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☸️🌼'' इस चैनल के माद्यम से आपको भगवान बुद्ध जी की पवित्र बुद्ध वाणी पढ़ने का मौका मिलेंगी !''🌼☸️

🌹'' धम्म ही मनुष्यों में श्रेष्ठ है , इसलोक में भी और परलोक में भी ! ''🌹दीघ निकाय ३.४🌹

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पवित्र बुद्ध वाणी (Hindi)

आपका स्वागत है पवित्र बुद्ध वाणी चैनल में! यहाँ आपको भगवान बुद्ध जी की पवित्र वाणियाँ पढ़ने का अद्वितीय मौका मिलेगा। धम्म ही मनुष्यों में श्रेष्ठ है, इसलोक में भी और परलोक में भी! जुड़ें हमारे मुख्य ग्रुप में और अपने ज्ञान को बढ़ाएं। धर्म और आध्यात्मिकता के इस सफर में हम साथ चलेंगे। जॉइन करें और मानवता के उज्जवल भविष्य की दिशा में कदम बढ़ाएं। इस भव्य सफर में आपका स्वागत है, जुड़ें और दिव्यता का अनुभव करें!

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

13 Feb, 04:36


🌺विपत्तिसम्पदा सुत्त🌺 #anguttaranikaya

"भिक्षुओं, ये तीन विपत्तियाँ हैं। कौन सी तीन ? शील-विपत्ति, चित्त-विपत्ति, दृष्टि-विपत्ति।

"भिक्षुओं, शील-विपत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) प्राणी-हिंसा करता है, चोरी करता है, काम-भोग सम्बन्धी मिथ्याचार करता है, झूठ बोलता है, चुगली करता है, कठोर (वचन) बोलता है, व्यर्थ बोलता है। भिक्षुओं, इसे शील-विपत्ति कहते हैं।

"भिक्षुओं, चित्त-विपत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) लोभी होता है, ब्यापन्न-चित्त (क्लेश से ग्रसित चित्त वाला) होता है। भिक्षुओं, इसे चित्त-विपत्ति कहते हैं।

"भिक्षुओं, दृष्टि-विपत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) मिथ्या-दृष्टि वाला होता है, विपरीत-दर्शन वाला होता है – 'दान (का फल) नहीं है, यज्ञ (का फल) नहीं है, आहुति (का फल) नहीं है, अच्छे-बुरे किये गए कर्मों का फल-विपाक नहीं है, यह लोक नहीं है, परलोक नहीं है, माता (की सेवा का फल) नहीं है, पिता (की सेवा का फल) नहीं है, ओपपातिक सत्व नहीं है, लोक में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण नहीं हैं जो सम्यक-मार्ग पर आकर, सम्यक-प्रतिपन्न होकर, इस लोक और पर-लोक को स्वयं अभिज्ञा से साक्षात करके बताते हैं।' भिक्षुओं, यह दृष्टि-विपत्ति कहलाती है।

"भिक्षुओं, शील-विपत्ति के कारण प्राणी शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर, अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक को प्राप्त होते हैं, अथवा भिक्षुओं, चित्त-विपत्ति के कारण प्राणी शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक को प्राप्त होते हैं ,अथवा भिक्षुओं, दृष्टि-विपत्ति के कारण प्राणी, शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक को प्राप्त होते हैं। भिक्षुओं, ये तोन विपत्तियाँ हैं।

"भिक्षुओं, ये तीन सम्पत्तियाँ हैं? कौन सी तीन ? शील-सम्पत्ति, चित्त-सम्पत्ति, दृष्टि-सम्पत्ति।

"भिक्षुओं, शील-सम्पत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) प्राणी-हिंसा से विरत होता है, चोरी से विरत होता है, काम-भोग सम्बन्धी मिथ्याचार से विरत होता है, झूठ बोलने से विरत होता है, चुगली करने से विरत होता है, कठोर (वचन) बोलने से विरत रहता है, व्यर्थ बोलने से विरत रहता है। भिक्षुओं, इसे शील-सम्पत्ति कहते हैं।

"भिक्षुओं, चित्त-सम्पत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) अलोभी होता है, अब्यापन्न-चित्त वाला होता है। भिक्षुओं, इसे चित्त-सम्पत्ति कहते हैं।

"भिक्षुओं, दृष्टि-सम्पत्ति किसे कहते हैं ? भिक्षुओं, एक आदमी सम्यक्-दृष्टि वाला होता है, अविपरीत-दर्शन वाला होता है – 'दान (का फल) है, यज्ञ (का फल) है, आहुति (का फल) है, अच्छे-बुरे किये गए कर्मों का फल-विपाक होता है, यह लोक है, परलोक है, माता (की सेवा का फल) है, पिता (की सेवा का फल) है, ओपपातिक सत्व है, लोक में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-मार्ग पर आकर, सम्यक-प्रतिपन्न होकर, इस लोक और पर-लोक को स्वयं अभिज्ञा से साक्षात करके बताते हैं।' भिक्षुओं, इसे दृष्टि-सम्पत्ति कहते हैं।

"भिक्षुओं, शील-सम्पत्ति के कारण प्राणी शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर, सुगति स्वर्ग-लोक में उत्पन्न होते हैं, अथवा भिक्षुओं, चित्त-सम्पत्ति के कारण प्राणी शरीर छूटने पर, मरने के अनन्तर सुगति स्वर्ग-लोक में उत्पन्न होते हैं, अथवा भिक्षुओं, दृष्टि-सम्पत्ति के कारण प्राणी शरीर छूटने पर, मरने के अनन्तर सुगति स्वर्ग-लोक में उत्पन्न होते हैं। भिक्षुओं, ये तीन सम्पत्तियाँ हैं।"

🌸 अंगुत्तरनिकाय ३.१२.५, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

10 Feb, 04:31


शास्ता ने उक्कट्ठा में यथाभिरुचि रहकर वैशाली जा वहाँ गोतमक चेतिय में गोतमक सुत्त का उपदेश दिया। हजार लोक धातु काँप गयी। उसे सुनकर वह भिक्षु अर्हत्व को प्राप्त हुए। मूलपरियाय सुत्त के उपदेश के अन्त में, जिस समय शास्ता उक्कट्ठा में ही विहार करते थे, भिक्षुओं ने धर्मसभा में बातचीत चलायी - "आयुष्मानों! अहो बुद्धों की शक्ति! वे ब्राह्मण प्रव्रजित वैसे अभिमानी थे। उन्हें भगवान् ने मूलपरियाय सुत्त से मान-रहित कर दिया।" शास्ता ने आकर पूछा- "भिक्षुओं, बैठे क्या बातचीत कर रहे हो ?" 'अमुक बातचीत' कहने पर शास्ता ने कहा- "भिक्षुओं, न केवल अभी इन अभिमानी सिर वालों को मान रहित किया है, पहले भी किया है।" इतना कह पूर्व-जन्म की कथा कही–

🌼..अतीत कथा..🌼

पूर्व समय में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य करने के समय बोधिसत्व ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ। बड़े होने पर तीनों वेदों में पारंगत हो प्रसिद्ध आचार्य बन पाँच सौ माणवकों को मन्त्र सिखाते था। वे पाँच सौ (माणवक) शिल्प सीखकर, उसका अभ्यास कर सोचने लगे– ''जितना हम जानते हैं, आचार्य भी उतना ही। उसमें कुछ विशेष नहीं।'' यह सोच वह अभिमान से चूर हो आचार्य के पास न जाते, उनकी सेवा सुश्रूषा न करते। एक दिन जब आचार्य बेर के वृक्ष के नीचे बैठा था, उन्होंने उन्हें (आचार्य को) नीचा दिखाने की इच्छा से बेर के वृक्ष को नाखून से खुरच कर कहा- "यह वृक्ष निस्सार है।" बोधिसत्व ने यह जान कि यह मुझे नीचा दिखा रहे हैं, कहा- "शिष्यों! एक प्रश्न पूछता हूँ।" उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक कहा- "पूछें, उत्तर देंगे।" आचार्य ने प्रश्न पूछते हुए पहली गाथा कही-

“कालो घसति भूतानि, 
सब्बानेव सहत्तना।
यो च कालघसो भूतो, 
स भूतपचनिं पची”ति॥


"काल सभी प्राणियों को खाता है, अपने को भी (खाता है)। जो काल को खाने वाला प्राणी है वह सब प्राणियों को जलाने वाली को जलाता है।"

(गाथा का अर्थ–)

कालो (काल) – पूर्वाह्न समय तथा अपराह्न समय आदि। भूतानि (प्राणियों को) – यह सत्व का नाम है, काल प्राणियों का चर्म मांस आदि नोच-नोच कर उन्हें नहीं खाता किन्तु उनकी आयु वर्ण बल को नष्ट कर यौवन को मर्दन कर अरोग्य का विनाश करता हुआ खाता है। इस प्रकार खाता हुआ किसी को नहीं छोड़ता, सब्बानेव घसति (सभी को खाता है)। केवल प्राणियों को ही नहीं किन्तु सहत्तना – अपने को भी खाता है। पूर्वाह्न अपराह्न तक नहीं रहताः इसी प्रकार अपराह्न आदि भी। यो च कालघसो भूतो यह क्षीणास्रव के लिये कहा गया है। वह आर्यमार्ग से भविष्य के प्रति-सन्धि-ग्रहण करने के समय को नष्ट करने वाला होने से "कालघसो भूतो" कहलाता है। स भूतपचनिं पचि - उसने इस तृष्णा को, जो प्राणियों को अपाय में जलाती है, ज्ञानाग्नि से जला दिया, भस्म कर दिया। इसी से "भूतपचनिं पचि" कहा जाता है। "पजनि" भी पाठ है, जननि पैदा करने वाली अर्थ है।

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इस प्रश्न को सुनकर माणवकों में एक भी न जान सका। तब बोधिसत्व ने कहा- "तुम यह मत समझो कि यह प्रश्न तीनों वेदों में है। तुम यह समझ कर कि 'जो मैं जानता हूँ वह सब तुम जानते हो', मुझे बेर के वृक्ष जैसा बनाते हो। तुम यह नहीं जानते कि ऐसा बहुत है जिसे तुम नहीं जानते और मैं जानता हूँ। जाओ, सात दिन का समय देता हूँ। इतने समय में इस प्रश्न पर विचार करो।

वे बोधिसत्व की वंदना कर अपने-अपने निवास स्थान पर गये। वहाँ सप्ताह भर सोचने पर भी न उन्हें प्रश्न का अन्त मिला न शिखर। वे सातवें दिन आचार्य के पास जाकर वन्दना करके बैठे। आचार्य ने पूछा- "भद्रमुखों! प्रश्न समझ में आया ?" वे बोले नहीं जानते। बोधिसत्व ने फिर उनकी निन्दा करते हुए दूसरी गाथा कही -

“बहूनि नरसीसानि, 
लोमसानि ब्रहानि च।
गीवासु पटिमुक्कानि, 
कोचिदेवेत्थ कण्णवा”ति॥


"बहुत लोगों के सिर हैं, (वे) बालों वाले हैं और बड़े हैं, गर्दन पर बांधे हुए हैं, (लेकिन) यहाँ कोई कोई ही कानों वाला (=प्रज्ञावान) है।"

(अर्थ–)

बहुत लोगों के सिर दिखायी देते हैं। वे बालों वाले हैं। सभी बड़े-बड़े हैं। गर्दनों पर रखे हुए हैं। ताड़ के फल की तरह हाथ में पकड़े हुए नहीं हैं। इन बातों में किन्हीं में आपस में भेद नहीं है। लेकिन यहाँ कोई ही कानवाला है। (यह अपने बारे में कहा)। कण्णवा – प्रज्ञावान। कान का छेद तो किसको नहीं है ? इस प्रकार उन माणवकों की निन्दा कर कि, "तुम लोगों को कानों का छेद मात्र ही है, प्रज्ञा नहीं है", प्रश्न समझाया। उन्होंने सुनकर 'ओह! आचार्य महान् होते हैं' क्षमा माँग नम्र हो बोधिसत्व की सेवा की।

शास्ता ने यह धर्मदेशना ला जातक का मेल बैठाया– "उस समय पाँच सौ माणवक यह भिक्षु थे, आचार्य मैं ही था।"

🌸 जातक अट्ठकथा, खुद्दकनिकाय अट्ठकथा

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

10 Feb, 04:31


🌺मूलपरियाय जातक🌺 #jataka

"कालो घसति भूतानि..." यह शास्ता ने उक्कट्ठा के पास सुभगवन में विहार करते हुए मूलपरियाय सुत्त के बारे में कही।

🌸..वर्तमान कथा..🌸

उस समय तीन वेदों में पारंगत पाँच सौ ब्राह्मणों ने (बुद्ध) शासन में प्रव्रजित हो तीनों पिटक सीख कर अभिमान में चूर हो सोचा- "सम्यक् सम्बुद्ध भी तीन पिटक ही जानते हैं। हम भी जानते हैं। तब हमारा उनका क्या अन्तर है ?" उन्होंने बुद्ध की सेवा में जाना छोड़ दिया। शास्ता की बराबरी के होकर घूमने लगे। एक दिन शास्ता ने उनके पास आकर बैठे रहने के समय आठ भूमियों से सजाकर मूलपरियाय सुत्त का उपदेश दिया। उनकी कुछ समझ में नहीं आया। तब उनको विचार हुआ- "हम अभिमान करते हैं कि हमारे समान पण्डित नहीं। लेकिन अब कुछ नहीं समझते। बुद्ध के सदृश पण्डित नहीं है। अहो बुद्ध-गुण!" उस समय से वह नम्र बन गये, वैसे जैसे सर्प के दाँत उखाड़ दिये गये हों, विष जाता रहा हो।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

09 Feb, 04:34


☸️🌳🙏 बोधि वृक्ष की वन्दना का अद्भुत पुण्य विपाक 🙏🌳☸️ #bodhiapadana  #therapadana

🌺एकचारियत्थेरअपदान🌺

“तावतिंसेसु देवेसु,
महाघोसो तदा अहु।
बुद्धो च लोके निब्बाति, 
मयञ्चम्ह सरागिनो॥


"उस समय तावतिंस के देवताओं के बीच विशाल कोलाहल हुआ, "लोक (दुनिया) में बुद्ध निर्वृत्त (परिनिर्वाण को प्राप्त) हो गए हैं, और हम (अभी भी) सराग (राग-सहित) हैं"।

“तेसं संवेगजातानं, 
सोकसल्लसमङ्गिनं।
सबलेन उपत्थद्धो, 
अगमं बुद्धसन्तिकं॥


"उन (लोगों के बीच में जिन्हें) संवेग उत्पन्न हुआ था, जो शोक के तीर से पीड़ित थे, मैं अपने बल के सहारे बुद्ध के पास गया।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

09 Feb, 04:34


“मन्दारवं गहेत्वान, 
सङ्गीति अभिनिम्मितं।
परिनिब्बुतकालम्हि, 
बुद्धस्स अभिरोपयिं॥


"नाज़ुक, (स्वयं) निर्मित मन्दारव (फूल) को ग्रहण करके, मैंने बुद्ध जी के परिनिर्वृत्त (परिनिर्वाण हो जाने के) समय पर दिया।

“सब्बे देवानुमोदिंसु, 
अच्छरायो च मे तदा।
कप्पानं सतसहस्सं, 
दुग्गतिं नुपपज्जहं॥


"उस समय सभी देवताओं और अप्सराओं ने मेरा अनुमोदन किया। शत-सहस्र (एक लाख) कल्पों तक मैं दुर्गति में उत्पन्न नहीं हुआ।

“सट्ठिकप्पसहस्सम्हि, 
इतो सोळस ते जना।
महामल्लजना नाम, 
चक्कवत्ती महब्बला॥


"यहाँ से साठ हज़ार कल्प पहले महामल्लजन नाम के सोलह महाबलवान चक्रवर्ती राजा थे।

“पटिसम्भिदा चतस्सो, 
विमोक्खापि च अट्ठिमे।
छळभिञ्ञा सच्छिकता, 
कतं बुद्धस्स सासनं”॥


