर्वेद - अध्याय 39; मन्त्र 8)*

*मन्त्रार्थ—*
हे मनुष्यों! जो जीव (हृदयेन) हृदयरूप अवयव से (अग्निम्) अग्नि को (हृदयाग्रेण) हृदय के ऊपरले भाग से (अशनिम्) बिजुली को (कृत्स्नहृदयेन) संपूर्ण हृदय के अवयवों से (पशुपतिम्) पशुओं के रक्षक जगत् धारणकर्त्ता सबके जीवनहेतु परमेश्वर को (यक्ना) यकृतरूप शरीर के अवयवों से (भवम्) सर्वत्र होनेवाले ईश्वर को (मतस्नाभ्याम्) हृदय के इधर-उधर के अवयवों से (शर्वम्) विज्ञानयुक्त ईश्वर को (मन्युना) दुष्टाचारी और पाप के प्रति वर्त्तमान क्रोध से (ईशानम्) सब जगत् के स्वामी ईश्वर को (अन्तःपर्शव्येन) भीतरी पसुरियों के अवयवों में हुए विज्ञान से (महादेवम्) महादेव (उग्रम् देवम्) तीक्ष्ण स्वभाववाले प्रकाशमान ईश्वर को (वनिष्ठुना) आँत विशेष से (वसिष्ठहनुः) अत्यन्त वास के हेतु राजा के तुल्य ठोडीवाले जन को (कोश्याभ्याम्) पेट में हुए दो मांसपिण्डों से (शिङ्गीनि) जानने वा प्राप्त होने योग्य वस्तुओं को प्राप्त होते हैं, ऐसा तुम लोग जानो।

*व्याख्या—*
जो मनुष्य, शरीर के सब अङ्गों से धर्माचरण, विद्याग्रहण, सत्सङ्ग और सर्वरक्षक,सर्वव्यापक, विज्ञानयुक्त, प्रकाशमान जगदीश्वर परमात्मा की उपासना करते हैं, वे वर्त्तमान और भविष्यत् जन्मों में सुखों को प्राप्त होते हैं।

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19 Dec, 03:41


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :२०९/३५० (209/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*एकादश अध्याय : विश्वरूपदर्शनयोग*

*अध्याय ११ श्लोक ०८ (11/08)*
*न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।*
*दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्॥*

*शब्दार्थ—*
न—कभी नहीं; तु—लेकिन; माम्—मुझको; शक्यसे—तुम समर्थ होगे; द्रष्टुम्—देखने में; अनेन—इन; एव—निश्चय ही; स्व-चक्षुषा—अपनी आँखों से; दिव्यम्—दिव्य; ददामि—देता हूँ; ते—तुमको; चक्षु:—आँखें; पश्य—देखो; मे—मेरी; योगम् ऐश्वरम्—अचिन्त्य योगशक्ति।

*अनुवाद—*
किंतु, तू मुझ विश्वरूपधारी परमेश्वरको अपने इन प्राकृत नेत्रोंसे नहीं देख सकेगा। जिन दिव्य नेत्रोंद्वारा तू मुझे देख सकेगा, वे दिव्य नेत्र (मैं परमेश्वर) तुझे देता हूँ, उनके द्वारा तू मुझ ईश्वरके ऐश्वर्य और योगको अर्थात् अतिशय योगसामर्थ्यको देख।        
            
*अध्याय ११ श्लोक ०९ (11/09)*
*सञ्जय: उवाच—*
*एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि:।*
*दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥*

*शब्दार्थ—*
सञ्जय: उवाच—संजय ने कहा; एवम्—इस प्रकार; उक्त्वा—कहकर; तत:— तत्पश्चात्; राजन्—हे राजा; महा-योग-ईश्वर:—परम शक्तिशाली योगी; हरि:—भगवान् कृष्ण ने; दर्शयाम् आस—दिखलाया; पार्थाय—अर्जुन को; परमम्—दिव्य; रूपम् ऐश्वरम्—विश्वरूप।

*अनुवाद—*
सञ्जय ने कहा—हे राजा! इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर भगवान् ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखलाया।     
      
              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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07 Dec, 04:15


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : कैसे पुरुष व स्त्रियां मनुष्यजन्म के वास्तविक फल को पाते हैं?*

*या ते घर्म दिव्या शुग्या गायत्र्याँ हविर्धाने। सा तऽआ प्यायतान्निष्प्यायतान्तस्यै ते स्वाहा। या ते घर्मान्तरिक्षे शुग्या त्रिष्टुभ्याग्नीध्रे। सा तऽआ प्यायतान्निष्प्यायतान्तस्यै ते स्वाहा। या ते घर्म पृथिव्याँ शुग्या जगत्याँ सदस्या। सा तऽआ प्यायतान्निष्प्यायतान्तस्यै ते स्वाहा॥*

*(यजुर्वेद - अध्याय 38; मन्त्र 18)*

*मन्त्रार्थ—*
हे (घर्म) प्रकाशस्वरूप विद्वन्! वा विदुषी स्त्रि! (या) जो (ते) तेरी (गायत्र्याम्) पढ़नेवालों की रक्षक विद्या और (हविर्धाने) होमने योग्य पदार्थों के धारण में (शुक्) विचार की साधनरूप क्रिया और (या) जो (दिव्या) दिव्य गुणों में हुई क्रिया है (सा) वह (ते) तेरी (आ, प्यायताम्) सब ओर से बढ़े और (निः, स्त्यायताम्) निरन्तर संयुक्त होवे (तस्यै) उस क्रिया और (ते) तेरे लिये (स्वाहा) प्रशस्त वाणी होवे। हे (घर्म) दिन के तुल्य प्रकाशित विद्यावाले जन वा स्त्रि! (या) जो (ते) तेरी (अन्तरिक्षे) आकाश विषय में (शुक्) सूर्य्य की दीप्ति के समान विमानादि की गमन क्रिया और (या) जो (आग्नीध्रे) अग्नि के आश्रय में तथा (त्रिष्टुभि) त्रिष्टुप् छन्द से निकले अर्थ में विचाररूप क्रिया है (सा) वह (ते) तेरी (आ, प्यायताम्) बढ़े और (निः, स्त्यायताम्) निरन्तर संयुक्त होवे (तस्यै) उस क्रिया और (ते) तेरे लिये (स्वाहा) सत्यवाणी होवे। हे (घर्म) बिजुली के प्रकाश के तुल्य वर्त्तमान स्त्रि वा पुरुष! (या) जो (ते) तेरी (पृथिव्याम्) भूमि पर और (या) जो (सदस्या) सभा में हुई (जगत्याम्) चेतन प्रजायुक्त सृष्टि में (शुक्) प्रकाशयुक्त क्रिया है, (सा) वह (ते) तेरी (आ, प्यायताम्) बढ़े और (निः, स्त्यायताम्) निरन्तर सम्बद्ध होवे (तस्यै) उस क्रिया तथा (ते) तेरे लिये (स्वाहा) सत्यवाणी होवे।

*व्याख्या -*
जो स्त्री-पुरुष दिव्य क्रिया, शुद्ध उपासना और पवित्र विज्ञान को पाकर प्रकाशित हाते हैं, वे ही मनुष्यजन्म के फल से युक्त होते हैं, औरों को भी वैसा ही करना चाहिए।

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07 Dec, 04:15


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :१९७/३५० (197/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*दशम् अध्याय : विभूतियोग*
*अध्याय १० श्लोक २६ (10/26)*
*अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।*
*गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि:॥*

*शब्दार्थ—*
अश्वत्थ:—पीपल वृक्ष; सर्व-वृक्षाणाम्—सारे वृक्षों में; देव-ऋषीणाम्—समस्त देवर्षियों में; च—तथा; नारद:—नारद; गन्धर्वाणाम्—गन्धर्वलोक के वासियों में; चित्ररथ:—चित्ररथ; सिद्धानाम्—समस्त सिद्धि प्राप्त हुओं में; कपिल: मुनि:—कपिल मुनि।

*अनुवाद—*
समस्त वृक्षोंमें पीपलका वृक्ष और देवर्षियोंमें अर्थात् जो देव होकर मन्त्रोंके द्रष्टा होनेके कारण ऋषिभावको प्राप्त हुए हैं, उनमें मैं नारद हूँ। गन्धर्वोंमें मैं चित्ररथ नामक गन्धर्व हूँ, सिद्धोंमें अर्थात् जन्मसे ही अतिशय धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यको प्राप्त हुए पुरुषोंमें मैं सांख्यकार कपिलमुनि हूँ।
(संसार की इन विभूतियों में जो विशिष्टता दीखती है, यह उनकी स्वयं की न मानकर परमात्मा की है और उनसे से ही आयी है ऐसा जानने वाला संसार में नहीं फंसता और परमात्मा में निष्ठा पाता है।)

*अध्याय १० श्लोक २७ (10/27)*
*उच्‍चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भ‍वम्।*
*ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥*

*शब्दार्थ—*
उच्चै:श्रवसम्—उच्चै:श्रवा; अश्वानाम्—घोड़ों में; विद्धि—जानो; माम्—मुझको; अमृत-उद्भवम्—समुद्र मन्थन से उत्पन्न; ऐरावतम्—ऐरावत; गज-इन्द्राणाम्—मुख्य हाथियों में; नराणाम्—मनुष्यों में; च—तथा; नर-अधिपम्—राजा।

*अनुवाद—*
घोड़ों में मुझे उच्चै:श्रवा जानो, जो अमृत के लिए समुद्र मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था। गजराजों में मैं ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में मैं, (सम्पूर्ण प्रजाका पालन, संरक्षण, शासन करनेवाला होने से सम्पूर्ण मनुष्योंमें श्रेष्ठ) राजा हूँ।
             
              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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06 Dec, 10:46


*इतिहासबोध*🦁🚩
*शौर्य दिवस : 6 दिसम्बर*

🛕आप सभी को 6 दिसंबर शौर्य दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

🛕आज ही के दिन सन् 1992 में लाखों कारसेवकों ने अयोध्या में एकजुट हो कर 1526 से रामजन्मभूमि पर बने बाबरी ढांचे के कलंक को ध्वस्त किया था। उसका निशान तक मिटा दिया गया था और एक-एक ईंट उठा ले गए थे।

🛕सदियों बाद हिन्दुओं की प्रतीक्षा समाप्त हुई और राममंदिर के भूमिपूजन के बाद रामजन्मभूमि पर भव्य राममंदिर का निर्माण हो गया है।

🛕 अगर 1992 में कारसेवा न हुई होती, कारसेवकों ने बलिदान न दिया होता तो आज दृश्य कुछ और ही होता।

🛕 हम अमर बलिदानीयों के सदैव आभारी रहेंगे।

🛕 इस शुभ दिन पर हम अनेक अमर बलिदानियों के साथ गुम्बद पर सबसे पहले चढ़ कर भगवा लहराने वाले वीर अमर बलिदानी राम कोठारी और शरद कोठारी जी और इन जैसे सभी अमर बलिदानियों को हम को शत शत नमन करते हैं और वर्तमान एवं भावी पीढियां इनके योगदान को कभी नहीं भूलेंगी।

जय श्री राम🚩

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06 Dec, 05:28


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : सृष्टिकर्ता परमात्मा के प्रति वैदिक प्रार्थना*

*प्र ब्रह्मैतु सदनादृतस्य वि रश्मिभिः ससृजे सूर्यो गाः। वि सानुना पृथिवी सस्र उर्वी पृथु प्रतीकमध्येधे अग्निः॥*

*पद पाठ—*
प्र। ब्रह्म। एतु। सदनात्। ऋतस्य। वि। रश्मिऽभिः। ससृजे। सूर्यः। गाः। वि। सानुना। पृथिवी। सस्रे। उर्वी। पृथु। प्रतीकम्। अधि। आ। ईधे। अग्निः।

*(ऋग्वेद - मण्डल 7; सूक्त 36; मन्त्र 1)*

*मन्त्रार्थ—*
(अग्निः) अग्नि के समान विद्वान् जन जैसे (सूर्यः) सूर्य (रश्मिभिः) किरणों से (पृथु) विस्तृत (प्रतीकम्) प्रतीति करनेवाले पदार्थ (गाः) किरणों को (वि, सृसजे) विविध प्रकार रचता वा छोड़ता वा (अधि, आ, ईधे) अधिकता से प्रकाशित होता है और जैसे (उर्वी) बहुपदार्थयुक्त (पृथिवी) पृथिवी (सानुना) शिखर के साथ (वि, सस्रे) विशेषता से चलती है, वैसे आप (ऋतस्य) सत्य के (सदनात्) स्थान से (ब्रह्म) धन को (प्र, एतु) अच्छे प्रकार प्राप्त हो।

*व्याख्या—*
जो जगदीश्वर आप ही प्रकाशमान और सूर्यादिकों का प्रकाश करने व बनानेवाले, जगत् के प्रकाश के लिये अग्नि और सूर्यलोक को रचते हैं, आपकी ही उपासना कर सत्य आचरण से हम मनुष्य ऐश्वर्य को प्राप्त होवें।

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06 Dec, 05:28


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :१९६/३५० (196/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*दशम् अध्याय : विभूतियोग*
*अध्याय १० श्लोक २४ (10/24)*
*पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।*
*सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर:॥*

*शब्दार्थ—*
पुरोधसाम्—समस्त पुरोहितों में; च—भी; मुख्यम्—प्रमुख; माम्—मुझको; विद्धि— जानो; पार्थ—हे पृथापुत्र; बृहस्पतिम्—बृहस्पति; सेनानीनाम्—समस्त सेनानायकों में से; अहम्—मैं हूँ; स्कन्द:—कार्तिकेय; सरसाम्—समस्त जलाशयों में; अस्मि—मैं हूँ; सागर:—समुद्र

*अनुवाद—*
हे अर्जुन! मुझे (ईश्वर को) समस्त पुरोहितों में, (विद्या-बुद्धि में श्रेष्ठ देवताओं के गुरु) बृहस्पति जानो। मैं ही समस्त सेनानायकों में (सर्वश्रेष्ठ, देवताओं के सेनापति) कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में, (सम्पूर्ण जलाशयों का अधिपति) समुद्र हूँ। (यहाँ इन विभूतियों की जो अलौकिकता दीखती है, यह उनकी स्वयं की नहीं है, परमात्मा की है और से ही आयी है। अतः इनको देखने पर भगवान् की ही स्मृति होनी चाहिये।)

*अध्याय १० श्लोक २५ (10/25)*
*महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।*
*यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय:॥*

*शब्दार्थ—*
महा-ऋषीणाम्—महर्षियों में; भृगु:—भृगु; अहम्—मैं हूँ; गिराम्—वाणी में; अस्मि—हूँ; एकम् अक्षरम्—प्रणव; यज्ञानाम्—समस्त यज्ञों में; जप-यज्ञ:—कीर्तन, जप; अस्मि—हूँ; स्थावराणाम्—जड़ पदार्थों में; हिमालय:—हिमालय पर्वत।

*अनुवाद—*
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य प्रणव अक्षर अर्थात् ओ३म् (ॐ)हूँ, समस्त यज्ञों में मैं सर्वसुलभ ईश्वरनाम जप यज्ञ हूँ तथा समस्त अचलों में (तपस्याका स्थल,गङ्गा, यमुना आदि पवित्र नदियों का उद्गमस्थल पर्वतराज) हिमालय हूँ। (इन विभूतियों में जो कुछ विशेषता दीखती है, वह विभूतियोंके मूलरूप परमात्मासे ही आयी है। अतः इन विभूतियोंमें परमात्माका ही चिन्तन होना चाहिये।)
             
              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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06 Dec, 05:28


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों में क्या करे?*

*असंतापं मेहृदयमुर्वी गव्यूतिः समुद्रो अस्मि विधर्मणा॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 16; सूक्त 3; मन्त्र 6)*

*मन्त्रार्थ—*
[हे परमेश्वर !] (मे)मेरा (हृदयम्) हृदय (असन्तापम्) सन्तापरहित और (गव्यूतिः) विद्या मिलने कामार्ग (उर्वी) चौड़ा [होवे], मैं (विधर्मणा) विविध धारण सामर्थ्य से (समुद्रः)समुद्र [समुद्रसमान गहरा] (अस्मि) हूँ।

*व्याख्या -*
मनुष्य विघ्नों में हृदय को शान्त रखकर वेदमार्ग की दृढ़ता और विस्तीर्णता फैलावे, क्योंकि परमेश्वर ने मनुष्य को बड़ा सामर्थ्य दिया है।

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05 Dec, 04:29


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस :१९५/३५० (195/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*दशम् अध्याय : विभूतियोग*

*अध्याय १० श्लोक २२ (10/22)*
*वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव:।*
*इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥*

*शब्दार्थ—*
वेदानाम्—वेदों में; साम-वेद:—सामवेद; अस्मि—हूँ; देवानाम्—देवताओं में; अस्मि—हूँ; वासव:—इन्द्र; इन्द्रियाणाम्—इन्द्रियों में; मन:—मन; च—भी; अस्मि—हूँ; भूतानाम्—जीवों में; अस्मि—हूँ; चेतना—प्राण, जीवनी शक्ति।

*अनुवाद—*
मैं (ईश्वर) वेदों में (स्वरसहित गान किए जाने वाला) सामवेद हूँ। रुद्र, आदित्य आदि देवों में (सभी देवों में प्रमुख) इन्द्र हूँ और चक्षु आदि एकादश इन्द्रियोंमें संकल्प-विकल्पात्मक मन हूँ। सब प्राणियोंमें (मैं-परमात्मा) चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित रहनेवाली जो बुद्धिवृत्ति है, उसका नाम चेतना है।
अर्थात् इन विभूतियोंमें जो विशेषता है, वह भगवान् से ही आयी है। इनकी स्वतन्त्र विशेषता नहीं है।

*अध्याय १० श्लोक २३ (10/23)*
*रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।*
*वसूनां पावकश्चास्मि मेरु: शिखरिणामहम्॥*

*शब्दार्थ—*
रुद्राणाम्—समस्त रुद्रों में; शङ्कर:—शिवजी; च—भी; अस्मि—हूँ; वित्त-ईश:— देवताओं का कोषाध्यक्ष; यक्ष-रक्षसाम्—यक्षों तथा राक्षसों में; वसूनाम्—वसुओं में; पावक:—अग्नि; च—भी; अस्मि—हूँ; मेरु:—मेरु; शिखरिणाम्—समस्त पर्वतों में; अहम्—मैं हूँ।


