एक समय था जब उस्ताद राशिद ख़ान रियाज़ से दूर भागते थे। अनुशासनप्रिय नहीं थे। जब तक उन्हें कोई विषय पसंद नहीं होता तब तक उन्हें कोई बैठा नहीं सकता था। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके गुरु भी इस मामले को लेकर परेशान रहते थे। एक दिन उन्होंने अप्पाजी (विदुषी गिरिजा देवी) को सुना और उनकी ठुमरी से राशिद साहब को प्रेम हो गया। मोहम्मद रफ़ी के गाने पसंद आने लगे। समय के साथ समझ बढ़ी और धीरे-धीरे गायिकी के प्रति उनका लगाव भी। अपने गुरु और नाना उस्ताद निसार हुसैन ख़ान से तालीम ली और रामपुर-सहसवान घराने की परंपरा को विस्तार दिया।
बॉलीवुड के गीत 'आओगे जब तुम ओ साजना' ने उन्हें युवाओं के बीच ऐसी लोकप्रियता से नवाज़ा कि कॉन्सर्ट्स में युवा पीढ़ी इसी गीत के बहाने घंटों ख़याल गायिकी सुनती रहती। 'याद पिया की आए' के लिए चिल्ला चिल्लाकर फ़रमाइश करते लोग मैंने अपनी आँखों से देखे हैं। 'ये दु:ख सहा न जाए' के बाद हल्की सी आँख मीचकर, झटके से हाथ पीछे ले जाते हुए राशिद ख़ान जब 'हाय राम' पर मुरकी लेते थे तो क्या 'वाह' और क्या 'आह', कोई सराहे बिन नहीं रह पाता था। उनके एक आलाप पर सीटी मारते हुए युवा देखे हैं, मैंने। वह कहते भी थे कि यदि पॉपुलर गीतों के ज़रिए युवाओं के भीतर शास्त्रीय गायन के प्रति रुचि पैदा होती है तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। जैज़ से लेकर ग़ज़ल गायकों के साथ मंच साझा करने से वह कभी नहीं कतराए। इंस्टा पर सक्रिय रहे लेकिन शास्त्रीय संगीत और अपने घराने की गरिमा का हमेशा ध्यान रखा।
एक गायक को अपनी गायकी से बंदिशों को खोलते रहना चाहिए। उस्ताद राशिद ख़ान ऐसा करते रहे। जब संगीत में आप रागों, अपने घराने और अपने गुरुओं के प्रति समर्पित हो जाते हैं तो आप अनुशासनप्रिय भी हो जाते हैं, हर पीढ़ी के चहेते भी और उस्ताद राशिद ख़ान भी।
(तस्वीर उनके इंस्टा प्रोफ़ाइल से साभार)
अंजुम शर्मा
#RashidKhan #UstadRashidKhan