"चार प्रतिसंभिदाओं, आठ-विमोक्षों तथा छः अभिज्ञाओं का साक्षात्कार कर लिया, मैंने बुद्ध-शासन को (पूरा) किया है।"

इत्थं सुदं आयस्मा एकचारियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति।

इस प्रकार आयुष्मान एकचारिय स्थविर ने इन गाथाओं को कहा।

🌸 थेरापदान १८९, खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक

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08 Feb, 04:33


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🌺बोधिउपट्ठाकत्थेरअपदान🌺

“नगरे रम्मवतिया, 
आसिं मुरजवादको।
निच्चुपट्ठानयुत्तोम्हि, 
गतोहं बोधिमुत्तमं॥


"रम्मवती नगर में मैं मुरज नाम का (व्यक्ति) था, नित्य सेवा में लगा हुआ मैं उत्तम बोधि(-वृक्ष) के पास गया।

“सायं पातं उपट्ठित्वा, 
सुक्कमूलेन चोदितो।
अट्ठारसकप्पसते, 
दुग्गतिं नुपपज्जहं॥

"शुक्र-मूलों के द्वारा प्रेरित होकर सुबह तथा शाम सेवा करके, मैं अठारह सौ कल्पों तक दुर्गति में उत्पन्न नहीं हुआ।

“पन्नरसे कप्पसते, 
इतो आसिं जनाधिपो।
मुरजो नाम नामेन, 
चक्कवत्ती महब्बलो॥


"यहाँ से पन्द्रह सौवें कल्प में मैं मुरज नामक लोगों का अधिपति (जनाधिप) महाबलवान चक्रवर्ती राजा था।

“पटिसम्भिदा चतस्सो, 
विमोक्खापि च अट्ठिमे।
छळभिञ्ञा सच्छिकता, 
कतं बुद्धस्स सासनं”॥


"चार प्रतिसंभिदाओं, आठ-विमोक्षों तथा छः अभिज्ञाओं का साक्षात्कार कर लिया, मैंने बुद्ध-शासन को (पूरा) किया है।"

इत्थं सुदं आयस्मा बोधिउपट्ठाको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति।

इस प्रकार आयुष्मान बोधिउपट्ठाक स्थविर ने इन गाथाओं को कहा।

🌸 थेरापदान १८६, खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक

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07 Feb, 04:50


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🌺एकदीपियत्थेरअपदान🌺

“पदुमुत्तरस्स मुनिनो, 
सळले बोधिमुत्तमे।
पसन्नचित्तो सुमनो, 
एकदीपं अदासहं॥

"(भगवान) पदुमुत्तर मुनि के उत्तम सळल के बोधि(-वृक्ष) पर मैंने प्रसन्न-चित्त, आनन्दित होकर एक द्वीप (का दान) दिया।

“भवे निब्बत्तमानम्हि, 
निब्बत्ते पुञ्ञसञ्चये।
दुग्गतिं नाभिजानामि, 
दीपदानस्सिदं फलं॥


"भव में उत्पन्न होता हुआ, (मैं) पुण्य के सञ्चय के साथ पैदा हुआ, मैं अपनी दुर्गति नहीं जानता हूँ, यह दीप दान का फल है।

“सोळसे कप्पसहस्से, 
इतो ते चतुरो जना।
चन्दाभा नाम नामेन, 
चक्कवत्ती महब्बला॥


"यहाँ से सोलह हज़ारवें कल्प में चन्दाभ नाम के चार लोग महाबलवान चक्रवर्ती राजा थे।

“पटिसम्भिदा चतस्सो, 
विमोक्खापि च अट्ठिमे।
छळभिञ्ञा सच्छिकता, 
कतं बुद्धस्स सासनं”॥


"चार प्रतिसंभिदाओं, आठ-विमोक्षों तथा छः अभिज्ञाओं का साक्षात्कार कर लिया, मैंने बुद्ध-शासन को (पूरा) किया है।"

इत्थं सुदं आयस्मा एकदीपियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति।

इस प्रकार आयुष्मान एकदीपिय स्थविर ने इन गाथाओं को कहा।

🌸 थेरापदान १७७, खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

06 Feb, 04:36


“पसन्नचित्तो सुमनो, 
वन्दित्वा बोधिमुत्तमं।
कप्पानं सतसहस्सं, 
दुग्गतिं नुपपज्जहं॥


"प्रसन्न-चित्त, आनन्दित होकर उत्तम बोधि(-वृक्ष) की पूजा करके मैं शत-सहस्र (एक लाख) कल्पों में दुर्गति में उत्पन्न नहीं हुआ।

“पन्नरससहस्सम्हि, 
कप्पानं अट्ठ आसु ते।
सिलुच्चयसनामा च, 
राजानो चक्कवत्तिनो॥


"(यहाँ से) पंद्रह हज़ारवें कल्प में सिलुच्चय नाम के आठ चक्रवर्ती राजा थे।

“पटिसम्भिदा चतस्सो, 
विमोक्खापि च अट्ठिमे।
छळभिञ्ञा सच्छिकता, 
कतं बुद्धस्स सासनं”॥


"चार प्रतिसंभिदाओं, आठ-विमोक्षों तथा छः अभिज्ञाओं का साक्षात्कार कर लिया, मैंने बुद्ध-शासन को (पूरा) किया है।"

इत्थं सुदं आयस्मा सीहासनदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति।

इस प्रकार आयुष्मान सीहासनदायक स्थविर ने इन गाथाओं को कहा।

🌸 थेरापदान १७५, खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

06 Feb, 04:36


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🌺सीहासनदायकत्थेरअपदान🌺

“निब्बुते लोकनाथम्हि, 
पदुमुत्तरनायके।
पसन्नचित्तो सुमनो, 
सीहासनमदासहं॥


"लोक-नाथ (भगवान) पदुमुत्तर नायक के निर्वृत्त (परिनिर्वाण को प्राप्त) हो जाने पर, मैंने प्रसन्न-चित्त, आनन्दित होकर (बोधि वृक्ष की पूजा करते हुए) सिंहासन (का दान) दिया।

“बहूहि गन्धमालेहि, 
दिट्ठधम्मसुखावहे।
तत्थ पूजञ्च कत्वान, 
निब्बायति बहुज्जनो॥

"दृष्ट धर्म (इसी जन्म में) सुख को लाते हुए बहुत गन्ध-मालाओं के साथ वहाँ पूजा करके (मैंने) बहुत लोगों को चैन दिलाया।

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05 Feb, 04:35


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🌺तम्बपुप्फियत्थेरअपदान🌺

“परकम्मायने युत्तो, 
अपराधं अकासहं।
वनन्तं अभिधाविस्सं, 
भयवेरसमप्पितो॥


"(पहले) मैंने दूसरों के काम में लगा हुआ होकर अपराध किया, मुझे जंगल में निकाल दिया गया था, मैं बहुत डर गया था।

“पुप्फितं पादपं दिस्वा, 
पिण्डिबन्धं सुनिम्मितं।
तम्बपुप्फं गहेत्वान, 
बोधियं ओकिरिं अहं॥


"मैंने पुष्पित वृक्ष को देखकर, छोटे, सुनिर्मित (अच्छी तरह से बनाये गए) ताम्र-पुष्पों के गुच्छे को लेकर बोधि के ऊपर फैला दिया।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

05 Feb, 04:35


“सम्मज्जित्वान तं बोधिं, 
पाटलिं पादपुत्तमं।
पल्लङ्कं आभुजित्वान, 
बोधिमूले उपाविसिं॥


"उस पाटलि के उत्तम बोधि-वृक्ष के पास सफाई करके, पालथी लगाकर, मैं बोधि(-वृक्ष) की जड़ों के पास रहा।

“गतमग्गं गवेसन्ता, 
आगच्छुं मम सन्तिकं।
ते च दिस्वानहं तत्थ, 
आवज्जिं बोधिमुत्तमं॥


"मेरे द्वारा चले हुए रास्ते को खोजते हुए वे मेरे पास आये, उन्हें वहाँ देखकर मैंने उत्तम बोधि के बारे में विचार किया।

“वन्दित्वान अहं बोधिं, 
विप्पसन्नेन चेतसा।
अनेकताले पपतिं, 
गिरिदुग्गे भयानके॥

"बहुत प्रसन्न चित्त से बोधि की वंदना करके मैंने भयानक, पहुंचने में कठिन पर्वत में अनेक ताल (के वृक्षों) को प्राप्त किया।

“एकनवुतितो कप्पे, 
यं पुप्फमभिरोपयिं।
दुग्गतिं नाभिजानामि, 
बोधिपूजायिदं फलं॥

"इक्यानवे (91) कल्प पहले जब से मैंने जिस पुष्प को दिया, मैं अपनी दुर्गति नहीं जानता हूँ, यह बोधि-पूजा का फल है।

“इतो च ततिये कप्पे, 
राजा सुसञ्ञतो अहं।
सत्तरतनसम्पन्नो, 
चक्कवत्ती महब्बलो॥


"यहाँ से तीसरे कल्प में मैं सात रत्नों से सम्पन्न सुसञ्ञत नाम का महाबलवान चक्रवर्ती राजा था।

“पटिसम्भिदा चतस्सो, 
विमोक्खापि च अट्ठिमे।
छळभिञ्ञा सच्छिकता, 
कतं बुद्धस्स सासनं”॥


"चार प्रतिसंभिदाओं, आठ-विमोक्षों तथा छः अभिज्ञाओं का साक्षात्कार कर लिया, मैंने बुद्ध-शासन को (पूरा) किया है।"

इत्थं सुदं आयस्मा तम्बपुप्फियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति।

इस प्रकार आयुष्मान तम्बपुप्फिय स्थविर ने इन गाथाओं को कहा।

🌸 थेरापदान १५२, खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

03 Feb, 04:34


🌺समण सुत्त🌺 #anguttaranikaya

“‘समणो’ति , भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। ‘ब्राह्मणो’ति, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। ‘वेदगू’ति, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। ‘भिसक्को’ति, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। ‘निम्मलो’ति, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। ‘विमलो’ति, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। ‘ञाणी’ति, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स। ‘विमुत्तो’ति, भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा”ति।

"भिक्षुओं, 'श्रमण' - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है। भिक्षुओं, 'ब्राह्मण' - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है। भिक्षुओं, 'वेदगू' (उच्चतम ज्ञान-प्राप्त) - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है। भिक्षुओं, 'चिकित्सक' - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है। भिक्षुओं, 'निर्मल' - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है। भिक्षुओं, 'विमल' (स्वच्छ) - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है। भिक्षुओं, 'ज्ञानी' - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है। भिक्षुओं, 'विमुक्त' - यह तथागत अर्हत सम्यक-सम्बुद्ध का नाम है।

“यं समणेन पत्तब्बं, 
ब्राह्मणेन वुसीमता।
यं वेदगुना पत्तब्बं, 
भिसक्केन अनुत्तरं॥


"जो (ब्रह्मचर्य) वास पूरा किये हुए ब्राह्मण द्वारा, श्रमण द्वारा प्राप्त करने योग्य है, जो सर्वोत्तम चिकित्सक द्वारा, वेदगू (उच्चतम ज्ञान-प्राप्त) द्वारा प्राप्त करने योग्य है,

“यं निम्मलेन पत्तब्बं, 
विमलेन सुचीमता।
यं ञाणिना च पत्तब्बं, 
विमुत्तेन अनुत्तरं॥


"जो विमल (स्वच्छ), पवित्र द्वारा, निर्मल द्वारा प्राप्त करने योग्य है, और जो सर्वोत्तम विमुक्त द्वारा, ज्ञानी द्वारा प्राप्त करने योग्य है,

“सोहं विजितसङ्गामो, 
मुत्तो मोचेमि बन्धना।
नागोम्हि परमदन्तो,
असेखो परिनिब्बुतो”ति॥


"मैं युद्ध में विजयी हूँ, (स्वयं) मुक्त होकर (लोगों) को बन्धन से मुक्त करता हूँ, मैं नाग हूँ, परम-दान्त हूँ, अशैक्ष्य हूँ, (क्लेशों के परिनिर्वाण से) परिनिर्वृत्त हूँ।"

🌸 अंगुत्तरनिकाय ८.९.५, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

02 Feb, 04:36


“‘इमिना सुधकम्मेन, 
चेतनापणिधीहि च।
सम्पत्तिं अनुभोत्वान, 
दुक्खस्सन्तं करिस्सति’॥


" 'इस चूने (के दान के) कर्म से और इसकी चेतना (इरादे) तथा प्रणिधि (प्रार्थना) के कारण, यह (व्यक्ति) सम्पत्ति का अनुभव करके, दुःख का अंत करेगा'।

“पसन्नमुखवण्णोम्हि, 
एकग्गो सुसमाहितो।
धारेमि अन्तिमं देहं, 
सम्मासम्बुद्धसासने॥


"मेरा मुख-वर्ण (रंग-रूप) प्रसन्न है, मैं एकाग्र हूँ, अच्छी तरह से समाहित हूँ, सम्यक-सम्बुद्ध के शासन में मैं अंतिम देह (शरीर) धारण करता हूँ।

“इतो कप्पसते आसिं, 
परिपुण्णे अनूनके।
राजा सब्बघनो नाम, 
चक्कवत्ती महब्बलो॥


"यहाँ से परिपूर्ण, अन्यून (सम्पूर्ण) सौ कल्प पहले मैं सब्बघन नाम का महा-बलवान चक्रवर्ती राजा था।

“पटिसम्भिदा चतस्सो, 
विमोक्खापि च अट्ठिमे।
छळभिञ्ञा सच्छिकता, 
कतं बुद्धस्स सासनं”॥


"चार प्रतिसंभिदाओं, आठ-विमोक्षों तथा छः अभिज्ञाओं का साक्षात्कार कर लिया, मैंने बुद्ध-शासन को (पूरा) किया है।"

इत्थं सुदं आयस्मा अनुलेपदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति।

इस प्रकार आयुष्मान अनुलेपदायक स्थविर ने इन गाथाओं को कहा।

🌸 थेरापदान १४६, खुद्दक निकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

02 Feb, 04:36


☸️🌳🙏 बोधि वृक्ष की वन्दना का अद्भुत पुण्य विपाक 🙏🌳☸️ #bodhiapadana #therapadana

🌺अनुलेपदायकत्थेरअपदान🌺

“अनोमदस्सीमुनिनो, 
बोधिवेदिमकासहं।
सुधाय पिण्डं दत्वान, 
पाणिकम्मं अकासहं॥


"मैंने (भगवान) अनोमदस्सी मुनि की बोधि(-घर) के चबूतरे (बोधि वेदी) का काम किया, चूने के पिण्ड को देकर, मैंने अपने हाथों से काम किया।

“दिस्वा तं सुकतं कम्मं, 
अनोमदस्सी नरुत्तमो।
भिक्खुसङ्घे ठितो सत्था, 
इमं गाथं अभासथ॥


"उस सुकृत (भले) कर्म को देखकर भिक्षु-संघ में स्थित उत्तम-नर अनोमदस्सी (बुद्ध जी) ने इस गाथा को कहा-

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

01 Feb, 04:35


🌺दुतियसम्मत्तनियाम सुत्त🌺 #anguttaranikaya

“पञ्चहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो सुणन्तोपि सद्धम्मं अभब्बो नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्तं। कतमेहि पञ्चहि? कथं परिभोति, कथिकं परिभोति, अत्तानं परिभोति, दुप्पञ्ञो होति जळो एळमूगो, अनञ्ञाते अञ्ञातमानी होति। इमेहि खो , भिक्खवे, पञ्चहि धम्मेहि समन्नागतो सुणन्तोपि सद्धम्मं अभब्बो नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्तं।