*अनुवाद—*
एकादश रुद्रों में मैं (परमात्मा) इन सबके अधिपति कल्याणस्वरूप शंकर हूँ। यक्ष और राक्षसों में, मैं (परमात्मा) धनेश्वर कुबेर हूँ। आठ वसुओं में मैं (परमात्मा) देवताओं को यज्ञ की हवि पहुँचाने वाला पावक (अग्नि) हूँ। शिखर वालों में (पर्वतोंमें) मैं (परमात्मा) स्वर्ण तथा रत्नोंका भण्डार सुमेरु पर्वत हूँ।
(इन विभूतियों में जो कुछ विशेषता -- महत्ता दीखती है, वह विभूतियोंके मूलरूप परमात्मासे ही आयी है। अतः इन विभूतियोंमें परमात्माका ही चिन्तन होना चाहिये।)       

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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04 Dec, 07:30


*इतिहासबोध🕉️🦁*

*4 दिसम्बर: भारतीय नौसेना दिवस*

*भारत की समुद्री सीमाओं के प्रहरी, सभी वीर नौसैनिकों व उनके परिजनों सहित समस्त राष्ट्रभक्त भारतीयों को भारतीय नौसेना दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।*
⚓️🚩🇮🇳

*भारतीय नौसेना (Indian Navy) भारतीय सेना का सामुद्रिक अंग है जिसकी स्थापना 1612 में हुई थी. ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने जहाजों की सुरक्षा के लिए East India Company's Marine के रूप में सेना गठित की थी. जिसे बाद में रॉयल इंडियन नौसेना नाम दिया गया. भारत की आजादी के बाद 1950 में नौसेना का गठन फिर से हुआ और इसे भारतीय नौसेना नाम दिया गया।*

*इससे पूर्व राजेन्द्र चोल जी ने नेवी के दम पर पूरा साउथ ईस्ट एशिया तक अपना परचम लहराया और छत्रपति शिवाजी महाराज के समय भारतीय नेवी बहुत उन्नत थी। जिन्हें भारतीय नेवी का पितामह भी कहा जाता है।*

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23 Nov, 15:10


*आत्मबोध🕉️🚩*

*भैरव अष्टमी विशेषांक: श्री कालभैरव अष्टकम् (हिन्दी अर्थ सहित)*

https://youtu.be/dlSxRMuJw2g

श्री कालभैरव अष्टक भगवान काल भैरव को समर्पित है। आद्य शंकराचार्य जी द्वारा रचित यह दिव्य स्तोत्र भगवान कालभैरव के विकराल और भयंकर स्वरूप की स्तुति करता है। भगवान काल भैरव का रूप उग्र और प्रचंड है लेकिन वे बहुत ही भोले और सरल स्वभाव के हैं, वे अपने भक्तो से प्रेम करते हैं एवं अपने भक्तों की रक्षा के लिए वे सदैव तत्पर रहते हैं।।

*श्री काल भैरव अष्टकम्*

*ॐ देवराजसेव्यमानपावनाङ्घ्रिपङ्कजं*
*व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम*
*नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं*
*काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥ १॥*
*अर्थ—*
जिनके पवित्र चरर्णों की सेवा देवराज इंद्र भगवान सदा करते हैं, जिन्होंने शिरोभूषण के रुप में चंद्र और सांप (सर्प) को धारण किया है, जो दिगंबर जी के वेश में हैं और नारद भगवान आदि योगिगों का समूह जिनकी पूजा, वंदना करते हैं, उन काशी के नाथ कालभैरव जी को मैं भजता हूं।

*भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं*
*नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम ।*
*कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं*
*काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥२॥*
*अर्थ—*
जो करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश देने वाले हैं, परमेश्वर भवसागर से जो तारने वाले हैं, जिनका कंठ नीला है और सांसारिक समृद्धियां प्रदान करते हैं और जिनके नेत्र तीन हैं। जो काल के भी काल हैं और जिनका त्रिशूल तीन लोकों को धारण करता है और जो अविनाशी हैं उस काशी के स्वामी कालभैरव को मैं भजता हूं।

*शूलटङ्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं*
*श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम ।*
*भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं*
*काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥३॥*
*अर्थ—*
जो अपने दोनों हाथों में त्रिशूल, फन्दा, कुल्हाड़ी और दंड लिया करते हैं, जो सृष्टि के सृजन के कारण हैं और सांवले रंग के हैं और आदिदेव सांसारिक रोगों से परे हैं, जिन्हें विचित्र तांडव पसंद है उस काशी के नाथ कालभैरव को मैं भजता हूं।

*भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं*
*भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम ।*
*विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं*
*काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥४॥*
*अर्थ—*
जो मुक्ति प्रदान करते हैं, शुभ, आनंद दायक रुप धारण करते हैं, जो भक्तों से सदा प्रेम करते हैं और तीने लोकों में स्थित हैं। जो अपनी कमर पर घंटियां धारण करते हैं उन काशी के भगवान कालभैरव को मैं भजता हूं।

*धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं*
*कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकं विभुम ।*
*स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताङ्गमण्डलं*
*काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥ ५॥*
*अर्थ—*
जो धर्म की रक्षा करते हैं और अधर्म के मार्गों का नाश करते हैं, कर्मों के जाल से मुक्त करते हैं। जो स्वर्ण रंग के सांप से सुशोभित हैं उस काशी के नाथ कालभैरव को मैं भजता हूं।

*रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं*
*नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरञ्जनम ।*
*मृत्युदर्पनाशनं कराळदंष्ट्रमोक्षणं*
*काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥६॥*
*अर्थ—*
जिनके दोनों पैर रत्न जड़ित हैं, जो इष्ट देवता और परम पवित्र हैं। जो अपने दांतों से मौत का भय दूर करते हैं उन काशी के नाथ कालभैरव को मैं भजता हूं।

*अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसन्ततिं*
*दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम ।*
*अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकन्धरं*
*काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥७॥*
*अर्थ—*
जिनकी हंसी की ध्वनि से कमल से उत्पन्न ब्रह्मा की सभी कृतियों की गति रुक जाती है, जिसकी दृष्टि पड़ने से पापों का नाश हो जाता है, जो अष्ट सिद्धियां प्रदान करते हैं और मुंड़ों की माला धारण करते हैं उस काशी के नाथ कालभैरव को मैं भजता हूं।

*भूतसङ्घनायकं विशालकीर्तिदायकं*
*काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम ।*
*नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं*
*काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥८॥*
*अर्थ—*
जो भूत, प्रेतों के स्वामी हैं और विशाल कीर्ति प्रदान करने वाले हैं, जो सत्य और नीति का रास्ता दिखाते हैं, जो जगतपति हैं उस काशी के नाथ कालभैरव को मैं भजता हूं।

*कालभैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं*
*ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम ।*
*शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं*
*ते प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम ॥९॥*
*अर्थ—*
जो काल भैरव अष्टकम का पाठ करते हैं, वो ज्ञान और मुक्ति को प्राप्त करते हैं। पुण्य पाते हैं और मृत्यु के पश्चात शोक, मोह, लोभ, ताप, क्रोध आदि का नाश करने वाले भगवान काल भैरव के चरणों को प्राप्त करते हैं इसमे बिलकुल भी संदेह नहीं है।।

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23 Nov, 15:10


*इतिहासबोध🕉️🦁*

*मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी : भैरव अष्टमी /कालभैरव अष्टमी*

*सभी सनातनियों को आदियोगी भगवान शिव के अहंकार, अधर्म के नाशक रौद्र रूप की उपासना के पर्व भैरव अष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं🕉️💐*

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23 Nov, 15:10


*🧐पश्चिम बंगाल का राजभवन वक्फ का, देश का सबसे बड़ा ‘कलकत्ता गोल्फ कोर्स’ भी उसी का: बवाल होने पर बंगाल वक्फ बोर्ड ने पल्ला झाड़ा… तो कौन ले रहा ₹147 किराया?*

*"बंगाल में वक्फ की करीब 8,000 नामांकित संपत्तियाँ हैं, जबकि कुल संपत्ति करीब 80,000 हैं।"*

*विस्तार से पढ़ने के लिए क्लिक करें*

https://hindi.opindia.com/national/west-bengal-waqf-board-governor-house-raj-bhawan-waqf-assets-rent/?utm_source=whatsapp&utm_medium=push

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23 Nov, 15:10


*🧐जिन कपिल मुनि के कारण गंगा धरती पर आईं, मकर संक्रांति के दिन हिंदुओं को मिलता है मोक्ष… खतरे में उनका मंदिर, सो रही बंगाल सरकार*

*ऐतिहासिक हिंदू मंदिर के मामले में ममता सरकार सुस्त क्यों?*

https://hindi.opindia.com/miscellaneous/indology/rising-threat-to-gangasagar-kapil-muni-temple-could-sink-in-two-years-linked-to-mythological-story-of-king-sagar-sons/?utm_source=whatsapp&utm_medium=push

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23 Nov, 15:09


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा से अपने लिए न्याय, करुणा और शिक्षा हेतु वैदिक प्रार्थना*

*यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥*

*पद पाठ—*
यत्। चित्। हि। ते। विशः। यथा। प्र। देव। वरुण। व्रतम्। मिनीमसि। द्यविऽद्यवि॥

*(ऋग्वेद - मण्डल 1; सूक्त 25; मन्त्र 1)*

(ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः, देवता - वरुणः, छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः)

*मन्त्रार्थ—*
हे (देव) सुख देनेवाले (वरुण) उत्तमों में उत्तम जगदीश्वर ! आप (यथा) जैसे अज्ञान से किसी राजा वा मनुष्य के (विशः) प्रजा वा सन्तान आदि (द्यविद्यवि) प्रतिदिन अपराध करते हैं, किन्हीं कामों को नष्ट कर देते हैं, वह उन पर न्याययुक्त दण्ड और करुणा करता है, वैसे ही हम लोग (ते) आपके (यत्) जो (व्रतम्) सत्य आचरण आदि नियम हैं (हि) उन को कदाचित् (प्रमिणीमसि) अज्ञानपन से छोड़ देते हैं, उसका यथायोग्य न्याय (चित्) और हमारे लिये करुणा करते हैं।

*व्याख्या—*
हे भगवन् जगदीश्वर ! जैसे पिता आदि विद्वान् और राजा छोटे-छोटे अल्पबुद्धि उन्मत्त बालकों पर करुणा, न्याय और शिक्षा करते हैं, वैसे ही आप भी प्रतिदिन हमारे न्याय, करुणा और शिक्षा करनेवाले हों।

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23 Nov, 15:09


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १८३/३५० (183/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ : श्लोक ३२ (09:32)*
*मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।*
*स्त्रियो वैश्यास्तथा श‍ूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥*

*शब्दार्थ—*
माम्—मेरी; हि—निश्चय ही; पार्थ—हे पृथापुत्र; व्यपाश्रित्य—शरण ग्रहण करके; ये—जो; अपि—भी; स्यु:—हैं; पाप-योनय:—पाप योनि में उत्पन्न जीव; स्त्रिय:—स्त्रियाँ; वैश्या:—वणिक लोग; तथा—भी; शूद्रा:—शूद्र वर्ण के लोग; ते अपि—वे भी; यान्ति—जाते हैं; पराम्—परम; गतिम्—गन्तव्य को।

*अनुवाद—*
हे पार्थ! जो भी लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही पाप योनि में उत्पन्न जीव हों, या स्त्री, वैश्य वर्ण वाले तथा शूद्र वर्ण वाले क्यों न हों, वे परम गति को प्राप्त करते हैं। (अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त सांसारिक भेदभावों को न मानकर सभी जीवों को परमात्मा की भक्ति व मुक्ति का अधिकारी मानते हैं)।

*अध्याय ०९ श्लोक ३३ (09:33)*
*किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।*
*अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥*

*शब्दार्थ—*
किम्—क्या, कितना; पुन:—फिर; ब्राह्मणा:—ब्राह्मण; पुण्या:—धर्मात्मा; भक्ता:— भक्तगण; राज-ऋषय:—साधु राजे; तथा—भी; अनित्यम्—नाशवान; असुखम्— दुखमय; लोकम्—लोक को; इमम्—इस; प्राप्य—प्राप्त करके; भजस्व—प्रेमाभक्ति में लगो; माम्—मेरी।

*अनुवाद—*
फिर जो पुण्यशील ब्राह्मण और राजर्षि भक्त हैं उनका तो कहना ही क्या है जो राजा भी हों और ऋषि भी हों? वे राजर्षि कहलाते हैं। क्योंकि यह बात है? इसलिये इस अनित्य? क्षणभङ्गुर और सुखरहित मनुष्यलोकको पाकर अर्थात् परम पुरुषार्थके साधनरूप दुर्लभ मनुष्यशरीरको पाकर मेरा(ईश्वर का) ही भजन कर मेरी(ईश्वर की) ही सेवा कर।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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23 Nov, 15:09


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में आत्मा की नित्यता बता पुरुषार्थ करने का उपदेश*

*स्वासदसि सूषाअमृतो मर्त्येश्वा ॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 16; सूक्त 4; मन्त्र 2)*

*मंत्रार्थ—*
[हे आत्मा !] तू (स्वासत्) सुन्दर सत्तावाला, (सूषाः) सुन्दर प्रभातोंवाला [प्रभात के प्रकाश केसमान बढ़नेवाला] (आ) और (मर्त्येषु) मनुष्यों के भीतर (अमृतः) अमर (असि) है।

*व्याख्या—*
जो मनुष्य यह विचारतेहैं कि यह आत्मा जो बड़े पुण्यों के कारण इस मनुष्यशरीर में वर्तमान है, वहप्रभात के प्रकाश के समान उन्नतिशील और अमर अर्थात् नित्य और पुरुषार्थी है, वे संसार में बढ़ती करके यश पाते हैं।

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23 Nov, 15:09


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १८२/३५० (182/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ : श्लोक ३० (09:30)*
*अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।*
*साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥*

*शब्दार्थ—*
अपि—भी; चेत्—यदि; सु-दुराचार:—अत्यन्त गर्हित कर्म करने वाला; भजते—सेवा करता है; माम्—मेरी; अनन्य-भाक्—बिना विचलित हुए; साधु:—साधु पुरुष; एव—निश्चय ही; स:—वह; मन्तव्य:—मानने योग्य; सम्यक्—पूर्णतया; व्यवसित:— संकल्प वाला; हि—निश्चय ही; स:—वह।

*अनुवाद—*
किसी ने जघन्य से जघन्य कर्म किए हों, किन्तु यदि वह यह सब त्याग ईश्वर भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।

*अध्याय ०९ श्लोक ३१ (09:31)*
*क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।*
*कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥*

*शब्दार्थ—*
क्षिप्रम्—शीघ्र; भवति—बन जाता है; धर्म-आत्मा—धर्मपरायण; शश्वत्-शान्तिम्— स्थायी शान्ति को; निगच्छति—प्राप्त करता है; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; प्रतिजानीहि— घोषित कर दो; न—कभी नहीं; मे—मेरा; भक्त:—भक्त; प्रणश्यति—नष्ट होता है।

*अनुवाद—*
आन्तरिक यथार्थ निश्चयकी शक्तिसे बाहरी दुराचारिता को छोड़कर, वह शीघ्र ही धर्मात्मा -- धार्मिक चित्तवाला बन जाता है और सदा रहनेवाली नित्य शान्ति -- उपरति को पा लेता है। हे कुन्तीपुत्र ! तू यथार्थ बात सुन। तू यह निश्चित प्रतिज्ञा कर अर्थात् दृढ़ निश्चय कर ले कि जिसने मुझमें (परमात्मामें) अपना अन्तःकरण समर्पित कर दिया है वह मेरा (परमात्मा का) भक्त कभी नष्ट नहीं होता। अर्थात् उसका कभी पतन नहीं होता।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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23 Nov, 15:09


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : बुद्धि की वृद्धि के लिये सर्वगुरु जगदीश्वर से प्रार्थना*

*ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।*
*वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे ॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 1; सूक्त 1; मन्त्र 1)*

*मन्त्रार्थ—*
(ये) जो पदार्थ (त्रि-सप्ताः) १−सबके संतारक, रक्षक परमेश्वर के सम्बन्ध में, यद्वा, २−रक्षणीय जगत् [यद्वा−तीन से सम्बद्ध ३−तीनों काल, भूत, वर्तमान और भविष्यत्। ४−तीनों लोक, स्वर्ग, मध्य और भूलोक। ५−तीनों गुण, सत्त्व, रज और तम। ६−ईश्वर, जीव और प्रकृति। यद्वा, तीन और सात=दस। ७−चार दिशा, चार विदिशा, एक ऊपर की और एक नीचे की दिशा। ८−पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ, अर्थात् कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका और पाँच कर्म इन्द्रियाँ, अर्थात् वाक्, हाथ, पाँव, पायु, उपस्थ। यद्वा, तीन गुणित सात=इक्कीस। ९−महाभूत ५, प्राण ५, ज्ञान इन्द्रियाँ ५, कर्म इन्द्रियाँ ५, अन्तःकरण १ इत्यादि] के सम्बन्ध में [वर्त्तमान] होकर, (विश्वा=विश्वानि) सब (रूपाणि) वस्तुओं को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (परि) सब ओर (यन्ति) व्याप्त हैं। (वाचस्पतिः) वेदरूप वाणी का स्वामी परमेश्वर (तेषाम्) उनके (तन्वः) शरीर के (बला=बलानि) बलों को (अद्य) आज (मे) मेरे लिये (दधातु) दान करे ॥

*व्याख्या -*
आशय यह है कि तृण से लेकर परमेश्वरपर्यन्त जो पदार्थ संसार की स्थिति के कारण हैं, उन सबका तत्त्वज्ञान (वाचस्पतिः) वेदवाणी के स्वामी सर्वगुरु जगदीश्वर की कृपा से सब मनुष्य वेद द्वारा प्राप्त करें और उस अन्तर्यामी पर पूर्ण विश्वास करके पराक्रमी और परोपकारी होकर सदा आनन्द भोगें ॥१॥ भगवान् पतञ्जलि ने कहा है−योगदर्शन, पाद १ सूत्र २६। स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ वह ईश्वर सब पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि वह काल से विभक्त नहीं होता ॥

