लोगों का द्वेष चरम पर है। प्रत्यक्ष भी दिख रहा और अप्रत्यक्ष भी। अद्भुत माया है। सनातन धर्म में जन्म पाकर भी अगर पुरा जीवन जलने कुढ़ने और कुंठित होने में ही बीता रहे हो तो तुम्हारे पूर्व के वे सत्कर्म व्यर्थ गयें जिसके कारण मनुष्य योनि में जन्म लिया और पूर्व के पुण्य व्यर्थ गयें जिससे सनातनी गर्भ से तुम्हें जन्म मिला। ठीक है मानवीय गुणों के कारण द्वेष ईर्ष्या होती है परंतु समय रहते उससे निकलने के लिए भगवती बुद्धि दीं हैं। अपनी पूरी बुद्धि अगर पतन में ही लगा रहे हो तो उस मानवीय बुद्धि का क्या लाभ ? किसी से भी उसके सद्गुण सीख लो और दुर्गुणों को छोड़ दो। मुझसे क्रोध और कटु वचन सीखने के जगह बाकी से आध्यात्मिक साधनात्मक आचारण सीख लेते तो अवश्य तुम्हारा मुझसे भी ज्यादा कल्याण होता। किसी के लिए भी मेरा क्रोध और कटु वचन हानिकारक नहीं होता बस कड़वा औषधि के समान उपचार कर देता है। अगर इस भ्रांति में बैठे हो की किसी को चार बात सुनाकर फिर पुनः हम उसका चिंतन भी करते होंगे तो मुर्खों के महामंडलेश्वर हो तुम। इतना समय नहीं है की नीच और लंपटों के अवगुणों का चिंतन करते हुये अपना समय व्यर्थ करें। चिंतन करने के लिये मेरी विंध्यवासिनी के अनंत गुण कथा लीला और विद्याएं हैं। जो सिद्धांत से चलेगा उसका विरोध होगा ही। क्योंकि नीति नियम के अनुशासन से बंधने पर स्वतंत्रतापूर्वक स्वेच्छाचारी आचरणों को छोड़ना कोई नहीं चाहता।
अत एव इतना कुंठित ना होकर मनुष्य जन्म का लाभ ले लो।