"भिक्षुओं, जिस व्यक्ति में यह पाँच बातें होती हैं वह सद्धर्म सुनता हुआ भी कुशल-धर्मों में सही तरह से स्थायी रूप से प्रवेश करने के अयोग्य होता है। कौन-सी पाँच बातें ? (धर्म-)कथा की उपेक्षा (अवहेलना) करता है, (धर्म-)कथिक की उपेक्षा करता है, अपनी उपेक्षा करता है, दुष्प्रज्ञ, मंदबुद्धि, मूर्ख होता है, न जानते हुए समझता है कि मैं जानता हूँ। भिक्षुओं, जिस व्यक्ति में ये पाँच बातें होती हैं वह धर्म सुनता हुआ भी कुशल-धर्मों में सही तरह से स्थायी रूप से प्रवेश करने के अयोग्य होता है।

“पञ्चहि , भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो सुणन्तो सद्धम्मं भब्बो नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्तं। कतमेहि पञ्चहि? न कथं परिभोति, न कथिकं परिभोति, न अत्तानं परिभोति, पञ्ञवा होति अजळो अनेळमूगो, न अनञ्ञाते अञ्ञातमानी होति। इमेहि खो, भिक्खवे, पञ्चहि धम्मेहि समन्नागतो सुणन्तो सद्धम्मं भब्बो नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्त”न्ति।

"भिक्षुओं, जिस व्यक्ति में यह पाँच बातें होती हैं वह सद्धर्म सुनता हुआ भी कुशल-धर्मों में सही तरह से स्थायी रूप से प्रवेश करने के योग्य होता है। कौन-सी पाँच बातें ? (धर्म-)कथा की उपेक्षा नहीं करता है, (धर्म-)कथिक की उपेक्षा नहीं करता है, अपनी उपेक्षा नहीं करता है, प्रज्ञावान, बुद्धिमान, ज्ञानी होता है, न जानते हुए ऐसा नहीं समझता है कि मैं जानता हूँ। भिक्षुओं, जिस व्यक्ति में ये पाँच बातें होती हैं वह धर्म सुनता हुआ कुशल-धर्मों में सही तरह से स्थायी रूप से प्रवेश करने के योग्य होता है।

🌸 अंगुत्तरनिकाय ५.१६.२, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

31 Jan, 04:40


🌺सिवथिक सुत्त🌺 #anguttaranikaya

"भिक्षुओं, श्मशान के पाँच दुष्परिणाम हैं। कौनसे पाँच ? अशुचिपूर्ण (होता है), दुर्गन्ध (वाला होता है), भय-सहित (होता है), दुष्ट अमनुष्यों का निवास-स्थान (होता है), बहुत से लोगों के रोने-पीटने (की जगह होती है)। भिक्षुओं, श्मशान के यह पाँच दुष्परिणाम हैं।

"इसी प्रकार भिक्षुओं, श्मशान के समान व्यक्ति के भी पाँच दुष्परिणाम हैं। कौनसे पाँच ? भिक्षुओं, यहाँ एक व्यक्ति का अशुचिपूर्ण शारीरिक-कर्मों से युक्त होता है, अशुचिपूर्ण वाचिक-कर्मों से युक्त होता है, अशुचिपूर्ण मानसिक-कर्मों से युक्त होता है। यह मैं उसकी अशुचिता कहता हूँ। भिक्षुओं, जैसे वह श्मशान अशुचिपूर्ण होता है, वैसा ही मैं इस व्यक्ति को कहता हूँ।

"उसके अशुचिपूर्ण शारीरिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण वाचिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण मानसिक-कर्मों से युक्त होने के कारण पापी कीर्ति-शब्द (अपयश) फैल जाता है। यह मैं उसका दुर्गन्ध-पूर्ण होना कहता हूँ। भिक्षुओं, जैसे वह श्मशान दुर्गन्ध-पूर्ण होता है, वैसा ही मैं इस व्यक्ति को कहता हूँ।

"उसके अशुचिपूर्ण शारीरिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण वाचिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण मानसिक-कर्मों से युक्त होने के कारण जो प्रिय-शील सब्रह्मचारी होते हैं वे (उससे) दूर ही दूर रहते हैं। यह मैं उसका भय-सहित होना कहता हूँ। भिक्षुओं, जैसे वह श्मशान भय-सहित होता है, वैसा ही मैं इस व्यक्ति को कहता हूँ।

"उसके अशुचिपूर्ण शारीरिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण वाचिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण मानसिक-कर्मों से युक्त होने के कारण वह अपने ही जैसे लोगों की संगति करता है। यह मैं उसका दुष्टों का निवास कहता हूँ। भिक्षुओं, जैसे श्मशान दुष्ट अमनुष्यों का निवास-स्थान होता है वैसा ही मैं इस व्यक्ति को कहता हूँ।

"उसके अशुचिपूर्ण शारीरिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण वाचिक-कर्मों से युक्त होने के कारण, अशुचिपूर्ण मानसिक-कर्मों से युक्त होने के कारण प्रिय-शील सब्रह्मचारी उसे देखकर शिकायत करते हैं – 'अहो! सच में यह हमारे लिये कितने बड़े दुःख की बात है कि हम ऐसे व्यक्ति के साथ रहते हैं!' यह मैं उसका रोना-पीटना कहता हूँ। भिक्षुओं, जैसे श्मशान बहुत से लोगों के रोने-पीटने की जगह है, वैसा ही मैं इस व्यक्ति को कहता हूँ। भिक्षुओं, श्मशान के समान व्यक्ति के यह पाँच दुर्गुण होते हैं।"

🌸 अंगुत्तरनिकाय ५.२५.९, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

30 Jan, 04:37


🌺इण सुत्त🌺 #anguttaranikaya

"भिक्षुओं, लोक (दुनिया) में काम भोगी (लोगों) के लिये दरिद्रता (गरीबी) बड़ी दुखद होती है न?"

"भन्ते, ऐसा ही है।"

"भिक्षुओं, जो दरिद्र (गरीब) होता है, खुद की सम्पत्ति रहित होता है, निर्धन होता है, वह ऋण (loan) लेता है। भिक्षुओं, लोक में काम भोगी लोगों के लिये ऋण लेना भी दुःखद होता है न ?"

"भन्ते, ऐसा ही है।"

"भिक्षुओं, जो दरिद्र होता है, खुद की सम्पत्ति रहित होता है, निर्धन होता है, वह ऋण लेकर सूद (ब्याज) देने के लिये वचन-बद्ध होता है। भिक्षुओं, लोक में काम भोगी लोगों के लिए सूद देना भी दुःखद होता है न ?"

"भन्ते, ऐसा ही है।"

"भिक्षुओं, जो दरिद्र होता है, खुद की सम्पत्ति रहित होता है, निर्धन होता है, वह सूद देना स्वीकार कर समय पर सूद नहीं देता है, उस पर दोषारोपण होता है, भिक्षुओं, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये दोषारोपण भी दुःखद होता है न ?"

"भन्ते, ऐसा ही है।"

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

30 Jan, 04:37


“सो संसप्पति कायेन, 
वाचाय उद चेतसा।
पापकम्मं पवड्ढेन्तो, 
तत्थ तत्थ पुनप्पुनं॥


"उसका आचरण शरीर, वाणी तथा मन से स्पंदन करता है, उन उन जन्मों में बार बार पाप कर्म को बढ़ाता हुआ।

“सो पापकम्मो दुम्मेधो, 
जानं दुक्कटमत्तनो।
दलिद्दो इणमादाय, 
भुञ्जमानो विहञ्ञति॥


"वह दुष्प्रज्ञ पाप-कर्मी अपना अकुशल कर्म जानता हुआ गरीब व्यक्ति है जो ऋण लेकर उसका भोग करने पर दुःखी होता है।

“ततो अनुचरन्ति नं, 
सङ्कप्पा मानसा दुखा।
गामे वा यदि वारञ्ञे, 
यस्स विप्पटिसारजा॥


"फिर ग्राम में या अरण्य में, पश्चाताप से उत्पन्न मानसिक दुःखदायी संकल्प उसका पीछा करते हैं।

“सो पापकम्मो दुम्मेधो, 
जानं दुक्कटमत्तनो।
योनिमञ्ञतरं गन्त्वा, 
निरये वापि बज्झति॥


"वह दुष्प्रज्ञ पाप-कर्मी अपना अकुशल कर्म जानता हुआ, किसी (तिरच्छान) योनि में जाकर या फिर नरक (के बंधन में) बन्धता है।

“एतञ्हि बन्धनं दुक्खं, 
यम्हा धीरो पमुच्चति।
धम्मलद्धेहि भोगेहि, 
ददं चित्तं पसादयं॥


"यह बन्धन दुःख है, जिससे धीर व्यक्ति पूरी तरह से मुक्त होता है। वह धर्मपूर्वक प्राप्त भोगों को दान देकर चित्त को प्रसन्न करता है।

“उभयत्थ कटग्गाहो, 
सद्धस्स घरमेसिनो।
दिट्ठधम्महितत्थाय, 
सम्परायसुखाय च।
एवमेतं गहट्ठानं, 
चागो पुञ्ञं पवड्ढति॥


"वह श्रद्धावान गृहस्थ व्यक्ति दोनों (लोकों) में विजयी होता है – दृष्ट-धर्म (इस जीवन) के हित को प्राप्त करता है और सम्पराय (अगले जन्मों) के सुख को प्राप्त करता है। इसी प्रकार त्याग से गृहस्थों की पुण्य में वृद्धि होती है।

“तथेव अरियविनये, 
सद्धा यस्स पतिट्ठिता।
हिरीमनो च ओत्तप्पी, 
पञ्ञवा सीलसंवुतो॥


"उसी प्रकार आर्य-विनय में जिसकी श्रद्धा प्रतिष्ठित है, जो लज्जा-युक्त है, भय-युक्त है, प्रज्ञावान है, शील में संयमित है।

“एसो खो अरियविनये,
‘सुखजीवी’ति वुच्चति।
निरामिसं सुखं लद्धा, 
उपेक्खं अधितिट्ठति॥

"वही आर्य-विनय में 'सुखजीवी' (सुखपूर्वक जीने वाला) कहा जाता है। (तीन ध्यानों के द्वारा) निरामिष सुख का लाभ करके वह (चतुर्थ ध्यान की) उपेक्षा को प्राप्त करता है।

“पञ्च नीवरणे हित्वा, 
निच्चं आरद्धवीरियो।
झानानि उपसम्पज्ज, 
एकोदि निपको सतो॥


"वह पाँच नीवरणों का त्याग करके, नित्य आरब्ध-वीर्य, एकाग्र-चित्त, बुद्धिमान, स्मृतिमान होकर वह ध्यानों को प्राप्त करता है।

“एवं ञत्वा यथाभूतं, 
सब्बसंयोजनक्खये।
सब्बसो अनुपादाय, 
सम्मा चित्तं विमुच्चति॥


"इस प्रकार सभी संयोजनों के क्षय (निर्वाण) को यथार्थ स्वभाव से जानकर, सब तरह से उपादान न करके, सम्यक (सही) प्रकार से चित्त विमुक्त हो जाता है।

“तस्स सम्मा विमुत्तस्स, 
ञाणं चे होति तादिनो।
‘अकुप्पा मे विमुत्ती’ति, 
भवसंयोजनक्खये॥


"उस स्थिर-चित्त वाले, सम्यक तरह से विमुक्त (क्षीणाश्रव) को भव संयोजनों के क्षय से ज्ञान होता है कि, 'मेरी विमुक्ति अचल है'।

“एतं खो परमं ञाणं, 
एतं सुखमनुत्तरं।
असोकं विरजं खेमं, 
एतं आनण्यमुत्तम”न्ति॥


"यही परम-ज्ञान है, यही सर्वोत्तम सुख है, शोक-रहित, रज-रहित, उपद्रव-रहित है, यही उत्तम ऋण-मुक्ति है।"

🌸 अंगुत्तरनिकाय ६.५.३, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

30 Jan, 04:37


"भिक्षुओं, जो दरिद्र होता है, खुद की सम्पत्ति रहित होता है, निर्धन होता है, जब वह दोषारोपण किया जाने पर नहीं देता, तो लोग उसका पीछा करते हैं, भिक्षुओं, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये पीछा किया जाना भी दुःखद होता है न ?"

"भन्ते, ऐसा ही है।"

"भिक्षुओं, जो दरिद्र होता है, खुद की सम्पत्ति रहित होता है, निर्धन होता है, जब वह पीछा किये जाने पर भी नहीं देता है, तो उसे बंधन में बाँधा जाता है, भिक्षुओं, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये बन्धन में बाँधा जाना भी दुःखद होता है न ?"

"भन्ते, ऐसा ही है।"

"इस प्रकार, भिक्षुओं, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये दरिद्रता (गरीबी) भी दुःखद होती है, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये ऋण लेना भी दुःखद होता है, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये सूद देना भी दुःखद होता है, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये दोषारोपण भी दुःखद होता है, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये पीछा किया जाना भी दुःखद होता है, लोक में काम-भोगी लोगों के लिये बन्धन में बाँधा जाना भी दुःखद होता है; इसी प्रकार, भिक्षुओं, जिस किसी को भी कुशल धर्मों के प्रति श्रद्धा नहीं है, कुशल धर्मों के प्रति लज्जा नहीं है, कुशल धर्मों के प्रति भय नहीं है, कुशल धर्मों के प्रति वीर्य नहीं है, कुशल धर्मों के प्रति प्रज्ञा नहीं है – भिक्षुओं, ऐसा (व्यक्ति) आर्य-विनय में दरिद्र, खुद की सम्पत्ति रहित, निर्धन कहा जाता है।

"भिक्षुओं, वह जो दरिद्र होता है, खुद की सम्पत्ति रहित होता है, निर्धन होता है, कुशल-धर्मों के प्रति श्रद्धा-रहित होने से, कुशल-धर्मों के प्रति लज्जा-रहित होने से, कुशल-धर्मों के प्रति भय-रहित होने से, कुशल-धर्मों के प्रति वीर्य-रहित होने से, कुशल-धर्मों के प्रति प्रज्ञा-रहित होने से शरीर से दुष्कर्म (दुश्चरित का आचरण) करता है, वाणी से दुष्कर्म करता है, मन से दुष्कर्म करता है। यह मैं उसका ऋण ग्रहण करना कहता हूँ।

"वह उस कायिक दुष्कर्म को ढका रखने (छिपाने) के लिये पापी इच्छा को मन में जगह देता है। (वह) '(कोई) मुझे न जानें' -  ऐसी इच्छा करता है, '(कोई) मुझे न जानें' - ऐसा संकल्प करता है, '(कोई) मुझे न जानें' - ऐसी वाणी बोलता है, '(कोई) मुझे न जानें' - ऐसी शरीर से कोशिश करता है। वह उस वाचिक दुष्कर्म को ढका रखने (छिपाने) के लिये... वह उस मानसिक दुष्कर्म को ढका रखने (छिपाने) के लिये... '(कोई) मुझे न जानें' - ऐसी शरीर से कोशिश करता है। यह मैं उसका सूद देना कहता हूँ।

"उसके प्रिय-शील (पेसल) सब्रह्मचारी ऐसा कहते हैं – 'यह आयुष्मान ऐसा (काम) करने वाला है, ऐसे स्वभाव वाला है।' यह मैं उस पर लगा हुआ दोषारोपण कहता हूँ।

"उस (व्यक्ति) के आरण्य में जाने पर या वृक्ष की छाया के नीचे जाने पर अथवा शून्यागार में जाने पर उसके मन में पश्चात्ताप-युक्त पापी अकुशल वितर्क पैदा होते हैं। यह मैं उसका पीछा किया जाना कहता हूँ।