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23 Nov, 15:09


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १८१/३५० (181/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ : श्लोक २८ (09:28)*
*शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।*
*संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥*

*शब्दार्थ—*
(एवम्) इस प्रकार मतानुसार साधना करने (संन्यासयोगयुक्तात्मा) घर त्याग कर या हठ योग करके साधना करने वाले साधक (शुभाशुभफलैः) अपने हित व अहित के फल को जान कर (कर्मबन्धनैः) शास्त्रविधि रहित साधना जो हठयोग एक स्थान पर बन्ध कर बैठने से (मोक्ष्यसे) मुक्त हो जाएगा। ऐसे (विमुक्तः) शास्त्रविरुद्ध साधना के बन्धन से मुक्त होकर अर्थात् शास्त्रविधि अनुसार साधना करके (माम्) मुझसे ही (उपैष्यसि) लाभ प्राप्त करेगा। अर्थात् मेरे पास ही आएगा।

*अनुवाद—*
इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ(ईश्वर) के अर्पण होते हैं- ऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर मुझ(ईश्वर)को ही प्राप्त होगा।।

*अध्याय ०९ श्लोक २९(09:29)*
*समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।*
*ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥*

*शब्दार्थ—*
(अहम्) मैं (सर्वभूतेषु) सब प्राणियों में (समः) समभावसे व्यापक हूँ (न) न कोई (मे) मेरा (द्वेष्यः) शत्रु है और (न) न (प्रियः) प्रिय (अस्ति) है (तु) परंतु (ये) जो भक्त (माम्) मुझको (भक्त्या) शास्त्र अनुकूल भक्ति विधि से (भजन्ति) भजते हैं (ते) वे (मयि) मुझमें हैं (च) और (अहम्) मैं (अपि) भी (तेषु) उनमें हूँ।

*अनुवाद—*
मैं(ईश्वर) सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझ(ईश्वर)को प्रेम से भजते हैं, वे मुझ(ईश्वर)में हैं और मैं(ईश्वर) भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट (जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वाले के ही अंतःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है) हूँ।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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20 Nov, 01:38


*आत्मबोध🕉️🦁*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा का आह्वान व विद्वान मनुष्य के राष्ट्र के प्रति कर्तव्य का उपदेश*

*इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः । महाꣳ अभिष्टिरोजसा॥*

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 180)*

*मन्त्रार्थ―*
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) दुर्गुणों को विदीर्ण तथा सद्गुणों को प्रदान करनेवाले परमेश्वर ! आप (आ इहि) हमारे जीवन-यज्ञ में आइए, (अन्धसः) हमारे पुरुषार्थरूप अन्न से तथा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) भक्ति-समारोहों से (मत्सि) प्रसन्न होइए। आप (महान्) महान् और (ओजसा) बल से (अभिष्टिः) हमारे कामादि रिपुओं के प्रति आक्रमण करनेवाले हो।
द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। हे (इन्द्र) विद्यारूप ऐश्वर्य से युक्त विद्वन् ! आप (आ इहि) आइए, (अन्धसः) सात्त्विक अन्न से, तथा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) बल बढ़ानेवाली सोम आदि ओषधियों के खण्डों से (मत्सि) तृप्त होइए। आप (महान्) गुणों में महान्, तथा (ओजसा) विद्याबल से (अभिष्टिः) अभीष्ट प्राप्त करानेवाले और समाज के अविद्या, दुराचार आदि दुर्गुणों पर आक्रमण करनेवाले, बनिए।

*व्याख्या―*
जैसे पुरुषार्थ और भक्ति से प्रसन्न किया गया परमेश्वर मनुष्यों के काम, कोध्र, हिंसा, उपद्रव आदि सब शत्रुओं को क्षण भर में ही विनष्ट कर देता है, वैसे ही विद्वान् मनुष्य को चाहिए कि वह सात्त्विक एवं पुष्टिप्रद अन्न, ओषधि आदि से परिपुष्ट होकर राष्ट्र से अविद्या आदि दुर्गुणों का शीघ्र ही विनाश करे।

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20 Nov, 01:38


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १८०/३५० (180/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक २६ (09/26)*
*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।*
*तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥*

*शब्दार्थ—*
(यः) जो कोई भक्त (मे) मेरे लिये (भक्त्या) भक्तिभावसे (पत्राम्) पत्र (पुष्पम्) पुष्प (फलम्) फल (तोयम्) जल आदि (प्रयच्छति) अर्पण करता है (प्रयतात्मनः) प्रेमी भक्तका (भक्त्युपहृतम्) भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ (तत्) वह (अहम्) मैं (अश्नामि) खाता हूँ।

*अनुवाद—*
 जो कोई भक्त मेरे (परमात्मा के) लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं (परमात्मा) सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।  

*अध्याय ०९ श्लोक २७ (9/27)*
*यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।*
*यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥*

*शब्दार्थ—*
(कौन्तेय) हे अर्जुन! तू (यत्) जो कर्म (करोषि) करता है (यत्) जो (अश्नासि) खाता है (यत्) जो (जुहोषि) हवन करता है (यत्) जो (ददासि) दान देता है और (यत्) जो (तपस्यसि) तप करता है (तत्) वह सब (मदर्पणम्) मतानुसार अर्थात् शास्त्रा विधि अनुसार मुझे अर्पण (कुरुष्व) कर।

*अनुवाद—*
हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे (परमात्मा के) अर्पण कर।

              शेष क्रमश: कल

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20 Nov, 01:38


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार सत्पुरुषों को कैसा होना चाहिये?*

*अश्विभ्याम्प्रातःसवनमिन्द्रेणैन्द्रम्माध्यन्दिनम्। वैश्वदेवँ सरस्वत्या तृतीयमाप्तँ सवनम्॥*

*पद पाठ—*
अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। प्रातःसवनमिति प्रातःऽसवनम्। इन्द्रेण। ऐन्द्रम्। माध्यन्दिनम्। वैश्वदेवमिति वैश्वऽदेवम्। सरस्वत्या। तृतीयम्। आप्तम्। सवनम्॥

*(यजुर्वेद - अध्याय 19; मन्त्र 26)*

(ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः, देवता - यज्ञो देवता, छन्दः - अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः)

*मन्त्रार्थ—*
जिन मनुष्यों ने (अश्विभ्याम्) सूर्य्य-चन्द्रमा से प्रथम (प्रातःसवनम्) प्रातःकाल यज्ञक्रिया की प्रेरणा (इन्द्रेण) बिजुली से (ऐन्द्रम्) ऐश्वर्यकारक दूसरा (माध्यन्दिनम्) मध्याह्न में होने और (सवनम्) आरोग्यता करने वाला होमादि कर्म और (सरस्वत्या) सत्यवाणी से (वैश्वदेवम्) सम्पूर्ण विद्वानों के सत्काररूप (तृतीयम्) तीसरा सवन अर्थात् सायङ्काल की क्रिया को यथावत् (आप्तम्) प्राप्त किया है, वे जगत् के उपकारक हैं।

*व्याख्या—*
जो भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान इन तीनों कालों में सब मनुष्यादि प्राणियों का हित करते हैं, वे जगत् में सत्पुरुष होते हैं।

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20 Nov, 01:38


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७९/३५० (179/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक २४ (09/24)*
*हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।*
*न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्‍च्‍यवन्ति ते॥*

*शब्दार्थ—*
अहम्—मैं; हि—निश्चित रूप से; सर्व—समस्त; यज्ञानाम्—यज्ञों का; भोक्ता—भोग करने वाला; च—तथा; प्रभु:—स्वामी; एव—भी; च—तथा; न—नहीं; तु—लेकिन; माम्—मुझको; अभिजानन्ति—जानते हैं; तत्त्वेन—वास्तव में; अत:—अतएव; च्यवन्ति—नीचे गिरते हैं; ते—वे।

*अनुवाद—*
उनका पूजन करना अविधिपूर्वक कैसे है सो कहते हैं कि -, श्रौत और स्मार्त समस्त यज्ञोंका देवतारूपसे मैं(ईश्वर) ही भोक्ता हूँ और मैं(ईश्वर) ही स्वामी हूँ। मैं(ईश्वर) ही सब यज्ञोंका स्वामी हूँ। परंतु वे अज्ञानी इस प्रकार यथार्थ तत्त्वसे मुझे(ईश्वर को) नहीं जानते। अतः अविधिपूर्वक पूजन करके वे यज्ञ के वास्तविक फलसे गिर जाते हैं अर्थात् उनका पतन हो जाता है।      

*अध्याय ०९ श्लोक २५(9/25)*
*यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रता:।*
*भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥*

*शब्दार्थ—*
(देवव्रताः) देवताओंको पूजनेवाले (देवान्) देवताओंको (यान्ति) प्राप्त होते हैं, (पितृृव्रताः) पितरोंको पूजनेवाले (पितृृन्) पितरोंको (यान्ति) प्राप्त होते हैं, (भूतेज्याः) भूतोंको पूजनेवाले (भूतानि) भूतोंको (यान्ति) प्राप्त होते हैं और (मद्याजिनः) इसी तरह मतानुसार अर्थात् शास्त्रानुकुल पूजन करने वाले मेरे भक्त (अपि) भी (माम्) मुझे (यान्ति) प्राप्त होते हैं।

*अनुवाद—*
देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा(ईश्वर का) पूजन करने वाले भक्त मुझ(ईश्वर)को ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे(ईश्वर) भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।

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20 Nov, 01:37


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*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार मनुष्य लोग किस प्रकार अपने कर्मों को सिद्ध करें?*

*ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते। एकमेकं सुशस्तिभिः॥*

*पद पाठ—*
ते। नः। रत्नानि। धत्तन। त्रिः। आ। साप्तानि। सुन्वते। एकम्ऽएकम्। सुशस्तिऽभिः॥

*(ऋग्वेद - मण्डल 1; सूक्त 20; मन्त्र 7)*

(ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः, देवता - ऋभवः, छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः)

*मन्त्रार्थ—*
जो विद्वान् (सुशस्तिभिः) अच्छी-अच्छी प्रशंसावाली क्रियाओं से (साप्तानि) जो सात संख्या के वर्ग अर्थात् ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासियों के कर्म, यज्ञ का करना विद्वानों का सत्कार तथा उनसे मिलाप और दान अर्थात् सबके उपकार के लिये विद्या का देना है, इनसे (एकमेकम्) एक-एक कर्म करके (त्रिः) त्रिगुणित सुखों को (सुन्वते) प्राप्त करते हैं (ते) वे बुद्धिमान् लोग (नः) हमारे लिये (रत्नानि) विद्या और सुवर्णादि धनों को (धत्तन) अच्छी प्रकार धारण करें।

*व्याख्या—*
सब मनुष्यों को उचित है कि जो ब्रह्मचारी आदि चार आश्रमों के कर्म तथा यज्ञ के अनुष्ठान आदि तीन प्रकार के हैं, उनको मन, वाणी और शरीर से यथावत् करें। इस प्रकार मिलकर सात कर्म होते हैं, जो मनुष्य इनको किया करते हैं, उनके सङ्ग उपदेश और विद्या से रत्नों को प्राप्त होकर सुखी होते हैं, वे एक-एक कर्म को सिद्ध वा समाप्त करके दूसरे का आरम्भ करें, इस क्रम से शान्ति और पुरुषार्थ से सब कर्मों का सेवन करते रहें।

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20 Nov, 01:37


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७८/३५० (178/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक २२ (09/22)*
*अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।*
*तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥*

*शब्दार्थ—*
अनन्या:—जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से; चिन्तयन्त:—चिन्तन करते हुए; माम्—मुझको; ये—जो; जना:—व्यक्ति; पर्युपासते—ठीक से पूजते हैं; तेषाम्— उन; नित्य—सदा; अभियुक्तानाम्—भक्ति में लीन मनुष्यों की; योग—आवश्यकताएँ; क्षेमम्—सुरक्षा, आश्रय; वहामि—वहन करता हूँ; अहम्—मैं।

*अनुवाद—*
परंतु जो निष्कामी -- पूर्ण ज्ञानी हैं, जो संन्यासी अनन्यभावसे युक्त हुए अर्थात् परमेश्वर को आत्मरूपसे जानते हुए मेरा(ईश्वर का) निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी(ईश्वर की) श्रेष्ठ निष्काम उपासना करते हैं? निरन्तर मुझमें(ईश्वर में) ही स्थित उन परमार्थज्ञानियों का योगक्षेम मैं(ईश्वर) चलाता हूँ। अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति का नाम योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षाका नाम क्षेम है? उनके ये दोनों काम मैं(ईश्वर) स्वयं किया करता हूँ। क्योंकि ज्ञानीको तो मैं(ईश्वर) अपना ही मानता हूँ और वे उपर्युक्त भक्त मेरे(ईश्वर के) प्रिय हैं।

*अध्याय ०९ श्लोक २३ (09/23)*
*येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।*
*तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥*

*शब्दार्थ—*
ये—जो; अपि—भी; अन्य—दूसरे; देवता—देवताओं के; भक्ता:—भक्तगण; यजन्ते—पूजते हैं; श्रद्धया अन्विता:—श्रद्धापूर्वक; ते—वे; अपि—भी; माम्— मुझको; एव—केवल; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; यजन्ति—पूजा करते हैं; अविधि पूर्वकम्—त्रुटिपूर्ण ढंग से।

*अनुवाद—*
हे कुन्तीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी(ईश्वर की) ही पूजा करते हैं, परंतु अविधिपूर्वक ( करते हैं )। अविधि अज्ञान को करते हैं? सो वे अज्ञानपूर्वक मेरा(ईश्वर का) पूजन करते हैं।  
          
              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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17 Nov, 05:32


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में अभ्युदयार्थ परमात्मा से प्रार्थना*

*त्वं तृतं त्वंपर्येष्युत्सं सहस्रधारं विदथं स्वर्विदं तवेद्विष्णो बहुधावीर्याणि। त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमेव्योमन्॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 17; सूक्त 1; मन्त्र 15)*

*मन्त्रार्थ—*
[हे परमेश्वर !] (त्वम्) तू (तृतम्=त्रितम्) तीनों [कालों] के बीच फैले हुए [जगत्] में, (त्वम्) तू (सहस्रधारम्) सहस्रों धाराओंवाले (उत्सम्) स्रोते, [अर्थात्] (स्वर्विदम्) सुख पहुँचानेवाले (विदथम्) विज्ञान समाज में (परि) सब ओर से (एषि)व्यापक है, (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही...

*व्याख्या—*
जो परमात्मा सर्वदा सब संसार में सर्वव्यापक रहकर विद्वानों की उन्नति करता है, हम सब उसी की उपासना से विद्वान् होकर उन्नति करें।

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17 Nov, 05:32


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७७/३५० (177/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक २० (09/20)*
*त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।*
*ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्न‍‍न्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥*

*शब्दार्थ—*
त्रै-विद्या:—तीन वेदों के ज्ञाता; माम्—मुझको; सोम-पा:—सोम रसपान करने वाले; पूत—पवित्र; पापा:—पापों का; यज्ञै:—यज्ञों के साथ; इष्ट्वा—पूजा करके; स्व:- गतिम्—स्वर्ग की प्राप्ति के लिए; प्रार्थयन्ते—प्रार्थना करते हैं; ते—वे; पुण्यम्— पवित्र; आसाद्य—प्राप्त करके; सुर-इन्द्र—इन्द्र के; लोकम्—लोक को; अश्नन्ति— भोग करते हैं; दिव्यान्—दैवी; दिवि—स्वर्ग में; देव-भोगान्—देवताओं के आनन्द को।

*अनुवाद—*
जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्ग जाते हैं, जहाँ वे देवताओं का सा आनन्द भोगते हैं।

*अध्याय ०९ श्लोक २१ (09/21)*
*ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।*
*एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥*

*शब्दार्थ—*
ते—वे; तम्—उसको; भुक्त्वा—भोग करके; स्वर्ग-लोकम्—स्वर्ग को; विशालम्— विस्तृत; क्षीणे—समाप्त हो जाने पर; पुण्ये—पुण्यकर्मों के फल; मर्त्य-लोकम्— मृत्युलोक में; विशन्ति—नीचे गिरते हैं; एवम्—इस प्रकार; त्रयी—तीनों वेदों के; धर्मम्—सिद्धान्तों के; अनुप्रपन्ना:—पालन करने वाले; गत-आगतम्—मृत्यु तथा जन्म को; काम-कामा:—इन्द्रियसुख चाहने वाले; लभन्ते—प्राप्त करते हैं।

*अनुवाद—*
जिन्होंने तीनों वेदों के कर्मकाण्ड का अध्ययन किया हो और जो स्वर्गादि फल के प्रापक यज्ञयागादि के विधि-विधान भी जानते हों; ऐसे लोग यदि सकाम भावना से श्रद्धापूर्वक उन कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, तो वे स्वर्ग लोक को प्राप्त हो कर वहाँ दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। सकाम भावना से किये गये ये यज्ञकर्म अनित्य फल देने वाले होते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वर्ग को प्राप्त जीव पुण्य समाप्त होने पर मृत्युलोक में प्रवेश करते हैं। ऐसे अविवेकी कामी लोगों के प्रति भगवान् की अरुचि उनके इन शब्दों में स्पष्ट होती है कि वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान कर भोगों की कामना करने वाले बारम्बार (स्वर्ग को) जाते और (संसार को) आते हैं।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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17 Nov, 05:32


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार, सर्वोत्तम पथप्रदर्शक/मित्र कौन है?*

*य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम्। इन्द्रः स नो युवा सखा॥*

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 127)*

*मन्त्रार्थ—*
(यः-इन्द्रः) जो ऐश्वर्यवान् परमात्मा (सुनीती) सुनीति-शोभन नेतृत्व से—पथप्रदर्शकता से (परावतः) दूर गये—पथभ्रष्ट कुमार्ग से (यदुम्) मनुष्य को “यदवः मनुष्याः” [निघं॰ २.३] (तुर्वशम्-आनयत्) समीप—अपने समीप—सन्मार्ग में “तुर्वशः-अन्तिकनाम” [निघं॰ २.१६] ले आता है (सः-नः) वह हमारे (युवा सखा) सदा बलवान् बना रहने वाला मित्र है।

