सच बताना ...
लड़कों, आखिरी दफा राइट हैण्ड ओवर दी विकेट बाॅलिंग कब की थी?
और लड़कियां, गुड्डे गुड़िया को तैयार कर उनकी शादी कब की थी?
जिन्दगी के वो हिस्से जिये कब थे जिनमें तुमको.... तुमको खुशी मिलती थी? एक टायर वाली गाड़ी जिसे डण्डे से मार मार के चलाते थे किस मोड़ पल छूटी? याद है!
बड़ा होना अच्छा लगा था, अच्छा लगा था जब ऑटो की पिछली सीट को छोड़ पहली दफा आगे बैठे थे। जब पहली बार किसी को देखकर दिल कुछ गुनगुनाया था। जब लंगोटिया दोस्तों के साथ सड़क पर "तेरा जैसा यार कहाँ" गाते हुये पहली दफा साइकिल का हैण्डिल छोड़ा था...
लेकिन शायद वहीं कहीं किस्मत भी छूट गयी। जब पहली दफे रोना आया था बड़े होने पर तो न जाने क्यूं बचपन के जैसे रो नहीं पाये। गला भर आया, सीने में सब भर सा गया पर आखें.... आखें अकेले में ही खामोशी से बह पायीं जबकि हम दहाड़ मार के नाक बहाते हुये रोना चाहते थे। ससुरी आँख तो अपने दर्द बहा गयी पर सीने में जो भरा था वो वहीं थम गया और अब भी चुभता है।
पापा की प्रिया स्कूटर को चलाने के लिये बड़े होना चाहा था एक बार बचपन में, और पता नहीं लगा कब स्कूटर से लाख रूपये की बाइक तक आ गये। अब बच्चा होना चाहते हैं उस बच्चे की तरह से मुस्कुराने के लिये जिसे दर्द का पता न था और सड़क पर अपनी गड़ारी लिये चला जा रहा था... पर एक उम्र गुजरी अब तक बच्चा न बने। बड़ा होना चाहा था तो वक्त से पहले हो गये लेकिन फिर बचपन चाहा तो नहीं दे रही....
जिन्दगी धोखेबाज है बे, बड़ी धोखेबाज है। ❤️