"भिक्षुओं, वह दरिद्र, खुद की सम्पत्ति रहित, निर्धन (व्यक्ति) शरीर से दुष्कर्म करके, वाणी से दुष्कर्म करके, मन से दुष्कर्म करके शरीर छूटने पर मरने के बाद या तो नरक के बन्धन में बँधता है या पशु योनि के बन्धन में बँधता है। भिक्षुओं, मैं किसी दूसरे ऐसे एक भी बन्धन को नहीं देखता जो इतना कठोर हो, इतना दर्दनाक हो, अनुपम योग-क्षेम की प्राप्ति के लिए इतना बाधक हो जितना कि यह नरक का बन्धन या पशु-योनि का बन्धन है।"

“दालिद्दियं दुक्खं लोके, 
इणादानञ्च वुच्चति।
दलिद्दो इणमादाय, 
भुञ्जमानो विहञ्ञति॥


"लोक (दुनिया) में गरीबी और ऋण लेने को दुःख कहा जाता है। गरीब व्यक्ति ऋण लेकर उसका भोग करने पर दुःखी होता है।

“ततो अनुचरन्ति नं, 
बन्धनम्पि निगच्छति।
एतञ्हि बन्धनं दुक्खं, 
कामलाभाभिजप्पिनं॥


"फिर उसका पीछा किया जाता है, बन्धन में भी बांधा जाता है। काम भोगों को चाहने वाले लोगों के लिए यह बन्धन दुःख है।

“तथेव अरियविनये, 
सद्धा यस्स न विज्जति।
अहिरीको अनोत्तप्पी, 
पापकम्मविनिब्बयो॥

"उसी प्रकार आर्य-विनय में, जिसमें श्रद्धा नहीं है, जो लज्जा-रहित है, भय-रहित है, पाप कर्मों को बढ़ाने वाला है,

“कायदुच्चरितं कत्वा, 
वचीदुच्चरितानि च।
मनोदुच्चरितं कत्वा,
‘मा मं जञ्ञू’ति इच्छति॥


"वह शरीर से दुष्कर्म करके, वाणी से दुष्कर्म करके तथा मन से दुष्कर्म करके, '(कोई) मुझे न जाने' - ऐसी इच्छा करता है।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

29 Jan, 04:40


🌺माता पिता का प्रत्युपकार कैसे करें?🌺 #anguttaranikaya

“द्विन्नाहं, भिक्खवे, न सुप्पतिकारं वदामि। कतमेसं द्विन्नं? मातु च पितु च। एकेन, भिक्खवे, अंसेन मातरं परिहरेय्य , एकेन अंसेन पितरं परिहरेय्य वस्ससतायुको वस्ससतजीवी सो च नेसं उच्छादनपरिमद्दनन्हापनसम्बाहनेन। ते च तत्थेव मुत्तकरीसं चजेय्युं। न त्वेव, भिक्खवे, मातापितूनं कतं वा होति पटिकतं वा। इमिस्सा च, भिक्खवे, महापथविया पहूतरत्तरतनाय  मातापितरो इस्सराधिपच्चे रज्जे पतिट्ठापेय्य, न त्वेव, भिक्खवे, मातापितूनं कतं वा होति पटिकतं वा। तं किस्स हेतु? बहुकारा , भिक्खवे, मातापितरो पुत्तानं आपादका पोसका इमस्स लोकस्स दस्सेतारो। यो च खो, भिक्खवे, मातापितरो अस्सद्धे सद्धासम्पदाय समादपेति निवेसेति पतिट्ठापेति, दुस्सीले सीलसम्पदाय समादपेति निवेसेति पतिट्ठापेति, मच्छरी चागसम्पदाय समादपेति निवेसेति पतिट्ठापेति, दुप्पञ्ञे पञ्ञासम्पदाय समादपेति निवेसेति पतिट्ठापेति, एत्तावता खो, भिक्खवे, मातापितूनं कतञ्च होति पटिकतञ्चा”ति ।"

"भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि दो जनों का प्रत्युपकार आसान नहीं है। किन दो का ? माता का तथा पिता का। भिक्षुओं, सौ वर्ष की आयु वाला, सौ वर्ष तक जीने वाला (व्यक्ति यदि) एक कंधे पर माता को ढोये तथा एक कंधे पर पिता को ढोये, और वह उनका बदन मले, मर्दन करे, नहलाये तथा मालिश करे, और वे भी उस के कंधे पर ही मल-मूत्र कर दें, तो भी भिक्षुओं, यह माता-पिता के प्रति उपकार या प्रत्युपकार नहीं होता है।
और भिक्षुओं, यदि (कोई) इस सात रत्नों से भरी हुई महा-पृथ्वी के ऐश्वर्य-राज्य पर भी माता-पिता को प्रतिष्ठापित कर दे, तो भी भिक्षुओं, यह माता-पिता के प्रति उपकार या प्रत्युपकार नहीं होता है।  यह किस लिये ? भिक्षुओं, माता-पिता पुत्रों पर बहुत उपकार करने वाले होते हैं, वे उनका पालन करने वाले हैं, पोषण करने वाले हैं, वे उन्हें इस लोक को दिखाने वाले होते हैं।
भिक्षुओं, जो कोई अश्रद्धावान् माता-पिता को श्रद्धा-सम्पदा में लगाता है, स्थापित करता है, प्रतिष्ठित करता है, दुःशील माता-पिता को शील-सम्पदा में लगाता है, स्थापित करता है, प्रतिष्ठित करता है, कंजूस माता-पिता को त्याग-सम्पदा में लगाता है, स्थापित करता है, प्रतिष्ठित करता है, दुष्प्रज्ञ माता-पिता को प्रज्ञा-सम्पदा में लगाता है, स्थापित करता है, प्रतिष्ठित करता है, तो इतने से, भिक्षुओं, माता-पिता के प्रति उपकार होता है, प्रत्युपकार होता है।"

🌸 अंगुत्तरनिकाय २.४.३४, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

26 Jan, 04:35


🌺दुतियपीठविमानवत्थु🌺 #vimanavatthu

यह विमानवत्थु कथा पहली कथा के समान ही है, लेकिन इसमें यह बात विशेष है–

श्रावस्ती में रहने वाली एक स्त्री ने अपने घर में पिण्ड के लिए प्रविष्ट एक स्थविर को देखकर प्रसन्न-चित्त से उन्हें आसन देते हुए अपनी चौकी के ऊपर नीला वस्त्र फैलाकर दे दिया। इसी कारण से देवलोक में उसके लिए वेळुरिय से बना हुआ पल्लङ्क-विमान (पलंग वाला विमान) उत्पन्न हुआ। इसलिए कहा गया–

“पीठं ते वेळुरियमयं उळारं, 
मनोजवं गच्छति येनकामं।
अलङ्कते मल्यधरे सुवत्थे, 
ओभाससि विज्जुरिवब्भ कूटं॥


"तुम्हारा यह पीठ (का विमान) वेळुरिय (beryl) मणियों के साथ बना हुआ है, विशाल है, अत्यंत शीघ्रगामी है, तुम्हारी इच्छा के अनुसार जाता है, अलंकृत, माला धारण की हुई, सुंदर तरीके से (दिव्य) वस्त्र पहनी हुई तुम गर्जनकारी मेघ (thunder cloud) के शिखर पर (चमकने वाली) बिजली की तरह चमकती हो।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

26 Jan, 04:35


“केन तेतादिसो वण्णो, 
केन ते इध मिज्झति।
उप्पज्जन्ति च ते भोगा, 
ये केचि मनसो पिया॥


"किस (पुण्य कर्म के) कारण से तुम्हारा यह वर्ण (रंग रूप) है? किस (पुण्य कर्म के) कारण से जो भोग तुम्हें प्रिय लगते हैं वे यहाँ, वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं?

“पुच्छामि तं देवि महानुभावे,
मनुस्सभूता किमकासि पुञ्ञं।
केनासि एवं जलितानुभावा,
वण्णो च ते सब्बदिसा पभासती”ति॥


"महानुभाव देवी, मैं तुमसे पूछता हूँ, तुमने मनुष्य रहते समय कौनसा पुण्य किया था कि ऐसा जलितानुभाव (चमकने वाला प्रताप) प्राप्त कर लिया और तुम्हारा वर्ण सभी दिशाओं में चमकता है?"

(यह गाथा धर्म का संगायन करने वाले महास्थविरों द्वारा डाली गई है:)

“सा देवता अत्तमना, 
मोग्गल्लानेन पुच्छिता।
पञ्हं पुट्ठा वियाकासि, 
यस्स कम्मस्सिदं फलं”॥


"उस देवता ने प्रसन्न मन से, (अरहन्त) महामोग्गल्लान (स्थविर) द्वारा पूछने पर, प्रश्न पूछे जाने के अनुसार बताया, जिस (पुण्य) कर्म का यह फल था:

“अहं मनुस्सेसु मनुस्सभूता, 
अब्भागतानासनकं अदासिं।
अभिवादयिं अञ्जलिकं अकासिं, 
यथानुभावञ्च अदासि दानं॥


"जब मैं मनुष्यों के बीच मनुष्य थी, तब मैंने आये हुए (स्थविर) को आसनक (पीठ) प्रदान किया, (पंच-प्रतिष्ठित से) उनका अभिवादन किया, अञ्जलि (दस नखों के मेल से देदीप्यमान सिर पर हाथ जोड़कर आदर) किया और यथाशक्ति (अपने विद्यमान धन के अनुरूप) दान दिया।

“तेन मेतादिसो वण्णो, 
तेन मे इध मिज्झति।
उप्पज्जन्ति च मे भोगा, 
ये केचि मनसो पिया॥


"उस (पुण्य कर्म के) कारण से मेरा यह वर्ण है। उस कारण से जो भोग मुझे प्रिय लगते हैं वे यहाँ वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं।

“अक्खामि ते भिक्खु महानुभाव, 
मनुस्सभूता यमकासि पुञ्ञं।
तेनम्हि एवं जलितानुभावा, 
वण्णो च मे सब्बदिसा पभासती”ति॥


"महानुभाव भिक्षु, मैं आपसे कहती हूँ, मैंने मनुष्य रहते समय जो पुण्य किया था, जिसके कारण मेरा ऐसा जलितानुभाव (चमकने वाला प्रताप) है और मेरा वर्ण सभी दिशाओं में चमकता है।"

जब देवता ने इस प्रकार प्रश्न का उत्तर दे दिया, तो अरहन्त महामोग्गल्लान स्थविर ने धर्म-देशना की। वह देशना उस देवता के अनुचर वर्ग सहित उनके लिए सार्थक हुई। स्थविर ने वहाँ से मनुष्य-लोक आकर उस सारी बात के बारे में भगवान को बताया। भगवान ने उस बात को बात (स्थिति) की उत्पत्ति (अट्ठुप्पत्ति) करके वहाँ इकट्ठी हुई परिषद (लोगों के समूह) को धर्म-देशना की।

🌸 विमानवत्थु १.२, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

25 Jan, 04:35


(देवता शब्द देवपुत्र तथा देवधीतु दोनों के लिए प्रयोग किया जाता है, स्त्री विमान में देवता का मतलब देवधीतु है, पुरुष विमान में देवपुत्र है।)

🌺पठमपीठविमानवत्थु🌺 #vimanavatthu

जब भगवान (बुद्ध जी) श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन-आराम में विहार कर रहे थे, तब राजा पसेनदि कोसल ने बुद्ध जी के नेतृत्व वाले भिक्षु संघ को एक सप्ताह असदिस (असदृश) दान का आयोजन किया, उसके अनुरूप अनाथपिण्डिक ने तीन दिनों का दान दिया, उसी प्रकार जब विसाखा (विशाखा) महा-उपासिका ने महादान दिया, तो (उस) असदिस (असदृश) दान की खबर पूरे जम्बुदीप में फैल गई। उस समय लोग इसके बारे में बात करने लगे कि, "क्या इतने बड़े पैमाने पर धन के त्याग से ही दान महाफलदायी होगा या फिर अपने धन के अनुरूप दान करना अधिक फलदायी होगा।" तब भिक्षुओं ने उस बात को सुनकर भगवान को बताया। भगवान ने कहा–

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

25 Jan, 04:35


"भिक्षुओं, दान केवल दी गई वस्तुओं की सिद्धि से ही अधिक फलदायी नहीं होता, लेकिन मन की श्रद्धा की सिद्धि तथा (दान देने के) क्षेत्र की सिद्धि से होता है, इसलिए मुट्ठी-भर चावल के भूसे (rice bran) मात्र को, सड़े हुए कपड़े के एक टुकड़े मात्र को, घास या पत्तियों के एक बिछावन मात्र को, मात्र एक पुराने हरड़ को गाय के मूत्र में डुबाकर यदि अत्यंत प्रसन्न मन से दक्षिणा के योग्य व्यक्ति को दिया जाए, तो वह (दान) भी महान फल, महान प्रकाश और महान प्रसार वाला होगा।"

वैसे ही शक्र देवेन्द्र द्वारा कहा गया है–

“नत्थि चित्ते पसन्नम्हि, 
अप्पिका नाम दक्खिणा।
तथागते वा सम्बुद्धे, 
अथ वा तस्स सावके”ति॥ (वि॰ व॰ ८०४)


"जब चित्त प्रसन्न होता है तो तथागत सम्यक-सम्बुद्ध या उनके श्रावक के प्रति कोई भी दक्षिणा अल्प (कम) नहीं कही जा सकती।"

इसके अतिरिक्त, यह बात इस पूरे जम्बुद्वीप में फैल गई। मनुष्य श्रमणों, ब्राह्मणों, दरिद्रों, पथिकों, भिखारियों, माँगने वालों को यथाशक्ति दान देते थे, घर के आंगन में पानी उपस्थित करते थे, द्वार पर आसन रखते थे। उस समय एक निश्चित पिण्डपात-चारिक स्थविर, जिनका आगे बढ़ना और लौटना, आगे देखना और एक ओर देखना, सिकोड़ना और फैलाना सुंदर तरीके का था, झुकी नज़रों (ओक्खित्त चक्खु) के साथ, इरियापथ (चाल ढाल) से सम्पन्न, पिण्ड के लिए घूमते हुए समय समीप होने पर एक घर पर पहुँचे। वहाँ एक परिवार की श्रद्धावान, प्रसन्न बेटी ने स्थविर को देखकर बहुत गौरव और सम्मान से भरकर, बहुत प्रीति सौमनस्य उत्पन्न करके उन्हें घर में प्रवेश करवाकर पंच-प्रतिष्ठित तरीके से वन्दना करके अपनी चौकी (पीठ) को प्रदान करके उसके ऊपर चिकना किया गया पीला वस्त्र फैलाकर उन्हें दे दिया। फिर उसने स्थविर के वहाँ बैठने पर यह सोचकर कि, "यह उत्तम पुण्य-क्षेत्र मेरे पास आये हैं", प्रसन्न-चित्त से अपनी सुविधा के अनुसार भोजन से उनकी सेवा की और फिर पंखा लेकर उन्हें पंखा झला। वह स्थविर भोजन करने के बाद आसन दान, भोजन दान आदि से सम्बंधित धर्म-कथा कहकर चले गए। उस स्त्री ने अपने दान और उस धर्म-कथा के ऊपर चिंतन करते हुए शरीर में निरंतर प्रीति से स्पर्श होकर वह चौकी (पीठ) भी स्थविर को दे दी।

फिर कोई रोग होने के कारण वह मृत्यु होने के बाद तावतिंस भवन में बारह योजन के सोने के विमान में उत्पन्न हुई। उसका हज़ार (सहस्र) अप्सराओं का अनुचर-वर्ग था, और चौकी (पीठ) के दान के प्रताप से उसके लिए आकाश में चलने वाला, तेज़ गति वाला, ऊपर कूटागार के आकार-प्रकार वाला योजन भर का सोने का पलंग उत्पन्न हुआ, उसी (कारण) से यह "पीठ विमान" कहा जाता है। यह सोने के रंग के (स्वर्ण-वर्ण) वस्त्र को फैलाकर देने के कारण कर्म की अनुरूपता को दर्शाते हुए स्वर्ण-मय (सोने का बना हुआ) था, प्रीति के आवेग के बल के कारण तेज़ गति वाला था, दक्षिणेय (दक्षिणा के योग्य व्यक्ति) के प्रति चित्त की इच्छा के अनुसार देने के कारण इच्छा के अनुसार चलने वाला था, श्रद्धा की सिद्धि की विशालता के कारण सब ओर से अच्छा लगने वाला तथा अत्यंत शोभा से युक्त था।