*व्याख्या—*
परमात्मा शोभन पथप्रदर्शकता से भटके हुए जन को सुपथ पर ले आता है वह मानव का सदा साथी मित्र है उस जैसा पथप्रदर्शक और मित्र कोई नहीं है।

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17 Nov, 05:32


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७६/३५० (176/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक १८ (09/18)*
*गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।*
*प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥*

*शब्दार्थ—*
गति:—लक्ष्य; भर्ता—पालक; प्रभु:—स्वामी; साक्षी—गवाह; निवास:—धाम; शरणम्—शरण; सु-हृत्—घनिष्ठ मित्र; प्रभव:—सृष्टि; प्रलय:—संहार; स्थानम्— भूमि, स्थिति; निधानम्—आश्रय, विश्राम स्थल; बीजम्—बीज, कारण; अव्ययम्— अविनाशी।

*अनुवाद—*
मैं(ईश्वर) ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्त प्रिय मित्र हूँ। मैं(ईश्वर) सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज/आधारभूत कारण भी हूँ।

*अध्याय ०९ श्लोक १९ (09/19)*
*तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।*
*अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्च‍ाहमर्जुन॥*

*शब्दार्थ—*
तपामि—ताप देता हूँ, गर्मी पहुँचाता हूँ; अहम्—मैं; वर्षम्—वर्षा; निगृह्णामि—रोके रहता हूँ; उत्सृजामि—भेजता हूँ; च—तथा; अमृतम्—अमरत्व; च— तथा; एव—निश्चय ही; मृत्यु:—मृत्यु; च—तथा; सत्—आत्मा; असत्—पदार्थ; च— तथा; अहम्—मैं; अर्जुन—हे अर्जुन।

*अनुवाद—*
हे अर्जुन! मैं(ईश्वर) ही ताप प्रदान करता हूँ और वर्षा को रोकता तथा लाता हूँ। मैं(ईश्वर) अमरत्व हूँ और साक्षात् मृत्यु भी हूँ। आत्मा तथा पदार्थ (सत् तथा असत्) दोनों मुझ (ईश्वर) में ही हैं।             

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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15 Nov, 05:49


*🕉️महान आध्यात्मिक गुरु व समाज सुधारक, सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।*

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15 Nov, 05:48


🕉️समस्त सनातनियों को कार्तिक पूर्णिमा एवं देव दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

🕉️कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है।

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15 Nov, 05:48


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार उत्तम अध्यापक/गुरु के लक्षण*

*अर्धऋचौरुक्थानाँ रूपम्पदैराप्नोति निविदः। प्रणवैः शस्त्राणाँरूपम्पयसा सोम आप्यते॥*

*पद पाठ—*
अर्द्धऽऋचैरित्यर्द्धऽऋचैः। उक्थानाम्। रूपम्। पदैः। आप्नोति। निविद इति निऽविदः। प्रणवैः। प्रनवैरिति प्रऽनवैः। शस्त्राणाम्। रूपम्। पयसा। सोमः। आप्यते।

*(यजुर्वेद - अध्याय 19; मन्त्र 25)*

(ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः, देवता - सोमो देवता, छन्दः - भुरिगनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः)

*मन्त्रार्थ —*
जो विद्वान् (अर्द्धऽऋचैः) ऋचाओं के अर्ध भागों से (उक्थानाम्) कथन करने योग्य वैदिक स्तोत्रों का (रूपम्) स्वरूप (पदैः) सुबन्त-तिडन्त पदों और (प्रणवैः) ओंकारों से (शस्त्राणाम्) शस्त्रों का (रूपम्) स्वरूप और (निविदः) जो निश्चय से प्राप्त होते हैं, उनको (आप्नोति) प्राप्त होता है वा जिस विद्वान् से (पयसा) जल के साथ (सोमः) सोम ओषधि का रस (आप्यते) प्राप्त होता है, सो वेद का जानने वाला कहाता है।

*व्याख्या—*
जो विद्वान् वेदस्थ पद-वाक्य-मन्त्र-विभागों के शब्द-अर्थ और सम्बन्धों का यथावद्विज्ञान करते हैं, वे वेद के तात्पर्य को जानने वाले इस संसार में अध्यापक/गुरु होते हैं।

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15 Nov, 05:48


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७५/३५० (175/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक १६ (09/16)*
*अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्।*
*मन्‍त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्न‍िरहं हुतम्॥*

*शब्दार्थ—*
अहम्—मैं; क्रतु:—वैदिक अनुष्ठान, कर्मकाण्ड; अहम्—मैं; यज्ञ:—स्मार्त यज्ञ; स्वधा—तर्पण; अहम्—मैं; अहम्—मैं; औषधम्—जड़ीबूटी; मन्त्र:—दिव्य ध्वनि; अहम्—मैं; अहम्—मैं; एव—निश्चय ही; आज्यम्—घृत; अहम्—मैं; अग्नि:—अग्नि; अहम्—मैं; हुतम्—आहुति, भेंट ।.

*अनुवाद—*
क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं(ईश्वर) ही हूँ।

*अध्याय ०९ श्लोक १७ (09/17)*
*पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।*
*वेद्यं पवित्रम् ॐकार ऋक् साम यजुरेव च॥*

*शब्दार्थ—*
पिता—पिता; अहम्—मैं; अस्य—इस; जगत:—ब्रह्माण्ड का; माता—माता; धाता— आश्रयदाता; पितामह:—दादा; वेद्यम्—जानने योग्य; पवित्रम्—शुद्ध करने वाला; ॐ-कार—ॐ अक्षर; ऋक्—ऋग्वेद; साम—सामवेद; यजु:—यजुर्वेद; एव—निश्चय ही; च—तथा।

*अनुवाद—*
मैं(ईश्वर) इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रयदाता तथा पितामह हूँ। मैं(ईश्वर) ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ। मैं(ईश्वर) ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ।

              शेष क्रमश: कल

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15 Nov, 05:48


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में पूर्वकर्मों के आधार पर पुनर्जन्म का विधान*

*अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया। अकारि रत्नधातमः॥*

*पद पाठ—*
अयम्। देवाय। जन्मने। स्तोमः। विप्रेभिः। आसया। अकारि। रत्नऽधातमः॥

*(ऋग्वेद - मण्डल 1; सूक्त 20; मन्त्र 1)*

(ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः, देवता - ऋभवः, छन्दः - गायत्री, स्वरः - षड्जः)

*मन्त्रार्थ—*
(ऋभुभिः) प्रशस्त विद्वानों के द्वारा (आसया) मुखेन=मुख से, (देवाय) दिव्यगुणभोगयुक्ताय=जो दिव्य गुणों से भोग किये हुए हैं, उनके लिये, (जन्मने) वर्त्तमानदेहोपयोगाय पुनः शरीरधारणेन प्रादुर्भावाय वा=वर्त्तमान देह के उपयोग हो जाने पर पुनः शरीर धारण करने, यादृशः=जैसा, (रत्नधातमः) रत्नानि रमणीयानि सुखानि दधाति येन सोऽतिशयितः=रत्नों के द्वारा रममीय अतिशय सुखों को देने वाला, (अयम्) विद्याविचारेण प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानः=विद्या के विचार से परमेश्वर को प्रत्यक्ष करने वाले (स्तोमः) स्तुतिसमूहः=स्तुतियों के समूह (अकारि) क्रियते=करते हैं, (स)=वह, (तादृशानि)=उस प्रकार से, (जन्मभोगकारी)=जन्म के भोग करने वाले (जायते)=होते हैं।

*व्याख्या—*
इस मन्त्र में पुनर्जन्म का विधान जानना चाहिये। मनुष्य जैसे कर्म किया करते हैं, वैसे ही जन्म और भोग उनको प्राप्त होते हैं।

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15 Nov, 05:48


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७४/३५० (174/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक १४ (09/14)*
*सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।*
*नमस्यन्तश्च मां भक्त्य‍ा नित्ययुक्ता उपासते॥*

*शब्दार्थ—*
सततम्—निरन्तर; कीर्तयन्त:—कीर्तन करते हुए; माम्—मेरे विषय में; यतन्त:— प्रयास करते हुए; च—भी; दृढ-व्रता:—संकल्पपूर्वक; नमस्यन्त:—नमस्कार करते हुए; च—तथा; माम्—मुझको; भक्त्या—भक्ति में; नित्य-युक्ता:—सदैव रत रहकर; उपासते—पूजा करते हैं।

*अनुवाद—*
वे दृढ़व्रती भक्त अर्थात् जिनका निश्चय दृढ़स्थिरअचल है ऐसे वे भक्तजन सदानिरन्तर ब्रह्मस्वरूप मुझको कीर्तन करते हुए तथा इन्द्रियनिग्रह शम दम दया और अहिंसा आदि धर्मोंसे युक्त होकर प्रयत्न करते हुए एवं हृदयमें वास करनेवाले मुझ परमात्माको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हुए और सदा मेरा चिन्तन करनेमें लगे रहकर। मेरी उपासना, सेवा करते रहते हैं।

*अध्याय ०९ श्लोक १५ (09/15)*
*ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।*
*एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥*

*शब्दार्थ—*
ज्ञान-यज्ञेन—ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; च—भी; अपि—निश्चय ही; अन्ये—अन्य लोग; यजन्त:—यज्ञ करते हुए; माम्—मुझको; उपासते—पूजते हैं; एकत्वेन—एकान्त भाव से; पृथक्त्वेन—द्वैतभाव से; बहुधा—अनेक प्रकार से; विश्वत:-मुखम्—विश्व रूप में।

*अनुवाद—*
ज्ञानीजन दूसरी उपासनाओंको छोड़कर भगवद्विषयक ज्ञानरूप यज्ञसे मेरा पूजन करते हुए उपसना किया करते हैं अर्थात् परमब्रह्म परमात्मा एक ही है? ऐसे एकत्वरूप परमार्थज्ञानसे पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं। और कोई–कोई पृथक् भावसे अर्थात् आदित्य? चन्द्रमा आदिके भेदसे इस प्रकार समझकर उपासना करते हैं कि वही परमात्मा, सूर्य आदिके रूपमें स्थित हुए हैं। तथा कितने ही भक्त ऐसा समझकर कि वही सब ओर मुखवाले विश्वमूर्ति भगवान् अनेक रूपसे स्थित हो रहे हैं। उन विश्वरूप विराट् परमेश्वर की ही विविध प्रकारसे उपासना करते हैं।            

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15 Nov, 05:47


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*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परस्पर मिलकर एक चित्त होकर रहने का उपदेश।*

*सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥*

*पद पाठ—*
सऽहृदयम् । साम्ऽमनस्यम् । अविऽद्वेषम् । कृणोमि । व: । अन्य: । अन्यम् । अभि । हर्यत । वत्सम् । जातम्ऽइव । अघ्न्या॥

*(अथर्ववेद - काण्ड 3; सूक्त 30; मन्त्र 1)*

(ऋषिः - अथर्वा, देवता - चन्द्रमाः, सांमनस्यम्, छन्दः - अनुष्टुप्, सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त)

*मन्त्रार्थ—*
मैं ईश्वर (वः) तुम सब को (सहृदयं) एक हदय वाला/ जैसे अपने लिये सुख चाहते हो ऐसे दूसरों के लिए भी समान हृदय रहो (सांमनस्यं) एक चित्त वाला/मन से सम्यक् प्रसन्नता और , (अविद्वषं) तथा परस्पर द्वेषभाव से रहित (कृणोमि) करता हूं । हे गृहस्थ के लोगो ! (जातं वत्सं अध्या इव) जिस प्रकार उत्पन्न हुए बछड़े के प्रति प्रेम से खिंचकर गाय दौड़ी हुई आती है उस प्रकार (अन्यः अन्यम् अभि हर्यत) एक दूसरे के पास, मिलने के लिये प्रेम से खिंचकर जाओ।

*व्याख्या—*
परमकृपालु परमात्मा हमें उपदेश देते हैं, कि हे मेरे प्यारे पुत्रो! तुम लोग आपस में एक-दूसरे के सहायक और आपस में प्रेम करनेवाले बनो, आपस में वैर विरोध आदि कभी मत करो, जैसे गौ अपने नवीन उत्पन्न हुए बछड़े से अत्यन्त प्रेम करती और उसकी सर्वथा रक्षा करती है, ऐसे आप लोग आपस में परम प्रेम करते हुए एक दूसरे की रक्षा करो/परस्पर मेल करो, कभी आपस में वैरविरोध आदि न किया करो, तभी आप लोगों का कल्याण होगा अन्यथा कभी नहीं। इसके लिए सब मनुष्य वेदानुगामी होकर सत्य ग्रहण करके एकमतता करें और स्वार्थ/अहंकार छोड़कर सच्चे प्रेम से एक दूसरे को सुधारें। यह उपदेश आप का कल्याण करनेवाला है इसको हमें कभी नहीं भूलना चाहिये।

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15 Nov, 05:47


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७३/३५० (173/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक १२ (09/12)*
*मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।*
*राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥*

*शब्दार्थ—*
मोघ-आशा:—निष्फल आशा; मोघ-कर्माण:—निष्फल सकाम कर्म; मोघ-ज्ञाना:— विफल ज्ञान; विचेतस:—मोहग्रस्त; राक्षसीम्—राक्षसी; आसुरीम्—आसुरी; च— तथा; एव—निश्चय ही; प्रकृतिम्—स्वभाव को; मोहिनीम्—मोहने वाली; श्रिता:— शरण ग्रहण किये हुए।

*अनुवाद—*
क्योंकि वे मोघाशा(जिनकी आशाएँ-कामनाएँ व्यर्थ हों ऐसे व्यर्थ कामना करनेवाले) और मोघकर्मा -(व्यर्थ कर्म करनेवाले होते हैं) क्योंकि उनके द्वारा जो कुछ अग्निहोत्रादि कर्म किये जाते हैं वे सब अपने अन्तरात्मारूप परमात्मा का अनादर करने के कारण निष्फल हो जाते हैं। इसलिये वे मोघकर्मा होते हैं। इसके अतिरिक्त वे मोघज्ञानी (निष्फल ज्ञानवाले होते हैं? अर्थात् उनका ज्ञान भी निष्फल ही होता है।) और वे विचेता अर्थात् विवेकहीन भी होते हैं। तथा वे मोह उत्पन्न करनेवाली देहात्मवादिनी राक्षसी और आसुरी प्रकृतिका यानी राक्षसोंके और असुरोंके स्वभावका आश्रय करनेवाले हो जाते हैं। अभिप्राय यह कि तोड़ो? फोड़ो? पिओ? खाओ? दूसरोंका धन लूट लो इत्यादि वचन बोलनेवाले और बड़े क्रूरकर्मा हो जाते हैं।

*अध्याय ०९ श्लोक १३ (09/13)*
*महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।*
*भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥*

*शब्दार्थ—*
महा-आत्मान:—महापुरुष; तु—लेकिन; माम्—मुझको; पार्थ—हे पृथापुत्र; दैवीम्— दैवी; प्रकृतिम्—प्रकृति के; आश्रिता:—शरणागत; भजन्ति—सेवा करते हैं; अनन्य- मनस:—अविचलित मन से; ज्ञात्वा—जानकर; भूत—सृष्टि का; आदिम्—उद्गम; अव्ययम्—अविनाशी।

*अनुवाद—*
परन्तु जो श्रद्धायुक्त हैं और भगवद्भक्तिरूप मोक्षमार्गमें लगे हुए हैं वे, हे पार्थ शम? दम? दया? श्रद्धा आदि सद्गुणरूप देवों के स्वभावका अवलम्बन करनेवाले उदारचित्त महात्मा भक्तजन? मुझको(ईश्वरको) सब भूतोंका अर्थात् आकाशादि पञ्चभूतोंका और समस्त प्राणियोंका भी आदिकारण जानकर? एवं अविनाशी समझकर? अनन्य मनसे युक्त हुए भजते हैं अर्थात् मेरा(ईश्वर का) चिन्तन किया करते हैं।

              शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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12 Nov, 08:00


*आत्मबोध* 🕉️🚩
*कार्तिक शुक्ल एकादशी : तुलसी विवाह*

*_'हर घर के आँगन में तुलसी, तुलसी बड़ी महान है।_*
*_जिस घर में ये तुलसी रहती, वो घर स्वर्ग समान है।'_*

*तुलसी कौन थीं?*
तुलसी (पौधा) पूर्व जन्म में एक कन्या थीं, जिनका नाम वृन्दा था। राक्षस कुल में जन्म होने पर भी वह बचपन से ही भगवान् विष्णु की भक्त थीं। वे बड़े ही प्रेम से भगवान् की सेवा व पूजा किया करती थीं; जब वह बड़ी हुईं, तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानवराज जलन्धर से हो गया। जलन्धर समुद्र से उत्पन्न हुआ था।

*वृन्दा का सङ्कल्प—*
वृन्दा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थीं। वह सदा अपने पति की सेवा किया करती थीं। एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ। जब जलन्धर युद्ध पर जाने लगे, तो वृन्दा ने कहा, "स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं। आप जब तक युद्ध में रहेंगे मैं पूजा में बैठ कर आपकी विजय हेतु अनुष्ठान करुँगी और जब तक आप वापिस नहीं आ जाते, मैं अपना सङ्कल्प नहीं छोड़ूँगी।" जलन्धर तो युद्ध में चला गया और वृन्दा व्रत का सङ्कल्प लेकर पूजा में बैठ गयीं। उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलन्धर को ना जीत सके।

*देवताओं द्वारा भगवान् विष्णु की प्रार्थना—*
सारे देवता जब हारने लगे, तो विष्णु जी के पास गये; सबने भगवान् से प्रार्थना की, तो भगवान् कहने लगे, "वृन्दा मेरी परम भक्ता है मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता।" फिर देवता बोले, "भगवान् दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है। अब आप ही हमारी सहायता कर सकते हैं।"

