"भिक्षुओं, ये तीन विपत्तियाँ हैं। कौन सी तीन ? शील-विपत्ति, चित्त-विपत्ति, दृष्टि-विपत्ति।
"भिक्षुओं, शील-विपत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) प्राणी-हिंसा करता है, चोरी करता है, काम-भोग सम्बन्धी मिथ्याचार करता है, झूठ बोलता है, चुगली करता है, कठोर (वचन) बोलता है, व्यर्थ बोलता है। भिक्षुओं, इसे शील-विपत्ति कहते हैं।
"भिक्षुओं, चित्त-विपत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) लोभी होता है, ब्यापन्न-चित्त (क्लेश से ग्रसित चित्त वाला) होता है। भिक्षुओं, इसे चित्त-विपत्ति कहते हैं।
"भिक्षुओं, दृष्टि-विपत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) मिथ्या-दृष्टि वाला होता है, विपरीत-दर्शन वाला होता है – 'दान (का फल) नहीं है, यज्ञ (का फल) नहीं है, आहुति (का फल) नहीं है, अच्छे-बुरे किये गए कर्मों का फल-विपाक नहीं है, यह लोक नहीं है, परलोक नहीं है, माता (की सेवा का फल) नहीं है, पिता (की सेवा का फल) नहीं है, ओपपातिक सत्व नहीं है, लोक में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण नहीं हैं जो सम्यक-मार्ग पर आकर, सम्यक-प्रतिपन्न होकर, इस लोक और पर-लोक को स्वयं अभिज्ञा से साक्षात करके बताते हैं।' भिक्षुओं, यह दृष्टि-विपत्ति कहलाती है।
"भिक्षुओं, शील-विपत्ति के कारण प्राणी शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर, अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक को प्राप्त होते हैं, अथवा भिक्षुओं, चित्त-विपत्ति के कारण प्राणी शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक को प्राप्त होते हैं ,अथवा भिक्षुओं, दृष्टि-विपत्ति के कारण प्राणी, शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर अपाय, दुर्गति, विनिपात, नरक को प्राप्त होते हैं। भिक्षुओं, ये तोन विपत्तियाँ हैं।
"भिक्षुओं, ये तीन सम्पत्तियाँ हैं? कौन सी तीन ? शील-सम्पत्ति, चित्त-सम्पत्ति, दृष्टि-सम्पत्ति।
"भिक्षुओं, शील-सम्पत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) प्राणी-हिंसा से विरत होता है, चोरी से विरत होता है, काम-भोग सम्बन्धी मिथ्याचार से विरत होता है, झूठ बोलने से विरत होता है, चुगली करने से विरत होता है, कठोर (वचन) बोलने से विरत रहता है, व्यर्थ बोलने से विरत रहता है। भिक्षुओं, इसे शील-सम्पत्ति कहते हैं।
"भिक्षुओं, चित्त-सम्पत्ति क्या है ? भिक्षुओं, यहाँ कोई (व्यक्ति) अलोभी होता है, अब्यापन्न-चित्त वाला होता है। भिक्षुओं, इसे चित्त-सम्पत्ति कहते हैं।
"भिक्षुओं, दृष्टि-सम्पत्ति किसे कहते हैं ? भिक्षुओं, एक आदमी सम्यक्-दृष्टि वाला होता है, अविपरीत-दर्शन वाला होता है – 'दान (का फल) है, यज्ञ (का फल) है, आहुति (का फल) है, अच्छे-बुरे किये गए कर्मों का फल-विपाक होता है, यह लोक है, परलोक है, माता (की सेवा का फल) है, पिता (की सेवा का फल) है, ओपपातिक सत्व है, लोक में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-मार्ग पर आकर, सम्यक-प्रतिपन्न होकर, इस लोक और पर-लोक को स्वयं अभिज्ञा से साक्षात करके बताते हैं।' भिक्षुओं, इसे दृष्टि-सम्पत्ति कहते हैं।
"भिक्षुओं, शील-सम्पत्ति के कारण प्राणी शरीर के न रहने पर, मरने के अनन्तर, सुगति स्वर्ग-लोक में उत्पन्न होते हैं, अथवा भिक्षुओं, चित्त-सम्पत्ति के कारण प्राणी शरीर छूटने पर, मरने के अनन्तर सुगति स्वर्ग-लोक में उत्पन्न होते हैं, अथवा भिक्षुओं, दृष्टि-सम्पत्ति के कारण प्राणी शरीर छूटने पर, मरने के अनन्तर सुगति स्वर्ग-लोक में उत्पन्न होते हैं। भिक्षुओं, ये तीन सम्पत्तियाँ हैं।"
🌸 अंगुत्तरनिकाय ३.१२.५, सुत्तपिटक