फिर एक उत्सव के दिन जब देवता अपने दिव्य-प्रताप के साथ उद्यान में खेलने के लिए नन्दन वन में जा रहे थे, वह देवता दिव्य-वस्त्र पहनकर, दिव्य आभूषणों से विभूषित होकर, हज़ार अप्सराओं के अनुचर-वर्ग से घिरकर अपने भवन से बाहर निकलकर उस पीठ विमान पर सवार होकर बड़ी देव-ऋद्धि के साथ, बड़े श्री-सौभाग्य के साथ सब ओर से चाँद की तरह और सूर्य की तरह प्रकाशित होती हुई उद्यान की ओर जा रही थी। और उस समय अरहन्त महामोग्गल्लान स्थविर ऊपर बताए गए तरीके के अनुसार ही (लोक के हित के लिए) देवलोक की चारिका (भ्रमण) करते हुए तावतिंस भवन में गए और उस देवता के समीप अपने आप को दिखाया। वह देवता उन्हें देखकर बहुत श्रद्धा और गौरव उत्पन्न होने के कारण तुरंत पलंग से उतरकर स्थविर के पास जाकर पंच-प्रतिष्ठित तरीके से वन्दना करके, दस नखों के मेल से देदीप्यमान हाथ जोड़कर नमस्कार करती हुई खड़ी हो गई।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

25 Jan, 04:35


स्थविर भले ही उसके और अन्य सत्वों द्वारा संचित कुशल तथा अकुशल कर्मों को अपने यथाकम्मूपगञाण (कर्मों के अनुसार प्राणियों की उत्पत्ति के ज्ञान) द्वारा हथेली पर रखे हुए आंवले की तरह प्रज्ञा-बल के भेद से प्रत्यक्ष देख सकते थे, फिर भी क्योंकि वे तुरंत उत्पन्न होते हैं, देवताओं के मन में होता है कि, "मैं कहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ? किस कुशल-कर्म को करके मैंने इस सम्पत्ति का लाभ किया है?", और क्योंकि आम तौर पर अतीत जन्म में संचित कर्मों को उद्देश्य करके धर्मता के अनुसार उनका विचार सिद्ध होता है, और उन्हें बिल्कुल उसी प्रकार (अपने कर्मों का) ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिए उस देवता के द्वारा किये गए कर्म के बारे में बात करके देवताओं सहित लोक में कर्म फल को प्रकट करने की इच्छा से (स्थविर ने) कहा–

“पीठं ते सोवण्णमयं उळारं, 
मनोजवं गच्छति येनकामं।
अलङ्कते मल्यधरे सुवत्थे, 
ओभाससि विज्जुरिवब्भ कूटं॥


"तुम्हारा यह पीठ (का विमान) स्वर्ण-मय है, विशाल है, अत्यंत शीघ्रगामी है, तुम्हारी इच्छा के अनुसार जाता है, अलंकृत, माला धारण की हुई, सुंदर तरीके से (दिव्य) वस्त्र पहनी हुई तुम गर्जनकारी मेघ (thunder cloud) के शिखर पर (चमकने वाली) बिजली की तरह चमकती हो।

“केन तेतादिसो वण्णो, 
केन ते इध मिज्झति।
उप्पज्जन्ति च ते भोगा, 
ये केचि मनसो पिया॥


"किस (पुण्य कर्म के) कारण से तुम्हारा यह वर्ण (रंग रूप) है? किस (पुण्य कर्म के) कारण से जो भोग तुम्हें प्रिय लगते हैं वे यहाँ, वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं?

“पुच्छामि तं देवि महानुभावे,
मनुस्सभूता किमकासि पुञ्ञं।
केनासि एवं जलितानुभावा,
वण्णो च ते सब्बदिसा पभासती”ति॥


"महानुभाव देवी, मैं तुमसे पूछता हूँ, तुमने मनुष्य रहते समय कौनसा पुण्य किया था कि ऐसा जलितानुभाव (चमकने वाला प्रताप) प्राप्त कर लिया और तुम्हारा वर्ण सभी दिशाओं में चमकता है?"

(यह गाथा धर्म का संगायन करने वाले महास्थविरों द्वारा डाली गई है:)

“सा देवता अत्तमना, 
मोग्गल्लानेन पुच्छिता।
पञ्हं पुट्ठा वियाकासि, 
यस्स कम्मस्सिदं फलं”॥


"उस देवता ने प्रसन्न मन से, (अरहन्त) महामोग्गल्लान (स्थविर) द्वारा पूछने पर, प्रश्न पूछे जाने के अनुसार बताया, जिस (पुण्य) कर्म का यह फल था:

“अहं मनुस्सेसु मनुस्सभूता, 
अब्भागतानासनकं अदासिं।
अभिवादयिं अञ्जलिकं अकासिं, 
यथानुभावञ्च अदासि दानं॥


"जब मैं मनुष्यों के बीच मनुष्य थी, तब मैंने आये हुए (स्थविर) को आसनक (पीठ) प्रदान किया, (पंच-प्रतिष्ठित से) उनका अभिवादन किया, अञ्जलि (दस नखों के मेल से देदीप्यमान सिर पर हाथ जोड़कर आदर) किया और यथाशक्ति (अपने विद्यमान धन के अनुरूप) दान दिया।

“तेन मेतादिसो वण्णो, 
तेन मे इध मिज्झति।
उप्पज्जन्ति च मे भोगा, 
ये केचि मनसो पिया॥


"उस (पुण्य कर्म के) कारण से मेरा यह वर्ण है। उस कारण से जो भोग मुझे प्रिय लगते हैं वे यहाँ वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं।

“अक्खामि ते भिक्खु महानुभाव, 
मनुस्सभूता यमकासि पुञ्ञं।
तेनम्हि एवं जलितानुभावा, 
वण्णो च मे सब्बदिसा पभासती”ति॥


"महानुभाव भिक्षु, मैं आपसे कहती हूँ, मैंने मनुष्य रहते समय जो पुण्य किया था, जिसके कारण मेरा ऐसा जलितानुभाव (चमकने वाला प्रताप) है और मेरा वर्ण सभी दिशाओं में चमकता है।"

जब देवता ने इस प्रकार प्रश्न का उत्तर दे दिया, तो अरहन्त महामोग्गल्लान स्थविर ने धर्म-देशना की। वह देशना उस देवता के अनुचर वर्ग सहित उनके लिए सार्थक हुई। स्थविर ने वहाँ से मनुष्य-लोक आकर उस सारी बात के बारे में भगवान को बताया। भगवान ने उस बात को बात (स्थिति) की उत्पत्ति (अट्ठुप्पत्ति) करके वहाँ इकट्ठी हुई परिषद (लोगों के समूह) को धर्म-देशना की। लेकिन (धम्म-)संग्रह (धर्म संगायन) में गाथाओं को ही सम्मिलित किया गया।

🌸 विमानवत्थु १.१, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

24 Jan, 04:36


🌺दोण सुत्त🌺 #anguttaranikaya

एकं समयं भगवा अन्तरा च उक्कट्ठं अन्तरा च सेतब्यं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति। दोणोपि सुदं ब्राह्मणो अन्तरा च उक्कट्ठं अन्तरा च सेतब्यं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति। अद्दसा खो दोणो ब्राह्मणो भगवतो पादेसु चक्कानि सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानि; दिस्वानस्स एतदहोसि – “अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो! न वतिमानि मनुस्सभूतस्स पदानि भविस्सन्ती”ति!! अथ खो भगवा मग्गा ओक्कम्म अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा। अथ खो दोणो ब्राह्मणो भगवतो पदानि अनुगच्छन्तो अद्दस भगवन्तं अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसिन्नं पासादिकं पसादनीयं सन्तिन्द्रियं सन्तमानसं उत्तमदमथसमथमनुप्पत्तं दन्तं गुत्तं संयतिन्द्रियं नागं। दिस्वान येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं एतदवोच –

एक समय भगवान् उक्कट्ठा और सेतव्य के बीच दीर्घ रास्ते से जा रहे थे। द्रोण ब्राह्मण भी उक्कट्ठा और सेतव्य के बीच दीर्घ रास्ते से जा रहा था। द्रोण ब्राह्मण ने नेमियों के साथ, नाभियों के साथ, सब आकार से परिपूर्ण, सहस्र (हज़ार) तीलियों वाले भगवान के चरणों (पद-चिन्हों) को देखा, (उन्हें) देखकर (उसके मन में) यह हुआ – "अरे! यह आश्चर्य है, अरे! यह अद्भुत है। निश्चय से यह मनुष्य के चरण (पद-चिन्ह) नहीं होंगे!!

तब भगवान् मार्ग से हटकर एक वृक्ष के नीचे पालथी मारकर, शरीर को सीधा कर स्मृति को सामने रख बैठ गए। तब द्रोण ब्राह्मण ने भगवान के चरणों (पद-चिन्हों) का अनुकरण करते हुए भगवान को एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए देखा - प्रियकर, प्रसादनीय, शान्त इन्द्रियों वाले, शान्त-मन वाले, उत्तम-दमन-शमन प्राप्त, दान्त, रक्षित, संयत-इन्द्रियों वाले, नाग (क्लेश रहित)। उन्हें देखकर वह जहाँ भगवान् थे वहाँ गया। पास जाकर भगवान को यह कहा–

“देवो नो भवं भविस्सती”ति? “न खो अहं, ब्राह्मण, देवो भविस्सामी”ति। “गन्धब्बो नो भवं भविस्सती”ति? “न खो अहं, ब्राह्मण, गन्धब्बो भविस्सामी”ति। “यक्खो नो भवं भविस्सती”ति? “न खो अहं, ब्राह्मण, यक्खो भविस्सामी”ति। “मनुस्सो नो भवं भविस्सती”ति? “न खो अहं, ब्राह्मण, मनुस्सो भविस्सामी”ति।

"आप देवता होंगे?"

"ब्राह्मण, मैं देवता नहीं होऊँगा।"

"आप गन्धर्व होंगें?"

"ब्राह्मण, मैं गन्धर्व नहीं होऊँगा।"

"आप यक्ष होंगे?"

"ब्राह्मण, मैं यक्ष नहीं होऊँगा।"

"आप मनुष्य होंगे?"

"ब्राह्मण, मैं मनुष्य नहीं होऊँगा।"

“‘देवो नो भवं भविस्सती’ति, इति पुट्ठो समानो – ‘न खो अहं, ब्राह्मण, देवो भविस्सामी’ति वदेसि। ‘गन्धब्बो नो भवं भविस्सती’ति, इति पुट्ठो समानो – ‘न खो अहं, ब्राह्मण, गन्धब्बो भविस्सामी’ति वदेसि। ‘यक्खो नो भवं भविस्सती’ति, इति पुट्ठो समानो – ‘न खो अहं, ब्राह्मण, यक्खो भविस्सामी’ति वदेसि। ‘मनुस्सो नो भवं भविस्सती’ति, इति पुट्ठो समानो – ‘न खो अहं, ब्राह्मण, मनुस्सो भविस्सामी’ति वदेसि। अथ को चरहि भवं भविस्सती”ति?

" 'आप देवता होंगे?' पूछने पर आप कहते हैं 'ब्राह्मण, मैं देवता नहीं होऊँगा'। 'आप गन्धर्व होंगे?' पूछने पर आप कहते हैं, 'ब्राह्मण, मैं गन्धर्व नहीं होऊँगा'। 'आप यक्ष होंगे' पूछने पर आप कहते हैं, 'ब्राह्मण, मैं यक्ष नहीं होऊँगा'। 'आप मनुष्य होंगे' पूछने पर आप कहते है, 'ब्राह्मण, मैं मनुष्य नहीं होऊँगा'। तो आप कौन होंगे?"

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

24 Jan, 04:36


“येसं खो अहं, ब्राह्मण, आसवानं अप्पहीनत्ता देवो भवेय्यं, ते मे आसवा पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा। येसं खो अहं, ब्राह्मण, आसवानं अप्पहीनत्ता गन्धब्बो भवेय्यं… यक्खो भवेय्यं… मनुस्सो भवेय्यं, ते मे आसवा पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा। सेय्यथापि, ब्राह्मण, उप्पलं वा पदुमं वा पुण्डरीकं वा उदके जातं उदके संवड्ढं उदका अच्चुग्गम्म तिट्ठति अनुपलित्तं उदकेन; एवमेवं खो अहं, ब्राह्मण, लोके जातो लोके संवड्ढो लोकं अभिभुय्य विहरामि अनुपलित्तो लोकेन। बुद्धोति मं, ब्राह्मण, धारेही”ति।

"ब्राह्मण, जिन आस्रवों के अप्रहीण (नष्ट न) होने से मैं 'देवता' हो सकता था, मेरे वे आश्रव प्रहीण हो गये हैं, जड़ से जाते रहे हैं, कटे ताड़ की तरह हो गये हैं, अभाव-प्राप्त हो गये हैं, भविष्य में उत्पन्न होने के स्वभाव के नहीं हैं। ब्राह्मण, जिन आस्रवों के अप्रहीण (नष्ट न) होने से मैं 'गन्धर्व' हो सकता था... 'यक्ष' हो सकता था... 'मनुष्य' हो सकता था, मेरे वे आश्रव प्रहीण हो गये हैं, जड़ से जाते रहे हैं, कटे ताड़ की तरह हो गये हैं, अभाव-प्राप्त हो गये हैं, भविष्य में उत्पन्न होने के स्वभाव के नहीं हैं। ब्राह्मण, जैसे उत्पल, पद्म या पुण्डरीक पानी में पैदा हो, पानी में बढ़े किन्तु वह पानी से ऊपर रहकर पानी से अलिप्त रहता है; इसी प्रकार ब्राह्मण, मैं लोक में पैदा हो, लोक में बढ़ा, किन्तु लोक को जीतकर उससे अलिप्त रहकर विहार करता हूँ। ब्राह्मण, मुझे 'बुद्ध' के रूप में जानो।"

“येन देवूपपत्यस्स, 
गन्धब्बो वा विहङ्गमो।
यक्खत्तं येन गच्छेय्यं, 
मनुस्सत्तञ्च अब्बजे।
ते मय्हं, आसवा खीणा, 
विद्धस्ता विनळीकता॥


"जिन आश्रवों के कारण मैं देव के रूप में उत्पन्न होता, या आकाश में जाने वाले गन्धर्व (के रूप में उत्पन्न होता), या यक्ष की अवस्था में जाता, अथवा वापस मनुष्य की ओर जाता, मेरे वे सब आस्रव क्षीण हो गए, खत्म हो गये, नष्ट हो गये।

“पुण्डरीकं यथा वग्गु, 
तोयेन नुपलिप्पति।
नुपलिप्पामि लोकेन, 
तस्मा बुद्धोस्मि ब्राह्मणा”ति॥


"जिस प्रकार पुण्डरीक (श्वेत कमल) जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मैं भी लोक से लिप्त नहीं होता, इसीलिये ब्राह्मण, मैं बुद्ध हूँ।"