*भगवान् विष्णु द्वारा देवताओं की सहायता व वृन्दा का शाप—*
भगवान् जलन्धर का ही रूप रख वृन्दा के महल में पँहुच गये। जैसे ही वृन्दा ने अपने पति को देखा, वे तुरन्त पूजा से उठ गईं और उनके चरणों को स्पर्श किया। जैसे ही उनका सङ्कल्प टूटा, युद्ध में देवताओं ने जलन्धर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया। उसका सिर वृन्दा के महल में गिरा। जब वृन्दा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पड़ा है, तो वे सोचने लगीं फिर ये जो मेरे सामने खड़े हैं ये कौन हैं?
उन्होंने पूछा, "आप कौन हो, जिसका स्पर्श मैने किया?" तब भगवान् अपने रूप में आ गये, पर वे कुछ ना बोल सके। वृन्दा सारी बात समझ गईं, उन्होंने भगवान् को श्राप दे दिया कि आप पत्थर के हो जाओ और भगवान तुरन्त पत्थर के हो गये।

*वृन्दा का सती होना—*
सभी देवता हाहाकार करने लगे, लक्ष्मी जी रोने लगीं और सभी प्रार्थना करने लगे, तब वृन्दा जी ने भगवान् को पुनः वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयीं।

*वृन्दा से तुलसी बन शालिग्राम सङ्ग पूजन—*
उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान् विष्णु ने कहा, "आज से इनका नाम तुलसी है और मेरा एक स्वरूप इस पत्थर के रूप में रहेगा, जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और मैं बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुँगा।" तब से सभी तुलसी जी की पूजा करने लगे और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में कराया जाता है।

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12 Nov, 08:00


*आत्मबोध* 🕉️🚩
*कार्तिक शुक्ल एकादशी : देवोत्थान/ देवउठनी एकादशी*

देवोत्थान एकादशी अथवा देव प्रबोधनी एकादशी भारत में मनाये जाने वाले प्रमुख पर्वों में से एक है। यह पर्व भगवान् विष्णु को समर्पित है। यह एकादशी कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष एकादशी को मनायी जाती है।
अषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान् विष्णु चार माह की योगनिद्रा में चले जाते हैं और इसके पश्चात् वह कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन उठते हैं। यही कारण है कि इस दिन को देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। यह एकादशी वैष्णव सम्प्रदाय द्वारा बहुत धूम-धाम के साथ मनायी जाती है।

*पारण समय—*
देव प्रबोधिनी एकादशी के पर्व में पारण समय का अत्यन्त महत्व होता है; क्योंकि इस समय ही व्रती द्वारा अपना व्रत खोला जाता है। श्रद्धालुओं द्वारा व्रत खोलने के लिए यही समय सबसे उपयुक्त होता है।

*देवउत्थान एकादशी क्यों मनायी जाती है?*
यह एकादशी दीपावली के बाद आती है और इस दिन ऐसी मान्यता है कि देवोत्थान एकादशी के दिन भगवान् विष्णु क्षीरसागर में अपने 4 माह के शयन के पश्चात् जागते हैं और उनके जागने पर ही सभी शुभ माङ्गलिक कार्य किये जाते हैं। इसके साथ ही इस दिन तुलसी विवाह का भी आयोजन किया जाता है। तुलसी विवाह के समय तुलसी के वृक्ष और शालिग्राम का यह विवाह सामान्य विवाह की भाँति पूरे धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।
तुलसी के वृक्ष को विष्णु प्रिया भी कहा जाता है, इसलिए भगवान् विष्णु जब भी जागते हैं, तो इसलिए वह सबसे पहली प्रार्थना तुलसी की ही सुनते हैं। वास्तव में तुलसी विवाह का अर्थ है तुलसी के माध्यम से भगवान् का आवाहन करना।

*देवोत्थान एकादशी कैसे मनाते हैं?*
हर त्योहार की भाँति ही देवोत्थान एकादशी मनाने की भी एक विशेष शैली होती है। देवोत्थान एकादशी के पर्व पर भगवान् विष्णु तथा माता तुलसी की पूजा की जाती है। इस दिन हमें भगवान् विष्णु की विशेष कृपा प्राप्ति के लिए निम्न रुप से पूजा करनी चाहिए।
देवोत्थान एकादशी के दिन सर्वप्रथम हमें प्रातः उठकर व्रत का सङ्कल्प लेना चाहिए और भगवान् विष्णु का ध्यान करना चाहिए। इसके बाद घर की साफ-सफाई करने पश्चात् स्नान करना चाहिए और अपने आँगन में भगवान् विष्णु के चरणों की आकृति बनानी चाहिए। एक ओखली में गेरु से चित्र बनाकर फल, मिठाई, बेर, सिंघाड़े, ऋतुफल और गन्ने को उस स्थान पर रखकर उसे डलिया से ढक देना चाहिए। सन्ध्या समय लोगों द्वारा लक्ष्मी और विष्णु पूजन का आयोजन किया जाता है। इस पूजा में गन्ना, चावल, सूखी मिर्च आदि का उपयोग किया जाता है और पूजा के पश्चात् इन चीजों को पण्डित को दान कर दिया जाता है। इस पूरे कार्य को तुलसी विवाह के नाम से जाना जाता है। इसके साथ देवोत्थान एकादशी के दिन रात में घरों के बाहर और पूजा स्थलों पर दीप जलाने चाहिए। रात्रि के समय परिवार के सभी सदस्यों को भगवान् विष्णु समेत सभी देवी-देवताओं का पूजन करना चाहिए। इसके उपरान्त भगवान् को शंख, घण्टा, घड़ियाल बजाते हुए उठाना चाहिए। भगवान् को उठाते हुए निम्न संस्कृत श्लोक का जाप करने से भगवान के विशेष कृपा की प्राप्ति होती है।
_*“उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते।*_
_*त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत्॥*_
_*उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।*_
_*हिरण्याक्ष प्राणघातिन् त्रैलोक्येमंगलम्कुरु॥”*_
यदि जो लोग संस्कृत उच्चारण करने में असमर्थ हैं। उन्हें उठो देवा, बैठो देवा कहकर भगवान् विष्णु को निद्रा से जगाने का प्रयास करना चाहिए। इस दिन यदि कोई व्यक्ति रातभर जागकर हरि नाम-संकीर्तन करता है, तो उससे भगवान् विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।

*देवोत्थान एकादशी की कथा—*
इस पर्व को लेकर कई सारी ऐतिहासिक तथा पौराणिक कथायें प्रसिद्ध हैं। इसी तरह की एक कथा निम्नानुसार है–
एक बार भगवान् नरायण से लक्ष्मी जी ने कहा, "हे नाथ! आप दिन-रात जागा करते हैं और सोते हैं तो लाखों-करोड़ों वर्षों तक सोते ही रह जाते हैं और इस समय में आप समस्त चराचर का नाश कर डालते हैं। इसलिए मेरा आप से निवेदन है कि आप नियम से प्रतिवर्ष निद्रा कर लिया करें। इससे मुझे भी कुछ विश्राम करने का थोड़ा समय मिल जायेगा।
भगवान् नारायण ने कहा, "देवी तुमने ठीक कहा है। मेरे जागने से सब देवों और विशेषकर तुमको बहुत कष्ट का सामना करना पड़ता है और तुम्हें विश्राम करने का जरा भी समय नहीं मिलता है। इसलिए तुम्हारे कहे अनुसार अब से मैं प्रतिवर्ष चार माह वर्षा ऋतु में शयन कर लिया करुँगा। उस समय तुम्हारा और अन्य देवगणों का अवकाश रहेगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलय कालीन महानिद्रा कहलायेगी। इसके साथ ही मेरी यह अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए बहुत ही मङ्गलकारी होगी। इस काल में मेरे जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे और शयन व उत्थान

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12 Nov, 08:00


के उत्सव को आनन्दपूर्वक आयोजित करेंगे, मैं उनके घर तुम्हारे सङ्ग निवास करुँगा।

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12 Nov, 07:59


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा की ज्येष्ठता और श्रेष्ठता का वर्णन*

*वस्याꣳ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातुरभुञ्जतः । माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे॥*

*पद पाठ—*
वस्यान् । इन्द्र । असि । मे । पितुः । उत । भ्रातुः । अभुञ्जतः । अ । भुञ्जतः । माता । च । मे । छदयथः । समा । स । मा । वसो । वसुत्वनाय । राधसे।

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 292)*

(ऋषिः - मेधातिथि मेध्यातिथी काण्वौ, देवता - इन्द्रः, छन्दः - बृहती, स्वरः - मध्यमः, काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्)

*मन्त्रार्थ—*
(इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमात्मन् (मे) मेरे (अभुञ्जतः) न पालन करने वाले (पितुः) पिता से (उत) और (भ्रातुः) भ्राता से (वस्यान्-असि) अधिक बसाने वाला पालने वाला तू है (वसो) हे बसाने वाले परमात्मन्! (माता च समा ये छदयथः) माता और तू इष्ट देव परमात्मा समान भाव से मेरा संवरण करते हो—रक्षण करते हो—पालते हो (वसुत्वनाय राधसे) अत्यन्त बसाने वाले “वसु शब्दात् त्वनप्रत्ययोऽतिशयार्थश्छान्दसः” धन प्राप्ति के लिये हमें अपनी शरण में लेता है।

*व्याख्या—*
संसार में पिता और भ्राता सम्भव है पालन न कर सकें, परन्तु परमात्मन्! तू अत्यन्त बसाने वाला है—पालन करने वाला है, माता और परमात्मन्! तुम दोनों समान पालन करने वाले हो माता भी कभी पालन करना नहीं त्यागती, ऐसे परमात्मन्! तू भी पालन करना नहीं त्यागता। माता सांसारिक धन से या स्वशरीर गत दूध से पालन करती है परन्तु बसाने वाले परमात्मन्! तू तो अत्यन्त बसाने/पालने वाले आध्यात्मिक धन प्राप्ति के लिये हमें अपनी शरण देता है।

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12 Nov, 07:59


*आत्मबोध🕉️🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १७२/३५० (172/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*नवम अध्याय : राजविद्याराजगुह्ययोग*

*अध्याय ०९ श्लोक १० (09/10)*
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।*
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥*

*शब्दार्थ—*
मया—मेरे(ईश्वर के) द्वारा; अध्यक्षेण—अध्यक्षता के कारण; प्रकृति:—प्रकृति; सूयते—प्रकट होती है; स—सहित; चर-अचरम्—जड़ तथा जंगम; हेतुना—कारण से; अनेन—इस; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; जगत्—दृश्य जगत; विपरिवर्तते—क्रियाशील है।

*अनुवाद—*
हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी(ईश्वर को) शक्तियों में से एक है और मेरी(ईश्वर की) अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।

*अध्याय ०९ श्लोक ११ (09/11)*
*अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।*
*परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥*

*शब्दार्थ—*
अवजानन्ति—उपहास करते हैं; माम्—मुझको; मूढा:—मूर्ख व्यक्ति; मानुषीम्—मनुष्य रूप में; तनुम्—शरीर; आश्रितम्—मानते हुए; परम्—दिव्य; भावम्—स्वभाव को; अजानन्त:—न जानते हुए; मम—मेरा; भूत—प्रत्येक वस्तु का; महा-ईश्वरम्—परम स्वामी।

*अनुवाद—*
मूर्ख लोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वररूप परमभाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य शरीर के आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।
              शेष क्रमश: कल

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11 Nov, 05:43


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार कौन मोह शोक लोभ अविद्यादि दोषों से मुक्त होते हैं?*

*यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥*

*(यजुर्वेद - अध्याय 40, मन्त्र 7)*

*मन्त्रार्थ—*
हे मनुष्यों! (यस्मिन्) जिस परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान वा धर्म में (विजानतः) विशेषकर ध्यानदृष्टि से देखते हुए को (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणीमात्र (आत्मा, एव) अपने तुल्य ही सुख-दुःखवाले (अभूत्) होते हैं, (तत्र) उस परमात्मा आदि में (एकत्वम्) अद्वितीय भाव को (अनुपश्यतः) अनुकूल योगाभ्यास से साक्षात् देखते हुए योगीजन को (कः) कौन (मोहः) मूढावस्था और (कः) कौन (शोकः) शोक वा क्लेश होता है अर्थात् कुछ भी नहीं।

*व्याख्या -*
जो विद्वान् संन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणीमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात् जैसे अपना हित चाहते वैसे ही अन्यों में भी वर्त्तते हैं, एक अद्वितीय परमेश्वर के शरण को प्राप्त होते हैं, उनको मोह, शोक और लोभादि दोष कदाचित् प्राप्त नहीं होते। और जो लोग अपने आत्मा को यथावत् जान कर परमात्मा को जानते हैं, वे भी सदा सुखी होते हैं।

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03 Nov, 07:15


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में मनुष्यों को ईश्वर का उपदेश*

*हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। यो सावादित्ये पुरुषः सो सावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म॥*

*(यजुर्वेद - अध्याय 40; मन्त्र 17)*

*मन्त्रार्थ—*
हे मनुष्यों! जिस (हिरण्मयेन) ज्योतिःस्वरूप (पात्रेण) रक्षक मुझसे (सत्यस्य) अविनाशी यथार्थ कारण के (अपिहितम्) आच्छादित (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम अङ्ग का प्रकाश किया जाता (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) प्राण वा सूर्य्यमण्डल में (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा है (सः) वह (असौ) परोक्षरूप (अहम्) मैं (खम्) आकाश के तुल्य व्यापक (ब्रह्म) सबसे गुण, कर्म और स्वरूप करके अधिक हूं (ओ३म्) सबका रक्षक जो मैं उसका ‘ओ३म्’ ऐसा नाम जानो।

*व्याख्या -*
सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! जो मैं यहां हूं, वही अन्यत्र सूर्य्यादि लोक में, जो अन्यस्थान सूर्य्यादि लोक में हूं वही यहां हूं, सर्वत्र परिपूर्ण आकाश के तुल्य व्यापक मुझसे भिन्न कोई बड़ा नहीं, मैं ही सबसे बड़ा हूं। मेरे सुलक्षणों के युक्त पुत्र के तुल्य प्राणों से प्यारा मेरा निज नाम ‘ओ३म्’ यह है। जो मेरा प्रेम और सत्याचरण भाव से शरण लेता, उसकी अन्तर्यामीरूप से मैं अविद्या का विनाश, उसके आत्मा को प्रकाशित करके शुभ, गुण, कर्म, स्वभाववाला कर सत्यस्वरूप का आवरण स्थिर कर योग से हुए शुद्ध विज्ञान को दे और सब दुःखों से अलग करके मोक्षसुख को प्राप्त कराता हूं।

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03 Nov, 07:15


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १६३/३५०(163/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अष्टमऽध्याय : अक्षरब्रह्मयोग*

*अध्याय ०८ श्लोक २० (08/20)*
*परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।*
*य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥*

*शब्दार्थ—*
पर:—परम; तस्मात्—उस; तु—लेकिन; भाव:—प्रकृति; अन्य:—दूसरी; अव्यक्त:— अव्यक्त; अव्यक्तात्—अव्यक्त से; सनातन:—शाश्वत; य: स:—वह जो; सर्वेषु— समस्त; भूतेषु—जीवों के; नश्यत्सु—नाश होने पर; न—कभी नहीं; विनश्यति—विनष्ट होती है।

*अनुवाद—*
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है। जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।

*अध्याय ०८ श्लोक २१ (08/21)*
*अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।*
*यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥*

*शब्दार्थ—*
अव्यक्त:—अप्रकट; अक्षर:—अविनाशी; इति—इस प्रकार; उक्त:—कहा गया; तम्—उसको; आहु:—कहा जाता है; परमाम्—परम; गतिम्—गन्तव्य; यम्—जिसको; प्राप्य—प्राप्त करके; न—कभी नहीं; निवर्तन्ते—वापस आते हैं; तत्—वह; धाम—निवास; परमम्—परम; मम—मेरा।

*अनुवाद—*
जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है उसी अक्षर नामक अव्यक्तभावको परम -- श्रेष्ठ गति कहते हैं। जिस परम भावको प्राप्त होकर ( मनुष्य ) फिर संसारमें नहीं लौटते वह मेरा परम श्रेष्ठ धाम है।

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02 Nov, 06:20


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा किन गुणों से युक्त है और कौन उसकी पूजा करते हैं?*

*त्वमित्सप्रथा अस्यग्ने त्रातरृतः कविः । त्वां विप्रासः समिधान दीदिव आ विवासन्ति वेधसः॥*

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 42)*

*मन्त्रार्थ—*
हे (व्रातः) रक्षक (अग्ने) अग्रणी परमेश्वर ! (त्वम् इत्) आप निश्चय ही (सप्रथाः) परमयशस्वी एवं सर्वत्र विस्तीर्ण, (ऋतः) सत्यस्वरूप, और (कविः) वेदकाव्य के रचयिता एवं (मेधावियों) में अतिशय मेधावी (असि) हो। हे (समिधान) सम्यक् प्रकाशमान, (दीदिवः) प्रकाशक परमेश्वर ! (वेधसः) कर्मयोगी (विप्रासः) ज्ञानीजन (त्वाम्) आपकी (आ विवासन्ति) सर्वत्र पूजा करते हैं।

*व्याख्या -*
परमेश्वर सज्जनों का रक्षक, सत्य गुण-कर्म-स्वभाववाला, अतिशय मेधावी, वेदकाव्य का कवि, परम कीर्तिमान्, सर्वत्र व्यापक, ज्योतिष्मान् और प्रकाशकों का भी प्रकाशक है। उसके इन गुणों से युक्त होने के कारण कर्म-कुशल विद्वान् जन सदा ही उसकी पूजा करते हैं।

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02 Nov, 06:20


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १६२/३५०(162/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अष्टमऽध्याय : अक्षरब्रह्मयोग*

*अध्याय ०८ श्लोक १८ (08/18)*
*अव्यक्ताद्‍ व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।*
*रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥*

*शब्दार्थ—*
अव्यक्तात्—अव्यक्त से; व्यक्तय:—जीव; सर्वा:—सारे; प्रभवन्ति—प्रकट होते हैं; अह:-आगमे—दिन होने पर; रात्रि-आगमे—रात्रि आने पर; प्रलीयन्ते—विनष्ट हो जाते हैं; तत्र—उसमें; एव—निश्चय ही; अव्यक्त—अप्रकट; संज्ञके—नामक, कहे जाने वाले।

*अनुवाद—*
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुन: अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं।

*अध्याय ०८ श्लोक १९ (08/19)*
*भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।*
*रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥*

*शब्दार्थ—*
भूत-ग्राम:—समस्त जीवों का समूह; स:—वही; एव—निश्चय ही; अयम्—यह; भूत्वा भूत्वा—बारम्बार जन्म लेकर; प्रलीयते—विनष्ट हो जाता है; रात्रि—रात्रि के; आगमे— आने पर; अवश:—स्वत:; पार्थ—हे पृथापुत्र; प्रभवति—प्रकट होता है; अह:—दिन; आगमे—आने पर।

*अनुवाद—*
हे अर्जुन! समस्त जीवों का समूह वैसे ही बारम्बार, ब्रह्मा के दिन आने पर(सृष्टि के सृजन काल में) जन्म लेकर ब्रह्मा की रात्रि होते ही (प्रलयकाल में) वे स्वतः नष्ट होते हैं। 
     
                  शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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01 Nov, 06:33


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : उपासना किया हुआ ईश्वर क्या देता है, इस विषय का उपदेश*

*यऽआत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषँयस्य देवाः । यस्य छायामृतँयस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥*

*पद पाठ—*
यः। आत्मदा। इत्यात्मऽदाः। बलदा इति बलऽदाः। यस्य। विश्वे। उपासत इत्युपऽआसते। प्रशिषमिति प्रऽशिषम्। यस्य। देवाः। यस्य। छाया। अमृतम्। यस्य। मृत्युः। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥

*(यजुर्वेद - अध्याय 25; मन्त्र 13)*

(ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः, देवता - परमात्मा देवता, छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः)

*मन्त्रार्थ—*
हे मनुष्यो ! (यः) जो (आत्मदाः) आत्मा का दाता तथा (बलदाः) बल का दाता है और (यस्य) जिसके (प्रशिषम्) प्रशासन की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं; एवं जिसके सान्निध्य से सब व्यवहार उत्पन्न होते हैं; (यस्य) जिसका (छाया)आश्रय (अमृतम्) अमृत है; और (यस्य) जिसकी आज्ञा का भंग करना (मृत्युः) मृत्यु है; (तस्मै) उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) देव की हम लोग (हविषा) होम योग्य पदार्थ से (विधेम) सेवा करते हैं।

*व्याख्या—*
हे मनुष्यों ! जिस जगदीश्वर के प्रशासन में बनी हुई मर्यादा में सूर्य आदि लोक नियम से चलते हैं; जिस सूर्य के विना वर्षा और आयु का क्षय नहीं होता; वह सूर्य जिसने बनाया है, उसकी ही उपासना सब लोग मिल कर करें। उपासित ईश्वर क्या देता है—जो ईश्वर उपासना करने से आत्मज्ञान प्रदान करता है, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाता है। उसके प्रशासन की सब विद्वान् लोग उपासना करते हैं। सब व्यवहार उसी से उत्पन्न होते हैं। उसका आश्रय (उपासना) अमृत है। उसकी आज्ञा का भंग करना मृत्यु है । अतः उस सुख स्वरूप, सब के प्रकाशक परमात्मा की सकल उत्तम सामग्री से हम लोग उपासना करें।

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01 Nov, 06:33


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १६१/३५०(161/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*अष्टमऽध्याय : अक्षरब्रह्मयोग*

*अध्याय ०८ श्लोक १६ (08/16)*
*आब्रह्मभुवनाल्ल‍ोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।*
*मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥*

*शब्दार्थ—*
आ-ब्रह्म-भुवनात्—ब्रह्मलोक तक; लोका:—सारे लोक; पुन:—फिर; आवर्तिन:— लौटने वाले; अर्जुन—हे अर्जुन; माम्—मुझको; उपेत्य—पाकर; तु—लेकिन; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; पुन: जन्म—पुनर्जन्म; न—कभी नहीं; विद्यते—होता है।

*अनुवाद—*
इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मुझको(ईश्वर के सान्निध्य को) प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।

*अध्याय ०८ श्लोक १७ (08/17)*
*सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।*
*रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥*

*शब्दार्थ—*
सहस्र—एक हजार; युग—युग; पर्यन्तम्—सहित; अह:—दिन; यत्—जो; ब्रह्मण:— ब्रह्मा का; विदु:—वे जानते हैं; रात्रिम्—रात्रि; युग—युग; सहस्र-अन्ताम्—इसी प्रकार एक हजार बाद समाप्त होने वाली; ते—वे; अह:-रात्र—दिन-रात; विद:— जानते हैं; जना:—लोग।

*अनुवाद—*
मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।      
     
                  शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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31 Oct, 13:13


*🪔 🪔*

🪔 *ईश्वर आपको एवं आपके पूरे परिवार को दीपावली के शुभ अवसर पर सुख,शांति,और स्वास्थ्य प्रदान करें।*

🪔 *यह दीपावली आपके लिए मंगलमय एवं कल्याणकारी हो एवं आपका स्नेह एवं सहयोग सदा बना रहे अखण्ड व अनंत शुभकामनाओं के साथ आप और आपके पूरे परिवार को 🕉️हिंदू एकता संघ🙏🏻 की तरफ से दीपावली की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं। परमात्मा, हम सभी को ऐश्वर्य, सद्बुद्धि, भक्ति प्रदान करें। चारों वर्णों के हम सभी सनातनी अपने धर्मबंधुओं के प्रति सद्भाव, एकत्व बढ़ाते हुए निरादर, छुआछूत/ऊंच नीच के अधर्मी भावनाओं को त्याग कर सनातन धर्म की रक्षा और संवर्धन के लिए एकजुट हो पुरुषार्थपूर्वक प्रयत्न करें।*

*शुभ दीपावली*🪔🎇🧨*

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24 Oct, 05:29


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में अतिनिद्रा के त्याग के लिये उपदेश।*

*तं त्वा स्वप्नतथा सं विद्म स नः स्वप्न दुःष्वप्न्यात्पाहि॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 16; सूक्त 5; मन्त्र 3)*

*मन्त्रार्थ—*
(स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (तम्) उस (त्वा) तुझको (तथा) वैसा ही (सम्) अच्छे प्रकार (विद्म) हमजानते हैं, (सः) सो तू (स्वप्न) हे स्वप्न ! [आलस्य] (नः) हमें (दुःष्वप्न्यात्)बुरी निद्रा में उठे कुविचार से (पाहि) बचा।

*व्याख्या—*
हे मनुष्यों ! कुपश्यआदि करने से गठिया आदि रोग होते हैं, गठिया आदि से आलस्य और उससे अनेकविपत्तियाँ मृत्यु आदि होती हैं। इसलिए सब लोग, दुःखों के कारण अतिनिद्रा आदि को खोजकर जीवन से निकालें और केवल परिश्रम की निवृत्ति के लिये ही उचित निद्रा का आश्रय लेकर सदा सचेत रहें।

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24 Oct, 05:29


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १५३/३५०(153/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक ३० (07:30)*
*साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।*
*प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥*

*शब्दार्थ—*
(ये) जो साधक (माम्) मुझे (च) तथा (साधिभूताधिदैवम्) अधिभूत अधिदैवके सहित (च) और (साधियज्ञम्) अधियज्ञ के सहित (विदुः) सही जानते हैं (ते) वे (माम्) मुझे (विदुः) जानते हैं (प्रयाणकाले) अंत काल में (अपि) भी (युक्तचेतसः) युक्तचितवाले हैं अर्थात् मेरे द्वारा दिए जा रहे कष्ट को जानते हुए एक पूर्ण परमात्मा में मन को स्थाई रखते हैं।

*अनुवाद—*
जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव सहित तथा अधियज्ञ सहित (सबका आत्मरूप) मुझे(परमात्माको) अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे(परमात्माको) जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं।

*ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः॥*

*अथ अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टमोऽध्याय:*

*अध्याय ०८ श्लोक ०१ (08/01)*
*अर्जुन उवाच*
*किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।*
*अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥*

*शब्दार्थ—*
(पुरुषोत्तम) हे पुरुषोत्तम! (तत्) वह (ब्रह्म) ब्रह्म (किम्) क्या है (अध्यात्मम्) अध्यात्म (किम्) क्या है? (कर्म) कर्म (किम्) क्या है? (अधिभूतम्) अधिभूत नामसे (किम्) क्या (प्रोक्तम्) कहा गया है (च) और (अधिदैवम्) अधिदैव (किम्) किसको (उच्यते) कहते हैं?

*अनुवाद—*
अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं?

             शेष क्रमश: कल

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24 Oct, 05:28


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा से जीवन में उत्साह पाने हेतु वैदिक प्रार्थना*

*अग्ने युङ्क्ष्वा हि ये तवाश्वासो देव साधवः। अरं वहन्त्याशवः॥*

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 25)*

*मन्त्रार्थ—*
हे (देव) कर्मोपदेशप्रदाता (अग्ने) जगन्नायक परमेश्वर ! ये जो (तव) आपके अर्थात् आप द्वारा रचित (साधवः) कार्यसाधक (आशवः) वेगवान् (अश्वासः) इन्द्रिय, प्राण, मन एवं बुद्धिरूप घोड़े (अरम्) पर्याप्त रूप से (वहन्ति) हमें निर्धारित लक्ष्य पर पहुँचाते हैं, उनको आप (हि) अवश्य (युङ्क्ष्व) कर्म में नियुक्त कीजिए।

*व्याख्या—*
हे परमात्मदेव ! किये हुए कर्मफल के भोगार्थ तथा नवीन कर्म के सम्पादनार्थ शरीररूप रथ तथा इन्द्रिय, प्राण, मन एवं बुद्धि रूप घोड़े आपने हमें दिए हैं। आलसी बनकर हम कभी निरुत्साही और अकर्मण्य हो जाते हैं। आप कृपा कर हमारे इन्द्रिय, प्राण आदि रूप घोड़ों को कर्म में तत्पर कीजिए, जिससे वैदिक कर्मयोग के मार्ग का आश्रय लेते हुए हम निरन्तर अग्रगामी होवें।

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24 Oct, 05:28


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १५२/३५०(152/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक २८ (07:28)*

*येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।*
*ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः॥*

*शब्दार्थ—*
येषाम् जिसका; तु–लेकिन; अन्त-गतम्-पूर्ण विनाशः पापम्-पाप; जनानाम्-जीवो का; पुण्य-पवित्र; कर्मणाम्-गतिविधियाँ; ते–वे; द्वन्द्व-द्विविधताएँ; मोह-मोह; निर्मुक्ताः-से मुक्त; भजन्ते-आराधना करना; माम्-मुझको; दृढ-व्रताः-दृढसंकल्प।

*अनुवाद—*
लेकिन पुण्य कर्मों में संलग्न रहने से जिन व्यक्तियों के पाप नष्ट हो जाते हैं, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे लोग दृढ़ संकल्प के साथ मेरी पूजा करते हैं।

*अध्याय ०७ श्लोक २९ (07/29)*
*जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।*
*ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्न्मध्यात्म कर्म चाखिलम्॥*

*शब्दार्थ—*
जरा-वृद्धावस्था; मरण-और मृत्यु से; मोक्षाय–मुक्ति के लिए; माम्-मुझको, मेरे; आश्रित्य–शरणागति में; यतन्ति-प्रयत्न करते हैं; ये-जो; ते-ऐसे व्यक्ति; ब्रह्म-ब्रह्म; तत्-उस; विदु-जान जाते हैं; कृत्स्नम्-सब कुछ; अध्यात्मम्-जीवात्मा; कर्म-कर्म; च-भी; अखिलम् सम्पूर्ण;

*अनुवाद—*
जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे बुढ़ापे और मृत्यु से छुटकारा पाने की चेष्टा करते हैं, वे ब्रह्म, अपनी आत्मा और समस्त कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र को जान जाते हैं।

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22 Oct, 03:13


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में सर्वशक्तिमान परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की उपासना न करने का उपदेश*

*न यस्येन्द्रो वरुणो न मित्रो व्रतमर्यमा न मिनन्ति रुद्रः। नारातयस्तमिदं स्वस्ति हुवे देवं सवितारं नमोभिः॥*

*(ऋग्वेद - मण्डल 2; सूक्त 38; मन्त्र 9)*

*मन्त्रार्थ—*
हे मनुष्यों ! (यस्य) जिस जगदीश्वर के (व्रतम्) नियम को (न) न (इन्द्रः) सूर्य्य और बिजली (न) न (वरुणः) जल (न) न (मित्रः) वायुः (न) न (अर्य्यमा) द्वितीय प्रकार का नियन्ता धारक वायु (न) न (रुद्रः) जीव (न) न (अरातयः) शत्रुजन (मिनन्ति) नष्ट करते हैं (तम्) उस (इदम्) इस (स्वस्ति) सुखरूप (सवितारम्) समस्त जगत् के उत्पन्न करनेवाले (देवम्) दाता परमात्मा को (नमोभिः) सत्कर्मों से जैसे मैं (हुवे) स्तुति करुँ वैसे तुम भी प्रशंसा करो।

*व्याख्या—*
इस संसार में कोई पदार्थ ईश्वर के तुल्य नहीं है तो अधिक कैसे हो और कोई भी इसके नियम का उल्लङ्घन नहीं कर सकता है, इस कारण सब मनुष्यों को उसी आनन्दस्वरूप, समस्त जगत के उत्पन्न करने वाले ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना और अपने सत्कर्मों से उपासना करना चाहिये।

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22 Oct, 03:12


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १५१/३५०(151/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक २६ (07:26)*
*वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।*
*भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥*

*शब्दार्थ—*
(अर्जुन) हे अर्जुन! (समतीतानि) पूर्वमें व्यतीत हुए (च) और (वर्तमानानि) वर्तमानमें स्थित (च) तथा (भविष्याणि) आगे होनेवाले (भूतानि) सब भूतोंको (अहम्) मैं (वेद) जानता हूँ (तु) परंतु (माम्) मुझको (कश्चन) कोई (न) नहीं (वेद) जानता

*अनुवाद—*
हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता।

*अध्याय ०७ श्लोक २७ (07/27)*
*इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।*
*सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥*

*शब्दार्थ—*
(भारत) हे भरतवंशी (परन्तप) अर्जुन! (सर्गे) संसारमें (इच्छाद्वेषसमुत्थेन) इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न (द्वन्द्वमोहेन) सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोहसे (सर्वभूतानि) सम्पूर्ण प्राणी (सम्मोहम्) अत्यन्त अज्ञानताको (यान्ति) प्राप्त हो रहे हैं।
केवल हिन्दी अनुवाद: हे भरतवंशी अर्जुन! संसारमें इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञानताको प्राप्त हो रहे हैं।

*अनुवाद—*
हे भरतवंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वंद्वरूप मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं।

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22 Oct, 03:12


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : सेनापति/राजा के कर्तव्य का उपदेश।*

*इन्द्र चित्तानि मोहयन्नर्वाङाकूत्या चर। अग्नेर्वातस्य ध्राज्या तान्विषूचो वि नाशय॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 3; सूक्त 2; मन्त्र 3)*

*पद पाठ—*
इन्द्र । चित्तानि । मोहयन् । अर्वाङ् । आऽकूत्या । चर ।अग्ने: । वातस्य । ध्राज्या । तान् । विषूच: । वि । नाशय ॥

(ऋषिः - अथर्वा, देवता - इन्द्रः, छन्दः - अनुष्टुप्, सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त)

*मन्त्रार्थ—*
(इन्द्र) हे महाप्रतापी राजन् ! [शत्रुओं के] (चित्तानि) चित्त को (मोहयन्) व्याकुल करता हुआ (अर्वाङ्) हमारे सन्मुख (आकूत्या) उत्तम संकल्प से (चर) आ। (अग्नेः) अग्नि के और (वातस्य) पवन के (ध्राज्या) झोंके से (तान्) उन (विषूचः) विरुद्ध गतिवालों को (वि, नाशय) नाश कर डाल।

*व्याख्या—*
जैसे अग्नि और वायु मिलकर प्रचण्ड हो जाते हैं, इसी प्रकार राजा प्रचण्ड होकर दुष्टों को दण्ड देवे और सत्कर्मी पुरुषों का शिष्टाचार करे।

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22 Oct, 03:12


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १५०/३५०(150/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक २४ (7:24)*
*अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।*
*परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥*

*शब्दार्थ—*
(अबुद्धयः) बुद्धिहीन लोग (मम) मेरे (अनुत्तमम्) अश्रेष्ठ (अव्ययम्) अटल (परम्) परम (भावम्) भावको (अजानन्तः) न जानते हुए (अव्यक्तम्) छिपे हुए अर्थात् परोक्ष (माम्) मुझ कालको (व्यक्तिम्) मनुष्य की तरह आकार में (आपन्नम्) प्राप्त हुआ (मन्यन्ते) मानते हैं।

*अनुवाद—*
बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।

*अध्याय ०७ श्लोक २५ (07/25)*
*नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।*
*मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥*

*शब्दार्थ—*
ना न तो अहम्-मैं; प्रकाश:-प्रकट; सर्वस्य–सब के लिये; योग-माया भगवान की परम अंतरंग शक्ति; समावृतः-आच्छादित; मूढः-मोहित, मूर्ख; अयम्-इन; न-नहीं; अभिजानाति–जानना; लोकः-लोग; माम्-मुझको; अजम्-अजन्मा को; अव्ययम्-अविनाशी।

*अनुवाद—*
मैं(ईश्वर) सभी के लिए प्रकट नहीं हूँ क्योंकि सब मेरी अंतरंग शक्ति 'योगमाया' द्वारा आच्छादित रहते हैं इसलिए मूर्ख और अज्ञानी लोग यह नहीं जानते कि मैं(ईश्वर) अजन्मा और अविनाशी हूँ।

             शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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20 Oct, 05:42


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार, सर्वोत्तम पथप्रदर्शक/मित्र कौन है?*

*य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम्। इन्द्रः स नो युवा सखा॥*

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 127)*

*मन्त्रार्थ—*
(यः-इन्द्रः) जो ऐश्वर्यवान् परमात्मा (सुनीती) सुनीति-शोभन नेतृत्व से—पथप्रदर्शकता से (परावतः) दूर गये—पथभ्रष्ट कुमार्ग से (यदुम्) मनुष्य को “यदवः मनुष्याः” [निघं॰ २.३] (तुर्वशम्-आनयत्) समीप—अपने समीप—सन्मार्ग में “तुर्वशः-अन्तिकनाम” [निघं॰ २.१६] ले आता है (सः-नः) वह हमारे (युवा सखा) सदा बलवान् बना रहने वाला मित्र है।