🌸 अंगुत्तरनिकाय ४.४.६, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

22 Jan, 09:30


🌺लोक सुत्त🌺 #itivuttaka

वुत्तञ्हेतं भगवता, वुत्तमरहताति मे सुतं –

भगवान ने यह कहा, अर्हत ने यह कहा,
इस प्रकार मैंने सुना –

“लोको, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धोः लोकस्मा तथागतो विसंयुत्तो। लोकसमुदयो, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धो ः लोकसमुदयो तथागतस्स पहीनो। लोकनिरोधो, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धोः लोकनिरोधो तथागतस्स सच्छिकतो। लोकनिरोधगामिनी पटिपदा, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धाः लोकनिरोधगामिनी पटिपदा तथागतस्स भाविता।

"भिक्षुओं, लोक तथागत के द्वारा जान लिया गया है: तथागत लोक से अनासक्त हैं। भिक्षुओं, लोक का समुदय तथागत के द्वारा जान लिया गया है: तथागत के द्वारा लोक का समुदय प्रहीण कर दिया गया है। भिक्षुओं, लोक का निरोध तथागत के द्वारा जान लिया गया है: तथागत ने लोक के निरोध का साक्षात्कार कर लिया है। भिक्षुओं, लोक के निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग तथागत के द्वारा जान लिया गया है: तथागत द्वारा लोक के निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग भावित है।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

22 Jan, 09:30


“यं, भिक्खवे, सदेवकस्स लोकस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय दिट्ठं सुतं मुतं विञ्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा यस्मा तं तथागतेन अभिसम्बुद्धं, तस्मा तथागतोति वुच्चति।

"भिक्षुओं, देव सहित, मार सहित, ब्रह्म सहित, श्रमण-ब्राह्मण सहित प्रजा में, देव मनुष्यों सहित लोक में जो भी देखा गया, सुना गया, अनुभव किया गया, जाना गया, प्राप्त किया गया, खोजा गया, मन से विचार किया गया है, क्योंकि वह तथागत के द्वारा जान लिया गया है, इसलिए "तथागत" कहे जाते हैं।

“यञ्च, भिक्खवे, रत्तिं तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च रत्तिं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति, यं एतस्मिं अन्तरे भासति लपति निद्दिसति, सब्बं तं तथेव होति नो अञ्ञथा, तस्मा तथागतोति वुच्चति।

"भिक्षुओं, जिस रात तथागत अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि का बोध करते हैं और जिस रात अनुपाधिशेष निर्वाण-धातु से परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, इसके बीच जो भी कहते हैं, बोलते हैं, निर्देश करते हैं, वह सब वैसा ही होता है, अन्यथा नहीं, इसलिए "तथागत" कहे जाते हैं।

“यथावादी, भिक्खवे, तथागतो तथाकारी, यथाकारी तथावादी, इति यथावादी तथाकारी यथाकारी तथावादी, तस्मा तथागतोति वुच्चति।

"भिक्षुओं, तथागत जैसा कहते हैं, वैसा ही करने वाले हैं, जैसा करते हैं, वैसा ही कहते हैं, इस प्रकार (तथागत) यथावादी (जैसा कहने वाले) तथाकारी (वैसा करने वाले) यथाकारी (जैसा करने वाले) तथावादी (वैसा कहने वाले) हैं, इसलिए "तथागत" कहे जाते हैं।

“सदेवके, भिक्खवे, लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय तथागतो अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती, तस्मा तथागतोति वुच्चती”ति। एतमत्थं भगवा अवोच। तत्थेतं इति वुच्चति –

"भिक्षुओं, देव सहित, मार सहित, ब्रह्म सहित, श्रमण-ब्राह्मण सहित प्रजा में, देव मनुष्यों सहित लोक में तथागत अभिभू (विजेता) हैं, अजित हैं, सर्व-द्रष्टा (सब देखने वाले) हैं, वशवर्ती (वश चलाने वाले) हैं, इसलिए "तथागत" कहे जाते हैं। भगवान ने इस अर्थ (सुत्त) को कहा। उस पर यह कहा जाता है –

“सब्बलोकं अभिञ्ञाय, 
सब्बलोके यथातथं।
सब्बलोकविसंयुत्तो,
सब्बलोके अनूपयो ॥


"समस्त लोक को जानकर, समस्त लोक को यथार्थ स्वभाव से जानकर, (तथागत) समस्त लोक से विसंयुक्त हैं, समस्त लोक के प्रति आसक्ति रहित हैं।

“स वे सब्बाभिभू धीरो, 
सब्बगन्थप्पमोचनो।
फुट्ठास्स परमा सन्ति, 
निब्बानं अकुतोभयं॥


"वे धीर सब को जीतने वाले हैं, सभी ग्रन्थियों से मुक्त हैं, उन्होंने भय रहित परम-शांति निर्वाण को प्राप्त कर लिया है।

“एस खीणासवो बुद्धो,
अनीघो छिन्नसंसयो।
सब्बकम्मक्खयं पत्तो, 
विमुत्तो उपधिसङ्खये॥


"यह क्षीणाश्रव बुद्ध हैं, दुःख रहित हैं, उनके संशय नष्ट हो गए हैं, उन्होंने सब कर्मों के क्षय को प्राप्त कर लिया है, वे सांसारिक आसक्तियों को नष्ट कर विमुक्त हैं।

“एस सो भगवा बुद्धो,
एस सीहो अनुत्तरो।
सदेवकस्स लोकस्स, 
ब्रह्मचक्कं पवत्तयि॥


"यह भगवान् बुद्ध हैं, यह अनुत्तर सिंह हैं, उन्होंने देवताओं सहित लोक में श्रेष्ठ धर्म-चक्र को प्रवर्तित किया है।

“इति देवा मनुस्सा च, 
ये बुद्धं सरणं गता।
सङ्गम्म तं नमस्सन्ति, 
महन्तं वीतसारदं॥


"इस प्रकार (उनके गुणों को जानकर) जो देवता और मनुष्य बुद्ध की शरण गए हैं, वे उन्हें मिलकर उन महान, (चार) विशारद (ज्ञानों से युक्त तथागत) को नमस्कार करते हैं।

“दन्तो दमयतं सेट्ठो, 
सन्तो समयतं इसि।
मुत्तो मोचयतं अग्गो,
तिण्णो तारयतं वरो॥


"भगवान दान्त हैं, दमन करने वालों में वे श्रेष्ठ हैं, भगवान शांत हैं, शांत करने वालो में वे ऋषि हैं, भगवान मुक्त हैं, मुक्त करने वालों में वे अग्र हैं, भगवान तीर्ण (पार चले गए) हैं, पार करवाने वालों में वे श्रेष्ठ हैं।

“इति हेतं नमस्सन्ति, 
महन्तं वीतसारदं।
सदेवकस्मिं लोकस्मिं,
नत्थि ते पटिपुग्गलो”ति॥


"इस प्रकार देव और मनुष्य महान, विशारद को नमस्कार करते हैं, "देवताओं सहित लोक में आपके जैसा कोई नहीं है।"

अयम्पि अत्थो वुत्तो भगवता, इति मे सुतन्ति।

यह अर्थ भी भगवान के द्वारा कहा गया,
इस प्रकार मैंने सुना।

🌸 इतिवुत्तक ४.१३, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

12 Jan, 05:01


🌺सुखुमाल सुत्त🌺 #anguttaranikaya

“सुखुमालो अहं, भिक्खवे, परमसुखुमालो अच्चन्तसुखुमालो। मम सुदं, भिक्खवे, पितु निवेसने पोक्खरणियो कारिता होन्ति। एकत्थ सुदं, भिक्खवे, उप्पलं वप्पति , एकत्थ पदुमं, एकत्थ पुण्डरीकं, यावदेव ममत्थाय । न खो पनस्साहं, भिक्खवे, अकासिकं चन्दनं धारेमि । कासिकं , भिक्खवे, सु मे तं वेठनं होति, कासिका कञ्चुका, कासिकं निवासनं, कासिको उत्तरासङ्गो। रत्तिन्दिवं खो पन मे सु तं, भिक्खवे, सेतच्छत्तं धारीयति – ‘मा नं फुसि सीतं वा उण्हं वा तिणं वा रजो वा उस्सावो वा’”ति।

"भिक्षुओं, मैं सुकुमार (दुःख-रहित) था, परम सुकुमार था, अत्यन्त सुकुमार था। भिक्षुओं, मेरे पिता के घर पुष्करणियाँ बनी थीं – एक में उत्पल पुष्पित होते थे, एक में पद्म तथा एक में पुण्डरीक। यह सभी मेरे ही लिए थे।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

12 Jan, 05:01


भिक्षुओं, उस समय मैं काशी का ही चन्दन धारण करता था। भिक्षुओं, काशी की ही बनी मेरी पगड़ी होती थी, काशी का ही कंचुक, काशी का ही निवासन (अंदर पहनने का वस्त्र), काशी का ही उत्तरासंग (ऊपर का कपड़ा)। भिक्षुओं, रात-दिन मेरे सिर पर श्वेत-छत्र धारण किया जाता था – 'इसे शीत (ठंड) न लगे, गरमी न लगे, तृण न लगे, धूलि न लगे या ओस न लगे।'

“तस्स मय्हं, भिक्खवे, तयो पासादा अहेसुं – एको हेमन्तिको, एको गिम्हिको, एको वस्सिको। सो खो अहं, भिक्खवे, वस्सिके पासादे वस्सिके चत्तारो मासे निप्पुरिसेहि तूरियेहि परिचारयमानो न हेट्ठापासादं ओरोहामि। यथा खो पन, भिक्खवे, अञ्ञेसं निवेसने दासकम्मकरपोरिसस्स कणाजकं भोजनं दीयति बिलङ्गदुतियं, एवमेवस्सु मे, भिक्खवे, पितु निवेसने दासकम्मकरपोरिसस्स सालिमंसोदनो दीयति।

"भिक्षुओं, उस समय मेरे तीन प्रासाद थे - एक हेमन्त ऋतु के लिए, एक ग्रीष्म ऋतु के लिए तथा एक वर्षा ऋतु के लिए। भिक्षुओं, मैं वर्षा के चारों महीने भर वर्षा के प्रासाद से नीचे नहीं उतरता था, मैं तूर्य-वादन करने वाली स्त्रियों से घिरा रहता था। भिक्षुओं, जैसे दूसरे घरों में दासों तथा कर्मकारों को कणाजक (चावलों के भीतर से प्राप्त चूर्ण) के साथ टूटे चावलों के दलिये का भोजन दिया जाता था, इसी तरह भिक्षुओं, मेरे पिता के घर में दासों तथा नौकर-चाकरों को मांस तथा शाली (धान) का भोजन दिया जाता था।

“तस्स मय्हं, भिक्खवे, एवरूपाय इद्धिया समन्नागतस्स एवरूपेन च सुखुमालेन एतदहोसि – ‘अस्सुतवा खो पुथुज्जनो अत्तना जराधम्मो समानो जरं अनतीतो परं जिण्णं दिस्वा अट्टीयति हरायति जिगुच्छति अत्तानंयेव अतिसित्वा, अहम्पि खोम्हि जराधम्मो जरं अनतीतो। अहञ्चेव खो पन जराधम्मो समानो जरं अनतीतो परं जिण्णं दिस्वा अट्टीयेय्यं हरायेय्यं जिगुच्छेय्यं न मेतं अस्स पतिरूप’न्ति। तस्स मय्हं, भिक्खवे, इति पटिसञ्चिक्खतो यो योब्बने योब्बनमदो सो सब्बसो पहीयि।

"भिक्षुओं, उस समय इस प्रकार की पुण्य-ऋद्धि से युक्त होते हुए तथा इस प्रकार के सुकुमार (दुःख रहित भाव से युक्त) होते हुए मेरे मन में यह हुआ-

'अश्रुतवान पृथक-जन स्वयं बूढ़ा होने के स्वभाव वाला (जरा-धर्मी) होकर, जरा (बुढापे) के पार न चला गया होकर, किसी दूसरे बूढ़े को देखकर, अपनी स्थिति को  नज़रंदाज़ करके पीड़ित होता है, लज्जा करता है, (गूँह देखने की तरह) घृणा करता है। अब मैं भी तो बूढ़ा होने के स्वभाव वाला हूँ, बुढ़ापे के पार नहीं चला गया हूँ, ऐसा होते हुए अगर मैं स्वयं बूढ़ा होने को स्वभाव वाला होकर, बुढ़ापे के पार न चला गया होकर दूसरे बूढ़े को देखकर पीड़ित होऊँ, लज्जित होऊँ, घृणा करूँ, तो यह मेरे योग्य नहीं होगा।'

भिक्षुओं, इस प्रकार (प्रज्ञापूर्वक) चिंतन करने पर मेरे मन में यौवन के प्रति जो यौवन-मद था वह सब नष्ट हो गया।

“अस्सुतवा खो पुथुज्जनो अत्तना ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिं अनतीतो परं ब्याधितं दिस्वा अट्टीयति हरायति जिगुच्छति अत्तानंयेव अतिसित्वा – ‘अहम्पि खोम्हि ब्याधिधम्मो ब्याधिं अनतीतो, अहञ्चेव खो पन ब्याधिधम्मो समानो ब्याधिं अनतीतो परं ब्याधिकं दिस्वा अट्टीयेय्यं हरायेय्यं जिगुच्छेय्यं, न मेतं अस्स पतिरूप’न्ति। तस्स मय्हं, भिक्खवे, इति पटिसञ्चिक्खतो यो आरोग्ये आरोग्यमदो सो सब्बसो पहीयि।

'अश्रुतवान पृथक-जन स्वयं बीमार (ब्याधि) होने के स्वभाव वाला होकर, बीमारी के पार न चला गया होकर, किसी दूसरे बीमार (व्यक्ति) को देखकर, अपनी स्थिति को  नज़रंदाज़ करके पीड़ित होता है, लज्जा करता है, (गूँह देखने की तरह) घृणा करता है। अब मैं भी तो बीमार होने के स्वभाव वाला हूँ, बीमारी के पार नहीं चला गया हूँ, ऐसा होते हुए अगर मैं स्वयं बीमार होने को स्वभाव वाला होकर, बीमारी के पार न चला गया होकर दूसरे बीमार (व्यक्ति) को देखकर पीड़ित होऊँ, लज्जित होऊँ, घृणा करूँ, तो यह मेरे योग्य नहीं होगा।'

भिक्षुओं, इस प्रकार (प्रज्ञापूर्वक) चिंतन करने पर मेरे मन में आरोग्य के प्रति जो आरोग्य-मद था वह सब नष्ट हो गया।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

12 Jan, 05:01


“अस्सुतवा खो पुथुज्जनो अत्तना मरणधम्मो समानो मरणं अनतीतो परं मतं दिस्वा अट्टीयति हरायति जिगुच्छति अत्तानंयेव अतिसित्वा – ‘अहम्पि खोम्हि मरणधम्मो, मरणं अनतीतो, अहं चेव खो पन मरणधम्मो समानो मरणं अनतीतो परं मतं दिस्वा अट्टीयेय्यं हरायेय्यं जिगुच्छेय्यं, न मेतं अस्स पतिरूप’न्ति। तस्स मय्हं, भिक्खवे, इति पटिसञ्चिक्खतो यो जीविते जीवितमदो सो सब्बसो पहीयी”ति।

"अश्रुतवान पृथक-जन स्वयं मृत्यु होने के स्वभाव वाला होकर, मृत्यु के पार न चला गया होकर, किसी दूसरे मरे हुए (मृत व्यक्ति) को देखकर, अपनी स्थिति को नज़रंदाज़ करके पीड़ित होता है, लज्जा करता है, (गूँह देखने की तरह) घृणा करता है। अब मैं भी तो मृत्यु होने के स्वभाव वाला हूँ, मृत्यु के पार नहीं चला गया हूँ, ऐसा होते हुए अगर मैं स्वयं मृत्यु होने को स्वभाव वाला होकर, मृत्यु के पार न चला गया होकर दूसरे मरे हुए (व्यक्ति) को देखकर पीड़ित होऊँ, लज्जित होऊँ, घृणा करूँ, तो यह मेरे योग्य नहीं होगा।'