*व्याख्या—*
परमात्मा शोभन पथप्रदर्शकता से भटके हुए जन को सुपथ पर ले आता है वह मानव का सदा साथी मित्र है उस जैसा पथप्रदर्शक और मित्र कोई नहीं है।

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20 Oct, 05:42


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १४९/३५०(149/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक २२ (07/22)* 
*स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।*
*लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्।।*

*शब्दार्थ—*
(सः) वह भक्त (तया) उस (श्रद्धया) श्रद्धा से (युक्तः) युक्त होकर (तस्य) उस देवताका (आराधनम्) पूजन (ईहते) करता है (च) और (हि) क्योंकि (ततः) उस देवतासे (मया) मेरे द्वारा (एव) ही (विहितान्) विधान किये हुए (तान्) उन (कामान्) इच्छित भोगोंको (लभते) प्राप्त करता है।

*अनुवाद—*
वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है

*अध्याय ०७ श्लोक २३ (07/23)*
*अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।*
*देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।*

*शब्दार्थ—*
(तु) परंतु (तेषाम्) उन (अल्पमेधसाम्) अल्प बुद्धिवालोंका (तत्) वह (फलम्) फल (अन्तवत्) नाशवान् (भवति) होता है (देवयजः) देवताओंको पूजनेवाले (देवान्) देवताओंको (यान्ति) प्राप्त होते है। और (मद्भक्ताः) मतावलम्बी (अपि) भी (माम्) मुझको (यान्ति) प्राप्त होते हैं।

*अनुवाद—*
परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।

             शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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20 Oct, 05:41


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : मनुष्य को आयु के प्रथम भाग में शारीरिक व आत्मिक बल को विकसित करने का उपदेश*

*वातम्प्राणेनापानेन नसिकेऽउपयाममधरेणौष्ठेन सदुत्तरेण प्रकाशेनान्तरमनूकाशेन बाह्व्यन्निवेष्यम्मूर्ध्ना स्तनयित्नुन्निर्बाधेनाशनिम्मस्तिष्केण विद्युतङ्कनीनकाभ्याङ्कर्णाभ्याँ श्रोत्रँ श्रोत्राभ्याङ्कर्णा तेदनीमधरकण्ठेनापः शुष्ककण्ठेन चित्तम्मन्याभिरदितिँ शीर्ष्णानिरृतिन्निर्जर्जल्पेन शीर्ष्णा सङ्क्रोशैः प्राणान्रेष्माणँ स्तुपेन्॥*

*(यजुर्वेद - अध्याय 25; मन्त्र 2)*

(ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः, देवता - प्राणादयो देवताः, छन्दः - भुरिगतिसक्वर्यौ, स्वरः - पञ्चमः)

*पद पाठ—*
वातम्। प्राणेन। अपानेनेत्यपऽआनेन। नासिके इति नासिके। उपयाममित्युपऽयामम्। अधरेण। ओष्ठेन। सत्। उत्तरेणेत्युत्ऽतरेण। प्रकाशेनेति प्रऽकाशेन। अन्तरम्। अनूकाशेन। अनुकाशेनेत्यनुऽकाशेन। बाह्यम्। निवेष्यमिति निऽवेष्यम्। मूर्ध्ना। स्तनयित्नुम्। निर्बाधेनेति निःऽबाधेन। अशनिम्। मस्तिष्केण। विद्युतमिति विऽद्युतम्। कनीनकाभ्याम्। कर्णाभ्याम्। श्रोत्रम्। श्रोत्राभ्याम्। कर्णौ। तेदनीम्। अधरकण्ठेनेत्यधरऽकण्ठेन। अपः। शुष्ककण्ठेनेति शुष्कऽकण्ठेन। चित्तम्। मन्याभिः॥ अदितिम्। शीर्ष्णा। निर्ऋतिमिति निःऽऋतिम्। निर्जर्जल्पेनेति निःऽजर्जल्पेन। शीर्ष्णा। सङ्क्रोशैरिति सम्ऽक्रोशैः। प्राणान्। रेष्माणम्। स्तुपेन॥

*मन्त्रार्थ—*
हे जिज्ञासु ! मेरे उपदेश के ग्रहण से तू--(प्राणेन) प्राण एवं (अपानेन) अपान से (वातम्) वायु, (नासिके) नासिका के दो छिद्र तथा (उपयामम्) स्वीकृत नियम को; (अधरेण) मुख के नीचे (ओष्ठेन) ओष्ठ से एवं (उत्तरेण) ऊपर के (प्रकाशेन) प्रकाश से (सत्) श्रेष्ठ (अन्तरम्) अन्दर की वस्तु को; (अनूकाशेन) अनुकूल प्रकाश से (बाह्यम्) बाहर की वस्तु को, (मूर्ध्ना) मस्तक से (निवेष्यम्) निश्चय से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को; (निर्बाधेन) नितान्त बाधा के कारण (स्तनयित्नुम्) शब्द की निमित्त (अशनिम्) व्यापक, घोष युक्त विद्युत् को, (मस्तिष्केण) शिर में स्थित मज्जा के तन्तु समूह से (विद्युत्) विशेष प्रकाशमान विद्युत् को; (कनीनकाभ्याम्) प्रदीप्त एवं कमनीय (कर्णाभ्याम्) सुनने के साधनों से (कर्णौ) कानों को; (श्रोत्राभ्याम्) सुनने के साधन कानों के गोलकों से (श्रोत्रम्) श्रवण-शक्ति को तथा (तेदनीम्) श्रवण-क्रिया को, (अधरकण्ठेन) नीचे के कण्ठ से (अपः) जलों को, (शुष्ककण्ठेन) शुष्क कण्ठ से (चित्तम्) विज्ञान की साधक अन्त:करण की वृत्ति को, (मन्याभिः) विज्ञान-क्रियाओं से (अदितिम्) अविनाशक प्रज्ञा= बुद्धि को, (शीर्ष्णा) शिर से (निर्ॠतिम्) भूमि को, (निर्जर्जल्पेन) नितान्त जर्जरीभूत (शीर्ष्णा) शिर से एवं (संक्रोश:) संक्रोश=उत्तम आह्वानों से (प्राणान्) प्राणों को प्राप्त कर। (स्तुपेन) हिंसा से (रेष्माणम्) हिंसक अविद्या आदि रोगों का (हिन्धि) विनाश कर।

*व्याख्या—*
सब मनुष्य प्रथम आयु में शरीर आदि साधनों से शरीर और आत्मा के बल को सिद्ध करें। अविद्या, कुशिक्षा और कुशील=कुस्वभाव आदि रोगों का विनाश करें। अध्यापक एवं उपदेशक लोगों के उपदेश को ग्रहण करके जिज्ञासु लोगप्राण-अपान से वायु, नासिका के दोनों छिद्रों एवं नियम को, नीचे के ओष्ठ और ऊपर के प्रकाश से अन्दर की वस्तु को, अनुकूल प्रकाश से बाहर की वस्तु को, मस्तक से निश्चय से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को, नितान्त बाधक वस्तु से शब्द-निमित्त विद्युत् को, शिर के मज्जा-तन्तुओं से विशेष प्रकाशमान विद्युत् को, कनीनक=आंखों के प्रदीप्त एवं कमनीय तारकों एवं श्रवण-साधनों से कानों को, कानों के गोलकों से श्रवणशक्ति को, कण्ठ के अधोभाग से जलों को, शुष्क कण्ठ से विज्ञान की साधक अन्तःकरण की वृत्ति को, विज्ञान की क्रियाओं से प्रज्ञा=बुद्धि को, शिर से भूमि को, नितान्त जर्जरीभूत शिर एवं आह्वानों से प्राणों को प्राप्त करें। सब मनुष्य आयु के प्रथम भाग में शरीर आदि साधनों से शरीर और आत्मा के बल को सिद्ध करें । अविद्या, कुशिक्षा, कुशील आदि रोगों का सर्वथा हनन करें।

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20 Oct, 05:41


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १४८/३५०(148/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक २० (07/20)* 
*कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।*
*तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया॥*

*शब्दार्थ—*
कामैः-भौतिक कामनाओं द्वारा; तैः-तैः-विविध; हृत-ज्ञाना:-जिनका ज्ञान भ्रमित है; प्रपद्यन्ते–शरण लेते हैं; अन्य-अन्य; देवताः-स्वर्ग के देवताओं की; तम्-तम्-अपनी-अपनी; नियमम् नियम एवं विनियम; आस्थाय-पालन करना; प्रकृत्या स्वभाव से; नियता:-नियंत्रित; स्वया अपने आप।

*अनुवाद—*
वे मनुष्य जिनकी बुद्धि भौतिक कामनाओं द्वारा भ्रमित हो गयी है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे देवताओं की पूजा करते हैं और इन देवताओं को संतुष्ट करने के लिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न रहते हैं।

*अध्याय ०७ श्लोक २१ (07/21)*
*यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।*
*तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥*

*शब्दार्थ—*
यः-यः-जो,जो; याम्-याम्-जिस-जिस; तनुम् के रूप में; भक्तः-भक्त; श्रद्धया श्रद्धा के साथ; अर्चितुम्-पूजा करना; इच्छति–इच्छा; तस्य-तस्य-उसकी; अचलाम्-स्थिर; श्रद्धाम्-श्रद्धा; ताम्-उस; एव–निश्चय ही; विदधामि-प्रदान करना; अहम्–मैं।

*अनुवाद—*
भक्त श्रद्धा के साथ स्वर्ग के देवता के जिस रूप की पूजा करना चाहता है, मैं ऐसे भक्त की श्रद्धा को उसी रूप में स्थिर करता हूँ।

             शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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20 Oct, 05:41


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदानुसार मनुष्य किनका सत्कार करे?*

*प्र विश्वसामन्नत्रिवदर्चा पावकशोचिषे। यो अध्वरेष्वीड्यो होता मन्द्रतमो विशि॥*

*(ऋग्वेद - मण्डल 5; सूक्त 22; मन्त्र 1)*

*पद पाठ—*
प्र। विश्वऽसामन्। अत्रिऽवत्। अर्च। पावकऽशोचिषे। यः। अध्वरेषु। ईड्यः। होता। मन्द्रऽतमः। विशि॥

(ऋषिः - विश्वसामा आत्रेयः, देवता - अग्निः, छन्दः - विराडनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः)

*मन्त्रार्थ—*
हे (विश्वसामन्) सम्पूर्ण सामोंवाले (यः) जो (अध्वरेषु) यज्ञों में (ईड्यः) प्रशंसा करने योग्य (होता) दाता (विशि) प्रजा में (मन्द्रतमः) अतिशय आनन्द युक्त होवे उस (पावकशोचिषे) अग्नि के प्रकाश के सदृश प्रकाशवाले पुरुष के लिये (अत्रिवत्) व्यापक विद्यावाले के सदृश (प्र, अर्चा) सत्कार कीजिये।

*व्याख्या—*
मनुष्यों को चाहिये कि धार्मिक जनों का ही सत्कार करें, अन्य जनों का नहीं।

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*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १४७/३५०(147/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक १८ (07/18)* 
*उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।*
*आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥*

*शब्दार्थ—*
उदारा:-महान; सर्वे सभी; एव–वास्तव में; एते-ये; ज्ञानी–वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; तु–लेकिनः आत्मा-एव-मेरे समान ही; मे मेरे; मतम्-विचार; आस्थित:-स्थित; सः-वह; हि-निश्चय ही; युक्त-आत्मा भगवान में एकीकृत; माम्-मुझे एव–निश्चय ही; अनुत्तमाम्-सर्वोच्च गतिम्-लक्ष्य।

*अनुवाद—*
वास्तव में वे सब जो मुझ(ईश्वर)पर समर्पित हैं, निःसंदेह महान हैं। लेकिन जो ज्ञानी हैं और स्थिर मन वाले हैं और जिन्होंने अपनी बुद्धि मुझ(ईश्वर)में विलय कर दी है और जो केवल मुझे(ईश्वरको) ही परम लक्ष्य के रूप में देखते हैं, उन्हें मैं अपने समान ही मानता हूँ।

*अध्याय ०७ श्लोक १९ (07/19)*
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।*
*वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥*

*शब्दार्थ—*
बहूनाम्-अनेक; जन्मनाम्-जन्म; अन्ते-बाद में; ज्ञान-वान्–ज्ञान में स्थित मनुष्य; माम्-मुझको; प्रपद्यते शरणागति; वासुदेवः-वासुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण; सर्वम्-सब कुछ; इति–इस प्रकार; सः-ऐसा; महा-आत्मा-महान आत्मा; सु-दुर्लभः-विरले।

*अनुवाद—*
अनेक जन्मों की आध्यात्मिक साधना के पश्चात जिसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह मुझे(ईश्वर को) सबका उद्गम जानकर मेरी(ईश्वर की) शरण ग्रहण करता है। ऐसी महान आत्मा वास्तव में अत्यन्त दुर्लभ होती है।

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17 Oct, 13:16


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : अथर्ववेद के शत्रुसम्मोहन सूक्त में राष्ट्र के शत्रुओं के विरुद्ध, राजा/शासक के कर्तव्य का वर्णन*

*अग्निर्नः शत्रून्प्रत्येतु विद्वान्प्रतिदहन्नभिशस्तिमरातिम्। स सेनां मोहयतु परेषां निर्हस्तांश्च कृणवज्जातवेदाः॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 3; सूक्त 1; मन्त्र 1)*

*पद पाठ—*
अग्नि: । न: । शत्रून् । प्रति । एतु । विद्वान् । प्रतिऽदहन् । अभिऽशस्तिम् । अरातिम् ।स: । सेनाम् । मोहयतु । परेषाम् । नि:ऽहस्तान् । च । कृणवत् । जातऽवेदा:॥

(ऋषिः - अथर्वा, देवता - अग्निः, छन्दः - त्रिष्टुप्, सूक्तम् - शत्रु सेनासंमोहन सूक्त)

*मन्त्रार्थ—*
(अग्निः) = सम्पूर्ण सेना का नेतृत्व करनेवाला [अग्रणी] (विद्वान्) = ज्ञानी-समझदार-युद्ध विद्याओं में कुशल राजा (न:) हमारे (शत्रून् प्रति एतु) = शत्रुओं के प्रति आक्रमण करनेवाला हो। राजा के लिए आवश्यक है कि वह अग्नि हो-सैन्य सञ्चालन में निपुण हो तथा समझदार हो। 'कहाँ आगे बढ़ना है, कहाँ पीछे हटना है'-इस सबको समझता हो। (अभिशस्तिम् अरातिम्) = विनाशक शत्रु को (प्रतिदहन्) = भस्म करता हुआ यह आगे बढ़े। (सः) = वह राजा (परेषां सेनाम्) = शत्रुओं की सेना को (मोहयतु) = मोहावस्था में प्राप्त करा दे, शत्रु-सैन्य की बुद्धि चकरा जाए, वे इसकी चाल को पूरा-पूरा समझ न सकें (च) = और यह (जातवेदा:) = शत्रु-सैन्य की प्रत्येक गतिविधि को समझनेवाला इसप्रकार अस्त्रों का प्रयोग करे कि उन्हे (निर्हस्तान् कृणवत्) = आयुधग्रहण में असमर्थ हाथोंवाला कर दे।

*व्याख्या—*
जो दुष्ट लोग, प्रजा में अपकीर्ति और अशान्ति फैलावे, विद्वान् अर्थात् नीतिनिपुण राजा राष्ट्र के ऐसे दुष्टों को कठोरता से दंडित करे, शत्रुओं पर आक्रमण करे, आग्नेयास्त्रों से उन्हें भस्म कर दे। मोहनास्त्र से शत्रु-सैन्य को मूढ़ बना दे, उनके हाथ शस्त्रग्रहण में समर्थ न रहें। जिससे वे दुष्ट लोग निर्बल होकर उपद्रव न मचा सकें।

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17 Oct, 13:16


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १४६/३५०(146/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक १६ (07/16)*
*चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।*
*आर्तो जिज्ञासुर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥*
*शब्दार्थ—*
चतुः-विधाः – चार प्रकार के ; भजन्ते – पूजन ; माम् – मुझे ; जनाः – लोग ; सु-कृतिनः – पवित्र लोग ; अर्जुन – अर्जुन ; आर्तः – दुःखी ; जिज्ञासुः – ज्ञान के साधक ; अर्थ-अर्थी – भौतिक लाभ के साधक ; ज्ञानी – ज्ञान में स्थित ; च – तथा ; भरत-ऋषभ – भरतों में श्रेष्ठ अर्जुन

*अनुवाद—*
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पवित्र लोग मेरी(ईश्वरकी) भक्ति में लगे रहते हैं - दुःखी, ज्ञान के जिज्ञासु, सांसारिक सम्पत्ति के चाहने वाले तथा जो ज्ञान में स्थित हैं।

*अध्याय ०७ श्लोक १७ (07/17)*
*तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।*
*प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥*

*शब्दार्थ—*
तेषाम् – इनमें से ; ज्ञानी – जो ज्ञान में स्थित हैं ; नित्य-युक्तः – सदैव स्थिर रहने वाले ; एक – अनन्य रूप से ; भक्तिः – भक्ति ; विशिष्टते – सर्वोच्च ; प्रियः – अत्यंत प्रिय ; हि – निश्चय ही ; ज्ञानिनः – ज्ञानी पुरुष को ; अत्यर्थम् – अत्यंत ; अहम् – मैं ; सः – वह ; च – तथा ; मम – मुझे ; प्रियः – अत्यंत प्रिय

*अनुवाद—*
इनमें से मैं उन्हें सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ, जो ज्ञानपूर्वक मेरी(ईश्वर की) पूजा करते हैं और मुझ(ईश्वर)में दृढ़ एवं अनन्य भक्ति रखते हैं। मैं उन्हें बहुत प्रिय हूँ और वे मुझे बहुत प्रिय हैं।

             शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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16 Oct, 03:43


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेदमन्त्र में मनुष्यों को मिलकर परमात्मा को वरण करने का उपदेश*

*सखायस्त्वा ववृमहे देवं मर्तास ऊतये। अपां नपातꣳ सुभगꣳ सुदꣳससꣳ सुप्रतूर्तिमनेहसम्॥*