भिक्षुओं, इस प्रकार (प्रज्ञापूर्वक) चिंतन करने पर मेरे मन में जीवन के प्रति जो जीवित-मद था वह सब नष्ट हो गया।"

“तयोमे, भिक्खवे, मदा। कतमे तयो? योब्बनमदो, आरोग्यमदो, जीवितमदो। योब्बनमदमत्तो वा, भिक्खवे, अस्सुतवा पुथुज्जनो कायेन दुच्चरितं चरति, वाचाय दुच्चरितं चरति, मनसा दुच्चरितं चरति। सो कायेन दुच्चरितं चरित्वा, वाचाय दुच्चरितं चरित्वा, मनसा दुच्चरितं चरित्वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति। आरोग्यमदमत्तो वा, भिक्खवे, अस्सुतवा पुथुज्जनो…पे॰… जीवितमदमत्तो वा, भिक्खवे, अस्सुतवा पुथुज्जनो कायेन दुच्चरितं चरति, वाचाय दुच्चरितं चरति, मनसा दुच्चरितं चरति। सो कायेन दुच्चरितं चरित्वा , वाचाय दुच्चरितं चरित्वा, मनसा दुच्चरितं चरित्वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति।

"भिक्षुओं, यह तीन मद हैं। कौनसे तीन ? यौवन-मद, आरोग्य-मद तथा जीवित (जीवन के प्रति)-मद।

भिक्षुओं, यौवन-मद से मस्त अश्रुतवान पृथक-जन शरीर से दुष्कर्म (दुश्चरित) करता है, वाणी से दुष्कर्म करता है, मन से दुष्कर्म करता है। वह शरीर से दुष्कर्म करके, वाणी से दुष्कर्म करके, मन से दुष्कर्म करके शरीर के छूटने पर, मरने के बाद अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक में उत्पन्न होता है।

भिक्षुओं, आरोग्य-मद से मस्त अश्रुतवान पृथक-जन शरीर से दुष्कर्म (दुश्चरित) करता है, वाणी से दुष्कर्म करता है, मन से दुष्कर्म करता है। वह शरीर से दुष्कर्म करके, वाणी से दुष्कर्म करके, मन से दुष्कर्म करके शरीर के छूटने पर, मरने के बाद अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक में उत्पन्न होता है।

भिक्षुओं, जीवित-मद से मस्त अश्रुतवान पृथक-जन शरीर से दुष्कर्म (दुश्चरित) करता है, वाणी से दुष्कर्म करता है, मन से दुष्कर्म करता है। वह शरीर से दुष्कर्म करके, वाणी से दुष्कर्म करके, मन से दुष्कर्म करके शरीर के छूटने पर, मरने के बाद अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक में उत्पन्न होता है।

“योब्बनमदमत्तो वा, भिक्खवे, भिक्खु सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तति। आरोग्यमदमत्तो वा, भिक्खवे, भिक्खु…पे॰… जीवितमदमत्तो वा, भिक्खवे, भिक्खु सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तती”ति।

"भिक्षुओं, यौवन-मद से मस्त भिक्षु शिक्षा का त्याग कर हीन (गृहस्थ जीवन) की ओर लौट जाता है। भिक्षुओं, आरोग्य-मद से मस्त भिक्षु शिक्षा का त्याग कर हीन (गृहस्थ जीवन) की ओर लौट जाता है। भिक्षुओं, जीवित-मद से मस्त भिक्षु शिक्षा का त्याग कर हीन (गृहस्थ जीवन) की ओर लौट जाता है।

“ब्याधिधम्मा जराधम्मा,
अथो मरणधम्मिनो।
यथा धम्मा तथासन्ता, 
जिगुच्छन्ति पुथुज्जना॥


"पृथक-जन स्वयं रोग-धर्मी, जरा-धर्मी तथा मरण-धर्मी होते हुए भी अपने ही स्वभाव के प्राणियों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं।

“अहञ्चे तं जिगुच्छेय्यं, 
एवं धम्मेसु पाणिसु।
न मेतं पतिरूपस्स, 
मम एवं विहारिनो॥


"यदि मैं इस स्वभाव (जरा-धर्मी, रोग-धर्मी, मरण-धर्मी) वाले प्राणियों को घृणा की दृष्टि से देखूं तो मेरा इस प्रकार रहना मेरे अनुरूप नहीं होगा।

“सोहं एवं विहरन्तो, 
ञत्वा धम्मं निरूपधिं।
आरोग्ये योब्बनस्मिञ्च, 
जीवितस्मिञ्च ये मदा॥


"इसलिये मैंने इस प्रकार विहार करते हुए जो उपधि-रहित धर्म हैं, उन्हें जानकर, आरोग्य, यौवन, जीवन में जो मद है,

“सब्बे मदे अभिभोस्मि, 
नेक्खम्मं दट्ठु खेमतो ।
तस्स मे अहु उस्साहो, 
निब्बानं अभिपस्सतो॥


"उन सभी मदों का अतिक्रमण किया, नैष्कर्म्य में क्षेम देखकर। निर्वाण को अच्छी तरह से देखकर मेरे मन में उत्साह उत्पन्न हुआ।

“नाहं भब्बो एतरहि, 
कामानि पटिसेवितुं।
अनिवत्ति भविस्सामि, 
ब्रह्मचरियपरायणो”ति॥ 


"अब मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि काम-भोगों का सेवन करूं। मैं ब्रह्मचर्य परायण रहकर, कभी पीछे मुड़ने वाला नहीं होऊँगा।"

🌸 अंगुत्तरनिकाय ३.४.९, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

10 Jan, 04:35


🌺सुब्रह्म सुत्त🌺 #sanyuttanikaya

एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे। अथ खो सुब्रह्मो देवपुत्तो अभिक्कन्ताय रत्तिया अभिक्कन्तवण्णो केवलकप्पं वेळुवनं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो सुब्रह्मा देवपुत्तो भगवन्तं गाथाय अज्झभासि –

ऐसा मैंने सुना – एक समय भगवान् राजगृह में वेळुवन कलन्दकनिवाप में विहार करते थे। तब सुब्रह्म देव-पुत्र देर रात्रि में (जब रात खत्म हो गई थी) (अपने) सुंदर रूप (वर्ण) से सारे वेळुवन को प्रकाशित करता हुआ, जहाँ भगवान् थे, वहाँ पहुँचा; पास जाकर भगवान् को अभिवादन करके एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े हुए सुब्रह्म देवपुत्र ने भगवान को यह गाथा कही–

“निच्चं उत्रस्तमिदं चित्तं, 
निच्चं उब्बिग्गमिदं मनो।
अनुप्पन्नेसु किच्छेसु , 
अथो उप्पतितेसु च।
सचे अत्थि अनुत्रस्तं, 
तं मे अक्खाहि पुच्छितो”ति॥


"यह चित्त नित्य (हमेशा) व्याकुल (restless) रहता है, यह मन नित्य उद्विग्न रहता है, जो दुःख अभी उत्पन्न नहीं हुए और उत्पन्न हुए दुःखों (के प्रति)। अगर व्याकुल न होने की अवस्था है तो, प्रश्न किये जाने पर मुझे बताएं।"

(भगवान:)

“नाञ्ञत्र बोज्झा तपसा , 
नाञ्ञत्रिन्द्रियसंवरा।
नाञ्ञत्र सब्बनिस्सग्गा, 
सोत्थिं पस्सामि पाणिन”न्ति॥


"बोध्यङ्ग भावना और तप को छोड़कर, इन्द्रिय-संवर को छोड़कर, सबके त्याग (निर्वाण) को छोड़कर, मैं प्राणियों का कल्याण नहीं देखता हूँ।"

इदमवोच भगवा। अत्तमना सो देवपुत्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायी”ति।।

भगवान ने यह कहा। संतुष्ट होकर वह देवपुत्र भगवान को अभिवादन करके, प्रदक्षिणा करके वहीं अन्तर्धान हो गया।

🌸 संयुत्तनिकाय १.२.२.७, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

09 Jan, 04:40


🌺अरहन्त सुत्त🌺 #sanyuttanikaya

ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवनाराम में विहार करते थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया- "भिक्षुओं"। "भदन्त" - कहकर उन भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने यह कहा-

"भिक्षुओं, रूप अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है; जो दुःख है वह अनात्म है; जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है। इसे यथाभूत सम्यक-प्रज्ञा से देखना चाहिए। वेदना अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है; जो दुःख है वह अनात्म है; जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है। इसे यथाभूत सम्यक-प्रज्ञा से देखना चाहिए। संज्ञा अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है; जो दुःख है वह अनात्म है; जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है। इसे यथाभूत सम्यक-प्रज्ञा से देखना चाहिए।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

09 Jan, 04:40


संस्कार अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है; जो दुःख है वह अनात्म है; जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है। इसे यथाभूत सम्यक-प्रज्ञा से देखना चाहिए। विज्ञान अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है; जो दुःख है वह अनात्म है; जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है। इसे यथाभूत सम्यक-प्रज्ञा से देखना चाहिए।

"भिक्षुओं, इस प्रकार देखकर श्रुतवान आर्य-श्रावक रूप में निर्वेद करता है, वेदना में निर्वेद करता है, संज्ञा में निर्वेद करता है, संस्कार में निर्वेद करता है, विज्ञान में निर्वेद करता है। निर्वेद से विरक्त हो जाता है, विराग से विमुक्त हो जाता है। विमुक्त हो जाने से 'विमुक्त हो गया' ऐसा ज्ञान होता है। 'जाति क्षीण हो गई, ब्रह्मचर्य-वास पूर्ण हुआ, जो करना था वह कर लिया, अब करने के लिए कुछ नहीं' यह समझता है। भिक्षुओं, जहाँ तक सत्वावास है, जहाँ तक भवाग्र है, लोक में यही अग्र हैं, यही श्रेष्ठ हैं, जो कि अरहन्त हैं।"

भगवान् ने यह कहा। यह कहकर शास्ता सुगत ने आगे भी कहा–

“सुखिनो वत अरहन्तो, 
तण्हा तेसं न विज्जति।
अस्मिमानो समुच्छिन्नो, 
मोहजालं पदालितं॥


"अरहन्त वास्तव में सुखी हैं,
उनमें तृष्णा विद्यमान नहीं है,
'अस्मि (मैं हूँ का)' मान समुच्छिन्न हो गया है,
उनका मोहजाल कट गया है।

“अनेजं ते अनुप्पत्ता, 
चित्तं तेसं अनाविलं।
लोके अनुपलित्ता ते, 
ब्रह्मभूता अनासवा॥


"उन्होंने अनेज (अर्हत्व) को प्राप्त कर लिया है,
उनका चित्त गन्दा नहीं है,
वे लोक के प्रति अलिप्त हैं,
ब्रह्म-भूत हैं, अनाश्रव हैं।

“पञ्चक्खन्धे परिञ्ञाय, 
सत्त सद्धम्मगोचरा।
पसंसिया सप्पुरिसा, 
पुत्ता बुद्धस्स ओरसा॥


"पाँच स्कन्धों की परिज्ञा करके,
वे सात सद्धर्मों में विचरने वाले हैं,
(वे) प्रशंसनीय सत्पुरुष,
बुद्ध के स्वकीय पुत्र हैं।

“सत्तरतनसम्पन्ना, 
तीसु सिक्खासु सिक्खिता।
अनुविचरन्ति महावीरा, 
पहीनभयभेरवा॥


"(वे बोध्यङ्ग के)) सात रत्नों से सम्पन्न हैं,
तीन शिक्षाओं में शिक्षित हैं,
(वे) महावीर विचरते हैं,
(उनके) भय-भैरव प्रहीण हो गए हैं।

“दसहङ्गेहि सम्पन्ना, 
महानागा समाहिता।
एते खो सेट्ठा लोकस्मिं, 
तण्हा तेसं न विज्जति॥


"(वे) दस अङ्गों से सम्पन्न (है),
(वे) महानाग समाहित हैं,
यह लोक में श्रेष्ठ हैं,
उनमें तृष्णा विद्यमान नहीं है।

“असेखञाणमुप्पन्नं, 
अन्तिमोयं समुस्सयो।
यो सारो ब्रह्मचरियस्स, 
तस्मिं अपरपच्चया॥


"उन्हें अशैक्ष्य-ज्ञान उत्पन्न हुआ है (कि),
"यह आत्मभाव अंतिम है",
ब्रह्मचर्य का जो सार (फल) है,
उस (फल) में वे दूसरों पर निर्भर नहीं हैं।

“विधासु न विकम्पन्ति, 
विप्पमुत्ता पुनब्भवा।
दन्तभूमिमनुप्पत्ता, 
ते लोके विजिताविनो॥


"मान के (तीन हिस्सों) में वे अकम्पित हैं,
वे पुनर्भव से विमुक्त हैं,
उन्होंने दान्त-भूमि (अर्हत्व) को प्राप्त कर लिया है,
वे लोक में विजयी हैं।

“उद्धं तिरियं अपाचीनं, 
नन्दी तेसं न विज्जति।
नदन्ति ते सीहनादं, 
बुद्धा लोके अनुत्तरा”ति॥


"ऊपर, तिरछे, नीचे
कहीं भी उन्हें तृष्णा नहीं है।
वे निर्भीकता से सिंह-नाद करते हैं (कि),
"बुद्ध लोक में श्रेष्ठ हैं।"

🌸 संयुत्तनिकाय ३.२.८.४, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

07 Jan, 04:37


अतीत में जब काश्यप सम्यक-सम्बुद्ध जी के परिनिर्वाण होने के बाद उनके शरीर धातुओं के प्रतिष्ठापन के लिए एक योजन का सोने का स्तूप बन गया था और चारों परिषदें (भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिकाएँ) समय समय पर जाकर गन्धों, पुष्पों, बत्तियों आदि से चैत्य की पूजा करती थी, तब वहाँ एक उपासक ने दूसरों के द्वारा पुष्प-पूजा करके चले जाने पर उनके द्वारा पूजा की गई जगह पर ढंग से न रखे गए पुष्पों को देखकर वहीं उन (पुष्पों को) ठीक तरह से रख देने की व्यवस्था करने के माध्यम से दर्शनीय, अच्छे लगने वाले, विशेष विभक्ति से युक्त पुष्पों के साथ पूजा की। और ऐसा करने के बाद उसने इस (पूजा) को आधार (आरम्मण) के रूप में ग्रहण करते हुए शास्ता के गुणों का अनुस्मरण करके प्रसन्न-चित्त होकर उस पुण्य को हृदय में स्थापित किया।

बाद में उसकी मृत्यु हुई और वह उसी कर्म के प्रताप से वह तावतिंस भवन में बारह योजन के सोने के विमान में उत्पन्न हुआ, वह महान प्रताप वाला था और उसका बहुत बड़ा अनुचर-वर्ग था। उसी के सम्बंध में कहा गया - "उसी क्षण अपने... ...हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।" स्थविर ने उसके द्वारा प्राप्त सम्पत्ति का वर्णन करने के माध्यम से उसके द्वारा किये गए सुचरित कर्म के बारे में पूछा–

“उच्चमिदं मणिथूणं विमानं, 
समन्ततो द्वादस योजनानि।
कूटागारा सत्तसता उळारा, 
वेळुरियथम्भा रुचकत्थता सुभा॥


"यह विमान ऊंचा और मणियों के खम्भों के साथ है, सभी ओर से बारह योजन का है, यहाँ सात सौ योजन के विशाल कूटागार हैं, वेळुरिय (रत्नों) के साथ अच्छे लगने वाले हैं और सुंदर हैं।

“तत्थच्छसि पिवसि खादसि च, 
दिब्बा च वीणा पवदन्ति वग्गुं।
दिब्बा रसा कामगुणेत्थ पञ्च, 
नारियो च नच्चन्ति सुवण्णच्छन्ना॥


"वहाँ तुम खाते और पीते हो, और दिव्य वीणाएँ मधुर रूप से स्वर निकालती हैं, यहाँ दिव्य रस और पाँच कामगुण हैं, और सोने से ढकी हुई नारियाँ नाचती हैं।

“केन तेतादिसो वण्णो, 
केन ते इध मिज्झति।
उप्पज्जन्ति च ते भोगा, 
ये केचि मनसो पिया॥


"किस कारण से तुम्हारा यह वर्ण है? किस कारण से जो भोग तुम्हे प्रिय लगते हैं वे यहाँ, वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं?