*(सामवेद - मन्त्र संख्या : 62)*

*पद पाठ—*
सखायः । स । खायः । त्वा । ववृमहे । देवम् । मर्तासः । ऊतये । अपाम् । नपातम् । सुभगम् । सु । भगम् । सुदँऽससम् । सु । दँससम् । सुप्रतूर्तिम् । सु । प्रतूर्त्तिम् । अनेहसम् । अन् । एहसम् ॥

(ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः, देवता - अग्निः, छन्दः - बृहती, स्वरः - मध्यमः, काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्)

*मन्त्रार्थ—*
(मर्तासः) मरणधर्मा, (सखायः) समान ख्यातिवाले हम साथी लोग (देवम्) ज्योतिर्मय और ज्योति देनेवाले, (अपां नपातम्) व्याप्त प्रकृति का और जीवात्माओं का विनाश न करनेवाले, (सुभगम्) उत्तम ऐश्वर्यवाले, (सुदंससम्) शुभ कर्मोंवाले, (सुप्रतूर्तिम्) अत्यन्त शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले, (अनेहसम्) हिंसा न किये जा सकने योग्य, निष्पाप, सज्जनों के प्रति क्रोध न करनेवाले (त्वा) तुझ परमेश्वररूप अग्नि को (ऊतये) आत्मरक्षा और प्रगति के लिए (ववृमहे) वरण करते हैं।

*व्याख्या—*
कल्याण की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को चाहिए कि वे मिलकर परम तेजस्वी, तेजः-प्रदाता, प्रलयकाल में नश्वर पदार्थों के विनाशक, नित्य पदार्थों के अविनाशक, सर्वैश्वर्यवान्, शुभकर्मकर्ता, विचारे हुए कार्यों को शीघ्र पूर्ण करनेवाले, किसी से हिंसित या पराजित न होनेवाले, निष्पाप, सज्जनों पर क्रोध न करनेवाले, दुष्टों पर कुपित होनेवाले, जगद्व्यवस्थापक, सबके मङ्गलकारी परमेश्वर की श्रद्धा से उपासना करें।

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16 Oct, 03:43


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १४५/३५०(145/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक १४ (07/14)*
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।*
*मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥*

*शब्दार्थ—*
दैवी—दिव्य; हि—निश्चय ही; एषा—यह; गुण-मयी—तीनों गुणों से युक्त; मम— मेरी; माया—शक्ति; दुरत्यया—पार कर पाना कठिन, दुस्तर; माम्—मुझे; एव— निश्चय ही; ये—जो; प्रपद्यन्ते—शरण ग्रहण करते हैं; मायाम् एताम्—इस माया के; तरन्ति—पार कर जाते हैं; ते—वे।

*अनुवाद—*
प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं।            

*अध्याय ०७ श्लोक १५ (07/15)*
*न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।*
*माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥*

*शब्दार्थ—*
न–नहीं; माम् मेरी; दुष्कृतिन:-बुरा करने वाले; मूढाः-अज्ञानी; प्रपद्यन्ते–शरण ग्रहण करते हैं; नर-अधमाः-अपनी निकृष्ट प्रवृति के अधीन आलसी लोग; मायया भगवान की प्राकृत शक्ति द्वारा; अपहृत- ज्ञानाः-भ्रमित बुद्धि वाले; आसुरम्-आसुरी; भावम्-प्रकृति वाले; आश्रिताः-शरणागति।

*अनुवाद—*
चार प्रकार के लोग मेरी(ईश्वर की) शरण ग्रहण नहीं करते-वे जो ज्ञान से वंचित हैं, वे जो अपनी निकृष्ट प्रवृति के कारण मुझे जानने में समर्थ होकर भी आलस्य के अधीन होकर मुझे जानने का प्रयास नहीं करते, वे जिनकी बुद्धि भ्रमित है और वे जो आसुरी प्रवृति के हैं।

             शेष क्रमश: कल

*अधिकांश हिन्दू तथाकथित व्यस्तता व तथाकथित समयाभाव के कारण हम सभी सनातनियों के लिए आदरणीय पठनीय एवं अनुकरणीय श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करना छोड़ चुके हैं, इसलिए प्रतिदिन गीता जी के दो श्लोकों को उनके हिन्दी अर्थ सहित भेजकर लगभग एक वर्ष के अन्तराल  (350 दिन × 2 श्लोक/दिन = 700 श्लोक) में एक बार समूह से जुड़े हजारों हिन्दुओं को सम्पूर्ण गीताजी का स्वाध्याय कराने का प्रण लिया गया है। आप सभी भी ये दो श्लोक प्रतिदिन पढ़ने व पढ़वाने का संकल्प लें।*

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15 Oct, 04:44


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में ईश्वरीय स्वरूप*

*स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँ शुद्धमपापविद्धम् । कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥*

*(यजुर्वेद - अध्याय ४०, मन्त्र ८)*

*मन्त्रार्थ—*
हे मनुष्यो! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीररहित (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नहीं होता (परि, अगात्) सब ओर से व्याप्त जो (कविः) सर्वत्र (मनीषी) सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता, पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादिस्वरूप अपने-अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है, (सः) वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने के योग्य है।

*व्याख्या—*
हे मनुष्यो! जो अनन्त शक्तियुक्त, अजन्मा, निरन्तर, सदा मुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सबका साक्षी, नियन्ता, अनादिस्वरूप ब्रह्म कल्प के आरम्भ में जीवों को अपने कहे वेदों से शब्द, अर्थ और उनके सम्बन्ध को जनानेवाली विद्या का उपदेश न करे तो कोई विद्वान् न होवे और न धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों के भोगने को समर्थ हो, इसलिये इसी ब्रह्म की सदैव उपासना करो।

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15 Oct, 04:44


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १४४/३५०(144/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक १२ (07/12)*
*ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।*
*मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥*

*शब्दार्थ—*
ये—जो; च—तथा; एव—निश्चय ही; सात्त्विका:—सतोगुणी; भावा:—भाव; राजसा:—रजोगुणी; तामसा:—तमोगुणी; च—भी; ये—जो; मत्त:—मुझसे; एव— निश्चय ही; इति—इस प्रकार; तान्—उनको; विद्धि—जानो; न—नहीं; तु—लेकिन; अहम्—मैं; तेषु—उनमें; ते—वे; मयि—मुझमें।

*अनुवाद—*
तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या तमोगुण हों। एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतन्त्र। मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं।           

*अध्याय ०७ श्लोक १३ (07/13)*
*त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।*
*मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥*

*शब्दार्थ—*
त्रिभि:—तीन; गुण-मयै:—गुणों से युक्त; भावै:—भावों के द्वारा; एभि:—इन; सर्वम्—सम्पूर्ण; इदम्—यह; जगत्—ब्रह्माण्ड; मोहितम्—मोहग्रस्त; न अभिजानाति—नहीं जानता; माम्—मुझको; एभ्य:—इनसे; परम्—परम; अव्ययम्— अव्यय, सनातन।

*अनुवाद—*
तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी (ईश्वर)को नहीं जानता।

             शेष क्रमश: कल

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14 Oct, 03:08


*आत्मबोध🕉️🚩*

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : वेद में परमात्मा से हमारे अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश कर शुद्ध करने की प्रार्थना*

*आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे। अर्कस्य योनिमासदम्॥*

*(ऋग्वेद - मण्डल 9; सूक्त 50; मन्त्र 4)*

*मन्त्रार्थ—*
(अर्कस्य योनिमासदम्) तेज की योनि को प्राप्त होने के लिये अर्थात् तेजस्वी बनने के लिये (मदिन्तम) हे आनन्द के बढ़ानेवाले ! (कवे) हे वेदरूप काव्य के रचनेवाले ! (धारया) अपनी ज्ञान की धारा से (पवित्रम् आपवस्व) मेरे अन्तःकरण को पवित्र करिये।

*व्याख्या—*
हे वेदरूप काव्य के रचनेवाले परमात्मा! हे आनन्द के बढ़ानेवाले परमात्मा! अपनी ज्ञान की धारा से तेजस्वी बनाने के लिये मेरे अन्तःकरण को पवित्र करिये। अर्थात् परमात्मा ही है जो अपने ज्ञानप्रदीप से उपासकों के हृदयरूपी मन्दिर को पवित्र बना प्रकाशित करता है।

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14 Oct, 03:08


*आत्मबोध🕉🦁*

*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

*दिवस : १४४/३५०(144/350)*

*।। ॐ श्री परमात्मने नमः ।।*

*सप्तमऽध्याय : ज्ञानविज्ञानयोग*

*अध्याय ०७ श्लोक १० (07/10)*
*बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।*
*बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥*

*शब्दार्थ—*
बीजम्—बीज; माम्—मुझको; सर्व-भूतानाम्—समस्त जीवों का; विद्धि—जानने का प्रयास करो; पार्थ—हे पृथापुत्र; सनातनम्—आदि, शाश्वत; बुद्धि:—बुद्धि; बुद्धि- मताम्—बुद्धिमानों की; अस्मि—हूँ; तेज:—तेज; तेजस्विनाम्—तेजस्वियों का; अहम्—मैं।

*अनुवाद—*
हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मैं ही(ईश्वर ही) समस्त जीवों का आदि बीज हूँ(हैं), बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ(हैं)।

*अध्याय ०७ श्लोक ११ (07/11)*
*बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।*
*धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥*

*शब्दार्थ—*
बलम्—शक्ति; बल-वताम्—बलवानों का; च—तथा; अहम्—मैं हूँ; काम— विषयभोग; राग—तथा आसक्ति से; विवर्जितम्—रहित; धर्म-अविरुद्ध:—जो धर्म के विरुद्ध नहीं है; भूतेषु—समस्त जीवों में; काम:—विषयी जीवन; अस्मि—हूँ; भरत- ऋषभ—हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ!

*अनुवाद—*
मैं बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ। हे भरतश्रेष्ठ (अर्जुन)! मैं वह काम हूँ, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।

             शेष क्रमश: कल

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14 Oct, 02:57


*आत्मबोध* 🕉️🚩

*दैनिक वेद मन्त्र स्वाध्याय : परमात्मा की सुन्दर वैदिक प्रार्थना*

*दिशां प्रज्ञानां स्वरयन्तमर्चिषा सुपक्षमाशुं पतयन्तमर्णवे। स्तवाम सूर्यं भुवनस्य गोपां यो रश्मिभिर्दिश आभाति सर्वाः॥*

*(अथर्ववेद - काण्ड 13; सूक्त 2; मन्त्र 2)*

 *मन्त्रार्थ—*
हम (सूर्यं स्तवाम) = 'ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः' सूर्यसमंज्योति ब्रह्म को स्तुत करते हैं, जो प्रभु (अर्चिषा) = अपनी ज्ञानदीसि से, प्रकाश की किरणों से (प्रज्ञानाम्) = [प्रज्ञापिनीनाम] जीव के मार्गों का ज्ञान देनेवाली (दिशाम्) = दिशाओं का-निर्देशों व संकेतों का (स्वरयन्तम्) = उपदेश कर रहे हैं (सुपक्षम्) = उत्तम परिग्रह व आश्रय देनेवाले हैं। (आशुम्) = संसार में सर्वत्र व्याप्त हैं। (अर्णवे पतयन्तम्) = संसार-समुद्र में ऐश्वर्यवाले हैं। जहाँ-जहाँ कुछ भी उत्तमता है वह सब उस प्रभु के कारण ही तो है। २. उन प्रभु का स्तवन करते हैं जो (भुवनस्य गोपाम्) = सारे ब्रह्माण्ड के रक्षक हैं, और (य:) = जो (रश्मिभिः) = अपनी प्रकाश की किरणों से (सर्वाः दिश: आभाति) = सब दिशाओं को आभासित कर रहे हैं।

*व्याख्या—*
हम परमात्मा का स्तवन करते हैं। प्रभु हमें जीवनमार्ग की दिशाओं का संकेत कर रहे हैं। सर्वत्र व्याप्त होते हुए वे हमारे उत्तम आश्रय-स्थान है। संसार में सर्वत्र उन्हीं का ऐश्वर्य दीप्त हो रहा है। वे प्रभु ही ब्रह्माण्ड के रक्षक हैं।

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14 Oct, 02:57


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*श्रीमद्भगवद्गीता दैनिक स्वाध्याय*

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*अध्याय ०७ श्लोक ०८ (07/08)*
*रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।*
*प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥*

*शब्दार्थ—*
रस:—स्वाद; अहम्—मैं; अप्सु—जल में; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; प्रभा—प्रकाश; अस्मि—हूँ; शशि-सूर्ययो:—चन्द्रमा तथा सूर्य का; प्रणव:—ओंकार के अ, उ, म ये तीन अक्षर; सर्व—समस्त; वेदेषु—वेदों में; शब्द:—शब्द, ध्वनि; खे—आकाश में; पौरुषम्—शक्ति, सामर्थ्य; नृषु—मनुष्यों में।

*अनुवाद—*
हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।

*अध्याय ०७ श्लोक ०९ (07/09)*
पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥

*शब्दार्थ—*
पुण्य:—मूल, आद्य; गन्ध:—सुगंध; पृथिव्याम्—पृथ्वी में; च—भी; तेज:—प्रकाश; च—भी; अस्मि—हूँ; विभावसौ—अग्नि में; जीवनम्—प्राण; सर्व—समस्त; भूतेषु— जीवों में; तप:—तपस्या; च—भी; अस्मि—हूँ; तपस्विषु—तपस्वियों में।

*अनुवाद—*
मैं(ईश्वर) पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ(हैं)। मैं(ईश्वर) समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ(हैं)।
     
             शेष क्रमश: कल

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12 Oct, 13:09


*विजय दशमी पर श्री राम रक्षा स्तोत्र का पाठ कर श्रीराम से अपनी एवं परिवार की रक्षा की प्रार्थना करें*
🚩🕉️💐🌻🏵️

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12 Oct, 13:09


*आत्मबोध : आज का स्तोत्र🕉️🚩*

*अथ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्*

*विनियोगम्*
*अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्रीसीतारामचन्द्रो देवता अनुष्टुप् छन्दः सीता शक्तिः श्रीमान् हनुमान् कीलकं श्रीरामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः*

*ध्यानम्*
*ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं*
*पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्।* 
*वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं*
*नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥*

*स्तोत्रम्*
*चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्।*
*एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्।।१।।*

*ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्।*
*जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्।।२।।*

*सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम्।*
*स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्॥३।।*

*रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम्।*
*शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः॥४।।*

*कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती।*
*घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः॥५।।*

*जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः।*
*स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः॥६।।*

*करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित्।*
*मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः॥७।।*

*सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः।*
*ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत्॥८।।*

*जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तकः।*
*पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः॥९।।*

*एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत्।*
*स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्॥१०।।*

*पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः।*
*न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः॥११।।*

*रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन्।*
*नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति।।१२।।*

*जगज्जैत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्।*
*यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः॥१३।।*

*वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्।*
*अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्॥१४।।*

*आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः।*
*तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः॥१५।।*

*आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम्।*
*अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्स नः प्रभुः॥१६।।*

*तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ।*
*पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ॥१७।।*

*फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।*
*पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।।१८।।*

*शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्।*
*रक्षः कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ।।१९।।*

*आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशा–*
*वक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिन्नौ।*
*रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा–*
*वग्रतः पथि सदैव गच्छताम्॥२०।।*

*संनद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा।*
*गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः॥२१।।*

*रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली।*
*काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः॥२२।।*

*वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः।*
*जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः।।२३।।*

*इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः।*
*अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोति न संशयः॥२४।।*

*रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम्।*
*स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नराः।।२५।।*

*रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं*
*काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्।*
*राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्तिं*
*वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्॥२६।।*

*रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।*
*रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः॥२७।।*

*श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम*
*श्रीराम राम भरताग्रज राम राम।*
*श्रीराम राम रणकर्कश राम राम*
*श्रीराम राम शरणं भव राम राम॥२८।।*

*श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि*
*श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि।*
*श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि*
*श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥२९।।*

*माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः*
*स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।*
*सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु-*
*-र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने॥३०।।*

*दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा।*
*पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम्॥३१।।*

*लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।*
*कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥३२।।*

*मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।*
*वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥३३।।*

*कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।*
*आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्॥३४।।*

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।*
*लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्॥३५।।*

*भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम्।*
*तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्॥३६।।*

United Hindu Official✊🏻🚩

12 Oct, 13:09


*रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे*
*रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः।*
*रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं*
*रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर॥३७।।*

*राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।*
*सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥३८।।*

*।।ॐ तत्सदिति श्रीबुधकौशिकमुनिविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।*

United Hindu Official✊🏻🚩

12 Oct, 10:30


*यदि कहें कि उन्होंने खर को मारा था तो यह ठीक नहीं है ; क्योकि खर अत्याचारी था । उसन स्वयं ही उन्हें मार डालने के लिये उन पर आक्रमण किया था । इसलिए श्रीराम ने रणभूमि में उसका वध किया ; क्योकि प्रत्येक प्राणी यथाशक्ति अपने प्राणों की रक्षा अवश्य करनी चाहिये । "*

*♦️यदि आपका पूर्वज शराबी, व्यभिचारी, भोग-विलासी, अपहरणकर्ता, कामी, चरित्रहीन, अत्याचारी हो तो आप उसके गुण-गान करेंगे अथवा उस निंदा करेंगे?*
*स्पष्ट है उसकी निंदा करेंगे। बस हम यही तो कर रहे है। यही सदियों से दशहरे पर होता आया है। रावण का पुतला जलाने का भी यही सन्देश है कि पापी का सर्वदा नाश होना चाहिए।*
*एक ओर वात्सलय के सागर, सदाचारी, आज्ञाकारी, पत्नीव्रता, शूरवीर, मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम है।*
*दूसरी ओर शराबी, व्यभिचारी, भोग-विलासी, अपहरणकर्ता, कामी, चरित्रहीन, अत्याचारी रावण है।*
*किसकी जय होनी चाहिए। किसकी निंदा होनी चाहिए। इतना तो साधारण बुद्धि वाले भी समझ जाते है।*
*आप क्यों नहीं समझना चाहते? इसलिए यह घमासान बंद कीजिये और पक्षपात छोड़कर सत्य को स्वीकार कीजिये।*

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