“पुच्छामि तं देव महानुभाव, 
मनुस्सभूतो किमकासि पुञ्ञं।
केनासि एवं जलितानुभावो, 
वण्णो च ते सब्बदिसा पभासती”ति॥

"महानुभाव देवता, मैं तुमसे पूछता हूँ, तुमने मनुष्य रहते समय कौनसा पुण्य किया था कि ऐसा जलितानुभाव (चमकने वाला प्रताप) प्राप्त कर लिया और तुम्हारा वर्ण सभी दिशाओं में चमकता है?"

उसने भी अपने द्वारा किये गए कर्म के बारे में इन गाथाओं के द्वारा बताया। उसे दर्शाते हुए (धर्म का) संगायन करने वालों ने कहा –

“सो देवपुत्तो अत्तमनो, 
मोग्गल्लानेन पुच्छितो।
पञ्हं पुट्ठो वियाकासि, 
यस्स कम्मस्सिदं फलं”॥


"उस देवपुत्र ने प्रसन्न मन से, (अरहन्त) महामोग्गल्लान (स्थविर) द्वारा पूछने पर, प्रश्न पूछे जाने के अनुसार बताया, जिस (पुण्य) कर्म का यह फल था:

(देवता:)

“दुन्निक्खित्तं मालं सुनिक्खिपित्वा, 
पतिट्ठपेत्वा सुगतस्स थूपे।
महिद्धिको चम्हि महानुभावो, 
दिब्बेहि कामेहि समङ्गिभूतो॥


"ढंग से न रखी गई माला को ठीक तरह से रखकर मैंने सुगत के स्तूप पर प्रतिष्ठापित किया, और (अब) मैं दिव्य काम (गुणों) से युक्त होकर, महान ऋद्धि वाला, महान प्रताप वाला हूँ।

“तेन मेतादिसो वण्णो, 
तेन मे इध मिज्झति।
उप्पज्जन्ति च मे भोगा, 
ये केचि मनसो पिया॥

"उस कारण से मेरा यह वर्ण है। उस कारण से जो भोग मुझे प्रिय लगते हैं वे यहाँ वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं।

“अक्खामि ते भिक्खु महानुभाव, 
मनुस्सभूतो यमकासि पुञ्ञं।
तेनम्हि एवं जलितानुभावो, 
वण्णो च मे सब्बदिसा पभासती”ति॥

"महानुभाव भिक्षु, मैं आपसे कहता हूँ, मैंने मनुष्य रहते समय जो पुण्य किया था, जिसके कारण मेरा ऐसा जलितानुभाव (चमकने वाला प्रताप) है और मेरा वर्ण सभी दिशाओं में चमकता है।"

इस प्रकार देवपुत्र के द्वारा अपने सुचरित कर्म को प्रकाशित करने पर स्थविर ने उसे धर्म-देशना करके (मनुष्य लोक) आकर उस बात के बारे में भगवान को बताया। भगवान ने उस बात को बात (स्थिति) की उत्पत्ति (अट्ठुप्पत्ति) करके वहाँ इकट्ठे हुए बहुत लोगों को धर्म-देशना की। वह देशना बहुत लोगों के लिए सार्थक हुई।

🌸 विमानवत्थु ७.११, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक

🌼निट्ठिता च पुरिसविमानवण्णना।
पुरुष विमान-वर्णन समाप्त।🌼


(लोगों के कल्याण के लिए मेरे द्वारा अनुवाद किया गया विमानवत्थु ग्रन्थ समाप्त हुआ।)

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

07 Jan, 04:37


🌺सुनिक्खित्तविमानवत्थु🌺 #vimanavatthu

भगवान श्रावस्ती में जेतवन में विहार करते थे। उस समय अरहन्त महामोग्गल्लान स्थविर पहले की तरह ही देवलोक की चारिका (भ्रमण) करते हुए तावतिंस भवन में गए। उसी क्षण अपने विमान के द्वार पर खड़े हुए एक देवपुत्र ने अरहन्त महामोग्गल्लान स्थविर जी को देखकर बहुत गौरव और सम्मान उत्पन्न होने के कारण उनके पास जाकर पंच-प्रतिष्ठित तरीके से वन्दना की और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

06 Jan, 04:51


अब समाप्ति में छह गाथाएँ धर्म-संग्राहकों (धर्म का संगायन करने वाले स्थविरों) के द्वारा कही गई हैं–

“ते तत्थ सब्बेव अहं पुरेति, 
तं कप्पकं तत्थ पुरक्खत्वा।
सब्बेव ते आलम्बिंसु विमानं, 
मसक्कसारं विय वासवस्स॥


"वहाँ वे सभी लोग (उत्सुकता से) "मैं पहले (चढूँगा)" कहते हुए, वहाँ उस नाई को आगे करके, सभी लोग विमान के ऊपर चढ़ गए, वासव (देवेन्द्र शक्र) के भवन पर चढ़ने की तरह।

“ते तत्थ सब्बेव अहं पुरेति, 
उपासकत्तं पटिवेदयिंसु।
पाणातिपाता विरता अहेसुं, 
लोके अदिन्नं परिवज्जयिंसु।
अमज्जपा नो च मुसा भणिंसु, 
सकेन दारेन च अहेसुं तुट्ठा॥


"वहाँ (चढ़कर) वे सभी लोगों ने "मैं पहले" कहते हुए, अपने उपासक होने की घोषणा की। वे प्राणियों को मारने से दूर रहे, लोक में न दिए गए (को लेने से) दूर रहे। उन्होंने मद्य-पान का सेवन नहीं किया और झूठ नहीं बोला तथा अपनी स्त्री से ही संतुष्ट रहे।

“ते तत्थ सब्बेव अहं पुरेति, 
उपासकत्तं पटिवेदयित्वा।
पक्कामि सत्थो अनुमोदमानो, 
यक्खिद्धिया अनुमतो पुनप्पुनं॥

"वहाँ वे सभी लोग "मैं पहले" कहते हुए, अपने उपासक होने की घोषणा करने के बाद, यक्ष (देवपुत्र) की ऋद्धि से प्रसन्न होकर बार बार अनुमोदन करते हुए वे कारवाँ (उसकी) अनुमति से चले गए।

“गन्त्वान ते सिन्धुसोवीरभूमिं, 
धनत्थिका उद्दयं पत्थयाना।
यथापयोगा परिपुण्णलाभा, 
पच्चागमुं पाटलिपुत्तमक्खतं॥

"धन की इच्छा से, लाभ को चाहते हुए, उन्होंने सिन्धु-सोवीर के देश में जाकर अपने इरादे के अनुसार परिपूर्ण लाभ कमाया और बिना किसी बाधा से पाटलिपुत्त (पाटलिपुत्र) वापस आ गए।

“गन्त्वान ते सङ्घरं सोत्थिवन्तो, 
पुत्तेहि दारेहि समङ्गिभूता।
आनन्दी वित्ता सुमना पतीता, 
अकंसु सेरीसमहं उळारं।
सेरीसकं ते परिवेणं मापयिंसु॥


"क्षेम-सम्पन्न उन (व्यापारियों ने) अपने घर जाने के बाद, पुत्र तथा पत्नी से मिलकर, आनन्दित, प्रीति-युक्त, अच्छे मन वाले, प्रसन्न-चित्त होकर, सेरीसक के लिए विशाल उत्सव-पूजा की, उन्होंने सेरीसक नामक परिवेण (भिक्षुओं के लिए सन्निपात शाला) का निर्माण किया।

“एतादिसा सप्पुरिसान सेवना, 
महत्थिका धम्मगुणान सेवना।
एकस्स अत्थाय उपासकस्स, 
सब्बेव सत्ता सुखिता अहेसु”न्ति॥


"सत्पुरुषों की संगति, धार्मिक-गुण वालों की संगति इसी प्रकार महान-प्रयोजन (महान शुभ परिणाम) वाली होती है। एक अपासक के भले के लिए (कारवाँ में सम्मिलित) सभी सत्व सुखी हो गए।"

और भी, सम्भव उपासक ने पायासि देवपुत्र तथा उन व्यापारियों द्वारा वचन-प्रतिवचन के रूप में कही गई गाथाओं को सीखकर स्थविरों को उसी क्रम में बताया जैसा उसने सुना था। दूसरे कहते हैं कि पायासि देवपुत्र ने सम्भव स्थविर को बताया। इस (कथा को) महास्थविरों ने अरहन्त यश स्थविर के नेतृत्व में दूसरे संगायन में शामिल किया। और सम्भव उपासक ने माता-पिता की मृत्यु के बाद प्रव्रजित होकर अर्हत्व-फल प्राप्त किया।

🌸 विमानवत्थु ७.१०, खुद्दकनिकाय, सुत्तपिटक

☸️🌼पवित्र बुद्ध वाणी🌼☸️

06 Jan, 04:51


और भी, क्योंकि वह देवपुत्र उस उपासक की सहायता करते हुए उन व्यापारियों को रक्षा प्रदान करना चाहता था, इसलिए देवपुत्र ने उसके गुणों की प्रशंसा करके व्यापारियों में से उस उपासक को उद्देश्य करते हुए इन गाथाओं को कहा–

“उपासको अत्थि इमम्हि सङ्घे, 
बहुस्सुतो सीलवतूपपन्नो।
सद्धो च चागी च सुपेसलो च, 
विचक्खणो सन्तुसितो मुतीमा॥


"इन लोगों के समूह के बीच में एक उपासक है जो बहुश्रुत है, शीलवान है, श्रद्धावान है, त्यागी (दानशील) है, अच्छी तरह से प्रिय-शील है, विचक्षण है, संतुष्ट है तथा (कर्म-फल आदि का) जानकार है।

“सञ्जानमानो न मुसा भणेय्य,
परूपघाताय न चेतयेय्य।
वेभूतिकं पेसुणं नो करेय्य, 
सण्हञ्च वाचं सखिलं भणेय्य॥

"वह (उपासक) जान-बूझकर झूठ नहीं बोलता है, दूसरों को मारने का विचार नहीं करता है, जो लोग साथ हैं उनमें फूट नहीं डालता है, चुगली नहीं करता है, मृदु तथा मधुर वचन बोलता है।

“सगारवो सप्पतिस्सो विनीतो, 
अपापको अधिसीले विसुद्धो।
सो मातरं पितरञ्चापि जन्तु, 
धम्मेन पोसेति अरियवुत्ति॥


"(वह) गौरव-सहित है, सम्मानपूर्ण है, विनीत है, पाप-रहित है, श्रेष्ठतर शीलों में विशुद्ध है, वह परिशुद्ध आचरण वाला धर्मपूर्वक अपने माता पिता का पोषण करता है।

“मञ्ञे सो मातापितूनं कारणा, 
भोगानि परियेसति न अत्तहेतु।
मातापितूनञ्च यो अच्चयेन, 
नेक्खम्मपोणो चरिस्सति ब्रह्मचरियं॥


"मुझे लगता है कि वह माता पिता के कारण धन को खोजता है, अपने कारण नहीं, और माता पिता की मृत्यु के बाद वह नैष्कर्म्य की ओर झुककर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा।

“उजू अवङ्को असठो अमायो, 
न लेसकप्पेन च वोहरेय्य।
सो तादिसो सुकतकम्मकारी, 
धम्मे ठितो किन्ति लभेथ दुक्खं॥


"(यह) ऋजु है, टेढापन-रहित है, अशठ (जो गुण अपने अंदर नहीं है उसे दिखाने वाला नहीं) है, अमायावी (अपनी गलतियों को छिपाने वाला नहीं) है, बहाने बनाने वाला नहीं है तथा (माया, शठता के माध्यम से वचन) नहीं निकालता है। इस तरह के, शुभ कर्मों को करने वाले, धर्म में स्थित (व्यक्ति) को दुःख कैसे मिलेगा?

“तंकारणा पातुकतोम्हि अत्तना, 
तस्मा धम्मं पस्सथ वाणिजासे।
अञ्ञत्र तेनिह भस्मी भवेथ, 
अन्धाकुला विप्पनट्ठा अरञ्ञे।
तं खिप्पमानेन लहुं परेन, 
सुखो हवे सप्पुरिसेन सङ्गमो”ति॥


"उस उपासक के कारण ही मैंने अपने आप को प्रकट किया है, इसलिए, व्यापारियों, धर्म को देखो। (उस उपासक के) बिना तुम लोग यहाँ राख बन जाते, दूसरों के द्वारा आसानी से उत्पीड़न किये जाने पर अन्धे की तरह उलझ कर रेगिस्तान-बियाबान में विनष्ट हो जाते। सत्पुरुषों की संगति सचमें सुखदायी होती है।"

देवपुत्र के द्वारा इस प्रकार प्रशंसा किये जाने पर व्यापारियों ने उसे जानने की इच्छा से इस गाथा को कहा–

“किं नाम सो किञ्च करोति कम्मं,
किं नामधेय्यं किं पन तस्स गोत्तं।
मयम्पि नं दट्ठुकामम्ह यक्ख, 
यस्सानुकम्पाय इधागतोसि।
लाभा हि तस्स यस्स तुवं पिहेसी”ति॥ 


"उस (व्यक्ति का) क्या नाम है? वह कौनसा काम करता है? वह किस नाम वाला है और उसका गोत्र क्या है? यक्ष, हम भी उसे देखना चाहते हैं, जिसके ऊपर अनुकम्पा करके तुम यहाँ आये हो। वास्तव में यह उसका लाभ है जिसे तुम प्रेम करते हो।"

तब देवपुत्र ने उसका नाम-गोत्र आदि बताते हुए यह कहा–

“यो कप्पको सम्भवनामधेय्यो,
उपासको कोच्छफलूपजीवी।
जानाथ नं तुम्हाकं पेसियो सो,
मा खो नं हीळित्थ सुपेसलो सो”ति॥


"जो 'सम्भव' नाम वाला नाई है, वह उपासक जो कोच्छ (brush) तथा फलक (blade) से अपना जीवन-यापन करता है, तुम लोग उसे जानते हो, वह तुम लोगों का नौकर है, उसे घिन की दृष्टि से मत देखो, वह बहुत प्रिय-शील है।"

तब व्यापारियों ने उसके बारे में जानकर यह कहा–

“जानामसे यं त्वं पवदेसि यक्ख,
न खो नं जानाम स एदिसोति।
मयम्पि नं पूजयिस्साम यक्ख, 
सुत्वान तुय्हं वचनं उळार”न्ति॥


"यक्ष, जिसके बारे में आप बताते हैं उसे हम जानते हैं, पर हम यह नहीं जानते थे कि वह इस प्रकार (के गुणों वाला) है। यक्ष, तुम्हारे महान वचन को सुनकर हम भी उसकी पूजा करेंगें।"

फिर देवपुत्र ने उन लोगों को अपने विमान पर बैठाकर, सिखाने के लिए इस गाथा को कहा–

“ये केचि इमस्मिं सत्थे मनुस्सा, 
दहरा महन्ता अथवापि मज्झिमा।
सब्बेव ते आलम्बन्तु विमानं, 
पस्सन्तु पुञ्ञानं फलं कदरिया”ति॥


"इस कारवाँ में जो कोई भी मनुष्य हैं, युवा, वृद्ध या फिर मध्यम (middle aged), वे सभी (मेरे इस) विमान के ऊपर चढ़ जाएं, कंजूस लोग पुण्य-कर्मों के फल को देखें।"